नया द्वार: नये दरवाजे पर खुशियों ने दी दस्तक

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं. बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

अलविदा काकुल : रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार

पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण…

काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई.

2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली.

शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’

पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’

‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज  मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी.

ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया.

‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’

मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा.

‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा.

मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया.

काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते.

एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा.

मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था.

इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया.

‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’

‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए.

अलविदा…काकुल…अलविदा…

Holi 2024 – रंग दे चुनरिया: क्या एक हो पाए गौरी-श्याम

वह बड़ा सा मकान किसी दुलहन की तरह सजा हुआ था. ऐसा लग रहा था, जैसे वहां बरात आई है. दूर से देखने पर ऐसा जान पड़ता था, जैसे हजारों तारे आकाश में एकसाथ टिमटिमा रहे हों. छोटेछोटे बल्ब जुगनुओं की तरह चमक रहे थे. लेकिन श्याम की नजर उस लड़की पर थी, जो उस के दिल की गहराइयों में उतरती चली गई थी. वह कोई और नहीं, बल्कि उस की भाभी की बहन गौरी थी. खूबसूरत चेहरा, प्यारी आंखें, नाक में चमकता हीरा और गोरेगोरे हाथों में मेहंदी का रंग उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहा था. श्याम उसे अपना दिल दे बैठा था. उस ने महसूस किया कि गौरी के बिना उस की जिंदगी अधूरी है.

गौरी कभीकभार तिरछी नजरों से उसे देख लेती. एक बार दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो वह मुसकरा दी. तभी भाभी ने उसे पुकारा, ‘‘श्याम?’’

‘‘जी हां, भाभी…’’ उसे लगा कि भाभी ने उस की चोरी पकड़ ली है. ‘‘क्या बात है, आज तुम उदास क्यों हो? कहीं किसी ने हमारे देवरजी का दिल तो नहीं चुरा लिया?’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ वह अपनी घबराहट को छिपाने के लिए रूमाल निकाल कर पसीना पोंछने लगा.

श्याम अपनी भाभी के जन्मदिन पर उन के साथ उन के मायके गया था, लेकिन उसे क्या पता था कि यहां आते ही उसे प्रेम रोग लग जाएगा. गौरी सुंदर थी, इसलिए उस के मन को भा गई और वह उस पर दिलोजान से फिदा हो गया. अपने प्यार का इजहार करने के बारे में वह सोच रहा था कि क्या भाभी उसे अपनी देवरानी बनाने के लिए तैयार होंगी. भाभी अगर तैयार भी हो जाएं, तो क्या भैया होंगे? देर रात तक वह यही सोचता रहा.

अगले दिन श्याम चुपके से गौरी के कमरे में पहुंचा. वहां वह खिड़की खोल कर बाहर का नजारा देख रही थी. वह उस की आंख बंद कर उभारों से हरकत करते हुए बोला, ‘‘कैसा लगा गौरी?’’ गौरी खड़ी होती हुई बोली, ‘‘श्याम, ऐसी हरकतों से मुझे सख्त नफरत है.’’

‘‘ओह गौरी, मैं कोई पराया थोड़े ही हूं.’’

‘‘मैं दीदी और जीजाजी से शिकायत करूंगी.’’ ‘‘गौरी, मुझे साफ कर दो. आइंदा, मैं कभी ऐसी हरकत नहीं करूंगा.’’

‘‘मैं अभी दीदी को बुला कर लाती हूं,’’ कह कर गौरी फीकी मुसकान के साथ वहां से चली गई. श्याम का मोह भंग हुआ. उसे लगा कि गौरी को उस से प्यार नहीं है. वह अब तक उस से एकतरफा प्यार कर रहा था. लेकिन अब क्या होगा? कुछ देर बाद भाभी यहां पहुंच जाएंगी, फिर सारी पोल खुल जाएगी. खैर, बाद में जो होगा देख लेंगे… सोच कर उस ने गौरी के नाम एक खत लिख कर तकिए के नीचे रख दिया और अपने गांव चल दिया.

गौरी आधे घंटे बाद चाय ले कर जब कमरे में पहुंची, तो उस का दिल धकधक करने लगा. एक अनजान ताकत उस के मन को बेचैन कर रही थी कि आखिर श्याम कहां चला गया. लेकिन तभी उस की नजर तकिए के नीचे दबे कागज पर गई. वह उसे उठा कर पढ़ने लगी:

‘प्रिय गौरी, खुश रहो. ‘मैं अपने किए पर बहुत पछताया, लेकिन तुम भी पता नहीं किस पत्थर की बनी हो, जो मेरे लाख माफी मांगने के बावजूद भैया और भाभी से कहने के लिए चली गईं. पता नहीं, क्यों मैं तुम्हारे साथ गलत हरकत कर बैठा? मैं गांव जा रहा हूं. जब भैया वापस आएंगे, तो मेरी खैर नहीं.

‘गौरी, मैं ने अपनी जिंदगी में सिर्फ तुम्हीं को चाहा, लेकिन मुझे मालूम न था कि मेरा प्यार एकतरफा है. काश, यह बात पहले मेरी समझ में आ जाती. ‘अच्छा गौरी, हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं रो कर सब्र कर लूंगा कि अपनी जिंदगी में पहली बार किसी को चाहा था.

‘तुम्हारा श्याम.’ गौरी की आंखों से पछतावे के आंसू बहने लगे. चाय का प्याला जैसे ही उठाया, वैसे ही गिर कर टुकड़ेटुकड़े हो गया. उसे ऐसा लगा कि किसी ने उस के दिल के हजार टुकड़े कर दिए. उस ने कभी सोचा भी न होगा कि श्याम अपने भैया और भाभी की इतनी इज्जत करता है.

तभी उस की दीदी कमरे में आई, ‘‘क्या बात है गौरी, यह प्याला कैसे टूट गया. श्याम कहां है?’’ आते ही दीदी ने सवालों की झड़ी लगा दी. अचानक उस की निगाह गौरी के हाथ में बंद कागज पर चली गई, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रही थी. वह खत ले कर पढ़ने लगी.

‘‘तो यह बात है…’’ ‘‘नहीं दीदी, वह तो श्याम,’’ गौरी अपनी बात पूरी नहीं कर सकी.

‘‘अरे, तेरी आवाज में कंपन क्यों पैदा हो गया. प्यार करना कोई बुरी बात नहीं है. एक बात बताओ गौरी, क्या तुम भी उस से प्यार करती हो?’’ गौरी ने नजरें झुका लीं, जो इस

बात की गवाह थीं कि उसे भी श्याम से प्यार है. ‘‘लेकिन गौरी, श्याम कहां चला गया?’’

गौरी ने रोते हुए सारी बातें बता दीं. यह सब सुन कर गौरी की बहन खूब हंसी और बोली, ‘‘गौरी, अगर मैं तुम्हें अपनी देवरानी बना लूंगी, तो तुम मेरा हुक्म माना करोगी या नहीं?’’

‘‘दीदी, मैं नहीं जानती थी कि मेरी झूठी धमकी को श्याम इतनी गंभीरता से लेगा. मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर रहूंगी, लेकिन श्याम के रूप में मुझे मेरी खुशियां लौटा दो. वह मुझे बेवफा समझ रहा होगा.’’ इस के बाद दोनों बहनें काफी देर तक बातें करती रहीं.

