राजस्थान: राजनीति की भेंट चढ़ी श्रद्धांजलि सभा  

कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को श्रद्धांजलि देने के लिए 12 सितंबर, 2022 को पुष्कर में एक श्रद्धांजलि सभा हुई. इस सभा में कांग्रेस सरकार के मंत्री अशोक चांदना पर जूतेचप्पल फेंके गए, लेकिन सब से बड़ी बात यह कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को भाषण नहीं देने दिया गया.

जिस बेटे का पिता मुख्यमंत्री हो, उसे अपने पिता के शासन वाले राज्य में भाषण नहीं देने दिया जाए, इस से बड़ी कोई राजनीतिक घटना नहीं हो सकती. 12 सितंबर को पुष्कर में गुर्जरों की सभा में जोकुछ भी हुआ, उस से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को राजस्थान के हालात का अंदाजा लगा लेना चाहिए. ऐसे हालात तब हैं, जब महज 14 महीने बाद वहां विधानसभा चुनाव होने हैं.

सवाल उठता है कि आखिर मुख्यमंत्री के बेटे और सरकार के मंत्रियों को ले कर गुर्जर समुदाय में इतना गुस्सा क्यों है? सब जानते हैं कि जुलाई, 2020 के राजनीतिक संकट के समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बरखास्त उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को धोखेबाज, नालायक और मक्कार तक कहा था. यह बात अलग है कि साल 2018 में गुर्जर समुदाय के सचिन पायलट के चलते ही प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी.

सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने को ले कर गुर्जर समुदाय में इतना उत्साह था कि भाजपा के सभी गुर्जर उम्मीदवार चुनाव हार गए थे. पर सचिन पायलट के बजाय अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने से गुर्जर समाज में नाराजगी देखी गई. यह नाराजगी तब और ज्यादा बढ़ गई, जब अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को नालायक कहा था.

अशोक गहलोत मानें या न मानें, लेकिन जुलाई, 2020 में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया गया, उसी का नतीजा रहा कि गुर्जरों की सभा में वैभव गहलोत को बोलने तक नहीं दिया गया. सवाल यह भी है कि आखिर वैभव गहलोत गुर्जरों की सभा में क्यों गए?

जानकारों के मुताबिक, पुष्कर को अपनी जागीर मानने वाले आरटीडीसी के अध्यक्ष धर्मेंद्र राठौड़ की रणनीति के तहत वैभव को गुर्जरों की सभा में लाया गया. इस के लिए उन्होंने ही कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के बेटे विजय बैंसला से वैभव को फोन करवाया. धर्मेंद्र राठौड़ ने ही अशोक गहलोत को बताया था कि वे वैभव को गुर्जरों की सभा में ले जा रहे हैं.

धर्मेंद्र राठौड़ को उम्मीद थी कि वैभव गहलोत बड़ी शान से गुर्जरों को संबोधित करेंगे, लेकिन सभा में जो उपद्रव हुआ, उस में धर्मेंद्र राठौड़ और वैभव गहलोत को पुलिस संरक्षण में सभा स्थल से महफूज जगह पर जाना पड़ा.

12 सितंबर, 2022 को पुष्कर के मेला मैदान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के मुखिया रहे कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम था. यह पूरी तरह सामाजिक आयोजन था, लेकिन सभा से पहले ही कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के बेटे विजय बैंसला ने राजनीति शुरू कर दी.

विजय बैंसला ने जिस तरह राजनीतिक बयानबाजी की, उस से सभा का माहौल और गरम हो गया. यही वजह रही कि अनेक नेताओं ने राजनीतिक भाषण दिया. नतीजतन, यह सभा श्रद्धांजलि सभा से ज्यादा राजनीतिक मंच बन गई.

जब कांग्रेस सरकार के खेल मंत्री अशोक चांदना और उद्योग मंत्री शकुंतला रावत (गुर्जर) भाषण देने आए, तो उपद्रव हो गया. राजनीतिक भाषणबाजी के चलते कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को श्रद्धांजलि भी नहीं दी जा सकी. कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान की वजह से श्रद्धांजलि सभा राजनीति की भेंट चढ़ गई.

12 सितंबर, 2022 को जिस तरह पुष्कर में उपद्रव के दौरान सरकार के मंत्रियों को बोलने तक नहीं दिया गया, उस मामले में अब अजमेर प्रशासन पर गाज गिर सकती है. जानकार सूत्रों के मुताबिक, पुष्कर मामले को ले कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत गंभीर हैं. यह माना जा रहा है कि हालात को भांपने में अजमेर प्रशासन नाकाम रहा.

मुख्यमंत्री की कबड्डी

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन दिनों चौतरफा घिरे हुए हैं और विरोधियों से अकेले ही जूझ रहे हैं. चेहरे पर निराशा का भाव न आए, इसलिए 14 सितंबर, 2022 को उदयपुर के गोगुंदा में आयोजित ग्रामीण ओलिंपिक खेलों में उन्होंने खुद भी नौजवानों के साथ कबड्डी खेली.

