समस्या: लोकतंत्र का माफियाकरण

लेखक- देवेंद्र गौतम

साल 2022 के 15 अगस्त को आजादी की 75वीं सालगिरह मनाई जाएगी. इस के लिए ‘अमृत महोत्सव’ की बड़े पैमाने पर तैयारी चल रही है. 26 जनवरी, 2022 को हमारा लोकतंत्र भी 72वें साल में दाखिल हो जाएगा.

आजाद भारत के इतने लंबे सफर के बाद राजनीति के अपराधीकरण के बाद अब राजनीति के माफियाकरण का खतरा पैदा हो गया है.

इस की एक जीतीजागती मिसाल महाराष्ट्र के सत्ता संरक्षित वसूली गैंग के रूप में सामने आई है. अब चुनाव भी सत्ता पर कब्जे की होड़ में तबदील हो चले हैं, जिस में प्यार और जंग में सबकुछ जायज है की तर्ज पर कानूनी और गैरकानूनी सभी साधनों का इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले दिनों भारत के जानेमाने उद्योगपति मुकेश अंबानी के बंगले के पास लावारिस स्कौर्पियो गाड़ी में बरामद जिलेटिन की छड़ों ने बगैर डैटोनेटर इतना बड़ा धमाका कर दिया कि इस की आंच महागठबंधन सरकार तक पहुंच गई है.

मुंबई के पुलिस कमिश्नर रह चुके परमवीर सिंह और गृह मंत्री रह चुके अनिल देशमुख से होती हुई इस की लपटें राकांपा प्रमुख शरद पवार तक पहुंच चुकी हैं. धीरेधीरे चेहरे बेनकाब हो रहे हैं. अभी और कितने लोग इस की चपेट में आएंगे, पता नहीं.

एनआईए मामले की जांच कर रही है. इस में रोज नएनए हैरतअंगेज खुलासे हो रहे हैं. जांच का आखिरी फैसला सामने आने में अभी समय है, लेकिन अभी तक जो तथ्य सामने आए हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि अब सत्ता की राजनीति काले धन का खेल बन चुकी है और लोकतंत्र का माफियातंत्र में बदलाव हो चुका है.

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अभी तक एनआईए की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं, उन से यह कहने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि महाराष्ट्र में सत्ता की आड़ में एक खूंख्वार माफिया गैंग काम कर रहा था. यह गैंग अंडरवर्ल्ड के गिरोहों की तर्ज पर कारपोरेट घरानों  से भारीभरकम वसूली का जाल बिछा चुका था.

जांच आगे बढ़ेगी, तो पता चलेगा कि इस गिरोह में सीधे और गैरसीधे तौर पर कौनकौन से सफेदपोश नेता और नौकरशाह शामिल थे. कितने की वसूली हो चुकी है और दूसरे अपराधी गिरोहों से इन के क्या संबंध थे.

इस गैंग के मेन किरदार परदे के  पीछे हैं. परदे पर मौजूद किरदार सचिन वाझे थे. महाराष्ट्र पुलिस के अदना से असिस्टैंट पुलिस इंस्पैक्टर जो ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रह चुके हैं और एक हत्या के आरोप में साल 2004 से ही निलंबित थे.

सचिन वाझे का काम करने का तरीका पूरी तरह जासूसी उपन्यासों के अपराधी सरगनाओं की तरह रहा है. ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रहने के नाते जाहिर है कि उन के अंडरवर्ल्ड से संबंध रहे होंगे.

कुछ ऐसी ऐक्स्ट्रा खूबियां सचिन वाझे के अंदर रही होंगी कि 16 साल के वनवास के बाद उन्हें वापस बुला कर नौकरी पर रखा गया, जबकि वे हत्या के मामले से बरी भी नहीं हुए थे. कुछ तो उन की ऐसी उपयोगिता थी, जो वर्तमान पुलिस बल से अलग और अहम थी.

सचिन वाझे निलंबित रहते हुए भी फाइव स्टार जिंदगी जी रहे थे, तो इस का सीधा सा मतलब है कि उन की जिंदगी पुलिस महकमे की तनख्वाह से नहीं चल रही थी. उन की आमदनी के दूसरे कई अज्ञात स्रोत थे. पुलिस की वरदी सिर्फ अपनी करतूतों को सरकारी जामा पहनाने का साधन थी.

ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट होने के नाते सचिन वाझे को सत्ता में बैठे लोग भी जानते थे. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि निलंबित रहने के बावजूद वे आधा दर्जन से ज्यादा लग्जरी कारों में कैसे घूमते थे? शाही जिंदगी कैसे जीते थे? इस बीच वे शिव सेना के सक्रिय सदस्य बन गए थे.

महागठबंधन सरकार बनने के बाद सरकार और महाराष्ट्र पुलिस को सचिन वाझे की सेवाओं की खास जरूरत पड़ गई, इसीलिए उन्हें विशेष प्रावधान के तहत सेवा में वापस लिया गया और उन्हें क्राइम ब्रांच में विशेष जिम्मेदारी दी गई. उन्हें सीधे पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट करना होता था. वे उन्हीं के निर्देश पर काम करते थे. 9 महीने के अंदर ही उन्हें तकरीबन 2 दर्जन खास मामलों का जांच अधिकारी बना दिया गया था.

