बचपन में जब मैं अपने मामा के गांव रेलगाड़ी से जाता था, तो वे गांव से 3 किलोमीटर दूर पैदल रेलवे स्टेशन पर मुझे और मां को लेने आते थे. इस के बाद हम तीनों पैदल ही गांव की तरफ चल देते थे. पर कुछ दूर चलने के बाद मामा मुझे अपने एक कंधे पर बिठा लेते थे.
चूंकि मामा तकरीबन 6 फुट लंबे थे, तो उन के कंधे से मुझे पतली सी सड़क से गुजरते हुए आसपास की हरियाली और खेतखलिहान दिखते थे. उस सफर का रोमांच ही अलग होता था. खुशी और डर के मारे मेरी आंखें फट जाती थीं.
तब मामा जवान थे और मैं दुबलपतला बालक. मामा को शायद ही कभी मेरा बोझ लगा हो. पर हाल ही में एक ऐसा वाकिआ हुआ है, जिस ने पूरे समाज पर जिल्लत का बड़ा भारी बोझ डाल दिया है.
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मध्य प्रदेश का झाबुआ इलाका आदिवासी समाज का गढ़ है. वहां से सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिस में एक औरत को सजा के तौर पर अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरे गांव में घुमाना पड़ा. उसे सजा क्यों मिली? दरअसल, उस औरत पर आरोप लगा था कि उस का किसी पराए मर्द के साथ चक्कर चल रहा था.
वीडियो में दिखा कि एक औरत अपने पति को उठा कर चल रही थी और पीछेपीछे गांव वाले. एक जगह जब वह औरत थक गई, तो उसे छड़ी से पीटा भी गया.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी औरत को सरेआम बेइज्जत किया गया हो, वह भी एकतरफा फैसला सुना कर. दुख की बात तो यह थी कि उस औरत का मुस्टंडा पति इस बात की खिलाफत तक नहीं कर पाया.
पिछले साल का जुलाई महीने का एक और किस्सा देख लें. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाइब्रैंट गुजरात के बनासकांठा जिले के दंतेवाड़ा तालुका के 12 गांवों में ठाकोर तबके की खाप पंचायत ने एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पास किया था, जिस में ठाकोर समाज की कुंआरी लड़कियों को मोबाइल फोन रखने की मनाही कर दी गई. यह भी ऐलान किया कि जो भी लड़की मोबाइल फोन के साथ पकड़ी जाएगी, उस के पिता पर खाप पंचायत जुर्माना लगाएगी.
सवाल यह है कि मोबाइल फोन रखने की मनाही सिर्फ लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़कों पर यह पाबंदी क्यों नहीं? क्या मोबाइल फोन रखने से सिर्फ लड़कियां ही बिगड़ती हैं?
आज कोरोना महामारी के बाद जब से स्कूल बंद हुए हैं, तब से बहुत से स्कूल बच्चों को औनलाइन क्लास की सुविधाएं दे रहे हैं, ताकि कल को अगर सरकार इम्तिहान लेने का नियम बना देगी, तो बच्चों को परेशानी न हो. ऐसे में स्कूल जाने वाली कुंआरी लड़कियों के पास अगर मोबाइल फोन नहीं होगा, तो क्या वे पढ़ाईलिखाई में पिछड़ नहीं जाएंगी?
एक और मामला साल 2018 का है. राजस्थान के बूंदी जिले में अंधविश्वास के चलते एक 6 साल की मासूम बच्ची को 9 दिनों तक सामाजिक बहिष्कार का दर्द झेलना पड़ा.
बूंदी जिले के एक गांव हरिपुरा के बाशिंदे हुक्मचंद रैगर ने बताया कि 2 जुलाई को उन की 6 साल की बेटी खुशबू अपनी मां के साथ स्कूल में दाखिले के लिए गई थी. वहां पर दूध पिलाने के लिए बालिकाओं की लाइन लग रही थी. इसी दौरान अचानक खुशबू का पैर टिटहरी नाम के एक पक्षी के अंडे पर पड़ गया, जिस से अंडा फूट गया.
