Narendra Modi का गंगा स्नान, वाया अफगानिस्तान…

Narendra Modi : दरअसल, एक बार फिर आईने की तरह साफ हो चुका है कि चाहे देश कितने ही अंधविश्वास में डूब जाए, यहां शिक्षा, चिकित्सा, प्रगति चाहे हो या न हो, मगर हाथ में तो हिंदुत्व की मशाल है और नजरिया यह है कि इसी आधार पर देश की जनता हमेशा सिरआंखों पर बैठाएगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 फरवरी, 2025 को त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाई और कहा, “मां गंगा का आशीर्वाद पा कर मेरे मन को असीम शांति और संतोष मिला.”

वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच संगम में स्नान करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी बांह का केसरिया रंग का कुरता और नीले रंग का पाजामा पहने देखा गया. उन्होंने रुद्राक्ष की माला से जाप भी किया. उन के गले में भी रुद्राक्ष की एक माला थी. उन्होंने दूध से गंगा का अभिषेक किया और माला फूल चढ़ा कर आरती की.

इस के बाद पुरोहितों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के माथे पर चंदन का तिलक लगाया और उन्हें गंगा जल का आचमन कराया.

संगम में स्नान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे विधिविधान से पूजनअर्चन किया. काला कुरता और केसरिया पटका व हिमाचली टोपी पहने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैदिक मंत्रों और बोलों के बीच त्रिवेणी संगम में अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, फल और लाल चुनरी अर्पित की. इस के अलावा उन्होंने संगम स्थल पर तीनों नदियों की आरती की.

प्रधानमंत्री नरेंद्र ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में कहा, ‘प्रयागराज महाकुंभ में आज पवित्र संगम में डुबकी के बाद पूजाअर्चना का परम सौभाग्य मिला. मां गंगा का आशीर्वाद पा कर मन को असीम शांति और संतोष मिला है. उन से समस्त देशवासियों की सुखसमृद्धि, आरोग्य और कल्याण की कामना की. हरहर गंगे.’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पोस्ट में संगम में डुबकी लगाते, सूर्यदेव को अर्घ्य देते, गंगा को प्रणाम करते और रुद्राक्ष की माला जपते हुए अपनी तसवीरें भी साझा कीं. दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी एक पोस्ट कर कहा , ‘भारत की एकता के महायज्ञ महाकुंभ 2025, प्रयागराज में आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पवित्र त्रिवेणी संगम में पावन स्नान कर मां गंगा, मां यमुना, मां सरस्वती का शुभाशीष प्राप्त किया. हरहर गंगे.’

कुलमिला कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह धार्मिक कर्मकांड सार्वजनिक रूप से किया है वह संविधान के विरुद्ध है और भारतीय लोकतंत्र में परंपराओं को अगर हम देखें तो भी पहले ऐसा कभी दिखाई नहीं देता कि किसी प्रधानमंत्री ने कुंभ या किसी बड़े धार्मिक आयोजन में पहुंच कर इस तरह स्नानध्यान किया हो और त्रिवेणी में पूजाअर्चना की हो.

दरअसल, हमारे देश में संविधान इतना लचीला है कि उसे किसी भी तरह किसी भी तरफ घुमाया जा सकता है. अगर कोई यह रहेगा कि यह संविधान के खिलाफ है तो सवाल खड़े हो जाएंगे कि संविधान में कहां लिखा है कि हमें अपने धर्म से अलग होना होगा और हम धार्मिक आयोजन में नहीं जा सकते.

दरअसल, बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जो लिखी नहीं जाती हैं, मगर समझी जाती हैं. भारतीय जनता पार्टी की देश में जब से सरकार आई है, धर्म और धार्मिकता अपने उफान पर है और सत्ता हासिल करने के लिए जिस तरह हिंदू धर्म को आगे रख कर आज हर एक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि को अंजाम दिया जा रहा है, वह आने वाले समय में इस देश को एक ऐसे चौराहे पर खड़े कर देगी, जहां से रास्ता सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और आज के बांग्लादेश की ओर जाता है.

औक्सफोर्ड से पढ़ी दिल्ली की लड़की कैसे पहुंची सीएम की कुर्सी तक, आतिशी की कहानी

अब से दिल्ली की नई मुख्यमंत्री आतिशी होंगी. खुद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद के लिए आतिशी के नाम का प्रस्ताव दिया है. विधायकों ने भी आतिशी के नाम का समर्थन किया है. जिस दिन से अरविंद केजरीवाल ने ये बयान दिया था कि मैं जनता के बीच में जाऊंगा..गली-गली में जाऊंगा..घर-घर जाऊंगा और जब तक जनता अपना फ़ैसला न सुना दे कि केजरीवाल ईमानदार है तब तक मैं सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगातब से दिल्ली के सीएम कौन होंगे इसके कयास लगाएं जा रहे थे और अब सबको अपना नया सीएम मिल गई है. लेकिन कैसे आतिशी राजनीति तक पहुंची और अरविंद केजरीवाल से मिली. दिल्ली की लड़की आतिशी की कहानी सभी जानना चाहते है.

 

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आतिशी बनीं दिल्ली की तीसरी महिला सीएम

आपको बता दें, कि दिल्ली में अभी तक सात मुख्यमंत्री रहे है. जिसमें से दो महिला सीएम ने कुर्सी संभाली है. आतिशी ऐसी तीसरी महिला होंगी जो दिल्ली की सीएम की कुर्सी पर बैठेंगी और आठवीं सीएम बनेंगी जो दिल्ली का कार्यकाल संभालेंगी.

इनसे पहले भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज और कांग्रेस की ओर से शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. सबसे लंबा कार्यकाल शीला दीक्षित का रहा है.

सुषमा स्वराज- 12 अक्टूबर 1998 – 3 दिसम्बर 1998 (52 दिन तक दिल्ली की सीएम रहीं)

शीला दीक्षित – नई दिल्ली सीट- 3 दिसम्बर 1998 – 28 दिसम्बर 2013 (15 साल, 25 दिन तक दिल्ली की सीएम रहीं)

आतिशी की पढ़ाई और राजनीति

आतिशी 8 जून 1981 में दिल्ली में जन्मीं है. इनकी स्कूली पढ़ाई नई दिल्ली के स्प्रिंगडेल्स स्कूल में हुई हैं. फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कौलेज से साल 2001 में ग्रैजुएशन की है. फिर आगे की पढ़ाई के लिए आतिशी इंग्लैंड चली गई. आतिशी ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की स्टीजिज की. इशके बाद आतिशी पढ़ाई करके भारत वापस लौटी, कुछ दिन आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में काम किया. इतना ही नहीं, एक गैर-सरकारी संगठन संभावना इंस्टीट्यूट औफ पब्लिक पौलिसी के साथ भी जुड़ी रहीं. इतनी पढ़ाई करने बाद आतिशी को स्कूलों और संगठनों से जुड़ना पड़ा. लेकिन किसे पता था कि दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रोफेसर विजय सिंह और तृप्ता सिंह के घर की लड़की एक दिन दिल्ली की सीएम पद पर बैठेंगी और राजनीति में अपनी वर्चस्व अपनाएंगी.

राजनीति में कब और कैसें पहुंची आतिशी

राजनीतिक सफर की बात करें तो आम आदमी पार्टी की स्थापना के समय से ही आतिशी इस पार्टी से जुड़ गई थी. आम आदमी पार्टी ने 2013 में पहली बार दिल्ली के विधानसभा से चुनाव लड़ा था और तभी से आतिशी पार्टी की घोषणा पत्र मसौदा समिति की प्रमुख सदस्य थीं. आतिशी आप प्रवक्ता भी रहीं. उन्होंने जुलाई 2015 से अप्रैल 2018 तक दिल्ली के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री रहे मनीष सिसोदिया के सलाहकार के तौर पर काम किया और दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का लेवल सुधारने के लिए कई योजनाओं पर काम किया.

पार्टी के गठन के शुरुआती दौर में इसकी नीतियों को आकार देने में भी आतिशी की अहम भूमिका रही है. बाद में साल 2019 के लोकसभा चुनाव में आतिशी को पूर्वी दिल्ली से पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया. मुकाबला बीजेपी के प्रत्याशी गौतम गंभीर से था. चुनाव में आतिशी गौतम गंभीर से 4.77 लाख मतों से हार गईं थी.

साल 2020 के दिल्ली चुनाव में उन्होंने कालकाजी क्षेत्र से चुनाव लड़ा और बीजेपी प्रत्याशी धर्मवीर सिंह को 11 हजार से अधिक वोट से मात दी. इसके बाद से ही आतिशी का सियासी ग्राफ तेजी से बढ़ा. 2020 के चुनाव के बाद उन्हें आम आदमी पार्टी की गोवा इकाई का प्रभारी बनाया गया.