जाहिर है कि भांड़ा फूट जाने के बाद सचिन वाझे अकेले बलि का बकरा बनना पसंद नहीं करते, इसलिए धीरेधीरे अपने आकाओं के नाम जाहिर करते जा रहे हैं. हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज पर.

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मायानगरी मुंबई में धन उगाही पहले भी होती रही है, लेकिन पहले दुबई और मलयेशिया में बैठे डौन बड़ी रकमों की उगाही करते थे. उन के निशाने पर बौलीवुड के सितारे भी होते थे और बड़े कारोबारी भी, खासतौर पर काले धंधे से जुड़े हुए लोग. लोकल इलाकाई गुंडे छोटे दुकानदारों से हफ्तावसूली करते थे.

यह मुंबई तक ही सीमित नहीं है. देश के तकरीबन हर राज्य में सरकार संरक्षित वसूली गैंग हैं, जो राजनीति के लिए खादपानी का जुगाड़ करते रहे हैं, लेकिन मुंबई की सरकार संरक्षित माफिया की वसूली का लक्ष्य बड़ा था.

अभी 100 करोड़ रुपए हर महीने वसूली का टारगेट सामने आया है, लेकिन बात यहीं तक नहीं होगी. अभी बहुतकुछ उजागर होना बाकी है. इतनी बड़ी रकम किसी खास मकसद से ही वसूली जा सकती है.

यह मकसद सत्ता पर कब्जा बनाए रखने या कब्जा करने का हो सकता है. केंद्र सरकार में बैठे लोग इसे बेहतर समझ रहे होंगे, इसीलिए राज्य के क्राइम ब्रांच से मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई.

क्या यह आम लोगों के लिए बेहद चिंता की बात नहीं होनी चाहिए? औपनिवेशिक सत्ता से आजादी के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने कितना संघर्ष किया, कितनी कुरबानियां दीं, उस का नतीजा इस रूप में सामने आ रहा है. हम जिस तरह का देश बनाना चाहते थे, वह यह तो कतई नहीं है. यकीनन, किसी नई व्यवस्था को स्थापित होने में समय लगता है.

फ्रांस की क्रांति 1779 में हुई थी. इस का लक्ष्य लोकतंत्र की स्थापना था, लेकिन इस क्रांति ने नैपोलियन बोनापार्ट को पैदा किया, जिन्होंने सत्ता हाथ में आने के बाद खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया और राजशाही की वापसी हो गई. फिर राजा बदलता रहा, राजशाही चलती रही और लोकतंत्र की दोबारा बहाली 1848 के बाद ही हो सकी यानी 69 साल बाद.

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भारतीय लोकतंत्र भी अभी संक्रमण काल से ही गुजर रहा है. लोकतंत्र की आड़ में परिवारवाद, व्यक्तिवाद का दौर चलता रहा. अब माफियावाद का दौर दस्तक दे रहा है. जब तक आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जरूरी नागरिक गुणों से लैस नहीं होगी, इस तरह की विकृतियां जारी रहेंगी.

ये विकृतियां धीरेधीरे देश और समाज को खोखला कर देंगी और हम कुछ नहीं कर पाएंगे.

क्या ‘नरेंद्र मोदी’ नाम का जहाज डूब रहा है!

कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र दामोदरदास मोदी की “सत्ता- सरकार” का जहाज जब डूबने डूबने को हो रहा था तो मोदी अपने सिद्धांतों और कही हुई बातों से मुकर गए और मोदी नाम का जहाज़ डूब गया.

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जब 2014 में देश के प्रधानमंत्री की शपथ ली थी तो उन्होंने अपने मुंह से और आचरण से जो जो बातें कहीं, क्या वह आपको याद है. हमारे देश की यही फितरत है- “आगे पाठ पीछे सपाट” यही कारण है कि मोदी ने जो जो आशा आकांक्षाएं देश की जन जन के बीच जागृत की थी और लोग उनके मुरीद होते चले गए थे. आज लगभग 7 साल बीत जाने के बाद मोदी को एहसास हो चला है कि उनका बनाया हुआ “मायाजाल” अब बिखर रहा है. देश की आवाम इस जादुई “भ्रम जाल” से बाहर निकल रहा हैं, ऐसे में मोदी के आचरण में वही घबराहट दिख रही है जो नाव या जहाज डूबने के समय नाविक और कैप्टन के चेहरे पर नजर आती है.

