तेजस्वी के नजदीकी रिश्तेदार हैं अखिलेश यादव, क्या आपको पता है?

यूपी बिहार के जानेमाने नेता मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव हमेशा ही सुर्खियों में रहे है लेकिन राजनीति में जितने इनके चर्चे है उससे कही ज्यादा इनके आपसी संबंध को लेकर बातें होते है. दोनों नेता मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव एकदूसरे के समधी लगते है. जानिए कैसे?

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Sarassalil (@sarassalil_magazine)


कन्नौज लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाए गए तेज प्रताप सिंह यादव पहले भी सांसद रहे चुके हैं. वह अखिलेश यादव के चचेरे भाई हैं और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के दामाद हैं. लालू यादव की छोटी बेटी राज लक्ष्मी से उनकी शादी हुई है. तेज प्रताप को अखिलेश यादव का भरोसेमंद और करीबी परिवार में करीबी माना जाता है.

हालांकि तेज प्रताप सिंह यादव पहले भी चुनाव मैदान में दांव लगा चुके हैं. वह परिवार की पारंपरिक सीट मैनपुरी से सांसद रहे चुके हैं. वह मुलायाम सिंह यादव के भाई रतन सिंह यादव के पौत्र हैं. उन्होंने इंग्लैन के लीड्स यूनिवर्सिटी से एमएससी की हुई है. सांसद रहने से पहले वह सैफई के ब्लॉक प्रमुख भी रह चुके हैं. उनके पिता का नाम रणवीर सिंह यादव है, जो अखिलेश यादव के चचेरे भाई हैं.

आपको बता दें कि कई बात तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव को एक साथ एक मंच या फंक्शन में देखा गया है, पहली बार तब सुर्खियों में आंए थे जब तेजस्वी यादव की शादी थी.  यहां डिंपल और अखिलेश शादी में शरीक हुए है.

नई दिल्ली में समाजवादी प्रमुख अखिलेश यादव और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के बीच भी एक मुलाकात हुई थी. दिवंगत शरद यादव के घर पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम के दोनों के बीच ये छोटी सी मुलाकात हुई.

बिहार में का बा : लाचारी, बीमारी, बेरोजगारी बा

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपने संदेश में लोगों को कोरोना से बचने के लिए आगाह कर रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा बिहार विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. उस भीड़ में न मास्क था और न ही आपस में 2 गज की दूरी. इसी साल के मार्च महीने में जब कोरोना की देश में आमद हो रही थी, तब 2,000 लोगों के जमातीय सम्मेलन को कोरोना के फैलने की वजह बता कर बदनाम किया गया था, पर अब बिहार चुनाव में लाखों की भीड़ से भी कोई गुरेज नहीं है.

बिहार चुनाव इस बार बहुत अलग है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के सुशासन की जगह पर लालू प्रसाद यादव के 15 साल के कुशासन पर वोट मांग रहे हैं. इस के उलट बिहार के 2 युवा नेताओं चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने बड़ेबड़े दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं.

ये भी पढ़ें- बीजेपी की ओर से जारी विज्ञापन से नीतीश की फोटो गायब, पढ़ें खबर

बिहार चुनाव में युवाओं की भूमिका अहम है. बिहार में बेरोजगारी सब से बड़ा मुद्दा बन गई है. एक अनजान सी गायिका नेहा सिंह राठौर ने ‘बिहार में का बा’ की ऐसी धुन जगाई है कि भाजपा जैसे बड़े दल को बताना पड़ रहा है कि ‘बिहार में ई बा’ और नीतीश कुमार अपने काम की जगह लालू के राज के नाम पर वोट मांग रहे हैं.

बिहार की चुनावी लड़ाई अगड़ों की सत्ता को मजबूत करने के लिए है. एससी तबके की अगुआई करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को राजग से बाहर कर के सीधे मुकाबले को त्रिकोणात्मक किया गया है, जिस से सत्ता विरोधी मतों को राजदकांग्रेस गठबंधन में जाने से रोका जा सके.

जिस तरह से नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर के पिछड़ों की एकता को तोड़ा गया, अब चिराग पासवान को निशाने पर लिया गया है, जिस से कमजोर पड़े नीतीश कुमार और चिराग पासवान पर मनमाने फैसले थोपे जा सकें.

बिहार चुनाव में अगर भाजपा को पहले से ज्यादा समर्थन मिला, तो वह तालाबंदी जैसे फैसले को भी सही साबित करने की कोशिश करेगी. बिहार को हिंदुत्व का नया गढ़ बनाने का काम भी होगा.

बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण सब से ज्यादा हावी होते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. आजादी के पहले से ही यहां जातीयता और राजनीति में चोलीदामन का साथ रहा है. 90 के दशक से पहले यहां की राजनीति पर अगड़ों का कब्जा रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति की दिशा को बदल दिया था. अगड़ी जातियों ने इस के खिलाफ साजिश कर के कानून व्यवस्था का मामला उठा कर लालू प्रसाद यादव के राज को ‘जंगलराज’ बताया था. उन के सामाजिक न्याय को दरकिनार किया गया था.

पिछड़ी जातियों में फूट डाल कर नीतीश कुमार को समाजवादी सोच से बाहर कर के अगड़ी जातियों के राज को स्थापित करने में इस्तेमाल किया गया था. बिहार की राजनीति के ‘हीरो’ लालू प्रसाद यादव को ‘विलेन’ बना कर पेश किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी को लालू प्रसाद यादव से सब से बड़ी दुश्मनी इस वजह से भी है कि उन्होंने भाजपा के अयोध्या विजय को निकले रथ को रोकने का काम किया था. साल 1990 में जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ ले कर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी निकले, तो उन को बिहार में रोक लिया गया.

ये भी पढ़ें- नितीश के सियासी रंग और बिहार का चुनाव

भाजपा को लालू प्रसाद यादव का यह कदम अखर गया था. केंद्र में जब भाजपा की सरकार आई, तो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में उल झाया गया और इस के सहारे उन की राजनीति को खत्म करने का काम किया गया.

लालू प्रसाद यादव के बाद भी बिहार की हालत में कोई सुधार नहीं आया. बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इस के बाद भी बिहार बेहाल है.

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का ‘सामाजिक न्याय’ भी बड़ा मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव भले ही चुनाव मैदान में नहीं हैं, पर उन का मुद्दा चुनाव में मौजूद है.

नई पीढ़ी का दर्द

तालाबंदी के बाद मजदूरों का पलायन एक दुखभरी दास्तान है. नई पीढ़ी के लोगों को यह दर्द परेशान कर रहा है. नौजवान सवाल कर रहे हैं कि 15 साल तक एक ही नेता के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार की ऐसी हालत क्यों है? अब उसी नेता को दोबारा मुख्यमंत्री पद के लिए वोट क्यों दिया जाए?

मुंबई आ कर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपनी रोजीरोटी के लिए तिलतिल मरते हैं. अगर उन के प्रदेशों में कामधंधा होता, रोजीरोटी का जुगाड़ होता, तो ये लोग अपने प्रदेश से पलायन क्यों करते?

फिल्म कलाकार मनोज बाजपेयी ने अपने रैप सांग ‘मुंबई में का बा…’ में मजदूरों की हालत को बयां किया है.  5 मिनट का यह गाना इतना मशहूर  हुआ कि अब बिहार चुनाव में वहां की जनता सरकार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’.

दरअसल, बिहार में साल 2005 से ले कर साल 2020 तक पूरे 15 साल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं. केवल एक साल के आसपास जीतनराम मां झी मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ पाए थे, वह भी नीतीश कुमार की इच्छा के मुताबिक.

किसी भी प्रदेश के विकास के लिए 15 साल का समय कम नहीं होता. इस के बाद भी बिहार की जनता नीतीश कुमार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’ यानी बिहार में क्या है?

तालाबंदी के दौरान सब से ज्यादा मजदूर मुंबई से पलायन कर के बिहार आए. 40 लाख मजदूर बिहार आए. इन में से सभी मुंबई से नहीं आए, बल्कि कुछ गुजरात, पंजाब और दिल्ली से भी आए.

ये मजदूर यह सोच कर बिहार वापस आए थे कि अब उन के प्रदेश में रोजगार और सम्मान दोनों मिलेंगे. यहां आ कर मजदूरों को लगा कि यहां की हालत खराब है. रोजगार के लिए वापस दूर प्रदेश ही जाना होगा. बिहार में न तो रोजगार की हालत सुधरी और न ही समाज में मजदूरों को मानसम्मान मिला.

बीते 15 सालों में बिहार की  12 करोड़, 40 लाख आबादी वाली जनता भले ही बदहाल हो, पर नेता अमीर होते गए हैं. बिहार में 40 सांसद और 243 विधायक हैं. इन की आमदनी बढ़ती रही है. पिछले 15 सालों में  85 सांसद करोड़पति हो गए और 468 विधायक करोड़पति हो गए.

मनरेगा के तहत बिहार में औसतन एक मजदूर को 35 दिन का काम मिलता है. अगर इस का औसत निकालें तो हर दिन की आमदनी 17 रुपए रोज की बनती है. राज्य में गरीब परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों की तादाद तकरीबन 2 करोड़, 85 लाख है. नीतीश कुमार के 15 सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है और नेताओं की आमदनी बढ़ती जा रही है.

