इंसानों के बाद शेरों में भी बढ़ा कोरोना का खतरा

कोरोना वायरस ने 2 साल से दुनिया भर में इंसानों की जान को खतरे में डाल रखा है. अब जानवरों में सब से ताकतवर माने जाने वाले शेरों को भी कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया है. शेर, बाघ ही नहीं दूसरे पशुओं पर भी कोरोना का खतरा मंडराने लगा है.

माना जा रहा है कि संक्रमित इंसानों के जरिए कोरोना वायरस ने शेरों के शरीर में प्रवेश किया. हालांकि अमेरिका के न्यूयार्क स्थित ब्रानोक्स जू में पिछले साल अप्रैल में ही 8 बाघ और शेर कोरोना पौजिटिव मिले थे, लेकिन भारत में पहली बार शेर संक्रमित मिले हैं.

पिछले साल हांगकांग में भी कुत्ते और बिल्लियों में कोरोना संक्रमण का पता चला था. भारत में घरेलू जानवरों में अभी तक कोरोना संक्रमण के कोई मामले सामने नहीं आए हैं.

मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद के नेहरू जूलोजिकल पार्क में 8  एशियाई शेर कोरोना संक्रमित पाए गए. इन में 4 शेर और 4 शेरनियां थीं. इस जू में काम करने वाले कर्मचारियों को अप्रैल के चौथे सप्ताह में शेरों में कोरोना के लक्षण दिखाई दिए थे.

इन शेरों की खुराक कम हो गई थी. इस के अलावा उन की नाक भी बहने लगी थी. उन में सर्दी जुकाम जैसे लक्षण नजर आ रहे थे. कर्मचारियों ने जू के अधिकारियों को यह बात बताई. उस समय तक देश में कोरोना की दूसरी लहर का भयावह रूप सामने आ चुका था.

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जू के अधिकारियों ने इन शेरों की कोरोना जांच कराने का फैसला किया. जांच के लिए शेरों को ट्रंकुलाइज यानी बेहोश कर उन के तालू के निचले हिस्से से लार के नमूने लिए   गए. इन नमूनों को जांच के लिए हैदराबाद के सेंटर फौर सेल्युलर एंड मौलिक्यूलर बायोलौजी (सीसीएमबी) भेजा गया.

सीसीएमबी से शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद जू के अधिकारियों को मिली. इस में 8 शेरों की आरटीपीसीआर (कोरोना) जांच रिपोर्ट पौजिटिव आई.

एशिया में सब से बड़े जू में शुमार नेहरू जूलोजिकल पार्क हैदराबाद शहर की घनी आबादी वाले इलाके में बना हुआ है और 380 एकड़ में फैला है. सरकार ने कुछ दिन पहले ही कोरोना वायरस हवा के जरिए फैलने की बात कही थी. इस से यह माना गया कि शेरों में कोरोना वायरस ने या तो हवा के जरिए या देखरेख करने वाले किसी संक्रमित कर्मचारी के जरिए प्रवेश किया. नेहरू जूलोजिकल पार्क में कुल 12 एशियाई शेर हैं.

हैदराबाद का मामला सामने आने के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने देश भर में सभी जूलोजिकल पार्क, नैशनल पार्क और टाइगर रिजर्व बंद करने के आदेश दिए. साथ ही वन्यजीव अभयारण्यों को भी अगले आदेशों तक दर्शकों के लिए बंद करने की सलाह दी.

इस के बाद मई के पहले सप्ताह में ही उत्तर प्रदेश के इटावा में स्थित लायन सफारी के एक शेर में भी कोरोना वायरस मिला. इस की पुष्टि बरेली में इज्जतनगर स्थित भारतीय पशु अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) में की गई जांच में हुई. इटावा की लायन सफारी से 14 शेरों के सैंपल जांच के लिए बरेली के आईवीआरआई भेजे गए थे. जांच में एक शेर में कोरोना वायरस पाया गया और एक संदिग्ध माना गया. बाकी 12 शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट निगेटिव आई.

