बड़ी लकीर छोटी लकीर: भाग 1

ढोलककी थाप रहरह कर मेरे कानों में चुभ रही थी. कल ही तो खबर आई थी कि मैं ने शेयर बाजार में जो पैसा लगाया है वह सारा डूब गया. कहां तो मैं एक बड़ी लकीर खींच कर एक लकीर को छोटा करना चाहता था और कहां मेरी लकीर और छोटी हो गई.

तभी शिखा मुसकराती हुई आई और मेरे हाथ में गुलाबजामुन की प्लेट पकड़ा कर बोली, ‘‘खाओ और बताओ कैसे बने हैं?’’

मैं उसे और बोलने का मौका नहीं देना चाहता था, इसलिए बेमन से खा कर बोला, ‘‘बहुत अच्छे.’’

मगर उसी दिन पता चला कि किसी भी व्यंजन का स्वाद उस के स्वाद पर नहीं उसे किस नीयत से खिलाया जाता है उस पर निर्भर करता है.

शिखा बोली, ‘‘अनिल जीजा और नीतू

दीदी की मुंबई के होटल की डील फाइनल हो

गई है. उन्होंने ही सब के लिए ये गुलाबजामुन मंगाए हैं.’’

सुनते ही मुंह का स्वाद कड़वा हो गया. यह लकीरों का खेल बहुत पहले से शुरू हो गया था, शायद मेरे विवाह के समय से ही. मेरा नाम सुमित है, शादी के वक्त में 24 वर्षीय नौजवान था, जिंदगी और प्यार से भरपूर. मेरी पत्नी शिखा बहुत प्यारी सी लड़की थी. उसे अपनी जिंदगी में पा कर मैं बहुत खुश था. सच तो यह था कि मुझे यकीन ही नहीं था कि इतनी सुंदर और सुलझी हुई लड़की मेरी पत्नी बनेगी. पर विवाह के कुछ माह बाद शुरू हो गया एक खेल. पता नहीं वह खेल मैं ही खेल रहा था या दूसरी तरफ से भी हिस्सेदारी थी.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं पहली बार ससुराल गया था. मेरी बड़ी साली के पति हैं अनिल. चारों तरफ उन का ही बोलबाला था.

‘‘अनिल अभी भी एकदम फिट है. इतना युवा लगता है कि घोड़ी पर बैठा दो,’’ यह शिखा की मौसी बोल रही थीं.

पता नहीं हरकोई क्यों बस बहू के बारे में ही कहानियां लिखता है. एक दामाद के दिल में भी धुकधुक रहती है कि कैसे वह अपने सासससुर और परिवार को यकीन दिलाए कि वह उन की राजकुमारी को खुश रखेगा और मेरे लिए तो यह और भी मुश्किल था, क्योंकि मुझे तो एक लकीर की माप में और बड़ी लकीर खींचनी थी. मेरा एक काबिल पति और दामाद बनने का मानदंड ही यह था कि मुझे अनिल से आगे नहीं तो कम से कम बराबरी पर आना है.

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आप सोच रहे होंगे, कैसी पत्नी है मेरी या कैसी ससुराल है मेरी. नहीं दोस्तो कोई मुंह से कुछ नहीं बोलता पर आप को खुद ही यह महसूस होता है, जब आप हर समय बड़े दामाद यानी अनिल के यशगीत सुनते हो.

मैं पता नहीं क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी वजन कम नहीं कर पा रहा था. उस दिन अनिल अपनी पत्नी के साथ हमारे घर आया था. मजाक करते हुए बोला, ‘‘सुमित, तुम थोड़ा कपड़ों पर ध्यान दो. यह वजन घटाना तुम्हारे बस की बात नहीं है.’’

उस की पत्नी नीतू भी मंदमंद मुसकरा रही थी और मेरी पत्नी शिखा को अपने हीरे के मोटेमोटे कड़े दिखा रही थी. मेरे अंदर उस रोज कहीं कुछ मर गया. शर्म आ रही थी मुझे. शिखा अपनी सब बहनों में सब से सुंदर और समझदार है पर मुझ से शादी कर के क्या सुख पाया. न मैं शक्ल में अच्छा हूं और न ही अक्ल में. फिर मैं ने लोन ले कर एक घर ले लिया. मेरी सास भी आईं पर जैसे मैं ने सोचा था उन्होंने वही किया.

शिखा के हाथों में उपहार देते हुए बोलीं, ‘‘सुमित, क्या अनिल से सलाह नहीं ले सकता था? कैसी सोसाइटी है और जगह भी कोई खास नहीं है.’’

शिखा के चेहरे पर वह उदासी देख कर अच्छा नहीं लगा. खुद को बहुत बौना महसूस कर रहा था. फिर शिखा की मम्मी पूरा दिन अनिल के बंगले का गुणगान करती रहीं. मुझे ऐसा लगा कि मैं तो शायद उस दौड़ में भाग लेने के भी काबिल नहीं हूं.

दिन बीतते गए और हफ्तों और महीनों में परिवर्तित होते गए. दोस्तो आप सोच रहे होंगे, गलती मेरी ही है, क्योंकि मैं इस तुलनात्मक खेल को खेल कर अपने और अपने परिवार को दुख दे रहा था. आप शायद सही बोल रहे होंगे पर तब कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शिखा बहुत अच्छी पत्नी थी, कभी कुछ नहीं मांगती. मेरे परिवार के साथ घुलमिल कर रहती, पर उस का कोई भी शिकायत न करना मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता. ऐसा लगता मैं इस काबिल भी हूं…

आज मैं जब दफ्तर से आया तो शिखा बहुत खुश लग रही थी. आते ही उस ने मेरे हाथ में एक बच्चे की तसवीर पकड़ा दी. समझ आ गया, हम 2 से 3 होने वाले हैं. अनिल का फोन आया मेरे पास बधाई देने के लिए पर फोन रखते हुए मेरा मन कसैला हो उठा था. वह तमाम चीजें बता रहा था जो मेरी औकात के परे थीं. वह वास्तव में इतना भोला था या फिर हर बार मुझे नीचा दिखाता था, नहीं मालूम, मगर मैं जितनी भी अपनी लकीर को बड़ा करने की कोशिश करता वह उतनी ही छोटी रहती.

अनिल के पास शायद कोई पारस का पत्थर था. वह जो भी करता उस में सफल ही होता और मैं चाह कर भी सफल नहीं हो पा रहा था.

जैसेजैसे शिखा का प्रसवकाल नजदीक आ रहा था मेरी भी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मेरी मां तो हमारे साथ रहती ही थीं पर मैं ने खुद ही पहल कर के शिखा की मां को भी बुला लिया. मुझे लगा शिखा बिना झिझक के अपनी मां को सबकुछ बता सकेगी पर मुझे नहीं पता था यह उस के और मेरे रिश्ते के लिए ठीक नहीं है.

शिखा अपनी मां के आने से बहुत खुश थी. 1 हफ्ते बाद की डाक्टर ने डेट दी थी. शिखा की मां उस के साथ ही सोती थीं. पता नहीं वे रातभर मेरी शिखा से क्या बोलती रहती थीं कि सुबह शिखा का चेहरा लटका रहता. मैं गुस्से और हीनभावना का शिकार होता गया.

मुझे आज भी याद है अन्वी के जन्म से 2 रोज पहले शिखा बोली, ‘‘सुमित, हम भी एक नौकर रख लेंगे न बच्चे के लिए.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्यों शिखा, हमारे घर में तो इतने सारे लोग हैं.’’

शिखा मासूमियत से बोली, ‘‘अनिल जीजाजी ने भी रखा था, करिश्मा के जन्म के बाद.’’

खुद को नियंत्रित करते हुए मैं ने कहा, ‘‘शिखा वे अकेले रहते हैं पर हमारा पूरा परिवार है. तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा.’’

मगर अनिल का जिक्र मुझे बुरी तरह खल गया. शिखा कुछ और बोलती उस से पहले ही मैं बुरी तरह चिल्ला पड़ा. उस की मां दौड़ी चली आईं. शिखा की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. मैं उसे कैसे मनाता, क्योंकि उस की मां ने उसे पूरी तरह घेर लिया था. मुझे बस यह सुनाई पड़ रहा था, ‘‘हमारे अनिल ने आज तक नीतू से ऊंची आवाज में बात नहीं करी.’’