श्याम की भाभी जब अपनी ससुराल लौटीं, तो गौरी को भी साथ ले आईं. श्याम घर में नहीं था. जैसे ही उस ने शाम को घर में कदम रखा, तो सामने गौरी को देखा, तो मायूस हो कर बोला, ‘‘गौरी, क्या भाभी और भैया अंदर हैं?’’

‘‘हां, अंदर ही हैं.’’ यह सुन कर जैसे ही श्याम लौटने लगा, तो गौरी ने उस की कलाई पकड़ ली और बोली, ‘‘प्यार करने वाले इतने कायर नहीं हुआ करते श्याम. मैं सच में तुम से प्यार करती हूं.’’

‘‘गौरी मेरा हाथ छोड़ दो, वरना भैया देख लेंगे.’’ ‘‘मैं ने सब सुन लिया है बरखुरदार, तुम दोनों अंदर आ जाओ.’’

आवाज सुन कर दोनों ने नजरें उठा कर देखा, तो सामने श्याम का बड़ा भाई खड़ा था. ‘‘मेरे डरपोक देवरजी, अंदर आ जाइए,’’ अंदर से श्याम की भाभी ने आवाज दी.

इस तरह श्याम और गौरी की शादी धूमधाम से हो गई. इस साल होली का त्योहार दोनों के लिए खुशियां ले कर आया.

होली के दिन गौरी ने श्याम के कपड़ों पर जगहजगह मन भर कर रंग लगाया. ‘‘गौरी, आज तेरी चुनरी की जगह गालों को लाल करूंगा,’’ कह कर श्याम भी गौरी की तरफ बढ़ा.

तब ‘डरपोक पिया, रंग दे चुनरिया’ कह कर गौरी ने शर्म से अपना चेहरा हाथों से ढक लिया.

Holi 2024: बीमा दावे का सनसनीखेज राज

‘‘सर, मेरे पति 11 लाख रुपए ले कर कार से संतनगर की ओर जा रहे थे. कोई बदमाश उन के पीछे लगा था. मेरे मोबाइल फोन पर उन्होंने मैसेज भेजा था,’’ सरला ने इंस्पैक्टर को अपने मोबाइल फोन पर आए मैसेज को दिखाया.

‘‘हां, मेरे पास भी उन्होंने फोन किया था. हमारे लोग उस लोकेशन की ओर गए हैं. आप घर जाइए. हम कोशिश करेंगे कि वे जल्द से जल्द महफूज घर पहुंच जाएं,’’ इंस्पैक्टर रवि ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है,’’ सरला ने कहा और वापस चली गई.

इंस्पैक्टर रवि को सरला का बरताव कुछ अजीब सा लगा. वह कई सालों से पुलिस की नौकरी में है और अब तक उस ने जोकुछ भी देखा था, उस के मुताबिक सरला का बरताव अजीब लगा.

उधर थोड़ी देर बाद पता चला कि कैलाश को उस की कार समेत गुंडों ने जला दिया है और उस के रुपए छीन कर ले गए हैं. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला है कि कैलाश की मौत जलने और दम घुटने से हुई थी. उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार कर दिया.

इस के बाद सरला का कई बार पुलिस स्टेशन में एफआईआर की कौपी लेने के लिए आना हुआ. इंस्पैक्टर रवि को न जाने क्यों उस की हरकतों से शक होता था.

पुलिस इंस्पैक्टर ने सरला के मोबाइल फोन से होने वाली काल डिटेल को देखा, तो पहले तो कुछ भी शक जैसा नहीं दिखा, पर एक हफ्ते के बाद कैलाश से उस की बात होने की तसदीक हुई. मतलब साफ था कि कैलाश मरा नहीं था. तो फिर कार में किस की लाश थी?

मोबाइल फोन की लोकेशन से पता चल गया कि कैलाश रायपुर में रह रहा था. तुरंत छत्तीसगढ़ पुलिस से बात की गई और कैलाश को धर दबोचा गया.

जब कैलाश से पूछताछ की गई, तो जो बात सामने आई, वह इस तरह थी :

कैलाश ने कार की डिक्की में रखा पैट्रोल का डब्बा निकाल कर डिक्की बंद की और कार पर पैट्रोल उड़ेल दिया, फिर माचिस से उस में आग लगा दी. थोड़ी देर तक वह देखता रहा कि कार ठीक से जल रही है या नहीं.

अंदर एक लाश भी पड़ी थी, जो उस ने एक अस्पताल के मुलाजिम से मिलीभगत कर खरीदी थी. जब उसे भरोसा हो गया कि कार ने ठीक से आग पकड़ ली है, तो वह वहां से धीरे से निकल गया.

इस के बाद कैलाश ने सब से पहले अपनी पत्नी सरला को फोन लगाया, ‘‘सब प्लान के मुताबिक हो गया है. तुम लाश की शिनाख्त कर लेना. कुछ दिनों तक सभी फोन स्विच औफ रखूंगा.’’

‘ठीक है, अब ज्यादा बातें मत करो. पुलिस काल डिटेल्स निकालेगी, तो फंस जाएंगे हम.’

‘‘नहीं फंसेंगे. हम जिन नंबरों से बातें कर रहे हैं, वे जाली पहचान और फोटो से लिए गए सिमकार्ड हैं. मैं भी इस सिमकार्ड को नष्ट कर दूंगा और तुम भी नष्ट कर देना.’’

कैलाश ने मोबाइल से सिमकार्ड निकाल कर उसे तोड़ डाला और वहीं फेंक दिया. फिर अपने मोबाइल फोन से उस ने पुलिस को फोन लगाया, ‘‘हैलो, मैं कैलाश बोल रहा हूं. मेरे पीछे कुछ गुंडे लगे हैं. वे मेरे 11 लाख रुपए छीनने के चक्कर में हैं.

‘‘प्लीज, मुझे बचा लीजिए. अभी मैं अक्षरधाम मंदिर से संतनगर की ओर जा रहा हूं…’’ इस से पहले कि पुलिस कुछ और पूछती, उस ने मोबाइल फोन कट कर दिया.

कैलाश हिसार में एक फैक्टरी का मालिक था और इधर कुछ दिनों से कारोबार ठीक नहीं चल रहा था. कुछ कर्ज भी उस के ऊपर हो गया था.  कोविड-19 के चलते उस की माली हालत और भी खराब हो गई थी. लेनदार अपना कर्ज वापस मांग रहे थे, पर वह कर्ज चुका पाने की हालत में नहीं था.

जब कारोबार अच्छा चल रहा था, तब कैलाश ने 2 करोड़ रुपए का बीमा लिया था. वह चाहता था कि आगे चल कर किसी वजह से उस की मौत हो जाती है, तो उस के परिवार को कम से कम पैसे की तंगी न हो.

जब कारोबार में नुकसान होने लगा, तो कैलाश को बीमा का प्रीमियम जमा करना भी मुश्किल होने लगा, क्योंकि 2 करोड़ रुपए का प्रीमियम काफी ज्यादा था.

कैलाश दिनरात यही सोचता कि क्या उपाय करे, जिस से वह अपने कारोबार को संभाल सके, पर मानो वह दलदल में फंस गया था. जब कारोबार संभलने का कोई आसार नहीं बचा, तो उस के मन में किसी भी तरह बीमा की रकम पाने की लालसा जगी.

कैलाश हमेशा यही सोचता कि किस तरह बीमा की रकम पाई जा सकती है. उस के मन में यह विचार भी आता कि वह खुदकुशी कर ले, ताकि कम से कम परिवार वालों की माली हालत ठीक हो जाए.