इस लायन सफारी में 18 शेर और शेरनी हैं. इन में कुछ दिन पहले कोरोना के लक्षण नजर आए थे. इस से पहले हैदराबाद जू के शेरों में कोरोना वायरस की पुष्टि हो चुकी थी. ऐसी हालत में इटावा लायन सफारी प्रशासन ने भी शेरों की कोरोना जांच कराने का निर्णय लिया था. एक शेर की जांच रिपोर्ट पौजिटिव आने के बाद इस सफारी में शेरों की देखभाल में सतर्कता बढ़ा दी गई. इस के साथ ही सभी शेरों को अलगअलग आइसोलेशन में कर दिया गया, ताकि संक्रमण का फैलाव न हो.

मई के दूसरे सप्ताह में ही जयपुर में चिडि़याघर का बब्बर शेर ‘त्रिपुर’ भी कोरोना संक्रमित पाया गया. इस चिडि़याघर में एक सफेद बाघ चीनू और दूसरी शेरनी तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया. ये सभी शेर जयपुर में नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में बनी लायन सफारी में रह रहे थे. इन शेरों की कोरोना सैंपल की जांच बरेली के आईवीआरआई में कराई गई थी. जयपुर से लायन सफारी के 13 सैंपल जांच के लिए बरेली भेजे गए थे.

जयपुर के नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में राजस्थान की पहली लायन सफारी 2018 में शुरू हुई थी. इस पार्क में करीब 36 हैक्टेयर में लायन सफारी बनी हुई है. यहां पहले 4 एशियाई शेर थे. इन में से कैलाश और तेजस नामक शेरों की मौत हो गई थी. अब लायन सफारी में शेरनी तारा और शेर त्रिपुर ही हैं.

सबसे पहले गुजरात के जूनागढ़ से तेजिका नामक शेरनी को जयपुर चिडि़याघर लाया गया था. बाद में उसे लायन सफारी में शिफ्ट कर दिया था. तेजिका ने 3 शावकों को जन्म दिया था. इन के नाम त्रिपुर, तारा और तेजस रखे गए. तेजिका की 3 साल पहले मौत हो गई थी. बाद में पिछले साल उस के बेटे तेजस की भी मौत हो गई. अब भाईबहन त्रिपुर और तारा बचे हैं. इन में तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया है.

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संदिग्ध मानी गई शेरनी तारा, सफेद बाघ चीनू और एक पैंथर कृष्णा के सैंपल दोबारा जांच के लिए बरेली भेजे गए. शेर त्रिपुर को दूसरे वन्यजीवों से अलग कर क्वारंटाइन कर दिया गया. पार्क के सभी जानवरों को रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली दवाएं दी जा रही हैं.  शेर, बाघ और दूसरे वन्यजीवों के व्यवहार पर सीसीटीवी से नजर रखी जा रही है. वन्यजीवों की देखभाल करने वाले केयरटेकरों को भी पीपीई किट मुहैया कराई गई है. इन केयरटेकरों को अब बाघ और शेरों के बाड़े तक जाने के लिए पानी में से निकलना पड़ता है ताकि इन के पैरों के जरिए किसी तरह का इंफेक्शन जानवरों तक न पहुंचे.

मध्य प्रदेश में इंदौर के जू में मांसाहारी वन्यजीवों के साथ विदेशी पक्षियों को भी दवाएं दी जा रही हैं. इन की आंखों को इंफेक्शन से बचाने के लिए दवा डाली जा रही है. पक्षियों के पिंजरों को सैनेटाइज किया गया है.

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इंदौर जू में दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के पक्षी बड़ी संख्या में हैं. इगुआना नाम की दुनिया की सब से बड़ी छिपकली को सुबहशाम हरी सब्जियां दी जा रही हैं. इगुआना छिपकली 3 मीटर तक लंबी और 50 किलोग्राम तक वजनी होती है. यह उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में पाई जाती है.

मुसीबत का सबब बने आवारा पशु

पिछले साल के फरवरी महीने में  मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव खापरखेड़ा के जगदीश धाकड़ अपने खेत में लगी गेहूं की फसल में यूरिया डाल रहे थे कि तभी एक आवारा सांड़ खेत में घुस आया, जिसे खदेड़ने के लिए जगदीश दौड़ पड़े.

सांड़ ने भी अपने नथुने फुलाए और सींगो के बल पर जगदीश को जमीन पर पटक दिया. पास के खेत में काम कर रहे कुछ किसानों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर की सलाह पर जब ऐक्सरे कराया गया, तो जगदीश के दोनों पैर की हड्डियों में फ्रैक्चर निकला.