केजरीवाल ने गिरफ्तारी का संकट मंडराने से पहले अपनी कैबिनेट में फेरबदल किया और 9 मार्च 2023 को आतिशी को कैबिनेट मंत्री पद की शपथ दिलाई गई. दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद आतिशी की भूमिका और भी जरूरी हो गई. केजरीवाल के इस्तीफे के ऐलान के बाद से ही आतिशी के नाम की चर्चा तेज थी और आज विधायक दल की बैठक में उनके नाम पर मुहर लग गई और वे दिल्ली की मुख्यमंत्री बन गई.

आतिशी के नाम को लेकर हुई थी कंट्रोवर्सी

आपको बता दें कि सबसे पहले आतिशी सरनेम में सिंह का यूज करती थीं. उनके पिता विजय सिंह है. इसलिए वे अपने नाम के पीछे सिंह लगाती थी. बाद में लेफ्ट आइडियोलौजी वाले पैरेंट्स के चलते उन्होंने नया सरनेम यूज करना शुरू किया है, जो कि मार्क्स और लेनिन के नाम से मिलकर बना है. यह था मार्लेना, लेकिन इसे भी बाद में उन्हे हटाना पड़ा. क्योंकि इस सरनेम पर विरोधी दल के लोगों ने उन्हे ईसाई धर्म का कहना शुरु कर दिया. जिसके बाद उन्होंने ये भी हटा दिया.

आतिशी की जिनसे शादी हुई है, वह भी सिंह हैं. ऐसे में उनका नाम आतिशी मार्लेना सिंह भी हुआ. हालांकि, यह नाम भी बहुत दिनों तक नहीं चला. आतिशी को विवाद के चलते मार्लेना सरनेम हटाना पड़ा.

ऐसा कहा जाने लगा कि दिल्ली के कालकाजी में बड़ी संख्या में पंजाबी आबादी रहती है. हो सकता है कि यह उनका रणनीतिक कदम हो, जिसके जरिए वह उस वोटबैंक को साइलेंटली लुभाना चाहती हों. लेकिन मौजूदा समय में वह सिर्फ आतिशी लिखती हैं. नाम के साथ कोई सरनेम यूज नहीं करती हैं.

माता पिता अफजल गुरु के समर्थन में लड़े थे

आतिशी एक बाद तब भी कंटोवर्सी में आई थी जब आतिशी के माता-पिता आतंकी अफजल गुरु को बचाने के लिए लड़े थे. इसी पर हाल में स्वाति मालीवाल ने एक्स पर पोस्ट मे लिखा है, ‘दिल्ली के लिए आज बहुत दुखद दिन है. आज दिल्ली की मुख्यमंत्री एक ऐसी महिला को बनाया जा रहा है जिनके परिवार ने आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु को फांसी से बचाने की लंबी लड़ाई लड़ी. उनके माता पिता ने आतंकी अफ़ज़ल गुरु को बचाने के लिए माननीय राष्ट्रपति को दया याचिकाऐं लिखी. उनके हिसाब से अफ़ज़ल गुरु निर्दोष था और उसको राजनीतिक साज़िश के तहत फंसाया गया था. वैसे तो आतिशी मार्लेना सिर्फ़ ‘Dummy CM’ है, फिर भी ये मुद्दा देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. भगवान दिल्ली की रक्षा करे!’ 

अरविंद केजरीवाल की जमानत और अदालतों की मजबूरी

सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को 20 दिन की कई शर्तों के बाद जो जमानत दी है वह यह नहीं दिखाती कि देश में अभी भी कानून का राज है और कोई मनमानी नहीं कर सकता. यह जमानत सिर्फ यह दिखाती है कि सरकार के आगे सुप्रीम कोर्ट भी कितनी कमजोर है कि वह एक चुने हुए जिम्मेदार मुख्यमंत्री को सिर्फ बेईमान गवाहों के बयानों पर गिरफ्तार किए जाने पर भी जमानत जैसा मौलिक हक नहीं दे सकती.

जो हाथ सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में बंधे दिख रहे हैं, वे हर अदालत में दिखते हैं. हर मजिस्ट्रेट पुलिस के कहने पर हर ऐसे व्यक्ति को जेल भेज देता है जिस के खिलाफ पुलिस ने या किसी और ने कोई एफआईआर कराई हो. 5-7 साल बाद जब मामले का फैसला आता है तो 80 प्रतिशत मामलों में तो पहला जज ही इन आरोपियों को बेगुनाह कह देता है क्योंकि पुलिस ने जब उन्हें पकड़ा था तो उस के पास कोई सुबूत नहीं था.

केवल राजनीति वाले मामलों में सत्ता में बैठी सरकार के इशारे पर पहली अदालत सजा देती है पर उन में से भी बहुत से छूट जाते हैं. आपसी मारपीट, रंजिश, सरेआम हत्या, हत्यारे का खुद गुनाह मान लेने जैसे मामलों में सही सजा सुनाई जाती है. ज्यादातर मामले जो पुलिस वाले या सरकारी अफसर कानून तोड़ने पर दायर करते हैं, उन में न गवाह होते हैं, न सुबूत होते हैं पर महीनों हो सकता है किसी को जेल में रहना पड़ा हो क्योंकि जमानत नहीं मिली.

इस मामले में जिस में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन को जेल में बंद किया, यह शक है कि उन्होंने शराब नीति में हेरफेर कर के जनता या सरकार के पैसे को हड़पा है. ऐसे मामलों में जमानत पर छोड़ देने से भी काम चल जाता पर अदालतें सरकारों की शक्ल देख कर जमानत नहीं देतीं.

2012 से 2014 तक भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर हिसाबकिताब को परखने वाले विनोद राय ने कितने ही मंत्रियों को जेल भिजवा दिया और महीनों उन्हें जमानत नहीं मिली. बाद में एक भी मामले में कोयला घोटाले या 2जी घोटाले में कोई गुनाहगार नहीं पाया गया पर कइयों को महीनों, सालों जेल में गुजारने पड़े. आम आदमियों की हालत तो इस से भी बुरी होती है.

मिलावट करने, जमाखोरी करने, इनकम टैक्स या सेल्स टैक्स में गड़बड़ करने के शक, मकान समय पर बना कर न देने जैसे गुनाहों में एफआईआर करा दी जाती है और पुलिस के कहने पर मजिस्ट्रेट जमानत नहीं देते. उन्हें जमानत न देने का बल सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही मामलों से मिलता है.

मजेदार बात यह है कि लगभग हर जज अपने कैरियर में 4-5 फैसलों में लिखता है कि लोगों की आजादी सब से बड़ी चीज है और कानून का सिद्धांत है कि बेल नौट जेल माना जाए. पर असल में होता उलटा ही है. अरविंद केजरीवाल को 2 जून को जेल में लौटना होगा, यह आदेश दे कर सुप्रीम ने कहा है कि जिस पर शक हो उसे जमानत न दो, महीनों रखो, छोड़ना है तो इस मामले की तरह 10-20 दिन के लिए छोड़ो, जैसे पैरोल दी जाती है.

दिक्कत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इतनी छूट तो दे दी पर पहला मजिस्ट्रेट इतना रिस्क भी नहीं लेता और जैसा पुलिस वाले या पब्लिक प्रोसिक्यूटर कहता है, मान लेता है. पुलिस के पास इसी से अपार ताकत है और तभी कांस्टेबल की कुछ नौकरियों के लिए भी लाखों कैंडीडेट खड़े हो जाते हैं. देश का आम गरीब जो महंगा वकील नहीं कर सकता जरा सी गलती पर महीनों जेल में सड़ सकता है जबकि उस पर गुनाह साबित भी नहीं हुआ हो.

क्या जेल से चलेगी दिल्ली सरकार या लगेगा राष्ट्रपति शासन? जानिए, क्या हैं नियम

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पद से हटाने की मांग को ले कर दायर जनहित याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है. साथ ही कहा है कि अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के मामले में न्यायिक दखल की जरूरत नहीं है. कोर्ट ने कहा, ‘हमें राजनीतिक दायरे में नहीं घुसना चाहिए और इस में न्यायिक हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है.’

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद से ही दिल्ली की सरकार चलाने को ले कर कई सवाल खड़े होने लगे हैं, जिस में कई तरह के कयासों के साथसाथ कई महत्वपूर्ण सवाल भी सामने आ रहे हैं. सब से मुख्य सवाल यह है कि क्या अरविंद केजरीवाल जेल से ही सरकार चलाएंगे? और अगर हां, तो क्या जेल से सरकार चलाना संभव है? हालांकि, गिरफ्तारी के बाद से अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाए जाने की खबरें भी लगातार सामने आ रही हैं. लेकिन ये बातें कितनी सही हैं, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा.