पर उसे शक था कि खुदकुशी के मामले में परिवार वालों को बीमा की रकम मिलेगी या नहीं. यह बात वह किसी से पूछ भी सकता था, पर इस से उस की नीयत पर शक होने का डर था. फिर जिंदगी का मोह भी वह छोड़ नहीं पा रहा था.

आखिरकार कैलाश ने एक योजना तैयार की. उस योजना के मुताबिक उस के बदले कोई और मरेगा और घर वालों को बीमा की रकम मिल जाएगी. वह चुपके से कहीं दूर निकल जाएगा और जब मामला शांत हो जाएगा, तो वह अपने परिवार वालों को भी अपने साथ ले जाएगा.

इस योजना के मुताबिक उस ने एक अस्पताल मुलाजिम से मिल कर कोरोना वायरस के संक्रमण से मरे एक आदमी की लाश ले ली थी. कैलाश ने उस लाश को अपनी कार में रख लिया और शहर से दूर एक बस्ती में कार खड़ी कर दी. फिर उस ने अपने परिवार वालों और पुलिस को फोन कर के बताया कि वह 11 लाख रुपए ले कर कार से कहीं जा रहा है और बदमाश उस का पीछा कर रहे हैं.

पुलिस कैलाश की बताई जगह पर जब तक पहुंची, तब तक कार पूरी तरह जल चुकी थी. कार में एक लाश भी थी, जिसे परिवार वालों ने कैलाश होने की पुष्टि की.

दरअसल, कैलाश ने यह योजना बहुत सोचसमझ कर बनाई थी और परिवार वालों को वह पूरी योजना पहले ही समझा चुका था. पहचान के लिए उस ने अपने हाथ में पहने कड़े को लाश के हाथ में पहना दिया था.

इस के बाद कैलाश रेलवे स्टेशन पहुंचा और रायपुर जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया. उस के पास 3 मोबाइल फोन थे और उस ने तीनों को स्विच औफ कर रखा था.

रायपुर पहुंच कर वह एक किराए के कमरे में रहने लगा. उधर उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार करवा दिया, ताकि किसी को कोई शक न हो.

पर जांच करने वाले पुलिस इंस्पैक्टर रवि को उस की हरकतों से शक हो गया था. पति की मौत के बाद पत्नी की जो मानसिक हालत होनी चाहिए, वह उस के बरताव से नहीं दिख रही थी. वह दुखी होने का नाटक तो कर रही थी, पर वह अच्छी कलाकार साबित नहीं हो सकी. साथ ही, वह बीमा की रकम पाने के लिए काफी उतावली भी दिख रही थी. इस तरह कैलाश की योजना नाकाम हो गई.

Holi 2024: प्यार तूने क्या किया

अनिरुद्ध आज फिर से दफ्तर 25 मिनट पहले पहुंच गया था. जब से उस के दफ्तर में नेहल आई है, उसे ऐसा लगता है कि सबकुछ रूमानी हो गया है. नेहल की झील सी आंखें, प्यारभरी मुसकान उसे सबकुछ बेहद पसंद था.

आज नेहल हरे कुरते के साथ पीला दुपट्टा पहन कर आई थी और साथ में था लाल रंग का प्लाजो… जैसे औफिस का माहौल सुरमई हो गया हो. अनिरुद्ध बहुत दिनों से नेहल के करीब जाने की कोशिश कर रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

नेहल का बेबाक अंदाज अनिरुद्ध को उस के करीब जाने से रोकता था, पर आज वह खुद को रोक नहीं पाया और उस ने नेहल को बोल ही दिया, ‘‘नेहल, आप आज एकदम सुरमई शाम के जैसी लग रही हो…’’

नेहल खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘थैंक यू.’’

धीरेधीरे नेहल के ग्रुप में अनिरुद्ध भी शामिल हो गया था. अनिरुद्ध की आंखों की भाषा नेहल खूब समझती थी, पर अनिरुद्ध का जरूरत से ज्यादा पतला होना नेहल को खलता था.

अनिरुद्ध ने एक दिन बातों ही बातों में नेहल से पूछ लिया, ‘‘नेहल, तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है क्या?’’

नेहल ने कहा, ‘‘नहीं, फिलहाल तो नहीं है, क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड माचोमैन होना चाहिए, सिक्स पैक एब्स के साथ… अगर कोई लड़का मुझे देखने की भी जुर्रत करे, तो वह उस की हड्डीपसली एक कर दे…’’

नेहल की बात सुन कर अनिरुद्ध का चेहरा उतर गया था. घर आ कर भी उस के दिमाग में नेहल की बात घूमती रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे नेहल के काबिल बने.

तभी अनिरुद्ध को अपने एक करीबी दोस्त मोंटी की याद आई. वह जिम जाने का शौकीन था.

अनिरुद्ध ने मोंटी को फोन कर के अपनी समस्या बताई, तो मोंटी बोला, ‘अरे भाई, तू मेरे पास आ जा. 2 महीने में ही नेहल तेरी बांहों में होगी.’

अनिरुद्ध फोन रखते ही मोंटी के पास पहुंच गया. वह जल्द से जल्द बौडी बनाना चाहता था.

अब अनिरुद्ध सीधे दफ्तर से जिम ही जाता था. वहां पर मोंटी के कहने पर उस ने अपना खुद का पर्सनल ट्रेनर भी रख लिया था. पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध का एक पूरा डाइट प्लान बना कर दिया था. डाइट प्लान में शामिल खाना अनिरुद्ध की जेब पर काफी महंगा पड़ रहा था, पर वह अपने दिल के हाथों मजबूर था.

एक महीना होने को आया था, पर अनिरुद्ध को अपनी बौडी में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा था. जब भी वह अपने पर्सनल ट्रेनर से यह बात कहता, तो उस का यही जवाब होता था, ‘‘अरे सर, थोड़ा समय लगता है बौडी बनाने में, लेकिन देख लेना सर, आप को कुछ ही महीनों में बदलाव नजर आने लगेगा.’’

अनिरुद्ध रातदिन बौडी बनाने के बारे में ही बात करता था. नेहल अनिरुद्ध की बात सुन कर मुसकरा देती और बोलती, ‘‘चलो देखते हैं अनिरुद्ध, तुम्हारी बौडी बन पाती है या नहीं?’’

अभी अनिरुद्ध यह सब कर ही रहा था कि उस की जिंदगी में सक्षम नाम का तूफान आ गया था. सक्षम उन की कंपनी में एकाउंट्स डिपार्टमैंट में नयानया आया था. उस का 6 फुट का कद और गठीला बदन हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था.

नेहल एक दिन अपनी सैलरी के किसी इशू को ले कर एकाउंट्स डिपार्टमैंट में गई थी और सक्षम का नंबर ले कर लौटी थी. अब सक्षम भी नेहल के ग्रुप का हिस्सा था. अनिरुद्ध को सक्षम का ग्रुप में शामिल होना नागवार लगता था, पर वह कुछ बोल नहीं पाता था.

अब अनिरुद्ध के सिर पर बौडी बनाने का जुनून सवार हो गया था. एक दिन अनिरुद्ध के पापा ने उसे समझाना भी चाहा था, ‘‘बेटा, अपनी सेहत का ध्यान रखना बहुत अच्छी बात है, पर यह पागलपन ठीक नहीं है.’’

अनिरुद्ध बोला, ‘‘पापा, मुझे इस पतलेपन से छुटकारा चाहिए. मैं नेहल के काबिल बनना चाहता हूं.’’

पापा थोड़ा सोचते हुए बोले, ‘‘बेटा, जिस रिश्ते की बुनियाद ऐसी खोखली  बातों पर टिकी हो, वैसा रिश्ता न ही बने तो अच्छा है.’’

अनिरुद्ध गुस्से में बोला, ‘‘आप नहीं समझोगे पापा. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप का बेटा अपनी सेहत के प्रति जागरूक है.’’

पापा बोले, ‘‘हां, पर अगर इस से मन का चैन छिनता है, तो यह घाटे का सौदा है.’’

अनिरुद्ध बिना कुछ जवाब दिए तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया.

अनिरुद्ध के जुनून को देखते हुए उस के पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध के डाइट प्लान में कुछ अलग तरह की खाने की चीजें शामिल कर दी थीं. कोई पाउडर भी था. पर अब अनिरुद्ध की बौडी में बदलाव आना शुरू हो गया था.

न जाने उस पाउडर में क्या था कि अनिरुद्ध को मनचाहा नतीजा मिल रहा था. आजकल वह बेहद खुश रहता था. पर बौडी बनाने और नेहल के चक्कर में बिना अपने ट्रेनर की सलाह लिए अनिरुद्ध ने उस पाउडर की खुराक दोगुनी कर दी थी. अब नेहल ही नहीं दफ्तर की हर लड़की का हीरो था अनिरुद्ध.

अनिरुद्ध ने नेहल से डेट के लिए पूछा और नेहल ने फौरन हां कर दी थी. अनिरुद्ध बेहद खुश था, क्योंकि आखिर उस की मेहनत रंग लाई और उस के प्यार की जीत हुई थी. अब अनिरुद्ध के दिन सोना और रात चांदी हो गई थी.

14 फरवरी हर प्रेमी जोड़े के लिए खास दिन होता है. अनिरुद्ध ने नेहल से पूछा, ‘‘नेहल, कल क्या मेरे साथ बाहर चलोगी?’’

नेहल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इतना शरमा क्यों रहे हो, जरूर चलेंगे और यह तो वैसे भी हमारा पहला वैलेंटाइन डे है.’’

अनिरुद्ध ने शहर के बाहर एक रिसोर्ट में बुकिंग करा ली थी. वह नेहल को जी भर कर प्यार करना चाहता था.

नेहल और अनिरुद्ध ने पहले लंच किया और फिर दोनों रूम में चले गए. अनिरुद्ध नेहल के करीब आ कर उसे चूमने लगा और नेहल भी बिना किसी विरोध के समर्पण कर रही थी.

15 मिनट बीत गए थे, पर अनिरुद्ध उस से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था. नेहल कुछ देर तक तो कोशिश करती रही और फिर चिढ़ते हुए बोली, ‘‘यार, जब कुछ कर ही नहीं सकते हो, तो फिर इतना टाइम क्यों खराब किया?’’

फिर नेहल मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिम में बौडी बन सकती है, पर वह नहीं.’’

अनिरुद्ध शर्म से पानीपानी हो रहा था. उसे तो ऐसी समस्या नहीं थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्यों उस के साथ हो रहा था. क्या उस के अंदर कोई कमी आ गई है?

अनिरुद्ध को लग रहा था कि बौडी बनाने में उस ने जो पाउडर की दोगुनी खुराक कर ली थी, क्या यह उसी का नतीजा है?

अनिरुद्ध नेहल को सब बताना चाहता था, पर जिस प्यार के लिए अनिरुद्ध ने इतना कुछ किया, वही प्यार बिना एक पल रुके पतली गली से निकल गया.

अनिरुद्ध सिर पकड़ कर बैठ गया था. बाहर रिसोर्ट में गाना चल रहा था, ‘प्यार तू ने क्या किया…’

Holi 2024: कबाड़- कैसी थी विजय की सोच

इस बार दीवाली पर जब घर का सारा सामान धूप लगा कर समेटा तब विजय के होंठों पर एक फीकी सी हंसी चली आई थी. मैं जानती हूं कि वह क्यों मुसकरा रहे हैं.

‘‘तो इस बार दीवाली पर भाई के घर जाओगी? वहां जा कर कितने दिन रहोगी? तुम जानती हो न कि तुम्हारी सूरत देखे बिना मेरी सांस नहीं चलती. जल्दी वापस आना.’’

बस स्टैंड तक छोड़ने आए विजय बारबार मेरे बैग को तोलते हुए बोले, ‘‘कितने कपड़े ले कर जा रही हो? भारी है तुम्हारा बैग. क्या ज्यादा दिन रहने वाली हो?’’

चुप हूं मैं. चुप ही तो हूं मैं, न जाने कब से. अच्छा समय बीता भाई के पास मगर जो नया सा लगा वह था मेरी भतीजी का व्यवहार.

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुकी मिनी के पास नया सामान रखने को जगह ही न थी सो उस ने बचपन का संजोया अपनी जान से भी प्यारा सामान यों खुद से अलग कर दिया मानो वास्तव में उसे संभाल कर रखे रखना कोई मूर्खता हो. खिलौने महरी को उस के बच्चों के लिए थमा दिए थे.

और भी विचित्र तब लगा जब मिनी ने अपने ही प्रिय सामान का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था.

‘‘देखो न बूआ, याद है यह बार्बी डौल, इस के लिए कितना झगड़ा किया था मैं ने भैया से. और यह लकड़ी के खिलौने, यह डब्बा देखो तो…’’

सामने सारा सामान बिखरा पड़ा था.

‘‘बच्चे थे तो कितने बुद्धू थे न हम. जराजरा सी बात पर रोते थे. यह बचकाना सामान हटा दिया. देखो, अब पूरी अलमारी खाली हो गई है…सच्ची, कितनी पागल थी न मैं जो इस कबाड़ से ही जगह भर रखी थी.’’

अच्छा नहीं लगा था मुझे उस का यह व्यवहार. आखिर हमारे जीवन में संवेदना भी तो कोई स्थान रखती है. जो कभी प्यारा था वह सदा प्यारा ही तो रहता है न, चाहे बचपन हो या जवानी. फिर जवानी में बचपन की सारी धरोहर कचरा कह कर कूड़े के डब्बे में फेंकना क्या क्रूरता नहीं है?

‘‘पुरानी चीजें जाएंगी नहीं तो नई चीजों को स्थान कैसे मिलेगा, जया. यह संसार भी तो इसी नियम पर चल रहा है न. यह तो प्रकृति का नियम है. जरा सोचो हमारे पुरखे अगर आज भी जिंदा होते तो क्या होता. कैसी हालत होती उन की?’’

‘‘कैसी निर्दयता भरी बात करते हैं विजय, अपने मांबाप के विषय में ऐसा कहते आप को शरम नहीं आती…’’

‘‘मेरी मां को कैंसर था. दिनरात पीड़ा से तड़पती थीं. मैं बेटा हूं फिर भी अपनी मां की मृत्यु चाहता था क्योंकि उन के लिए मौत वरदान थी. मुझे अपनी मां से प्यार था पर उन की मौत चाही थी मैं ने. जया, न ही जीवन सदा वरदान की श्रेणी में आता है और न ही मौत सदा श्राप होती है.’’

विजय की बातें मेरे गले में फांस जैसी ही अटक गई थीं.

‘‘जया, जीवन टिक कर रहने का नाम नहीं है. जीवन तो पलपल बदलता है, जो आज है वह कल नहीं भी हो सकता है और जीवन हम सब के चाहने से कभी मुड़ता भी नहीं. यह तो हम ही हैं जिन्हें खुद को जीवन की गति के अनुरूप ढालना पड़ता है.’’