अशोक गहलोत की उम्र 71 साल के पार है और अब कबड्डी जैसा जोखिम भरा खेल खेलना मुमकिन नहीं है, लेकिन विरोधियों को चुनौती देने के लिए अशोक गहलोत ने गोगुंदा में कबड्डी खेली.

दरअसल, अशोक गहलोत को भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के असंतुष्टों से खतरा है.

12 सितंबर, 2022 को पुष्कर में आयोजित गुर्जरों के प्रोग्राम में जिस तरह से पुत्र वैभव गहलोत और सरकार के मंत्रियों को बोलने तक नहीं दिया गया, उस से जाहिर है कि अशोक गहलोत को अपनों से ही ज्यादा परेशानी है.

कांग्रेस के नेताओं को जब मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना, मुफ्त दवा और जांच, सवा करोड़ महिलाओं को मुफ्त स्मार्टफोन, मनरेगा की तरह शहरी क्षेत्रों में युवाओं को 100 दिन के रोजगार देने की गारंटी, बिजली के बिल में मोटी सब्सिडी जैसी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए, तब कांग्रेस के ही नेताओं और विधायक गुर्जरों के प्रोग्राम में मंत्रियों और वैभव गहलोत को नहीं बोलने देने का मुद्दा उछाल रहे हैं.

सब जानते हैं कि अशोक गहलोत पिछले एक साल से कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में भी सक्रिय हैं. दिल्ली जा कर केंद्र सरकार के खिलाफ मोरचा खोलने का नतीजा ही है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अशोक गहलोत के गृह जिले जोधपुर में आ कर सार्वजनिक सभा की.

इतना ही नहीं, अशोक गहलोत के गृह राज्य मंत्री राजेंद्र यादव के परिवार के सदस्यों के व्यावसायिक ठिकानों पर इनकम टैक्स के छापे बताते हैं कि आने वाले दिनों में अशोक गहलोत के मंत्रियों व पहचान वालों पर छापामार कार्यवाही होगी.

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का ऐसा कोई नेता नहीं है, जो चौतरफा घिरे अशोक गहलोत का बचाव कर सके. कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले गांधी परिवार का बचाव तो खुद अशोक गहलोत ही कर रहे हैं. कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर अशोक गहलोत के मुकाबले कोई नेता नहीं है, इसलिए उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव है. पर पुष्कर में वैभव गहलोत और उन के मंत्रियों के साथ जो गलत बरताव हुआ है, उस से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बेहद आहत हैं.

पुष्कर में सचिन पायलट समर्थकों ने ही अपनी भावनाओं को प्रदर्शित किया था. 12 सितंबर, 2022 की घटना के बाद अभी तक दोनों नेताओं की प्रतिक्रिया का सामने न आना बहुतकुछ दिखा रहा है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जो राजनीतिक संघर्ष चल रहा है, उस के नतीजे अब जल्द ही देखने को मिलेंगे.

नागौर में बर्बरता की हद पार: पेट्रोल से गीले कपड़े को प्राइवेट पार्ट में डाला

राजस्थान के नागौर जिले के एक गांव पांचौड़ी में चोरी के आरोप में 2 दलित नौजवानों को इतनी बुरी तरह पीटा गया कि देखने वालों के होश फाख्ता हो गए. उन दलित लडक़ों को अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए. जो हुआ सो हुआ, पर इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई.

पीडि़त ने अपनी शिकायत में कहा है कि वह 16 फरवरी को अपने चचेरे भाई के साथ बाइक की ठीक कराने के लिए करणु गांव में एजेंसी में गया था. वहां कुछ लोगों ने उन पर ही चोरी का आरोप लगा दिया. जब उन युवकों ने कहा कि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वे उन दोनों युवकों को एजेंसी के पीछे ले गए और वहां जम कर पिटाई की. इतना ही नहीं, आरोपियों ने पेट्रोल से गीले कपड़े को पेचकस से लपेट कर उनके प्राइवेट पार्ट में डाल दिया. भयावह नजारा. वहां मौजूद लोग तमाशबीन बने रहे. परंतु इस बेरहमी का यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और राजनीतिक सियासत गरमा गई.

वीडियो हुआ वायरल…

वीडियो वायरल होते ही एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में कांग्रेस शासित सरकार पर हमला किया, वहीं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी और राहुल गांधी से भी इस घटना को ले कर सवाल भी पूछे गए. पर वे सटीक जवाब नहीं दे पाए. इतना ही कहा कि राजस्थान सरकार इस घटना पर फौरन कार्यवाही करे.