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नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह एहसास हो चला है कि आने वाले समय में लोकतंत्र की दुहाई देकर, देश प्रेम की अग्नि जलाकर, देश को विकास के एक नए मॉडल के सपने दिखाकर उन्होंने जो सत्ता हासिल की है वह अब उनकी हाथों से निकल रही है. यही कारण है कि उन्होंने बीते दिनों जो केंद्रीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया वह स्वयं उनके लिए आइना बन गया है, जो बता रहा है कि आपने जो जो कहा था, उससे आप मुकर गए हैं. सत्ता के लिए आप भी वही सब कुछ कर रहे हैं जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया था.

मोदी के इस संपूर्ण व्यवहार और सिद्धांत पर आइए हम दृष्टिपात करते हैं.

दिग्गज मंत्रियों को हटाने का “लक्ष्य”!

लोगों के एक आदर्श बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की कथनी और करनी में अंतर साफ साफ दिखाई देता है. वो जो कहते हैं के पीछे का सच कुछ और होता है और जो कुछ नहीं कहते हैं उसके आगे का सच कुछ और होता है. बिलकुल वैसे ही जैसे तीतर के दो आगे तीतर तीतर के दो  पीछे तीतर बताओ कितने तीतर!

देशभर में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की चर्चा हो रही है कि किस तरह उन्होंने डॉ हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर जैसे दिग्गज मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. और किस तरह महिलाओं को, पिछड़ों को और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु को उन्होंने प्रतिनिधित्व दिया है. महिलाओं का कोटा बढ़ा दिया है ऐसी बातें पढ़ कर के और देख कर के हमें यह समझना होगा कि आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कि इसके पीछे रणनीति क्या है?

नरेंद्र मोदी के बारे में सारा देश और दुनिया जानती है कि वही प्रधानमंत्री हैं और वही कैबिनेट और राज्यमंत्री भी! उनकी बिना सहमति और निगाह के किसी मंत्री की कोई बखत नहीं है. देश को एकमात्र वही अपनी उंगलियों पर चला रहे हैं या कहें नचा रहे हैं ऐसे में इन बड़े-बड़े दिग्गज मंत्रियों को अचानक हटाने के पीछे की मंशा क्या है.

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दरअसल इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपनी छवि को निखारना है. आप याद करिए जब  कोरोना कोविड-19 का देश में आगमन हुआ था तो किस तरह  “नमस्ते ट्रंप” का  आयोजन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हुआ था. कोरोना जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया, दीप जलाओ ताली बजाओ और लॉकडाउन का खेल चला और यह कहा गया कि अब कोरोनावायरस देश से खत्म हो जाएगा.मगर जब दांव उल्टा पड़ने लगा तो अपनी छवि बनाने के लिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने मंत्रिमंडल के दिग्गज मंत्रियों की छुट्टी करके यह संदेश देने का प्रयास किया है कि देखिए! किस तरह हम एक्शन लेते हैं.

यह भी सच है कि जिन जिन मंत्रियों को कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया गया है आने वाले समय में आप देखेंगे कि देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर यही लोग विराजमान दिखेंगे. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी लोगों को ध्यान बटाने के लिए यह एक सीधी सी ट्रिक चली गई है जो कामयाब होती भी दिख रही है. क्योंकि हमारे देश में लोगों के जल्द भूल जाने की फितरत है. उसी का लाभ हमारे नेताओं को गाहे-बगाहे मिल जाता है.

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जितिन प्रसाद: माहिर या मौकापरस्त

लेखक- राधेश्याम त्रिपाठी

शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश  के जितिन प्रसाद का कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना यकीनन कांग्रेस के लिए एक  झटका है. इस बात में कोई दोराय नहीं है, लेकिन यह प्रचारित करना कि कांग्रेस में उन की अनदेखी हो रही थी, सम झ से परे है.

जितिन प्रसाद कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे शाहजहांपुर के जितेंद्र प्रसाद उर्फ ‘बाबा साहब’ के बेटे और ज्योति प्रसाद जैसी शख्सीयत के पोते हैं.

जितिन प्रसाद साल 2004 में शाहजहांपुर क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीते थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह  के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में उन्हें इस्पात मंत्री का कार्यभार भी सौंपा गया था.  साल 2009 में लखीमपुर की धौरहरा लोकसभा सीट से जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया गया था और उन्होंने फिर से जीत दर्ज की थी. तब उन्हें पैट्रोलियम व प्राकृतिक गैस, सड़क परिवहन और राजमार्ग व मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री बनाया गया था.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जितिन प्रसाद धौरहरा क्षेत्र से हार गए थे. लिहाजा, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लखीमपुर के मोहम्मदी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनना चाहा था, लेकिन बरबर नगर पंचायत के चेयरमैन संजय शर्मा को यहां से उम्मीदवार बनाया जा चुका था.

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संजय शर्मा मोहम्मदी क्षेत्र के कांग्रेस विधायक और नगर पंचायत बरबर के चेयरमैन रहते आए राम भजन शर्मा के बेटे थे.

संजय शर्मा की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद ही जितिन प्रसाद ने बगावत का  झंडा उठाया था और भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए काफिले समेत लखनऊशाहजहांपुर मार्ग पर महोली तक पहुंच भी गए थे, पर कहा जाता है कि महोली पहुंचते ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन से फोन पर बात की और वे वापस लौट आए थे.