मैं उठ कर अपनी क्लास लेने चली गई थी. जीवन का फलसफा सभी की नजर में एक कहां होता है जो मेरा और विजय का भी एक हो जाता.

एक बार विजय ने मेरे जमा किए पीतल के फूलदान, किताबों के ट्रंक, टेपरिकार्डर को कबाड़ कहा था. माना कि आज अगर पति और बेटे इस संसार में नहीं हैं तो उन का सामान क्या सामान नहीं रहा?

‘‘जब इनसान ही नहीं रहा तब उस के सामान को सहेजा क्यों जाए. जो चले गए वे आने वाले तो नहीं, तुम तो दिवंगत नहीं हो न.’’

कैसी कड़वी होती हैं न विजय की बातें, कभी भी कुछ भी कह देते हैं. मैं मानती हूं कि इतनी कड़वी बात सिर्फ वही कर सकता है जिस का मन ज्यादा साफ हो और जो खुद भी उसी हालात से गुजर चुका हो.

मैं उस दुविधा से उबर नहीं पा रही हूं जिस में मेरा खोया परिवार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया है. अपने किसी प्रिय की मौत से क्या कोई उबर सकता है?

‘‘क्यों नहीं उबर सकता? क्या मैं उबर कर बाहर नहीं आया तुम्हारे सामने. मेरे पिता तब चले गए थे जब मैं कालिज में पढ़ता था. मां का हाल तुम ने देख ही लिया. पत्नी को मैं ही रास नहीं आया… कोई जीतेजी छोड़ गया और कोई मर कर. तो क्या करूं मैं? मर तो नहीं सकता न. क्योंकि जितनी सांसें मुझे प्रकृति ने दी हैं कम से कम उन पर तो मेरा हक है न. कभी आओ मेरे घर, देखो तो, क्या मेरा घर भी तुम्हारे घर जैसा चिडि़याघर या अजायबघर है जिस में ज्ंिदा लोगों का सामान कम और मरे लोगों का सामान ज्यादा है…’’

विजय की कड़वी बातें ही बहुत थीं मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए, उस पर मिनी का व्यवहार भी बहुतकुछ हिलाडुला गया था मेरे अंतर में.

‘‘देखो न बूआ, अलमारी खोलो तो कितना अच्छा लग रहा है. लगता है सांस आ रही है. कैसा बचकाना सामान था न, जिसे इतने साल सहेज कर रखा…’’ मिनी चहकी.

जवानी आतेआते मिनी में नई चेतना, नई सोच चली आई थी जिस ने उस के प्रिय सामान को बचकाने की श्रेणी में ला खड़ा किया था. पता नहीं क्यों यह सब भी विजय के साथ बांट लिया मैं ने. जानती हूं वह मेरा उपहास ही उड़ाएंगे, ऐसा भी कह दिया तो सहसा आंखें भर आईं विजय की.

‘‘मैं इतना भी कू्रर नहीं हूं, जया. पगली, मैं भी तो उसी हालात का मारा हूं जिन की मारी तुम हो. आज 5 साल हो गए दोनों को गए… जया, वे दोनों सदा तुम्हारी यादों में हैं, तुम्हारे मन में हैं… उन्हें इतना तो सस्ता न बनाओ कि उन्हें उन के सामान में ही खोजती रहो. जो मन की गहराई में छिपा है, सुरक्षित है, वह कचरे में क्योंकर होगा…’’ मेरे सिर पर हाथ रखा विजय ने, ‘‘तुम्हारी शादी तुम्हारे पति के साथ हुई थी, इस सामान के साथ तो नहीं. लोग तो ज्ंिदा जीवनसाथी तक बदल लेते हैं, मेरी पत्नी तो मुझ ज्ंिदा को छोड़ गई और तुम यह बेजान सामान भी नहीं बदल सकतीं.’’

सहसा लगा कि विजय की बातों में कुछ गहराई है. उसी पल निश्चय किया, शायद शुरुआत हो पाए.

लौटते ही दूसरे दिन पूरे घर का मुआयना किया. पीतल का कितना ही सामान था जिस का उपयोग मुमकिन न था. उसे एकत्र कर एक बोरी में डाल दिया. महरी को कबाड़ी की दुकान पर भेजा, थोड़ी ही देर में कबाड़ी वाले की गाड़ी आ गई.

शाम को महरी पुराने कपड़ों से बरतन बदलने वाली को पकड़ लाई. मैं ने कभी कपड़ा दे कर बरतन नहीं लिए थे. अच्छा नहीं लगता मुझे.

‘‘बीबीजी, इन की भी तो रोजीरोटी है न. इस में बुरा क्या है जो आप को भी चार बरतन मिल जाएं.’’

‘‘मैं अकेली जान क्या करूंगी बरतन ले कर?’’

‘‘मेरी बेटी की शादी है, मुझे दे देना. इसी तरह साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिल जाएगा. कपड़ों का सही उपयोग हो जाएगा न बीबीजी.’’

गरदन हिला दी मैं ने.

2 ही दिन में मेरा घर खाली हो गया. ढेर सारे नए बरतन मेज पर सज गए, जिन्हें महरी ने दुआएं देते हुए उठा लिया.

‘‘बच्ची की गृहस्थी के पूरे बरतन निकल आए साहब के कपड़ों से. बरसों इस्तेमाल करेगी और आप को दुआएं देगी, बीबीजी.’’

पुरानी पीतल और किताबें बेच कर कुछ हजार रुपए हाथ में आ गए.

कालिज आतेजाते अकसर कालीन की दुकान पर बिछे व टंगे सुंदर कालीन नजर आ जाते थे. बहुत इच्छा होती थी कि मेरे घर में भी कालीन हो. पति की भी बहुत इच्छा थी, जब वह जिंदा थे.

शाम होतेहोते मेरे 2 कमरों के घर में नरम कालीन बिछ गए. पूरा घर खुलाखुला, स्वच्छ हो कर नयानया लगने लगा. अलमारी खोलती तो वह भी खुलीखुली लगती. रसोई में जाती तो वहां भी सांस न घुटती.

‘‘जया, क्या बात है 2 दिन से कालिज नहीं आई?’’ सहसा चौंका दिया विजय ने.

मैं घर की सफाई में व्यस्त थी. कालिज से छुट्टी जो ले ली थी.

‘‘अरे वाह, इतना सुंदर हो गया तुम्हारा घर. वह सारा कबाड़ कहां गया? क्या सब निकाल दिया?’’

विजय झट से पूरा घर देख भी आए. भीग उठी थीं विजय की आंखें. कितनी ही देर मेरा चेहरा निहारते रहे फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘‘उम्मीद मरने लगी थी मेरी. लगता था ज्यादा दिन जी नहीं पाओगी इस कबाड़ में. लेकिन अब लगता है अवसाद की काई साफ हो जाएगी. तुम भी मेरी तरह जी लोगी.’’

पहली बार लगा, विजय भी संवेदनशील हैं. उन का दिल भी नरम है. कुछ सोच कर कहने लगे, ‘‘मैं भी तुम जैसा ही था, जया. मां की दर्दनाक मौत का नजारा आंखों से हटता ही नहीं था. जरा सोचो, जिस मां ने मुझे जीवन दिया उसे एक आसान मौत दे पाना भी मेरे हाथ में नहीं था. क्या करता मैं? पत्नी भी ज्यादा दिन साथ नहीं रही. मैं जानता हूं कि इन परिस्थितियों में जीवन ठहर सा जाता है. फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही जीवन है.’’