क्या जेल से सरकार चलाएंगे केजरीवाल?

दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी के पहले से ही आम आदमी पार्टी नेता दावा करते रहे हैं कि अगर केजरीवाल की गिरफ्तारी हुई तो दिल्ली की सरकार जेल से चलेगी. दिल्ली सरकार की मंत्री आतिशी ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल हैं और आगे भी बने रहेंगे, चाहे जेल से सरकार चलानी पड़ी तो चलाएंगे.

आतिशी की मानें तो देश के इतिहास में पहली बार ऐसा देखने को मिलेगा कि किसी राज्य के मुख्यमंत्री जेल से सरकार चलाएंगे और अब अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद भी उन का पद से इस्तीफा न देना काफी हद तक इस बात को सही साबित करता है.

क्या केजरीवाल इस्तीफा देंगे?

अगर कानून के जानकारों की मानें तो दोषी ठहराए जाने तक अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य नहीं हैं. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, अयोग्यता प्रावधानों की रूपरेखा देता है, लेकिन पद से हटाने के लिए दोषसिद्धि आवश्यक है यानी यह साबित करना होगा कि वे दोषी हैं.

आज तक के इतिहास में अब तक ऐसा नहीं हुआ कि कोई मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसा रहा हो, जिस ने जेल से सरकार चलाई हो. कानून के जानकारों के मुताबिक, जेल से सरकार नहीं चला करती. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि सरकार का मुखिया जेल में चला जाए और वहीं से सरकार चलती रहे, क्योंकि मुख्यमंत्री पद के तौर पर ऐसे कई काम होते हैं, जिन के लिए मुख्यमंत्री की उपस्थिति अनिवार्य होती है.

साथ ही जेल की बात करें, तो अगर कोई शख्स जेल में है तो उस के लिए जेल का मैन्युअल फौलो करना अनिवार्य है, क्योंकि पद के अनुसार जेल में कोई अलग नियम नहीं हैं. ऐसे में विधायकों, मंत्रियों से मिलना या बैठक करने पर रोक लग सकती है. इसे ले कर आम आदमी पार्टी के मंत्री सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री जेल में हैं तो बैठक और और्डर भी वहीं से दिए जाएंगे.

हाल ही में आई खबरों के मुताबिक, मुख्यमंत्री जेल से ही कई आदेश भी जारी कर रहे हैं. हालांकि ये सभी बातें राजनीतिक भाषण के लिए तो बिलकुल सही हैं, लेकिन प्रैक्टिल तौर पर फिट नहीं बैठती हैं. इस बात पर आम आदमी पार्टी के नेता कहते हैं कि इसे ले कर वे कोर्ट में याचिका दायर करेंगे. अगर कोर्ट इस मामले पर विचार करता है तो भी इस में वक्त लगेगा.

क्या लागू होगा राष्ट्रपति शासन?

आप नेताओं का कहना है कि हमारे पास पूर्ण बहुमत है. ऐसे में मुख्यमंत्री इस्तीफा क्यों दें? इस के बाद सिर्फ एक ही रास्ता बनता है, जिस में मुख्यमंत्री को बरखास्त कर दिया जाए. कानून में अनुच्छेद 239एए में ऐसा प्रावधान है, जिस में दिल्ली के उपराज्यपाल राष्ट्रपति को पत्र लिख कर मुख्यमंत्री के पद छोड़ने की बात कहें. ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति उन्हें पद से हटा सकते हैं.

इस के अलावा संविधान का अनुच्छेद 356 कहता है कि किसी भी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल होने या इस में किसी तरह का व्यवधान पैदा होने पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. 2 बातों को इसमें आधार बनाया जा सकता है. पहली, जब सरकार संविधान के मुताबिक, सरकार चलाने में सक्षम न हो. दूसरी, जब राज्य सरकार केंद्र सरकार के निर्देशों को लागू करने में विफल रहती है.

राष्ट्रपति शासन लगने पर कैबिनेट भंग कर दी जाती है. राज्य की पावर राष्ट्रपति के पास आ जाती है. इन के आदेश पर ही राज्यपाल, मुख्य सचिव और दूसरे प्रशासकों या सलाहकारों की नियुक्ति की जाती है.

क्या केजरीवाल को पद से हटाने का जोखिम लेगा केंद्र?

अब राजनीति तौर पर बात करें, जो राजनीति जानकारों का मानना है, कि केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाना लोकसभा चुनाव में उलटा पर सकता है, क्योंकि अगर अरविंद केजरीवाल पद से हटाए जाएंगे, तो जनता का इमोशनल सपोर्ट उन्हें मिलेगा. ऐसे में केंद्र सरकार कभी भी इस बात का जोखिम नहीं उठाएगी. इस के पीछे राजनीति के अतीत में हुए लालू यादव और जयललिता का केस है, जिस में उन के जेल जाने के बाद उन्हें जनता की सहानुभूति मिली थी.

केजरीवाल, जेल की दुनिया और लोकतंत्र, पर भाजपा क्यों हलकान

देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब एक मुख्यमंत्री अपने पद पर रहते हुए जेल में है. इस पर जहां दुनियाभर में बात हो रही है, वहीं अरविंद केजरीवाल ने इतिहास में अपना नाम लिखवा लिया है. आने वाले समय में यह साफ होगा कि सचमुच अरविंद केजरीवाल ने शराब घोटाले में रुपए कमाए या फिर उन पर केंद्र सरकार के इशारे पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने झूठी कार्यवाही की थी.

दरअसल, अरविंद केजरीवाल जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुखर हुए हैं और कांग्रेस से गठबंधन किया है, तब से सत्ता में बैठी हुई भाजपा सरकार और उस के मुखौटे मानो अरविंद केजरीवाल के पीछे पड़ गए हैं, जिस का अंत शायद अरविंद केजरीवाल को 10-20 साल जेल में सजा दिलाने और आप पार्टी को खत्म करने के बाद ही होगा.

पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले में एक आरोपी हैं और अभी उन पर या आप पार्टी के किसी भी नेता पर आरोप साबित नहीं हुए हैं, मगर उन के साथ बरताव कुछ इस तरह किया जा रहा है मानो वे देशदुनिया के सब से बड़े अपराधी हों.

केंद्र में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी के समयकाल में विरोधी नेताओं और राजनीतिक पार्टियों के साथ जैसा बरताव किया जा रहा है, वह याद दिलाता है जब सिकंदर ने राजा पोरस को कैद कर लिया था और पूछा था कि बताओ तुम्हारे साथ कैसा बरताव किया जाए?

तब सिकंदर की कैद में राजा पोरस ने कहा था कि वैसा ही बरताव, जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है, मगर नरेंद्र मोदी और उन के सलाहकार यह भूल गए हैं कि देश में लोकतंत्र है और अगर सत्ता में बैठे हुए किसी मुख्यमंत्री के साथ अपराधियों जैसा बरताव होगा, तो इस का संदेश जनजन में अच्छा नहीं जाएगा और आने वाले समय में जब इतिहास लिखा जाएगा तब नरेंद्र मोदी एक ऐसे ‘विचित्र’ प्रधानमंत्री के रूप में चित्रित किए जाएंगे, जिन्होंने अपने विरोधियों को बिला वजह परेशानहलकान किया और शायद इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगा.

यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी ने आम आदमी पार्टी के प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर तीखा प्रहार करते हुए कहा है कि आबकारी नीति में घोटाला जैसा शर्मनाक काम कर के जेल गया आदमी जेल से सरकार चलाना चाहता है.

भाजपा के नेता और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि केजरीवाल में नैतिकता नाम की चीज नहीं है. वे पहले एनजीओ बना कर फिर राजनीति में केवल जेबें भरने आए थे. उन्होंने एक भ्रष्ट सरकार चलाई और यही वजह है कि उन के तमाम मंत्री, सांसद और यहां तक कि वे खुद जेल में हैं.

अरविंद केजरीवाल दिल्ली सरकार की आबकारी नीति में कथिततौर पर गलत तरीके से धन लेने के आरोप में 28 मार्च, 2024 तक प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में हैं और उन के सहयोगियों की ओर से उन का एक कथित पत्र जारी किया गया है, जिस में उन्होंने दिल्ली में पानी और सीवर की व्यवस्था में सुधार के लिए काम करने निर्देश दिए हैं.

दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल के जेल जाने की खबर पर बहुत दूर जरमनी तक बात हुई है, जिस से केंद्र में बैठी हुई भारतीय जनता पार्टी की सरकार को बड़ी पीड़ा हुई है. केंद्र सरकार ने जरमनी की बात पर कहा है कि यह उस का अपना आंतरिक मामला है और अदालत में चल रहा है, पर भाजपा यह भूल जाती है कि दुनिया में बहुत सारे मामलों में भारत सरकार भी अपना पक्ष रखती है और यह दुनिया के हित के लिए होता है. ऐसी बातों को सकारात्मक ढंग से लिया जाना चाहिए.

इस तरह अरविंद केजरीवाल ने एक तरह से जेल से सरकार चलाना शुरू कर दिया है, जो अपनेआप में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को रास नहीं आ रहा है. भाजपा को मानो अरविंद केजरीवाल और आप पार्टी से निजी लड़ाई है और भाजपा यह चाहती है कि आप पार्टी नेस्तनाबूद हो जाए, मगर लोकतंत्र में हर विचारधारा को अपना काम करने और जनता के बीच जाने का अधिकार है, यह बात सत्ता में बैठे हुए भाजपा के कर्ताधर्ता भूल जाते हैं. वे यह भी भूल जाते हैं कि पहले आप सत्ता में नहीं थे और विपक्ष में जाते हुए आप को सत्ता में बैठे हुए लोगों ने एक माहौल दिया, तो आप का भी कर्तव्य है कि आप विपक्ष का सम्मान करें और उसे अपनी विचारधारा को लोगों को बताने का मौका मिलना चाहिए. इसी में देश और लोकतंत्र का भला है.

क्या है लोकसभा में बहुमत होने का मतलब

लोकसभा में बहुमत होने का मतलब होता है केंद्र सरकार चलाना और जनता को सही सरकार देना. अफसोस यह है कि बहुमत वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी अपनी सारी ताकत सही सरकार चलाने की जगह पर विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने, परेशान करने में लगी रहती है. पहले कर्नाटक, फिर मध्य प्रदेश, फिर राजस्थान, फिर महाराष्ट्र, फिर झारखंड, फिर बिहार में पिछले 6-8 सालों से लगातार भारतीय जनता पार्टी घुसपैठियों की तरह चुनी हुई सरकारों को गिराने में लगी हुई है.

हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के मन में पुराणों में बारबार बताए गए चक्रवर्ती राजाओं का खयाल आता हो या कांग्रेस का इतिहास दोहराने की तमन्ना हो. पुराणों में हर राजा अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ता रहता था और नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरीए यह कर रही है. पुराणों के अनुसार भी जो राजा चक्रवर्ती बनने की इच्छा रखने वाले राजा की शरण में बिछ जाता था, वह धर्मप्रिय माना जाता था, निष्कलंक बन जाता था.

अब अरविंद केजरीवाल की मजबूत बहुमत वाली दिल्ली सरकार, जिस पर उपराज्यपाल का घोड़ा हर समय मंडराता रहता है, अपना बहुमत विधानसभा में साबित करने में लगे हैं. यह सोच कि दूसरी पार्टी की सरकार चले ही न, सारे कामों पर काला पानी फेर देती है. लोकतंत्र के बिना यह देश गुलाम बन कर रह जाएगा पर अपनों का नहीं दूसरों का. ज्ञात इतिहास के अनुसार यह देश शायद ही किसी देशी राजा के अंतर्गत रहा है. चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के नाम लिए जाते हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उन का इतिहास बहुत छोटेछोटे तथ्यों के टुकड़े जोड़ कर गढ़ा गया है और यह कभी पता नहीं चलेगा कि उस में कितना सच है.

मुगलों और अंगरेजों ने इतिहास लिखवाया और उस से साफ है कि हिंदू राजाओं का राज कभी लंबाचौड़ा और विस्तृत नहीं रहा. मराठा, चोल, चालुक्य साम्राज्य हुए पर थोड़े दिन के लिए. लोकतंत्र में गांरटी है कि देश अमेरिका की तरह एक रहेगा, एक केंद्र रहेगा जिस पर पूरी जनता को भरोसा रहेगा, लोगों को अपने अधिकार सुरक्षित लगेंगे, अपनी आस्था (चाहे अंधविश्वास क्यों न हो) सुरक्षित लगेगी, लोग 2-3 पीढि़यों तक की योजना बना सकेंगे.

तोड़फोड़ की राजनीति का नतीजा इसी से दिखता है कि पौराणिक कथाओं में राजाओं के महलों और ऋषियों के आश्रमों के किस्से तो हैं पर नहरों, सड़कों, बाजारों के नहीं. कहीं ऐसा न हो कि चक्रवर्ती बनने की इच्छा भारत को पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के दर्जे पर खड़ा कर दे.

किसान आत्महत्या कर रहे, मुख्यमंत्री मौन हैं!

छत्तीसगढ़ में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं सन् 2019 में 629 आत्महत्याओं में 233 किसान व खेतिहर मजदूर हैं जिन्होंने आत्महत्या की. और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों की कथित”आत्महत्या” पर मौन है आखिर क्यों?

पहला पक्ष- अभनपुर के विधायक पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू ने कहा  किसान की मानसिक दशा ठीक नहीं थी, इसलिए आत्महत्या कर ली है. ऐसा ही तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने बयान में कहा है जिसका विरोध मृतक किसान के परिजनों ने किया.

दूसरा पक्ष – छत्तीसगढ़ सरकार के जांच टीम ने पाया फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी का आत्महत्या से कोई संबंध नहीं. दरअसल सरकार किसान आत्महत्या मामलों को स्वतंत्र जांच एजेंसियों के मध्यम से नहीं कराना चाहती.

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तीसरा पक्ष – हमारे संवाददाता ने रायगढ़ ,जांजगीर और कोरबा के कई किसानों से चर्चा की और पाया सरकार की नीतियों और  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण वर्तमान में किसान बेहद क्षुब्ध अवसाद में हैं.

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के अभनपुर तहसील के ग्राम तोरला के कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या देशभर में सुर्खियों में रही. इसी तरह मुख्यमंत्री के गृह जिला दुर्ग में एक युवा किसान दुर्गेश निषाद किसान ने आत्महत्या कर ली है.

यहां उल्लेखनीय है कि जब भी कोई किसान  आत्महत्या करता है तो सरकार यही कहती है कि इसमें हमारी नीतियों का कोई लेना देना नहीं है. यह किसान के परिवारिक और व्यक्तिगत कारण से हुआ है. वहीं विपक्ष हमेशा यही कहता है कि यह सरकार की नीतियों के कारण आत्महत्या हुई है. वही चौथा स्तंभ प्रेस मीडिया सच को दिखाने का प्रयास करता है.

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की सरकार हो अथवा डॉक्टर रमन सिंह की 15 वर्ष की लंबी अवधि की भाजपा सरकार. प्रत्येक सरकार के समय काल में किसान लगातार आत्महत्या करते रहे हैं. यह मामले राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बने, मगर सरकार ने हर दफा यही कहा कि हम तो बेदाग है. तो आखिर सरकार के  कोशिशों के बाद किसान आत्महत्या क्यों कर लेता है? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब अगर आप गांव के चौराहे और चौपाल पर पहुंचे तो आसानी से मिल सकता है. मगर सरकार का दावा यही रहता है कि इसमें हमारी छोटी सी भी खामी नहीं है. आज हम इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के किसानों के हालात पर और सरकार की नीति की खामियों पर आपको महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहे हैं-

भूपेश बघेल का सरकारी ढोल..

किसान की आत्महत्या के संदर्भ में कलेक्टर रायपुर द्वारा अधिकारियों की गठित जांच टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया कि कृषक  प्रकाश तारक की आत्महत्या का फसल क्षति, कर्ज और भुखमरी से कोई संबंध नहीं है. मृतक ने मानसिक अवसाद के चलते फांसी लगाकर आत्महत्या की है. अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर, तहसीलदार एवं नायब तहसीलदार अभनपुर ने अपने संयुक्त जांच प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया है. फसल बर्बाद होने से निराश किसान  प्रकाश तारक द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरों को जांच टीम ने बेबुनियाद बताया है नाराजगी व्यक्त करते हुए कड़ी प्रतिक्रिया  व्यक्त की है.

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सनद रहे कि कृषक  प्रकाश तारक द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या किए जाने के मामले की कलेक्टर रायपुर ने एसडीएम अभनपुर के नेतृत्व में एक संयुक्त टीम गठित कर इसकी जांच कराई है. अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला पहुंचकर मृतक के परिजनों, ग्रामीणों एवं स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बयान लिए और मृतक की परिवारिक स्थिति के बारे में भी जानकारी ली.अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक प्रकाश तारक की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी.  अधिकारियों की संयुक्त टीम ने ग्राम तोरला में ग्रामवासियों, हल्का पटवारी, जन प्रतिनिधियों और मृतक परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में जांच कर पंचनामा तैयार किया.