जंगलराज या सामाजिक न्याय

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालत में आमूलचूल बदलाव हुआ. लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा बन कर उभरे. उन के योगदान को दबाने का काम किया गया.

ये भी पढ़ें- विधानसभा चुनाव : गूंजेगा हाथरस गैंगरेप

साल 1990 से साल 2020 के  30 सालों में बिहार पर दलितपिछड़ा और मुसलिम गठजोड़ राजनीति पर हावी रहा है. अगड़ी जातियों का मकसद है कि  30 सालों में जो उन की अनदेखी हुई, अब वे मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं.

भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में अगड़ी जातियां काफीकुछ अपने मकसद में कामयाब भी हो गई हैं. बिहार में भाजपा का युवा शक्ति के 2 नेताओं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से सीधा मुकाबला है.

भाजपा के पास बिहार में कोई चेहरा नहीं है, जिस के बल पर वह सीधा चुनाव में जा सके. सुशील कुमार मोदी भाजपा का पुराना चेहरा हो चुके हैं.

विरोधी मानते हैं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय जंगलराज था. जंगलराज का नाम ले कर लोगों को डराया जाता है कि लालू के आने से बिहार में जंगलराज की वापसी हो जाएगी.

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘मंडल कमीशन के बाद वंचितों को न्याय और उन को बराबरी की जगह दे कर सामाजिक न्याय दिलाने का काम किया गया था. अब आर्थिक न्याय देने की बारी है.

‘जो लोग जंगलराज का नाम ले कर बिहार की छवि खराब कर रहे हैं, वे बिहार के दुश्मन हैं. इन के द्वारा बिहार की छवि खराब करने से यहां पर निवेश नहीं हो रहा. लोग डर रहे हैं. अब हम आर्थिक न्याय दे कर नए बिहार की स्थापना के लिए काम करेंगे.’

वंचितों के नेता

लालू प्रसाद यादव की राजनीति को हमेशा से जातिवादी और भेदभावपूर्ण बता कर खारिज करने की कोशिश की गई. लालू प्रसाद यादव अकेले नेता नहीं हैं, जिन को वंचितों के हक की आवाज उठाने पर सताया गया हो. नेल्सन मंडेला, भीमराव अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जैसे अनगिनत उदाहरण पूरी दुनिया में भरे पड़े हैं.

लालू प्रसाद यादव सामंतियों के दुष्चक्र के शिकार हुए, जिन की वजह से उन का राजनीतिक कैरियर खत्म करने की कोशिश की गई. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव के योगदान से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

लालू प्रसाद यादव साल 1990 से साल 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. साल 2004 से साल 2009 तक उन्होंने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया.

बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो अदालत ने 5 साल के कारावास की सजा सुनाई. चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उन्हें लोकसभा से अयोग्य ठहराया गया.

लालू प्रसाद यादव मंडल विरोधियों के निशाने पर थे. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया.

मंडल विरोधी भले ही लालू प्रसाद यादव के राज को जंगलराज बताते थे, पर सामाजिक मुद्दे के साथसाथ आर्थिक मोरचे पर भी लालू सरकार की तारीफ होती रही है.

90 के दशक में आर्थिक मोरचे पर विश्व बैंक ने लालू प्रसाद यादव के काम की सराहना की. लालू ने शिक्षा नीति में सुधार के लिए साल 1993 में अंगरेजी भाषा की नीति अपनाई और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंगरेजी को बढ़ावा दिया.

राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुसलिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है. लालू ने इस से कभी इनकार भी नहीं किया है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने. उन के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई.

ये भी पढ़ें- मरवाही : भदेस राजनीति की ऐतिहासिक नजीर

भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथसाथ दुनियाभर के बिजनैस स्कूलों में लालू प्रसाद यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया.

अगड़ी जातियों की वापसी

राजनीतिक समीक्षक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘जनता यह मानती है कि राज्य की कानून व्यवस्था अच्छी रहे. यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव के विरोधियों ने उन की पहचान को जंगलराज से जोड़ कर प्रचारित किया. उन के प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार के राज को सुशासन कहा गया.

‘इसी मुद्दे पर ही नीतीश कुमार हर बार चुनाव जीतते रहे और 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे. लालू प्रसाद यादव ने जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और जो आर्थिक सुधारों के लिए काम किया, उस की चर्चा कम हुई.

‘लालू प्रसाद यादव की आलोचना में विरोधी कामयाब रहे. बहुत सारे काम करने के बाद भी लालू यादव को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिला.’