वापसी पर जितिन प्रसाद को उन के गृह जनपद या यों कहें ‘बाबा साहब’ के गढ़ जनपद शाहजहांपुर के निकट तिलहर विधानसभा से कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित किया गया था.

गृह जनपद और प्रभावशाली नेतृत्व के वजूद के साथ 2-2 बार केंद्र में मंत्रिमंडल में सम्मिलित रहने वाले जितिन प्रसाद विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारे थे.

इस हार को वैसे तो भाजपा की लहर में डूबने की हालत मानी जाती है, लेकिन जितिन प्रसाद जैसे नेता के लिए अपने गढ़ में ही बुरी तरह हारना बहुत ही शर्मनाक बात कही जा सकती है.

साल 2019 में भी जितिन प्रसाद को लोकसभा धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन उस में भी उन का स्थान सम्मानजनक तक नहीं रहा था.

कुछ भी हो, जितिन प्रसाद के पार्टी छोड़ने व भाजपा में सम्मिलित होने को कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता, लेकिन जिस तौरतरीके के लिए कांग्रेस की लानतमलामत की जा रही है, वह कांग्रेस पर लागू नहीं होता.

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साल 2004 में शाहजहांपुर से व साल 2009 में धौरहरा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर जीतना जितिन प्रसाद का कोई करिश्मा भी नहीं माना जा सकता. करिश्मा तो तब माना जाता, जब वे साल 2017 में अपने गृह जनपद के तिलहर विधानसभा क्षेत्र से ही विधायक बन कर दिखाते.

साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जितिन प्रसाद को धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था और उन का हार जाना कोई अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता, लेकिन तिलहर विधानसभा चुनाव में हार जाना जितिन प्रसाद की कदकाठी के मुताबिक नहीं था. साल 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव या 2017 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस भी हारी थी, कांग्रेस की  झोली में तब क्या था?

युवा जितिन प्रसाद जैसा ‘महान’ नेता, जो 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहा हो, अपने गढ़ तिलहर से हार कर निचली पायदान पर पहुंचा हो, उसे कांग्रेस दे ही क्या सकती थी?

भले ही कांग्रेस की गलतियां रही होंगी, लेकिन कांग्रेस कर भी क्या सकती थी, उस इनसान के लिए, जिस के सिर पर 2004 व 2009 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह दे कर मंत्री पद का ताज रखा गया और वह मोहम्मदी क्षेत्र से विधानसभा टिकट संजय शर्मा को मिल जाने के गम में कांग्रेस छोड़ कर साल 2017 में ही भाजपा में जाने के लिए धूमधाम से घोषणा कर के पलायन कर रहा था.

निश्चित ब्राह्मण होने के नाते जितिन प्रसाद को पार्टी में अहम जगह दी जा सकती थी, लेकिन प्रमोद तिवारी वगैरह जैसे कई ब्राह्मण नेताओं ने भले ही केंद्र में मंत्रिमंडल में जगह न पाई हो, लेकिन उन की हालत व जन महत्त्व तो इसी से साबित होता है कि वे लगातार 7 बार अपने क्षेत्र से विधायक चुने जाते रहे और खुद राज्यसभा सदस्य बन जाने के बाद जब साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 7 विधायक ही जीत सके थे, तब भी प्रमोद तिवारी की बेटी मोना उस चुनाव में विधायक बन कर विधानसभा में नेता कांग्रेस हैं.

भले ही अजय कुमार लल्लू को विधानसभा में कांग्रेस के नेता पद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया हो, यह पार्टीगत नीति और सोच रही हो, लेकिन 2 बार कांग्रेस सांसद रह कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाने के बाद भी विधानसभा चुनाव हार जाने वाले नेता जितिन प्रसाद को क्या अहमियत दी जा सकती थी, सम झ से परे है. उन्हें ब्राह्मणों को प्रदेश में एकत्र करने, संगठित करने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन क्या हो सका है अभी तक वे क्या कर सके?

यह तय है कि 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहने वाला आदमी बड़ा नेता होना चाहिए, बड़ी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए, लेकिन कौन सी सीट पर विधानसभा में कौन सी जिम्मेदारी दे दी जाती, विधानपरिषद या राज्यसभा में किस क्षेत्र से भेजा जा सकता था और कांग्रेस की औकात भी थी भेजने की? और यह औकात तो तब बनती, जब ऐसे लोग अपनेअपने गृह क्षेत्र तक से विधानसभा चुनाव जीतने की हैसियत में होते.

कांग्रेस की वर्तमान हालत न तो सोनिया गांधी की वजह से है और न ही इस के लिए राहुल गांधी जिम्मेदार हैं. आखिर एक आदमी कितने दिनों तक अकेले रेत में खड़ी नाव पर सवार ‘जोर लगा कर हईशा’ भी नहीं कह सकते, चिल्लाना नहीं चाहते, तो न तो नाव रेत से निकलेगी और न ही नदी के उस पार जा पाएगी. एक अकेला कब तक मुरदा लाशों को ढो कर उन के सिर पर ताज पहनाने का काम करता रह सकता है. यही वजह है कि राहुल गांधी अपने साथियों से हताशनिराश हो कर नाव की पतवार संभालने की इच्छा ही नहीं रख पा रहे हैं.

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‘राहुल सक्रिय नहीं हैं’ का जुमला उछालने वाले कितने सक्रिय हैं, यह उन्हें खुद सोचना चाहिए और नाव की सवारी कर रहे ‘जोर लगा कर हईशा’ तक न कर पाने वाले स्वार्थ के लिए उस दल को छोड़ कर भागे, जिस ने उन को राजनीति में आने के साथ ही 2 बार सांसद ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का सुख दिया, केवल मोहम्मदी  विधानसभा क्षेत्र से किसी दूसरे को उम्मीदवार बना देने के चलते जिस ने अपना काफिला भाजपा की ओर बढ़ा दिया और तिलहर से टिकट दिए जाने के बावजूद बुरी तरह से हारा.

अच्छा है कि अब जितिन प्रसाद भाजपा में करिश्मा दिखाएं, लेकिन जलती आग तापने वाले अपनी भी गतिविधियों का आकलन करते तो अच्छा होता.

शर्मनाक! सरकार मस्त, मजदूर त्रस्त

लेखक- रोहित और शाहनवाज

कोरोना की दूसरी लहर ने देश में हाहाकार मचा दिया है. इस की गवाही श्मशान से ले कर कब्रिस्तान ने चीखचीख के दे दी है. इस समय जिन्होंने अपने कानों को बंद कर लिया है, उन के लिए अस्पतालों में तड़पते लोग, गंगा में बहती लाशें किसी सुबूत से कम नहीं हैं. सैकड़ों मौतें सरकारी पन्नों में दर्ज हुईं, तो कई अनाम मौतें सरकार की लिस्ट में अपना नाम तक दर्ज नहीं कर पाईं.

कोरोना की पड़ती इस दूसरी मार से बचने के लिए देश की तमाम सरकारों ने अपनेअपने राज्यों में लौकडाउन लगाया, जिस से दिल्ली व एनसीआर का इलाका भी अछूता नहीं रहा.

कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने लौकडाउन को सिलसिलेवार तरीके से लागू किया. पहले नाइट कर्फ्यू लगाया गया, जिसे कुछ दिनों बाद वीकैंड कर्फ्यू में बदला गया और आखिर में हफ्ते दर हफ्ते पूरे लौकडाउन में तबदील किया गया.

जाहिर है, यह इसलिए हुआ, क्योंकि सभी सरकारों खासकर मोदी सरकार ने पिछले एक साल से कोई खास तैयारी नहीं की थी. अगर उन की पिछले एक साल की कोरोना प्रबंधन की रिपोर्ट मांगी जाए, तो सारी सरकारें बगलें ?ांकतीं और एकदूसरे पर छींटाकशी करती नजर आएंगी.

इस सब ने समाज के कौन से हिस्से पर गहरी चोट की है, उस पर आज कोई भी सरकार बात करने को तैयार नहीं है.

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पिछले साल जब देश में लौकडाउन लगा था, तब लाखों मजदूर शहरों से पैदल सैकड़ों मील चलने को मजबूर हुए थे. वे चले थे, क्योंकि लौकडाउन के चलते उन की नौकरियां, रहने और खानेपीने के लाले पड़ गए थे, क्योंकि सरकार ने बिना इंतजाम किए सख्त लौकडाउन लगा दिया था.

सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में लौकडाउन के चलते अप्रैल महीने में 12.2 करोड़ भारतीयों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. वहीं 60 लाख डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अकाउंटैंट ने मई से अगस्त 2020 में अपनी नौकरियां गंवाईं. उस दौरान सरकार ने लौकडाउन में यातायात के सारे साधनों को बंद कर दिया था और मजदूर तबके को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था.

इस साल भी सरकार ने मजदूरों के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए हैं. जो मजदूर शहरों में फिर से नई उम्मीद ले कर आए थे, उन्हें खाली हाथ निराश हो कर अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है. लौकडाउन से पहले बसअड्डों की भारी भीड़ ने इस बात की गवाही दी.

पिछले साल इन मजदूरों की आवाज सरकार तक पहुंची भी थी, पर इस साल उन की समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं है. जो मजदूर अभी भी शहरों में रुक गए हैं, उन का या तो गांव में कुछ भी नहीं है या वे घर का सामान गिरवी रख कर अपना घर चला रहे हैं. कई मजदूर ऐसे भी हैं, जिन के पास घर जाने तक का किराया भी नहीं है और वे यहांवहां से उधार मांग कर अपने खानेपीने का इंतजाम ही कर पा रहे हैं.

इस साल सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2021 में कम से कम 73 लाख कामगारों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं.