जगदीश 3 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे. इस दौरान उन की गेहूं की फसल देखरेख की कमी में बुरी तरह बरबाद हो गई. बताया जाता है कि जिस आवारा सांड़ ने उन्हें घायल किया था, उसे गांव  के ही एक दबंग द्वारा किसी माता की पूजापाठ कर के खुला छोड़ा गया था.

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लौकडाउन के पहले दतिया के रेलवे स्टेशन पर आवारा पशुओं का जमावड़ा लगा रहता था. ये आवारा गायबैल मुसाफिरों के खानेपीने की चीजों पर झपट पड़ते थे. क‌ई बार इन आवारा जानवरों के अचानक रेलवे प्लेटफार्म पर दौड़ लगाने से बच्चों, औरतों और बुजुर्गों को चोट भी लग जाती थी.

होशंगाबाद जिले के गांव पचुआ में साल 2018 में चरनोई जमीन पर गांव के कुछ रसूख वाले किसानों ने कब्जा कर लिया, जिस के चलते गांव के आवारा पशु किसानों के खेतों में घुस कर  फसलों को नुकसान पहुंचाने लगे. इस बात को ले कर 2 पक्षों में विवाद हो गया, जिस से एक आदमी की मौत हो गई. दूसरे पक्ष के 2 लोग हत्या के आरोप में हवालात में बंद हैं.

पिछले कुछ सालों में देश के अलगअलग इलाकों में हुई ये घटनाएं बताती हैं कि हमारे देश में पशुओं की आवारगी लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गई है. किसानों की हाड़तोड़ मेहनत से उगाई गई फसल जब आवारा पशु चर लेते हैं तो वे मनमसोस कर रह जाते हैं. गांवकसबों में दबंगों के पाले पशु आवारा घूमते हैं और एससी और बीसी तबके की जमीन पर उगी फसल चट कर जाते हैं. दबंगों के खौफ से इन आवारा पशुओं को कोई रोकने की हिम्मत नहीं कर पाता.

क्या हैं कायदेकानून 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ में इस बात का जिक्र है कि कोई भी पशु सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा और बीमार तथा गर्भधारण कर चुके पशु को मारा नहीं जाएगा.

भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर 3 महीने की सजा हो सकती है. पशुओं को लड़ने के लिए भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उस में हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है.

‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजक कामों के लिए ट्रेनिंग देने और मनोरंजन के लिए इन जानवरों का इस्तेमाल करना गैरकानूनी माना गया है.

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पीपुल्स फार एनीमल से जुड़े पत्रकार भागीरथ तिवारी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इस में पशुओं को भी शामिल कर लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है, उन्हें पीटा नहीं जा सकता. न ही उन्हें शराब पिलाई जा सकती है और न ही तंग बाड़ों में खड़ा किया जा सकता है.

हमारे देश की न्याय व्यवस्था भी दोहरे मापदंड वाली है. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट कहती है कि आवारा पशुओं को भी खयाल रखो और अपनी फसलों को भी सहीसलामत रखो. व्यवहार में  यह कैसे संभव है? जमीनी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के इलाकों में नीलगाय, सूअर और गाय, बकरी, भैंस जैसे आवारा पशुओं से फसल बचाने के लिए किसान खेतों में रतजगा कर रहे हैं.

आवारा पशुओं को किसान मार भी नहीं सकते, क्योंकि यह गैरकानूनी है. गांवों में खेती करने वाले छोटेछोटे किसानों के पास जो जमीन है, उस पर किसी बड़े फार्महाउस जैसे तार की फैंसिंग नहीं रहती. गरीब, बीसी और एससी पशुपालक अपने पालतू पशुओं को खुद चराने ले जाते हैं, पर ऊंची जाति के दबंगों के पशु बेखौफ आवारा घूमते हैं. देश का कानून भी उपदेशकों जैसे केवल उपदेश भर देता है.