बिहार में तकरीबन 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं. पिछड़ी जातियों में 200 के ऊपर अलगअलग बिरादरी हैं. इन में से बहुत कोशिशों के बाद कुछ जातियां ही मुख्यधारा में शामिल हो पाई हैं. बाकी की हालत जस की तस है. इन में से 10 से 15 फीसदी जातियों को ही राजनीतिक हिस्सेदारी मिली है.

1990 के पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार प्रभावी रहे हैं. दलितों की हालत भी बुरी है. बिहार की आबादी का 16 फीसदी दलित हैं. अगड़ी जातियों ने दलितों में खेमेबंदी को बढ़ावा देने का काम किया है.

साल 2005 में भाजपा और जद (यू) ने अगड़ी जातियों को सत्ता में वापस लाने का काम किया. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अब नीतीश कुमार को भी दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

‘राबड़ी देवी’ के किरदार में दिखाई देने वाली हैं ये Bhojpuri एक्ट्रेस, देखें Photos

भोजपुरी इंडस्ट्री (Bhojpuri Industry) की जानी मानी एक्ट्रेसेस में से एक स्मृति सिन्हा (Smriti Sinha) अपने फैंस के बीच काफी पौपुलर हैं. स्मृति सिन्हा (Smriti Sinha) अक्सर अपने किरदार को लेकर सुर्खियों में रही हैं और इसी के चलते एक बार फिर भोजपुरी एक्ट्रेस स्मृति सिन्हा अपनी आने वाली फिल्म को लेकर सुर्खियों का विषय बन गई हैं. जी हां, आपको बता दें कि स्मृति सिन्हा अपनी आने वाली फिल्म जिसका नाम ‘लालटेन’ (Lantern) है में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी (Rabri Devi) के किरदार में दिखाई देने वाली हैं.

ये भी पढ़ें- Bhojpuri एक्ट्रेस रानी चटर्जी को खूब पसंद आया भाईजान का नया गाना, कैप्शन में लिखी इतनी बड़ी बात

हाल ही में स्मृति सिन्हा (Smriti Sinha) द्वारा दिए गए एक इंटरव्यू के चलते उन्होनें इस फिल्म की जानकारी दी और सबको बताया कि वे इस फिल्म को लेकर काफी एक्साइटेड है. सबसे बड़ी बात ये है कि इस फिल्म की शूटिंग तक पूरी हो चुकी है और काफी हद तक ये फिल्म रिलीज होने के लिए तैय्यार है, लेकिन देश में कोरोना वायरस लॉकडाउन के चलते सभी शूटिंग और फिल्म रिलीज अटकी हुई हैं.

 

View this post on Instagram

 

😍😍😍meri jaan😍😍😍 #smritisinha #khesarilalyadav #cutiepie #love #myjaan #stayhome #myjaan😘

A post shared by ❤คหjคł¡ м¡รняค❤ (@smritiji_ki_deewani) on

स्मृति सिन्हा (Smriti Sinha) ने अपने रोल के बारे में बात करते हुए बताया कि उन्हें इस रोल के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी थी और तो और अब वे काफी नर्वस हैं कि उनके इस किरदार को देखने के बाद औडियंस का क्या रिएक्शन होगा. स्मृति सिन्हा ने अपने इंटरव्यू के दौरान कहा कि,- राबड़ी देवी का स्टाइल, उनका लुक और उनके बोलने का अंदाज काफी अलग था तो ऐसे में खुद को इस किरदार के लिए तैय्यार करना काफी चुनौती भरा था.

ये भी पढ़ें- इस भोजपुरी एक्ट्रेस का आया सलमान खान पर दिल, ऐसे किया खुलासा

स्मृति सिन्हा इन दिनों काफी प्रोजेक्टस पर काम कर रही हैं और साथ ही वे भोजपुरी एक्टर पवन सिंह (Pawan Singh) के साथ भी औन-स्क्रीन रोमांस करती दिखाई देने वाली हैं.

लालू यादव के भतीजे का गाया कोरोना को लेकर दूसरा गाना भी हुआ वायरल, देखें Video

वैश्विक महामारी कोरोना (Corona) से भारत पूरी मजबूती के साथ लड़ रहा है. इस लड़ाई में डॉक्‍टर्स से लेकर तमाम कोरोना वॉरियर्स का योगदान अब तक सराहनीय रहा है. इसी बीच बिहार के पूर्व मुख्‍यमंत्री व राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के भतीजे नागेंद्र राय (Nagendra Rai) ने एक और गाना गया है, जो खूब वायरल हो रहा है. गाने के बोल हैं ‘है कोरोना की बात यहां‘ (Hai Corona Ki Baat Yaha). यह गाना लोकप्रिय देशभक्ति गीत ‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं – भारत का रहने वाला हूं भारत की बात सुनाता हूं’. गाने नागेंद्र राय और मार्कडेय मिश्रा ने लिखा है.

