समाज की पंगु सोच को कंधे पर उठाया

बचपन में जब मैं अपने मामा के गांव रेलगाड़ी से जाता था, तो वे गांव से 3 किलोमीटर दूर पैदल रेलवे स्टेशन पर मुझे और मां को लेने आते थे. इस के बाद हम तीनों पैदल ही गांव की तरफ चल देते थे. पर कुछ दूर चलने के बाद मामा मुझे अपने एक कंधे पर बिठा लेते थे.

चूंकि मामा तकरीबन 6 फुट लंबे थे, तो उन के कंधे से मुझे पतली सी सड़क से गुजरते हुए आसपास की हरियाली और खेतखलिहान दिखते थे. उस सफर का रोमांच ही अलग होता था. खुशी और डर के मारे मेरी आंखें फट जाती थीं.

तब मामा जवान थे और मैं दुबलपतला बालक. मामा को शायद ही कभी मेरा बोझ लगा हो. पर हाल ही में एक ऐसा वाकिआ हुआ है, जिस ने पूरे समाज पर जिल्लत का बड़ा भारी बोझ डाल दिया है.

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मध्य प्रदेश का झाबुआ इलाका आदिवासी समाज का गढ़ है. वहां से सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिस में एक औरत को सजा के तौर पर अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरे गांव में घुमाना पड़ा. उसे सजा क्यों मिली? दरअसल, उस औरत पर आरोप लगा था कि उस का किसी पराए मर्द के साथ चक्कर चल रहा था.

वीडियो में दिखा कि एक औरत अपने पति को उठा कर चल रही थी और पीछेपीछे गांव वाले. एक जगह जब वह औरत थक गई, तो उसे छड़ी से पीटा भी गया.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी औरत को सरेआम बेइज्जत किया गया हो, वह भी एकतरफा फैसला सुना कर. दुख की बात तो यह थी कि उस औरत का मुस्टंडा पति इस बात की खिलाफत तक नहीं कर पाया.

पिछले साल का जुलाई महीने का एक और किस्सा देख लें. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाइब्रैंट गुजरात के बनासकांठा जिले के दंतेवाड़ा तालुका के 12 गांवों में ठाकोर तबके की खाप पंचायत ने एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पास किया था, जिस में ठाकोर समाज की कुंआरी लड़कियों को मोबाइल फोन रखने की मनाही कर दी गई. यह भी ऐलान किया कि जो भी लड़की मोबाइल फोन के साथ पकड़ी जाएगी, उस के पिता पर खाप पंचायत जुर्माना लगाएगी.

सवाल यह है कि मोबाइल फोन रखने की मनाही सिर्फ लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़कों पर यह पाबंदी क्यों नहीं? क्या मोबाइल फोन रखने से सिर्फ लड़कियां ही बिगड़ती हैं?

आज कोरोना महामारी के बाद जब से स्कूल बंद हुए हैं, तब से बहुत से स्कूल बच्चों को औनलाइन क्लास की सुविधाएं दे रहे हैं, ताकि कल को अगर सरकार इम्तिहान लेने का नियम बना देगी, तो बच्चों को परेशानी न हो. ऐसे में स्कूल जाने वाली कुंआरी लड़कियों के पास अगर मोबाइल फोन नहीं होगा, तो क्या वे पढ़ाईलिखाई में पिछड़ नहीं जाएंगी?

एक और मामला साल 2018 का है. राजस्थान के बूंदी जिले में अंधविश्वास के चलते एक 6 साल की मासूम बच्ची को 9 दिनों तक सामाजिक बहिष्कार का दर्द झेलना पड़ा.

बूंदी जिले के एक गांव हरिपुरा के बाशिंदे हुक्मचंद रैगर ने बताया कि 2 जुलाई को उन की 6 साल की बेटी खुशबू अपनी मां के साथ स्कूल में दाखिले के लिए गई थी. वहां पर दूध पिलाने के लिए बालिकाओं की लाइन लग रही थी. इसी दौरान अचानक खुशबू का पैर टिटहरी नाम के एक पक्षी के अंडे पर पड़ गया, जिस से अंडा फूट गया.