एक दौर था जब पशुपालन किसानों के लिए आमदनी का जरीया हुआ करता था. लोग गायभैंस, बकरी पाल कर इन के दूध, घी, मक्खन को बेच कर घरपरिवार की जरूरतों की पूर्ति करते थे. बैल खेतीकिसानी के कामों में हल, बखर चलाते थे. बैलगाड़ी में किसान अपनी उपज मंडियों तक ले जाते थे. न‌ई तकनीक आने से अब खेती में कृषि उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ गया है. इस के चलते पशुपालन में अब किसानों की दिलचस्पी कम हो गई है. अब लोग पालतू पशुओं को दूध देने तक घर में रखते हैं, बाद में उन्हें आवारा छोड़ देते हैं. आजकल गांवकसबों में आवारा पशुओं के चलते फसलों की सुरक्षा एक बड़ी समस्या बन कर उभर रही है.

मौजूदा दौर में खेती में मशीनीकरण से गौवंश के बैल बेकार होने की बात तो समझ में आती है, लेकिन दूध देने वाली गाय के आवारा होने की बात समझ से परे है. गांवशहर से ले कर दिल्ली तक गौवंश की रक्षा की हिमायती सरकार होने के बावजूद भी आज तक पशुओं की आवारगी पर कोई ठोस नीतिनियम नहीं बन पाए हैं.

समस्या की जड़ है पाखंड

धर्म के ठेकेदारों ने गाय को ले कर जो अंधविश्वास और पाखंड फैलाया है, उसे मानने का खमियाजा भी तो समाज ही भुगत रहा है. कपोलकल्पित कथाओं के जरीए पंडेपुजारी लोगों को बताते हैं कि गाय के अंदर 33 करोड़ देवी देवता रहते हैं. जो पंडित को गाय दान में देते हैं, वे कितने ही पाप कर लें, सीधे स्वर्ग पहुंच जाते हैं.

बड़े-बड़े पंडालों में होने वाली कथाओं में बताया जाता है कि दान की गई गाय की पूंछ पकड़ कर स्वर्ग के रास्ते में पड़ने वाली एक वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है. इसी पाखंड की वजह से मध्य प्रदेश की एक महिला मुख्यमंत्री तो सड़क पर अपने काफिले को रोक कर गाय को रोटी खिलाती थीं. आखिर लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि गाय को हरे चारे और भूसे की जरूरत रोटी से कहीं ज्यादा है.

समाजसेवी बृजेंद्र सिंह कुशवाहा कहते हैं कि गौहत्या की चिंता करने वालों को यह चिंता भी करना होगी कि गाय को माता मानने वाले लोग गाय को सड़कों पर मरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं? वैसे तो गाय एक बहुपयोगी पशु है, उस के दूध को बहुत गुणकारी माना गया है और आज भी गांवदेहात में कई परिवारों की आजीविका का स्रोत गाय का दूध और उस से बने उत्पाद दही, मक्खन और घी हैं. गाय के गोबर से बने उपले गांवदेहात के लाखों घरों के चूल्हों का ईंधन बने हुए हैं, पर वर्तमान में गाय की बदहाली और अनदेखी भी किसी से छिपी नहीं है.

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गाय के नाम पर सरकारी अनुदान बटोरने वाले तथाकथित गौसेवक गाय का निवाला खा रहे हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पशुधन से किसान भी विमुख हो रहे हैं. यही वजह है कि गाय जब तक दूध देती है, पशुपालक उस की सेवा करते हैं और जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है तो पशुपालक उसे  सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं. ऐसे ही लोगो की वजह से गाएं सड़कों पर आवारा घूमती कचरे के ढेर पर प्लास्टिक की पन्नी खाती नजर आती हैं.

मध्य प्रदेश के भोपालजबलपुर नैशनल हाईवे 12 पर आवारा घूमती गायों का समूह सड़क पर घूमता हमेशा नजर आता है. इन में से कुछ गाएं आएदिन ट्रक या दूसरी बड़ी गाड़ियों की चपेट में आ कर मौत का शिकार हो जाती हैं, तो कुछ जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाती हैं.

