दरवाजे पर लगी नाम की तख्ती पर उस ने एक नजर डाली, जो अरहर की टाटी में गुजराती ताले की तरह लगी हुई थी. तख्ती पर लिखा ‘मिर्जा अख्तर’ का नाम पढ़ कर वह रुक गई. मन ही मन उन का नाम उस ने कई बार दुहराया और इमारत को गौर से देखने लगी. अंगरेजों के जमाने की बेढंगी जंग लगी पुरानी इमारत थी वह, जिस की दाईं तरफ का कुछ हिस्सा फिर से बसाया गया था और उस पर 3-4 मंजिलें चढ़ाई गई थीं. उन सब में लोग दड़बों में चूजों की तरह भरे होंगे,

यह बाहर से दिख जाता था. सैकड़ों कपड़े बाहर बरामदे में सूख रहे थे और ज्यादातर लड़कियों के ही थे. पुराने हिस्से में बहुत दिनों से शायद सफेदी नहीं हुई थी. जगहजगह कबूतरों की बीट से सफेद निशान पड़े हुए थे. कुलमिला कर ‘नूर’ को वह मकान कबूतरों का दड़बा लग रहा था. नूर कुछ देर तक तो अवाक रह गई. सोचा, सचमुच बड़े शहरों में आबादी की बढ़ती समस्या मकान ढूंढ़ने वालों के लिए महंगाई से भी भयानक बीज बन गई है. और वह भी दिल्ली में, जहां अकेला आया हुआ इनसान 4 बच्चों का बाप तो बन सकता है, मगर एक अदद मकान का मालिक नहीं. आजकल वैसे भी मुसलमानों को रहने की जगह कम ही मिल पाती है. नूर भी दिल्ली में नई ही थी. सचिवालय में नौकरी पाने के बाद मकान की समस्या उस के लिए सिरदर्द बन गई थी. कुछ दिन तो उस ने होटल में गुजारे थे, फिर साथ काम करने वाली एक लड़की के साथ एक कमरे में रहने लगी थी.

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