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मैं बिना कुछ खाएपीए दफ्तर चला गया. पूरा दिन मन शिखा में ही अटका रहा. घर आ कर जब तक उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी तब तक चैन नहीं आया.

10 मई को शिखा और मेरे यहां एक प्यारी सी बेटी अन्वी हुई. शिखा का इमरजैंसी में औपरेशन हुआ था, इसलिए मैं चिंतित था पर शिखा की मां ने शिखा के आगे कुछ ऐसा बोला जैसे मुझे बेटी होने का दुख हुआ हो. कौन उन्हें समझाए अन्वी तो बाद में है, पहले तो शिखा ही मेरे लिए बहुत जरूरी है.

मैं हौस्पिटल में कमरे के बाहर ही बैठा था. तभी मेरे कानों में गरम सीसा डालती हुई एक आवाज आई, ‘‘हमारे अनिल ने तो करिश्मा के होने पर पूरे हौस्पिटल में मिठाई बांटी थी.’’

मैं खिड़की से साफ देख रहा था. शिखा के चेहरे पर एक ऐसी ही हीनभावना थी जो मुझे घेरे रहती थी. शिखा घर आ गई पर अब ऐसा लगने लगा था कि वह मेरी बीवी नहीं है, बस एक बेटी है. रातदिन अनिल का बखान और गुणगान, मेरे साथसाथ मेरे घर वाले भी पक गए और उन को भी लगने लगा शायद मैं नकारा ही हूं. घर के लोन की किस्तें और घर के खर्च, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. फिर मैं ने कुछ ऐसा किया जहां से शुरू हुई मेरे पतन की कहानी…

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

नहले पर दहला

लेखक- रामचरन हर्षाना

बड़े शहरों में ऐसा बहुत कम होता है कि कोई आसपास रह रहे लोगों पर अपनी निगाहें जमाए रखे और कोई क्या कर रहा है, कहां जा रहा है, किस से मिल रहा है, यह सब एक खुफिया जासूस की तरह अपनी पैनी नजरों से देखता रहे.

21वीं सदी की ऐसी दौड़धूप से भरी जिंदगी में भला किसे ऐसा वक्त मिलता होगा? फिर ऐसी हरकत करने से कोई फायदा भी तो नहीं है. ख्वाहमख्वाह समय की बरबादी और दिमाग को परेशान करना. बड़े शहरों के बुद्धिमान लोग ऐसा कभी नहीं करेंगे, लेकिन वहां सभी बुद्धिमान ही रहते हों, ऐसा तो कभी नहीं होगा. वहां कुछ अक्ल के कच्चे और सनकी लोग आज भी मौजूद हैं.

इस कहानी का हीरो भी कुछ ऐसी ही सनक से भरा हुआ था. उस का बिहारी दास नाम था. फिर उसे काम भी अपनी पसंद का ही मिला था. उसे एक कुरियर कंपनी में डिलीवरी बौय की नौकरी मिल गई थी, जिस वजह से उसे इधरउधर भटकने का मौका मिलता था. यह काम वह बड़े जोश से करता था. फिर रोजाना 100-150 लिफाफे 2-3 घंटे में ही उन के पते पर पहुंचा कर वह अपना काम पूरा कर डालता था. इस के बाद सारा दिन उसे कुछ नहीं करना होता था.

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तब वह भला क्या करता? बारीबारी से एक पान की दुकान और ट्रैवल एजेंसी की दुकान पर बैठ कर अपना टाइमपास करता रहता था. उस का घर दसमंजिला बिल्डिंग के एक फ्लैट में तीसरी मंजिल पर था. उस बिल्डिंग में रह रहे सभी लोगों को वह करीबकरीब जानता था. हां, यह बात अलग थी कि सभी से वह गहरी पहचान नहीं बना पाया था.

उसी बिल्डिंग में एक अधेड़ उम्र के शख्स तिवारीजी रहते थे, जो किसी बैंक में काम करते थे और अकेले रहते थे. बिहारी दास ने अपनी कुछ घंटों की मुलाकात में यह जान लिया था कि उन की पत्नी की उन से बनती नहीं थी और दोनों अलग रह रहे थे.

वैसे तो वे अकेले ही रहते थे, मगर उन के घर पर एक खूबसूरत लड़की को बिहारी दास ने कई बार आतेजाते देखा था. फिर जब उन से पूछा गया कि वह कौन है, तब उन्होंने कुछ अनमने भाव से कह दिया था कि वह उन की भतीजी है.

मगर, बिहारी दास की पैनी नजर ने उन के झूठ को पहचान लिया था. बाद में तिवारीजी ने बिहारी दास से बात करना छोड़ दिया था, लेकिन बिहारी दास ने ठान लिया था कि वह तिवारीजी का भांड़ा जरूर फोड़ कर रहेगा.

जैसा कि बड़े शहरों में होना लाजिमी है, बिहारी दास की बिल्डिंग में हलकेफुलके गैरकानूनी काम भी होते थे, जिन के बारे में उसे सब पता था. 10वीं मंजिल पर एक मसाज पार्लर चल रहा था, जहां लड़केलड़कियों की भीड़ लगी रहती थी. वहां मसाज के बहाने कुछ और ही चल रहा था.

हालांकि कुछ महीने पहले बिहारी दास ने फोन कर के वहां पुलिस भी बुला ली थी, जिस ने अचानक छापा मार कर मसाज पार्लर के मालिक सज्जन सिंह के साथ पैसों का गुपचुप लेनदेन किया और वहां से चल दी थी.

सज्जन सिंह को कतई पता नहीं चला कि आखिर पुलिस को सूचना किस ने दी थी. बिहारी दास मन ही मन खुश हो रहा था.

जैसा कि बिहारी दास का स्वभाव था, वह हमेशा ध्यान रखता कि बिल्डिंग के फ्लैट में कौन आजा रहा है, कौन सा फ्लैट खाली हुआ और किस ने खरीदा या कौन नया किराएदार आया है या आई है और किराएदार क्या करते हैं. यह सब वह अपनेआप चालाकी से जान लेता था.

अपनी इस हरकत के चलते बिहारी दास अकसर घर से बाहर रहता था और किसी अमीर कारोबारी की तरह देरी से घर लौटता था.

बिहारी दास की पत्नी राधिका ने उस से एतराज भी जताया था, ‘‘आखिर क्या करते रहते हो सारा दिन? रात को जल्दी क्यों नहीं लौटते?’’

‘‘शहर में अगर टिकना हो तो हमेशा चौकन्ना रहना पड़ता है,’’ बिहारी दास फख्र से बताता था.

बिहारी दास की पत्नी राधिका खूबसूरत थी, मगर उसे शायद इस का एहसास न था. उस की नजर हमेशा बाहर आजा रही लड़कियों पर टिकी रहती. कई बार तो सड़क के किनारे चलतेचलते अपने मोबाइल फोन पर बात कर रही किसी लड़की की बातों को वह पास से गुजरते हुए सुनने की कोशिश करता. वह प्यार से बात कर रही है या नाराज हो कर, यह पकड़ने की कोशिश करता.

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कई बार तो बिहारी दास लड़की से कुछ ही दूरी पर खड़ा रह जाता और जब तक वह बातें पूरी न कर लेती, वह वहीं खड़ा रहता. फिर अगर लड़की गुस्से में अपना मोबाइल फोन बंद कर लेती तो वह मन ही मन हंस पड़ता, ‘बेचारी… अपने यार से खफा है.’

तिवारीजी पर अब बिहारी दास अपनी पैनी आंखें गड़ाए हुए था. बिल्डिंग में जैसे ही वह उस लड़की को देखता, उस के पीछे चल देता और देखता कि वह तिवारीजी के घर ही गई है या नहीं. फिर वह बिल्डिंग के सामने पान की दुकान पर बैठ कर उस लड़की के बाहर निकलने का इंतजार करता रहता. जब वह चली जाती, तब वह तिवारीजी के घर किसी बहाने पहुंच जाता.