ये भी पढ़ें- संभावना का झलका दर्द: ऐसे में कोई बीमार न हो

नागेंद्र राय ने इस गाने को अपने ऑफिसियल यूट्यूब चैनल पर रिलीज किया है. इससे पहले भी वे एक गाना ‘कल चमन था, आज ये सेहरा हुआ – देखते ही देखते ये क्‍या हुआ.‘  रिलीज किया था, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया. वे इस गाने से पहले साथी रे और सिंदुरवा बड़ा अनोमल रे जैसी भोजपुरी फिल्‍मों में भी गाना गा चुके हैं. और अब वे कोरोना पर दूसरा गाना लेकर आये हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि यह गाना कोरोना की तबाही और उसमें भारत के संघर्ष को अमर करेगी.

ये भी पढ़ें- Mastram सीरीज में Rani Chatterjee पर मनाली में फिल्माया ये Video हुआ वायरल

हमने इस गाने के जरिये जनजागृति फैलाने का भी प्रयास किया है. इसमें हमने ये भी बताया है कि कोरोना को हराने के लिए हमें अपने घरों में रहकर लड़ना होगा. तभी हम बच पायेंगे और इंसानियत बचेगी. मुझे उम्‍मीद है मेरा यह गाना श्रोताओं को खूब पसंद आयेगी. कोरोना से लड़ाई में यह गाना लोगों के लिए इनर्जी बूस्‍टर का काम करेगी. आपको बता दें कि नागेंद्र राय बिहार के पूर्व मुख्‍यमंत्री लालू प्रसाद यादव के भतीजे हैं. वे लालू प्रसाद के बड़े भाई महावीर राय के बेटे हैं. लालू यादव महावीर यादव के आवास पर ही रहकर पढ़ाई करते थे.

मिस इंगलैंड को पसंद हैं लालू यादव

भारतीय मूल की भाषा मुखर्जी (Bhasha Mukherjee) मिस इंगलैंड (Miss England) चुनी गई हैं. छरहरी और कायनात हुस्न की मलिका भाषा मिस इंगलैंड बनने के बाद बिहार की राजधानी पटना आईं तो लोगों में उन्हें देखने की होड़ सी मच गई. यह अलग बात रही कि इस दौरान करोना वायरस (Corona Virus) के डर की वजह से लोग चौकसी भी बरतते दिखे पर देखने वालों का उत्साह ठंढा नहीं पड़ा था. मालूम हो कि भाषा इन दिनों भारत भ्रमण पर हैं.

यहां के लोगों का जवाब नहीं

मीडिया से बातचीत में भाषा ने बताया, “आप चाहे दुनिया के किसी भी देश में चले जाएं, भारत की मिट्टी की खुशबू आप को एक अलग ही पहचान देती है. आज पूरी दुनिया में भारत का परचम लहरा रहा है और भारतीय होना गौरव की बात है.”

ये भी पढ़ें- भोजपुरी सिंगर ने बनाया Corona Virus पर गाना तो भड़के ये गीतकार, कही ये बड़ी बात

आप को बिहार कैसा लगा? यह पूछने पर भाषा ने बताया, “बिहार की मिट्टी ने कई मशहूर शख्सियतें दी हैं. भारत के बिहार राज्य के वैशाली में सब से पहले गणतंत्र स्थापित हुआ. यहां के लोग बड़े जिंदादिल और मेहनती होते हैं.”

बढ़ रही है महिलाओं की धमक

मिस इंगलैंड चुने जाने के बाद भाषा एक अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन के साथ मिल कर महिला उत्पीड़न, यौन हिंसा जैसे विषयों को ले कर पूरी दुनिया में जागरूकता अभियान चला रही हैं.

भाषा ने बताया, “भारत में महिलाओं की स्थिति पहले से काफी बेहतर हुई है और सभी क्षेत्रों में महिलाएं आगे बढ़ी हैं. फिर चाहे राजनीति हो, खेल हो, साहित्य या सिनेमा या फिर प्रशासनिक सेवा, भारतीय महिलाओं ने पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया है. यह सदी भारत ही नहीं पूरी दुनिया में नारी सशक्तिकरण की सदी है.”