इस घटना को अनहोनी मानने के बाद गांव में तुरंत पंचपटेलों ने बैठक बुलाई और मासूम खुशबू को समाज से बाहर करने का फरमान सुना दिया. खुशबू के अपने घर के अंदर घुसने तक पर रोक लगा दी गई. उसे खाना खाने और पीने के पानी के लिए भी अलग से बरतन दिए गए.
पंचपटेलों के फरमान के चलते पिता 9 दिन अपने बेटी को ले कर घर के बाहर बने बाड़े में रहा था. पिता के मुताबिक, इस दौरान पंचपटेलों ने शराब की बोतल व चने भी मंगवाए थे.
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जब इस मामले की जानकारी तहसीलदार व थाना प्रभारी को मिली, तो उन्होंने पंचपटेलों को इकट्ठा किया. इस के बाद सरकारी अफसरों की मौजूदगी में गांव वालों ने मासूम खुशबू को 9 दिन बाद अपने रीतिरिवाजों को निभाते हुए घर के अंदर दाखिल करवाया. इस से पहले गांव में चने बांटे गए और परिवार के जमाई को तौलिया भेंट किया गया.
कितने शर्म की बात है कि एक मासूम बच्ची को किसी पक्षी का अंडा फोड़ने की इतनी बड़ी सजा दी गई. वह भी तब जब उस लड़की ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था. उस से तो जैसे महापाप हो गया. फिर तो उन पंचपटेलों को भी इस पाप का भागीदार होना चाहिए, जिन्होंने लड़की के पिता से शराब की डिमांड की. शराब पीना भी तो एक सामाजिक बुराई है, पर पंचपटेलों को सजा देने का जोखिम कौन उठाए?
समाज में ऐसे किस्सों की कोई कमी नहीं है, जहां नाक के सवाल पर औरतों और मासूम बच्चियों को मर्द समाज के बचकाने फैसलों का शिकार बनना पड़ता है. बचकाने क्या तानाशाही फैसले ही कहिए.
इस में जाति का दंभ बहुत अहम रोल निभाता है. दूसरी जाति की तो बात ही छोड़िए, अपनी जाति के लोग खाप के नाम पर मासूमों पर तरहतरह से जुल्म ढाते हैं. किसी ने परिवार के खिलाफ जा कर प्रेम विवाह क्या कर लिया, उसे मार दिया जाता है. अगर परिवार वाले मान भी जाएं, तो समाज के ठेकेदार उन्हें उकसा कर अपराध करने के लिए मजबूर कर देते हैं. पगड़ी उछलने की दुहाई दे कर उन से अपनों का ही बलिदान मांगते हैं. परिवार वाले गुस्से में कांड कर के जेल पहुंच जाते हैं और जाति के ये सर्वेसर्वा किसी दूसरे शिकार की टोह में निकल पड़ते हैं.
और अगर जाति के साथ दूसरे धर्म का नाता भी जुड़ जाता है, तो फिर बात दंगे तक पहुंच जाती है. उत्तर प्रदेश के जौनपुर में तो 2 समुदायों के बच्चों के बीच मवेशी चराने के दौरान हुए मामूली से झगड़े ने सांप्रदायिक रूप ले लिया था.
भारत में ऐसे विवादों का भुगतभोगी एससी समाज ही रहा है. वह आज भी अपनी पहचान तलाश रहा है. वोटों के लिए तो नेता उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं, उन के झोंपड़ों में जा कर रोटी खा लेते हैं, पर जब अपने समाज पर आंच की बात आती है, तो उन को दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक देते हैं.
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एसटी समुदाय भी कमोबेश ऐसे ही हालात में जी रहा है. वह तो भला हो कि झाबुआ वाले कांड में सताई गई औरत आदिवासी समाज से थी, जो अपने तन और मन से बहुत मजबूत होती हैं और इसलिए उस ने अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरा गांव घुमा दिया, वरना किसी शहरी और ऊंची जाति की औरत में ऐसा करने का माद्दा शायद ही दिखता.