सड़कों पर घायल गायों की सुध लेने कोई नहीं आता. औसतन हर 10 किलोमीटर के दायरे में सड़क किनारे मरी पड़ी गाय की बदबू आनेजाने वालों का ध्यान खींचती है, पर किसी जिम्मेदार अफसर या नेता का ध्यान इस ओर नहीं जाता है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि गायों की खरीदफरोख्त करने वाले लोग इन गायों को साप्ताहिक लगने वाले एक बाजार से दूसरे बाजार में ट्रकों से ले जाते हैं. कई बार मवेशी बाजार में सही कीमत न मिलने के चलते ट्रांसपोर्ट का खर्चा बचाने या तथाकथित गौरक्षकों के डर से वे उन्हें दूसरे बाजार के लिए नहीं ले जा पाते. कुछ व्यापारी तो गाय के शरीर पर कलर से कोई मार्क बना कर उसे सड़क पर छोड़ देते हैं. अगले हफ्ते वही व्यापारी आ कर उनगायों की तलाश करते हैं और ज्यादातर गाएं उन्हें मिल भी जाती हैं, जिन्हे वे फिर से बाजार में खरीदफरोख्त के लिए ले जाते हैं. आवारा घूमती गायों की यह बदहाली गाय के नाम पर हायतोबा मचाने वाले गौरक्षकों को धत्ता बताती नजर आती है .

मरने-मारने पर उतारू 

गौसेवा का ढोंग करने वाले भगवाधारी घर में भले ही अपने मांबाप का खयाल न रखते हों, पर गौतस्करी करने वाले लोगों को पकड़ कर उन की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.

28 अप्रैल, 2020 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में एक गाय का कटा सिर मिलने की खबर ने माहौल में जहर घोल दिया था. इस मामले में एक समुदाय विशेष की आलोचना से सोशल मीडिया प्लेटफार्म गरमाया हुआ था.

दरअसल, जिस इलाके में गाय का सिर मिला था, वह एक समुदाय विशेष का महल्ला था. इस वज़ह से यही कयास लगाया जाने लगा कि गाय का कत्ल कर के गौमांस निकाल कर सिर फेंका गया है. जब ऐसी घटनाओं से एक समुदाय गुस्से से भर दूसरे समुदाय पर लानतें भेजने लग जाए तो विश्वास का संकट खड़ा हो जाता है. गौहत्या और गौतस्करों पर सियासत करने वाले लोग मौका पाते ही हर घटना को सांप्रदायिक रंग देने से पीछे नहीं हटते हैं.

इस तरह की घटनाओं का दुखद पहलू यह भी है कि गौहत्या का विरोध कर के गुस्से में आ कर मरनेमारने पर उतारू लोग भीड़ तंत्र का हिस्सा तो बन जाते हैं, पर गायों की आवारगी पर बात नहीं करना चाहते.

हो रही हिंसा और चंदा वसूली  

मध्य प्रदेश में तो बाकायदा गौसेवा आयोग बना कर उस के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया जाता है, पर प्रदेश में गायों की बदहाली गौसेवा आयोग के वजूद पर ही सवालिया निशान लगाती ही लगाती है.

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मध्य प्रदेश के कई शहरों में छोटीबड़ी दुकानों पर गाय की आकृति वाली प्लास्टिक की चंदा जमा करने वाली गुल्लक रखी रहती हैं, जिन में दुकान पर आने वाले ग्राहक चंदे के नाम पर कुछ रकम डालते हैं. ऐसे ही एक दुकानदार से सवाल करने पर बताया गया कि गौशाला चलाने वाली संस्थाओं के नुमाइंदे इन गुल्लकों को दुकान पर छोड़ जाते हैं और एक निश्चित समय पर उस की रकम को निकाल कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं, जो स्वयंसेवी संस्था बना कर शासकीय अनुदान का जुगाड़ करने में माहिर होते हैं. सड़कों पर आवारा घूमती गायों और इन गुल्लकों को देख कर यह सवाल बरबस ही उठता है कि आखिर गौसेवा के नाम पर उगाहे जा रहे इस चंदे का इस्तेमाल कौन सी गायों की सेवा पर किया जाता हैं?