विजय की आंखें झिलमिलाने लगी थीं. मेरे सिर पर अभी भी उन का हाथ था. हाथ उठा कर मैं ने विजय का हाथ पकड़ लिया. हजार अवसर आए थे जब विजय ने सहारा दिया था. सौसौ बार बहलाना भी चाहा था.

यह पहला अवसर था जब वह खुद मेरे सामने कमजोर पड़े थे. सस्नेह थाम लिया मैं ने विजय का हाथ.

‘‘मेरे पति की बड़ी इच्छा थी कि नरम कालीन हों घर में. बस, कभी मौका ही नहीं मिला था…कभी मौका मिला भी तो इतने रुपए नहीं थे हाथ में. बेकार पड़े सामान को निकाला तो उन की इच्छा पूरी हो गई. मैं ने कुछ गलत तो नहीं किया न?’’

जरा सी आत्मग्लानि सिर उठाने लगी तो फिर से उबार लिया विजय ने, यह कह कर कि नहीं तो, जया, सुंदर कालीन में भी तो तुम अपने पति की ही इच्छा देख रही हो  न. सच तो यह है कि जो जीवन की ओर मोड़ पाए वह भला गलत कैसे हो सकता है.

रोतेरोते मुसकराना कैसा लगता है. मैं अकसर रोतीरोती मुसकरा देती हूं तो विजय हाथ हिला दिया करते हैं.

‘‘इस तरह तो तुम जाने वालों को दुख दे रही हो. उन का रास्ता आसान बनाओ, पीछे को मत खींचो उन्हें. जो चले गए उन्हें जाने दो, पगली. खुश रहना सीखो. इस से उन्हें भी खुशी होगी. वह भी तुम्हें खुश ही देखना चाहते हैं न.’’

सहसा हाथ बढ़ा कर विजय ने पास खींच लिया और कहने लगे, ‘‘जीवन के अंतिम छोर तक तुम ने अपने पति का साथ दिया है. तुम किसी के साथ विश्वासघात नहीं कर रही. न अपने पति के साथ, न बेटे के साथ और न ही मेरे साथ. हम सब साथसाथ रह सकते हैं, जया.’’

विजय के हाथों को पिछले 3 साल से हटाने का प्रयास कर रही हूं मैं. विजय ने सदा मेरी इच्छा का सम्मान किया है.

लेकिन इस पल मैं ने जरा सा भी प्रयास नहीं किया. विजय स्तब्ध रह गए. उन की भावनाओं का सम्मान कर मैं पति का अपमान नहीं कर रही. धीरेधीरे विश्वास होने लगा मुझे. अविश्वास आंखों में लिए विजय ने मेरा चेहरा सामने किया. हैरान तो होना ही था उन्हें.

न जाने क्याक्या था जिस के नीचे दबी पड़ी थी मैं. कुछ यादों का बोझ, कुछ अपराधबोध का बोझ और कुछ अनिश्चय का बोझ. पता नहीं कल क्या हो.

शब्दों की आवश्यकता तो कभी नहीं रही मेरे और विजय के बीच. सदा मेरा चेहरा देख कर ही वह सब भांपते रहे हैं. भीगी आंखों में सब था. सम्मान सहित आजीवन साथ निभाने का आश्वासन. मुसकरा पड़े विजय. झुक कर मेरे माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ दिया. खुश थे विजय. मैं कबाड़ से बाहर जो चली आई थी.

Holi 2024: सतरंगी रंग

Story in Hindi

दो कदम साथ: किस दोराहे पर खड़े थे मानसी और सुलभ?

पूरे 10 साल के बाद दोनों एक बार फिर आमनेसामने खडे़ थे. नोएडा  में एक शौपिंग माल में यों अचानक मिलने पर हत्प्रभ से एकदूसरे को देख रहे थे.

सुलभ ने ही अपने को संयत कर के धीरे से पूछा, ‘‘कैसी हो, मन?’’

वही प्यार में भीगा हुआ स्वर. कोई दिखावा नहीं, कोई शिकायत नहीं. मानसी के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें, खिंचने लगीं जिन्हें उस ने यत्न से संभाला और हंसने की चेष्टा करते हुए बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

सुलभ ने ध्यान से देखा. वही 10 साल पहले वाला सलोना सा चेहरा है पर जाने क्यों तेवर पुराने नहीं हैं. अपने प्रश्नों को उस ने चेहरे पर छाने नहीं दिया. दोनों साथसाथ चलने लगे. दोनों के अंतस में प्रश्नों के बवंडर थे फिर भी वे चुप थे. सुलभ ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘तुम तो दिल्ली छोड़ कर बंगलौर मामाजी के पास चली गई थीं.’’

मानसी ने उसे देखा. इस ने मेरे एकएक पल की खबर रखी है. मुसकराने का प्रयास करते हुए उत्तर में बोली, ‘‘एक सेमिनार में आई हूं. नोएडा में भाभी से मिलने आना पड़ा. उन का फ्रैक्चर हो गया है.’’

‘‘अरे,’’ सुलभ भी चौंक पड़ा.

‘‘किस अस्पताल में हैं?’’

‘‘अब तो घर पर आ गई हैं.’’

मानसी चलतेचलते एक शोरूम के सामने रुक गई. सुलभ को याद आया कि मानसी को शौपिंग का शौक सदा से रहा है. बेहिसाब शौपिंग और फिर उन्हें बदलने का अजीब सा बचकाना शौक…यह सब सुलभ को बहुधा परेशान कर दिया करता था. पर इस समय वह चुप रहा. मानसी अधिक देर वहां नहीं रुकी. बोली, ‘‘पीहू कैसी है?’’

‘‘विवाह हो गया है उस का…अब 1 साल का बेटा भी है उस के.’’

मानसी मुसकरा दी पर उस की मुसकराहट में अब वह तीखापन नहीं था. सुलभ बारबार सोच रहा था, यह बदलाव कैसे हुआ है इस में…हुआ भी है या उस का भ्रम है यह.

सुलभ को आवश्यककार्य से जाना था. उस ने कुछ कहना चाहा उस से पहले ही मानसी का स्वर जैसे गुफाओं से गूंजता सा निकला, ‘‘और तुम्हारे बच्चे, पत्नी?’’

सुलभ ठहर गया. मानसी के चेहरे पर जो भी था वह क्या कोई पछतावा था या वही मैं के आसपास भटकने की जिद, बोला, ‘‘विवाह के बिना बच्चे कैसे हो सकते हैं. और तुम?’’

मानसी चुप रही. एक कार्ड निकाल कर उस की तरफ बढ़ा दिया और बोली, ‘‘यह मेरा मोबाइल नंबर है.’’

सुलभ ने कार्ड पकड़ लिया. औपचारिकता के नाते अपना कार्ड भी उस की तरफ बढ़ा दिया और चलते हुए बोला, ‘‘एक जरूरी मीटिंग है…’’ और आगे बढ़ गया.

उस रात सुलभ का मन बहुत व्याकुल था. कैसी विडंबना है यह कि शरीर और मन दोनों अपने होते हैं पर परिस्थितियां अपने वश में नहीं होती हैं. इसलिए तो एक आयु बीत जाने के बाद महसूस होता है कि काश, एक बार जीवन वहीं से शुरू कर सकते तो जीवन अधिक व्यवस्थित ढंग से जी पाते.