इस घटना को अनहोनी मानने के बाद गांव में तुरंत पंचपटेलों ने बैठक बुलाई और मासूम खुशबू को समाज से बाहर करने का फरमान सुना दिया. खुशबू के अपने घर के अंदर घुसने तक पर रोक लगा दी गई. उसे खाना खाने और पीने के पानी के लिए भी अलग से बरतन दिए गए.

पंचपटेलों के फरमान के चलते पिता 9 दिन अपने बेटी को ले कर घर के बाहर बने बाड़े में रहा था. पिता के मुताबिक, इस दौरान पंचपटेलों ने शराब की बोतल व चने भी मंगवाए थे.

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जब इस मामले की जानकारी तहसीलदार व थाना प्रभारी को मिली, तो उन्होंने पंचपटेलों को इकट्ठा किया. इस के बाद सरकारी अफसरों की मौजूदगी में गांव वालों ने मासूम खुशबू को 9 दिन बाद अपने रीतिरिवाजों को निभाते हुए घर के अंदर दाखिल करवाया. इस से पहले गांव में चने बांटे गए और परिवार के जमाई को तौलिया भेंट किया गया.

कितने शर्म की बात है कि एक मासूम बच्ची को किसी पक्षी का अंडा फोड़ने की इतनी बड़ी सजा दी गई. वह भी तब जब उस लड़की ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था. उस से तो जैसे महापाप हो गया. फिर तो उन पंचपटेलों को भी इस पाप का भागीदार होना चाहिए, जिन्होंने लड़की के पिता से शराब की डिमांड की. शराब पीना भी तो एक सामाजिक बुराई है, पर पंचपटेलों को सजा देने का जोखिम कौन उठाए?

समाज में ऐसे किस्सों की कोई कमी नहीं है, जहां नाक के सवाल पर औरतों और मासूम बच्चियों को मर्द समाज के बचकाने फैसलों का शिकार बनना पड़ता है. बचकाने क्या तानाशाही फैसले ही कहिए.

इस में जाति का दंभ बहुत अहम रोल निभाता है. दूसरी जाति की तो बात ही छोड़िए, अपनी जाति के लोग खाप के नाम पर मासूमों पर तरहतरह से जुल्म ढाते हैं. किसी ने परिवार के खिलाफ जा कर प्रेम विवाह क्या कर लिया, उसे मार दिया जाता है. अगर परिवार वाले मान भी जाएं, तो समाज के ठेकेदार उन्हें उकसा कर अपराध करने के लिए मजबूर कर देते हैं. पगड़ी उछलने की दुहाई दे कर उन से अपनों का ही बलिदान मांगते हैं. परिवार वाले गुस्से में कांड कर के जेल पहुंच जाते हैं और जाति के ये सर्वेसर्वा किसी दूसरे शिकार की टोह में निकल पड़ते हैं.

और अगर जाति के साथ दूसरे धर्म का नाता भी जुड़ जाता है, तो फिर बात दंगे तक पहुंच जाती है. उत्तर प्रदेश के जौनपुर में तो 2 समुदायों के बच्चों के बीच मवेशी चराने के दौरान हुए मामूली से झगड़े ने सांप्रदायिक रूप ले लिया था.

भारत में ऐसे विवादों का भुगतभोगी एससी समाज ही रहा है. वह आज भी अपनी पहचान तलाश रहा है. वोटों के लिए तो नेता उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं, उन के झोंपड़ों में जा कर रोटी खा लेते हैं, पर जब अपने समाज पर आंच की बात आती है, तो उन को दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक देते हैं.

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एसटी समुदाय भी कमोबेश ऐसे ही हालात में जी रहा है. वह तो भला हो कि झाबुआ वाले कांड में सताई गई औरत आदिवासी समाज से थी, जो अपने तन और मन से बहुत मजबूत होती हैं और इसलिए उस ने अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरा गांव घुमा दिया, वरना किसी शहरी और ऊंची जाति की औरत में ऐसा करने का माद्दा शायद ही दिखता.