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राहुल गांधी ने किया ट्ववीट…

राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा है कि राजस्थान के नागौर में 2 दलित लडक़ों को बुरी तरह से पीटने का मामला सामने आया है. मैं राज्य सरकार से आग्रह करता हूं कि वह इस घटना को संज्ञान में ले कर कार्यवाही करे, ताकि पीडि़तों को इंसाफ मिल सके.

The recent video of two young Dalit men being brutally tortured in Nagaur, Rajasthan is horrific & sickening. I urge the state Government to take immediate action to bring the perpetrators of this shocking crime to justice.

— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) February 20, 2020

वहीं, उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता शलभमणि त्रिपाठी ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि ‘राहुल जी, प्रियंका जी, ये भी दलित हैं. बस, फर्क केवल इतना है कि ये बर्बर अत्याचार आप की हुकूमत वाले राजस्थान में हो रहा है, इसीलिए इन का दर्द आप को नजर नहीं आएगा. सहानुभूति का सियासी नाटक फैलाने के लिए तो आप को भाजपा शासित राज्य चाहिए. हद है इस ओछी सियासत की.’

अशोक गहलोत ने दी सफाई…

जैसे ही विपक्ष ने इस मामले पर कांग्रेस को घेरा, तो तुरंत ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सफाई दी कि नागौर में हुई भयावह घटना के बाद तुरत कार्यवाही करते हुए सभी सातों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है. कानून के मुताबिक अपराधियों को सजा मिलेगी.

In the horrific incident in Nagaur, immediate and effective action has been taken and seven accused have been arrested so far. Nobody will be spared. The culprits will be punished according to the law and we will ensure that the victims get justice.

— Ashok Gehlot (@ashokgehlot51) February 20, 2020

पर ऐसा करने से पहले उन्हें आगापीछा भी सोचना चाहिए. यह तो बेरहमी की हद ही है. इन दलित लडक़ों का क्या कुसूर जो बिना वजह का आरोप इन पर थोपा गया.  यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि आरोपियों की सजा क्या तय हुई, पर इन दलित नौजवानों के साथ जो हुआ, बहुत बुरा हुआ.

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जमीन से बेदखल होते गरीब और आदिवासी

देश के कुदरती संसाधनों यानी जल, जंगल, जमीन पर सभी नागरिकों का समान हक है. कहने को यह बात बड़ी अच्छी लगती है, मगर असलियत में हो क्या रहा है, इस समझने के लिए हाल ही में राजस्थान में घटे 2 मामले काफी हैं:

मामला 1

झुंझुनूं के गुढ़ा उदयपुरवाटी गांव में 25 सदस्यों की वन विभाग की टीम बाबूलाल सैनी के घर में पहुंचती है और घर को हटाने की तैयारी करती है.

बाबूलाल का यहां टीनशैड का पुश्तैनी मकान है, जो उसे अपने बापदादा से विरासत में मिला है.

जोरआजमाइश के बीच बाबूलाल खुद को तेल डाल कर आग के हवाले कर देता है. गंभीर हालत में वह झुंझुनूं के एक अस्पताल से होते हुए जयपुर अस्पताल में भरती हो जाता है.

बाबूलाल का भाई मोतीलाल कहता है कि उन को पहले कोई कानूनी नोटिस नहीं दिया गया.

मामला 2

नागौर के राउसर की बंजारा बस्ती को हटाने के लिए जेसीबी समेत भारी पुलिस व प्रशासनिक अमला मौके पर पहुंचता है. जेसीबी चला कर कच्चेपक्के मकानों को तोड़ दिया जाता है.

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इस दौरान बस्ती के तमाम लोगों व प्रशासनिक अमले के बीच झड़प शुरू हो जाती है. नतीजतन, जेसीबी चालक के सिर पर चोट लगने से उस की मौके पर ही मौत हो जाती है.

इस देश में विकास के नाम पर 14 राज्यों में करोड़ों आदिवासियों को उन जमीनों से खदेड़ कर फेंका गया है, जिन पर वे सैकड़ों साल से रह रहे थे.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में 10 आदिवासियों को भी गुंडों ने इसीलिए मार दिया था.

राजस्थान में पिछले दिनों शेखावटी इलाके में एक किसान ने खुद पर तेल छिड़क कर इसलिए आग लगा ली थी, क्योंकि 3 पीढ़ी जिस जमीन पर रहती आई थीं, उस को अवैध कब्जा बता कर प्रशासन तोड़ने पहुंच गया था.

नागौर में 25 अगस्त, 2019 को जिस बस्ती वालों को उजाड़ा गया, उन के उस पते पर वोटर आईडी कार्ड, आधारकार्ड बने हुए थे. बिजली विभाग के दिए कनैक्शन थे. ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत सरकार ने शौचालय बनवाए थे.