ये भी पढ़ें- ‘ये गलती आप लोग ना करे जो मैंने की अनजाने में’ – भोजपुरी ऐक्ट्रेस रानी चटर्जी

लालू से न मिल पाने का अफसोस

भाषा को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) बेहद पसंद हैं. वे कहती हैं कि दुनिया लालू यादव के कारण बिहार को जानती है. पर तभी किसी ने जब यह कह दिया कि लालू जेल में हैं तो वे बात को बदलती हुई बोलीं, “मुझे अफसोस है कि मैं उन से मिल नहीं पाई.”

इस से पहले भाषा को लोगों ने भारतीय परिधानों में भी कई बार देखा है. साड़ी को हौट स्टाइल में पहनने पर वे लोगों की जम कर वाहवाही बटोर चुकी हैं. वे हाजिरजवाबी हैं और मानती हैं कि दकियानुसी परंपराओं को छोड़ महिलाओं को आधुनिक सोच के साथ जीना चाहिए.

सियासी समोसे से लालू गायब

इस के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जेल में बंद होने की वजह से पार्टी बिखरने के कगार पर है और लालू प्रसाद यादव के दोनों लाड़ले उन की सियासी विरासत को संभालने में फिलहाल तो नाकाम साबित हो रहे हैं.

कभी बिहार की राजनीति की धुरी रहे लालू प्रसाद यादव जानते हैं कि साल 2020 में होने वाला बिहार विधानसभा चुनाव उन के लिए आरपार की लड़ाई साबित होगा. इस के लिए वे अपनी पार्टी को नई सजधज के साथ उतारने की कवायद में जुट गए हैं, पर उन की सब से बड़ी लाचारी है कि वे रांची जेल में बंद हैं. इतना ही नहीं, चारा घोटाला

में कुसूरवार ठहराए जाने की वजह से वे साल 2024 तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं.

लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी में उन के लाड़ले बेटे तेजस्वी यादव की अगुआई में लोकसभा 2019 का चुनाव लड़ा गया और वे पूरी तरह से नाकाम रहे.

इस लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती भी पाटलिपुत्र से चुनाव हार गईं.

साल 1997 में राष्ट्रीय जनता दल के बनने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि लोकसभा चुनाव में इस पार्टी की मौजूदगी जीरो है.

साल 1997 में नई पार्टी राजद बनाने के बाद लालू प्रसाद यादव ने पूरे दमखम के साथ 1998 का लोकसभा चुनाव लड़ा था, जिस में पार्टी को 17 सीटें हासिल हुई थीं. उस के बाद से लोकसभा में राजद की लगातार दमदार मौजूदगी री है. फिलहाल तो लालू प्रसाद यादव के लिए राहत की बात यह है कि 243 सीट वाली बिहार विधानसभा में उन की पार्टी राजद के 81 विधायक हैं और राजद ही विधानसभा में सब से बड़ी पार्टी है. जद (यू) के 71, भाजपा के 53 और कांग्रेस के 27 विधायक हैं.

विधानसभा में सब से बड़ी पार्टी होने के बाद भी पिछले लोकसभा चुनाव में राजद का खाता नहीं खुल सका. इस की सब से बड़ी वजह बिहार के सियासी अखाड़े से लालू यादव की गैरमौजूदगी होना रही.

बिहार में ज्यादातर नेताओं के बेटे अपने पिता लालू यादव की सियासी विरासत को संभालने और बाप जैसा रसूख पाने में नाकाम ही रहे हैं.

बिहार के पहले मुख्यमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिंह के बेटे स्वराज सिंह और शिवशंकर सिंह विधायक तो बने, पर अपने पिता के कद को हासिल नहीं कर सके.

ये भी पढ़ें- अनंत सिंह सरकारी फंदे में

समाजवादी नेता और राज्य के धाकड़ मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर कई बार विधायक और मंत्री तो बने, पर नेतागीरी के मामले में पिता जैसी ऊंचाई नहीं पा सके.

मुख्यमंत्री रहे चंद्रशेखर सिंह की बीवी तो सांसद बनीं, पर उन के बेटे राजनीति में कुछ नहीं कर सके. रेल मंत्री रहे ललित नारायण मिश्रा के बेटे विजय कुमार मिश्रा भी अपने पिता के बराबर की लकीर भी नहीं खींच सके.

भागवत झा आजाद के बेटे कीर्ति आजाद और जगदेव प्रसाद के बेटे नागमणि आज तक पिता के नाम पर ही राजनीति कर रहे हैं. वे अपना खास वजूद बनाने में नाकाम ही रहे हैं.

कांग्रेस के दिग्गज नेता राजेंद्र सिंह के बेटे समीर सिंह और बुद्धदेव सिंह के बेटे कुणाल सिंह ने कई बार विधानसभा का चुनाव लड़ा, पर जीत नहीं पाए. ‘शेरे बिहार’ कहे जाने वाले रामलखन सिंह यादव के बेटे प्रकाश चंद्र पिता जैसी हैसियत पाने को तरसते ही रह गए.