‘‘आप के पास क्या 2,000 रुपए के खुले हैं?’’

जब तिवारीजी उसे खुले पैसे दे देते, तो वह बातचीत शुरू कर देता था.

‘‘वह मिस जो आप के यहां आई थी, उस की स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी. तुरंत सुखबीर गैराज वाले को बुला लिया और उस ने ठीक करा दी. क्या वह बहुत दूर रहती है?’’

‘‘हां, रहती तो दूर है, मगर शहर में दूर क्या और नजदीक क्या? स्कूटी तो हर किसी के लिए जरूरी है,’’ तिवारीजी ने कुछ नाराजगी से बोला. इस पर बिहारी दास खिसिया कर रह गया.

एक दिन शाम को दीपक की पान की दुकान पर बैठे बिहारी दास ने उसी लड़की को किसी लड़के के साथ बिल्डिंग से निकलते हुए देखा.

‘‘अरे, इस के साथ यह लड़का कौन हैं…’’ बिहारी दास के मुंह से अचानक ही यह सवाल निकल पड़ा.

‘‘ये तो रोज ही साथसाथ निकलते हैं…’’ पान वाले दीपक ने उन की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मैं इन्हें हरदम इसी वक्त देखता हूं.’’

‘‘यह तो तिवारीजी की भतीजी है,’’ बिहारी दास ने उन्हीं दोनों पर नजर जमाए हुए शक जाहिर किया, ‘‘कहीं तिवारीजी कोई खेल तो नहीं खेल रहे?’’

बिहारी दास ने मन में ठान लिया कि वह तिवारीजी की भतीजी की सचाई का पता लगा कर ही रहेगा.

‘‘देख दीपक…’’ बिहारी दास ने गंभीरता से कहा, ‘‘आइंदा तू जब भी इन दोनों को यहां आते या निकलते देखे, तो फौरन मुझे बता देना. मेरा फोन नंबर है न तेरे पास?’’

दीपक ने सहयोग देने के लिए हामी भरी.

अगले ही दिन रात को अपने दोस्तों के साथ जब बिहारी दास एक रैस्टोरैंट में खाना खा रहा था कि तभी दीपक का फोन आ गया.

‘दासजी, जल्दी आइए. वह लड़की किसी के साथ अभीअभी बिल्डिंग के अंदर गई है.’

चूंकि बिहारी दास खाना अधूरा छोड़ कर नहीं निकल सकता था, इसलिए उसे अपने घर वापस आतेआते एकाध घंटा बीत गया. वह जल्दी ही लिफ्ट से सीधा 5वीं मंजिल पहुंच गया, जहां तिवारीजी का फ्लैट था. वह किसी बहाने तिवारीजी के फ्लैट में घुस कर उस की भतीजी और उस लड़के को रंगे हाथ पकड़ना चाहता था.

बिहारी दास जल्दीजल्दी फर्लांग भरते हुए फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचा और उस ने सीधे ही डोरबैल बजाई.

कुछ देर बाद दरवाजा खुला और वह लड़की, जिसे तिवारीजी अपनी भतीजी कह रहे थे, बिहारी दास के सामने खड़ी थी.

‘‘जी, आप को किस से मिलना है?’’

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बिहारी दास को देख कर वह लड़की हैरान थी.

‘‘जी, मैं… तिवारीजी का पड़ोसी हूं. उन से मिलना था,’’ बिहारी दास कुछ सहम कर बोला, फिर उस ने अंदर झांक कर देख लिया. वह लड़का सोफे पर लेटे हुए टीवी देख रहा था.

‘‘आप… आप दास बाबू तो नहीं?’’ वह लड़की घूर कर बिहारी दास के चेहरे को देख रही थी, ‘‘तिवारी अंकल आप का जिक्र करते रहते हैं. आप तीसरी मंजिल पर रहते हैं न?’’

‘‘जी, बिलकुल,’’ बिहारी दास को एक झटका सा लगा, ‘क्या तिवारी ने इसे सबकुछ बता दिया है?’ वह सोचने लगा.

‘‘आप की बीवी का नाम राधिका है न?’’ कह कर वह लड़की मुसकरा दी, ‘‘अंकल आप के यहां ही गए हैं. कहते हैं, राधिका चाय अच्छी बनाती हैं. मैं पी कर आता हूं.

‘‘मैं रोजाना शाम को उन के लिए खाना बनाने अपने मंगेतर के साथ आती हूं. वे अभी आप ही के यहां गए होंगे. आप अंदर आइए न,’’ वह लड़की बड़ी मीठी आवाज में बोल कर उसे अंदर आने की गुजारिश करने लगी.

लेकिन, बिहारी दास को बिजली सा झटका लगा, ‘तिवारीजी और मेरे घर… वह भी मेरी गैरहाजिरी में…’

एक ही पल में बिहारी दास पर मानो पहाड़ सा टूट पड़ा. वह उलटे पैर वहां से निकल कर सीधा लिफ्ट से उतर कर अपने फ्लैट की तरफ दौड़ा. उस के दिमाग को अनेकानेक शक ने घेर लिया. उसे लगा कि अपना खेल खत्म होने जा रहा है. उस का पड़ोसी तिवारी उस से कहीं गुना ज्यादा चालाक निकला.

वह हरगिज भरोसे के लायक शख्स नहीं था, फिर बिहारी दास की बीवी राधिका तो बेचारी भोली थी. कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई.

बिहारी दास के पैर रास्ते में ही भारीपन महसूस करने लगे. अब वह धीरेधीरे सहम कर अपने फ्लैट के दरवाजे तक पहुंचा ही था कि तुरंत दरवाजा खुला और तिवारीजी हंसते हुए बाहर निकले.

‘‘अरे, दासजी आप… आप तो हमेशा रात को देरी से लौटते हैं. आज जल्दी लौट आए,’’ फिर तीर सा पैना व्यंग्य कसते हुए तिवारीजी बोले, ‘‘राधिका भाभीजी चाय बढि़या बनाती हैं. अब तो हमें उस की आदत सी हो गई है.’’

तिवारीजी चल पड़े, मगर बिहारी दास को लगा मानो उस के पैर तले जमीन सरकने लगी थी. अपने घर में घुसते ही वह बैठक में रखे सोफे पर ढेर हो गया.

बड़ी लकीर छोटी लकीर: भाग 2

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मैं ने इधरउधर से 1 लाख उधार लिए और बहुत बड़ा जश्न किया. शिखा के लिए भी एक बहुत प्यारी नारंगी रंग की रेशम के काम की साड़ी ली. उस में शिखा का गेहुआं रंग और निखर रहा था. उस की आंखों में सितारे चमक रहे थे और मुझे अपने पर गर्व हो रहा था.

फिर किसी और से उधार ले कर मैं ने पहले व्यक्ति का उधार चुकाया और फिर यह धीरेधीरे मेरी आदत में शुमार हो गया.

मेरी देनदारी कभी मेरी मां तो कभी भाई चुका देते. शिखा और अन्वी से सब प्यार करते थे, इसलिए उन तक बात नहीं पहुंचती थी.

ऐसा नहीं था कि मैं इस जाल से बाहर नहीं निकलना चाहता था पर जब सब खाक हो जाता है तब लगता है काश मैं पहले शर्म न करता या शिखा से पहले बोल पाता. मैं एक काम कर के अपनी लकीर को थोड़ा बढ़ाता पर अनिल फिर उस लकीर को बढ़ा देता.

यह खेल चलता रहा और फिर धीरेधीरे मेरे और शिखा के रिश्ते में खटास आने लगी.

शिखा को खुश करने की कोशिश में मैं कुछ भी करता पर उस के चेहरे पर हंसी न ला पाता. शिखा के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था. उसे लगने लगा था मैं कभी कुछ भी ठीक नहीं कर सकता या मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिखा मेरे बारे में ऐसा सोचती है.

अन्वी 2 साल की हुई और शिखा ने एक दफ्तर में नौकरी आरंभ कर दी. मुझे काफी मदद मिल गई. मैं ने नौकरी छोड़ कर व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए. शिखा ने अपनी सारी बचत से और मेरी मां ने भी मेरी मदद करी.