मतलब, उस पते पर हर वह दस्तावेज बना हुआ था, जो भारत के नागरिक के पास होता है, फिर यह गैरकानूनी कब्जा कैसे हो गया? अगर यह गैरकानूनी कब्जा था तो गांव के सरपंच, पटवारी, तहसीलदार, एसडीएम, डीएम, बिजली विभाग के एईएन, बीडीओ वगैरह इस के जिम्मेदार व कुसूरवार हैं.

बात सिर्फ यह नहीं है कि यह अवैध कब्जा था, बल्कि असल बात भूमाफिया व अधिकारियों की मिलीभगत की है. नागौर शहर की आधी से ज्यादा सरकारी जमीन पर भूमाफिया का कब्जा है और उस को हटाने का कोर्ट का आदेश भी है, मगर अधिकारी उन का हरमुमकिन बचाव कर रहे हैं, क्योंकि बात हिस्सेदारी की है.

आजादी से पहले इस देश में हर नागरिक को सरकारी जमीन पर रहने का हक था. आजादी के बाद हुई पहली पैमाइश में जहांजहां भी लोग स्थायी रूप से रह रहे थे, उसे आबादी भूमि दर्ज कर के तत्कालीन स्थायी आवास करने वाली जनसंख्या को आवास का अधिकार तो दे दिया, पर इन दिनों घुमक्कड़ रह कर जिंदगी बिताने वाली बंजारा, गाडि़या लोहार, बागरिया, कंजर, नाथ, जोगी, सपेरा जैसी अनेक जातियों को आवास के लिए किसी न किसी सरकारी जमीन पर ही बसना पड़ा.

लोकतंत्र में लोक जब जातिधर्म में बिखर जाता है, तो गुंडेमवाली जोरजुल्म करने लग जाते हैं. विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की जमीनों की जांच की जाए तो 99 फीसदी के फार्महाउस, बंगले गैरकानूनी कब्जे की जमीन पर मिलेंगे.

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राजस्थान का ही हाल देखा जाए तो आधी आबादी वन भूमि, गोचर, पहाड़ी, पड़त, बंजर वगैरह इलाकों में रहती है और हजारों सालों से रह रही है. आजादी के बाद भूसुधार अधिनियम लागू करना था, मगर तत्कालीन राजारजवाड़ों से निकले नेताओं की हठ के चलते ठीक से लागू नहीं हो पाया.

निजी कंपनियों को ये ही जमीनें कौडि़यों के भाव में दी जा रही हैं. जगहजगह भूमाफिया ने सरकारी जमीनों पर कब्जा कर रखा है, जिस में नेताओं का संरक्षण व हिस्सेदारी शामिल है.

आजादी के बाद राजस्थान के तत्कालीन किसान नेताओं ने टेनेंसी ऐक्ट के जरीए किसानों को खेती वाली जमीन का मालिक जरूर बना दिया, मगर उन के घरों के संबंध में ठोस कानून नहीं बन पाए.

वजह यह है कि मुख्यधारा से कटी भारत के वनों पर आश्रित एक बड़ी आबादी को देश की सर्वोच्च अदालत में अपना आशियाना बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

हाल ही में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च अदालत ने वनों पर आश्रित आदिवासी समुदायों को अतिक्रमणकारी घोषित करते हुए वनभूमि से बेदखल करने का फरमान सुनाया था.

संसद में 18 दिसंबर, 2006 को अनुसूचित जाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 सर्वसम्मति से पास किया गया था. एक साल बाद 31 दिसंबर, 2007 को इसे लागू करने की अधिसूचना जारी की गई थी.

इस से पहले भारत में वनों के संबंध में साल 1876 से साल 1927 के बीच पास किए गए भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों को ही लागू किया जाता था. एक लंबे वक्त तक साल 1927 का वन कानून ही भारत का वन कानून रहा.

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हालांकि ऐसे किसी भी कानून का पर्यावरण और वन सरंक्षण से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन फिर भी पर्यावरण और वन संरक्षण के नाम पर जहांतहां इस का बेजा इस्तेमाल किया जाता रहा. भारत सरकार की टाइगर टास्क फोर्स ने भी यह माना है कि वन संरक्षण के नाम पर गैरकानूनी और असंवैधानिक रूप से जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है.

दलित दूल्हा घोड़ी नहीं चढ़ेगा

गुरुवार. 13 दिसंबर, 2018. बरात पर पथराव व मारपीट. दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारा गया. राजस्थान के अलवर जिले के लक्ष्मणगढ़ थाना इलाके के गांव टोडा में गुरुवार, 13 दिसंबर, 2018 को दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारने और बरात पर पथराव व मारपीट करने का मामला सामने आया.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, गांव टोडा के हरदयाल की बेटी विनिता की शादी के लिए पास के ही गांव गढ़काबास से बरात आई थी.

बरात ज्यों ही गांव में घुसी, राजपूत समाज के 2 दर्जन से भी ज्यादा लोग लाठियां व सरिए ले कर बरातियों पर टूट पड़े. इस दौरान दर्जनभर लोगों को गंभीर चोटें आईं.