अनुविभागीय दण्डाधिकारी अभनपुर और अधिकारियों की संयुक्त टीम ने अपने जांच प्रतिवेदन में मृतक की पत्नी  दुलारी बाई के शपथपूर्वक कथन में बताई गई बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि मृतक को कोई परेशानी नहीं थी न ही उसके उपर कोई कर्ज था, न ही किसी के द्वारा उसको परेशान एवं धमकाया जा रहा था. खेत में लगी फसल की स्थिति सामान्य है। मृतक फसल की कटाई करने के लिए खेत गया हुआ था. मृतक की पत्नी ने अपने बयान में यह भी कहा है कि उसके पति बीते कुछ दिनों से गुमसुम रहा करते थे। तोरला गांव के सरपंच और सचिव ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मृतक की बीते तीन-चार महीनों से मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. वह गुमसुम रहता था.किसी से कोई बात-चीत नहीं करता था. पूछने पर दवाई लेता हूं, यह कहता था. मृतक के परिवार को शासकीय उचित मूल्य दुकान से नियमित रूप से चावल प्रदाय किया जाता रहा है परिवार में भुखमरी की कोई नौबत नहीं है. हल्का पटवारी ने अपने रिपोर्ट में मृतक  प्रकाश तारक के फसल की स्थिति को सामान्य बताया है. ग्रामीणों एवं जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में तैयार किए गए पंचनामा के आधार पर जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक पर कोई कर्ज न होने, उसके परिवार को नियमित रूप से पीडीएस का राशन मिलने, उसके गुमसुम तथा अवसाद से ग्रसित होने का उल्लेख किया है.

जांच अधिकारियों की संयुक्त टीम ने मृतक की पत्नी  दुलारी बाई, परिवार के अन्य सदस्यों, ग्राम के कोटवार के शपथ पूर्व कथन तथा गोबरा नवापारा थाना में कायम मर्ग तथा विवेचना में इस बात का उल्लेख है कि मानसिक बीमारी से दुखी होकर मृतक प्रकाश तारक ने आत्महत्या की है. वस्तुतः सरकार के कारिंदों द्वारा जारी की गई जांच रिपोर्ट पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस तरह किसान की आत्महत्या को झुठलाया जा रहा है.

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सरकार का “सफेद झूठा” होना

यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसान प्रकाश के परिजन क्षेत्रीय विधायक व पूर्व मंत्री धनेंद्र साहू से बेहद नाराज हैं जिन्होंने सबसे पहले यह कहा कि प्रकाश मानसिक रूप सेअवसाद ग्रस्त था. और साफ साफ कह रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं थी. सवाल यह है कि सरकार अपने शासकीय अमले से किसान की आत्महत्या की जांच क्यों करवाती है.क्यों नहीं किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी के द्वारा किसान की आत्महत्या की सच्चाई को जानने का प्रयास किया जाता इसे हेतु “न्यायिक जांच” भी गठित की जा सकती है अथवा विपक्ष को भी जांच का अधिकार दिया जाना चाहिए. मगर कोई भी सरकार किसान आत्महत्या के मामले में सिर्फ अपने अधीनस्थ एसडीएम, कलेक्टर अथवा पटवारी से जांच करवा कर मामले की इतिश्री कर लेती है. और इस तरह किसान की आत्महत्या की सच्चाई को दबा दिया जाता है. अगर सरकार किसानों की हितैषी है जैसा कि वह हमेशा ढोल बजाते जाती है छत्तीसगढ़ में तो प्रति क्विंटल 25 सो रुपए धान का मूल्य दिया जा रहा है करोड़ों रुपए विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं और यह प्रचार प्रसार किया जाता है कि भूपेश बघेल की सरकार किसानों की हितैषी सरकार है, ऐसे में कोई किसान आत्महत्या कर ले तो यह सरकार के सफेद कपड़े पर एक काला दाग बन कर उभर आता है. शायद यही कारण है कि

अनुविभागीय दण्डाधिकारी, अभनपुर ने बताया कि मृतक मृतक के परिवार में उसकी पत्नी और 4 बच्चे है. संयुक्त परिवार बंटवारा में प्राप्त 1.79 हेक्टेयर भूमि में  प्रकाश तारक कृषि करता था. उसे मनरेगा से जॉब कार्ड भी मिला है. पारिवारिक बंटवारा में उसे तीन कमरा और एक किचन वाला मकान मिला है. मृतक के उपर कोई कर्ज नहीं था। उसके परिवार को नियमित रूप से शासकीय उचित मुल्य दुकान से चावल मिल रहा था. परिवार में भुखमरी की नौबत नहीं है. मृतक के घर से 1 कट्टा धान शासकीय उचित मूल्य दुकान से प्राप्त चावल पाया गया. हल्का पटवारी के अनुसार फसल की स्थिति सामान्य है.समिति के माध्यम से पिछले खरीफ धान विक्रय के दौरान मृतक के  सम्मिलात खाते में 105 क्विटल धान बेचा था. जिसके एवज में एक लाख 83 हजार की राशि मिली थी.

गांव गांव के किसान हलाकान!

हमारे संवाददाता की जमीनी रिपोर्ट यह बताती है कि छत्तीसगढ़ के अनेक गांवों में किसान  नकली कीटनाशक दवाइयों के कारण त्रासदी भोग रहे हैं.

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यह पहली बार हुआ है कि 1 एकड़ के कृषि में किसान को पांच हजार रुपए के कीटनाशक दवाइयों की जगह लगभग 12000  रूपए  कीटनाशकों पर खर्च करना पड़ रहा है. मगर इसके बावजूद  कीट रातों-रात खेतों को सफाचट कर रहे हैं, किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है. हमारे संवाददाता ने रायगढ़ के जोबी गांव के किसान कृपाराम राठिया, कोरबा जिला के ग्राम मुकुंदपुर के शिवदयाल कंवर, राम लाल यादव, तरुण कुमार देवांगन से चर्चा की तो यह तथ्य सामने आया कि सत्र 2019 -20 में किसानों के कीटनाशकों के खरीदी में बेइंतेहा पैसे खर्च हुए हैं इसके बावजूद खेतों में कीट रातो रात फसल को साफ कर रहे हैं. जिससे किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है. जानकार सूत्रों के अनुसार छत्तीसगढ़ में नकली कीटनाशक दवाइयों की बिक्री जोरों पर है जिससे किसान लूटे जा रहे हैं, बर्बाद हो रहे हैैं. सरकार कोई एक्शन नहीं ले  रही है. परिणाम स्वरूप किसान आत्महत्या करने के कगार पर है.

आत्महत्या : तुम मायके मत जइयो!

पति और पत्नी का संबंध कहा जाता है कि सात जन्मों का गठबंधन होता है. ऐसे में जब  आसपास यह देखते हैं कि कोई महिला अथवा पुरुष इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसके साथी ने उसे समझने से इंकार कर दिया. और प्रताड़ना का दौर कुछ ऐसा बढ़ा की पुरुष हो या फिर स्त्री उसके सामने आत्महत्या के द्वारा अपनी इहलीला समाप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता.

यह त्रासदी इतनी भीषण है कि आए दिन ऐसी घटनाएं सुर्ख़ियों में रहती है. आज हम इस लेख में यह विवेचना का प्रयास करेंगे कि शादीशुदा पुरुष, ऐसी कौन सी परिस्थितियां होती हैं, जब गले में फंदा लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हुई जिसमें पुरुषों ने अपनी पत्नी अथवा सांस पर आरोप लगाकर आत्महत्या कर ली.

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ऐसे ही एक परिवार से जब यह संवाददाता मिला और चर्चा की तो अनेक ऐसे तथ्य खुलकर सामने आ गए जिन्हें समझना और जानना आज एक जागरूक पाठक के लिए बहुत जरूरी है.

प्रथम घटना-

छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर में हाईकोर्ट के एक वकील ने आत्महत्या कर ली. सुसाइड नोट में लिखा कि वह पत्नी के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर रहा है. वह अपनी धर्मपत्नी से प्रताड़ित हो रहा है.

दूसरी घटना-

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिला में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में लिखा कि उसे पत्नी की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या करनी पड़ रही है.

तीसरी घटना-

जिला कोरबा के एक व्यापारी ने आत्महत्या कर ली जांच पड़ताल में यह तथ्य सामने आया कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था. पत्नी के व्यवहार के कारण उसने अपनी जान दे दी.