हालांकि कुछ ऐसी गौशालाएं आज भी हैं जो बिना चंदे या शासकीय अनुदान के प्रचार से कोसों दूर निर्बल और रोगी गायों की सेवा का काम कर रही हैं. पर बहुत से संगठन गौसेवा के नाम पर देश में हिंसा फैला रहे हेैं. गौरक्षकों की टोली आएदिन सड़कों पर गायों का परिवहन करने वाले ट्रकों को रोक कर ड्राइवर और क्लीनर से मारपीट कर उन से चौथ वसूली करने में भी पीछे नहीं रहती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि सड़कों पर आवारा घूमती गायों को देख कर इन गौरक्षकों का खून क्यों नहीं खोलता? गौहत्या और गौमांस के मुद्दे पर कानों सुनी बातों पर मौब लिंचिंग पर उतारू इन भक्तों की भीड़ को सोचना होगा कि गाय को मां का दर्जा दे कर इस तरह सड़कों पर आवारा छोड़ना भी कोई धर्म नहीं है. गाय को आवारगी से मुक्त करा कर  उस के पालक बनने की पहल भी उन्हें करनी होगी.

चरनोई जमीन पर कब्जा 

पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी हरिहर बुनकर मानते हैं कि पशुओं की आवारगी की एक अहम वजह चरनोई जमीन का न होना भी है. चरनोई जमीन पर गांवकसबों के रसूख वाले लोगों ने कब्जा कर रखा है. सरकारी जमीन पर एससी और बीसी तबके द्वारा अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेती करने पर पुलिस द्वारा पिटाई करती है, लेकिन दबंगों की दबंगई के आगे पुलिस और बड़े अफसरों को सांप सूंघ जाता है.

चरनोई जमीन न होने से पशु आवारा घूमते हैं और फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से क‌ई बार लड़ाई-झगड़े के हालात भी बन जाते हैं.

आवारा पशुओं की समस्या का समाधान केवल जुमलों से होने वाला नहीं है. इस के लिए सरकार को चरनोई जमीन को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराना होगा. बीमार, लाचार, आवारा पशुओं को गौशालाओं में पहुंचा कर गांवकसबों में चरनोई जमीन का रकबा तय कर के और व्यावहारिक कानून बना कर आवारा पशुओं की समस्या से नजात मिल सकती है.

हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

पहाड़ों की वादियां, नदियां, झरने, हरियाली लोगों को लुभाती है. वहां के जंगल इंसान के सामने चुनौती पेश करते हैं. कच्ची पगडंडियां इन दुर्गम प्रदेशों के गांवों में जाने का एकमात्र रास्ता होती हैं जहां जंगल होते हैं, वहां जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता है. उत्तराखंड के जनपद चमोली के बहुत से इलाकों में भालुओं का खौफ बढ़ गया है. बीते काफी समय से वहां भालू के हमले की कई घटनाएं हुई हैं, जिन में कई लोग घायल हुए तो कई मवेशियों को भी भालू ने अपना शिकार बनाया.

ऐसी ही एक घटना चमोली के देवाल ब्लौक के वाण गांव में घटी. घर के ईंधन की लकड़ी लेने के लिए कुछ महिलाओं के साथ जंगल गई राधा बिष्ट पर भालू ने अचानक हमला कर दिया.

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20 साल की राधा बिष्ट ने बताया, “12 सितंबर की सुबह 10 बजे अपने गांव से तकरीबन 2 किलोमीटर दूर जंगल में हम 7-8 महिलाएं ईंधन के लिए लकड़ियां बीनने गई थीं. वहां मैं एक बुरांश के पेड़ पर जा चढ़ी और अपनी दरांती से सूखी हो चुकी लकड़ियां काटने लगी.

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“मेरे पड़ोस की बबीता देवी और संजू देवी मुझ से 25 मीटर के आसपास लकड़ियां चुन रही थीं. इसी बीच मुझे महसूस हुआ कि कोई काला साया पेड़ पर चढ़ रहा है. मैं ने गौर से देखा कि वह एक बड़ा भालू था. पहले तो मेरी बोलती सी बंद हो गई, पर कुछ देर बाद अपनी जान बचाने के लिए मैं पेड़ पर और ऊपर जा चढ़ी.

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“भालू मुझ पर हमला करने के इरादे से ही पेड़ पर चढ़ा था और ऊपर आ कर उस ने अपने पंजे से मेरी कमर पर वार किया. उस समय तो मैं ने घाव पर ध्यान नहीं दिया और भालू पर दरांती से हमला किया. इस हमले से भालू थोड़ा नीचे की तरफ गिरा पर पेड़ की टहनियों में उलझ गया. इस से वह और खतरनाक हो गया और दोबारा मेरी तरफ आया.