बाद में सूचना मिलने पर मौके पर पहुंचे पुलिस प्रशासन ने दूल्हे की दोबारा घुड़चढ़ी करा कर शादी कराई.

शादियों के मौसम में तकरीबन हर हफ्ते देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर आ ही जाती है. इन घटनाओं में जो एक बात हर जगह समान होती है, वह यह कि दूल्हा दलित होता है, वह घोड़ी पर सवार होता है और हमलावर ऊंची जाति के लोग होते हैं.

दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं कर सकते थे. न सिर्फ ऊंची जाति वाले बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी अगड़ों की रस्म है, लेकिन अब दलित इस फर्क को नहीं मान रहे हैं. दलित दूल्हे भी घोड़ी पर सवार होने लगे हैं.

यह अपने से ऊपर वाली जाति के जैसा बनने या दिखने की कोशिश है. इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है जिस ने दलितों में भी बराबरी का भाव पैदा कर दिया है. यह पिछड़ी जातियों से चल कर दलितों तक पहुंचा है.

ऊंची मानी गई जातियां इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. उन के हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना ऊंची जाति वालों का ही हक है और इसे कोई और नहीं ले सकता. वैसे भी जो ऊंची जातियां दलितों के घोड़ी चढ़ने पर हल्ला कर रही हैं, आजादी तक वे खुद घोड़ी पर चढ़ कर शादी नहीं कर सकती थीं.

आजादी के बाद पिछड़ी जातियों के जोतहारों को जमीनें मिल गईं और ऊंची जातियों के लोग गांव छोड़ कर शहर चले गए तो वे जातियां खुद को राजपूत कहने लगी हैं.

लिहाजा, वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रही हैं. हिंसा उन में से एक तरीका है और इस के लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए भी तैयार हैं.

देश में लोकतंत्र होने के बावजूद भी ऊंची जाति वालों में यह जागरूकता नहीं आ रही है कि सभी नागरिक बराबर हैं.

जब तक बराबरी, आजादी और भाईचारे की भावना के साथ समाज आगे बढ़ने को तैयार नहीं होगा, तब तक सामाजिक माहौल को बदनाम करने वाली इस तरह की घटनाएं यों ही सामने आती रहेंगी.

ऐसी घटनाएं हजारों सालों की जातीय श्रेष्ठता की सोच का नतीजा है जो बारबार समाज के सामने आता रहता है या यों कहें कि कुछ लोग आजादी समझ कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो तथाकथित ऊंचे लोगों के अंदर का शैतान खुलेआम नंगा नाच करने को बाहर आ जाता है.

जिस राजस्थान को राजपुताना कहा जाता है वह रामराज्य का समानार्थी सा लगता है. दोनों का गुणगान तो इस तरह किया जाता है कि जैसे दुनिया में इन से श्रेष्ठ सभ्यता कहीं रही ही नहीं होगी, मगर जब इन दोनों की सचाई की परतें खुलती जाती हैं तो हजारों गरीब इनसानों की लाशों की सड़ांध सामने आने लगती है और वर्तमान आबोहवा को दूषित करने लगती है.

रामराज्य के समय के ऋषिमुनियों और राजपुताना के ठाकुरों व सामंतों में कोई फर्क नहीं दिखता. रामराज्य में औरतें बिकती थीं. राजा व ऋषि औरतों की बोली लगाते थे. राजपुताना के इतिहास में कई ऐसे किस्से हैं जहां शादी के पहले दिन पत्नी को ठाकुर के दरबार में हाजिरी देनी होती थी. सामंत कब किस औरत को पकड़ ले, उस के विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

माली शोषण मानव सभ्यता के हर समय में हर क्षेत्र में देखा गया, मगर दुनिया में दास प्रथा से भी बड़ा कलंक ब्राह्मणवाद रहा है जिस में शारीरिक व मानसिक जोरजुल्म सब से ऊंचे पायदान पर रहा है.

जातियां खत्म करना इस देश में मुमकिन नहीं है. अगर कोई जाति खुद को श्रेष्ठ बता कर उपलब्ध संसाधनों पर अपने एकलौते हक का दावा करती है, तो वह कुदरत के इंसाफ के खिलाफ है. कोई जाति खुद को ऊंची बता कर दूसरी जाति के लोगों को छोटा समझती है, वही जातीय भेदभाव है, जो इस जमाने में स्वीकार करने लायक नहीं है.

सब जातियां बराबर हैं, सब जाति के इनसान बराबर हैं और मुहैया संसाधनों पर हर इनसान का बराबर का हक है, यही सोच भारतीय समाज को बेहतर बना सकती है.

दलितों में इस तरह सताए जाने के मामलों की तादाद बहुत ज्यादा है जो कहीं दर्ज नहीं होते, नैशनल लैवल पर जिन की चर्चा नहीं होती.