आधार कार्ड और पास बुक रख हो रहा व्रत

लेखक- पंकज कुमार यादव

कोरोना महामारी भले ही देश पर दुनिया के लिए त्रासदी बन कर आई है, पर कुछ धूर्त लोगों के लिए यह मौका बन कर आई है और हमेशा से ही ये गिद्ध रूपी पोंगापंथी इसी मौके की तलाश में रहते हैं.

जैसे गिद्ध मरते हुए जानवर के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं, वैसे ही भूखे, नंगे, लाचार लोगों के बीच ये पोंगापंथी उन्हें नोचने को मंडराने लगते हैं. फिर मरता क्या नहीं करता की कहावत को सच करते हुए भूखे लोग, डरे हुए लोग कर्ज ले कर भी पोंगापंथियों का पेट भरने के लिए उतावले हो जाते हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन का बीमार बेटा बीमारी से मुक्त हो जाएगा. उन का पति जो पिछले 5 दिनों से किसी तरह आधे पेट खा कर, पुलिस से डंडे खा कर नंगे पैर चला आ रहा है, वह सहीसलामत घर पहुंच जाएगा. फिर भी उन के साथ ऐसा कुछ नहीं होता है. पर कर्मकांड के नाम पर, लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ना शुरू हो जाता है.

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कुछ ऐसी ही घटना कोरोना काल में झारखंड के गढ़वा जिले में घटी है. सैकड़ों औरतों के बीच यह अफवाह फैलाई गई कि मायके से साड़ी और पूजन सामग्री मंगा कर अपने आधारकार्ड और पासबुक के साथ सूर्य को अर्घ्य देने से उन के खाते में पैसे आ जाएंगे और कोरोना से मुक्ति भी मिल जाएगी.

यकीनन, इस तरह की अफवाह को बल वही देगा, जिसे अफवाह फैलाने से फायदा हो. इस पूरे मामले में साड़ी बेचने वाले, पूजन सामग्री, मिठाई बेचने वाले और पूजा कराने वाले पोंगापंथी की मिलीभगत है, क्योंकि इस अफवाह से सीधेसीधे इन लोगों को ही फायदा मिल रहा है.

इस अफवाह को बल मिलने के बाद रोजाना सैकड़ों औरतें इस एकदिवसीय छठ पर्व में भाग ले रही हैं. व्रतधारी सुनीता कुंवर, गौरी देवी, सूरती देवी ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि किस के कहने पर वे व्रत कर रही हैं, पर उन के मायके से उन के भाई और पिता ने साड़ी और मिठाइयां भेजी हैं. क्योंकि गढ़वा जिले में ही उन के मायके में सभी लोगों ने पासबुक और आधारकार्ड रख कर सूर्य को अर्घ्य दिया है.

सब से चौंकाने वाली बात ये है कि इस अफवाह में सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ गई हैं. सभी व्रतधारी औरतें एक लाइन से सटसट कर बैठती?हैं और पुरोहित पूजा करा रहे हैं.

सभी व्रतधारी औरतों में एक खास बात यह है कि वे सभी मजदूर, मेहनतकश और दलित, पिछड़े समाज से आती हैं. उन के मर्द पारिवारिक सदस्य इस काम में उन की बढ़चढ़ कर मदद कर रहे हैं.

एक व्रतधारी के पारिवारिक सदस्य बिगुन चौधरी का कहना है कि अफवाह हो या सच सूर्य को अर्घ्य देने में क्या जाता है.

प्रशासन इस अफवाह पर चुप है, जो काफी खतरनाक है, क्योंकि इस व्रत में वे औरतें भी शामिल हुई हैं, जो दिल्ली, मुंबई या पंजाब से वापस लौटी हैं और जिन पर कोरोना का खतरा हो सकता है.

