हताश जिंदगी का अंत- भाग 3: क्यों श्यामा जिंदगी से हार गई थी?

विपिन की चाहत पूरी नहीं हुई तो उस ने श्यामा के जीवन को बरबाद करने का निश्चय कर लिया. शाम होते ही विपिन रामभरोसे को ठेके पर ले जाता, उसे जम कर शराब पिलाता. फिर श्यामा के विरुद्ध भड़काता. इस के बाद रामभरोसे नशे में धुत हो कर घर पहुंचता. बातबेबात श्यामा से उल झता, फिर उसे जानवरों की तरह पीटता. बेटियां बचाने आतीं तो उन्हें गला दबा कर मारने की धमकी देता. पासपड़ोस के लोग चीखपुकार सुन कर श्यामा को बचाने आते, तो वह उन से भी भिड़ जाता. उन को भद्दीभद्दी गालियां बकता और वापस जाने को कहता.

रामभरेसे जब अधिक शराब पीने लगा और रातदिन नशे में धुत रहने लगा तो गैराज मालिक ने उसे नौकरी से निकाल दिया. विपिन ने भी अब उसे मुफ्त में शराब पिलाना बंद कर दिया था. वह शराब की जुगत के लिए कभी रिक्शा चलाता तो कभी ढाबों पर जा कर बरतन मांजता. शराब पीने के बाद कभी वह घर आता तो कभी ढाबे पर ही सो जाता. उसे अब न पत्नी की चिंता रह गई थी और न ही बेटियों की.

पति की नशेबाजी से घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल हो चुकी थी. जब बेटियों के भूखे मरने की नौबत आ गई तब श्यामा नौकरी की तलाश में जुटी. 8वीं पास श्यामा को भला अच्छी नौकरी कहां मिलती. उस ने महल्ले में ही स्थित निरंकारी बालिका इंटर कालेज की प्रधानाचार्या से संपर्क किया और अपनी व्यथा बताते हुए जीवनयापन करने के लिए काम मांगा. प्रधानाचार्या ने श्यामा पर तरस खाते हुए रसोइया की नौकरी दे दी. इस के बाद श्यामा 2 हजार रुपए वेतन पर मिडडे मील बनाने का काम करने लगी.

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नौकरी पाने के बाद श्यामा किसी तरह अपनी बेटियों का पालनपोषण करने लगी. श्यामा की बड़ी बेटी पिंकी अब तक निंरकारी बालिका इंटरकालेज से इंटर मीडिएट की परीक्षा पास कर बीए (प्रथम वर्ष) में पढ़ने लगी थी. उस की अन्य 3 बेटियां प्रियंका, वर्षा और रूबी निरंकारी बालिका में ही पढ़ रही थीं. वह उन्हें सुबह अपने साथ ले जाती और फिर छुट्टी होने के बाद साथ ही ले आती थी. मिडडे मील का बचा भोजन भी वह अपने साथ लाती जो शाम को उस की बेटियां खा लेती थीं.

नशेड़ी पति की दहशत से श्यामा व उस की बेटियां डरीसहमी रहती थीं. जब वह ज्यादा नशे में होता तो श्यामा दरवाजा नहीं खोलती थी. तब वह दरवाजा तोड़ने का प्रयास करता और खूब गालियां बकता. श्यामा के कमरे के सामने जगह पड़ी थी. उस ने इस खाली जगह पर घासफूस का एक छप्पर रखवा दिया था और एक चारपाई डलवा दी थी ताकि नशेड़ी पति कमरे के बजाय इसी छप्पर के नीचे सो जाए.

श्यामा की बड़ी बेटी  पिंकी अब तक 19 वर्ष की अवस्था पार कर चुकी थी. वह महल्ले के कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपना व अपनी पढ़ाई का खर्च भी निकालने लगी थी. पिंकी की एक सहेली पूजा थी. वह उस के साथ ही पढ़ती थी. वह उस से कहती थी कि मां के हौसले से ही वह जिंदा है. पहले वह छोटी बहनों को पढ़ा कर पैरों पर खड़ा करेगी. उस के बाद ही वह अपनी शादी करेगी. मां का हैसला टूटने नहीं देगी. उस की छोटी बहन 14 वर्षीया प्रियंका कक्षा 9 व 13 वर्र्षीया वर्षा कक्षा 7 और

10 वर्षीया रूबी कक्षा 5 में पढ़ रह थी.

रामभरेसे पक्का शराबी था. उस के पास जिस दिन शराब पीने को पैसे नहीं होते उस दिन वह श्यामा से मांगता. न कहने पर उसे मारतापीटता और बक्से में रखे पैसे निकाल लेता. पैसा न मिलने पर वह घर का सामान बरतन, अनाज व कपडे़ उठा कर ले जाता और बेच कर शराब पी जाता. बेटियों की गुल्लक तक को तोड़ कर पैसे निकाल लेता.

नशेड़ी पति की हरकतों से परेशान श्यामा की हसरतें अधूरी रह गई थीं. उस के हौसले टूटने लगे थे और वह मानसिक तनाव में रहने लगी थी. वह अपना दर्द सहयोगी कर्मी तारावती से कभीकभी बयां करती थी. वह उस से कहती थी कि बड़ी बेटी पिंकी के ब्याह की चिंता सता रही है. घर की माली हालत खराब है. ऐसे में उस की शादी कैसे होगी. पिंकी के अलावा उस की 3 अन्य बेटियां भी हैं. जो सालदरसाल बड़ी हो रही हैं. उन की चिंता भी उसे सता रही है.

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30 जनवरी की शाम 4 बजे रामभरोसे घर आया. उस समय श्यामा व उस की चारों पुत्रियां घर पर थीं. रामभरोसे ने आते ही श्यामा से शराब पीने को पैसे मांगे. श्यामा ने पैसे देने से मना किया तो उस ने पास में रखा डंडा उठाया और श्यामा को पीटने लगा. मां को क्रूर पिता की मार से बचाने उस की बड़ी बेटी पिंकी आई तो वह उसे भी पीटने लगा. प्रियंका और रूबी शोर मचाने लगीं तो रामभरोसे ने उन्हें भी पीटना शुरू कर दिया. मांबेटी अपनी जान बचा कर भागीं तो उस ने उन का पीछा किया. किसी तरह रामशरण के घर में घुस कर मांबेटियों ने जान बचाई. गुस्से से लाल रामभरोसे घर आया. उस ने घर का सामान तहसनहस कर दिया. घर के बाहर पड़ा छप्पर उलट दिया. फिर तांडव करने के बाद शराब ठेके पर शराब पीने पहुंच गया.

इधर श्यामा पति की हैवानियत से इतनी ऊब गई कि उस ने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया. वह बाजार गई और बीज बेचने वाली दुकान से क्विक फौस के

?7 पाउच खरीद लाई. यह दवा गेहूं को कीडे़घुन से बचाने के लिए गेहूं भंडारण में रखी जाती है. दवा लाने के बाद श्यामा ने चारों बेटियों को अपने सामने बिठाया और बोली, ‘तुम्हारे नशेड़ी बाप की हैवानियत से मैं टूट चुकी हूं. उस के जुल्म अब सह नही पाऊंगी. इसलिए मैं ने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया है.’

पिंकी बोली, ‘मां आप तो मेरी संबल हैं. आप के हौसले से ही हम जिंदा हैं. जब आप ही नहीं रहेंगी तो हम जी कर क्या करेंगी. हम सब एकसाथ ही मरेंगे.’

शायद तुम ठीक कहती हो. क्योंकि मेरे न रहने पर वह नशेड़ी अपनी नशापूर्ति के लिए या तो तुम सब को बेच देगा या फिर घर को देहव्यापार का अड्डा बना देगा. इसलिए उस के जुल्मों से बचने के लिए आत्महत्या करना ही बेहतर रहेगा.

श्यामा की जब चारों बेटियां एक राय हो कर श्यामा के साथ आत्महत्या को राजी हो गईं तब श्यामा ने कमरे की अंदर से कुंडी बंद की, फिर जहर की 7 में से 4 पुडि़यां खोलीं और आटे में मिला कर भगोने में डाल कर घोल बनाया. इस के बाद दिल को कड़ा कर के बारीबारी से चारों बेटियों को घोल पिला दिया, फिर स्वयं भी घोल पी लिया. कुछ देर बाद ही जहरीले घोल ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया. सभी मूर्च्छित हो कर आड़ीतिरछी एकदूसरे पर पसर गईं. फिर उन के प्राणपखेरू कब उड़ गए, किसी को पता ही नहीं चला.

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लगभग 33 घंटे बाद घटना की जानकारी तब हुई जब निरंकारी बालिका की छात्रा प्रीति श्यामा के घर आई. उस ने  दरवाजा न खोलने की जानकारी श्यामा के ससुर रामसागर को दी. रामसागर ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस ने दरवाजा तोड़ा तब मां व उस की 4 बेटियों द्वारा आत्महत्या किए जाने की जानकारी हुई. पुलिस ने शवों को कब्जे में ले कर जांच शुरू की तो नशेड़ी पति की हैवानियत से ऊब कर आत्महत्या करने की घटना प्रकाश में आई.