दरअसल, एक घुड़चढ़ी पर किया गया हमला सैकड़ों दलित दूल्हों को घुड़चढ़ी से रोकता है यानी सामाजिक बराबरी की तरफ कदम बढ़ाने से रोकता है.

भाजपा सरकार व पुलिस अगर दलितों को घोड़ी पर नहीं चढ़वा सकती तो इस परंपरा को ही समाप्त कर दे. पशुप्रेम के नाम पर किसी भी शादी में घोड़ी पर चढ़ना बंद करा जा सकता है.

कर्जमाफी: क्या फटेहाल किसानों को राहत मिलेगी?

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में 3 राज्यों में कांग्रेस ने अपनी पकड़ बना कर यह जता दिया है कि वह दमदार तरीके से वापसी करने को तैयार है. अपने वादों में दम भरने के लिए उसने किसान कर्जमाफी मुद्दे को सब से अहम रखा था.

किसानों का कर्ज तो माफ हुआ ही, साथ ही छत्तीसगढ़ में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सरकार ने धान का समर्थन मूल्य बढ़ा कर वाहवाही भी बटोर ली. पर एक बात समझ से परे रही कि किसानों का जो कर्ज माफ हुआ है, वह किसके पैसों से हुआ है? जनता ने जो टैक्स सरकार को अदा किया उन पैसों से या फिर पार्टी फंड से?

सरकार बनने से पहले नेताओं ने किसानों के कर्ज को माफ करने का ऐलान किया था और आननफानन इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया. लेकिन हकीकत कुछ दिनों बाद सामने आएगी कि इस में कितने किसानों का कर्ज माफ हुआ, कितनों का नहीं. क्योंकि इस तरह के कामों में अनेक नए नए नियम सामने आ जाते हैं, जिस के कारण सभी कर्जदारों को इस का सौ फीसदी फायदा नहीं मिलता.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी रैलियों में सरकार बनने के 10 दिन के भीतर किसानों का कर्ज माफ करने की बात कही थी. सत्ता संभालते ही तीनों राज्यों की सरकारों ने सब से पहला काम किसानों की कर्जमाफी का किया. कहीं किसान आम चुनाव 2019 में बिदक न जाएं इसलिए उन्हें खुश करने के लिए ऐसा किया गया.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी. राजस्थान के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किसानों की कर्जमाफी का ऐलान कर दिया. राज्य सरकार किसानों का 2 लाख रुपए तक का कर्ज माफ करेगी. इससे सरकारी खजाने पर 18,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

इस पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि हम ने 10 दिन की बात कही थी, लेकिन यह तो 2 ही दिन में कर दिया.

कांग्रेसशासित तीनों राज्यों की कर्जमाफी के ऐलान के बाद असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भी किसानों को कर्जमाफी का तोहफा दिया. इस कर्जमाफी का फायदा 8 लाख किसानों को मिल सकता है, जिससे सरकार पर 600 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

वहीं दूसरी ओर गुजरात सरकार ने भी ग्रामीण इलाकों के बिजली उपभोक्ताओं का बिल माफ करने का ऐलान किया. सरकार किसानों के लोन का 25 फीसदी (अधिकतम 25 हजार रुपए) माफ करेगी. इस योजना का लाभ उन किसानों को मिलेगा, जिन्होंने पीएसयू बैंकों और किसान क्रैडिट कार्ड के जरिए लोन लिया था.

रायपुर में मुख्यमंत्री का पद संभालते ही भूपेश बघेल ने नया छत्तीसगढ़ राज्य बनाने का संकल्प दोहराते हुए 3 बड़े फैसले लिए. कांग्रेस सरकार की पहली कैबिनेट मीटिंग में किसानों का 6,100 करोड़ रुपए का कर्ज माफ करने के अलावा धान का समर्थन मूल्य 2,500 रुपए प्रति क्विंटल करने का फैसला लिया गया जबकि तीसरा फैसला झीरम घाटी से संबंधित था.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1,700 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ा कर 2,500 रुपए कर दिया.

वहीं मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ ग्रहण के थोड़ी देर बाद ही किसानों का कर्ज माफ करने के आदेश पर दस्तखत कर दिया था. इस आदेश के साथ ही किसानों को सरकारी और सहकारी बैकों द्वारा दिया गया 2 लाख रुपए तक का अल्पकालीन फसल कर्ज माफ होगा.

इस फैसले के अलावा सरकार ने कन्या विवाह और निकाह योजना में संशोधन कर अनुदान राशि 28,000  से बढ़ा कर 51,000 रुपए करने का फैसला लिया. इस के साथ ही सरकार ने अब सभी आदिवासी अंचलों में जनजातियों में प्रचलित विवाह प्रथा से होने वाले एकल और सामूहिक विवाह में भी मदद देने का फैसला किया है.

मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पहली फाइल साइन की है, वह है किसानों का 2 लाख रुपए तक का लोन माफ करने की. जैसा उन्होंने वादा किया था.

किसान कल्याण और कृषि विकास विभाग, मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव के दस्तखत के साथ जारी एक पत्र में लिखा गया है कि 31 मार्च, 2018 के पहले जिन किसानों का 2 लाख रुपए तक का कर्ज बकाया है, उसे माफ किया जाता है.

बताते चलें कि इस बार मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने कमलनाथ की अगुआई में ही लड़ा था. कमलनाथ को अरुण यादव की जगह मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया और उन की अगुआई में ही पार्टी चुनाव में सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी.

कांग्रेस को बहुमत के लिए जरूरी 116 सीटें अपने दम पर तो नहीं मिलीं लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और निर्दलीयों के सहयोग से वह राज्य में सरकार बनाने में कामयाब हो गई.

लोकसभा चुनाव भी नजदीक ही है. इसी को ध्यान में रखते हुए असम सरकार ने भी किसानों का कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया है. इस कर्जमाफी का फायदा 8 लाख किसानों को मिलेगा. इससे सरकार पर 600 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. इस के अलावा गुजरात सरकार ने भी ग्रामीण इलाकों के बिजली उपभोक्ताओं का बिल माफ करने का ऐलान किया.

वहीं किसानों के लिए एक ब्याज राहत योजना भी होगी, जिस के तहत किसानों को 4 फीसदी ब्याज दर पर लोन दिया जाएगा. इस के अलावा असम सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाली पैंशन को 20,000 से बढ़ा कर 21,000 रुपए करने की तैयारी में है.

कांग्रेसशासित राज्यों में हुई किसानों की कर्जमाफी आम आदमी के लिए परेशानी का सबब तो बना ही, क्योंकि इस का बोझ आने वाले समय में आम आदमी पर पड़ेगा. भले ही कर्जमाफी के फैसले से किसानों की कुछ हद तक चिंता कम हुई हो, पर यह टिकाऊ योजना नहीं है. इस से अच्छा होता कि सरकार उन के भले के लिए कोई ऐसी ठोस योजना तैयार करती तो शायद किसान खुशहाल होता.

मुफ्तखोरी की आदत बढ़ाती सरकारें

3 राज्यों में किसानों से किए गए कर्ज माफी के वादे के बाद कांग्रेस की जीत से अब दूसरे राज्यों में भी कर्ज माफी के वादों की बरसात शुरू हो गई है. असम में कर्ज माफी की घोषणा कर दी गई है. गुजरात में भाजपा सरकार ने भी कर्जमाफी का ऐलान कर दिया है. हरियाणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर ने कहा है कि राज्य में उन की सरकार आने पर किसानों को कर्र्ज मुक्त कर दिया जाएगा. ओडिशा में भी भाजपा ने यह वादा किया है.

चुनावी वादों का हकीकत से सामना करना अब नेताओं के लिए बड़ा मुश्किल साबित हो रहा है. किसानों के किया गया कर्ज माफी का वादा अब राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ की नई सरकारों के लिए मुश्किल हो रहा है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने 41,100 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने की घोषणा तो कर दी पर इन राज्यों के पास इतना बजट ही नहीं है. राजस्थान सरकार इसीलिए अब तक घोषणा नहीं कर पाई है. यहां के नवनियुक्त मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह चुके हैं कि वसुंधरा सरकार ने खजाने में पैसा ही नहीं छोड़ा.

बावजूद इस के असम में 600 करोड़ का कर्ज और गुजरात में 625 करोड़ का बिजली बिल माफ करने की घोषणा की गई है. तीन राज्यों में कर्जमाफी का वादा हिट रहा.

किसानों की कर्जमाफी का केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ गया है. कर्जमाफी का मुद्दा ले कर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर रहे हैं. राहुल गांधी ने कहा कि मोदीजी के पास साढ़े चार साल थे. उन्होंने किसानों का एक रुपया भी माफ नहीं किया. हर किसान का कर्ज माफ होने तक हम मोदीजी को न बैठने देंगे, न सोने देंगे.

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि अगर भाजपा सरकार कर्ज माफ नहीं करती है तो अगले लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में सरकार बनने पर कांग्रेस गारंटी के साथ किसानों का कर्ज माफ करेगी.

असल में हमारे यहां राजाओं द्वारा खैरात बांट कर जयजयकार कराने की प्राचीन आदत है. लोगों को भी मुफ्त की खाने और दान लेने और देने की पुरानी संस्कृति है. इस कार्य को पुण्य माना गया है. राजा ज्यादातर दान ब्राह्मणों से प्रशंसा और अपने प्रचार के लिए दिया करते थे. साथ पुण्य की बात भी उन कन के मन में पुरोहितों द्वारा भर दी जाती थीं.