लालू प्रसाद यादव की बात करें तो 5 जुलाई, 1997 को जनता दल से अलग हो कर उन्होंने नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल बनाई थी. उस के बाद साल 2005 तक बिहार पर राजद ने राज किया था. वे 2 दशकों तक बिहार में सरकार और सियासत की धुरी रहे, ऐसे में उन का सत्ता से दूर होना पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गया है.

गौरतलब है कि जनवरी, 1996 में 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का भंडाफोड़ हुआ था. इस घोटाले की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया था. 17 साल तक की जांच और अदालती सुनवाई के बाद लालू प्रसाद यादव समेत पहले के मुख्यमंत्री और जद (यू) नेता जगन्नाथ मिश्र जो अब नहीं रहे, जद (यू) सांसद जगदीश शर्मा, राजद विधायक आरके राणा समेत 32 आरोपियों को सजा मिली है.

सत्ता और लगातार मिलती कामयाबी ने लालू प्रसाद यादव को बौरा भी दिया था. उन के बदलते तेवरों की वजह से उन के कई भरोसेमंद साथी एकएक कर उन का साथ छोड़ने लगे.

पहली बार उन की पार्टी राजद को सब से बड़ा झटका फरवरी, 2014 में लगा था, जब उन की पार्टी के 13 विधायकों ने उन्हें ‘बायबाय’ कर दिया था और सब उन के प्रतिद्वंद्वी रहे नीतीश कुमार के खेमे में जा बैठे थे.

सम्राट चौधरी, राघवेंद्र प्रताप सिंह, ललित यादव, रामलषण राम, अनिरुद्ध कुमार, जावेद अंसारी जैसे कद्दावर नेताओं ने लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़ दिया था. इन नेताओं का आरोप था कि लालू प्रसाद यादव ने राजद को कांग्रेस की बी टीम बना कर रख दिया है.

ये भी पढ़ें- धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

इस झटके से लालू प्रसाद यादव उबर भी नहीं पाए थे कि उन के सब से भरोसेमंद सिपहसालार और आंखकान माने जाने वाले रामकृपाल यादव ने उन की ‘लालटेन’ छोड़ कर भाजपा का ‘कमल’ थाम लिया था. उस के बाद दानापुर के कद्दावर नेता श्याम रजक भी उन का साथ छोड़ नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए थे.

लालू प्रसाद यादव की सब से बड़ी कमजोरी यह रही है कि पार्टी के ऊंचे पदों पर वे अपने परिवार के लोगों को ही बिठाना चाहते हैं.

साल 1997 में जब चारा घोटाले में मामले में लालू यादव पहली बार जेल गए थे तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रसोईघर से निकाल कर मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया था. उस के बाद वे जेल से ही राजपाट चलाते रहे.

अब कुछ महीने पहले जब चारा घोटाले पर अंतिम फैसला आने की सुगबुगाहट चालू हुई तो पार्टी के बड़े नेताओं के बजाय अपने बेटे तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव को आगे ला कर खड़ा कर दिया.

पिछले लोकसभा चुनाव में भी पाटलिपुत्र सीट से अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को चुनाव मैदान में उतारा था और उस बाद भी वे चुनाव हार गईं.

पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफैसर राजीव रंजन कहते हैं कि बिहार की राजनीति में अब लालू प्रसाद यादव को फिर जीरो से शुरुआत करने की जरूरत होगी.

साल 1990 के विधानसभा चुनाव के समय जन्म लेने वाले बच्चे आज वोटर बन चुके हैं और वे अपने कैरियर के साथ नए बिहार का सपना भी देखबुन रहे हैं. नीतीश कुमार के 19 सालों के काम के सामने सामाजिक न्याय के मसीहा लालू प्रसाद यादव कमजोर नजर आने लगे हैं.

बदलते बिहार और नौजवान वोटरों के मनमिजाज को लालू प्रसाद यादव और उन के लाल अब तक भांप नहीं सके हैं. वे अभी भी सामाजिक न्याय, आरक्षण और लालटेन जैसे चुक गए नारों की ही रट लगाते रहते हैं. समय के साथ उन्होंने न खुद की सोच को बदला और न ही वे नए सियासी नारे ही पढ़ पाए हैं.

गौरतलब है कि बिहार में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 38 सीटों के अलावा 60 ऐसी विधानसभा सीटें भी हैं जहां दलित निर्णायक स्थिति में हैं, क्योंकि वहां उन की आबादी 16 से 30 फीसदी है.