दिनांक 3 फरवरी, 2020 को थाना सदर कोतवाली पुलिस ने अभियुक्त रामभरोसे को फतेहपुर की जिला अदालत में पेश किया. जहां उसे जिला जेल भेज दिया गया. कथा संकलन तक उस की जमानत स्वीकृत

अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का- भाग 3: जब प्रभा को अपनी बेटी की असलियत पता चली!

‘‘मां, क्या हुआ, पापा ठीक हैं न?’’ लेकिन जब उसे प्रभा की सिसकियों की आवाज आई तो वह समझ गई कि कुछ बात जरूर है. घबरा कर वह बोली, ‘‘मां, मां, आप रो क्यों रही हैं, कहिए न क्या हुआ?’’ अपने ससुर के बारे में सब जान कर कहने लगी, ‘‘मां, आ…आ…आप घबराइए मत, कुछ नहीं होगा पापा को. मैं कुछ करती हूं.’’ उस ने तुरंत अपनी दोस्त शोना को फोन लगाया और सारी बातों से उसे अवगत कराते हुए कहा कि तुरंत वह पापा को अस्पताल ले कर जाए, जैसे भी हो.

अपर्णा की जिस दोस्त को प्रभा देखना तक नहीं चाहती थी और उसे बंगालनबंगालन कह कर बुलाती थी, आज उसी की बदौलत भरत की जान बच पाई, वरना पता नहीं क्या हो जाता. डाक्टर का कहना था कि मेजर अटैक था. अगर थोड़ी और देर हो जाती मरीज को लाने में, तो वे इन्हें नहीं बचा पाते.

तब तक अपर्णा और मानव आ चुके थे. फिर कुछ देर बाद रंजो भी आ गई. बेटेबहू को देख कर बिलखबिलख कर रो पड़ी प्रभा और कहने लगी, आज अगर शोना न होती, तो शायद तुम्हारे पापा जिंदा न होते.’’

अपर्णा के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. उस ने अपनी सास को ढांढ़स बंधाया और अपनी दोस्त को तहेदिल से धन्यवाद दिया कि उस की वजह से उस के ससुर की जान बच पाई. अपनी भाभी को मां के करीब देख कर रंजो भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मां, मैं तो मर ही जाती अगर पापा को कुछ हो जाता. कितनी खराब हूं मैं जो आप की कौल नहीं देख पाई. वह तो सुबह आप की मिस्डकौल देख कर वापस आप को फोन लगाया तो पता चला, वरना यहां तो कोई कुछ बताता भी नहीं है.’’ यह कह कर अपर्णा की तरफ घूरने लगी रंजो.

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तभी उस का 7 साल का बेटा बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप झूठ क्यों बोल रही हो? नानी, मम्मी झूठ बोल रही हैं. जब आप का फोन आया था, हम टीवी पर ‘बाहुबली’ फिल्म देख रहे थे. मम्मी यह कह कर फोन नहीं उठा रही थीं कि पता नहीं कौन मर गया जो मां इतनी रात को हमें परेशान कर रही हैं. पापा ने कहा भी उठा लो, पर मां ने फोन नहीं उठाया और फिल्म देखती रहीं.’’ यह सुन कर तो सब हैरान हो गए.

सचाई खुलने से रंजो की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा, जैसे उसे करंट लग गया हो. अपने बेटे को एक थप्पड़ लगाते हुए बोली, ‘‘पागल कहीं का, कुछ भी बकवास करता रहता है.’’ फिर हकलाते हुए कहने लगी, ‘‘अरे, वह तो कि…सी और का फोन आ रहा था, मैं ने उस के लिए कहा था,’’ दांत निपोरते हुए आगे बोली, ‘‘देखो न मां, कुछ भी बोलता है, बच्चा है न इसलिए.’’

प्रभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहने लगी, ‘‘इस का मतलब तुम उस वक्त जागी हुई थी और तुम्हारा फोन भी तुम्हारे आसपास ही था? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इतनी रात को तुम्हारी मां किसी कारणवश ही तुम्हें फोन कर रही होगी? अच्छा सिला दिया तू ने मेरे प्यार और विश्वास का, बेटा. आज मेरा सुहाग उजड़ गया होता, अगर यह शोना न होती. जिस बहू के प्यार को मैं ढकोसला और बनावटी समझती रही, आज पता चल गया कि वह, असल में, प्यार ही था. मैं तो आज भी इस भ्रम में ही जीती रहती अगर तुम्हारा बेटा सचाई न बताता तो.’’

अपने हाथों से सोने का अंडा देने वाली मुरगी निकलते देख कहने लगी रंजो, ‘‘ना, नहीं मां, आप गलत समझ रही हैं.’’

‘‘समझ रही थी, पर अब मेरी आंखों पर से परदा हट चुका है. सही कहते थे तुम्हारे पापा कि तुम मेरी ममता का सिर्फ फायदा उठा रही हो, कोई मोह नहीं है तुम्हारे दिल में मेरे लिए,’’ कह कर प्रभा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया और अपर्णा से बोली, ‘‘चलो बहू, देखें तुम्हारे पापा को कुछ चाहिए तो नहीं?’’ रंजो, ‘‘मां, मां’’ कहती रही. पर पलट कर एक बार भी नहीं देखा प्रभा ने, मोह टूट चुका था उस का.

मेरी एक परिचिता के बेटे का विवाह होने वाला था. शादी का जो कार्ड पसंद किया गया, वह काफी महंगा था. उन्होंने ज्यादा कार्ड न छपवा कर एक तरकीब आजमाई, जिस में उन्हें पूरी सफलता मिली. पति व बेटे के बौस और कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण लोगों को तो कार्ड दे दिए, बाकी जिस के घर भी गईं, कार्ड पर उन्हीं के सामने नाम लिखने से पहले बोलतीं, ‘‘बस, क्या बताऊं, कैसे गलती हो गई, कार्ड्स कम हो गए.’’

सुनने वाला फौरन बोलता, ‘‘अरे, हमें कार्ड की जरूरत नहीं, हम आ जाएंगे.’’

परिचिता पूछतीं, ‘‘सच, आप आ जाओगे? फिर आप को कार्ड रहने दूं?’’

सामने वाला कहता है, ‘‘हां, हां, हम ऐसे ही आ जाएंगे.’’

सामने वाला भी अपने को उन का खास समझता कि वे ऐसी बात शेयर कर रही हैं. परिचिता ने सब को एक खाली कार्ड दिखाते हुए निबटा दिया.

मैं उन के साथ 2 घरों में कार्ड देने गई थी, इसलिए इस कलाकारी की प्रत्यक्षदर्शी हूं. खैर, कार्ड मुझे भी नहीं मिला. मैं ने बाद में उन्हें छेड़ा, ‘‘जब सब को दिखा देना, तो आखिर में कार्ड मुझे चाहिए.’’  इस पर

वे खुल कर हंसीं, बोलीं, ‘‘नहीं मिलेगा, बहुत खर्चे हैं शादी के. चलो, कार्ड के तो

पैसे बचाए.’’

मेरी मौसी ने एक दिलचस्प किस्सा बताया. वे रोडवेज की बस से बनारस जा रही थीं. उन की दूसरी तरफ की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा आ कर बैठ गईं. कंडक्टर भला आदमी था, उस ने बूढ़ी अम्मा से टिकट के लिए पैसे भी नहीं लिए.

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बस चल पड़ी. थोड़ी देर में कंडक्टर ने देखा कि अम्मा कुछ परेशान सी हैं. उस ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, इलाहाबाद आ जाए तो बता देना.’’

कंडक्टर ने हां बोला और चला गया. लेकिन बाद में वह भी भूल गया, तब तक बस इलाहाबाद से आगे निकल गई थी.

कंडक्टर को अच्छा न लगा, उस ने बस वापस मुड़वाई. इलाहाबाद आया तो सोती हुई को जगाते हुए वह बोला, ‘‘अम्मा, इलाहाबाद आ गया.’’

‘‘अच्छा बेटा, चलो, अपनी दवाई खा लेती हूं.’’

‘‘अरे अम्मा, यहां उतरना नहीं है क्या,’’ कंडक्टर बोला.

‘‘मुझे तो बनारस जाना है. बेटी ने कहा था कि इलाहाबाद आने पर दवाई खा लेना,’’ अम्मा बोलीं.

सवारियों का हंसहंस कर बुरा हाल हो गया और कंडक्टर की शक्ल देखने लायक थी.

गृहप्रवेश- भाग 3: किसने उज्जवल और अमोदिनी के साथ विश्वासघात किया?

4-5 महीने की भागदौड़ और कुछ दोस्तों की सहायता से मु झे एक प्राइवेट कालेज में परमानैंट नौकरी मिल गई थी. स्नेह और सारा का स्कूल 3 बजे समाप्त हो जाता था. बसस्टैंड से मोहिनी दोनों बच्चों को अपने घर ले जाती. उज्जवल चाहता था कि स्नेह मोहिनी को अपना ले हालांकि मोहिनी और स्नेह दोनों ही इस प्रबंध से नाखुश थे. शाम को कालेज से लौटते हुए मैं स्नेह को अपने साथ ले आती थी.