पुराने राजा रहे हों या आज की सरकारें, मुफ्त में कुछ नहीं दे रहीं. मुफ्त के नाम पर बेवकूफ बनाया जाता है. सरकारों के लिए माफ किए गए उस करोड़ों के कर्ज की भरपाई के लिए तरहतरह के टैक्स लगाना जरूरी हो जाता है.

आर्थिक विशेषज्ञ कह चुके हैं कि कर्ज माफी के वादों से बचना चाहिए. इस से देश पर भार बढ़ता है.सरकारें किसानों की उत्पादकता पर ध्यान नहीं दे रहीं. इस के लिए उन्हें अधिक से अधिक सुविधाएं दी जा सकती हैं. राजनीतिक दल इस तरह के वादों से मुफ्तखोरी की आदत बढ रहे हैं. उन्हें अपनी जेब से तो पैसा देना होता नहीं. कर्ज माफी का पैसा किसानों और आम जनता की जेब से ही निकलेगा.

इन नतीजों से लेने होंगे ये 5 सबक

  1. गलतफहमी छोड़नी होगी BJP को

बीजेपी को इस गलतफहमी से निकलना ही होगा कि सिर्फ मोदी के चेहरे को आगे कर सभी चुनाव जीते जा सकते हैं. 2014 में मोदी का जो आभामंडल दिखा था, 2019 आते-आते उसके बरकरार रहने की सम्भावनाओं पर विराम लगता दिख रहा है. वोटर सिर्फ भाषण के जरिए तसल्ली पाने के मूड में नहीं हैं. वह अपने हित के मुद्दों पर ठोस काम देखना चाहता है. पार्टी के अजेंडे और सरकार की परफार्मेंस पर बात बढ़ी है.

  1. जवाबदेही से बच नहीं सकतीं सरकारें

एंटी-इनकम्बेन्सी (सरकार से नाराजगी) फैक्टर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पार्टी 15 साल से सत्ता में हो या महज 5 साल से, वोटर जानना चाहता है कि चुनाव में जो वादे किए गए थे, उनका क्या हुआ/ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15-15 साल से सत्ता में रहने वाले मुख्यमंत्रियों को जिन सवालों से रूबरू होना पड़ा, वैसे ही सवाल से 5-5 साल से सत्ता में रहे राजस्थान और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों के सामने भी थे.

  1. काम न आई रंग बदलने की कोशिश

बीजेपी को विकास के अजेंडे पर लौटना ही पड़ेगा. बीजेपी कह सकती है कि वह इससे इतर गई ही कब थी, लेकिन जिस तरह से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, जहां पार्टी पिछले 15 बरसों से सत्ता में थी, वहां योगी आदित्यनाथ को आगे कर चुनाव का रंग बदलने की कोशिश हुई, उसने नुकसान ही किया. दोनों सरकारों के काम पर बात कम हुई, जबकि योगी के बयानों पर बहस ज्यादा.

  1. कांग्रेस भी खुशफहमी न पाले

कांग्रेस को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. ऐसा नहीं कि कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर चल रही है, जहां भी चुनाव हुए एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर काम कर रहा था. बीजेपी शासित तीनों राज्यों में उसके मुखालिफ कांग्रेस के अलावा कोई और मजबूत विकल्प नहीं था. अगर कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर होती तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में इतना करीबी मुकाबला नहीं छूटता और तेलंगाना में भी पार्टी को टीआरएस से नहीं पिटना पड़ता.

  1. छोटे दलों की भी बड़ी भूमिका

बीजेपी से जीतना है तो कांग्रेस को बड़ा गठबंधन करना ही होगा. राज्यों में स्थानीय दलों को कमतर आंकना उसकी बड़ी चूक हो सकती है. कर्नाटक में जेडीएस और बीएसपी के साथ तालमेल के लिए लचीला रुख न अपनाने की कीमत उसे चुकानी पड़ी थी लेकिन उससे उसने कोई सबक नहीं लिया. इन चुनावों में उसे बीएसपी और एसपी की अनदेखी का नुकसान उठाना पड़ा. छोटे दल जीतने में कम, हराने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं.

इन नतीजों से 2019 के लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा

माहौल बनाने और बिगाड़ने पर असर पड़ना स्वाभाविक है. नतीजों के बीजेपी के पक्ष में जाने पर मोदी लहर के जारी होने की तस्दीक होती, विपक्ष का मनोबल टूटता. लेकिन अब यह संदेश जाता दिख रहा है कि टक्कर कड़ी है. बीजेपी हार भी सकती है. 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद बीजेपी को सिर्फ दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाव में ही हार का सामना करना पड़ा था, वर्ना बीजेपी लगातार चुनाव जीतती रही है. यहां तक यूपी में भी उसने दो दशक बाद सत्ता में वापसी कर ली थी.

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