कौन गलत था कौन सही, यह सब अब सोचने का कोई लाभ नहीं है. कितना गलत होता है यह सोचना कि किसी को हम 1-2 माह की जानपहचान में अच्छी तरह समझ पाते हैं.

सुलभ को अपने दोस्त अंचित के विवाह की याद आ गई. मानसी अंचित की पत्नी सुलेखा की मित्र थी. विवाह के अवसर पर बरातियों की खिंचाई करने में सब से आगे. एक तो उस के रूपसौंदर्य का जादू, ऊपर से उस का हंसता- खिलखिलाता स्वभाव. सुलभ का मन अपने वश में नहीं था. जैसेजैसे उस का मन वश के बाहर होता जा रहा था वैसेवैसे जानपहचान उस मंजिल की ओर बढ़ चली थी जिसे प्यार कहते हैं.

प्यार का सम्मोहन कितना विचित्र होता है. सबकुछ भूल कर व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ एकदूसरे के सम्मुख प्रस्तुत करता रहता है. एकदूसरे को शीघ्र पा लेने की उत्कंठा और कुछ सोचने भी नहीं देती है. यही उन दोनों के साथ भी हुआ.

सुलभ इंजीनियर था और मानसी एक बड़े व्यवसायी की पुत्री, विवाह में बाधा क्यों आती. दोनों बहुत शीघ्र पतिपत्नी बन गए थे. विवाह से ले कर हनीमून तक सब कुछ कितना सुखद था, एक स्वप्नलोक सा. मानसी का प्यार, उस के मीठे बोल उसे हर पल गुदगुदाते रहते लेकिन घर वापस लौटते ही धीरेधीरे मानसी के स्वर बदलने लगे थे. घर में सभी उसे प्यार करते थे पर उस के मन में क्या था यह जान पाना कठिन था. उस ने एक दिन कहा था, ‘तुम्हारे यहां तो बहुत सारे लोग इस 4 कमरे के घर में रहते हैं.’

सुलभ चौंक पड़ा. यह स्वर उस की प्रेयसी का नहीं हो सकता. फिर भी मन को संयत रख कर बोला, ‘बहुत सारे कैसे, मन…मेरे मातापिता, 2 भाई, 1 बहन और 1 विधवा बूआ. ये सब हमारे अपने हैं, यहां नहीं तो और कहां रहेंगे.’

‘तुम इंजीनियर हो, इमारतें बनवाते हो. अपने लिए एक घर नहीं बनवा सकते,’ मानसी ने कहा तो वह स्तब्ध रह गया.

‘यह कैसी बातें कर रही हो, मन. पापा ने पढ़ालिखा कर मुझे इस योग्य बनाया कि मैं उन के सुखदुख में काम आऊं…और तुम काम आने की जगह अलग घर बसा लेने को कह रही हो?’

उस दिन मानसी शायद बहस करने के लिए तैयार बैठी थी. बोली, ‘तुम गलत सोचते हो. हम 2 इस घर से चले जाएंगे तो उन का खर्च भी कम हो जाएगा.’

सुलभ को अपनी नवविवाहिता पत्नी से ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी. बात टालने के लिए बोला, ‘जब तक पीहू का विवाह नहीं हो जाता मैं अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता. पीहू मेरी भी जिम्मेदारी है.’ संभवत: वही एक पल था जब पीहू के लिए मानसी के मन में चिढ़ पैदा हुई थी.

ऐसी छोटीछोटी बातें अकसर उन दोनों के बीच उलझन बन कर छाने लगीं. घर के सभी लोगोें को  यह सब समझ में आने लगा था पर कोई भी विवाद बढ़ाना नहीं चाहता था. मां को उम्मीद थी कि कुछ दिनों में मानसी नई स्थिति से समझौता करना सीख जाएगी. इसलिए कभीकभी उसे समझाने के प्रयास में कहतीं, ‘बेटा, अपने घर से अलग अकसर वे सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जिन की बचपन से आदत होती है…तुम्हें भी धीरेधीरे इस नए वातावरण का अभ्यास हो जाएगा.’

मानसी ने इस पर बिफर कर कहा था, ‘लेकिन मम्मीजी, यह क्या बात हुई कि विवाह के बाद लड़की ही अपना अस्तित्व मिटा दे, लड़के क्यों नहीं नए सांचे में ढलना चाहते हैं?’

‘ठीक कहती हो बेटा, लड़कों को भी समझौता करना चाहिए,’ मम्मी धीरे से बोल गई थीं और सुलभ की ओर देख कर कहा, ‘शादी की है तो अपनी जिम्मेदारियों को भी समझना सीखो. अभी से इस का दिल दुखाओगे तो आगे क्या करोगे.’

‘मम्मीजी, मुझे पता है कि आप मेरा मन रखने के लिए यह बात कर रही हैं. अंदर से तो आप को मेरी बात बुरी ही लगी है,’ मानसी ने तुरंत कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है.’

मां समझा रही थीं या फुजूल में गिड़गिड़ा रही थीं, सुलभ समझ नहीं पाया था. फिर भी कह  बैठा, ‘मम्मी, इसे समझाने की कोई जरूरत नहीं है,’ और क्रोध से पैर पटकते चला गया था.

मन में बहुत बड़ा झंझावात उठा था. न खानेपीने में मन  लग रहा था, न मित्रों से गपशप में. पार्क में जा कर बैठा तो भी मन उदास रहा. वहां जाने कितने प्यारेप्यारे बच्चे खेल रहे थे. उन की किलकारियां और शरारतें उसे भा तो रही थीं पर कुछ इस तरह जैसे कोई बहुत ही सुगंधित सी बयार उसे छू कर बेअसर सी गुजर जाए.

उसे बारबार याद आ रही थी वह रात जब प्यार के सम्मोहन में डूब उस ने मानसी से कहा था, ‘मानसी, मुझे पापा कब बनाओगी?’

मानसी ने भी प्यार के मधुर रस में डूब कर कहा था, ‘अभी मुझे मां नहीं बनना है.’

‘क्यों?’

‘अभी मेरी उम्र ही क्या है,’ मानसी इतरा कर बोली.

‘हां, यह तो है, जितनी जल्दी मां बनोगी उतनी जल्दी जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी,’ सुलभ ने सहजता से कह कर उस का चुंबन ले लिया. पर यह क्या? मानसी जैसे बिफर कर उठ बैठी.

‘जिम्मेदारियां तो इस घर में कदम रखते ही मेरे तमाम सपनों पर काले बादलों सी मंडराने लगी हैं. ’

मन जब प्यार की उमंग में डूबा हुआ हो और ऐसे में पत्नी प्यार का रुख मोड़ कर आंधियों के हवाले कर दे तो बेचारा पति हक्काबक्का होने के अलावा और क्या करे.

‘किन बादलों की बात कर रही हो?’ सुलभ आश्चर्य और खीज से देखते हुए बोला था.

‘क्यों, मेरे जीवन पर तुम्हारे मातापिता, भाईबहन का साया मेरे सपने तोड़ता रहता है और वह विधवा बूआ सुबहसुबह उस के दर्शन करो.’

‘मानसी…’ सुलभ की आवाज तल्ख हो उठी.

‘चिल्लाओ मत,’ मानसी भी उतने ही आवेग से बोली, ‘वह तुम्हारी प्यारी बहन पीहू…जब तक उस का विवाह नहीं हो जाता हम अपने शौक पूरे नहीं कर सकते. मेरे सारे अरमान घुट रहे हैं इसलिए कि तुम्हारे पापा के पास पीहू के लिए ज्यादा पैसे नहीं हैं.’