परिवर्तन इस बार भी सभी के जीवन में आया था. अपनी पीड़ा को पीछे छोड़ कर मैं स्वावलंबी हो रही थी. मोहिनी को अब 2 बच्चों को संभालना पड़ रहा था, जो उस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. दीपक की कंपनी ने उस का स्थानांतरण स्पेन कर दिया था. और उज्जवल, उस के ऊपर तो अब 3 घरों की जिम्मेदारी आ गई थी.

स्नेह और मोहिनी के अतिरिक्त, इकलौता बेटा होने के कारण उस के ऊपर अपनी मां की जिम्मेदारी भी थी. पति की मृत्यु के बाद उज्जवल की मां मेरठ में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहती थीं. लेकिन छुट्टियों में उन का इंदौर आनाजाना लगा रहता था. उज्जवल के इस निर्णय से वे भी खुश नहीं थीं. वैसे, इस के पीछे का कारण मेरे प्रति कोई लगाव नहीं, बल्कि वर्षों पुराना रोग कि ‘क्या कहेंगे लोग’ था.

लेकिन इस सब में सब से अधिक नुकसान दोनों बच्चों का हुआ था. उन की तो पूरी दुनिया बदल गई थी. उन की बालसुलभ जिज्ञासा को उत्तर ही नहीं मिल रहा था. जहां सारा को उज्जवल का उस के घर रहना पसंद नहीं था, वहीं स्नेह को मोहिनी के घर जाना.

मैं स्नेह की उधेड़बुन सम झ रही थी. धीरेधीरे मैं ने उसे परिस्थिति से अवगत कराना शुरू किया. अपने पिता से अलगाव उस के लिए सरल नहीं था. लेकिन मेरा बेटा मु झ से भी अधिक सम झदार था. वह घटनाओं को देखने के साथसाथ सम झने लगा और उन का आकलन भी करने लगा था. अब इस विषय पर हमारे बीच खुल कर बातें होने लगी थीं.

प्रेम मात्र शरीर का समर्पण नहीं है, बल्कि भावनाओं के समंदर में निस्वार्थ भाव से खुद को समर्पण करने का नाम भी है. प्रेम में एक साथी की कमी को दूसरा साथी पूर्ण करता है. प्रेम शक्ति का स्रोत है और मोह व दुर्बलता का सागर. प्रेम स्वतंत्रता का भाव है जबकि मोह उल झनों से भरा हुआ बंदिश का स्वरूप. प्रेम कुछ मांगता नहीं है और मोह मांगना छोड़ता नहीं है. प्रेम का कोई अस्तित्व मिल नहीं सकता जबकि मोह का कोई अस्तित्व होता ही नहीं.

मोहिनी उज्जवल से मोहित थी. लेकिन अभावग्रस्त सम्मोहन के साथ जीने के लिए समर्पित नहीं थी. उस की गलती भी नहीं थी. वह एक धनी परिवार की बेटी थी. विवाह के पश्चात भी उस का जीवन सुखसुविधाओं से पूर्ण रहा था. दीपक की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी. मोहिनी ने उज्जवल से भी यह ही अपेक्षा की थी. एक प्रेमी के रूप में सुदर्शन उज्जवल उस के हृदय के सिंहासन पर बैठ गया था, लेकिन जब उसी प्रेमी की कमजोर पौकेट का उसे पता चला, प्रेम भाप बन कर उड़ने लगा.

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उज्जवल की हालत भी इस से भिन्न नहीं थी. प्रेयसी के नखरे उठाने का आनंद उस की जेब पर भारी पड़ रहा था. अब वह सम झ रहा था जिस मुसकान और जिंदादिल व्यक्तित्व से वह अपनी प्रेमिका के हृदय पर शासन कर पाया था, उस के पीछे का कारण उस की पत्नी का समर्पण था. मैं ने जिस चतुराई से घर को संभाल रखा था, उसी ने उज्जवल को एक तनावरहित जीवन प्रदान किया था. समय के साथ उन दोनों का मोहभंग होना शुरू हो गया था. उन की लड़ाइयां बढ़ गई थीं.

मैं ने कालेज के नजदीक एक घर किराए पर ले लिया और स्नेह को किसी अप्रिय परिस्थति से बचाने के लिए उस का उज्जवल के घर जाना बंद करा दिया था.

मैं ने यों तो पुराने जीवन की कड़वी यादों को उस मकान के साथ ही त्याग दिया था लेकिन अब भी कुछ शेष था. इसलिए, मेरा शरीर तो इस घर में आ गया, लेकिन मेरा मन पुरानी चौखट पर खड़ा इंतजार कर रहा था.

‘‘आप सो गईं मम्मी?’’

कुछ पता ही नहीं चला यादों की गाड़ी पर सवार हो कर कितनी दूर निकाल आई थी. स्नेह पुकारता नहीं, तो कुछ देर यों ही यादों की सैर करती रहती.

‘‘नहीं बेटा, बस आंखें बंद कर कुछ सोच रही थी. क्या हुआ,  तुम तो बाहर खेल रहे थे?’’

‘‘बाहर पापा खड़े हैं.’’

‘‘पापा?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम अपने कमरे में टौयज लगाओ, मैं पापा से मिल कर आती हूं.’’

एक साल, 2 महीने 5 दिन और 4 घंटे बाद उज्जवल मेरे सामने बैठ कर अपनी गलती की माफी मांग रहा था. उस की प्रेमिका अपने रिश्ते को एक और मौका देने अपने पति के पास स्पेन चली गई थी. पराजित प्रेमी अपनी त्यक्त पत्नी के पास वापस चला आया, इस आशा के साथ कि वह इसे अपना अच्छा समय सम झ उस की बांहों में समा जाएगी. भटकना पुरुष का स्वभाव है और प्रतीक्षा स्त्री की नियति. समाज भी सोचता है कि परित्यक्ता पत्नी को फिर से पति का सान्निध्य प्राप्त हो जाए, तो उस के लिए इस से बड़ी खुशी और क्या होगी.

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‘‘अमोदिनी.’’

‘‘हां.’’

‘‘मु झे माफ कर दो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे अपराध के लिए.’’

‘‘तुम जानते हो कि तुम्हारा अपराध क्या है?’’

‘‘मैं मोहिनी के जाल में फंस गया था.’’

उज्जवल की बात सुन कर मैं जोर से हंस पड़ी थी. वह अचंभित हो कर मु झे देखने लगा.

‘‘इस पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए कितना सरल है स्त्री को दोषी कह देना. कदम दोनों के भटकते हैं, मन दोनों का चंचल होता है, लेकिन चरित्रहीन स्त्री हो जाती है. स्त्री को अपराधी बना तुम खुद फिर से पवित्र हो जाते हो. मोहिनी ने तुम्हें नहीं, तुम दोनों ने एकदूसरे को छला है. प्रेम तुम दोनों का अपराध नहीं है, विश्वासघात है.’’

‘‘दीपक और मोहिनी अपने रिश्ते को एक और मौका दे रहे हैं.’’

‘‘उन के रिश्ते में रिश्ता कहने लायक कुछ शेष होगा.’’

‘‘तुम अब भी मु झ से नाराज हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, मैं तो तुम्हारी आभारी हूं. मेरे स्वाभिमान पर, मेरे विश्वास पर मारे गए तुम्हारे एक थप्पड़ ने मेरा परिचय मेरी त्रुटियों से करा दिया. आज मैं यह सम झ पाई हूं कि किसी भी प्रेम और रिश्ते से ऊपर होता है मनुष्य का खुद के प्रति सम्मान और प्रेम. इसीलिए हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए. समय और रिश्ता बदलते देर नहीं लगती. स्त्री के लिए विधा का उपार्जन और धन का संचय आवश्यक है. एक खूबसूरत सपने में रहना अच्छा लगता है. लेकिन इतना ध्यान रहे कि सपना टूट भी सकता है. मूसलाधार प्रलय से बचने के लिए हर स्त्री को एक रेनकोट तैयार रखना ही चाहिए.’’

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‘‘स्नेह के लिए ही मुझे माफ कर दो.’’

‘‘हर रिश्ता प्रेम और विश्वास पर टिका होता है. प्रेम तो मैं तुम से करती नहीं और विश्वास इस जीवन में कभी कर नहीं पाऊंगी. यदि स्नेह के लिए हम साथ होते भी हैं तो आगे चल कर यह रिश्ता कड़वाहट और छल को ही जन्म देगा. ऐसे विषैले माहौल में न हम खुश रह पाएंगे और न स्नेह.’’

‘‘अमोदिनी, काश कि मैं तुम्हारे योग्य हो पाता,’’ यह कह कर उस ने अपना सिर  झुका लिया.

‘‘कल सही समय पर कोर्ट पहुंच जाना,’’ मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.

आज मैं ने घर की चौखट लांघ गृहप्रवेश कर लिया था अपने घर में, जिस में उज्जवल की कोई जगह नहीं थी.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी- भाग 2: क्यों सुकांत की बेटियां उन्हें छोड़कर चली गई

Writer- Dr. Neerja Srivastava

इस पर उन्नति बोली, ‘‘और क्या… कह रहे थे कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस रानी बन कर रहना… पलकों पर बैठा कर रखेंगे तू देखना,’’ और वह हंस दी थी.

‘‘दीदी तुम्हें मालूम है न कि मम्मीपापा अब रिटायर हो चुके हैं… हम लोगों के चक्कर में बेचारे मकान तक नहीं बनवा सके… बैंक से स्टूडैंट लोन तो है ही प्राइवेट लोन अलग से, विदेश की पढ़ाई उन्हें कितनी महंगी पड़ी पता है?’’

‘‘भाई, तू तो लड़का है. सीए बनते ही बढि़या कंपनी में लग जाना है. तू ठहरा तेज दिमाग… फिर धड़ाधड़ पैसे कमाएगा तू… थोड़ा ओवरटाइम भी कर लेना हमारे लिए… मुझे तो गृहस्थी संभालने दे… लाइफ ऐंजौय करनी है मुझे तो, वह अपने लंबे नाखूनों में लगी ताजा नेलपौलिश सुखाने लगी.’’

‘‘कमाल है दीदी पहले विदेश की महंगी प्रोफैशनल पढ़ाई पर खर्च करवाया, फिर फाइवस्टार में शादी की… दहेज न देने पर भी इतना खर्च हुआ जिस की गिनती नहीं. अब काम नहीं करेगी तो तुम्हारा लोन कैसे अदा होगा, सोचा है? माना काव्या दीदी का और मेरा लोन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं पर अपना लोन तो चुकता कर जो बैंक से तुम ने अपने नाम लिया है… काम क्यों नहीं करोगी? फिर प्रोफैशनल पढ़ाई क्यों की? इतना पैसा क्यों बरबाद करवाया जब तुम्हें केवल हाउसवाइफ ही बनना था?’’

‘‘तू तो करेगा न भाई काम?’’

‘‘तुम काम नहीं करोगी तो कुछ दिनों में ही प्यार हवा हो जाएगा रवि का.’’

‘‘तमीज से बात कर. रवि तेरे जीजू हैं.’’

‘‘तुम्हारी वजह से मैं ने डाक्टरी की पढ़ाई नहीं की जबकि मैं बचपन से ही डाक्टर बनना चाहता था. घर की स्थिति देख कर अपना इरादा ही बदल लिया. न… न… करतेकरते भी इतना खर्च करवा डाला… कर्ज में डूब गए हैं मम्मीपापा… शर्म नहीं आती तुम्हें? कब जीएंगे वे अपने लिए कभी सोचा है?’’

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‘‘तू है न उन का बेटा… करना सेवा सारी उम्र लायक बेटा बन कर.’’

‘‘वाह, बाकी हर चीज में बराबरी पर जिम्मेदारी में नहीं. वह तो शुक्र है मकान नहीं बना वरना बिकवा कर उस में से भी अपना शेयर लेती… छोड़ उन्नति दीदी तुम क्या समझोगी… जाओ खुश रहो,’’ सुरम्य बाकी का सारा उफान पी गया.

उधर काव्या ने भी लंदन में कमाल कर दिया. वहीं अपने एक दोस्त प्रतीक से ब्याह रचा लिया. 1 महीने के गर्भ से थी. पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भारत लौट आई. ससुराल वालों ने उसे स्वीकारा नहीं.

वे कट्टर रीतिरिवाजों वाले दक्षिण भारतीय मूल के थे. बड़ी जद्दोजहद के बाद राजी हुए पर घर में फिर भी नहीं रखा. लिहाजा प्रतीक और वह घर से अलग रहने पर मजबूर हो गए. दोनों में से किसी के अभी जौब में न होने की वजह से सारा खर्च सुकांत और निधि के कंधों पर ही आ गया.

काव्या ने तो पढ़ाई छोड़ ही दी थी पर प्रतीक ने अपना एमबीए पूरा कर लिया. बाद में उसे जौब भी मिल गई.

उधर उन्नति की ससुराल की असलियत सामने आने  लगी. आए दिन सास तकाजा करतीं, ताने देतीं, ‘‘बहू, तुम्हारी हर महीने की इनकम कहां है. हम ने रवि को तुम से शादी की इजाजत इसलिए दी थी कि दोनों मिल कर घरपरिवार का स्तर बढ़ाने में मदद करोगे… वैसे ही लंबाचौड़ा परिवार है हमारा… बहू तुम से न घर का काम संभाला जाता है न बाहर का… देखती हूं रवि भी कितने दिन तुम्हारी आरती उतारता है,’’ भन्नाई हुई सास रेवती महीने बाद ही अपने असली रूप में आ गई थी.

रवि जब अपने दोस्तों की प्रोफैशनल वर्किंग पत्नियों को देखता तो उन्नति को ले कर अपमानित सा महसूस करता. रोजरोज दोस्तों की महंगी पार्टियों से उसे हाथ खींचना पड़ता. उन्नति को न ढंग का कुछ पकाना आता न कुछ सलीके से करनेसीखने में ही दिलचस्पी लेती. सजनेसंवरने में वक्त बरबाद करती.

फिर वही हुआ जो सुरम्य ने कहा था. खर्चे से रवि परेशान था, क्योंकि अपनी बहनों की ससुराल और रिश्तेदारी निभाने के लिए वही एक जरीया था. उस पर छोटे भाई आकाश की पढ़ाई भी उस के सिर थी.

बहनों की ससुराल वालों ने उस की पुश्तैनी प्रौपर्टी बिकवा कर उस में से हिस्सा लेने के बाद भी मुंह बंद नहीं किया. आए दिन फरमाइशें होती रहतीं, जिन से घर के सभी सदस्य चिड़ेचिड़े से रहते.

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तब उन्नति को समझ आया कि बहनों की शादी के बाद प्रौपर्टी और पैसों में ही नहीं घर की जिम्मेदारियों में भी अपनी कुछ हिस्सेदारी समझनी चाहिए. उन्नति को मम्मीपापा और सुरम्य की बहुत याद आई.

आंखें सजल हो उठीं कि कितनी मुश्किल हुई होगी उन्हें. इतने कम पैसों में वे कैसे घर चलाते थे? हमारी जरूरतें, शौक पूरे करते रहे वे… अपना तो उन से सब कुछ करवा लिया हम ने पर उन की जरूरतों को कभी न समझा. सिर्फ नाम के लिए महंगी पढ़ाई कर ली. अपनी मस्ती और स्वार्थ के चलते न काम किया न अपना लोन ही चुकाया. वह आत्मग्लानि से भर उठी.

प्रतिबद्धता- भाग 3: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

Writer- VInita Rahurikar

मां का स्नेह भरा स्पर्श पाते ही पलक के अंतर्मन में जमा दुख पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा. अरुणाजी ने उसे जी भर कर रोने दिया. वे जानती थीं कि रोने से जब मन में जमा दुख हलका हो जाएगा, तभी पलक कुछ बता पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ और केशों पर हाथ फेरती रहीं. जब पलक का मन हलका हुआ, तब उस ने अपनी व्यथा बताई. पीयूष की गलती कांटा बन कर उस के दिल में चुभ रही थी और अब वह यह दर्द बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

अरुणाजी पलक के सिर पर हाथ फेरती स्तब्ध सी बैठी रहीं. वे तो सोच रही थीं कि नई जगह में आपस में अभी पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित नहीं हुआ है, तो छोटीमोटी तकरार हुई होगी, जिस के कारण दोनों दुखी होंगे. कुछ दिन में दोनों अपनेआप सामान्य हो जाएंगे. यही सोच कर आज तक उन्होंने पलक से जोर दे कर कुछ नहीं पूछा था. लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा है. पलक के दिल में लगा कांटा निकालना मुश्किल होगा. समय के साथसाथ जब रिश्ते परिपक्व हो जाते हैं, तो उन में प्रगाढ़ता आ जाती है. दोनों के बीच विश्वास की नींव मजबूत हो जाती है, तब अतीत की गलतियों की आंधी रिश्ते को, विश्वास को डिगा नहीं पाती. लेकिन यहां रिश्ता अभी उतना परिपक्व नहीं हो पाया था. पीयूष ने अपने रिश्ते और पलक पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. उसे थोड़ा धीरज रखना चाहिए था.

अरुणाजी समझ रही थीं कि इस समय पलक को कुछ भी समझाना व्यर्थ है. पलक का घाव अभी ताजा है. अपने दर्द में डूबी वह अभी अरुणाजी की बात समझ नहीं पाएगी. इसलिए उन्होंने 2 दिन सब्र किया.

मां से अपनी व्यथा कह कर पलक को अब काफी हलका लग रहा था. 2 दिन बाद वह रात में गैलरी में खड़ी थी, तब अरुणाजी उस के पास जा कर खड़ी हुईं.

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‘‘तुझे दुख होना स्वाभाविक है पलक, क्योंकि तू पीयूष से प्यार करती है और उसे केवल अपने से जोड़ कर देखती है. इसलिए सच सुन कर तू हिल गई और तेरा भरोसा टूट गया.

‘‘पीयूष ने जो कुछ किया वह भावनाओं और उत्तेजना के क्षणिक आवेग में बह कर किया. उस संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है. बरसात में जब पानी अधिक बरसता है तो कई नाले बन जाते हैं, जो नदी से भी अधिक आवेग के साथ बहते हैं, उफनते हैं, लेकिन बरसात खत्म होते ही वे सूख जाते हैं. उन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है. परंतु नदी शाश्वत होती है. वह बरसात के पहले भी होती है और बरसात खत्म होने के बाद भी उस का अस्तित्व कायम रहता है. वासना और सच्चे प्यार में यही अंतर है.

‘‘वासना बरसाती नाले के समान होती है, जो भावनाओं के ज्वार में उफनने लगती है और ज्वार के ठंडा होते ही उस का चिह्न भी जीवन में कहीं बाकी नहीं रहता. लेकिन सच्चा प्यार नदी की तरह शाश्वत होता है वह कभी नहीं सूखता. सूखे की प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस प्रकार नदी अपनेआप को सूखने नहीं देती, मिटने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार सच्चा प्यार भी जीवन से मिटता नहीं है. जीवन भर उस की धारा दिलों में बहती रहती है. तेरे प्रति पीयूष का प्यार उसी नदी के समान है,’’ अरुणाजी ने समझाया.

‘‘लेकिन मां मैं कैसे…’’ पलक कह नहीं पाई कि पीयूष के जिन हाथों ने कभी किसी और लड़की को छुआ है, अब पलक उन्हें अपने शरीर पर कैसे सहे? लेकिन अरुणाजी एक मां ही नहीं एक परिपक्व और सुलझी हुई स्त्री भी थीं. वे पलक के दुख के हर पहलू को समझ रही थीं.

‘‘प्रेम एवं प्रतिबद्धता एकदूसरे से जुड़े हुए जरूर हैं, पर किसी संबंध में पड़ने के पहले उस व्यक्ति का किसी के साथ क्या रिश्ता रहा है, कोई माने नहीं रखता. यदि कोई व्यक्ति पूर्णरूप से किसी के प्रति प्रतिबद्ध हो गया हो, तो उस के लिए पिछले सारे अनुभव शून्य के समान होते हैं. अब पीयूष पूरी तरह से तेरे प्रति समर्पित है, इसलिए बरसों पहले उस ने एक रात क्या गलती की थी, यह बात आज कोई माने नहीं रखती. माने रखती है यह बात कि तुझ से जुड़ने के बाद वह तेरे प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहे बस,’’ अरुणाजी ने समझाया तो पलक सोच में पड़ गई. सचमुच साल भर में उसे कभी नहीं लगा कि पीयूष के प्यार में कोई खोट या छल है. वह तो एकदम निर्मलनिश्छल झरने की तरह है.

‘‘पर मां उस का सच मेरी सहनशीलता से बाहर है. मेरी नजर में अचानक ही पीयूष की मूर्ति खंडित हो गई है. मैं प्रेम की टूटी हुई मूर्ति के साथ कैसे रहूं? पीयूष ने

मुझे धोखा दिया है,’’ पलक आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘उस के झूठ पर तुझे एतराज नहीं था. तब तू खुश थी. लेकिन उस की ईमानदारी

को तू धोखा कह रही है. अगर धोखा ही देना होता तो वह उम्र भर यह बात तुझ से

छिपा कर रखता. जरा सोच, वह तुझे हृदय की गहराइयों से प्यार करता है. तुझे पूरे सम्मान से रखता है. तुझे अपने जीवन के सारे अधिकार दे दिए हैं उस ने, पर आज तू एक तुच्छ बात के लिए उस के सारे अच्छे गुणों को नकार रही है.

‘‘जरा सोच, यदि उस ने जीवन में कोई गलती नहीं की होती, लेकिन तुझे प्यार करता, तेरी भावनाओं का सम्मान करता, तुझे तेरे अधिकार देता, तब तू ज्यादा खुश रहती या

अब ज्यादा खुश है? जीवन में अहम बात किसी की गलती नहीं, अहम बात है उस

का प्यार मिलना. पीयूष अपना एक कण अनजाने में कभी किसी को बांट चुका है,

इस के लिए तू उसे खंडित कह रही है.

एक कण के लिए पूरे को ठुकरा कर अपनी और पीयूष की जिंदगी बरबाद मत करो.

वह वर्तमान समय में पूरे समर्पण से बस तुझे ही चाहता है. एक छोटी सी घटना पर

उम्र भर के लिए किसी के प्यार और रिश्तों को तोड़ देना अक्लमंदी नहीं है,’’ अरुणाजी ने पलक के कंधे पर हाथ रख कर उसे समझाया.

पलक की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. आंखों  के सामने पीयूष का साल भर का प्यार, उस का सामंजस्य, उस की निश्छलता तैर रही थी.

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उस से कोई गलती हो जाने पर वह कभी बुरा नहीं मानता था, उस की जिद पर कभी नाराज नहीं होता था. उस की छोटी से छोटी खुशी का भी कितना ध्यान रखता था. सचमुच मां ठीक कहती हैं. जीवन में बस किसी का सच्चा प्यार और प्रतिबद्धता ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं. आज से वह भी पीयूष के प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहेगी.

‘‘तेरे चले जाने के बाद पीयूष ने खानापीना छोड़ दिया है. कल तेरे पिताजी उस से मिलने गए थे. वह वर्षों का बीमार लग रहा था. उस की वजह से तुझे जो दुख पहुंचा है उस का पश्चात्ताप है उसे. उसी की सजा दे रहा है वह अपनेआप को. तेरी पीड़ा का एहसास तुझ से भी अधिक उसे है. तेरा दर्द वह तुझ से ज्यादा महसूस कर रहा है. इसीलिए तड़प रहा है. अब भी कहेगी कि उस ने तुझे धोखा दिया है?’’ अरुणाजी ने पूछा तो पलक बिलख पड़ी.

‘‘मैं अभी इसी समय पीयूष के पास जाऊंगी मां, उस से माफी मांगूंगी.’’

‘‘कहीं जाने की जरूरत नहीं है. यहीं है पीयूष. मैं उसे भेजती हूं,’’ कह कर अरुणाजी चली गईं.

2 मिनट में ही पीयूष गैलरी में आ कर खड़ा हो गया. पलक कुछ कहना चाह रही थी पर गला रुंध गया. वह पीयूष के सीने से लग कर फफक पड़ी. उस के आंसुओं ने गलतियों के सारे चिह्न धो दिए. दोनों के दिलों और आंखों में सच्चे प्यार की निर्मल और शाश्वत नदी बह रही थी, एकदूसरे के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ.

पश्चाताप- भाग 2: क्या सास की मौत के बाद जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

“ज्यादा मुंह न खुलवाओ देवरजी. खाने का खयाल रखा तो उस से ज्यादा पाया भी है. मां जो भी चीज मंगवाती थी, पहले कुसुम के हाथ में रख देती थी. कुसुम कभी पूरा गटक जाती तो कभी थोड़ाबहुत मेरे बच्चों को देती. फिर यह क्यों भूलते हो कि तुम्हारी बेटी प्रिया को मां ने ही पाला है. कुसुम कितने आराम से प्रिया को मां के पास छोड़ कर औफिस चली जाया करती थी जबकि मेरे समय में मां नौकरी करती थीं. अपने दोनों बेटों को मैं ने खुद पाला है. मां ने जरा भी मदद नहीं की थी मेरी.”

“पर दीदी आप के बच्चे जब छोटे थे तब यदि मां नौकरी करती थीं तो इस में मेरा क्या दोष? मेरी बच्ची को मां ने पाला, मैं मानती हूं. मगर ऐसा करने में मां को खुशी मिलती थी. बस इतनी सी बात है. इन बातों का जायदाद से क्या संबंध?”

“देख कुसुम, तू हमेशा बहुत चलाक बनती फिरती है. भोली सी सूरत के पीछे कितना शातिर दिमाग पाया है यह मैं भलीभांति जानती हूं.”

“चुप करो मधु. चलो मेरे साथ. इस तरह झगड़ने का कोई मतलब नहीं. चलो.”

बड़ा भाई बीवी को खींच कर ऊपर ले गया. उस के दोनों बेटे भी मां की इस हरकत पर हतप्रभ थे. वे भी चुपचाप अपनेअपने कमरों में जा कर पढ़ने लगे. कुसुम की आंखें डबडबा आईं. पति ने उसे सहारा दिया और अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया. मधु की बातों ने उन दोनों को गहरा संताप दिया था. कुसुम अपनी जेठानी के व्यवहार से हतप्रभ थी.

कुछ दिन इसी तरह बीत गए. अब बड़ी बहू मधु ने कुसुम से बातचीत करनी बंद कर दी. वह केवल व्यंग किया करती. कुसुम कभी जवाब देती तो कभी खामोश रह जाती. तीनों बच्चे भी सहमेसहमे से रहते. दोनों परिवारों में तनाव बढ़ता ही गया. वक्त यों ही गुजरता रहा. जायदाद के बंटवारे का मसला अधर में लटका रहा.

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एक दिन मधु का छोटा बेटा ट्यूशन के बाद पहले की तरह अपनी चाची कुसुम के पास चला गया. कुसुम ने पकौड़ियां बनाई थीं. वह प्यार से बच्चे को चाय और पकौड़े खिलाने लगी. तब तक मधु औफिस से वापस लौटी तो बेटे को कुसुम के पास बैठा देख कर उस के बदन में आग लग गई.

आपे से बाहर होती हुई वह चिल्लाई,”खबरदार जो मेरे बच्चे को कुछ खिलाया. पता नहीं कैसा मंतर पढ़ती है. पहले मांजी को अपना शागिर्द बना लिया था. अब मेरे बच्चे के पीछे पड़ी हो…”

सुन कर कुमुद भी बौखला गई. वह गरज कर बोली,” दीदी, ऐसे बेतुके इलजाम तो मुझ पर लगाना मत. यदि मांजी मुझ से प्यार करती थीं तो इस का मतलब यह नहीं कि मैं ने कुछ खिला कर शागिर्द बना लिया था. वे मेरे व्यवहार पर मरती थीं. समझीं आप.”

“हांहां… छोटी सब समझती हूं. तू ने तो अपनी चासनी जैसी बोली और बलखाती अदाओं से मेरे पति को भी काबू में कर रखा है. एक शब्द नहीं सुनते तेरे विरुद्ध. तू ने बहुत अच्छी तरह उन को अपने जाल में फंसाया है.”

“दीदी, यह क्या कह रही हो तुम? मैं उन्हें भैया मानती हूं. इतनी गंदी सोच रखती हो मेरे लिए? ओह… मैं जिंदा क्यों हूं? ऐसा इलजाम कैसे लगा सकती हो तुम? कहते हुए कुसुम लङखड़ा कर गिरने लगी. उस का सिर किचन के स्लैब से टकराया और वह नीचे गिर कर बेहोश हो गई.

मधु का छोटा बेटा घबरा गया. जल्दी से उस ने पापा को फोन किया. कुसुम को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. डाक्टर ने उसे आईसीयू में ऐडमिट कर लिया. अच्छी तरह जांचपड़ताल करने के बाद डाक्टर ने बताया कि एक तो बीपी अचानक बढ़ जाने से दिमाग में खून का दबाव बढ़ गया, उस पर सिर में अंदरूनी चोटें भी आई हैं. इस वजह से कुसुम कोमा में चली गई है.

“पर अचानक कुसुम का बीपी हाई कैसे हो गया? उसे तो कभी ऐसी कोई शिकायत नहीं रही….” कुसुम के पति ने पूछा तो मधु ने सफाई दी,”क्या पता? वह तो मैं नीचे गोलू को लेने गई थी, तभी अचानक कुसुम गिर पड़ी.”

मधु के पति ने टेढ़ी नजरों से बीवी की तरफ देखा फिर डाक्टर से बात करने लगे. इधर कुसुम के पति के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. उसे समझ नहीं आ रहा था की बीवी की देखभाल करे या बिटिया की. कैसे संभलेंगे सारे काम? कैसे चलेगा अब घर? इधर कुसुम की तबीयत को ले कर चिंता तो थी ही.

तब देवर के करीब आती हुई मधु बोली,”भाई साहब, आप चिंता न करो. मैं हूं कुसुम के पास. जब तक कुसुम ठीक नहीं हो जाती मैं अस्पताल में ही हूं. कुसुम मेरी बहन जैसी है. मैं पूरा खयाल रखूंगी उस का.”

“जी भाभी जैसा आप कहें.”

देवर ने सहमति दे दी मगर जब पति ने सुना तो उस ने शक की नजरों से मधु की तरफ देखा. वह जानता था कि मधु के दिमाग में क्या चल रहा होगा. इधर मधु किसी भी हाल में कुसुम के पास ही रुकना चाहती थी. वह दिखाना चाहती थी कि उसे कुसुम की कितनी फिक्र है. कहीं न कहीं वह पति के आरोपों से बचना चाहती थी कि कुसुम की इस हालत की जिम्मेदार वह है. वह बारबार डाक्टर के पास जा कर कुसुम की हालत की तहकीकात करने लगी.

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अंत में पति और देवर मधु को छोड़ कर चले गए. मधु रातभर सो नहीं सकी. इस चिंता में नहीं कि कुसुम का क्या होगा बल्कि इस चिंता में कि कहीं उसे इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार न समझ लिया जाए. वैसे हौस्पिटल का माहौल भी उसे बेचैन कर रहा था.

अगले दिन कुसुम की हालत स्थिर देख कर उसे वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. कुसुम के अलावा उस वार्ड में एक बुजुर्ग महिला थी जिसे दिल की बीमारी थी. महिला के पास उस का 18 साल का बेटा बैठा था. वार्ड में मौजूद महिला की तबियत बारबार बिगड़ रही थी. रात में इमरजैंसी वाले डाक्टर विजिट कर के गए थे. उस की हालत देख मधु सहम सी गई थी. अब उसे वाकई कुसुम की चिंता होने लगी थी.

2-3 दिन इसी तरह बीत गए. मधु कुसुम के पास ही रही. एक बार भी घर नहीं गई.

उस दिन रविवार था. मधु ने अपने बेटों से मिलने की इच्छा जाहिर की तो पति दोनों बेटों को उस के पास छोड़ गए. मधु ने प्यार से उन के माथे को सहलाया लाया और बोली,” सब ठीक तो चल रहा है बेटे? आप लोग रोज स्कूल तो जाते हो न? पापा कुछ बना कर देते हैं खाने को?”

‘हां मां, आप हमारी फिक्र मत करो. पापा हमें बहुत अच्छी तरह संभाल रहे हैं,” रूखे अंदाज में बड़े बेटे ने जवाब दिया तो मधु को थोड़ा अजीब सा लगा.

उसे लगा जैसे बच्चे उस के बगैर ठीक से रह नहीं पा रहे हैं और ऐसे में उस का मन बहलाने के लिए कह रहे हैं कि सब ठीक है.

मधु ने फिर से पुचकारते हुए कहा,”मेरे बच्चो, तुम्हारी चाची की तबीयत ठीक होते ही मैं घर आ जाऊंगी. अभी तो मेरे लिए चाची को देखना ज्यादा जरूरी है न. कितनी तकलीफ में है वह.”

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कोई सही रास्ता- भाग 2: स्वार्थी रज्जी क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई?

‘‘आप ने इसे कैसे पाला है? क्या जरा भी ईमानदारी नहीं रोपी इस में?’’

लगभग रोने जैसी हालत थी सुकेश की उस पल. मैं उसे समझाबुझा कर घर से बाहर ले गया था. उस का मन पढ़ना चाहता था, विचित्र मनोस्थिति हो गई थी.

‘‘मैं तो डिप्रैशन का शिकार होता जा रहा हूं, सोम. मैं समझ नहीं पा रहा हूं इस लड़की को. हंसताखेलता हमारा परिवार इस के आने से छिन्नभिन्न हो गया है. कैसी बातें सिखाई हैं आप ने इसे. आप इसे समझाबुझा कर जरा सी तो इंसानियत सिखाइए. आप इसे सुधारने की कोशिश कीजिए वरना ऐसा न हो कि एक दिन मैं इस की जान ले लूं या अपनी…’’

सांस मेरी भी तो घुटती रही है आज तक. मेरी बहन है रज्जी. जब अपने खून की वजह से मैं सदा हैरानपरेशान रहा हूं तो सुकेश तो अलग खून है. अलग परवरिश. उस के लिए तो रज्जी एक सजा के सिवा और क्या होगी. हर साल राखी बांध कर रज्जी बहन होने की रस्म अदा करती रही है मगर मैं आज तक समझ नहीं पाया कि जरूरत पड़ने पर मैं इस लड़की की कैसे रक्षा कर पाऊंगा और इस ने मेरे सुख की कितनी कामना की होगी.

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मेरी मां का वह मोह है जिस के चलते उन्हें रज्जी की बड़ी से बड़ी गलती भी कभी नजर नहीं आती. मेरे पिता मेरी मां को सही दिशा में लातेलाते हार गए और जिस पल उन्होंने अंतिम सांस ली थी उस पल मेरे कंधों पर इन दोनों की जिम्मेदारी डालतेडालते नजरों में एक असहाय भाव था, वही भाव जो सदा उन के होंठों पर भी रहा था कि पता नहीं कैसे तुम इन दोनों को सह पाओगे.

‘‘तू फिकर मत कर रज्जी, मैं मरी नहीं हूं अभी. सुकेश और उस के घर वालों को छठी का दूध न याद करा दिया तो मेरा नाम नहीं. रो मत बेटी.’’

स्तब्ध रह गया मैं. यह क्या कह रही हैं मां. रज्जी की भूलों पर परदा डाल कर सारा दोष सुकेश और उस के परिवार पर.

‘‘मेरी फूल जैसी बच्ची को रुला रहे हैं न वे लोग. उन की सात पुश्तों को न रुला दिया तो…’’

‘‘क्या करोगी तुम?’’ सहसा मैं ने सवाल किया.

चुप रह गई थीं मां. शायद इस धमकी के बाद उन्हें उम्मीद होगी कि मैं साथ चलने का आश्वासन दूंगा. मेरे सवाल की उन्हें आशा भी नहीं होगी.

‘‘और किस के पास जाओगी? क्या पुलिस में जा कर रिपोर्ट करोगी? क्या इलजाम लगाओगी सुकेश पर? यही कि वह अपनी पत्नी से ईमानदारी की आस रखता है. सच बोलने को कहता है और कहता है घर में राजनीति का खेल न खेले. रज्जी के सात खून भी माफ और सामने वाला सिर्फ इसलिए दोषी कि उस ने सांस जरा खुल कर ले ली थी या बात करते हुए उसे छींक आ गई थी.’’

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मुंह खुला का खुला रह गया रज्जी और मां का.

‘‘जिस भंवर में आज रज्जी है उस की तैयारी तो तुम बचपन से कर रही हो. पिताजी इसी दिन से डर कर सदा तुम्हें समझाते रहे कि इसे इस तरह न पालो कि इस का भविष्य ही अंधकारमय हो जाए. मां, यह घर तुम्हारा है, यहां तुम्हारा राजपाट चल सकता है. तुम रज्जी को गलतसही जो चाहे सिखाओ मगर वह घर तुम्हारा नहीं है जहां रज्जी को सारी उम्र रहना है. इंसान भूखा रह कर जी सकता है, आधी रोटी से भी पेट भर सकता है मगर हर पल झूठ नहीं पचा सकता.

‘‘राजनीति एक गंदा खेल है जिस में कोई भी शरीफ आदमी जाना नहीं चाहता क्योंकि वह चैन से जीना चाहता है. इसी तरह सुकेश और उस का परिवार सीधासादा, साफसुथरा जीवन जीना चाहता है जिसे रज्जी ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. जबजब गृहस्थी में दांवपेंच और झूठ का समावेश हुआ है तबतब घर उजड़ा है. रज्जी का घर बचाना चाहती हो तो इसे जलेबियां पकाना मत सिखाओ. गोलमोल बातें रिश्तों को सिर्फ उलझाती हैं.’’

मैं नहीं जानता कि मेरी बातों का असर था या अपना घर टूट जाने का डर, रज्जी स्वयं ही अपने घर वापस चली गई. रज्जी जैसा इंसान अपने अधिकार के प्रति बड़ा जागरूक होता है. पहले दरजे का स्वार्थी चरित्र जिस की नजर अपने अधिकार के साथसाथ दूसरे की चीज पर भी रहती है. सुकेश का फोन आया मेरे पास. पता चला रज्जी ने सब से माफी मांग ली है और भविष्य में कभी झूठ बोल कर घर में अशांति नहीं फैलाएगी, ऐसा वादा भी किया है. पता नहीं क्यों मुझे विश्वास नहीं हो रहा रज्जी पर. मेरी चाहत तो यही है कि मेरी बहन सदा सुखी रहे लेकिन भरोसा रत्ती भर भी नहीं है उस पर.

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कुछ दिन आराम से बीत गए. सब शांत था, सब सुखी थे लेकिन दबी आग एक दिन विकराल रूप में सामने चली आएगी, यह किसी ने नहीं सोचा होगा, परंतु मुझे कुछकुछ अंदेशा अवश्य हो रहा था. पता चला सुकेश ने डिप्रैशन में कुछ खा लिया है. पतिपत्नी में फिर से कोई तनाव था. जब तक हम अस्पताल पहुंचते बहुत देर हो चुकी थी. सुकेश बेजान कफन में लिपटा सामने था.

श्यामली- भाग 3: जब श्यामली ने कुछ कर गुजरने की ठानी

मैं तुम्हारा खर्च उठा रहा हूं, तुम्हारे बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा रहा हूं. तुम्हें महंगेमहंगे गिफ्ट, जेवर, कपड़े ला कर देता हूं. गाड़ी है, ड्राइवर है. बड़ी कोठी में रह रही हो. इस से अधिक तुम्हें और क्या चाहिए?

पत्नी हो, पत्नी बन कर रहो. यदि यहां नहीं रहना है तो चली जाओ अपने गांव. लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मेरे बच्चे यहीं रहेंगे.

इतनी बातें कहसुन कर सोम क्लब या न जाने कहां चले गए. वे सहम कर चुप हो गई थीं. बच्चे तो उन की जान थे. वही तो उन के जीवन का संबल और आधार थे. उन्हीं के लिए तो वे जी रही थीं. उन की चुप्पी और सहनशीलता को देख सोम का हौसला बढ़ता गया. अब एक लड़की नइमा के साथ वे खुल्लमखुल्ला घूमने लगे थे. कई बार उसे वे घर भी ले कर आ जाते. कई बार वे रात में भी घर न आते.

श्यामलीजी चुप रहतीं, उन की पीड़ा आंसू बन कर आंखों से बहती. एकांत उन के हर दुख का साक्षी रहता. विद्रोह करना उन का स्वभाव नहीं था. वे समझ रही थीं कि यदि वे कुछ भी बोलेंगी तो उन का घरौंदा टूट जाएगा. उन के बच्चे अनाथ हो जाएंगे. अपनी बेचारगी पर वे कई बार स्वयं को धिक्कारती भी थीं, परंतु घर टूट जाने के डर से वह हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं. नन्हीं राशि जब उन के आंसू पोंछती और उन्हें चुप हो जाने को कहती, तो उन को अपने आंसू रोकने मुश्किल हो जाते.

बुजुर्ग मैनेजर ने उन के पास भी 2-3 बार फोन कर के कहा कि सोम नकली दवाइयों का कारोबार बढ़ाते जा रहे हैं, साथ ही ड्रग्स का धंधा भी.

यदि इसी तरह से चलता रहा तो जल्द ही किसी मामले में फंस जाएंगे. वे चिंतित हो उठी थीं. उन के अपने प्यारे बच्चों और स्वयं का भविष्य दांव पर लगा था. उन्होंने दूसरे सेल्समैन लड़कों से बात कर के पता किया तो मालूम हुआ कि सच में सोम रास्ता भटक गए हैं.

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आखिर एक दिन एक हादसा हो ही गया. उन के स्टोर से खरीदी नकली दवा से एक बच्चे की मौत हो गई. मामले ने तूल पकड़ा. वे लोग लाठियां ले कर आ गए और फिर दुकान में तोड़फोड़ कर दी. सोम की भी खूब पिटाई की. पुलिस आ गई. पुलिस को कुछ लेदे कर किसी तरह मामला शांत करवाया. पर इसी बीच बच्चे के पिता ने ‘ड्रग्स कंट्रोल डिपार्टमैंट’ में मेल कर दिया था. और वहां की टीम रेड करने आ गई. इस अचानक हमले का किसी को कोई अनुमान या तैयारी नहीं थी. नकली और ऐक्सपायरी दवा के साथसाथ ड्रग्स का भी स्टौक पकड़ा गया.

मामला संगीन था. लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने के आरोप में सोम गिरफ्तार हो गए और मैडिकल स्टोर को सील कर दिया गया. वकीलों पर पैसा पानी की तरह बहाया गया.

बेल होने में लगभग 3 महीने लग गए. घर खर्चे की दिक्कत होने लगी. एकएक कर सारे नौकर हटा दिए गए. यहां तक कि बच्चों के लिए दूध की भी परेशानी होने लगी थी. सामान बेच कर कुछ दिन काम चला.

इतनी विषम परिस्थिति कभी होगी, इस का उन्हें कतई अनुमान भी नहीं था. जब सोम जमानत के बाद घर आए, तो उन को पहचानना मुश्किल था. रंग काला पड़ गया था और शरीर कृषकाय हो चुका था. वे किसी का सामना नहीं करना चाहते थे. यहां तक कि बच्चों से भी बात नहीं करते थे. चुपचाप अपने कमरे में लेट कर छत को निहारते रहते.

सोम नया रास्ता तलाशने के बजाय निराशा के गर्त में डूब कर डिप्रैशन का शिकार बन गए. जख्मों को कुरेदने के लिए सांत्वना के नाम पर रिश्तेदारों और परिचितों के ताने और उलटेसीधे व्यंग्य वाणों के कारण सब का जीना दूभर हो गया था.

अब यह श्यामलीजी के लिए परीक्षा की घड़ी थी. अब आवश्यक हो चुका था कि वे स्वयं आगे बढ़ कर घर के हालात को सुधारने के लिए कुछ करें.

एक ओर नैराश्य में जकड़ा हुआ सोम दूसरी ओर 12 वर्ष की राशि तो 11 वर्ष का शुभ, ऐसे कठिन समय में घर का मोरचा संभाला. वे सोम का हौसलाअफजाई करतीं. बच्चों का भी उन्होंने पूरा ध्यान रखा.

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मित्रों के सहयोग से एक नामी बुटीक में ड्रैस डिजाइनर की नौकरी मिल गई. जल्द ही बुटीक की मालकिन कल्पनाजी ने उन की प्रतिभा को पहचान लिया, उन के डिजाइन किए हुए कपड़े कस्टमर को पसंद आने लगे. 1 साल में ही बुटीक का बिजनैस काफी बढ़ गया, साथ में उन की सैलरी भी बढ़ गई.

जीवन पटरी पर लौटने लगा था. उन्हें नौकरी करते हुए लगभग 2 वर्ष हो चुके थे. अब वे अपना बुटीक खोलना चाह रही थीं. लेकिन पैसे की कमी बाधा बनी हुई थी.

उन्होंने ‘महिला गृह उद्योग’ योजना के अंतर्गत बैंक से लोन के लिए आवेदन किया और जल्दी ही घर के एक कमरे में अपना बुटीक शुरू कर दिया. 4 सिलाई मशीनें और कुछ कारीगर लड़कियों को रख कर काम शुरू कर दिया. देखते ही देखते उन की मेहनत और क्रिएटिविटी की क्षमता ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए.

आज उन के बुटीक की शहर में 2 ब्रांच और खुल गई हैं. करीब 40 लोगों को उन्होंने रोजगार दे रखा है.

राशि की आवाज ने उन की तंद्रा भंग कर दी, ‘‘मां, आज कहां खो गई हैं? घर नहीं चलना है क्या?’’

वे वर्तमान में लौटी ही थीं कि उन का मोबाइल बज उठा, ‘‘मैडम श्यामली?’’

‘‘यस.’’

‘‘महिला दिवस पर ‘विषम परिस्थितियों में स्वयं को सिद्ध करने के लिए’ आप को ‘विजय नगरम् हाल’ में मेयर के द्वारा सम्मानित किया जाएगा. कल हम लोग निमंत्रणपत्र ले कर आप के पास आएंगे.’’

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‘‘धन्यवाद,’’ कहते हुए श्यामलीजी भावुक हो उठी थीं. चूंकि फोन स्पीकर पर था, इसलिए सभी ने इस खबर को सुन लिया था.

सोम भी भावुक हो उठे थे. उन्होंने प्यार से बांहों के घेरे में उन्हें ले लिया, ‘‘श्यामली, तुम्हें मैं वह प्यार और सम्मान नहीं दे पाया, जिस के योग्य तुम थीं. इसलिए अब पूरा लखनऊ शहर तुम्हें सम्मानित करेगा.’’

आज बरसों बाद सोम के प्यार भरे आलिंगन से वे अभिभूत हो उठी थीं. उन्होंने भी प्यार से सोम को अपनी बांहों में कैद कर लिया. बेटी राशि पर निगाह पड़ते ही उन का मुखमंडल शर्म से लाल हो उठा.

सोम फोन पर श्यामलीजी के मम्मीपापा को निमंत्रण दे रहे थे. आज उन के सारे विषाद धुल गए थे.

प्रतिबद्धता- भाग 2: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

Writer- VInita Rahurikar

मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.

पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?

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लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को

एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.

इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.

दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.

‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.

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‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.

दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.

‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.

रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.

पश्चाताप- भाग 3: क्या सास की मौत के बाद जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

“मम्मी, आप प्लीज ज्यादा ड्रामा न करो. हमें पता है कि चाची की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? सबकुछ अपनी आंखों से देखा है मैं ने,” छोटे बेटे ने उस का हाथ झटकते हुए कहा तो बड़ा बेटा भी चिढ़े स्वर में बोलने लगा,” कितनी अच्छी हैं हमारी चाची. कितना प्यार करती थीं हमें. पर आप… मम्मी, आप ने उन के साथ कितना बुरा किया. वी हेट यू,” कहते हुए दोनों बच्चे मधु के पास से उठ कर बाहर भाग गए.

मधु भीगी पलकों से उन्हें जाता देखती रही. उस के हाथ कांप रहे थे. दिल पर 100 मन का भारी पत्थर सा पड़ गया था. उस ने सोचा भी नहीं था कि बच्चे उसे इस तरह दुत्कारेंगे. बिना आगेपीछे सोचे लालच में आ कर उस ने कुसुम के साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया. कितनी जलीकटी सुनाई. वे सब बातें बच्चों के दिमाग में इस तरह छप गईं थीं कि अब बच्चे उस के वजूद को ही धिक्कार रहे हैं.

मधु ने आंखें बंद कर लीं. आंखों से आंसू गिरने लगे. पुरानी बातें एकएक कर उस के जेहन में उभरने लगीं. अपने बच्चों की नजरों में इतनी नीचे गिर कर कैसे जिएगी वह… सच में कुसुम ने तो कभी भी उस से ऊंचे स्वर में बात भी नहीं की थी. उस ने हमेशा कुसुम को बात सुनाया. उस के मधुर व्यवहार का उपहास उड़ाया.  उस पर इतना गंदा इल्जाम लगाया.

तभी बगल वाली बुजुर्ग महिला की सांसें उखड़ने लगीं. डाक्टरों की टीम आई और उस महिला को आईसीयू में ले जाया गया. उस का बेटा भी पीछेपीछे तेजी से निकल गया.  इस सारे घटनाक्रम के फलस्वरूप मधु के दिमाग पर एक अजीब सा सदमा लगा था.

वह बैठीबैठी चीखने लगी. उसे लगा जैसे कुसुम शरीर छोड़ कर बाहर आ गई है और उस की तरफ हिकारत भरी नजरों से देखती हुई दूर जा रही है. मधु को एहसास हुआ जैसे वह पूरी तरह अकेली हो गई है. सब उस पर हंस रहे हैं. वह जोरजोर से रोने लगी. रोतीरोती बेहोश हो गई. जब आंखें खुलीं तो खुद को बैड पर पाया. पास में डाक्टर खड़े थे. दूर पति भी खड़े थे. उस ने तुरंत अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अंदर से इतना टूटा हुआ महसूस कर रही थी कि उसे पति से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

तभी उस ने सुना कि डाक्टर उस के देवर से कह रहे थे कि कुसुम की सर्जरी करनी पड़ेगी. सर्जरी, दवा और हौस्पिटल के दूसरे खर्च मिला कर करीब ₹15-20 लाख तो लग ही जाएंगे पर कुसुम को ठीक करने के लिए यह सर्जरी करानी बहुत जरूरी है.

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डाक्टर की बात सुन कर देवर काफी परेशान दिख रहा था. मधु जानती थी कि उस के देवर के पास अभी ₹2- 3 लाख से अधिक नहीं हैं. हाल ही में उस ने अपनी सास की हार्ट सर्जरी में करीब ₹10 लाख लगाए थे और वह खाली हो चुका था.

मधु हिसाब लगाने लगी कि उस के पति के पास भी ₹4-5 लाख से ज्यादा नहीं निकल सकेंगे. वैसे भी दोनों भाईयों ने अपनी आधी से ज्यादा जमापूंजी बिजनैस में जो लगा रखी थी.

तभी मधु को अपने जेवर का खयाल आया. कुल मिला कर ₹7-8 लाख के जेवर तो थे ही उस के पास. बाकी के रुपए कहां से आएंगे, वह इस सोच में डूब गई. तब उसे अपनी बड़ी बहन का खयाल आया. उस से थोड़े जेवर ले सकती है. कुछ रुपए अपने भैया से उधार भी मिल सकते हैं.

डाक्टर के जाने के बाद दोनों भाई आपस में बातें करने लगे. छोटे ने उदास स्वर में कहा,”भैया, डाक्टर तो इलाज के लिए इतना लंबाचौड़ा खर्च बता रहे हैं. कहां से लाऊंगा मैं इतने रुपए?”

“हां अमन, इतने रूपए तो मेरे पास भी नहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करें.”

तभी बैड पर लेटी मधु उठ बैठी और बोली,” देवरजी आप चिंता न करो. रुपयों का इंतजाम मैं करूंगी. आप बस डाक्टर को सर्जरी के लिए हां बोल दो और 2 दिनों की मुहलत ले लो.”

“मगर भाभी आप 2 दिनों के अंदर रूपए कहां से ले आएंगी?”

“देवरजी मेरे गहने किस दिन काम आएंगे? फिर भी रूपए कम पड़े तो दीदी या मां के जेवर भी मिला लूंगी. मेरे भैया से कुछ कैश रूपए भी मिल जाएंगे.”

मधु की बात सुन कर देवर मना करने लगा. मधु के पति ने भी टोका,”मधु उन से रूपए लेना ठीक होगा क्या? और फिर तुम्हारे जेवर… तुम तो कभी उन्हें हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. अपने जेवर तो तुम्हें जान से प्यारे थे.”

“प्यारे तो हैं पर कुसुम की जान से प्यारे नहीं,” मधु ने कहा तो दोनों भाई उसे आश्चर्य से देखने लगे.

मधु ने 2 दिन के अंदर ही ₹20 लाख इकट्ठे कर लिए. कुसुम की सर्जरी हो गई. सर्जरी सफल रही.
15 दिन अस्पताल में रहने के बाद कुसुम घर आ गई. अब भी उसे काफी कमजोरी थी. इस दौरान करीब 1 महीने तक मधु ने पूरे दिल से कुसुम की सेवा की. अपने बच्चों के साथ कुसुम की बेटी को भी संभाला. इस भागदौड़ में मधु का वजन काफी कम हो गया.

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एक दिन कुसुम से मिलने उस की बहन आई तो उस ने मधु को आश्चर्य से देखते हुए कहा,”अरे मधु दीदी तुम्हारा वजन तो आधा रह गया.”

इस पर हंसती हुई मधु बोली,”हम दोनों जेठानीदेवरानी का वजन मिला लो तो उतना ही वजन मिल जाएगा, जितना पहले मेरा हुआ करता था.”

यह सुन कर कुसुम की आंखें खुशी से भीग उठीं और वह उठ कर मधु को गले से लगा ली. दोनों लड़के भी प्यार से अपनी मां की तरफ देखने लगे.

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