“तब तक मैं ने भी मन बना लिया था कि इस भालू से हार नहीं माननी है और मैं ने चीखते हुए भालू पर फिर से दरांती चलाई.”

इसी बीच बबीता देवी और संजू देवी ने भालू की तेज आवाज सुनी और वे राधा की तरफ दौड़ीं.

बबीता देवी ने बताया, “भालू तेज आवाज में राधा पर झपट रहा था और राधा भी चीखते हुए उस पर दरांती चला रही थी. हम ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया और भालू पर दूर से पत्थर फेंके. इस से भालू बौखला गया और वहां से भाग कर घने जंगल में चला गया.”

संजू देवी और बबीता देवी ने राधा को संभाला. संजू देवी ने बताया, “राधा ने बड़ी हिम्मत दिखाई. उस की कमर पर भालू के पंजे के निशान थे और घाव भी हो गया था.”

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इस घटना की सूचना मिलने के बाद राधा को उस के परिवार और गांव वालों ने वहां से कई किलोमीटर दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र देवाल में भरती कराया, जहां उस का इलाज किया गया.

जिस तरह से जंगल खत्म हो रहे हैं और इंसान की जंगली जानवरों के इलाकों में दखलअंदाजी बढ़ी है, उस के बाद से उत्तराखंड के पहाड़ी जनपदों में इंसान और जंगली जानवरों के मुठभेड़ की घटनाएं भी बढ़ी हैं,  जो चिंता की बात है. सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर क्यों जंगली जानवर इतने हमलावर हो रहे हैं और इस का हल क्या है?

सामाजिक कार्यकर्ता हीरा बिष्ट ने बताया, “हमारे पहाड़ की महिलाएं घर का काम तो करती ही हैं, साथ ही साथ ईंधन के लिए लकड़ी और मवेशियों के लिए घास भी लाती हैं. वे मरदों के बराबर काम करती हैं, पर उन की  सुरक्षा के कोई भी उपाय नहीं किए जाते हैं. अगर किसी महिला के साथ कोई घटना हो जाती है तो पहाड़ में कोई भी पूछने वाला नहीं है.

“सरकार के भरोसे तो यहां कुछ भी नहीं होता. कुरसी मिलने के बाद कोई भी नेता पूछता तक नहीं है. कई महिलाओं की डिलीवरी होतेहोते रास्ते में ही वे दम तोड़ देती हैं. आज तक कई लोगों के साथ जंगली जानवरों वाली घटनाएं हुई हैं, लेकिन कोई जिमेदारी लेने को तैयार नहीं होता है. कहते हैं कि मुआवजा मिलेगा, पर आमतौर पर ऐसा होता नहीं है.”

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पहाड़ों पर पहाड़ जैसी समस्याएं हैं, पर राधा बिष्ट ने दिखा दिया है कि पहाड़ की बेटियों का हौसला भी पहाड़ जैसा ही अडिग होता है.

दंतैल हाथियों के साथ क्रूरता जारी आहे

छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणी विशेषकर हाथियों की मानों शामत आई हुई है. बीते सप्ताह एक एक करके दो हाथियों  की संदिग्ध मौत हो गई. इधर  संवेदनशीलता का जामा पहन शासन कुंभकर्णी निद्रा में सोया हुआ है. जिस तरह विगत दिनों केरल  में गर्भवती हाथी की विस्फोटक खाद्य पदार्थ खिलाकर क्रूर हत्या कर दी गई थी. सनसनीखेज तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में भी ऐसा लगातार अलग अलग तरीके से होता रहता है. यहां अक्सर जहर दे कर या फिर करंट से हाथियों को   मौत के मुंह में सुला दिया जाता है. और जैसा कि शासन की फितरत है मामले की जांच के नाम पर संपूर्ण घटनाक्रम को नाटकीय  मोड़ दे दिया जाता है.  आगे चलकर लोग भूल जाते हैं की किस तरह लोगों ने वन्य प्राणी हाथी को मार डाला था. इस संदर्भ में न तो छत्तीसगढ़ में कोई गंभीर पहल होती है न ही  कभी कोई कठोर  कार्रवाई होती है.