राज्य के 38 जिलों व 40 लोकसभा सीटों और 243 विधानसभा सीटों पर जीत उसी की होती है, जो बिहार की कुल 119 जातियों में से ज्यादा को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब हो जाता है.

ये भी पढ़ें- उर्मिला ने दिया कांग्रेस से इस्तीफा, लोकल नेताओं पर

लालू प्रसाद यादव माय समीकरण (मुसलिमयादव) के बूते बिना कुछ काम किए 15 सालों तक बिहार पर राज करते रहे थे. नीतीश कुमार बारबार तरक्की का नारा लगाते रहे हैं, पर चुनाव के समय उन के इस नारे पर जातिवाद ही हावी होता रहा है. टिकट के बंटवारे में हर दल यही देखता है कि उन का उम्मीदवार किस जाति का है और जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा है, वहां कौनकौन सी जातियों के वोट उसे मिल सकेंगे. बिहार की कुल आबादी 10 करोड़, 50 लाख है और 6 करोड़, 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी  अतिपिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलिम, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं.

वंचित मेहनतकश मोरचा के अध्यक्ष किशोरी दास कहते हैं कि जाति के नाम पर पिछड़ों और दलितों के केवल वोट ही लिए गए हैं, उन्हें आज तक किसी भी सियासी दल या सरकार ने कुछ नहीं दिया.

बिहार राज्य की राजनीति सामाजिक समीकरण से नहीं, बल्कि जातीय समीकरण से चलती रही है. हर दल का जातीय समीकरण है. कांग्रेस सवर्ण, मुसलिम और दलित वोट को गोलबंद करने में लगी रही है तो लालू प्रसाद यादव मुसलिमों और यादवों के बूते राजनीति चमकाते रहे हैं.

नीतीश कुमार कुर्मी, कुशवाहा, दलित और महादलित के वोट पाते रहे हैं, वहीं रामविलास पासवान दुसाध और महादलितों की बात करते रहे हैं. भाजपा अगड़ी जातियों के साथ वैश्यों और पिछड़ी जातियों को लुभाती रही है.

लालू प्रसाद यादव की ही बात करें तो वे भी हमेशा से पोंगापंथ के जाल में उलझे रहे हैं. पिछड़ों और दलितों को आवाज देने का दावा करने वाले लालू प्रसाद यादव भी चुनाव में जीत के लिए जनता से ज्यादा मंदिर और मजार पर यकीन करते रहे हैं.

चारा घोटाला में फंसने और उस के बाद उस मामले में आरोप साबित होने के बाद से लालू प्रसाद यादव अपनी जिंदगी की सब से बड़ी सियासी और कानूनी मुश्किलों से जूझते रहे हैं. वे चारा घोटाला मामले में जेल में बंद हैं और उन की पार्टी का वजूद खतरे में है.

लालू प्रसाद यादव की सब से बड़ी गलती यही रही है कि उन्होंने अपनी पार्टी में दूसरे नेताओं को ताकतवर नहीं बनाया, ताकि पार्टी हमेशा उन की मुट्ठी में रहे. अपनी पार्टी के एक से 10वें नंबर तक केवल लालू प्रसाद यादव ही रहे. अब जब वे जेल गए हैं तो उन्हें अपनी इस गलती का अहसास हो रहा है, पर अब कुछ किया नहीं जा सकता है.

राष्ट्रीय जनता दल में रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, अब्दुलबारी सिद्दीकी जैसे कई धाकड़ और असरदार नेता हैं, पर लालू प्रसाद यादव ने कभी उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया. उन की हालत ऐसी कर के रखी कि लालू प्रसाद यादव के बगैर वे बेजार साबित हों. अब जो हालात पैदा हुए हैं, उन में पार्टी के विधायकों को एकजुट रखना सब से बड़ी चुनौती है.

ये भी पढ़ें- प्लास्टिक के बर्तन और जमीन पर बिछौना, जेल में यूं

लालू प्रसाद यादव के स्टाइल की ठेठ गंवई सियासत की कमी बिहार को खल रही है. बिना किसी लागलपट के अपनी धुन में अपने मन की बात और भड़ास मौके बे मौके कह देने वाले लालू प्रसाद यादव के बगैर बिहार का राजनीतिक गलियारा सूना पड़ गया है.

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अकसर हंसीमजाक में कहते थे कि जब तक समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार की राजनीति में लालू रहेगा. आज बिहार के सियासी समोसे से गायब लालू प्रसाद यादव झारखंड की जेल में बंद हैं, जिस से निश्चय ही पटना से ले कर दिल्ली तक के सियासी समोसे का मजा किरकिरा हो चुका है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें