बुढ़ापे पर भारी पड़ती बच्चों की शिक्षा, क्या है हल

Society News in Hindi: मई जून में बच्चों की बोर्ड परीक्षाओं (Board Exam) के परिणाम आने के साथ ही मां बाप का आर्थिक मोर्चे पर इम्तिहान शुरू हो जाता है. जुलाई से शिक्षासत्र (Session) शुरू होते ही अभिभावकों (Parents) में ऐडमिशन दिलाने की भागदौड़ शुरू हो जाती है. बच्चे को किस कोर्स में प्रवेश दिलाया जाए? डिगरी या प्रोफैशनल कोर्स (Professional Course) बेहतर रहेगा या फिर नौकरी की तैयारी कराई जाए? इस तरह के सवालों से बच्चों समेत मांबाप को दोचार होना पड़ता है. शिक्षा के लिए आजकल सारा खेल अंकों का है. आगे उच्च अध्ययन के लिए बच्चों और अभिभावकों के सामने सब से बड़ा सवाल अंकों का प्रतिशत होता है. 10वीं और 12वीं की कक्षाओं में अंकों का बहुत महत्त्व है. इसी से बच्चे का भविष्य तय माना जा रहा है. नौकरी और अच्छा पद पाने के लिए उच्चशिक्षा (Higher Education) का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है.

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में महंगाई चरम पर है और मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों के भविष्य को ले कर की जाने वाली चिंता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. अभिभावकों को शिक्षा में हो रहे भेदभाव के साथ साथ बाजारीकरण की मार को भी झेलना पड़ रहा है. ऊपर से हमारी शिक्षा व्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी एक खतरनाक पहलू है.

गहरी निराशा

सीबीएसई देश में शिक्षा का एक प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है पर राज्यस्तरीय बोर्ड्स की ओर देखें तो पता चलता है कि देश में 12वीं क्लास के ज्यादातर छात्र जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं वहां हालात ठीक नहीं है.

हाल ही बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 12वीं के नतीजों ने राज्य में स्कूली शिक्षा पर गहराते संकट का एहसास कराया है. यहां पर कुल छात्रों में सिर्फ 34 प्रतिशत उत्तीर्ण हुए. इस साल 13 लाख में से 8 लाख से ज्यादा फेल होना बताता है कि स्थिति बेहद खराब है. छात्रों के मां बाप गहरी निराशा में हैं.

देश में करीब 400 विश्वविद्यालय और लगभग 20 हजार उच्चशिक्षा संस्थान हैं. मोटेतौर पर इन संस्थानों में डेढ़ करोड़ से ज्यादा छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इन के अलावा हर साल डेढ़ से पौने 2 लाख छात्र विदेश पढ़ने चले जाते हैं.

हर साल स्कूलों से करीब 2 करोड़ बच्चे निकलते हैं. इन में सीबीएसई और राज्यों के शिक्षा बोर्डस् स्कूल शामिल हैं. इतनी बड़ी तादाद में निकलने वाले छात्रों के लिए आगे की पढ़ाई के लिए कालेजों में सीटें उपलब्ध नहीं होतीं, इसलिए प्रवेश का पैमाना कट औफ लिस्ट का बन गया. ऊंचे मार्क्स वालों को अच्छे कालेज मिल जाते हैं. प्रवेश नहीं मिलने वाले छात्र पत्राचार का रास्ता अपनाते हैं या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू कर देते हैं.

सीबीएसई सब से महत्त्वपूर्ण बोर्ड माना जाता है. इस वर्ष सीबीएसई में 12वीं की परीक्षा में करीब साढे़ 9 लाख और 10वीं में 16 लाख से ज्यादा बच्चे बैठे थे. 12वीं का परीक्षा परिणाम 82 प्रतिशत रहा, इसमें 63 हजार छात्रों ने 90 प्रतिशत अंक पाए, 10 हजार ने 95 प्रतिशत.

कुछ छात्रों में से करीब एक चौथाई को ही ऐडमिशन मिल पाता है. बाकी छात्रों के लिए प्रवेश मुश्किल होता है. 70 प्रतिशत से नीचे अंक लाने वालों की संख्या लाखों में है जो सब से अधिक है. इन्हें दरदर भटकना पड़ता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय की बात करें तो नामांकन की दृष्टि से यह दुनिया के सब से बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है. लगभग डेढ़ लाख छात्रों की क्षमता वाले इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत 77 कालेज और 88 विभाग हैं. देशभर के छात्र यहां प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं पर प्रवेश केवल मैरिट वालों को ही मिल पाता है. यानी 70-75 प्रतिशत से कम अंक वालों के लिए प्रवेश नामुमकिन है.

सब से बड़ी समस्या कटऔफ लिस्ट में न आने वाले लगभग तीनचौथाई छात्रों और उन के अभिभावकों के सामने रहती है. उन्हें पत्राचार का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू करनी पड़ती है.

मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए कुरबानी देने को तैयार हैं. जुलाई में शिक्षासत्र शुरू होते ही अभिभावकों में ऐडमिशन की भागदौड़ शुरू हो जाती है. कोचिंग संस्थानों की बन आती है. वे मनमाना शुल्क वसूल करने में जुट जाते हैं और बेतहाशा छात्रों को इकट्ठा कर लेते हैं. वहां सुविधाओं के आगे मुख्य पढ़ाई की बातें गौण हो जाती हैं.

ऐसे में मांबाप के सामने सवाल होता है कि क्या उन्हें अपना पेट काट कर बच्चों को पढ़ाना चाहिए? मध्यवर्गीय मां बाप को बच्चों की पढ़ाई पर कितना पैसा खर्च करना चाहिए?

आज 10वीं, 12वीं कक्षा के बच्चे की पढ़ाई का प्राइवेट स्कूल में प्रतिमाह का खर्च लगभग 10 से 15 हजार रुपए है. इस में स्कूल फीस, स्कूलबस चार्ज, प्राइवेट ट्यूशन खर्च, प्रतिमाह कौपीकिताब, पैनपैंसिल, स्कूल के छोटेमोटे एक्सट्रा खर्च शामिल हैं.

मांबाप का इतना खर्च कर के अगर बच्चा 80-90 प्रतिशत से ऊपर मार्क्स लाता है, तब तो ठीक है वरना आज बच्चे की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं समझा जाता. यह विडंबना ही है कि गुजरात में बोर्ड की परीक्षा में 99.99 अंक लाने वाले छात्र वर्शिल शाह ने डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनने के बजाय धर्र्म की रक्षा करना ज्यादा उचित समझा. उस ने संन्यास ग्रहण कर लिया.

बढ़ती बेरोजगारी

यह सच है कि शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी देश के युवाओं को लील रही है. पिछले 15 सालों के दौरान 99,756 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के हैं. ये हालात बताते हैं कि देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी है. 12वीं पढ़ कर निकलने वाले छात्रों के अनुपात में कालेज उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे में छात्रों को आगे की पढ़ाई के लिए ऐडमिशन नहीं मिल पाता. छात्र और उन के मां बाप के सामने कितनी विकट मुश्किलें हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद बेरोजगारी की समस्या अधिक बुरे हालात पैदा कर रही है. देश की शिक्षाव्यवस्था बदल गई है. आज के दौर में पढ़ाई तनावपूर्ण हो गई है. अब देश में शिक्षा चुनौतीपूर्ण, प्रतिस्पर्धात्मक हो चुकी है और परिणाम को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा है. बच्चों को पढ़ानेलिखाने के लिए मांबाप पूरी कोशिश करते हैं. छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिए दबाव रहता है. कई बार ये दबाव भाई, बहन, परिवार, शिक्षक, स्कूल और समाज के कारण होता है. इस तरह का दबाव बच्चे के अच्छे प्रदर्शन के लिए बाधक होता है.

जहां तक बच्चों का सवाल है, कुछ बच्चे शैक्षणिक तनाव का अच्छी तरह सामना कर लेते हैं पर कुछ नहीं कर पाते और इस का असर उन के व्यवहार पर पड़ता है.

असमर्थता को ले कर उदास छात्र तनाव से ग्रसित होने के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं या कम मार्क्स ले कर आते हैं. बदतर मामलों में तनाव से प्रभावित छात्र आत्महत्या का विचार भी मन में लाते हैं और बाद में आत्महत्या कर लेते हैं. इस उम्र में बच्चे नशे का शिकार भी हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में मांबाप की अपेक्षा भी होती है कि बच्चे अच्छे मार्क्स ले कर आएं, टौप करें ताकि अच्छे कालेज में दाखिला मिल सके या अच्छी जौब लग सके.

दुख की बात है कि हम एक अंधी भेड़चाल की ओर बढ़ रहे हैं. कभी नहीं पढ़ते कि ब्रिटेन में 10वीं या 12वीं की परीक्षाओं में लड़कों या लड़कियों ने बाजी मार ली. कभी नहीं सुनते कि अमेरिका में बोर्ड का रिजल्ट आ रहा है. न ही यह सुनते हैं कि आस्ट्रेलिया में किसी छात्र ने 99.5 फीसदी मार्क्स हासिल किए हैं पर हमारे यहां मई जून के महीने में सारा घर परिवार, रिश्तेदार बच्चों के परीक्षा परिणाम के लिए एक उत्सुकता, भय, उत्तेजना में जी रहे होते हैं. हर मां बाप, बोर्ड परीक्षा में बैठा बच्चा हर घड़ी तनाव व असुरक्षा महसूस कर रहा होता है.

कर्ज की मजबूरी

मैरिट लिस्ट में आना अब हर मांबाप, बच्चों के लिए शिक्षा की अनिवार्य शर्त बन गई है. मांबाप बच्चों की पढ़ाई पर एक इन्वैस्टमैंट के रूप में पैसा खर्र्च कर रहे हैं. यह सोच कर कर्ज लेते हैं मानो फसल पकने के बाद फल मिलना शुरू हो जाएगा पर जब पढ़ाई का सुफल नहीं मिलता तो कर्ज मांबाप के लिए भयानक पीड़ादायक साबित होने लगता है.

मध्यवर्गीय छात्रों के लिए कठिन प्रतियोगिता का दौर है. इस प्रतियोगिता में वे ही छात्र खरे उतरते हैं जो असाधारण प्रतिभा वाले होते हैं. पर ऐसी प्रतिभाएं कम ही होती हैं. मध्यवर्ग में जो सामान्य छात्र हैं, उन के सामने तो भविष्य अंधकार के समान लगने लगता है. इस वर्ग के मां बाप अक्सर अपने बच्चों की शैक्षिक उदासीनता यानी परीक्षा में प्राप्त अंकों से नाराज हो कर उन के साथ डांट डपट करने लगते हैं.

उधर निम्नवर्गीय छात्रों के मां बाप अधिक शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं. कामचलाऊ शिक्षा दिलाने के बाद अपने व्यवसाय में हाथ बंटाने के लिए लगा देते हैं.

एचएसबीसी के वैल्यू औफ एजुकेशन फाउंडेशन सर्वेक्षण के अनुसार, अपने बच्चों को विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए तीन चौथाई मां बाप कर्ज लेने के पक्ष में हैं. 41 प्रतिशत लोग मानते हैं कि अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना सेवानिवृत्ति के बाद के लिए उन की बचत में योगदान करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है.

एक सर्वे बताता है कि 71 प्रतिशत अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए कर्ज लेने के पक्ष में हैं.

अब सवाल यह उठता है कि मां बाप को क्या करना चाहिए?

मांबाप को देखना चाहिए कि वे अपने पेट काट कर बच्चों की पढ़ाई पर जो पैसा खर्च कर रहे हैं वह सही है या गलत. 10वीं और 12वीं कक्षा के बाद बच्चों को क्या करना चाहिए,  इन कक्षाओं में बच्चों के मार्क्स कैसे हैं? 50 से 70 प्रतिशत, 70 से 90 प्रतिशत अंक और 90 प्रतिशत से ऊपर, आप का बच्चा इन में से किस वर्ग में आता है. अगर 90 प्रतिशत से ऊपर अंक हैं तो उसे आगे पढ़ाने में फायदा है. 70 से 80 प्रतिशत अंक वालों पर आगे की पढ़ाई के लिए पैसा खर्च किया जा सकता है. मगर इन्हें निजी संस्थानों में प्रवेश मिलता है जहां खर्च ज्यादा है और बाद में नौकरियां मुश्किल से मिलती हैं. इसी वर्ग के बच्चे बिगड़ते भी हैं और अनापशनाप खर्च करते हैं.

तकनीकी दक्षता जरूरी

कर्ज ले कर पढ़ाना जोखिम भरा है पर यदि पैसा हो तो जोखिम लिया जा सकता है. अगर 70, 60 या इस से थोड़ा नीचे अंक हैं तो बच्चे को आगे पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होगा पर शिक्षा दिलानी जरूरी होती है. यह दुविधाजनक घाटे का सौदा है.  इन छात्रों को सरकारी संस्थानों में प्रवेश मिल जाता है जहां फीस कम है.

36 से 50 प्रतिशत अंक वाले निम्न श्रेणी में गिने जाते हैं. इन बच्चों के मांबाप को चाहिए कि वे इन्हें अपने किसी पुश्तैनी व्यापार या किसी छोटी नौकरी में लगाने की तैयारी शुरू कर दें.

ऐसे बच्चों को कोई तकनीकी ट्रेंड सिखाया जा सकता है. कंप्यूटर, टाइपिंग सिखा कर सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में क्लर्क जैसी नौकरी के प्रयास किए जा सकते हैं. थोड़ी पूंजी अगर आप के पास है तो ऐसे बच्चों का छोटा मोटा व्यापार कराया जा सकता है.

शिक्षा के लिए मां बाप पैसों का इंतजाम कर्ज या रिश्तेदारों से उधार ले कर या जमीन जायदाद बेच कर करते हैं. यह कर्ज बुढ़ापे में मां बाप को बहुत परेशान करता है. ऐसे में कम मार्क्स वाले बच्चों के लिए आगे की पढ़ाई पर कर्ज ले कर खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है.

देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में कम अंकों वाले छात्रों को मोटा पैसा ले कर भर लिया जाता है पर यहां गुणवत्ता के नाम पर पढ़ाई की बुरी दशा है. एक सर्वे में कहा गया है कि देशभर से निकलने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा इंजीनियर काम करने के काबिल नहीं होते. केवल इंजीनियर ही नहीं, आजकल दूसरे विषयों के ग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट छात्रों के ज्ञान पर भी सवाल खड़े होते रहते हैं. प्रोफैशनलों की काबिलीयत भी संदेह के घेरे में है.

मां बाप को देखना होगा कि आप का बच्चा कहां है? किस स्तर पर है?

मध्यवर्ग के छात्र को प्रत्येक स्थिति में आत्मनिर्भर बनाना होगा क्योंकि मां बाप अधिक दिनों तक उन का बोझ नहीं उठा सकते.

शिक्षा का पूरा तंत्र अब बदल रहा है. मां बाप अब 12वीं के बाद दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम यानी पत्राचार के माध्यम से भी बच्चों को शिक्षा दिला सकते हैं. दूरस्थ शिक्षा महंगी नहीं है. इस माध्यम से आसानी से किसी भी बड़े व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में बहुत कम फीस पर प्रवेश लिया जा सकता है. कई छोटे संस्थान भी किसी विशेष क्षेत्र में कौशल को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. इस तरह यह पढ़ाई मां बाप के बुढ़ापे पर भारी भी नहीं पड़ेगी.

यह पौलिथीन आपके लिए जहर है!

Society News in Hindi: संपूर्ण दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक बार इस्तेमाल किए जाने वाली सभी प्रकार की प्लास्टिक हमारे लिए  जहर के समान है. लगभग 10 वर्षों से प्लास्टिक को लेकर वैज्ञानिक तथ्य सामने आ चुके हैं कि इसे जल्द से जल्द प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. इसमें रखा हुआ खाद्यान्न जहरीला हो जाता है. कई रोगों का कारण बनता है, यह सब मालूम होने के बावजूद हम प्लास्टिक का इस्तेमाल बेखौफ कर रहे हैं और अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. अनेक प्रकार के रोगों की सौगात हमारे जीवन को दुश्वार कर रही है. यही नहीं यह प्लास्टिक मानव समाज के साथ-साथ पर्यावरण को भी नष्ट कर रही है और मासूम जानवरों पर भी यह प्लास्टिक कहर बनकर टूट रही है.

गाय के पेट से निकला प्लास्टिक

पौलीथिन का उपयोग  पर्यावरण के लिए घातक है, वहीं मनुष्य समाज के लिए जहरीला और जानलेवा साबित हो रहा है. इसे अनजाने में खाकर मवेशियों की भी असामयिक मौत की खबरें निरंतर आ रही हैं. ऐसा ही एक वाक्या छत्तीसगढ़ के धमतरी शहर से लगे ग्राम अर्जुनी कांजी हाउस में देखने को मिला. अर्जुनी के कांजी हाउस में ढाई साल की बछिया की मृत्यु प्लास्टिक का सेवन करने से हो गई. सहायक पशु शल्यज्ञ डा. टी.आर. वर्मा एवं उनकी टीम के द्वारा शव परीक्षण के दौरान पाया गया कि बछिया के उदर में  बड़ी मात्रा में पौलीथिन साबुत स्थिति में है.

साथ ही प्लास्टिक, रस्सी के गट्ठे के अलावा भी कुछ  वस्तुएं  पाई गईं. उप संचालक पशु चिकित्सा सेवाएं डौ. एम.एस. बघेल के बताते हैं कि लोग अनुपयोगी अथवा सड़े-गले भोजन को पौलीथिन में रखकर सड़क किनारे फेंक देते हैं, जिसे अनजाने में भोजन के साथ-साथ पौलीथिन को भी घुमंतू किस्म के लावारिस जानवर अपनी भूख मिटाने खा जाते हैं. प्लास्टिक से निर्मित पौलीथिन को मवेशी पचाने में असमर्थ होते हैं, जो आगे चलकर ठोस अपचनीय अपशिष्ट पदार्थ का रूप ले लेती है, जिसके कारण बाद में भारी तकलीफ होती है और उनकी मौत हो जाती है. प्रसिद्ध पशु प्रेमी निर्मल जैन बताते हैं गायों के पेट की अधिकांश जगह में पौलीथिन स्थायी रूप से रह जाती है जिससे पशु चाहकर भी अन्य प्रकार के भोजन को ग्रहण करने में असमर्थ  होता  है.

जिलाधिकारी  (आई ए एस) रजत बंसल ने उक्त घटना की जानकारी  मिलने पर संवेदनशीलता व्यक्त  करते हुए दु:ख व्यक्त कर  कहा – दैनिक जीवन में प्रतिबंधित प्लास्टिक थैलियों एवं कैरी बैग को पूर्णतः परित्याज्य करने आमजनता को प्रशासन के साथ आगे आना होगा. एक बात प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक से सिर्फ मानव जीवन, पर्यावरण को ही खतरा नहीं  है, बल्कि बेजुबान जानवर गाय, भैंस, बकरी की भी अकाल मृत्यु हो रही है.

प्लास्टिक की जगह जूट के बैग अपरिहार्य

पौलीथिन के स्थान पर जूट के बैग तथा गैर प्लास्टिक से निर्मित कैरी बैग का उपयोग करने एवं पैकेटों को ढके हुए डस्ट बिन में ही डालने की आवश्यकता है. देश परदेश के आवाम को चाहिए कि प्लास्टिक का जल्द से जल्द इस्तेमाल बंद कर दें. हम सरकार के आह्वान अथवा जागरूकता अभियान का इंतजार क्यों करें समझदारी इसी में है कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो.

इसके अलावा यह भी एक सच है कि पशु मालिक अपने मवेशियों को खुला छोड़ देते हैं परिणाम स्वरूप आवारा लावारिसों  की तरह घूमते हुए जानवर अनेक बीमारियों का शिकार हो रहा है. प्लास्टिक खाकर मौत का बुला रहा  है .अच्छा हो हम अपने जानवरों की रक्षा स्वयं करें और उसे कदापि खुला छोड़ने का स्वार्थ भरा कृत्य न करें, इससे पशुधन की हानि को रोका जा सकेगा, साथ ही सड़क दुर्घटनाएं घटित नहीं  होंगी.कहा जाता है कि भारतीय नागरिक परजब तलक कठोर दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाती, वह सही रास्ते पर नहीं आते हैं.

अभी हाल ही में मोटर यान अधिनियम लागू हुआ तो त्राहि-त्राहि मच गई, दस हजार से पचास हजार तक जुर्माने लगने लगे तो लोगों के दिमाग ठिकाने आ गए और घटनाक्रम सुर्खियों में आ गया. क्या सरकार को सड़कों पर घूमने वाले पशुओं के संदर्भ में भी ऐसे नियम कानून बनाने होंगे, क्या नियम बनने के बाद ही इस पर लगाम लग सकेगी, अच्छा हो, हम अपने पशुधन की रक्षा स्वयं करें और आदर्श नागरिक समाज बनाने में मदद करें.

उम्र में पत्नी से छोटे पति

Society News in Hindi: साल 1998 में अरबाज खान से शादी कर साल 2017 में तलाक लेने वाली 45 साला बौलीवुड की मशहूर ‘आइटम गर्ल’ मलाइका अरोड़ा अब अपने से 12 साल छोटे अर्जुन कपूर के साथ रिलेशनशिप में हैं. वे दोनों अब पब्लिकली नजर आने लगे हैं. उन की शादी होगी, ऐसी खबरें भी उड़ने लगी हैं. दोनों के डिनर डेट की तसवीरें वायरल हो रही हैं. 43 साल की सुष्मिता सेन पिछले कुछ दिनों से अचानक अपने अफेयर को ले कर फिर से चर्चा में हैं. इस बार वे खुद से 15 साल छोटे रोहमन शौल के साथ रिलेशनशिप को ले कर खबरों में हैं. वे दोनों कई पार्टियों में साथ भी नजर आए हैं.

खबरों में यह भी है कि रोहमन शौल ने सुष्मिता सेन को शादी के लिए प्रपोज किया है. वे दोनों तकरीबन 2-3 महीने पहले एक फैशन इवैंट में मिले थे और अब एकदूसरे को डेट कर रहे हैं.

प्रियंका चोपड़ा भी अपनी शादी से पहले पिछले दिनों न्यूयौर्क में प्रीब्राइडल सैरेमनी के बाद अपनी गर्लगैंग के साथ बैचलर पार्टी के लिए एमस्टरडम रवाना हुई थीं. उस के बाद वे अपने से 11 साल छोटे निक जोनस के साथ शादी कर चुकी हैं.

कुछ समय पहले अपने से 7 साल छोटे हर्ष से शादी कर कौमेडियन भारती ने भी सब को अचरज में डाल दिया था. इस से पहले 41 साल की उम्र में प्रीति जिंटा ने अपने से 10 साल छोटे फाइनैंशियल एनालिस्ट जीन गुडइनफ से शादी कर ली थी तो उर्मिला मातोंडकर ने भी 9 साल छोटे मोहसिन से शादी कर सब को हैरत में डाल दिया था.

जाहिर है कि पढ़ाईलिखाई, नौकरी और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद अब औरतें रिलेशनशिप और शादी को ले कर भी खुल रही हैं.

पहले जब औरतें घर से बाहर नहीं निकलती थीं तब उन्हें आदमी के पैर की जूती माना जाता था. उन के पास कोई हक नहीं था. पति की बात मानना, उस के मुताबिक खुद को ढालना और पति जब कहे समर्पण के लिए तैयार रहना, यही आदर्श पत्नी की खासीयतें थीं.

मगर अब माहौल बदल रहा है. आज औरतें पढ़लिख कर आगे बढ़ रही हैं. वे काबिल बन रही हैं. वे भरपूर नाम, पैसा और रुतबा हासिल कर रही हैं. ऐसे में वे पति का दबदबा क्यों सहें?

इस सिलसिले में मनोवैज्ञानिक और सोशल ऐक्टिविस्ट अनुजा कपूर कहती हैं कि अगर मर्द कम उम्र की लड़की से शादी कर सकता है, 15 साल की लड़की 45 साल के अधेड़ की बीवी बन सकती है, तो औरतें खुद से छोटे लड़कों को पति क्यों नहीं बना सकतीं?

आज औरतें कामयाब हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं. उन्हें अपने हक और कानून मालूम हैं. वे आदमी के बिना भी रह सकती हैं. वे घर के काम आराम से कर सकती हैं और बाहर के काम भी, इसलिए उन की जिंदगी में मर्द की अहमियत अब उतनी नहीं रही है.

पहले औरतों की शादी ज्यादा उम्र के शख्स से की जाती थी ताकि वे पति के कंट्रोल में रहें. उन की हर बात माने. ज्यादा उम्र के मर्दों के पास पैसा, तजरबा और रुतबा सबकुछ होता था. आज औरतें खुद ही इतनी काबिल, पढ़ीलिखी और कमाऊ हैं तो वे किसी का रोब क्यों सहें? वे अपने से कम उम्र के मर्द से शादी कर उस पर दबदबा बना कर रख सकती हैं. इसे एकदम से गलत भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जो ज्यादा काबिल और रुतबेदार होगा वही दूसरे पर हावी रहेगा. यही समाज का नियम है.

सवाल उठता है कि मर्द क्यों अपने से ज्यादा उम्र की लड़की या औरत से शादी करते हैं? इस की कई वजहें हो सकती हैं, जैसे:

समझदार और अनुभवी

बड़ी उम्र की पत्नी स्वभाव से गंभीर होती है. उन के साथ रिलेशनशिप में कम उम्र वाले ड्रामों और बचपने की गुंजाइश नहीं रहती, बल्कि आपसी समझ बनी रहती है. उन्हें हर मामले में ज्यादा तजरबा रहता है.

रुपएपैसे से मदद

बड़ी उम्र की कमाऊ पत्नी पैसे के लिहाज से भी मजबूत होती है. अपने पति के कैरियर को आगे बढ़ाने में और सैटल होने में भी मददगार रहती है. वह हर मामले में बेहतर सलाह दे सकती है और अपने संपर्कों से पति को फायदे में पहुंचा सकती है.

ये औरतें कम उम्र की ऐसी हाउस वाइफ से बेहतर होती हैं जो पैसों की अहमियत नहीं समझती हैं, बेमतलब का खर्च करने की आदी होती हैं और पूरी तरह पति पर निर्भर होती हैं.

सब्र और परवाह वाली

बड़ी उम्र की बीवी कम मांग करती है और ज्यादा देखभाल करती है. वह पूरा प्यार देना जानती है. फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ में ऐश्वर्या राय बच्चन का किरदार कुछ ऐसा ही था. वे रणबीर कपूर के साथ ऐसे ही एक रिश्ते में थीं जहां वे फेमस शायर थीं तो वहीं रणबीर कपूर टौय बौय की तरह उन के साथ जुड़े थे.

जहां तक बात साथ जिंदगी जीने की है तो क्या ऐसे रिश्ते कामयाब होते हैं? क्या हैल्थ और सैक्सुअल समस्याएं आ सकती हैं?

इस बारे में सैक्सुएलिटी पर काफी काम कर चुके अल्फ्रैड विनसे के मुताबिक, मर्दों में सैक्सुअल हार्मोन

18 साल की उम्र में हद पर होते हैं, जबकि औरतों में 30 साल की उम्र के बाद यह समय होता है. हैल्थ के नजरिए से भी औरतें 5 साल ज्यादा जीती हैं. ऐसा होने की वजह लाइफस्टाइल या बायोलौजी नहीं है.

एक विधुर के अनुपात में उसी उम्र की 4 विधवाएं जिंदा रहती हैं यानी अपने से ज्यादा उम्र की लड़की के साथ शादी करने वाले मर्द पत्नी के साथ ही बूढ़े होते हैं.

वैसे भी प्यार में उम्र का फर्क माने नहीं रखता. जिंदगी किस के साथ और किस तरह बीती, यह अहम होता है.

New Year 2024: नई आस का नया सवेरा

New Year Special: नया साल (New Year) आ गया है. सब एक दूसरे को बधाई (Greetings) दे रहे हैं और कह रहे हैं कि साल 2024 (Year 2024) आपके लिए खुशियां लाए. आप बाहर से कितने ही उपाय कर लें, सकारात्मक सोच की पचास किताबें पढ़ लें, सोचसोच कर पचासों वस्तुएं संगृहीत कर लें जो आप के लिए सुखदायक हैं, परंतु यदि आप की आंतरिक विचारणा अनर्गल, आत्मपीड़ित व निंदक है, आप ढुलमुल नीति के हैं, तब आप के जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाला नहीं. हमारे व्यवहार के गलत तरीके हमारे जीवन में तनाव लाते हैं, दुख से ही हमें अधिक परिचित कराते हैं. हम हर सुखात्मक स्थिति में भी तकलीफ ही तलाश करते हैं. क्या हो चुका है, यह हमें प्रीतिकर नहीं लगता, पर जो नहीं हुआ है उस पर हमारी दृष्टि लगी रहती है. हम स्वयं शांति चाहते हैं, हर काम में परफैक्शन तलाश करते हैं, तब हमारी निगाह हमेशा कमियां तलाश करने में चली जाती है और हम तो दुखी होते ही हैं, दूसरे के लिए भी दुखात्मक भावनाएं पैदा करते हैं. चाहे घर पर हों या कार्यालय में, हम कहीं भी खुश नहीं रह सकते, हम जीवन को दयनीय और दुखात्मक बनाते चले जाते हैं.

शेखर साहब बड़े अफसर रहे हैं. कार्यालय में आते ही वे पहले अपनी नाक पर उंगली रख कर सगुन देते. तब कुरसी पर बैठते. बजर बजाते, पीए अंदर आता तो सगुन देखते, सगुन चला तो अंदर आने देते, वरना वापस भेज देते. पूरा कार्यालय परेशान था. वे मेहनती व ईमानदार भी थे. पर न वे खुश रह पाते थे न किसी और को रहने दे सकते थे. एक बार उन के बड़े साहब आए. उन्हें यह पता था. वे अपने साथ नसवार से रंगा लिफाफा लाए थे. उन्हें दिया तो वे अचानक छींकने लग गए. शेखर साहब घबरा गए. सगुन जो बिगड़ गया था. बड़े साहब ने समझाया, सगुन की बात नहीं है, कागज में नसवार लगी है. छींक आएगी ही. सगुन को पालना बंद करो. तुम ने सब को दुखी कर रखा है.

जिंदगी चलने का नाम है

आप ने नट का खेल अवश्य देखा होगा. नट अपने संतुलन से बांस के सहारे रस्सी पर कुशलता से चलता है. यह जीवन जीने की वह कला है, जो बिना धन दिए प्राप्त की जा सकती है. कुछ रास्ते हैं, जहां आप खुशहाल जीवन को दुखी बना देते हैं जबकि दुखी जीवन को भी खुशी से जीने लायक बना सकते हैं.

हम अकसर आदर्शवादी विचारों से प्रभावित होते हैं. हमें बाहर यह बताया जाता है कि हम गलत बातों को छोड़ दें, यह समझाया जाता है कि जहां तक हो सके गलत विचारधारा को कम करते जाएं, इस से धीरेधीरे आप नकारात्मक सोच के प्रवाह से बाहर आते जाएंगे. पर यह भी उतना प्रभावशाली नहीं है.

हमारे भीतर नकारात्मकता का पहला वेग तेज उफान की तरह तब आता है, जब हम अपनेआप को दूसरों के साथ तुलना कर के देखते हैं. बचपन में यह सिखाया गया है, तुम्हें क्लास में फर्स्ट आना है. मातापिता हमेशा अपने बच्चे की दूसरों के साथ तुलना कर के उस का मूल्यांकन करते हैं.

क्या कभी हम ने अपनेआप से, अपनी कार्यकुशलता को, अपनी उत्पादकता को सराहा है? हमें यह सिखाया गया है कि इस से अहंकार पैदा हो जाता है. पर यह सोचना उचित नहीं है.

तुलना अपनेआप से करें

अपनी उपलब्धियों से तुलना करें. कल घूमने नहीं गया, व्यायाम नहीं किया, ब्लडशुगर बढ़ गई है आदि. अपनेआप अपने स्वास्थ्य के प्रति ध्यान जाएगा. ऐसे ही, कल बगीचे में पानी दिया था. पौधे अच्छे लग रहे हैं. आप हमेशा अपने आज की अपने कल से तुलना कर, बेहतर खुशी पा सकते हैं, अपनी कार्यकुशलता को बढ़ा सकते हैं. सुबह उठते ही समय अपनेआप को दें, आज यह काम करना है, टारगेट जो संभव हो उस से कम ही रखें. रात को एक बार अवश्य सोचें, कितना हो गया, क्या कमी रही, बस नींद गहरी आएगी. अपनेआप पर विश्वास आना शुरू होगा. खुश रहने की यह पहली सीढ़ी है.

खुद चुनें अपनी राह

आप बीमार हैं, अस्वस्थ हैं. अकसर आप पाएंगे कि पचासों लोग आप को देखने आ रहे हैं, वे सब के सब आप को सलाह दे रहे हैं. जहां खुशी होती है, वहां लोग नहीं जाते, पर जहां कहीं अभाव या कमी होती है, वहां सलाह देने वालों की जमात जमा हो जाती है. तो क्या हम सब को सुनने के लिए तैयार बैठे हैं? हम हमेशा सब को खुश नहीं कर सकते, सब की बातों को मान कर अपना रास्ता नहीं बना सकते.

माना सलाह और सलाहकार जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं, पर रास्ता हमें स्वयं ही तय करना है. हर व्यक्ति को उस के सामर्थ्य की पहचान है. जो व्यक्ति, इस राह पर चले हों, उन की सफलता या असफलता के अनुभव ही आप के लिए सहायक हो सकते हैं. यह याद रहे. जिस किसी ने अपने अनुभव को बताया है, वह अतीत की घटना हो चुकी है. वर्तमान में हर घटना नई होती है. यहां दोहराव नहीं होता. चुनौती का सामना मात्र वर्तमान में ही रह कर होता है. हो सकता है, जो निर्णय लिया है, उस में कमी रह गई हो, वांछित लाभ न मिला हो पर यह असफलता आगे की रणनीति बनाने में सहायक होगी. जो कहा गया है, उसे सुनें. परंतु अपनी आंतरिक विचारणा का आधार न बनने दें.

तू दुख का सागर है

फिल्म ‘सीमा’ में मन्ना डे द्वारा गाया गीत ‘तू प्यार का सागर है’…आज उल्टा हो गया है. चारों ओर नकारात्मकता के सागर हिलोरे लेते रहते हैं. आज टैलीविजन, समाचारपत्र, नकारात्मकता के भंडार हो गए हैं. सुबह से ही टीवी पर राशियों व 9 ग्रहों का नकारात्मक मेला करोड़ों लोगों को नकारात्मक कर के कमजोर बनाने में लग जाता है. रोजाना पचासों ज्योतिषी, बारह खाने और 9 ग्रह की रामलीला बेच कर करोड़ों रुपए कमाते हैं. टीवी का रिमोट अपने हाथ में है. अपने मन को सजग रखें. ऐसी परिस्थितियों से नकारात्मकता बढ़ती है और आशावाद की जगह निराशावाद जन्म लेता है. इस से बचें. मन को सृजनात्मक कार्यों से जोड़ने का प्रयास करें.

कल ही की बात है शर्माजी बता रहे थे. उन्हें रात के 11 बजे उन की बेटी ने नींद से जगा कर फोन पर बताया कि दामाद के पिता का पुराने प्रेमसंबंध का पता लगने पर दोनों पितापुत्र बहुत झगड़ रहे थे. यह बात परिवार में घटी पुरानी घटना थी. घटना भी हजारों मील दूर की थी. यह बात अगले दिन भी तो बताई जा सकती थी. इस बात से शर्माजी रात भर बेचैन रहे. नकारात्मक लहरों में डूबे रहे.

लोगों का काम है कहना

मेरी एक परिचित मेरे पास आई हुई थीं. उन्होंने बताया कि वे कुछ दूरी पर शनि मंदिर में गई थी. वहां पूजा करवाई थी. ‘पूजा…’ मैं चौंक गया. क्या शनि की भी पूजा होती है? हमारा मन इसीलिए इतना नकारात्मक हो गया है कि हम सब तरफ भय को ही देख पाते हैं. थोड़ी सी भी कठिनाई आई नहीं कि हम पंडित, ज्योतिषी, बाबा की शरण में पहुंच जाते हैं.

हमारा मन जैसा होता जाता है, वह उन्हीं बातों को संगृहीत करने लग जाता है. यह उस की आदत है. हम जब निरंतर चाहे अपने परिवार में हों या पड़ोस में, इन नेगेटिव लोगों से घिरे रहते हैं तो वे सचमुच हमारी रचनात्मकता को सोख लेते हैं. आप आशावादी कैसे होंगे जब आप के वातावरण में नकारात्मक लहरें चारों ओर से धक्के मार रही हों.

खुश रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. हम खुश रहें तो दवाओं का आधा खर्चा कम हो जाता है साथ ही, हमारी कार्यकुशलता भी बढ़ जाती है. वाणिज्य की भाषा में इस से बड़ा कोई इन्वेस्टमैंट नहीं है, जहां मुनाफा बहुत ज्यादा है.

आखिर हम हर मामूली बात को भी ज्यादा गंभीरता से क्यों लेते हैं? आम बोलचाल में अधिक कहना, बतियाना, हमारा स्वभाव हो गया है. पहले टैलीफोन पर बात करना कठिन था, महंगा बहुत था. बाहर की कौल सुबह से शाम तक नहीं लग पाती थी. तनाव कम था. अब मोबाइल क्रांति है. खाने वाली बाई फोन कर कहती है, ‘मैं शाम को नहीं आऊंगी.’ पूछा जाता है, ‘क्यों? 3 दिन पहले भी छुट्टी ली थी.’ वह फोन काट देती है. गृहिणी नाराज हो जाती है. वह फिर फोन करती है. वह फोन नहीं उठाती है. संघर्ष शुरू हो गया, परिवार अचानक तनाव में चला जाता है.

आज हालत यह है कि आप कहीं भी हों, मोबाइल हमेशा आप को जोड़े रखता है. सगाइयां विवाह के पहले टूट जाती हैं. आप को बतियाने का शौक है. पैसे कम लगते हैं, जो कहना…नहीं कहना है…सब कह दिया जाता है.

चुप रहने का अपना मजा है, अपने को बोलते हुए भी सुनें और खुश रहना एक बार आदत में आ गया तो कैसी भी कठिनाई आए, आप की सामना करने की ताकत बढ़ जाएगी. क्या आप यह नहीं चाहते हैं?

शौचालय नहीं तो शादी नहीं

Scoiety News in Hindi: मध्य प्रदेश में इंदौर के बुरहानपुर इलाके में शादी के बाद ससुराल पहुंची एक दुलहन का स्वागत एक नई रीति से हुआ. ससुराल पहुंचते ही दूल्हा उस का हाथ पकड़ कर सब से पहले शौचालय दिखाने ले गया, क्योंकि शादी से पहले लड़की की शर्त थी कि लड़के के घर में अगर शौचालय नहीं होगा, तो वह शादी नहीं करेगी. इसी शर्त को मानते हुए दूल्हे शेख एजाज शेख अनवर ने अपनी दुलहन परवीन बानो के लिए पहले घर में शौचालय बनवाया, फिर निकाह किया. बात सही भी है, क्योंकि परवीन बानो की यह लड़ाई अपने बुनियादी हक को ले कर थी.

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर इलाके में भी एक दुलहन ने शादी के बाद विदाई से सिर्फ इस वजह से इनकार कर दिया, क्योंकि उस की ससुराल में शौचालय नहीं था. अब ससुराल वाले शौचालय बनाने का इंतजाम कर रहे हैं, ताकि बहू को घर लाया जा सके.

घर में शौचालय की कमी के चलते घर से बाहर शौच जाने वाली लड़कियों और औरतों के साथ बलात्कार होने की खबरें आती रहती हैं. ऐसे में उन के द्वारा इस तरह के फैसले लेना एक हिम्मत भरा कदम है.

भारत में शौचालय कम और मोबाइल फोन ज्यादा हैं. हैरानी की बात है कि औरतों की सब से बुनियादी जरूरत के प्रति अभी भी इतनी अनदेखी क्यों होती है?

ज्यादा देर तक पेशाब रोकने और कम पानी पीने के चलते लड़कियों के शरीर में खतरनाक बीमारियों के पैदा होने का डर कई गुना बढ़ जाता है. गुरदे की तरहतरह की बीमारियां, पेशाब की नलियों में रुकावट या फिर पेशाब से जुड़े कई तरह के इंफैक्शन का लैवल औरतों में इसी वजह से बहुत ज्यादा बढ़ जाता है.

एक स्टडी में सामने आया है कि भारत में 16 साल की उम्र से पहले 4 फीसदी लड़कों के मुकाबले 11 फीसदी लड़कियों में पेशाब संबंधी इंफैक्शन पाया है.

शौचालय बनाना तो 10वां हिस्सा काम है. फिर कारपोरेशनों और पंचायतों को घरघर पानी का इंतजाम करना होगा और पूरे इलाके में सीवर डलवाने होंगे. यह कौन और क्यों करेगा? दलितों का काम यहां के सवर्ण करने को तैयार ही नहीं हैं.

जब डॉक्टर करता है, गर्भपात का अपराध!

Scoiety News in Hindi: गांव में अपढ़ झोला छाप डाक्टर किसी गर्भपात (Abortion) के अपराध में शामिल होते हैं तो कहा जा सकता है कि उन्हें कानून का ज्ञान नहीं है. मगर यही काम अगर पढ़े लिखे चिकित्सक पैसों के लिए करने लगे तो समाज में यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर कानून कहां है और रुपयों की अंधी दौड़ कहां जाकर खत्म होती है. एक मसला छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में एक चर्चा का विषय बना हुआ है.  एक महिला चिकित्सक (Female Doctor) जेल भेज दी गई है… शायद आप भी जानना चाहेंगे की एक महिला चिकित्सक ने किस तरह संबंधों और चंद रुपयों की खातिर अवैध गर्भपात करने का अपराध कर स्वयं और अपने पेशे पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है.

इस घटनाक्रम में तथ्य यह है कि महिला  डॉक्टर को कई दफे की छापामारी के बाद अंततः पुलिस ने दिल्ली में गिरफ्तार किया है. यानी की आरोपी डॉक्टर केस दर्ज होने के बाद 3 महीने से फरार थी.    नाबालिग को भ्रमित करके दुष्कर्म करने वाला युवक, और गर्भपात कराने वाले उसके परिजन माता-पिता सहित 4 लोग पहले से जेल के सीखचों के पीछे पहुंच गए हैं.

नाबालिक के गर्भपात से जुड़ी इस कहानी की  शुरुआत 20 जनवरी 2021 को हुई. छत्तीसगढ़ के धमतरी जिला के सिहावा थाने में नाबालिक रानी ( काल्पनिक नाम)  ने परिजनों के साथ आकर दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाई और बताया कि सिरसिदा कर्णेश्वर पारा निवासी लोकेश तिवारी ने उसके साथ दुष्कर्म किया है गर्भ ठहरने के बाद अपने रिश्तेदार संध्या रानी शर्मा के घर ओडिशा प्रांत ले गया. वहां वह रानी को सरकारी अस्पताल ले जाकर डॉक्टर से सांठगांठ कर उसका गर्भपात करा दिया. पुलिस ने मामले की विवेचना करने के पश्चात पुलिस जांच में दोषी पाए गए आरोपी लोकेश तिवारी, उसकी मां रेवती तिवारी, पिता देवराज तिवारी और रिश्तेदार संध्यारानी को जेल भेज दिया.

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कानून के साथ खिलवाड़….

दरअसल, हमारे आसपास समाज में ऐसे घटनाक्रम घटित होते चले जाते हैं. मगर जब कभी बात कानून के दरवाजे तक पहुंचती है तो फिर सफेदपोशों के चेहरे पर से नकाब उतरने लगती है. छत्तीसगढ़ के धमतरी में घटित घटना क्रम की तह में जाए तो यह सत्य सामने आ जाता है कि अपने बेटे लोकेश को बदनामी से बचाने मां रेवती तिवारी ने रिश्तेदार ओडिशा निवासी संध्या रानी शर्मा से बातचीत की. फिर डॉ. ममता रानी बेहरा को गर्भपात के लिए तैयार किया.

चिकित्सक ममता रानी संबधो के फेर में आकर के कानून को अपने हाथ में ले बैठी. मसले की जांच करने वाली महिला अधिकारी डीएसपी सारिता वैद्य के मुताबिक  रिपोर्ट के बाद से महिला डॉ. ममता रानी बेहरा गायब थी. लगातार पुलिस ढूंढ रही थी अंततः लंबे अंतराल के पश्चात दिल्ली में महिला डॉक्टर को पुलिस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. महिला डॉक्टर इतनी चालाक थी कि लंबे समय तक पुलिस को धोखा देती रही.

पुलिस के मुताबिक गर्भपात कराने वाली महिला डॉ. ममता रानी बेहरा (37) रायगढ़, ओडिशा की निवासी है.वहां के सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट के पद पर पदस्थ थी. उसने नाबालिग को गर्भपात की दवा खिला गर्भपात करवा दिया और पुलिस से लंबे समय तक आंख मिचौली का खेल खेलते अंततः कानून के लंबे हाथों में आ ही गई.

गर्भपात और कानून

गर्भपात का अपराधीकरण कानूनी पेचीदिगियों से भरा हुआ है. एक समय था जब गर्भपात एक सामान्य घटना मानी जाती थी. मगर धीरे धीरे कानून बनता चला गया और  वैध और अवैध गर्भपात परिभाषित हुआ. हालांकि, सीमित मायनों में कानून के मुताबिक वयस्क महिलाओं को अपने लिए निर्णय लेने की स्वायत्तता  है (कि उसे बच्चे को जन्म देना है या नहीं), पर फिर भी एक महिला को केवल अपनी मर्जी से गर्भपात करने की कानूनी रूप से अनुमति नहीं है (यदि डॉक्टर ऐसा करने की सलाह न दे तो). यह जरुर है कि एक डॉक्टर को (गर्भपात को लेकर अपनी राय बनाने के बाद), माँ के अलावा किसी की सहमति की आवश्यकता नहीं होती.

ऐसे में यह सीधा सीधा गंभीर अपराध है कि नाबालिक मां की अनुमति के बिना गर्भपात कर दिया गया.गर्भपात की इस लंबी कहानी में नियम उप नियम बन चुके हैं. कानून के जानकार उच्च न्यायालय बिलासपुर के अधिवक्ता बी के शुक्ला के मुताबिक कुछ परिस्थितियों को छोड़कर बाकी गर्भपात को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. नाबालिक का गर्भपात तो स्पष्ट रूप से गंभीर अपराध की संज्ञा में आता है और मामला सिद्ध हो जाने पर आरोपी को कठोर सजा भुगतनी होती है.

पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा के मुताबिक बलात्कार के मामलों में न्यायालय की अनुमति से ही गर्भपात संभव है. अन्यथा कोई भी गर्भपात गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है.

कचरे में फेंकते बच्चे, आखिर क्यों मिलती है नवजातों को यह सजा

Society News in Hindi: भीड़ आमतौर पर तमाशा देखने और बातें बनाने के लिए ही जमा होती है, ऐसा ही इस मामले में भी हुआ. किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि बच्चे को जा कर उठा ले, मानो वह किसी इनसान की औलाद नहीं, बल्कि कोई खतरनाक बम हो. भीड़ में मौजूद हर शख्स देख पा रहा था कि उस नवजात के जिस्म पर चींटियां रेंग रही थीं और हर कोई यह समझ भी रहा था कि अगर जल्द ही बच्चे को इलाज नहीं मिला तो उस की मौत भी हो सकती है. आखिरकार हिम्मत करते हुए एक आदमी डालचंद कुशवाहा ने बच्चे को उठा कर कपड़े से साफ किया और उसे काट रही चींटियों को उस के बदन से हटाया. इसी बीच वहां मौजूद दूसरे लोगों ने एंबुलैंस और पुलिस को फोन कर दिया था. एंबुलैंस और पुलिस वाले आए और बच्चे को अस्पताल ले गए. पुलिस वालों ने नामालूम मांबाप के खिलाफ पैदाइश छुपाने की धारा के तहत मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी.

छंटती हुई भीड़ में यही बातें हो रही थीं कि न जाने किस के पाप की निशानी है… घोर कलियुग आ गया है जो कुंआरी लड़कियां हमबिस्तरी तो मजे से करती हैं, लेकिन जब पेट से हो जाती हैं तो बच्चा गिराने के बजाय उसे घूरे या कचरे में फेंक देती हैं. ऐसा होना तो अब आएदिन की बात हो गई है… कितनी पत्थरदिल होगी वह मां, जो अपने कलेजे के टुकड़े को यों फेंक गई.

हकीकत से सरोकार नहीं

भीड़ अपनी भड़ास निकालते हुए छंट गई, लेकिन कई सवाल जरूर अपने पीछे छोड़ गई कि क्यों लाखों नवजात हर साल देशभर के घूरों पर जिंदा या फिर मरे मिलते हैं? इन के लिए मां का दूध और प्यार क्यों नहीं होता और घूरे या कचरे के ढेर पर मिले बच्चे पाप की निशानी ही क्यों माने और कहे जाते हैं?

हर कोई यह जरूर मानता और जानता है कि ऐसे बच्चे अकसर कुंआरी लड़कियां ही पैदा करती हैं जो प्यारमुहब्बत में पड़ कर पेट से हो आती हैं और वक्त रहते, वजह कुछ भी हो, बच्चा नहीं गिरा पातीं. पेट में पल रहा बच्चा कभीकभार जोरजबरदस्ती यानी बलात्कार की देन भी हो सकता है, लेकिन लड़की का कुसूर यही रहता है कि वह समय रहते बच्चा गिरा नहीं पाती है.

कोई यह नहीं सोच पाता कि क्यों एक लड़की नाजायज करार दिए जाने वाले बच्चे को 9 महीने तक पेट में रख कर ढोने और छुपाने को मजबूर होती है और अकसर क्यों इस में उस का साथ घर वाले भी देते हैं?

जाहिर है, समाज में इज्जत बचाए रखने और लड़की के भविष्य की खातिर वे यह फैसला लेते हैं कि अगर बच्चा गिराया जाना मुमकिन न हो तो पैदा होने के बाद उसे किसी घूरे पर फेंक देना ही बेहतर है, क्योंकि समाज किसी भी हालत में उसे मंजूरी नहीं देगा और बात उजागर हो गई तो लड़की की शादी तो दूर की बात है, लोग उसे चैन से जीने भी नहीं देंगे, क्योंकि उस ने कुंआरी मां बनने का संगीन जुर्म जो किया है.

इस जुर्म में लड़की का भागीदार कौन था, उस की चर्चा न के बराबर होती है और चूंकि वह मर्द होता है इसलिए लोग उसे गुनाहगार नहीं मानते यानी लड़की या औरत होने का खमियाजा इस तरह भी भुगतना पड़ता है.

लड़कियां ये एहतियात बरतें

प्यारमुहब्बत में धोखा खा कर या धमका कर या फिर बहलाफुसला कर किसी ने कोख में बच्चा रूपी बीज बो दिया है, इसलिए लड़कियों को होशियार रहने की जरूरत है, क्योंकि पूरा खमियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है. इन परेशानियों से बचने के लिए उन्हें ये एहतियात बरतनी चाहिए:

* अगर किसी से हमबिस्तरी की है और तयशुदा वक्त पर पीरियड न आए तो समझ लेना चाहिए कि पेट में बच्चा ठहर गया है.

* आशिक से हमबिस्तरी करते वक्त उसे कंडोम लगाने को मजबूर करना चाहिए, पर कई बार जल्दबाजी और हड़बड़ाहट में कंडोम का इस्तेमाल नहीं हो पाता है, इसलिए भी यह नौबत आ जाती है.

* वक्त पर पीरियड न आए तो तुरंत पेशाब की जांच करानी चाहिए कि कहीं आप पेट से नहीं हो गई हैं. आजकल यह जांच हर कोई खुद भी आसानी से सस्ते में कर सकती है.

* कई नामी कंपनियों की प्रैगनैंसी किट या स्ट्रिप यानी पट्टियां बाजार में मिलती हैं जिन से मिनटों में पता चल जाता है कि पेट में बच्चा है या नहीं.

* अगर ये स्ट्रिप जिन पर हिदायतें और इस्तेमाल का तरीका लिखा होता है, पेट से होने की तसदीक करें तो बिना वक्त गंवाए बच्चा गिराने के लिए भागादौड़ी करनी चाहिए.

* बच्चा गिराने के लिए सरकारी या प्राइवेट अस्पताल में जाना चाहिए. पहचान उजागर होने का डर अपने गांवकसबे या शहर के अस्पताल में बना रहता है, इसलिए दूर के शहर जाना ही ठीक रहता है.

* चूंकि लड़कियां अकेली यह काम नहीं कर सकतीं इसलिए पेट से होने की बात घर वालों को बता देनी चाहिए. तय है कि वे गुस्सा होंगे और मारेंगेपीटेंगे भी, लेकिन इस के अलावा कोई चारा भी नहीं रह जाता है. वैसे भी बहुत जल्द पेट से होने की बात उन पर जाहिर हो जाती है, इसलिए डर और शर्म छोड़ देनी चाहिए, नहीं तो 5 महीने के बाद तो बच्चा गिराना आसान नहीं रह जाता है.

* सरकारी या प्राइवेट अस्पतालों में बच्चा गिराने वाली लड़कियों की पहचान उजागर नहीं की जाती, इसलिए बेवजह डरना नहीं चाहिए लेकिन अस्पताल वाले पहचानपत्र मांगते हैं जो उन्हें दे देना चाहिए, क्योंकि यह कानूनन जरूरी होता है.

* ज्यादा सोचविचार में वक्त नहीं गंवाना चाहिए और न ही बच्चा गिराने के लिए देशी नुसखे या टोटके का इस्तेमाल करना चाहिए. नीमहकीमी से कई दफा लेने के देने पड़ जाते हैं.

* शुरुआत के 3 महीने तक गर्भनिरोधक गोलियों से भी बच्चा आसानी से गिराया जा सकता है, पर इस बाबत नजदीक या दूर के अस्पताल जा कर डाक्टर या स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं से जानकारी लेनी चाहिए. बच्चा गिराने की गोलियां सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में मिलती हैं, लेकिन इन्हें अपने मन से नहीं खाना चाहिए.

तो मंजिल यही है

इस के बाद भी बच्चा न गिरे तो लड़कियों के पास इस के सिवा कोई और रास्ता नहीं रह जाता कि वे दुनिया और समाज से छिप कर बच्चे को जन्म दें और फिर बाद की परेशानियों से बचने के लिए उसे यों ही किसी घूरे या कचरे के ढेर में फेंक दें. यह कोई पाप नहीं है, बल्कि एक अनचाही मुसीबत से छुटकारा पाने का आसान तरीका है.

* भोपाल के शाहपुरा के लक्ष्मण नगर के कचरे के ढेर में मिले बच्चे के मामले में इस से ज्यादा कुछ हुआ लगता नहीं कि लड़की मजबूर थी और उस के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था.

एक रास्ता अकसर पेट से हो आई लड़कियों के पास खुदकुशी का रह जाता है, लेकिन यह समस्या का हल नहीं है, क्योंकि राज तो इस के बाद भी खुल ही जाता है, इसलिए बेहतर यही है कि जो भी सहूलियत वाला रास्ता मिले, उसे अपना लिया जाए.

* घर वालों को भी चाहिए कि वे लड़की की मदद करें, क्योंकि इस में उस की खास गलती नहीं होती है. जो थोड़ीबहुत होती भी है वह उस की नादानी ही मानी जाएगी जिसे माफ करते हुए उसे भी एक बेहतर जिंदगी जीने का मौका दिया जाना कोई गुनाह नहीं है.

समाज तो ऐसे बच्चों को नाजायज या लावारिस कहने से कभी चूकेगा नहीं, लेकिन कानून को जरूर अपना नजरिया बदलना चाहिए कि घूरे के ढेर में मिले बच्चों की पैदाइश छिपाने को संगीन गुनाह न माने, बल्कि एक लड़की की मजबूरी मानते हुए उसे नजरअंदाज करे, क्योंकि बाद की जांच से किसी को कुछ हासिल नहीं होता है. हां, लड़की की जिंदगी जरूर बरबाद हो जाती है, क्योंकि उस की पहचान कानूनी तौर पर उजागर हो जाती है.

 

आज भी लोग अंधविश्वास में फंसे हैं

मुसाफिरों से भरी एक बस झारखंड से बिहार की तरफ जा रही थी. अचानक सुनसान सड़क के दूसरी तरफ से एक सियार पार कर गया. ड्राइवर ने तेजी से ब्रेक लगाए. झटका खाए मुसाफिरों में से एक ने पूछा, ‘‘भाई, बस क्यों रोक दी?’’

बस के खलासी ने जवाब दिया, ‘‘सड़क के दूसरी तरफ से सियार पार कर गया है, इसलिए बस कुछ देर के लिए रोक दी गई है.’’

सभी मुसाफिर भुनभुनाने लगे. कुछ लोग ड्राइवर की होशियारी की चर्चा भी करने लगे.

उस अंधेरी रात में जब तक कोई दूसरी गाड़ी सड़क का वह हिस्सा पार नहीं कर गई, तब तक वह बस वहीं खड़ी रही, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि यह अंधविश्वास है.

सड़क है तो दूसरी तरफ से कोई भी जीवजंतु इधर से उधर पार कर सकता है. यह आम सी बात है. इस में बस रोकने जैसी कोई बात नहीं है, जबकि कई लोग मन ही मन कोई अनहोनी होने से डरने लगे थे.

रास्ते के इस पार से उस पार कुत्ता, बिल्ली, सियार जैसे जानवर आजा सकते हैं. इसे अंधविश्वास से जोड़ा जाना ठीक नहीं है. इस के लिए मन में किसी अनहोनी हो जाने का डर पालना भी बिलकुल गलत है.

बिहार के रोहतास जिले के डेहरी में बाल काटने वाले सैलून तो सातों दिन खुले रहते हैं. लेकिन, सोनू हेयरकट सैलून के मालिक से पूछे जाने पर वे बताते हैं, ‘‘ग्राहक तो पूरे हफ्ते में महज 4 दिन ही आते हैं. 3 दिन तो हम लोग खाली ही बैठे रहते हैं.

‘‘यहां के ज्यादातर हिंदू मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाते हैं. इन 3 दिनों में इक्कादुक्का लोग ही बाल कटवाने आते हैं या फिर जिन का ताल्लुक दूसरे धर्म से रहता है, वे लोग आते हैं.’’

भले ही लोग 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन आज भी हमारी सोच 18वीं सदी वाली है. डेहरी के बाशिंदे विनोद कुमार पेशे से कोयला कारोबारी हैं. उन का एक बेटा है, इसलिए वे सोमवार के दिन बालदाढ़ी नहीं कटवाते हैं.

पूछे जाने पर वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘ऐसा रिवाज है कि जिन के एक बेटा होता है, उन के पिता सोमवार के दिन बालदाढ़ी नहीं कटवाते हैं. इस के पीछे कोई खास वजह नहीं है. गांवघर में पहले के ढोंगी ब्राह्मणों ने यह फैला दिया है, तो आज भी यह अंधविश्वास जारी है.

‘‘दरअसल, लोगों के मन में सदियों से इस तरह की बेकार की बातें बैठा दी गई हैं, इसीलिए आज भी वे चलन में हैं.

‘‘पहले के लोग सीधेसादे होते थे. इस तरह के पाखंडी ब्राह्मणों ने जो चाहा, वह अपने फायदे के लिए समाज में फैला दिया.’’

आज भी लोग गांवदेहात में भूतप्रेत, ओझा, डायन वगैरह के बारे में खूब बातें करते हैं. लोगों को यकीन है कि गांव में डायन जादूटोना करती है.

औरंगाबाद के एक गांव के रहने वाले रणजीत का कहना है कि उन की पत्नी 2 साल से बीमार है. उन की पत्नी की बीमारी की वजह कुछ और नहीं, बल्कि डायन के जादूटोने के चलते है, इसीलिए वे किसी डाक्टर को दिखाने के बजाय कई सालों से ओझा के पास दिखा रहे हैं. कई सालों से वे मजार पर जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं.

रोहतास जिले के एक गांव में एक लड़की को जहरीले सांप ने काट लिया था. उस के परिवार वाले बहुत देर तक झाड़फूंक करवाते रहे.

झाड़फूंक के बाद मामला जब बिगड़ गया, तो उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे बचाया नहीं जा सका, जबकि अखबार में भी इस के बारे में प्रचारप्रसार किया जाता रहा है कि किसी इनसान को सांप के काटने पर झाड़फूंक नहीं कराएं, बल्कि अस्पताल ले जाएं.

अगर समय रहते उसे अस्पताल ले जाया गया होता तो बचाया जा सकता था. पर आज भी लोग अंधविश्वास के चलते झाड़फूंक पर ज्यादा यकीन करते हैं. अभी भी लोग इलाज कराने के बजाय सांप काटने पर झाड़फूंक करवाना ही ठीक समझते हैं.

आज भी लोग झाड़फूंक, मंत्र, जादूटोना वगैरह पर यकीन करने के चलते अपनी जान गंवा रहे हैं. वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि झाड़फूंक करवाने से कुछ नहीं होता है. इस से कोई फायदा नहीं होने वाला है. अगर समय रहते

सांप काटने वाले इनसान का इलाज कराया जाए तो उस की जान बचाई जा सकती थी.

बिहार के कई शहरों में ज्यादातर दुकानदार शनिवार को अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्च लटकाते हैं. हर शनिवार की सुबह कुछ लोग नीबूमिर्च को एकसाथ धागे में पिरो कर दुकानदुकान बेचते भी मिल जाते हैं.

तकरीबन सभी दुकानदार इसे खरीदते हैं. वे पुरानी लटकी हुई नीबूमिर्च को सड़क पर फेंक देते हैं. लोगों के पैर उस पर न पड़ जाएं, इसलिए लोग बच कर चलते हैं. कई बार तो लोग अपनी गाड़ी के पहिए के नीचे आने से भी इन्हें बचाते हैं.

कुछ लोगों का मानना है कि पैरों के नीचे या गाड़ी के नीचे अगर फेंका हुआ नीबू और मिर्च आ जाए तो जिंदगी में परेशानी बढ़ सकती है.

कुछ दुकानदारों का मानना है कि नीबूमिर्च लटकाने से बुरी नजर से बचाव होता है. दुकान में बिक्री खूब होती है. इस तरह देखा जाए, तो फालतू में नीबूमिर्च आज भी बरबाद किए जा रहे हैं, जबकि इस तरह के नीबूमिर्च लटकाने का कोई फायदा नहीं है.

आज भी बहुत से लोग गरीब हैं. पैसे की कमी में वे नीबूमिर्च खरीदने की सोचते भी नहीं हैं. इस तरह से यह तो नीबूमिर्च की बरबादी है. ऐसा कहने वाला कोई भी धर्मगुरु, पंडित, पुजारी, मौलवी नहीं होता है.

दरअसल, आज भी यह अंधविश्वास  ज्यों का त्यों बना हुआ है. ऐसी बातें बहुत पहले से ही पाखंडी ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों ने आम लोगों में फैला रखी हैं, इसीलिए ऐसा अंधविश्वास आज भी जारी है.

औरंगाबाद की रहने वाली मंजू कुमारी टीचर हैं. उन का कहना है कि वे एक बार पैदल ही इम्तिहान देने जा रही थीं. उन्होंने वहां जाने के लिए शौर्टकट रास्ता चुना था.

अभी इम्तिहान सैंटर काफी दूर था कि एक बिल्ली उन का रास्ता काट गई. वे काफी देर तक वहीं खड़ी इंतजार करती रहीं, पर उस रास्ते से कोई गुजरा नहीं. उन्हें ऐसा लगा कि उन का इम्तिहान छूट जाएगा, इसलिए वे जल्दीजल्दी उस रास्ते से हो कर इम्तिहान सैंटर तक पहुंचीं.

उन के मन में धुकधुकी हो रही थी कि आज इम्तिहान में कुछ न कुछ गड़बड़ होगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बल्कि उन का इम्तिहान उस दिन बहुत अच्छा हुआ. बाद में अच्छे नंबर भी मिले थे.

उस दिन से वे इस तरह के अंधविश्वासों से बहुत दूर रहती हैं. वे मानती हैं कि अगर वे अंधविश्वास में रहतीं, तो उन का इम्तिहान छूटना तय था.

दरअसल, बचपन से ही घर के लोगों द्वारा यह सीख दी जाती है कि ब्राह्मणों, पोंगापंडितों, साधुओं, पाखंडियों, धर्मगुरुओं की कही गई बातें तुम्हें भी इसी रूप में माननी हैं. बचपन से लड़केलड़कियों को यह सब धर्म से जोड़ कर बताया जाता है. उन्हें विज्ञान से ज्यादा अंधविश्वास के प्रति मजबूत कर दिया जाता है.

यही वजह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी अंधविश्वासों को लोग ढोते आ रहे हैं. विज्ञान यहां विकसित नहीं है. लेकिन अंधविश्वास खूब फलफूल रहा है. इस की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि कोई काट ही नहीं सकता है.

यहां के लोग पर्यावरण, पेड़पौधे की हिफाजत करने के बजाय अंधविश्वास  की हिफाजत करते हैं.

जब देश में राफेल आता है, तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को नारियल फोड़ कर पूजा करते हुए मीडिया के जरीए दिखाया जाता है, तो देश में एक संदेश जाता है कि आम लोग ही अंधविश्वास में नहीं पड़े हुए हैं, बल्कि यहां के खास लोग भी इसे बढ़ावा देना चाहते हैं, जबकि कोरोना काल में देशभर के मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे वगैरह सभी बंद थे.

लोगों को भगवान के वजूद के बारे में समझ आने लगा था. लोगों को यकीन हो गया था कि देवीदेवताओं की मेहरबानी से यह बीमारी ठीक होने वाली नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा जब दवा बनाई जाएगी, तभी यह बीमारी जाएगी.

लोगों में देवीदेवताओं के साथ ही मंदिरमसजिद के प्रति भी आस्था कम हुई है, तो दूसरी ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर में सीधे लोट जाते हैं और यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि सबकुछ ऊपर वाला ही है.

और तो और, एक टैलीविजन चैनल वाले ने तो दिखाया कि उस समय नरेंद्र मोदी ने ‘राम’ का नाम कितनी बार लिया, इसीलिए देश के कुछ हिस्सों में कोरोना जैसी महामारी को बीमारी कम समझा गया, इसे दैवीय प्रकोप समझने की भूल हो गई.

देश में कोरोना कहर बरपा रहा था, तो बिहार के कुछ इलाकों में कोरोना माता की पूजा की जा रही थी.

रोहतास जिले के डेहरी औन सोन में सोन नदी के किनारे कई दिनों तक औरतों ने आ कर पूजापाठ की. नदियों के किनारे औरतें झुंड में पहुंच कर 11 लड्डू और 11 फूल चढ़ा कर पूजा कर रही थीं.

घर के मर्दों द्वारा औरतों को मना करने के बजाय उन्हें बढ़ावा दिया जा रहा था, तभी तो वे अपनी गाड़ी में बैठा कर उन्हें नदी के किनारे पहुंचा रहे थे.

इस तरह के अंधविश्वास मोबाइल फोन के चलते गांवदेहात में काफी तेजी से फैलते हैं, इसलिए जरूरी है कि मांबाप अपने बच्चों को विज्ञान के प्रति जागरूक करें. उन्हें शुरू से ही यह बताने की जरूरत है कि विज्ञान से बदलाव किया जा सकता है. विज्ञान हमारी जरूरतें पूरी कर रहा है. इस तरह के अंधविश्वास से हम सभी पिछड़ जाएंगे.

परीक्षा से डर कैसा : यह रिजल्ट आखिरी तो नहीं

मनोवैज्ञानिक और काउंसलर अब्दुल माबूद कहते हैं, ‘‘यह काफी नाजुक दौर होता है, बच्चों को उन की जिंदगी की कीमत समझाना अभिभावकों का पहला काम होना चाहिए.’’

अब्दुल माबूद ने यह बात बच्चों की परीक्षा और उन के मानसिक दबाव को ले कर कही है. दरअसल,  परीक्षाओं का दौर खत्म होने के बाद छात्रों को कुछ दिनों की राहत तो मिलती है पर साथ ही रिजल्ट का अनचाहा दबाव बढ़ने लगता है. बच्चे भले ही हम से न कहें पर उन्हें दिनरात अपने रिजल्ट की चिंता सताती रहती है. बोर्ड एग्जाम्स को तो हमारे यहां हौआ से कम नहीं माना जाता, जबकि यह इतना गंभीर नहीं होता जितना हम इसे बना देते हैं.

आजकल तो छोटी क्लास के बच्चों पर भी रिजल्ट का दबाव रहता है और इस दबाव की वजह सिर्फ और सिर्फ उन के पेरैंट्स होते हैं. ज्यादातर पेरैंट्स बच्चों के रिजल्ट को अपने मानसम्मान और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं. यही वजह है कि वे खुद तो तनाव में रहते हैं, बच्चों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनाव का शिकार बना देते हैं.

छात्रों पर बढ़ता दबाव

एग्जाम्स के रिजल्ट आने से पहले ही छात्रों के मनमस्तिष्क पर अपने रिजल्ट को ले कर दबाव पड़ने लगता है. एक तो स्वयं की उच्च महत्त्वाकांक्षा और उस पर प्रतिस्पर्धा का दौर छात्रों के लिए कष्टकारक होता है.

वैसे तो छात्रों को पता होता है कि उन के पेपर कैसे हुए और अमूमन रिजल्ट के बारे में उन्हें पहले से ही पता होता है, इसीलिए कुछ छात्र तो निश्चिंत रहते हैं पर कुछ को इस बात का भय सताता रहता है कि रिजल्ट खराब आने पर वे अपने पेरैंट्स का सामना कैसे करेंगे.

आत्महत्याएं चिंता का विषय

प्रतिस्पर्धा के दौर में सब से आगे रहने की महत्त्वाकांक्षा और इस महत्त्वाकांक्षा का पूरा न हो पाना छात्रों को अवसाद की तरफ धकेल देता है, जिस पर पेरैंट्स हर वक्त उन की पढ़ाई पर किए जाने वाले खर्च की दुहाई देते हुए उन पर लगातार दबाव डालते रहते हैं. इस से कभीकभी छात्र यह सोच कर हीनभावना के शिकार हो जाते हैं कि वे अपने पेरैंट्स की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. यही वजह कभीकभी उन्हें अवसाद के दलदल में धकेल देती है और वे नासमझी में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं.

पेरैंट्स के पास सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचता. ऐसे में उन्हें यह विचार सताने लगता है कि काश, उन्होंने समय रहते अपने बच्चे की कद्र की होती. जिसे इतने अरमानों से पालापोसा, बड़ा किया वह उन के कंधों पर दुख का बोझ छोड़ कर चला गया. पिछले 15 सालों में 34,525 छात्रों ने केवल अनुत्तीर्ण होने की वजह से आत्महत्या की. ये आंकड़े सच में निराशाजनक और चिंतनीय हैं जिन पर सभी को विचार करने की जरूरत है.

बच्चों के साथ फ्रैंडली रहें

पेरैंट्स यदि बच्चों के साथ ज्यादातर सख्ती से पेश आएंगे तो बच्चे उन्हें अपने मन की बात नहीं बताएंगे. अगर वे रिजल्ट को ले कर तनाव में हैं तो भी डर के कारण नहीं बता पाएंगे. बच्चों के साथ आप का दोस्ताना व्यवहार उन्हें आप के नजदीक लाएगा और वे खुल कर आप से बात करना सीखेंगे. इस से न केवल वे तनावमुक्त रहेंगे बल्कि उन का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. उन्हें इस एहसास के साथ जीने दें कि चाहे जो भी रिजल्ट आए, पेरैंट्स उन के दोस्त के रूप में उन के साथ हैं.

तुम हमारे लिए सब से कीमती

बच्चों को इस बात का एहसास कराएं कि इस दुनिया में आप के लिए सब से कीमती वे हैं न कि बच्चों का रिजल्ट. अपने मानसम्मान को बच्चों के कंधों का बोझ न बनाएं. बच्चों के सब से पहले काउंसलर उन के पेरैंट्स ही होते हैं. यदि वे उन्हें नहीं समझेंगे तो हो सकता है बच्चे अवसाद के शिकार हो जाएं. उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि कोई भी परिणाम हमारे लिए तुम्हारी सलामती से बढ़ कर नहीं है.

शिक्षा को अहमियत देना गलत नहीं है लेकिन शिक्षा व परीक्षा के नाम व्यक्तिगत जिंदगी से सबकुछ खत्म कर लेना और उसे ही जीवन का अंतिम सत्य मान लेना खुद को कष्ट पहुंचाना ही है. अगर जीवन के हर भाव व पहलुओं का आनंद लेना है तो बच्चों की खुशी का भी ख्याल रखना होगा.

रिजल्ट के दिनों में पैरेंट्स के लिए बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना बेहद जरूरी है. यह देखें कि कहीं वे गुमसुम या परेशान तो नहीं, ठीक से खाना खाते हैं या नहीं, जीवन के बारे में निराशावादी तो नहीं हो रहे हैं. इस समय पेरैंट्स को धैर्य का परिचय दे कर बच्चों के लिए संबल बनना चाहिए, न कि उन पर दबाव डालना चाहिए. उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि उन का रिजल्ट चाहे जैसा रहे, उन के पेरैंट्स हमेशा उन के साथ हैं.

जीवन चलने का नाम है. एक बार गिर कर दोबारा उठा जा सकता है. जीवन में न जाने कितनी परीक्षाएं आतीजाती रहेंगी. उठो, चलो और आगे बढ़ो. अपनी क्षमताओं को पहचानो.

दुनिया ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जिन में बचपन में पढ़ाई में कमजोर रहे छात्रों ने बाद में सफलता के कई नए रिकौर्ड कायम किए हैं, आविष्कार किए हैं. यह परीक्षा जीवन की आखिरी परीक्षा नहीं है. जीवन चुनौतियों का नाम है. फेल होने का मतलब जिंदगी का अंत नहीं होता. इंसान वह है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़े.

रस्मों की मौजमस्ती धर्म में फंसाने का धंधा

धर्म को ईश्वर से मिलाने का माध्यम माना गया है. धर्म मोहमाया, सांसारिक सुखों के त्याग की सीख देता है. धर्मग्रंथों में धर्म की कई परिभाषाएं दी गई हैं. कहा गया है कि धर्म तो वह मार्ग है जिस पर चल कर मनुष्य मोक्ष की मंजिल तय कर सकता है. ईश्वर के करीब पहुंच सकता है. धर्म के मानवीय गुण प्रेम, शांति, करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा को व्यक्ति जीवन में उतार कर  मनुष्यता धारण कर सकता है. सांसारिक सुखदुख के जंजाल से छुटकारा पा सकता है. जिस ने धर्म के इस मार्ग पर चल कर ईश्वर को पा लिया वह संसार सागर से पार हो गया.

लेकिन व्यवहार में धर्म क्या है? धर्म का वह मार्ग कैसा है? लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? हिंदू समाज में धार्मिक उसे माना जाता है जो मंदिर जाता है, पूजापाठ करता है, जागरणकीर्तन, हवनयज्ञ कराता है, लोगों को भोजन कराता है, गुरु को आदरमान देता है, प्रवचन सुनता है, धार्मिक कर्मकांड कराता है, जीवन में पगपग पर धर्म के नाम पर रची गई रस्मों को निभाता चलता है और इन सब में दानदक्षिणा जरूर देता है.

धर्मग्रंथ और धर्मगुरु व साधुसंत कहते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने के लिए ये सब करो तो बेड़ा पार हो जाएगा.

ईश्वर तक पहुंचाने वाले इस धर्म का असल स्वरूप कैसा है? हिंदू समाज में धर्म के नाम पर वास्तव में रस्मों का आडंबर है. चारों तरफ रस्मों की ही महिमा है. पगपग पर रस्में बिछी हैं. ‘पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए’ की तर्ज पर धार्मिक रस्मों में नाचना, गाना, खानापीना, कीर्तन, यात्रा, किट्टी पार्टी, गपबाजी, विरोधियों की पोल खोलना, आदि  शामिल हैं. हिंदू समाज में जन्म से ले कर मृत्यु और उस के बाद तक अलगअलग तरह की रस्में हैं. अंधभक्त धर्म के नाम पर बनी इन रस्मों को बड़े उत्साह से निभाते हैं. वे इन रस्मों में उल्लास के साथ भाग लेते हैं.

विवाहशादी, जनममरण की रस्में छोड़ भी दें तो जीवन में और बहुत सारी धार्मिक रस्मों का पाखंड व्याप्त है. पाखंड से भरे रस्मों के प्रति लोगों के निरंतर प्रचार के कारण श्रद्धा बढ़ रही है.

कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दही हांडी फोड़ने के साथ नाचगाने व अन्य मनोरंजक रस्में महाराष्ट्र में जगहजगह होती हैं. गणेशोत्सव पर तरहतरह की झांकियां निकाली जाती हैं. इन में बच्चे व बड़े हाथी की सूंड लगाए, देवीदेवताओं के मुखौटे चढ़ाए नाचतेगाते दिखते हैं. जागरणों- कीर्तनों की धूम दिखाई देती है. इस तरह पूरे साल धार्मिक रस्में चलती रहती हैं. रस्मों का महाजाल बिछा है. कुछ लोग भय से, लालच से और आनंद उठाने के लिए धार्मिक रस्मों को करने में लगे हुए हैं.

धार्मिक रस्मों में पूजा कई रूपों में की जाती है. पूजापाठ के अनोखे तरीके हैं. नाचगाने, फिल्मी धुनों पर भजनों की बहार के साथ उछलतेकूदते भक्तगणों की टोलियां नाइट क्लबों की तरह करतब दिखाती नजर आती हैं. भक्त मूर्ति को प्रतीकात्मक तौर पर खाद्य सामग्री, पानी और पुष्प चढ़ाते हैं. मूर्ति के आगे  मोमबत्ती या अगरबत्ती जला कर घुमाई जाती है. फिर घंटी बजाने की रस्म की जाती है. भगवान का नाम बारबार जपा जाता है. भगवान को खाने की जो चीज चढाई जाती है उसे ‘प्रसाद’ कहा जाता है. इस ‘प्रसाद’ के बारे में प्रचारित किया गया है कि ‘प्रसाद’ खाना ‘आत्मा’ के लिए लाभप्रद है.

हर धर्म में तीर्थयात्रा जरूर बताई गई है. नदी के किनारे बसे शहरों की तीर्थ यात्रा पर गए लोग नदी में जलता हुआ दीपक और पुष्प रखा हुआ दोना बहाते हैं, मंदिरों में जलते हुए दीपक की लौ को सिरआंखों पर लगाते हैं. राख या चंदन का तिलक माथे के अलावा गले, छाती, नाभि पर लगाते हैं.

ऐसा करने के पीछे कोई तार्किकता नहीं है पर लोगों को ऐसा करने के लिए फायदा होने का लालच दिखाया गया है. दोना बहाने पर सुखसमृद्धि व पतिपत्नी के रिश्ते दूर तक चलने और दीपक की लौ से रोगदोष कटने की बात कही जाती है. हां, इन्हें देखना बड़ा सुखद लगता है, दृश्य फिल्मी हो जाता है.

जागरणकीर्तन की रस्म में लोग फिल्मी धुनों पर रचे भजन गाते हैं और थिरकते हैं. परिवार सहित अन्य लोगों को आमंत्रित किया जाता है तथा सब को भोजन कराया जाता है. धर्म की कमाई नहीं आनंद, मौजमस्ती की कमाई होती है.

लोग कहते फिरते हैं कि धार्मिक रस्में बहुत सुंदर होती हैं. प्रशंसा करते नहीं अघाते कि वाह, कैसा सुंदर जागरण- कीर्तन था. खूब मजा आया. झांकी कितनी खूबसूरत थी यानी मामला भगवान के पास जाने का नहीं, मनोरंजन का है.

रस्मों के नाम पर कहीं सुंदर नए वस्त्र पहने जाते हैं, कहीं तलवार, लाठीबाजी के करतब भी किए जाते हैं तो कहीं जुआ खेला जाता है. शिवरात्रि पर भांग पीना भी एक रस्म मानी जाती है. भंडारा यानी खानापीना और दान की रस्में तो सर्वोपरि हैं. इन रस्मों के बिना तो धर्म ही अधूरा है. सारा पुण्यकर्म ही बेकार है. धार्मिक कार्यक्रमों में भोजन कराना बड़े पुण्य का काम समझा जाता है. इसे प्रसाद मान कर लोगों को खिलाया जाता है. यहां भी बच्चों और बड़े भक्तों का मनोरंजन ही सर्वोपरि होता है. ऊबाऊ फीकी रस्मों के पीछे कम लोग ही पागल होते हैं.

महिलाओं को लुभाने के लिए उन्हें सजनेसंवरने के लिए सुंदर वस्त्र, आभूषण पहनने, घर को सजाने में रुचि रखने वाली औरतों के लिए घर के द्वार पर वंदनवार बांधने, कलश स्थापना जैसी रस्में भी रची गई हैं. औरतें अपनी सब से सुंदर साडि़यां पहन कर, जेवरों से लदफद कर, मोटा मेकअप कर के भगवान के सन्निकट आने के लिए घर का कामकाज छोड़छाड़ कर निकलती हैं. रस्मों के दौरान खूब हंसीठट्ठा होता है. हाहा हीही होती है. छेड़खानी होती है. आसपास मर्द हों तो उन्हें आकर्षित करने का अवसर नहीं छोड़ा जाता.

भांग खाने, जुआसट्टा खेलने की रस्म, गरबा खेलने की रस्म, धार्मिक उत्सवों में लाठी, तलवारबाजी की रस्में की जाती हैं. यहां भी आड़ भगवान की ले ली जाती है यानी रस्म के नाम पर नशेबाजों, जुआसट्टेबाजों, रोमांच, रोमांस के शौकीनों को भी धर्म के फंदे में फंसा लिया गया है. होली, दशहरा, नवरात्र, शिवरात्रि जैसे धार्मिक उत्सवों पर नशा, छेड़छाड़, गरबा, डांडिया उत्सव में रोमांस के मौके उपलब्ध होते हैं.

अरे, वाह, ईश्वर तक पहुंचने का क्या खूब रास्ता है. भगवान तक पहुंचने का यह मार्ग है तभी लोगों की भीड़ बेकाबू होती है.

दक्षिण भारत में धार्मिक रस्मों के नाम पर लोग लोहे की नुकीली लंबीलंबी कीलें दोनों गालों के आरपार निकालने का करतब दिखाते हैं. कई लोग धर्मस्थलों तक मीलों पैदल चल कर जाते हैं, कुछ लेट कर पेट के बल चल कर जाते हैं. यह सबकुछ सर्कसों में भी होता है. गोदान, शैयादान करने की रस्म, बेजान मूर्तियों के आगे देवदासियों (जवान युवतियों) के नाचने की भी रस्म है. कहीं बाल कटवाने की रस्म है, कहीं मंदिरों में पेड़ों पर कलावा, नारियल, घंटी बांधने की रस्म है. कुछ समय पहले तक तीर्थों पर पंडों द्वारा युवा स्त्रियों को दान करवा लेने की परंपरा थी. शुद्धिकरण, पंडों के चरण धो कर गंदा पानी पीने की रस्म, मनों दूध नदियों में बहाने, मनों घी, हवन सामग्री को अग्नि में फूंक डालने की रस्म है. जानवरों को मार कर खाना, देवीदेवताओं को चढ़ाना रस्म है, और यही मांस बतौर प्रसाद फिर खाने को मिलता है क्योंकि भगवान तो आ कर खाने से रहे.

अरे, भाई, यह क्या पागलपन है. क्या भगवान तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ़ा जा रहा है या खानेपीने का लाभ होता है? शायद लोहे के सरियों से जबड़े फाड़ कर, भांग पी कर, जुआ खेल कर, गंजे हो कर, नाचगा कर ईश्वर तक पहुंचने के बजाय बोरियत दूर की जाती है. चूंकि धर्म का धंधा इसी पर टिका है, पंडेपुजारियों ने इस तरह के रोमांच, रोमांस, मौजमस्ती वाली रस्में रची हैं.

रस्मों में खानेपीने यानी भंडारे और दान की रस्म का खास महत्त्व है. ये रस्में हर धर्म में हैं. बाद में खाने की अनापशनाप सामग्री चाहे कूड़े के ढेर में फेंकनी पड़े. धर्म के नाम पर खाना खिलाने की यह रस्म इस गरीब देश के लिए शर्म की बात है. जहां देश की 20 प्रतिशत आबादी को दो वक्त की भरपेट रोटी नहीं मिलती, वहां ऐसी रस्मों में टनों खाद्य सामग्री बरबाद की जाती है.

कुंभ जैसे धार्मिक मेलों में तो रस्मों के नाम पर बड़े मजेदार तमाशे देखने को मिलते हैं. पिछले नासिक कुंभ मेले में इस प्रतिनिधि ने स्वयं देखा, रस्मों के नाम पर लोग गोदावरी के गंदे पानी में बड़ी श्रद्धा से स्नान कर रहे थे, पुष्प, जलते दीपक का दोना नदी में बहा रहे थे. ‘अमृत लूटने वाले दिन’ दोपहर को जब एक महामंडलेश्वर की मंडली घाट पर आई और उस ने नदी में पैसे, प्रसाद फेंके तो भक्तों की भीड़ इस ‘अमृत’ को लूटने के लिए नदी में कूद पड़ी. पैसे के लिए मची, भगदड़ में कई भक्त मोक्ष पा गए.

मेले में कहीं रस्सी के सहारे बाबा लटके हुए थे, इन के आगे एक बोर्ड लगा था और उस पर लिखा था, बाबा खड़ेश्वरी. आगे एक दानपात्र पड़ा था. कहीं लाल मिर्च का ढेर लगा था और 30 मिर्चों को जला कर हवन किया जा रहा था. स्नान के लिए गुरुओं की झांकियां निकल रही थीं. भिखमंगों, अपंगों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी. धर्म में बहुरूप धरने वालों का भी रिवाज है. मेले में तरहतरह के बहुरुपिए नजर आ रहे थे. कोई शिव, कोई हनुमान, कोई बंदर, कोई गरुड़ बना हुआ था लेकिन इन के हाथों में कटोरा अवश्य था. हर जगह ऐसा लग रहा था मानो मदारियों को जमा कर रखा है. अगर ये मदारी न हों तो कुंभ मेले में शायद कोई जाए ही नहीं.

दरअसल, रस्मों का यह एक मोहजाल फैलाया गया है. रस्मों के नाम पर इन में मौजमस्ती, रोमांच ज्यादा है. रस्में बनाई ही इसलिए गई हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके क्योंकि मस्ती, मनोरंजन, खानपान, रोमांच के प्रति मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है.

धर्म में इन रस्मों का यह स्वरूप आदमी की कमजोरी को भांप कर धीरेधीरे निर्धारित किया गया क्योंकि ज्यादातर हिंदुओं का धार्मिक जीवन देवीदेवताओं पर केंद्रित होता है. लोग नाच कर, गा कर, खाना खा कर, तरह- तरह के मनोरंजक तमाशे कर के खुश होते हैं और बहाना बनाते हैं पूजा करने का. पंडेपुजारी इस  बात को जानते हैं और वे इवेंट मैनेजर बन जाते हैं.

असल में रस्में अंधविश्वासों का जाल हैं. यह संसार का एक विचित्र गोरखधंधा है. तरक्की रोकने की बाधाएं हैं. असल बात तो यह है कि धर्म के पेशेवर धंधेबाजों ने रस्मों के नाम पर जेब खाली कराने के लिए सैकड़ों रास्ते निकाल लिए हैं. भिन्नभिन्न प्रकार की चतुराई भरी तरकीबों से हर धार्मिक, सामाजिक उत्सवों  पर रस्में रच दी गईं. इन रस्मों के ऊपर दानदक्षिणा, चंदा मांगने की रस्म और बना दी गई. कह दिया गया कि दान के बिना धर्म का हर काम अधूरा है. जनता अपने पसीने की कमाई में से रस्मों के नाम पर पैसा देना अपना धर्म समझती है.

हरिदास परंपरा के संगीत, सूरदास, कबीर, मीराबाई के भजन आखिर हों क्यों? क्यों शब्दजाल से सम्मोहित किया जाता है. भक्तों का मनोरंजन उद्देश्य है या ईश्वर की प्राप्ति? अब इस गीतसंगीत की जगह फिल्मी गीतसंगीत ने ले ली है. अच्छा है. नए युग में नया मनोरंजन. पुराने भजनों से भक्त आकर्षित नहीं होते. लिहाजा भक्तों की रुचि का पूरा खयाल रखा जाता है और अब उन्हें ‘ये लड़की आंख मारे’, ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसे उत्तेजक फिल्मी गीतसंगीत पर रचे भजन गाएसुनाए जाते हैं.

धर्म के धंधेबाज लोगों में भय और लालच फैलाते हैं कि फलां रस्म न की गई तो ऐसा अनर्थ हो जाएगा व फलां रस्म की गई तो यह पुण्य होगा, इच्छाएं पूरी होंगी. सुखसमृद्धि आएगी. जन्म के बाद बच्चे का मुंडन नहीं कराया, इसलिए बच्चा बीमार रहने लगा. चाहे किसी कारणवश बच्चा बीमार हो गया हो, दोष रस्म न करना मान लिया जाता है. इस तरह के सैकड़ों भय दिखा कर लोगों को दिमागी गुलाम बना दिया गया है.

भयभीत, अनर्थ से आशंकित लोग यंत्रवत हर धार्मिक रस्म करने को आतुर हैं. चाहे जेब इजाजत दे या न दे. कर्ज ले कर धार्मिक रस्म तो करनी ही है. लोग खुशीखुशी अपनी जमा पूंजी खर्च कर देते हैं, क्योंकि मुंडन पर सैकड़ों को बुला कर खाना खिलाने का अवसर मिलता है. रिश्तेदार जमा होते हैं. देवरभाभी, जीजासाली घंटों चुहलबाजी करते हैं.

घर में बच्चा पैदा हुआ है, यह बताने के लिए डाक्टरी विज्ञान है. विज्ञान पढ़ कर भी इसे भगवान की कृपा मान कर जागरणकीर्तन की रस्म की जाती है. खाना, कपड़े, गहने दान किए जाते हैं. जागरण में अंशिमांएं भरी जाती हैं, सिर नवा कर भगवान को अर्पित कौन करता है? क्या यही सब करने से भक्त भगवान का दर्शन पा जाते हैं?

हम अपने धर्म, संस्कृति को महान बताते रहे. इस की श्रेष्ठता, महानता, गुरुता का गुण गाते रहे पर दूसरी जातियों और संस्कृतियों शक, हूण, यवन, अंगरेजों ने देश में आ कर हमें सैकड़ों सालों तक गुलाम बना कर रखा फिर भी हम अपना पागलपन नहीं त्याग पाए हैं. यह सब इसी पागलपन के कारण हुआ.

धर्म में अगर रस्मों के नाम पर इस तरह के मनोरंजक तमाशे न हों तो सबकुछ नीरस, फीकाफीका, ऊबाऊ लगेगा. रस, मौजमस्ती चाहने वालों की भीड़ नहीं जुटेगी. रस्मों की मौजमस्ती का धर्म की खिचड़ी में तड़का लगा दिया गया, इसलिए भक्तों को स्वाद आने लगा. आनंदरस मिलने लगा. यही कारण है कि धर्म हर किसी को लुभाता है और रस्में धर्म की जान बन गईं.

असल में धर्म का महल रस्मों के इन्हीं खंभों पर ही तो टिका है. तभी तो इस के रखवालों में जरा सी आलोचना से खलबली मच जाती है. घबरा उठते हैं वे कि कहीं असलियत सामने न आ जाए. पोल न खुल जाए. अगर धर्म मनोरंजन करने का एजेंट न बने तो धर्म बेजान, बेकार, दिवालिया सा दिखाई दे. धर्म की दुकानें सूनी, वीरान नजर आएं. क्या फिर ऐसे फीके, उबाऊ धर्म की ओर कोई झांकेगा.

जाहिर सी बात है, हर एजेंट अपना माल बेचने के लिए उसे तरहतरह से सजाएगा, संवारेगा, चांदी सी चमकती वर्क लगा कर दिखाएगा, प्रदर्शित करेगा. ग्राहकों को सब्जबाग दिखाएगा तभी तो ग्राहक आकर्षित होंगे. हिंदू धर्म में औरों से ज्यादा मनोरंजक तमाशे, रस्मों की मौजमस्ती हैं इसलिए यहां अधिक पैसा बरसता है. धर्म मालामाल है. यह सब मनोरंजन, मौजमस्ती न होती तो धर्म का अस्तित्व न होता. यही तो धर्म का मर्म है.

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