प्रशासन ने भले ही अपना पल्ला झाड़ लिया हो, पर राज्य में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों के आने से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं तो चिंता की बात है, क्योंकि मानसिक बीमारी भले ही दलितों, पिछड़ों तक सीमित हो पर कोरोना महामारी सभी को अपना शिकार बनाती है.

सच तो यह है कि दिनरात मेहनत कर मजदूर बाहर से पैसा कमा कर तो आते हैं, पर किसी न किसी पाखंड का शिकार वे हमेशा हो जाते हैं, क्योंकि उन की पत्नी पहले से अमीर और बेहतर दिखाने के चक्कर में धार्मिक आयोजन कर अपने पति की गाढ़ी कमाई का पैसा बरबाद कर देती हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा कर के वे घंटे 2 घंटे ही सही सभी की नजर में आएंगी. वे उन पैसों का उपयोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा पर खर्च करना पैसों की बरबादी समझते हैं.

बदहाली में जी रहे उन के बुजुर्गों को अच्छे कपड़े, लजीज व्यंजन व दवा नसीब नहीं होती है, क्योंकि वे मान कर चलते हैं कि बुजुर्गों को खिलानेपिलाने से, नए कपड़े देने से क्या फायदा, जबकि धार्मिक आयोजनों से गांव का बड़ा आदमी भी उन्हें बड़ा समझेंगे.

ऐसे मौके का फायदा पोंगापंथी जरूर उठाते हैं. मेहनतकश मजदूरों को तो बस यही लगता है कि ऐसे धार्मिक आयोजन उन के मातापिता और पूर्वजों ने कभी नहीं किए. वे इस तरह के आयोजनों से फूले नहीं समाते. पर उन्हें क्या पता कि उन के पूर्वजों को धार्मिक आयोजन करना और इस तरह के आयोजन में भाग लेने से भी मना था.

ज्ञान और तकनीक के इस जमाने में जहां हर ओर पाखंड का चेहरा बेनकाब हो रहा है, वहीं आज भी लोग पाखंड के चंगुल में आ ही जा रहे हैं.

साल 2000 के बाद इस तरह की घटनाओं में कमी आ गई थी, क्योंकि दलितपिछड़ों के बच्चे पढ़ने लगे हैं. उन्हें भी आडंबर, अंधविश्वास और आस्था के बीच फर्क दिखाई देने लगा है.

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पर आज भी इस इलाके के दलितों और पिछड़ों के बच्चे स्कूलों में सिर्फ सरकार द्वारा दिए जा रहे मिड डे मील को खाने जाते हैं और जैसे ही बड़े होते हैं, अपने पिता के साथ कमाने के लिए दिल्ली, मुंबई और पंजाब निकल लेते हैं.

इन के बच्चे इसलिए भी नहीं पढ़ पाते हैं, क्योंकि उन को पढ़ाई का माहौल नहीं मिलता. वे सिर्फ बड़ा होने का इंतजार करते हैं, ताकि कमा सकें.

इसी वजह से आज भी इन इलाकों में प्रवासी मजदूरों की तादाद ज्यादा है. 90 के दशक में इन इलाकों में प्रिटिंग प्रैस वाले सस्ते परचे छपवा कर चौकचौराहे पर आतेजाते लोगों के हाथ में परचे थमा देते थे.

उस परचे पर लिखा होता था कि माता की कृपा से परचा आप को मिला है. आप इसे छपवा कर 200 लोगों में बंटवा दो, तो आप का जीवन बदल जाएगा. और अगर परचा फाड़ा या माता की बात की अनदेखी की तो 2 दिन के अंदर आप की या आप के बच्चे की दुर्घटना हो जाएगी.

डर के इस व्यापार में प्रिंटिंग प्रैस वालों ने खूब कमाई की. फिर मिठाई वाले और साड़ी बेचने वाले कैसे पीछे रह सकते थे. झारखंड के पलामू में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बल्कि बहुत दिनों के बाद इस की वापसी हुई है इस नए रूप में. पर मौके का फायदा उठाने वाले लोग वे खास लोग ही हैं.