2-3 माह में थोड़ाथोड़ा मुनाफा होने लगा. उस दौड़ में पहला स्थान प्राप्त करने के चक्कर में मैं शायद सहीगलत में फर्क को नजरअंदाज करने लगा. थोड़ा सा पैसा आते ही दिलखोल कर खर्च करने लगा. अचानक एक दिन साइबर सैल से पुलिस आई जांच के लिए. पता चला कि मेरी कंपनी के द्वारा कुछ ऐसे पैसे का लेनदेन हुआ है जो कानून के दायरे में नहीं आता है. एक बार फिर से मैं हाशिए पर आ खड़ा हो गया. जितना कामयाब होने की कोशिश करता उतनी ही नाकामयाबी मेरे पीछेपीछे चली आती.

शिखा ने कहा कि मैं कभी भी उस के या अन्वी के बारे में नहीं सोचता. हमेशा सपनों की दुनिया में जीता हूं.

शायद वह अपनी जगह ठीक थी पर उसे यह नहीं मालूम था कि मैं सबकुछ उसे और अन्वी को एक बेहतर जिंदगी देने के लिए करता हूं. पर क्या करूं मैं ऊपर उठने की जितनी भी कोशिश करता उतना ही नीचे चला जाता हूं. हमारे रिश्ते की खाई गहरी होती गई. हम पतिपत्नी का प्यार अब न जाने कहां खोने लगा.

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यह सोचता हुआ मैं वर्तमान में लौट आया हूं.

कल शिखा की छोटी बहन की शादी है. सभी रिश्तेदार एकत्रित हुए हैं. न जाने क्या सोच कर मैं शिखा के लिए अंगूठी खरीद ले आया. सब लोग शिखा की अंगूठी की तारीफ कर रहे थे और मैं खुशी महसूस कर रहा था. वह अलग बात है, मैं इन पैसों से पूरे महीने का खर्च चला सकता था.

तभी देखा कि नीतू सब को अपना कुंदन का सैट दिखा रही है जो उस ने खासतौर पर इस शादी में पहनने के लिए खरीदा था. मुझे अंदर से आज बहुत खालीखाली महसूस हो रहा था. मैं इन लकीरों के खेल में उलझ कर आज खुद को बौना महसूस कर रहा हूं.

बरात आ गई थी. चारों तरफ गहमागहमी का माहौल था. तभी अचानक पीछे से किसी ने आवाज लगाई. मुड़ कर देखा तो देखता ही रह गया.

मेरे सामने भावना खड़ी थी. भावना और मैं कालेज के समय बहुत अच्छे मित्र थे या यों कह सकते वह और मैं एकदूसरे के पूरक थे. प्यार जैसा कुछ था या नहीं, नहीं मालूम पर उस के विवाह के बाद बहुत खालीपन महसूस हुआ. भावना जरा भी नहीं बदली थी या यों कहूं पहले से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. वही बिंदासपन, बातबात पर खिलखिलाना.

मुझे देखते ही बोली, ‘‘सुमि, क्या हाल बना रखा है… तुम्हारी आंखों की चमक कहां गई?’’

मैं चुपचाप मंदमंद मुसकराते हुए उसे एकटक देख रहा था. मन में अचानक यह

खयाल आया कि काश मैं और वह मिल कर

हम बन जाते.

भावना चिल्लाई, ‘‘यह क्या मैं ही बोले जा रही हूं और तुम खोए हुए हो?’’

हम गुजरे जमाने में पहुंच गए. 3 घंटे 3 मिनट की तरह बीत गए. होश तब आया जब शिखा अन्वी को ले कर आई और शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें सब वहां ढूंढ़ रहे हैं.’’

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मैं ने उन दोनों का परिचय कराया और फिर शिखा के साथ चला गया. पर मन वहीं भावना के पास अटका रह गया. जयमाला के बाद फिर से भावना से टकरा गया.

भावना निश्छल मन से शिखा से बोली, ‘‘शिखा, आज की रात तुम्हारे पति को चुरा रही हूं… हम दोनों बरसों बाद मिले हैं… फिर पता नहीं मिल पाएं या नहीं.’’

ये सब सुन कर मुझे पता लग गया था कि मैं अब भावना का अतीत ही हूं और शायद उस ने कभी मुझे मित्र से अधिक अहमियत नहीं दी थी. यह तो मैं ही हूं जो कोई गलतफहमी पाले बैठा था.

फिर भावना कौफी के 2 कप ले आई. मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो हो जाए कौफी

विद भावना.’’

मैं भी मुसकरा उठा. मैं ने औपचारिकतावश उस से उस के घरपरिवार के बारे में पूछा. उस से बातचीत कर के मुझे आभास हो गया था कि मेरी सब से प्यारी मित्र अपनी जिंदगी में बहुत खुश है पर यह क्या मुझे सच में बहुत खुशी हो रही थी?

भावना ने मुझ से पूछा, ‘‘और सुमि

तुम्हारी कैसी कट रही है? बीवी तो तुम्हारी

बहुत प्यारी है.’’

उस के आगे मैं कभी झूठ न बोल पाया था तो आज कैसे बोल पाता. अत: मैं ने उसे अपना दिल खोल कर दिखा दिया. मैं ने उस से कहा, ‘‘भावना, मैं क्या करूं… मैं हार गया यार… जितनी कोशिश करता हूं उतना ही नीचे चला जाता हूं.’’

भावना बोली, ‘‘सुमित, कभी शिखा से ऐसे बात की जैसे तुम ने आज मुझ से करी है?’’

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मैं ने न में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘फिर हर समय इन लकीरों के खेल में उलझे रहना… पति न जाने क्यों अपनी पत्नियों को बेइंतहा प्यार करने के बावजूद उन्हें अपने दर्द से रूबरू नहीं करा पाते हैं. तुम पहले इंसान नहीं हो जो ऐसा कर रहे हो और न ही तुम आखिरी हो, पर सुमित तुम खुद इस के जिम्मेदार हो… इन लकीरों के खेल में तुम खुद उलझे हो… अपना सब से प्यारा दोस्त समझ कर यह बता रही हूं कि अपनी तुलना अगर दूसरों से करोगे तो खुद को कमतर ही पाओगे. सुमि, बड़ी लकीर अवश्य खींचो पर अपनी ही अतीत की छोटी लकीर के अनुपात में… तुम्हें कभी निराशा नहीं होगी. जैसे मछली जमीन पर नहीं रह सकती वैसे ही पंछी भी पानी में नहीं रह पाते. सुमि, शायद तुम एक मछली हो जो उड़ने की कोशिश कर रहे हो.

‘‘फिर बोलो गलती किस की है, तुम्हारी, शिखा या अनिल की?

‘‘दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इस से ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बारे में कैसा महसूस करते हैं…

‘‘शिखा की मां हो या तुम्हारी सब अपनेअपने ढंग से चीजों को देखेंगे पर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम कैसे अपने रिश्ते निभाते हो.

‘‘जैसे एक बहू को शादी के बाद अपने नए परिवार में तालमेल बैठाना पड़ता है

वैसे ही एक पुरुष को भी शादी के बाद सब से तालमेल बैठाना पड़ता है पर इस बात को एक पति, दामाद अकसर नजरअंदाज कर देते हैं… अनिल से अपनी तुलना करने के बजाय उस से कुछ सीखो और मुझे यकीन है तुम्हारे अंदर भी ऐसे गुण होंगे जो अनिल ने तुम से सीखे होंगे. नकारात्मकता को अपने और शिखा के ऊपर हावी न होने दो. जैसे तुम खुद को देखोगे वैसे ही दूसरे लोग तुम्हें देखेंगे.

‘‘यह उम्मीद करती हूं कि अगली बार फिर कभी जीवन के किसी मोड़ पर टकरा गए तो फिर से अपने पुराने सुमि को देखना चाहूंगी,’’ कह भावना चली गई.

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मैं चुपचाप उसे सुनता रहा और फिर मनन करने लगा कि शायद भावना सही बोल रही है. लकीरों के खेल में उलझ कर मैं खुद ही हीनभावना से ग्रस्त हो गया हूं. शायद अब समय आ गया है हमेशा के लिए इस खेल को खत्म करने का पर इस बार अपनी शिखा को साथ ले कर मैं अपनी जिंदगी की एक नई लकीर बनाऊंगा बिना किसी के साथ तुलना कर के और फिर कभी भावना से टकरा गया तो अपनी जिंदगी के नए सफर की कहानी सुनाऊंगा.

छुटकारा: भाग 2

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शहर में अचानक दंगा भड़क जाने से सावित्री कर्फ्यू में फंस गईं. कोई भी घर जाने में उन की मदद नहीं कर रहा था कि तभी सावित्री के पुराने परिचित सूरज प्रकाश मिल गए और उन्हें अपने घर ले गए. सावित्री के बेटे राजन को यह बात पता चली तो उस ने राहत की सांस ली, पर उन्हें लेने नहीं गया.

त भी कमला बोल उठीं, ‘‘मैं ने तो ऐसा कोई जादू नहीं किया था आप पर. आप ने तो अपने मातापिता की भरपूर सेवा की है. यह बेटे के ऊपर भी निर्भर करता है कि वह उस जादू से कितना बदलता है.’’

सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘भाभीजी, ऐसा लगता है दुनिया में दुखी लोग ज्यादा हैं. देखो न हम इसलिए दुखी हैं कि हमारे कोई औलाद नहीं है. आप इसलिए दुखी हैं कि अपना बेटा भी अपना न रहा. वह आप की नहीं, बल्कि बहू की ही सुनता और मानता है.’’

‘‘हां, सोचती हूं कि इस से तो अच्छा था कि बेटा नहीं, बल्कि एक बेटी ही हो जाती, क्योंकि बेटी कभी अपने मांबाप को बोझ नहीं समझती.’’

‘‘इस दुनिया में सब के अपनेअपने दुख हैं,’’ कमला ने कहा.

5 दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. इन 5 दिनों में राजन ने एक दिन भी फोन कर के सावित्री का हाल नहीं पूछा.

5 दिन बाद कर्फ्यू में 4 घंटे की ढील दी गई. सावित्री ने सूरज प्रकाश से कह कर राजन को फोन मिलवाया.

सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘कैसे हो राजन, सब ठीक तो है न?’’

‘हांहां अंकल, सब ठीक है. मम्मी कैसी हैं?’ उधर से राजन की आवाज सुनाई दी.

‘‘वे भी ठीक हैं बेटे. लो, अपनी मां से बात कर लो,’’ कहते हुए सूरज प्रकाश ने सावित्री को फोन दे दिया.

‘कैसी हो मम्मी?’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. भाई साहब के यहां कोई परेशानी हो सकती है क्या? इन दोनों ने तो मेरी भरपूर सेवा की है. तू ने 5 दिनों में एक दिन भी फोन कर के नहीं पूछा कि मम्मी कैसी हो?’’

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‘‘अंकल बहुत अच्छे इनसान हैं. उन की सभी तारीफ करते हैं. मैं जानता था कि अंकल के यहां आप सहीसलामत रहोगी.’’

‘‘कर्फ्यू में 4 घंटे की ढील है. तू यहां आ जा. मैं तेरे साथ घर आ जाऊंगी.’’

‘मम्मी, मैं तो बाजार जा रहा हूं कुछ जरूरी सामान खरीदना है. तुम ऐसा करो कि रिकशा या आटोरिकशा कर के घर आ जाना, क्योंकि मुझे बाजार में देर हो जाएगी.’

‘‘ऐसा ही करती हूं,’’ बुझे मन से सावित्री ने कहा और फोन काट दिया.

सूरज प्रकाश ने पूछा, ‘‘क्या कहा राजन ने?’’

‘‘कह रहा है कि कुछ जरूरी सामान खरीदने बाजार जा रहा हूं तुम रिकशा या आटोरिकशा कर के घर आ जाओ. भाई साहब, अभी 3 घंटे से भी ज्यादा का समय बाकी है. मैं बाहर से कोई रिकशा या आटोरिकशा पकड़ कर घर चली जाऊंगी,’’ सावित्री ने निराशा भरी आवाज में कहा.

‘‘भाभीजी, आप क्या बात कर रही हैं? आप अकेली जाएंगी? क्या हम से मन ऊब गया है जो इस तरह जाना चाहती हो?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. इन 5 दिनों में तो मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं बता नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मैं भी आप को घर छोड़ कर आ सकता हूं, पर मैं नहीं जाऊंगा. जब कर्फ्यू पूरी तरह खुल जाएगा तब आप चली जाना. हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि राजन क्यों नहीं आया.’’

‘‘ठीक कहते हैं आप, लेकिन घर जाना भी तो जरूरी है.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है. 3 दिन बाद कर्फ्यू खुल जाएगा, तब आप चली जाना,’’ सूरज प्रकाश ने कहा.

3 दिनों के बाद जब पूरी तरह कर्फ्यू खुला तो सावित्री ने अकेले ही घर जाने के लिए कहा.

कमला ने टोक दिया, ‘‘नहीं दीदी, आप अकेली नहीं जाएंगी. ये आप को घर छोड़ आएंगे.’’

‘‘हां भाभीजी, आप के साथ चल रहा हूं.’’ सूरज प्रकाश ने कहा.

स्कूटर सावित्री के मकान के सामने रुका. सावित्री ने कहा, ‘‘अंदर आइए.’’

‘‘मैं फिर कभी आऊंगा भाभीजी. आज तो बहुत काम करने हैं. समय नहीं मिल पाएगा.’’

सावित्री घर में घुसी.

‘‘तुम किस के साथ आई हो मम्मी?’’ राजन ने पूछा.

‘‘सूरज प्रकाश घर छोड़ कर गए हैं. मैं ने उन से बहुत कहा कि अकेली चली जाऊंगी, पर वे दोनों ही नहीं माने. कमला दीदी भी कहने लगीं कि अकेली नहीं जाने दूंगी.’’

भारती चुप रही. उसे सावित्री के आने की जरा भी खुशी नहीं हुई, पर पोता राजू बहुत खुश था.

राजन व भारती के बरताव में कोई फर्क नहीं पड़ा. सावित्री को लग रहा था कि उन्हें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा है.

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रविवार का दिन था. सावित्री दोपहर का खाना खा रही थी, पर सब्जी में मिर्च बहुत ज्यादा थी. एक टुकड़ा खाना भी मुश्किल हो गया. उस ने चुपचाप 3-4 टुकड़े रोटी के खा लिए, पर मुंह में जैसे आग लग गई हो. पानी पी कर राजन को आवाज दी.

राजन ने पूछा, ‘‘क्या हुआ मम्मी?’’

‘‘सब्जी में मिर्च बहुत तेज है. मुझ से तो खाई नहीं जा रही है.’’

‘‘मम्मी, सब्जी तो एकजैसी बनती है. तुम्हारी अलग से नहीं बनती.’’

‘‘तू सब्जी चख कर तो देख.’’

‘‘तुम्हारे मुंह का जायका खराब हो गया है. कल तुम डाक्टर को दिखा कर आना.’’

तभी भारती रसोई से निकल कर आई और तेज आवाज में बोली, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मम्मी कह रही हैं कि सब्जी में मिर्च बहुत तेज है.’’

‘‘बनाबनाया खाना बैठेबिठाए मिल जाता है. खाना खराब है तो छोड़ क्यों नहीं देतीं. क्यों खा लेती हो दोनों टाइम?’’

‘‘छोड़ो भारती, तुम रसोई में जाओ. मम्मी तो सठियाती जा रही हैं.’’

सावित्री ने खाने की थाली एक तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे राजन, मुझे नहीं खाना है. डाक्टर ने तेज मिर्च, नमक, मसाले व ज्यादा घीतेल खाने को मना कर रखा है. इस उम्र में बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. अभी तो मेरे हाथपैर चल रहे हैं. मैं अपना नाश्ता और खाना खुद बना लूंगी.’’

राजन चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया.

उस दिन के बाद सावित्री ने खुद ही अपना चायनाश्ता व खाना बनाना शुरू कर दिया.