मैं मायके चली जाऊंगी…!

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के कबीर नगर थाना क्षेत्र में पत्नी और सास से प्रताड़ित होकर एक शख्स द्वारा द्वारा आत्महत्या का मामला सुर्खियों में है. पुलिस द्वारा मिली जानकारी के अनुसार मौके से पुलिस को  दो पन्नों का सुसाइड नोट मृतक के जेब से मिला है. कबीर नगर थाने मैं पदस्थ पुलिस अधिकारी के अनुसार मृतक ने अपनी मौत का जिम्मेदार अपनी पत्नी और सास को बताया है.

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सुसाइड नोट में मृतक ने लिखा है – उसकी पत्नी बार-बार घर में झगड़ा कर के अपने मायके चली जाती थी और  दो साल की बेटी से भी  मिलने नहीं दिया जाता था. जिसके कारण तनाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली. मृतक का नाम मनीष चावड़ा है.  इस मामले में अब तक पुलिस अन्य एंगल से भी तहकीकात कर रही है. मगर जो तथ्य सामने आए हैं उनके अनुसार जब पत्नी अक्सर अपने मायके से संबंध रखे हुए थी. दरअसल, जब पत्नी बार-बार पति को छोड़कर चले जाती है तो डिप्रेशन में आकर पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसी अनेक घटनाएं घटित हो चुकी है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए पति और पत्नी दोनों  एक दूसरे की भावना का सम्मान करते हुए यह जानने और समझने की दरकार है कि पूरी जिंदगी दुख सुख में साथ  निभाना है. अगर यह बात गांठ बांध ली जाए तो आत्महत्या और तलाक अर्थात संबंध विच्छेद के मामलों में कमी आ सकती है.

मां और भाइयों की नासमझी

आत्महत्या और संबंध विच्छेद के मामलों में आमतौर पर देखा गया है कि विवाह के पश्चात भी अपनी बेटी और बहन के साथ मायके वालों  के गठबंधन कुछ ऐसे होते हैं कि पति बेचारा विवश और असहाय  हो जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत श्रीवास कहते हैं- यहां यह बात समझने की है कि बेटी के ब्याह के पश्चात मायके पक्ष को यह समझना चाहिए कि अब बेटी की विदाई हो चुकी है और जब तलक उसके साथ अत्याचार, अथवा प्रताड़ना की घटना सामने नहीं आती, छोटी-छोटी बातों पर उसे प्रोत्साहित करने का मतलब यह होगा कि बेटी के वैवाहिक जीवन में जहर घोलना.

उम्र के इस पड़ाव में परिस्थितियां कुछ ऐसी मोड़ लेती है कि पति बेचारा मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है. और इस तरह एक  सुखद परिवार टूट कर बिखर जाता है. कई बार देखा गया है कि बाद में पति की मौत के बाद पत्नी को यह समझ आता है कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी. अतः समझदारी का ताकाजा यही है कि जब हाथ थामा है तो पति का साथ दें और छोटी-छोटी बातों पर कभी भी परिवार को तोड़ने की कोशिश दोनों ही पक्ष में से कोई भी न करें.

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मध्य प्रदेश : दांव पर सब दलों की साख

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

भाजपा राज्य में 230 सीटों में से महज 109 सीटें ले जा पाई और कांग्रेस 114 सीटें ले जा कर बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से अल्पमत की सही सरकार बना ले गई.

दिग्गज और तजरबेकार कमलनाथ ने बहैसियत मुख्यमंत्री जोरदार शुरुआत की जिस से लोगों को आस बंधी थी कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार भाजपा से बेहतर साबित होगी, लेकिन सवा साल में ही कांग्रेस की खेमेबाजी और फूट उजागर हुई तो हुआ वही जिस का हर किसी को डर था.

कमलनाथ और परदे के पीछे से सरकार हांक रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की अनदेखी शुरू कर दी नतीजतन वे राम भक्तों की पार्टी से जा मिले जिस के एवज में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में ले लिया और उन के 22 समर्थक विधायकों की मदद से सरकार बना ली जिस की अगुआई एक बार फिर वही शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं, जिन्हें जनता ने 2018 में खारिज कर दिया था.

इतना ही नहीं, भाजपा ने सिंधिया समर्थक 14 विधायकों को मंत्री पद से भी नवाजा और वादे या सौदे के मुताबिक सभी को उन की सीटों से ही टिकट भी दिए.

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सब की हालत पतली

अब क्या ये सभी कांग्रेसी भाजपा के हो कर दौबारा जीत पाएंगे, यह सवाल बड़ी दिलचस्पी से सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है जिस का सटीक जवाब तो 10 नवंबर को ही मिलेगा, पर इन नए भगवाइयों की हालत खस्ता है, जो पहले भाजपा की बुराई करते थकते नहीं थे और अब जनता को बता रहे हैं कि भाजपा क्यों कांग्रेस से बेहतर है. लेकिन ऐसा करते और कहते वक्त उन की आवाज में वह दमखम नहीं रह जाता जो 2018 के चुनाव प्रचार के वक्त हुआ करती था. कांग्रेस इन्हें गद्दार और दागी कह तो रही है, लेकिन उस के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर क्यों वह अपने विधायकों को बांधे रखने में नाकाम रही और क्यों उन्हें अपनी ही पार्टी की सरकार गिराने मजबूर होना पड़ा.

अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस छोड़ चुके नए भाजपाइयों के बीच हो रहा है. भाजपा को बहुमत के लिए 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को सरकार बनाने पूरी 28 सीटों पर जीत की दरकार है. लेकिन राह दोनों की ही आसान नहीं है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पहले जैसे लोकप्रिय नहीं रह गए हैं और भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया खेमे की खातिरदारी में जुटने से बच रहा हैं, क्योंकि उसे मालूम है कि ये जीत भी गए तो उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला. हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता को यह बताने लगे हैं कि वे और उन के समर्थक दिलोदिमाग दोनों से भाजपाई हो चुके हैं. इस के लिए वे जयजय श्रीराम का नारा सड़कों पर आ कर लगाने लगे हैं और भाजपाई उसूलों पर चलते हुए संघ के दफ्तर की भी परिक्रमा करने लगे हैं.

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह एहसास है कि उन के पास खासतौर से इस इलाके में जमीनी कार्यकर्ताओं का टोटा है और 16 में से कोई 10 सीटों पर सिंधिया खेमे के उम्मीदवारों की खुद की अपनी भी साख है जिसे तोड़ पाने के लिए उन के पास काबिल और लोकप्रिय उम्मीदवार नहीं हैं जिस की भरपाई करने वे सिंधिया की गद्दारी को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में भिड़े हैं.

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भाजपा निगल रही बसपा वोट

कोई मुद्दा न होने और कोरोना महामारी के चलते वोटिंग फीसदी कम होने के डर से भी सभी पार्टियां हलकान हैं. ऐसे में जो पार्टी अपने वोटर को बूथ तक ले आएगी, तय है कि वह फायदे में रहेगी. साफ यह भी दिख रहा है कि कोरोना के डर के चलते बूढ़े वोट डालने नहीं जाएंगे. इस इलाके में कभी मजबूत रही बसपा अब दम तोड़ती नजर आ रही है. 2018 के चुनाव में वह यहां महज एक सीट जीत पाई थी जो अब तक का उस का सब से खराब प्रदर्शन था, इस के बाद भी 6 सीटों पर उस ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बराबरी से बिगाड़ा था. बसपा के वोटरों पर इन दोनों पार्टियों की नजर है, जिस के चलते दोनों का दलित प्रेम उमड़ा जा रहा है.

मायावती का भाजपा के लिए झुकाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित समुदाय कई फाड़ हो चुका है. सामाजिक समरसता के जरीए भाजपा एससीबीसी तबके में थोड़ीबहुत ही सही सेंध लगा चुकी है. उसे उम्मीद है कि अगर इस तबके के 30 फीसदी वोट भी उसे मिले तो सवर्ण वोटों के सहारे दिनोंदिन मुश्किल होती जा रही इस जंग को वह जीत लेगी. दूसरी तरफ कांग्रेस को उम्मीद है कि पिछली बार की तरह ये वोट उसे ही मिलेंगे. बसपा के खाते में अब वही वोट जा रहे हैं जो 20 साल से उसे मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती के ढुलमुल रवैए के चलते दलित नौजवान वोटर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पार्टी हकीकत में उस की हिमायती है.

साख का सवाल

ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह साबित करने में पसीने आ रहे हैं कि 2018 की तरह वोट उन के नाम पर पड़ेंगे तो शिवराज सिंह भी यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा और वे खुद पहले की तरह अपराजेय हैं, इसलिए उन्होंने ‘शिवज्योति ऐक्सप्रेस’ का नारा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बूआ कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे भी अपने बबुआ के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं.