अंधविश्वास की बलि चढ़ती महिलाएं

छत्तीसगढ़ देश दुनिया का एक अजूबा राज्य है. दरअसल, छत्तीसगढ़ का ज्यादातर हिस्सा वन प्रांतर है, यहां बस्तर है, अबूझमाड़ है. यहां सरगुजा का पिछड़ा हुआ अंचल है तो रायगढ़ मुंगेली आदि जिलों की गरीब बेबस लाचार आवाम का रहवास भी.

यहां शिक्षा का स्तर निम्नतम है वहीं जीवन स्तर भी बेहद निम्न. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पश्चात जिस विकास और उजाले की उम्मीद यहां की आवाम कर रही थी उसका कहीं पता नहीं है. और आज भी दशकों पूर्व जैसा माहौल है आज भी यहां अंधविश्वास में महिलाओं की छोटी सी बात पर बेवजह हत्या हो जाती है. हाल ही में अंधविश्वास और टोना टोटका का एक मामला राज्य के रायगढ़ जिला के पास थाना पूंजीपथरा के बिलासखार में घटित हुआ. पत्नी की तबियत खराब रहने पर जादू टोने की शंका में 50 वर्षीय मीरा बाई की मुदगल (लकड़ी के गदा) से सिर में मार कर हत्या कर दी गई और यही नहीं घटना के बाद शव को जला दिया. बाद में घटना की रिपोर्ट मृतका के भाई किर्तन राठिया निवासी ग्राम पानीखेत द्वारा सात जुलाई को दर्ज करायी.

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पुलिस  बताती है कथित आरोपी राजू की पत्नी की तबीयत खराब रहती थी तब राजू शंका करता था कि मीराबाई जादू टोना करती है. छह जुलाई को राजू की पत्नी की तबीयत खराब होने पर राजू गुस्से में आकर घर में रखें लकड़ी के मुगद्ल गदा से महिला के सिर में ताबड़तोड़ वार कर हत्या कर  देता है. यहां अंधविश्वास में महिलाओं की अक्सर क्रूरतम  हत्या हो जाती है और शासन-प्रशासन सिर्फ औपचारिकता निभाता हुआ आंखें मूंदे हुए हैं.

अंधविश्वास का संजाल

छत्तीसगढ़ आसपास के अनेक राज्यों में जहां आदिवासी बाहुल्य हैं अंधविश्वास को लेकर के महिलाओं की हत्या हो जाती है.छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य झारखंड के साहिबगंज जिले के राधानगर थाना क्षेत्र की मोहनपुर पंचायत के मेंहदीपुर गांव की मतलू चाैराई नामक एक 60 वर्षीय महिला की हत्या डायन बताकर कर दी गई. जिस व्यक्ति ने हत्या की उसे यह शक था कि इसने उसके बेटे को जादू टोना कर मारा है. महिला की हत्या गांव के सकल टुडू ने विगत  7 जुलाई को गला काट कर की और दुस्साहसिक  ढंग से और धड़ से कटे सिर को लेकर बुधवार 8 जुलाई की सुबह वह थाने पहुंच गया.

पुलिस बताती है कि कि आरोपी का 25 वर्षीय बेटा साधिन टुडू बीमार था. उसे सर्दी खांसी थी और सोमवार 6 जुलाई की शाम उसकी मौत हो गई. उसकी मौत के बाद गांव में यह अफवाह फैल गई कि जादू टोना कर मतलू चाैराई ने उसकी जान ले ली. इसके बाद साधिन का पिता अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने के बजाय महिला की हत्या तय करने का ठान लिया. उसने मंगलवार 7 जुलाई की रात मतलू की गर्दन काट कर हत्या कर दी और कट हुआ सिर लेकर अगली सुबह राधानगर थाना पहुंच गया.