एक रात सावित्री की सोते हुए आंख खुली. रात के 12 बज रहे थे. वे उठीं और आंगन के एक कोने में बने बाथरूम की ओर चल दीं. राजन के कमरे में बहुत कम आवाज में टैलीविजन चल रहा था. राजन और भारती की बातचीत सुन कर उन के कदम रुक गए.

‘‘तुम्हारी मम्मी से तो मैं बहुत ही परेशान हूं. तुम्हारे पापा तो चले गए और इस मुसीबत को मेरी छाती पर छोड़ गए. अगर दंगे में मारी जातीं तो हमेशा के लिए हमें भी चैन की सांस मिलती,’’ भारती बोल रही थी.

‘‘और सरकार से 5 लाख रुपए भी मिलते, जैसा कि अखबारों में छपा था कि दंगे में मरने वालों के परिवार को सरकार द्वारा 5 लाख रुपए की मदद की जाएगी,’’ राजन बोला.

यह सुन कर सावित्री सन्न रह गईं. वे थके कदमों से बाथरूम पहुंचीं और लौट कर अपने बिस्तर पर लेट गईं.

अगली सुबह सावित्री उठीं. नहाधो कर बिना नाश्ता किए सूरज प्रकाश के घर पहुंच गईं.

कमला ने चेहरे पर खुशी बिखेरते हुए पूछा, ‘‘दीदी, कैसी हैं आप?’’

‘‘हां, बस ठीक हूं,’’ सावित्री ने उदास लहजे में कहा.

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‘‘भाभीजी, पहले आप नाश्ता कर लीजिए,’’ सूरज प्रकाश ने कहा.

नाश्ता करने के बाद सावित्री ने सारी बातें बता दीं. रात की बात सुन कर तो उन दोनों को भी बहुत दुख हुआ.

सावित्री ने दुखी मन से कहा, ‘‘भाई साहब, समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? घरपरिवार होते हुए भी मैं बिलकुल अकेली सी हो गई हूं. अब तो वह घर मुझे जेल की कोठरी की तरह लगने लगा है. आप मुझे किसी वृद्धाश्रम का पता बता दीजिए. मैं अपनी जिंदगी के बाकी दिन वहां बिता लूंगी,’’ कहतेकहते सावित्री रोने लगीं.

‘‘भाभीजी, क्या बात कर रही हैं आप? आप वृद्धाश्रम में क्यों रहेंगी? आप अपने घर में न रहें, यह आप की इच्छा है, पर हमारी भी एक इच्छा है, अगर आप बुरा न मानो तो कह दूं?’’

‘‘हांहां, कहिए.’’

‘‘क्या यह नहीं हो सकता कि आप हम दोनों के साथ इसी घर में रहें. हम दोनों भी बूढ़े हैं और अकेले हैं. हम तीनों मिलजुल कर रहें, इस से हम तीनों का अकेलापन दूर हो जाएगा,’ सूरज प्रकाश ने कहा.

तभी कमला बोल उठीं, ‘‘दीदी, मना मत करना. मैं एक बात जानना चाहती हूं कि हमारी दलित जाति के चलते आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’

‘‘नहींनहीं, हम दोनों परिवारों के बीच यह जाति कहां से आ गई. आप के यहां इतने दिन रह कर तो मैं ने देख लिया है. आप जैसे परिवार का साथ पाने को भला कौन मना कर सकता है.’’

‘‘भाभी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी शहरों में अकेलेपन की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए समान विचारों के 3-4 बूढ़े इकट्ठा रहने लगें?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं हो सकता ऐसा,’’ सावित्री ने कहा. उन्हें लग रहा था कि उन के दिल से भारी बोझ उतर रहा है.

शाम को जब सावित्री घर पहुंचीं तो राजन ने कहा, ‘‘आप कहां चली गई थीं? फोन भी यहीं छोड़ गई थीं. कहां रहीं सुबह से अब तक?’’

सावित्री ने अपने कमरे में कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘भारती को भी बुला ले. मुझे तुम दोनों से बात करनी है.’’

राजन ने भारती को आवाज दी. उसे लग रहा था कि मम्मी के दिल में कोई ज्वालामुखी धधक रहा है. भारती भी कमरे में आ गई.

सावित्री बोल उठीं, ‘‘मैं ने कल रात तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. मैं अपने ही घर में अपनी औलाद पर बोझ बन गई हूं. मैं इतनी बड़ी मुसीबत बन गई हूं कि तुम दोनों मुझ से छुटकारा चाहते हो. तुम चाहते थे कि मैं भी दंगे में मारी जाती और तुम्हें 5 लाख रुपए सरकार से मिल जाते.’’

राजन और भारती यह सुन कर सन्न रह गए.

‘‘बेटे, अब तक तो मैं तेरे और पोते के मोह के जाल में थी. अपने खून का मोह होता है, पर रात को जो मैं ने सुना उसे सुन कर सारा मोह खत्म हो गया है.’’

‘‘यह मकान, नकदी जोकुछ भी मेरे पास है, सब तुम्हारा ही तो था, पर तब जब मेरी सेवा करते. मेरे बुढ़ापे का सहारा बनते. अब तो मेरी इच्छा है कि मैं अपनी सारी जायदाद किसी ऐसे वृद्धाश्रम को दान कर दूं, जहां लोग अपनी नालायक औलाद से पीडि़त और दुखी हो कर पहुंचते हैं. अब मैं यहां नहीं रहूंगी. कल ही मैं यहां से चली जाऊंगी.’’

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‘‘कहां जाओगी?’’ राजन के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.

‘‘मैं सूरज प्रकाश के घर जा रही हूं. हम तीनों मिल कर अपना बुढ़ापा आराम से काट लेंगे.’’

‘‘सूरज अंकल तो दलित हैं… क्या आप उन के घर में रहोगी?’’

‘‘मैं ने कर्फ्यू में वहां इतने दिन गुजारे तब तो तू ने कुछ नहीं कहा. अब मैं वहां हमेशा रहने की बात कर रही हूं तो तुझे उन की जाति दिखाई दे रही है,’’ सावित्री ने गुस्से भरे लहजे में कहा.

राजन और भारती उन से नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

वो जलता है मुझ से: भाग 2

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‘‘संसार का सस्तामहंगा कचरा इकट्ठा कर तुम उस में डूब गए हो और उस ने अपना हाथ खींच लिया है. वह जानता है रुकावट निकालना अब उस के बस में नहीं है. समझनेसमझाने की भी एक उम्र होती है मेरे भाई. 45 के आसपास हो तुम दोनों, अपनेअपने रास्तों पर बहुत दूर निकल चुके हो. न तुम उसे बदल सकते हो और न ही वह तुम्हें बदलना चाहता होगा क्योंकि बदलने की भी एक उम्र होती है. इस उम्र में पीछे देख कर बचपन में झांक कर बस, खुश ही हुआ जा सकता है. जो उस ने भी चाहा और तुम ने भी चाहा पर तुम्हारा आज तुम दोनों के मध्य चला आया है.

‘‘बचपन में खिलौने बांटा करते थे… आज तुम अपनी चकाचौंध दिखा कर अपना प्रभाव डालना चाहते हो. वह सिर्फ चाय का एक कप या शरबत का एक गिलास तुम्हारे साथ बांटना चाहता है क्योंकि वह यह भी जानता है, दोस्ती बराबर वालों में ही निभ सकती है. तुम उस के परिवार में बैठते हो तो वह बातें करते हो जो उन्हें पराई सी लगती हैं. तुम करोड़ों, लाखों से नीचे की बात नहीं करते और वह हजारों में ही मस्त रहता है. वह दोस्ती निभाएगा भी तो किस बूते पर. वह जानता है तुम्हारा उस का स्तर एक नहीं है.

‘‘तुम्हें खुशी मिलती है अपना वैभव देखदेख कर और उसे सुख मिलता है अपनी ईमानदारी के यश में. खुशी नापने का सब का फीता अलगअलग होता है. वह तुम से जलता नहीं है, उस ने सिर्फ तुम से अपना पल्ला झाड़ लिया है. वह समझ गया है कि अब तुम बहुत दूर चले गए हो और वह तुम्हें पकड़ना भी नहीं चाहता. तुम दोनों के रास्ते बदल गए हैं और उन्हें बदलने का पूरापूरा श्रेय भी मैं तुम्हीं को दूंगा क्योंकि वह तो आज भी वहीं खड़ा है जहां 20 साल पहले खड़ा था. हाथ उस ने नहीं तुम ने खींचा है. जलता वह नहीं है तुम से, कहीं न कहीं तुम जलते हो उस से. तुम्हें अफसोस हो रहा है कि अब तुम उसे अपना वैभव दिखादिखा कर संतुष्ट नहीं हो पाओगे… और अगर मैं गलत कह रहा हूं तो जाओ न आज उस के घर पर. खाना खाओ, देर तक हंसीमजाक करो…बचपन की यादें ताजा करो, किस ने रोका है तुम्हें.’’

चुपचाप सुनता रहा विजय. जानता हूं उस के छोटे से घर में जा कर विजय का दम घुटेगा और कहीं भीतर ही भीतर वह वहां जाने से डरता भी है. सच तो यही है, विजय का दम अपने घर में भी घुटता है. करोड़ों का कर्ज है सिर पर, सारी धनसंपदा बैंकों के पास गिरवी है. एकएक सांस पर लाखों का कर्ज है. दिखावे में जीने वाला इनसान खुश कैसे रह सकता है और जब कोई और उसे थोड़े में भी खुश रह कर दिखाता है तो उसे समझ में ही नहीं आता कि वह क्या करे. अपनी हालत को सही दिखाने के बहाने बनाता है और उसी में जरा सा सुख ढूंढ़ना चाहता है जो उसे यहां भी नसीब नहीं हुआ.

‘‘मैं डरने लगा हूं अब उस से. उस का व्यवहार अब बहुत पराया सा हो गया है. पिछले दिनों उस ने यहां एक फ्लैट खरीदा है पर उस ने मुझे बताया तक नहीं. सादा सा समारोह किया और गृहप्रवेश भी कर लिया पर मुझे नहीं बुलाया.’’

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‘‘अगर बुलाता तो क्या तुम जाते? तुम तो उस के उस छोटे से फ्लैट में भी दस नुक्स निकाल आते. उस की भी खुशी में सेंध लगाते…अच्छा किया उस ने जो तुम्हें नहीं बुलाया. जिस तरह तुम उसे अपना महल दिखा कर खुश हो रहे थे उसी तरह शायद वह भी तुम्हें अपना घर दिखा कर ही खुश होता पर वह समझ गया होगा कि उस की खुशी अब तुम्हारी खुशी हो ही नहीं सकती. तुम्हारी खुशी का मापदंड कुछ और है और उस की खुशी का कुछ और.’’

‘‘मन बेचैन क्यों रहता है यह जानने के लिए कल मैं पंडितजी के पास भी गया था. उन्होंने कुछ उपाय बताया है,’’ विजय बोला.

‘‘पंडित क्या उपाय करेगा? खुशी तो मन के अंदर का सुख है जिसे तुम बाहर खोज रहे हो. उपाय पंडित को नहीं तुम्हें करना है. इतने बडे़ महल में तुम चैन की एक रात भी नहीं काट पाए क्योंकि इस की एकएक ईंट कर्ज से लदी है. 100 रुपए कमाते हो जिस में 80 रुपए तो कारों और घर की किस्तों में चला जाता है. 20 रुपए में तुम इस महल को संवारते हो. हाथ फिर से खाली. डरते भी हो कि अगर आज तुम्हें कुछ हो जाए तो परिवार सड़क पर न आ जाए.

‘‘तुम्हारे परिवार के शौक भी बड़े निराले हैं. 4 सदस्य हो 8 गाडि़यां हैं तुम्हारे पास. क्या गाडि़यां पेट्रोल की जगह पानी पीती हैं? शाही खर्च हैं. कुछ बचेगा क्या, तुम पर तो ढेरों कर्ज है. खुश कैसे रह सकते हो तुम. लाख मंत्रजाप करवा लो, कुछ नहीं होने वाला.

‘‘अपने उस मित्र पर आरोप लगाते हो कि वह तुम से जलता है. अरे, पागल आदमी…तुम्हारे पास है ही क्या जिस से वह जलेगा. उस के पास छोटा सा ही सही अपना घर है. किसी का कर्ज नहीं है उस पर. थोड़े में ही संतुष्ट है वह क्योंकि उसे दिखावा करना ही नहीं आता. सच पूछो तो दिखावे का यह भूत तकलीफ भी तो तुम्हें ही दे रहा है न. तुम्हारी पत्नी लाखों के हीरे पहन कर आराम से सोती है, जागते तो तुम हो न. क्यों परिवार से भी सचाई छिपाते हो तुम. अपना तौरतरीका बदलो, विजय. खर्च कम करो. अंकुश लगाओ इस शानशौकत पर. हवा में मत उड़ो, जमीन पर आ जाओ. इस ऊंचाई से अगर गिरे तो तकलीफ बहुत होगी.

‘‘मैं शहर का सब से अच्छा काउंसलर हूं. मैं अच्छी सुलह देता हूं इस में कोई शक नहीं. तुम्हें कड़वी बातें सुना रहा हूं सिर्फ इसलिए कि यही सच है. खुशी बस, जरा सी दूर है. आज ही वही पुराने विजय बन जाओ. मित्र के छोटे से प्यार भरे घर में जाओ. साथसाथ बैठो, बातें करो, सुखदुख बांटो. कुछ उस की सुनो कुछ अपनी सुनाओ. देखना कितना हलकाहलका लगेगा तुम्हें. वास्तव में तुम चाहते भी यही हो. तुम्हारा मर्ज भी वही है और तुम्हारी दवा भी.’’

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चला गया विजय. जबजब परेशान होता है आ जाता है. अति संवेदनशील है, प्यार पाना तो चाहता है लेकिन प्यार करना भूल गया है. संसार के मैल से मन का शीशा मैला सा हो गया है. उस मैल के साथ भी जिआ नहीं जा रहा और उस मैल के बिना भी गुजारा नहीं. मैल को ही जीवन मान बैठा है. प्यार और मैल के बीच एक संतुलन नहीं बना पा रहा इसीलिए एक प्यारा सा रिश्ता हाथ से छूटता जा रहा है. क्या हर दूसरे इनसान का आज यही हाल नहीं है? खुश रहना तो चाहता है लेकिन खुश रहना ही भूल गया है. किसी पर अपनी खीज निकालता है तो अकसर यही कहता है, ‘‘फलांफलां जलता है मुझ से…’’ क्या सच में यही सच है? क्या यह सच है कि हर संतोषी इनसान किसी के वैभव को देख कर सिर्फ जलता है?

आप भी तो नहीं आए थे: भाग 2

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लेखक- विजय सिंघल ‘अकेला’

‘‘कभीकभार सड़कबाजार में मिल जाता है या घूमने के दर्शनीय स्थलों पर टकरा जाता है अचानक. बस.’’

‘‘कभी तुम्हारे पास आताजाता नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

भैया, फिर रोने लगे.

मैं लौन में जा कर टहलने लगा, कुछ देर बाद भैया मेरे पास आए और बोले, ‘‘अब कभी तन्मय तुम्हें मिले तो पूछना कि मां की मृत्यु पर क्यों नहीं आया. मां को एकदम ही क्यों भुला दिया?’’

तन्मय के इस बेगाने व रूखे व्यवहार की पीड़ा उन्हें बहुत कसक दे रही थी.