साख मायावती की भी दांव पर लगी है कि बसपा अगर इस बार भी सिमट कर रह गई तो आगे के लिए उस के दामन में कुछ नहीं रहेगा. कमलनाथ को भी साबित करना है कि वे एक बेहतर मुख्यमंत्री थे जो अपनों की ही साजिश का शिकार हुए थे.

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यानी अब जो जीता वह सिकंदर हो जाएगा और हारे के पास हरि नाम भी नहीं बचेगा, इसलिए सारे नेता वोटरों को लुभाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सब का सहारा ले रहे हैं, जिन्हें मालूम है कि यह चुनाव आम चुनाव से भी ज्यादा अहम उन के वजूद के लिए है और जानकारों की दिलचस्पी इस इलाके में बिहार के बराबर ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अगर कांग्रेस वोटर के दिमाग में यह बात बैठा पाई कि भाजपा ने जोड़तोड़ कर सरकार बना कर राज्य का भला नहीं किया है तो बाजी भगवा खेमे को महंगी भी पड़ सकती है, क्योंकि विकास और रोजगार के मुद्दों पर तो वोटर की नजर में दोनों ही पार्टियां नकारा हैं.

खेती जरूरी या मंदिर

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस दिन (17 सितंबर) जन्मदिन था, भाजपा के कार्यकर्ता सरकार की उपलब्धियां गिनागिना कर जहां एकदूसरे को मिठाइयां बांट रहे थे, वहीं देश की कई जगहों पर किसानों को मारापीटा जा रहा था.

हरियाणा में किसान सरकार के खिलाफ मोरचा खोले बैठे थे. विरोध का आलम यह था कि इस प्रदर्शन से घबरा कर पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा था, जिस में कई किसानों को गंभीर चोटें आई थीं. पुलिस ने बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा था.

दरअसल, यह विरोध प्रदर्शन हरियाणा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान कृषि क्षेत्रों में सुधार के लिए मोदी सरकार के 3 विधेयकों के खिलाफ कर रहे थे, जिस में उन की मांग थी कि इन कानूनों को तत्काल वापस लिया जाए.

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इस विधेयक के विरोध में हरियाणा में किसानों ने जम कर विरोध किया. यहां के प्रदर्शन कर रहे किसानों का मानना था कि जो अध्यादेश किसानों को अपनी उपज खुले बाजार में बेचने की इजाजत देता है, वह तकरीबन 20-22 लाख किसानों खासकर जाटों के लिए तो एक झटका ही है.

मगर किसानों की आवाज को सरकार दबाना चाहती थी, ताकि इस का असर दूसरे राज्यों में न फैले. इस वजह से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं. इस में किसी को गहरी चोटें आईं तो किसी के पैर की हड्डी टूट गई.

हरियाणा के एक किसान अरविंद राणा कहते हैं, “देश का पेट भरण आले किसान, देश की रक्षा करण आले किसान के बेटे, देश के भीतर कानून व्यवस्था बणाण आले सारे किसानों के बेटे, सारे व्यापारी, नेताअभिनेता और सारे अमीर आदमियां की सिक्योरिटी करण आले किसानों के बेटे, वोट दे कर सरकार बणाण आले किसान, देश की नींव किसान… और फिर भी अन्नदाता क लठ मारन का आदेश देते शर्म नहीं आई?”

गुस्सा बेवजह भी नहीं

सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बेवजह भी नहीं है, क्योंकि पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और फिर कोरोना काल में पूरी तरह फिसड्डी रही सरकार ने एक बार फिर कृषि विधेयक बिल से देश के किसानों को खुश नहीं कर पाई.

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कौरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इस का नुकसान किसानों को उठाना पड़ेगा.

किसान सौरव कुमार कहते हैं, “देश के किसानों की चिंता जायज है. किसानों को अगर बाजार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वे बाहर क्यों जाते? जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी यानी समर्थन मूल्य ₹ नहीं मिलता, उन्हें वे कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.

“पंजाब में होने वाले गेहूं और चावल का सब से बड़ा हिस्सा या तो पैदा ही एफसीआई द्वारा किया जाता है या फिर एफसीआई उसे खरीदता है.”

वहीं प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफसीआई अब राज्य की मंडियों से खरीद नहीं पाएगा, जिस से ऐजेंटों और आढ़तियों को तकरीबन 2.5 फीसदी के कमीशन का घाटा होगा.

इस का सब से बड़ा नुकसान आने वाले समय में होगा और धीरेधीरे मंडियां खत्म हो जाएंगी. इस से बेरोजगारी भी बढ़ेगी.

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अब पछता रहा हूं

कृषि मामलों के जानकार व खुद किसान रहे आदेश कुमार को मोदी सरकार से कोफ्त है. वे कहते हैं, “मैं ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट किया था, पर अब पछता रहा हूं.

“यह सरकार हर मोरचे पर फेल रही है और किसानों के लिए कभी कुछ नहीं कर पाई. पहले नोटबंदी फिर जीएसटी के बाद सरकार का कृषि का नया कानून देश के किसानों के खिलाफ है.

“अभी पिछले ही साल का एक वाकिआ बताता हूं. पैप्सिको ने भारत में 4 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. कंपनी का आरोप था कि ये किसान आलू की उस किस्‍म की खेती कर रहे थे, जो कि कंपनी द्वारा अपने लेज पोटेटो चिप्‍स के लिए विशेष रूप से रजिस्‍टर्ड है.

“तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको का विरोध किया था. पैप्सिको ने नुकसान की भरपाई के लिए हर किसान से 1-1 करोड़ रुपए की मांग भी की.”

मालूम हो कि पैप्सि‍को भारत की सब से बड़ी प्रोसेस ग्रेड आलू की खरीदार है और यह उन पहली कंपनियों में से एक है जो आलू की विशेष संरक्षित किस्‍म को खुद के लिए उगाने के लिए हजारों स्‍थानीय किसानों के साथ काम कर रही है.

तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की थी और अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि भारतीय कृषि कानून के तहत संरक्षित फसल को उगाना और उसे बेचना किसानों का अधिकार है.

किसानों को इसलिए भी डराया और कानूनी रूप से प्रताड़ित किया गया, ताकि किसान डर जाएं और इस फसल की खेती ही न करें.

किसानों ने सरकार को चिट्ठी भी लिखी थी जिस में उन्होंने आरोप लगाए थे कि पैप्सिको ने तथाकथित आरोपी किसानों के पास प्राइवेट जासूसों को संभावित ग्राहक बना कर भेजा, चुपचाप उन के वीडियो बनाए और आलू के सैंपल हासिल किए.

रोजगार जरूरी मंदिर नहीं

आदेश बताते हैं, “असल में सरकार की मंशा ही सही नहीं है. अगर देश में खुशहाली नहीं रहेगी, बेरोजगारी चरम पर होगी, नौकरियां खत्म हो जाएंगी, किसानों की सुनी नहीं जाएगी तो सरकार पर सवालिया निशान लगना वाजिब है.

“हमें न मंदिर चाहिए न मसजिद, पहले बेरोजगारी तो खत्म करो. किसान, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उन के लिए तो कुछ करो. पहले से मरे किसानों को सरकार और मार रही है.”

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अपने ही खेत में मजदूर

आदेश कहते हैं, “2 राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर भी भरम की हालत है. 80-85 फीसदी छोटे किसान एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह बिल बाजार के लिए बना है, किसानों के लिए नहीं.”

“इस प्रावधान से किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर हो जाएगा. काला बाजारी को बढ़ावा मिल सकता है.”

आखिर क्या है इस बिल में

जिन विधेयकों को मंजूरी मिली है उस में कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020 और कृषक कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 शामिल हैं.

कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के तहत किसान या फिर व्यापारी अपनी उपज को मंडी के बाहर भी दूसरे जरीयों से आसानी से व्यापार कर सकेंगे.

इस बिल के मुताबिक राज्य की सीमा के अंदर या फिर राज्य से बाहर, देश के किसी भी हिस्से पर किसान अपनी उपज का व्यापार कर सकेंगे. इस के लिए व्यवस्थाएं की जाएंगी. मंडियों के अलावा व्यापार क्षेत्र में फौर्मगेट, वेयर हाउस, कोल्डस्टोरेज, प्रोसैसिंग यूनिटों पर भी बिजनैस करने की आजादी होगी.