इससे पहले हाल में ही रांची जिले के लापुंग में दो भाइयों ने मिल कर अपनी चाची की डायन होने के संदेह में हत्या कर दी थी. रांची जिले के लापुंग थाना क्षेत्र के चालगी केवट टोली की रहने वाली 56 वर्षीया फुलमरी होनो की हत्या शनिवार 4 जुलाई को उनके दो भतीजों ने धारदार हथियार से कर दी. जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है ऐसा कोई महीना नहीं व्यतीत होता जब कुछ पुरुष और महिलाओं की तंत्र मंत्र के नाम पर हत्या नहीं हो जाती.

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आवश्यकता जागरूकता की

छत्तीसगढ़ सहित देश में ऐसे अंधविश्वास के खिलाफ जागरूकता की दरकार अभी भी बनी हुई है इसके लिए छत्तीसगढ़ में टोनही अधिनियम बनाया गया है मगर वह भी कागजों में सिमटा हुआ है ऐसे में लगभग तीन दशक से अंधविश्वास और तंत्र मंत्र के खिलाफ जागरूकता फैला रहे डॉक्टर दिनेश मिश्रा की पहल एक आशा की किरण जगाती है.

डॉ. दिनेश मिश्र  के अनुसार  अंधविश्वास में  की गई ये हत्याएं अत्यंत शर्मनाक व दुःखद हैं. जादू टोने जैसे मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है और कोई महिला डायन/टोनही नहीं होती. यह अंधविश्वास है, जिस पर ग्रामीणों को भरोसा नहीं करना चाहिए. विभिन्न बीमारियों के अलग-अलग कारण व लक्षण होते हैं. संक्रमण, कुपोषण, दुर्घटनाओं से लोग अस्वस्थ होते है, जिसका सही परीक्षण एवं उपचार किया जाना चाहिए. किसी भी बैगा, गुनिया के द्वारा फैलाये भ्रम व अंधविश्वास में पड़ कर कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए. मगर सच तो यह है कि शासन, प्रशासन व छत्तीसगढ़ की सामाजिक संस्थाएं हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई हैं और महिलाएं अंधविश्वास की चपेट में आकर मारी जा रही है.

शोषण की शिकार पिछड़े दलित वर्ग की लड़कियां

अपनी सहेली की शादी के पार्टी से लौटकर 11 बजे रात्रि को ज्योंहि शिवानी अपने घर का कॉलवेल बजाती है. उसके पापा की ऑंखें गुस्से से लाल है. दरवाजा खोलते ही बोलने लगते हैं.अय्यासी करके आ गयी.घर आने का यही समय है. जबकि बेटा हर रोज शराब और सड़कों पर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करके घर में बारह बजे रात्रि तक भी आता है. उसे पापा कुछ भी नहीं बोलते.

पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाएं सदियों से आज तक उपेक्षित लांक्षित और शोषित हैं. अपने ऊपर हो रहे शोषण की आवाज तो हम उठाते रहें हैं. लेकिन इस समुदाय से जुड़े लोग स्वयं लड़कियों और औरतों पर शोषण कई माध्यमों से करते रहते हैं. अशिक्षित से लेकर इस समुदाय के शिक्षित लोग भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं. शिवानी रहती तो एक बड़े शहर की एक बस्ती में पर उसके पिता की रगों में अभी भी गांव के रीति-रिवाज भरे पड़े हैं.

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आज भी लड़के और लड़कियों में अधिकांशतः घरों में फर्क समझा जाता है. लड़का और लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है. पहली चाहत आज भी लोगों के अंदर लड़के की है. तीन चार लड़की होने या लड़के की चाहत में छिप छिपाकर लड़की को पेट में ही गिरवा देते हैं. लड़के लड़की में खान पान ,पढ़ाई लिखाई सभी मामले में भेदभाव किया जाता है. लड़का है तो उसे दूध और लड़की है तो उसे छांछ पीने को मिलेगा. लड़की सरकारी विद्यालय में और लड़का प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जाएगा.

औरंगाबाद जिले के सरकारी मध्य विद्यालय भाव विगहा के प्रधानाध्यपक उदय कुमार ने बताया कि उनके स्कूल में अधिक लड़कियाँ आती हैं. इस गाँव में सिर्फ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते हैं. लड़के को प्राइवेट विद्यालयों में लोग पढ़ने के लिए भेजते हैं. ज्यादातर लड़कियाँ इंटर के बाद उच्च शिक्षा या टेक्निकल एजुकेशन इसलिए नहीं ले पाती कि पढ़ाने में अधिक खर्च आता है. शहरों में रखकर लड़कियों को लोग नहीं पढ़ाना चाहते हैं.साफ जाहिर होता है कि आज भी लोगों के अंदर यह सोच घर करी हुई  है कि बेटियों को अच्छी शिक्षा देने से क्या फायदा है. लड़कों को कर्ज लेकर भी लोग पढ़ाना चाहते हैं. लड़का है तो आने वाले दिनों में घर का सहारा बनेगा.इस तरह की सोच से लोग बिमार हैं.

दलित और पिछड़ी जाति के पढ़ने वाली छोटी छोटी लड़कियाँ बर्तन धोने,छोटे बच्चों को खिलाने, बकरी चराने के अलावे घरेलू काम करतीं हैं. जबकि लड़के स्कूल से आने के बाद ट्यूशन ,मोबाइल,गेम और क्रिकेट खेलने में मस्त रहते हैं.

दलित और पिछड़ी जातियों में लड़कियों की शादी 15 से लेकर 22 वर्ष तक के उम्र में कर दी जाती है. साधरण घर की लड़कियाँ तो अपने मैके में भी अपने माता पिता के साथ खेती किसानी मजदूरी में हाँथ बंटाती रहतीं हैं.

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ससुराल जानें पर भी ससुराल के हैसियत के अनुसार काम करना पड़ता है. ईंट भट्ठा पर काम कर रही 23 वर्षीय शादी शुदा रजंती ने दिल्ली प्रेस को बताया कि उसका घर गया जिला के आजाद बिगहा गाँव में है. उसके बाबूजी  सभी परिवार को लेकर उत्तरप्रदेश बनारस  के पास ईंट भट्ठा पर काम करने के लिए लेकर चले जाते थे.सिर्फ बरसात के दिनों में तीन महीने वे लोग अपने गाँव में रहते बाकी दिनों बचपन से आज तक ईंट भट्ठे पर ही उसने जिंदगी गुजारी .पहले अपने माँ बाबूजी के साथ में काम करता थी.आज अपने सास ससुर और पति के साथ में काम करती है. शादी के बाद तीन महीने अपने घर पर ससुराल में रही.फिर अपने ससुराल वालों के साथ इंट भट्ठा पर निकल पड़े.

इसी तरह काजल  ने बताया, “मेरी शादी 15 वर्ष की उम्र में हो गयी थी. हमसे छोटा एक भाई और एक बहन थी. माँ बाबूजी दूसरे के खेतों मजदूरी करते थे. घर पर खाना बनाना और भाई बहन को देखना मेरा काम रहता था. जब वे लोग थोड़ा बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तो मैं माँ बाबूजी के साथ साथ में धान गेहूँ काटने,सोहने और रोपने के कार्य में जाने लगी. जब शादी हुई तो ससुराल गई. 6 माह घर में रहे उसके बाद पति लुधियाना काम करने के लिए गाँव के दोस्तों के साथ चले गए.

सास ससुर साथ में मजदूरी पर चलने के लिए विवश करने लगे. मैं मजबूर होकर काम पर जाने लगी. कोई उपाय नहीं था. पति भी बोले क्या करोगी जो माँ बाबूजी कह रहे हैं, वह करो. चार बजे भोर में उठती हूँ. सभी लोगों का खाना बनाकर खाकर काम पर निकल जाती हूँ. शाम में काम से आती हूँ. वर्तन धोती हूँ. खाना बनाती हूँ. बिस्तर पर जाते ही नींद लग जाती है. चार बजे उठ जाती हूँ. जब काम नहीं रहता तो दिन भर घर में रहती हूँ. गाँव में औरतों को सालों भर काम भी नहीं मिलता.खासकर फसल काटने और रोपने के समय ही काम मिल पाता है.”