उन की इस करुण व्यथा के प्रति, उस बेकली के प्रति, मेरे मन में दया नहीं उपजी… क्रोध फुफकारने लगा, मन में क्षोभ उभरने लगा. मन में गूंजने लगा कि अपनी मां की मृत्यु पर तुम भी तो नहीं आए थे, तुम्हारे मन में भी तो मां के प्रति कोई ममता, कोई पे्रम भावना नहीं रह गई थी. यदि तुम्हारा बेटा अपनी मां की मृत्यु पर नहीं आया तो इतनी विकलता क्यों? क्या तुम्हारी मां तुम्हारे लिए मां नहीं थी, तन्मय की मां ही मां है. तन्मय की मां के पास तो धन का विपुल भंडार था, उसे तन्मय को पालतेपोसते वक्त धनार्जन हेतु खटना नहीं पड़ा था, पर तुम्हारी मां तो एक गरीब, कमजोर, बेबस विधवा थी. लोगों के कपड़े सींसीं कर, घरघर काम कर के उस ने तुम्हें पालापोसा, पढ़ाया, लिखाया था. जब तन्मय की मां अपने राजाप्रासाद में सुखातिरेक से खिल- खिलाती विचरण करती थी तब तुहारी मां दुख, निसहायता, अभाव से परेशान हो कर गलीगली पीड़ा के अतिरेक से बिलबिलाती घूमती थी. उसी विवश पर ममतामयी मां को भी तुम ने भुला दिया… भुलाया था या नहीं.

तेरहवीं बाद सब विदा होने लगे.

विदा होने के समय भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे. बोले, ‘‘पूछोगे न भैया तन्मय से?’’

मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘यह पूछना निरर्थक है.’’

‘‘क्यों? निरर्थक क्यों है?’’

‘‘क्योंकि आप जानते हैं कि वह क्यों नहीं आया?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह क्यों नहीं आया,’’ यंत्रचलित से वह दोहरा उठे.

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‘‘हां, आप जानते हैं…’’ मैं किंचित कठोर हो उठा, ‘‘जरा अपने दिल को टटोलिए. जरा अपने अतीत में झांक कर देखिए…आप को जवाब मिल जाएगा. याद कीजिए, जब आप अपनी मां के बेटे थे, अपनी मां के लाडले थे तो आप को अपनी बीमार मां का, आप के वियोग की व्यथा से जरूर दुखी मां का, आंसुओं से भीगा निस्तेज चेहरा दिखलाई देगा यही शिकायत करता हुआ जो आप को अपने बेटे तन्मय से है.

‘‘वह पूछ रही होगी, ‘बेटा, तू मुझे बीमारी में भी देखने कभी नहीं आया. तू ने बाहर जा कर धीरेधीरे मेरे पास आना ही छोड़ दिया, वह मैं ने सह लिया…मैं ने सोच लिया तू अपने परिवार के साथ खुश है. मेरे पास नहीं आता, मुझे याद नहीं करता, न सही. पर मैं लंबे समय तक रोग शैया पर लेटी बीमारी की यंत्रणा झेलती रही, तब भी तुझे मेरे पास आने की, बीमारी में मुझे सांत्वना देने की इच्छा नहीं हुई. तू इतना निर्दयी, इतना भावनाशून्य, क्योंकर हो गया बेटा, तू अपनी जन्मदात्री को, अपनी पालनपोषणकर्ता मां को ही भुला बैठा, तू मेरी मृत्यु पर मुझे कंधा देने भी नहीं आया, मैं ने ऐसा क्या कर दिया तेरे साथ जो तू ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.

‘‘ ‘ऐसा क्यों किया बेटा तू ने? क्या मैं ने तुझे प्यार नहीं किया? अपना स्नेह तुझे नहीं दिया. मैं तुझे हर समय हर क्षण याद करती रही, मां को ऐसे छोड़ देता है कोई. बतला मेरे बेटे, मेरे लाल. मेरे किस कसूर की ऐसी निर्मम सजा तू ने मुझे दी. तुझे एक बार देखने की, एक बार कलेजे से लगाने की इच्छा लिए मैं चली गई. मुझे तेरा धन नहीं तेरा मन चाहिए था बेटा, तेरा प्यार चाहिए था.’ ’’

कह कर मैं थोड़ा रुका, मेरा गला भर आया था.

मैं आगे फिर कहने लगा, ‘‘आप अपने परिवार, अपनी पत्नी और संतान में इतने रम गए कि आप की मां, आप की जन्मदात्री, आप के अपने भाईबहन, सब आप की स्मृति से निकल गए, सब विस्मृति की वीरान वादियों में गुम हो गए. सब को नेपथ्य में भेज दिया आप ने. उन्हीं विस्मृति की वीरान वादियों में…उसी नेपथ्य में आप के बेटे तन्मय ने आप सब को भेज दिया, जो आप ने किया वही उस ने किया. सिर्फ इतिहास की पुनरावृत्ति ही तो हुई है, फिर शिकवाशिकायत क्यों? रोनाबिसूरना क्यों? वह भी अपने प्रेममय एकल परिवार में लिप्त है और आप लोगों से निर्लिप्त है, आप लोगों को याद नहीं करता. बस, आप को अपने बच्चोंं की मां दिखलाई दी पर अपनी मां कभी नजर नहीं आईं, उस को भी अपनी मां नजर नहीं आ रहीं.’’

कह कर मैं फिर थोड़ा रुका, ठीक से बोल नहीं पा रहा था. गला अवरुद्ध सा हुआ जा रहा था. कुछ क्षण के विराम के बाद फिर बोला, ‘‘लगता यह है कि जब धन का अंबार लगने लगता है, जीवन में सुखसुकून का, तृप्ति का, आनंद का, पारावार ठाठें मारने लगता है, तो व्यक्ति केवल निज से ही संपृक्त हो कर रह जाता है. बाकी सब से असंपृक्त हो जाता है. उस के मनमस्तिष्क से अपने मातापिता, भाईबहन वाला परिवार बिसरने लगता है, भूलने लगता है और अपनी संतान वाला परिवार ही मन की गलियों, कोनों में पसरने लगता है. सुखतृप्ति का यह संसार शायद ऐसा सम्मोहन डाल देता है कि व्यक्ति को अपना निजी परिवार ही यथार्थ लगने लगता है और अपने मातापिता वाला परिवार कल्पना लगने लगता है और यथार्थ तो यथार्थ होता है और कल्पना मात्र कल्पना.

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‘‘आप को अपनी पत्नी की अपने पुत्र को देखने की ललक दिखलाई पड़ी. अपनी मां की अपने पुत्र को देखने की तड़प दिखलाई नहीं पड़ी. अपनी बीमार पत्नी की बेटे के प्रति चाह भरी आहेंकराहें सुनाई पड़ीं पर अपनी बीमार मां की, आप को देखने की दुख भरी रुलाई नहीं सुनाई पड़ी.

‘‘क्यों सुनाई पड़ती? क्योंकि आप भूल गए थे कि कोई आप की भी मां है, जैसे आप की पत्नी ने रुग्ण अवस्था में दुख भोगा था आप की मां ने भी भोगा था. जैसे आप की पत्नी ने अपने पुत्र के आगमन की रोरो कर प्रतीक्षा की थी वैसे ही दुख भरी प्रतीक्षा आप की मां ने आप की भी की थी. पर आप न आए. न आप पलपल मृत्यु की ओर अग्रसर होती मां को देखने आए और न ही उस के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

‘‘वही अब आप के पुत्र ने भी किया. यह निरासक्ति की, बेगानेपन की फसल, आप ने ही तो बोई थी. तो आप ही काटिए.’’

भैया कुछ न बोले…बस,

आप भी तो नहीं आए थे: भाग 1

लेखक- विजय सिंघल ‘अकेला’

सुबह 6 बजे का समय था. मैं अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.

वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.

पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.

‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’

‘‘ठीक है, जाइए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगी?’’

‘‘चलती हूं मैं भी.’’

हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.

भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.

‘‘चाची, मां चली गईं.’’

शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.

इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.

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‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’

मैं उन की पीठ सहलाता रहा.

थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.

‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’

‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.

‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.

बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’

वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.

इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.

भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’

भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’

कहतेकहते भैया सिसक पड़े.

‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.

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भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

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तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

भैया मेरे पास आ कर बैठे तो बहुत दुखी, उदास, टूटेटूटे और निराश लग रहे थे. वह बोले, ‘‘एकदो दिन में सब चले जाएंगे. फिर मैं रह जाऊंगा और मकान में फैला मरघट सा सन्नाटा. प्रेम से बसाया नीड़ उजड़ गया. सब फुर्र हो गए. अब कैसे कटेगी मेरी तनहा जिंदगी…’’ और इतना कहतेकहते वह फफक पड़े.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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