इन मजदूरों की हालत खस्ता है, काम नहीं है. गांव की जमीन गिरवी रख कर, घरों के गहने गिरवी रख कर ये जैसेतैसे अपना गुजारा चला रहे हैं. आखिर इन शहरों ने इन्हें दिया क्या है?

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एक समय था, जब गांव से कोई शहर अपनी माली हालत ठीक करने के लिए आता था, लेकिन आज ये शहर मानो काटने के लिए दौड़ रहे हैं. शहरों में बैठे हुक्मरान वादे और दावे दोनों करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन्हें सामाजिक सिक्योरिटी तक मुहैया नहीं है.

दिल्ली के बलजीत नगर के पंजाबी बस्ती इलाके में रहने वाले 19 साला ललित पेशे से मोची हैं. ललित समाज की दबाई गई उस जाति से संबंध रखते हैं, जिसे आमतौर पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आज भी वे इस काम को पारंपरिक तरीके से ढो रहे हैं.

ललित बताते हैं कि वे रोज ही सुबह 7 बजे से ले कर रात के 9 बजे तक अपने इलाके में तकरीबन 12-14 किलोमीटर तक चलते हैं. लौकडाउन के समय में बचबचा कर वे यह काम कर रहे हैं. कोई राहगीर उन से अपने जूतेचप्पल ठीक कराते हैं, तो वे दिन का 200 रुपए तक बना लेते हैं. लौकडाउन से पहले यह कमाई 400 रुपए तक हो जाती थी.

ललित के कंधे पर लकड़ी का छोटा संदूक रहता है, जिस के अंदर वे अपने पेशे से जुड़े औजार रखते हैं. वहीं उन के दूसरे हाथ में फटापुराना काला बस्ता रहता है, जिस में जूतेचप्पल की पौलिश करने का सामान होता है. संदूक का बो?ा इतना है कि लगातार उसे बाएं कंधे पर टांगे रखने की वजह से उन का कंधा ?ाक गया है.

ललित बताते हैं कि उन्होंने 7वीं जमात तक ही पढ़ाई की और घर में माली तंगी होने के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़ कर अपने पिताजी के इस परंपरागत काम को सीखना पड़ा.

ललित की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. उन के परिवार में पत्नी,  बच्चे और मातापिता हैं. वे सभी अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, लेकिन पैसा न होने के चलते वे यहां बुरी तरह फंस चुके हैं. ललित जिस कालोनी में रहते हैं, वहां इसी पेशे से जुड़े और भी मोची हैं और सभी इस समय त्रस्त हैं.

यह सिर्फ ललित का हाल नहीं है, बल्कि पूरे देश में मजदूर तबके का हाल है. वे इस समय जिंदगी और मौत से जू?ा रहे हैं. उन्हें कोरोना से ज्यादा इस बात का डर लग रहा है कि कोरोना से पहले उन्हें भूख मार देगी. सरकार का हाल यह तबका पिछले साल ही देख चुका था, इसलिए इस साल इसे सरकार से कोई उम्मीद भी नहीं बची.

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ये लोग उस सरकार से उम्मीद भी  लगाएं कैसे, जो इस समय प्राथमिकताएं ही नहीं तय कर पा रही है? ऐसे त्रस्त हालात में भी यह सरकार लोगों को माली और सामाजिक मदद पहुंचाने के बजाय अपनी शानोशौकत के लिए हजारों करोड़ रुपए का सैंट्रल विस्टा तैयार कर रही है.

राहुल गांधी के समक्ष “प्रधानमंत्री” पद!

राहुल गांधी के जन्मदिवस पर यह पहली बार हुआ कि देशव्यापी स्तर पर उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली पर चर्चा हुई यह अपने आप में एक अनोखी और महत्वपूर्ण बात है कि राहुल गांधी को जन्मदिवस पर इस दफा जिस तरीके से उन्हें नोटिस में लिया गया वह यह बता गया कि आगामी समय में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार हैं.

जैसा कि हम सभी जानते हैं राहुल गांधी ने 19 जून को 51 वर्ष पूरे किए और बावनवें वर्ष की देहरी पर पांव रखा है. सुबह से ही राहुल गांधी के जन्मदिन पर सोशल मीडिया में चर्चा का दौर शुरू हो गया, लोगों ने यह खुलकर कहना शुरू कर दिया कि जिस तरीके से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी असफलताओं से गिर गए हैं और एक ऐसे चक्र व्यूह में फंस गए हैं उससे निकल पाना अब मुश्किल जान पड़ता है. ऐसे में आखिर देश का नेतृत्व कौन सा व्यक्ति कर सकता है. इसमें लगभग लोगों की यही राय थी कि राहुल गांधी की चाहे विपक्ष के लोग कितने ही मजाक उड़ा कर उनकी छवि खराब करने का प्रयास करें मगर उन में बहुत सारी खुशियां भी है. जिस तरीके से उन्होंने सादगी और मानवता का बार-बार परिचय दिया है वह यह बताता है कि वह  दिल के साफ है, यही कारण है कि लोगों दिलों में राहुल गांधी अब राज करने लगे हैं.