ये उदाहरण सिर्फ गाँवों में ही देखने को नहीं मिलते शहरों में भी इस तरह की समस्याएँ हैं. शहर में गरीब परिवारों की थोड़ी समस्या अलग ढंग की है.

शिवानी एक कम्पनी में टाइपिस्ट की नौकरी करती है. बेटा भी इंजीनियरिंग करके जॉब करता है. उसे कभी ताना नहीं सुनने पड़ता .लेकिन लड़की होने के उसे नाते ताना सुनने पड़ते हैं.

कहीं लड़कियों को बाजार ,पार्टी ,दोस्त के यहाँ जब जाने की जरूरत पड़ती है तो बड़ी लड़कियों के साथ में घर के छोटे लड़कों को सुरक्षा के हिसाब से भेजा जाता है. जबकि ये छोटे लड़के आफत होने पर किसी भी तरह से बहन को में बचा नहीं सकते लेकिन परिवार वालों को बेटे पर अधिक भरोसा होता है, बेटियों पर नहीं. बेटी को घर की इज्जत समझा जाता है.

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बचपन से ही बेटियों को तरह तरह के आचरण और ब्यवहार करने के लिए सिखाया जाता है. ऊँची आवाज में बात नहीं करो हँसों नहीं. कहीं आओ जाओ नहीं तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगायी जाती हैं.

प्यार करने वाली कितने लड़कियों को तो माँ बाप और उसके परिवार वालों द्वारा ही हत्या तक कर दी जाती है.

लड़कियों के साथ गैरबराबरी और शोषण बचपन से लेकर वृद्ध होने तक साधारण परिवारों में होते रहता है. बचपन में मां बाप और भाई , युवा अवस्था में सास ससुर और पति वृद्ध होने पर उसके जवान बेटों द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी आम है. साधारण हैसियत वाले लोगों के घरों में आवश्यक समानों के लिए भी परिवार लड़ाई झगड़ा आम बात है. शराबी पति शराब पीकर आता है. गाली गलौज मार पीट करता है. फिर भी समाज और परिवार का दबाव पति को परमेश्वर मानने का बना ही रहता है.

ग्रामीण इलाकों में एक तरीका है कि घरों में पहले मर्द खाते हैं. अंत में औरतें खातीं हैं. अगर सब्जी दाल खत्म हो गई तो औरतें अपने लिए नहीं बनातीं. नमक मिर्च या अचार के साथ रोटी चावल खाकर सो जातीं हैं.

इन साधारण लड़कियों के साथ हर जगह, पढ़ाई करते हुए, खेत खलिहान और आफिस तक में काम करते हुए, मजाक करना, शरीर को टच करना और मौका मिलने पर यौन शोषण का शिकार हो जाना आम बात है. कमजोर तबके से आने की वजह से मुँह खोलना जायज इसलिए नहीं समझतीं इन दबंग लोगों के समक्ष उसे इंसाफ नहीं मिल पाएगा और सिर्फ बदनामी का ही सामना करना पड़ेगा.

लड़कियों को तो हर बात में परिवार वालों द्वारा तमीज सिखायी जाती है. लेकिन लड़कों को नहीं.  घर के लड़के किसी लड़की के साथ गलत ढंग से पेश आते हैं. उसी तरह से दूसरे घर के लड़के भी इस घर की बहू बेटियों से गलत ढंग से पेश आ सकते हैं. जिस तरह से लड़कियों को तमीज सिखाते हैं. उसी तरह से लड़कों को भी सही गलत का पाठ  पढ़ाया जाना चाहिए.

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अगर आने वाली पीढ़ी के लिए स्वस्थ और सुंदर समाज बनाना चाहते हैं तो लड़का और लड़की में नहीं सही और गलत में भेद करना सिखायें.

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