‘बस, मानसी बहुत कह दिया,’ सुलभ के अंदर का प्रेमी अचानक बिफर कर पलंग से उठ गया, ‘तुम्हारे संस्कारों में रिश्तों का महत्त्व नहीं है तो न सही…मेरी दुनिया इतनी छोटी नहीं कि पतिपत्नी से आगे हर रिश्ता बेमानी लगे.’

सुलभ कमरे से उठ कर बाहर चला गया. धीरेधीरे ऐसी तकरारें बढ़ने लगीं तब मां ने एक दिन सुलभ को एकांत में समझाया, ‘अगर मानसी अलग रहना चाहती है तो मान ले उस की बात. शादी की है तो निभाने के रास्ते निकाल. शायद दूर रह कर वह सब के प्यार को समझ सके.’

सुलभ मां की बातों पर विचार ही करता रह गया और मानसी अचानक अपने पापा के यहां चली गई. उस समय सब को लगा था कि वह कुछ दिन में वापस आ जाएगी पर सुलभ के बुलाने पर भी मानसी नहीं लौटी.

मां ने कई बार उसे बुलाने भेजा था पर मानसी ने कहा कि उस की तरफ से सुलभ पूरी तरह हर बंधन से आजाद है. जब चाहे दूसरी शादी कर ले, वह कभी नहीं आएगी.

मां को फिर भी भरोसा था कि कुछ माह में मानसी जरूर वापस आ जाएगी पर जाने कैसी जिद या शायद घमंड पाल कर बैठ गई थी मानसी. एक साल के अंदर तलाक का नोटिस आ गया था. आशाओं की अंतिम डोर भी टूट गई थी.

मानसी दिल्ली छोड़ कर अपने मामा के यहां बंगलौर चली गई थी. उस के मामाजी बहुत बड़े व्यापारी थे. विदेशों में भी उन का काम फैला हुआ था. मानसी का सपना भी बहुत पैसा था. शायद वहां मानसी ने उन की सहायता कर के अपना सपना साकार करना चाहा था.

सुलभ ने अपनी सोच को परे धकेल कर करवट ली. जाने कैसी व्याकुलता थी. उठ कर बैठ गया. पानी पी कर मेज पर पड़ा मानसी का कार्ड देखने लगा. विचारों का झंझावात फिर परेशान करने लगा.

मानसी को मामाजी के घर अपार वैभव का सुख था. उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए उसे बेटी जैसा प्यार मिल रहा था. फिर भी मानसी के चेहरे पर कैसी उदासी थी. उस ने शायद  विवाह भी नहीं किया. क्या अकेलेपन की उदासी थी उस के चेहरे पर या अब उसे रिश्तों की परख हो गई है.

रात के 11 बज चुके थे. फोन के पास बैठ कर भी उसे साहस नहीं हुआ कि मानसी को फोन करे. वह चुपचाप पलंग पर लेट गया. अपने ही मन से प्रश्न करने लगा… यह क्या हो रहा है मन को? इतने वर्षों तक वह मानसी को भूल जाने का भ्रम पाले हुए था पर अब क्यों मन व्याकुल है. क्या मानसी भी उस से बहुत सी कहीअनकही बातें करना चाहती होगी? अपने ही प्रश्नों से घिरा सुलभ सोने का व्यर्थ प्रयास करने लगा.

अभी अधिक समय नहीं बीता था कि उस का मोबाइल बजने लगा. उस ने बत्ती जला कर देखा और मुसकरा उठा.

‘‘हैलो, मन.’’

‘‘जाग रहे हो?’’ उधर से मानसी का विह्वल स्वर गूंजा.

‘‘हां, सोच रहा था कि तुम्हें फोन करूं या नहीं,’’ सुलभ ने अपने मन की बात कह दी. पहले भी कभी वह मानसी से कुछ छिपा नहीं पाता था.

‘‘तो किया क्यों नहीं?’’ मानसी ने प्रश्न किया, ‘‘शायद इसलिए कि अभी तक तुम ने मुझे क्षमा नहीं किया है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, भूल तो हम दोनों से हुई है. मेरे मन में जरा भी मैल होता तो अब तक मैं दूसरी बार घर बसा चुका होता,’’ सुलभ ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कह दी.

उधर से कुछ पल सन्नाटा रहा, फिर एक धीमी सी वेदनामय आवाज गूंजी, ‘‘घर तो मैं भी नहीं बसा सकी. शुरू में वह सब जिद में किया, फिर धीरेधीरे अपनी गलतियों का एहसास जागा तो तुम्हारी याद ने वैसा नहीं करने दिया.’’

दोनों तरफ फिर मौन पसर गया. दोनों के मन में हलचल थी. शायद समय को मुट््ठी में कैद कर लेने की चाहत जाग उठी थी.

एक पल के सन्नाटे के बाद ही उसे मानसी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘सुलभ, मेरी बात को तुम पता नहीं कैसे लोगे पर बहुत दिनों से मन में एक बात थी और मैं चाहती थी कि तुम्हें बताऊं. क्या तुम से वह बात शेयर कर सकती हूं?’’

‘‘मानसी, भले ही अब हम साथसाथ नहीं हैं पर कभी हम ने हर कदम पर एकदूसरे का साथ देने का वचन दिया था… बोलो, क्या बात है?’’

‘‘जानती हूं, सुलभ. मेरा ही दोष है, जो दो कदम भी तुम्हारे साथ नहीं चल सकी,’’ और इसी के साथ मोबाइल पर फिर सन्नाटा पसर गया…फिर एक आवाज जैसे किसी कंदरा से घूमती हुईर् उस तक पहुंची.

‘‘सुलभ, तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें एक बच्चे का पिता बनाऊं. तुम ने मेरे विवाह के बारे में पूछा था तो मैं ने दूसरी शादी नहीं की, लेकिन मैं एक बच्ची की मां हूं…क्या तुम उस के पिता बनना पसंद करोगे?’’

‘‘क्या?’’ सुलभ चौंक कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘हां, सुलभ, मैं ने विवाह नहीं किया तो क्या, मैं मां हूं, एक प्यारी सी बेटी की मां, 2 साल पहले उसे गोद लिया था.’’

सुलभ चकित हो कर सुन रहा था. क्या यह सचमुच मानसी का स्वर था, जिसे बच्चे पसंद नहीं थे, जिसे घर में भीड़ पसंद नहीं थी, यह वही मानसी है…

अभी वह सोच ही रहा था कि मानसी ने फिर कहा, ‘‘जाने दो, सुलभ, मैं ने तो…’’

‘‘मानसी, हमारी बेटी का नाम क्या है?’’ सुलभ बोला तो मानसी का स्वर खुशी से लहराता हुआ आया, ‘सुरीली.’’

मानसी को उस का वह सपना भी याद था. हनीमून पर उस ने कहा था, ‘मन, जब कभी हमें बेटी होगी उस का नाम हम सुरीली रखेंगे.’

वह भावविभोर हो कर उठा और बोला, ‘‘थैंक्स मन, मैं अभी तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं.’’

‘‘इतनी रात में?’’ मानसी का स्वर उस ने अनसुना करते हुए कहा, ‘‘अब और कुछ नहीं, पहले ही जीवन के बहुत सारे पल हम ने गंवा दिए हैं.

Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

अंधेरे से उजाले की ओर

कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

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