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यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा  चुनाव में जब भाजपा चारों खाने चित हो जाएगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनेगी और प्रधानमंत्री बन कर राहुल गांधी देश को एक सशक्त नेतृत्व दे सकते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी ने बारंबार यह जाहिर किया है कि वे देश और देश की माटी यहां के जन-जन से इस तरीके से वाकिफ हो चुके हैं यहां के माहौल को जिस नवाचार के साथ उन्होंने आत्मसात किया है वैसा नेतृत्व दूसरी राजनीतिक दल में कहीं दिखाई नहीं देता.

विरोध और लोगों के दिलों में जगह!

धीरे-धीरे इस बात का भी खुलासा हो चुका है कि विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी और उसकी अनेक संस्थाओं के सोशल मीडिया कर्मियों ने राहुल गांधी के खिलाफ सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बार-बार पप्पू का कहकर देश के जनमानस में उन्हें एक बेचारा शख्स बना करके यह जताया कि देश को एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है.

देश को नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसे 56 इंच के व्यक्ति की आवश्यकता है जो देश के भीतर और देश के बाहर दोनों जगह पर देश के आत्म सम्मान को ऊंचाई देकर  देश  को समझ सके और अच्छा कर सके.

लोग सोशल मीडिया के  प्रपंच में फंस करके राहुल गांधी के अच्छाइयों को न देखते हुए सिर्फ बताई गई बिना तथ्य की बातों के आधार पर मन, भावना बना कर कांग्रेस और राहुल को हाशिए पर डालते चले गए.

धीरे धीरे नरेंद्र मोदी विफलताओं के शिखर की ओर बढ़ रहे हैं तो लोगों को सच्चाई का एहसास हो रहा है कि किस तरीके से सोशल मीडिया में  सफेद झूठ बता करके उन्हें भ्रमित किया गया था. परिणाम स्वरूप अब राहुल गांधी के प्रति लोगों की संवेदना जाग रही है. लोगों को उनकी अच्छाइयां दिख रही हैं. उनके जन्मदिवस पर जिस तरीके से लोगों ने उनके प्रधानमंत्री पद संभालने की अपेक्षा के साथ स्नेह पूर्वक याद किया वह अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. और यह बात आने वाले समय में सच भी सिद्ध हो सकती है.

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चुनौतियां ही चुनौतियां हैं!

मगर, इसके बावजूद राहुल गांधी के सामने चुनौतियां कम नहीं है. एक तरफ कांग्रेस के भीतर वे चुनौतियों से घिरे हुए हैं तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व किस तरीके से इन दिनों राजनीति की एक नई एबीसीडी लिख रहा है उसमें एक सीधे सरल सादगी पसंद राहुल गांधी को चक्रव्यू भेद पाना मुश्किल दिखाई देता है. क्योंकि आज की राजनीति इतनी गंदली हो चुकी है उसमें साम, दाम, दंड, भेद से आगे का खेल खेला जाता है.

कांग्रेस अपने सिद्धांतों के साथ राजनीति के मैदान में लोगों से वोट मांगती है मगर आज की राजनीति उससे आगे निकल कर के एक ऐसे खतरनाक और भयावह रास्ते पर बढ़ गई है जिसमें कोई नैतिकता, कोई धर्म नहीं बचता. इसके अलावा भी राहुल के समक्ष बहुत सारी चुनौतियां हैं जिसमें महत्वपूर्ण है उनका आत्मविश्वास के साथ भाजपा के साथ चुनाव में उतरना, कांग्रेस का नेतृत्व का मामला भी एक बड़ा प्रश्न है जिसे सबसे पहले सुलझाना होगा, इसके साथ ही जिस तरीके से कांग्रेस के नेता पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं या फिर उन्हें लालच देकर के आकर्षित किया जा रहा है यह भी राहुल गांधी के लिए एक अनसुलझा सवाल है.

इन सब के बावजूद जिस तरीके से सोशल मीडिया में राहुल गांधी को उनके जन्मदिवस पर लोगों ने इसमें पूर्वक और एक सम्मान के भाव के साथ याद किया वह बताता है कि आने वाला समय राहुल गांधी का है.

जम्मू-कश्मीर: नरेंद्र दामोदरदास मोदी का अवैध खेला!

कश्मीर राज्य के 14 प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को संवाद के लिए 24 जून को शाम 3 बजे आमंत्रित किया गया है. और इसके साथ ही देशभर में  कश्मीर और लद्दाख में राजनीतिक हालात सामान्य करने और चुनाव के मसले पर चर्चा प्रारंभ हो गई है.

यह माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पश्चिम बंगाल में चुनाव पूरी तरह से हार जाने के पश्चात अब जम्मू कश्मीर में चुनाव करवाकर किसी तरह सत्ता हासिल करने के साथ, देश में यह संदेश देना चाहती है कि भाजपा अभी भी अपनी पूरी ताकत के साथ देश को नेतृत्व देने में सक्षम है.