मगर असल में भारत में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है, तकरीबन 80-85 फीसदी किसानों के पास 2 हैक्टेयर से कम जमीन है, ऐसे में उन्हें बड़े खरीदारों से बात करने में परेशानी होती आई है. इस के लिए वे या तो बड़े किसान या फिर बिचौलियों पर निर्भर होते थे. अब उन्हें फसल बेचने के लिए खुद पहल करनी होगी और यह पूरी संभावना है कि किसानों को इन प्रकियाओं से गुजरने में हिचक होगी या फिर उन्हें समझ ही नहीं आएगा कि वे फसल कहां और कब बेचें.

खुद भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं सुषमा स्वराज ने साल 2012 में सदन में किसानों की दशा और दिशा पर वर्तमान सरकार का ध्यान खींचने की कोशिश की थी.

सुषमा स्वराज ने बताया था कि किस तरह किसान अपने ही फसल को नहीं बेच पाते और आश्चर्य तो यह कि देश में पोटैटो चिप्स बनाने वाली कंपनियां देश के किसानों द्वारा तैयार फसल से चिप्स न बना कर विदेशी आयातित आलूओं से चिप्स बना कर बेचती हैं.

राज्य सरकारों की चिंता

किसानों की इन चिंताओं के बीच राज्‍य सरकारों खासकर पंजाब और हरियाणा को इस बात का डर सता रहा है कि अगर निजी खरीदार सीधे किसानों से अनाज खरीदेंगे तो उन्‍हें मंडियों में मिलने वाले टैक्‍स का नुकसान होगा, इसलिए कई राज्यों के सरकार भी इस का विरोध कर रहे हैं. खुद सरकार की सहयोगी रही अकाली शिरोमणि दल भी सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं दिखी और पार्टी की वरिष्ठ नेता हरसिमरन कौर बादल ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बिल को ले कर सवाल उठाए और अपने ट्वीटर हैंडल पर उन्‍होंने लिखा, ‘अगर ये बिल किसान हितैषी हैं तो समर्थन मूल्य का जिक्र बिल में क्यों नहीं है? बिल में क्यों नहीं लिखा है कि सरकार पूरी तरह से किसानों का संरक्षण करेगी? सरकार ने किसान हितैषी मंडियों का नैटवर्क बढ़ाने की बात बिल में क्यों नहीं लिखी है? सरकार को किसानों की मांगों को सुनना पड़ेगा.’

हालांकि जिस समर्थन मूल्य को ले कर किसानों और विपक्ष को एतराज है सरकार ने उस को पूरी तरह साफ नहीं किया है. दरअसल, किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है. अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है, ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके.

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इस के तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय की जाती है.

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आम आदमी पार्टी के नेता नीरज गुप्ता कहते हैं, “जब आप मजदूरी करने जाते हैं तो सरकार द्वारा मिनिमम भत्ता तय किया हुआ होता है.

“इस को इस तरह से समझना होगा कि प्राइवेट नौकरी में अनुभव और योग्यता के आधार पर पे स्केल तय होता है. सरकारी नौकरियों में पे ग्रेड होता है यानी किसी भी काम में कम से कम आप को क्या मिलेगा यह तय है, तो अकेले किसान का क्या कुसूर है कि उस के लिए उस एमएसपी को ही हटाया जा रहा है?

“प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एमएसपी नहीं हट रहा तो उसे लिखने में क्या गुरेज है? पिछले कुछ दिनों का इतिहास उठा कर देखिए, ओला व उबर जैसी कंपनियों की वजह से कितनी कारें सड़कों पर आ गईं आज वे सब कौड़ियों के दाम बिकने को तैयार हैं. इस बिल से किसान जो कुछ भी कमाता रहा है, वह भी उसे नहीं मिलेगा.”

नोटबंदी जैसा हश्र होगा

किसान परिवार से संबंध रखने वाले संदीप भोनवाल कहते हैं, “सरकार द्वारा किसानों के लिए लाए हुए अध्यादेश ठीक उसी तरह साबित होंगे जिस तरह सरकार ने कुछ साल पहले नोटबंदी कर के देश को किया था. तब सरकार ने कहा था कि इस से देश को फायदा होगा, लेकिन आज तक एक भी फायदा नोटबंदी से देश को नहीं दिखा.

“ठीक उसी तरह जो ये बिल सरकार किसानों के लिए ले कर आई है, आने वाले समय में इस के नतीजे ठीक नोटबंदी की तरह ही घातक होंगे.

“इस बिल की सब से गलत बात यह भी लगी कि कोई भी किसानों का संगठन सरकार ने अपने दायरे में ले कर उस बिल का निर्माण नहीं कराया. अब आप ही समझें कि जो बिल किसानों के लिए बन रहा है अगर उस में किसानों की ही राय  शामिल न हो तो ऐसे बिल का क्या फायदा?”

किसान कुदरत की मार तो जैसेतैसे झेल जाते हैं लेकिन देश की दोहरी आर्थिक नीतियां उन का मनोबल तोड़ कर रख देती हैं.

किसानों द्वारा खुदकुशी

पिछले दिनों राजस्थान के एक किसान सुरेश कुमार ने इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि वह कर्ज से फंसा पड़ा था. बीते कुछ साल से उन की फसल अच्छी नहीं हुई थी और जो हुई उस के भी वाजिब दाम नहीं मिल पाए. इस दौरान सुरेश कुमार पर कर्ज  बढ़ता गया.

मध्य प्रदेश के एक किसान संत कुमार सनोडिया ने इसलिए जहर खा कर जान दे दी, क्योंकि बेची गई फसल के एवज में उसे 4 महीने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, मगर फिर भी पैसे नहीं मिले.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक बीते तकरीबन 20 सालों में देशभर के 3 लाख से ज्यादा किसानों को खुदकुशी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

एनसीआरबी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,349 लोगों ने खुदकुशी कर ली थी. वहीं साल 2017 में यह आंकड़ा 10,655 था.

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एक सर्वे के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं और एक स्टडी के मुताबिक हर तरफ से निराश हो चुके देश के 76 फीसदी किसान खेती छोड़ कर कुछ और करना चाहते हैं.

आर्थिक सर्वे 2018-19 के आंकड़े भी बताते हैं कि साल 2016-17 की तुलना में कृषि की सकल मूल्य वृद्धि (जीवीए) में तकरीबन 54 फीसदी की कमी देखी गई है.

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चौपट अर्थव्यवस्था

रहीसही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा तो इस ने 40 साल का रिकौर्ड तोड़ दिया. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. कोरोना काल में पहली तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर जीरो से 23.9 फीसदी नीचे चली गई है.

इस से बेरोजगारी दर में भी इजाफा हुआ. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) ने देश में बेरोजगारी पर सर्वे रिपोर्ट जारी किया है. इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 3 मई को खत्म हुए हफ्ते में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 27.1 फीसदी हो गई है, वहीं अप्रैल, 2020 में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 23.5 फीसदी पर पहुंच गई थी.

सरकारी उदासीनता की वजह से देश में कई उद्यम बंद हो गए हैं. बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में सब से ज्यादा बढ़ी है.

सीएमआईई ने अंदाजा लगाया गया है कि अप्रैल में दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और छोटे व्यवसायी सब से ज्यादा बेरोजगार हुए हैं. सर्वे के मुताबिक 12 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है. इन में फेरी वाले, सड़क के किनारे सामान बेचने वाले, निर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी और कई लोग शामिल हैं.

मगर सरकार को इन सब से कोई चिंता नहीं. लोगों को रोजगार चाहिए, रोटी चाहिए पर भाजपा शासित राज्यों में वहां की सरकारों को इस से कुछ लेनादेना नहीं.

राम की चिंता किसानों की नहीं

भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बेरोजगारी पर भले कुछ ध्यान न दे रही हो, मगर राज्य में मंदिरों व तीर्थस्थलों में जम कर पैसा बहाया जा रहा है.

योगी सरकार की अयोध्या में राम के नाम पर लगभग 135 करोड़ रुपए खर्च करने की तैयारी है. यह रकम उसे केंद्र सरकार देगी.

इस पैसे से योगी सरकार अयोध्या को सजाएगीसंवारेगी. राम और दशरथ के महल और राम की जलसमाधि वाले घाटों पर रौनक बढ़ाया जाएगा.

योगी सरकार उत्तर प्रदेश में रामलीला स्थलों में चारदीवारी निर्माण के लिए 5 करोड़ रुपए भी खर्च करेगी. मगर भगवा रंग में रंगी सरकार से यही उम्मीद भी है, क्योंकि राम के नाम पर राजनीति तेज है और देश के किसानों की हालत भी राम भरोसे से कम नहीं. अब देश के किसानों को थाली और ताली बजाने के सिवा और कोई रास्ता भी तो नहीं दिख रहा.

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