इधर छत्तीसगढ़ में बीते दो दिनों में दो मादा हाथी की मौत के बाद जिला बलरामपुर के अतोरी के जंगल में भी एक मादा  हाथी  का शव बरामद हुआ.

वन विभाग की टीम ने  बताया मादा हाथी की मौत ३ से ४ दिन पहले हुई थी.फ़िलहाल विभाग के अधिकारी मौत के कारणों के  संदर्भ में कुछ भी करने को तैयार नहीं है.

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दरअसल, छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले में बीते दो दिनों में दो हाथी की मौत ने  छत्तीसगढ़ वन विभाग की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं.

दो दिन  हो गये  हाथियों का दल मृत हाथी के शव के पास डटा हुआ  हैं. फलतः  मृत हाथी  का पोस्टमार्टम नहीं हो पाया है और मौत के कारणों का खुलासा भी नहीं  हो सका.

इसी तरह  प्रतापपुर वन परिक्षेत्र के गणेशपुर जंगल में एक मादा हाथी का शव मिला था. हर महीने दो महीने ऐसा घटनाक्रम निरंतर अबाध गति से चल रहा है. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हाथियों को मौत की खबर सुर्खियों  में आने के बाद हाशिये  में चली जाती है. वन पशुओं के संरक्षण के संदर्भ में जो नियम कायदे हैं उस आधार पर न जांच होती है न ही कोई  कठोर कार्यवाही होती है. यह सब छत्तीसगढ़ में बदस्तूर चला आ रहा है.

गणेश हाथी की नकेल

छत्तीसगढ़ के रायगढ़, कोरबा वन परिक्षेत्र में गणेश नामक एक हाथी ने आतंक मचा रखा है. लगभग 25 लोगों को हलाक खतरनाक  दंतैल गणेश हाथी ने कर दिया  है.  शासन वन अमला असहाय  हो चुका है.इसका एक कारण यह भी है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में नई बस्तियां उभर आई है, जहां भारी संख्या में लोग रहवास कर रहे हैं.परिणाम स्वरूप वन्य प्राणी एवं लोगों का आमना सामना हो रहा है और कभी हाथी या अन्य वन्य प्राणी मारे जाते हैं या फिर कभी आम लोग वन्य  प्राणियों की चपेट में आकर मृत्यु का ग्रास बन रहे है. यह सारा खेल लगभग 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ में अबाध गति से चल रहा ह. ऐसे में इंसान के सामने वन्य प्राणी अहसाय हो चुका है और बिजली के करंट से अथवा जहर देकर उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा है.

वन विभाग के एक आला अफसर ने बताया कि वन्य प्राणी हाथियों के संरक्षण के नाम पर  करोड़ों रूपए का आबंटन   छत्तीसगढ़ सरकार  करती है.  हाथियों के नाम पर वन विभाग जहां पानी के लिए तालाब बनवाता है वहीं हाथी मित्र दल का गठन किया गया है. आम लोगों को हाथों से बचने के लिए प्रशिक्षित भी किया जा रहा है. दरअसल,सच्चाई यह है कि यह सब कागजों में अधिक है, हकीकत में बिल्कुल भी नहीं.

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सवालों के जवाब नहीं है?

दंतैल वन्य प्राणी हाथी के कारण वन विभाग के अधिकारी मालामाल हो रहे हैं. करोड़ों रुपए के आबंटन का हिसाब जमीन पर नहीं दिखाई देता. “लेमरु एलीफेंट काॅरिडोर”  की मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने घोषणा की, मगर डेढ़ वर्ष और चला यह कागज़ में है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कुछ कम अनुभवी या  भ्रष्टाचार   में लिप्त  अधिकारियों की नियुक्ति प्रमुख जगहों मे होने के  कारण छत्तीसगढ़ में  हाथियों की मौतों जारी आहे. चिंता की बात  यह है कि वैज्ञानिक कारण इन मौतों का वन विभाग नहीं  बता पाता और  सब कुछ संदेहास्पद स्थिति में है.

सवाल यह भी है कि हाथियों की मौतों का कारण महज़ संक्रमण बता देना, क्या मूक वन्य प्राणी के साथ घोर मजाक नहीं है ?

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