जम्मू कश्मीर और लद्दाख को लेकर के जिस तरीके से भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार की एक रणनीति है, जिस पर हम इस रिपोर्ट में आगे चर्चा करेंगे. मगर यह समझ लें की भाजपा और केंद्र सरकार ने कदम दर कदम यहां काम किया है. अपनी गहरी घुसपैठ  जनाधार बनाने का प्रयास किया है. इससे उसे आत्मविश्वास है कि अब वह समय आ गया है जब चुनाव में भाजपा को आसानी से विजय मिलने की उम्मीद है.

और दोनों हाथों में लड्डू!

जम्मू कश्मीर और लद्दाख को तीन भागों में विभाजित करने के बाद लगभग 2 वर्ष तक जम्मू कश्मीर से लेकर देश और अंतरराष्ट्रीय मंच पर  केंद्र सरकार ने लगातार यह चर्चा बनाए रखने में कामयाबी प्राप्त की कि भारत सरकार का यह कदम उसके संवैधानिक अधिकारों में आता है. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ हो या अमेरिका अथवा चीन सभी इस मसले पर लगभग खामोश रहे. एक समय जम्मू कश्मीर में हालात अवश्य चिंता जनक बन गए मगर केंद्र ने उस पर इस तरह काबू किया कि वह भी अपने आप में आश्चर्यजनक रूप से सफलीभूत हुआ है. नरेंद्र दामोदरदास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह लगातार जम्मू कश्मीर और लद्दाख के मसले पर आगे बढ़ते ही चले गए हैं जहां तक वह जमीनी स्तर पर आम लोगों को और निचले स्तर के जनप्रतिनिधियों को विश्वास दिला करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास हुआ है. त्रिस्तरीय चुनाव संपन्न हुए हैं सरपंचों से गृह मंत्री ने सीधे बात की है.

यह सब बातें केंद्र और भाजपा की सरकार की, एक रणनीति रही है और सफल हुई है. ऐसे में अब वह समय आ गया है जब सरकार वहां चुनाव करवा करके भाजपा को एक मजबूत अमलीजामा पहनाना चाहती है, यही कारण है कि चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ करने की शुरुआत के रूप में जून की 24 तारीख को सभी राजनीतिक दलों के साथ प्रधानमंत्री और कुछ महत्वपूर्ण मंत्री आमने-सामने बातचीत करके यह संदेश देना चाहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव होने जा रहे हैं.

अब हालात ऐसे हैं कि अगर 14 दलों का गुपकार संगठन चुनाव में शिरकत करता है प्रधानमंत्री की बैठकों में बातचीत करता है अथवा नहीं करता है दोनों ही स्थितियों में बाजी भाजपा और केंद्र सरकार के हाथों में होगी.

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लोकतंत्र और देश दुनिया में संदेश

केंद्र सरकार देश और दुनिया में यह संदेश देने जा रही है कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख में शांति व्यवस्था काबू में है.  देश के लोकतांत्रिक  संवैधानिक अधिकारों के बहाली के साथ चुनाव संपन्न करवाए जा रहे हैं. वर्तमान समय में जिस तरीके से जम्मू कश्मीर के स्थानीय नेता फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती आदि नाराज बैठे हुए हैं अगर यह चुनाव में शिरकत करते हैं तो धीरे-धीरे माहौल बदलने लगेगा. दरअसल, अगरचे  कश्मीर में भाजपा सत्तासीन नहीं भी होती है तो बाजी उसके ही हाथों में ही होगी चुंकि पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म होने के पश्चात केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में उपराज्यपाल सत्ता के संवैधानिक प्रमुख होते हैं और चुनी हुई सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर सकती जो उसके अपने मन का एकतरफा हो.

इस तरह कुल मिलाकर  केंद्र सरकार की यह राजनीतिक चौपड़ बिछी हुई बिसात, जम्मू कश्मीर के नेताओं के लिए ना उगलते बनेगी ना निगलते.

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ऐसे में पाकिस्तान के पेट में यह मरोड़ उठनी शुरू हो गई है कि जम्मू कश्मीर में चुनाव का यह आगाज मोदी सरकार की कुछ ऐसी अवैध परियोजना है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ को रोकना चाहिए?

पाठकों! क्या आपको लगता है कि जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार कुछ ऐसा अवैध करने जा रही है, जो नहीं होना चाहिए. क्या राजनीतिक खेला और दांव-पेंच है यह हम आपके चिंतन के लिए छोड़ते हैं.

भूपेश बघेल के ढाई साल बनाम बीस साल!

बहुत समय से लोगों को इस पल का इंतजार था क्यों और कैसे हम आगे बताएंगे. मगर यहां यह बताना जरूरी है कि भूपेश बघेल के ढाई साल की सरकार ने जो जमीनी कार्य किए हैं वह अपने आप में मील के पत्थर सिद्ध हुए  हैं, सबसे महत्वपूर्ण कार्य है गरवा नरवा और बाड़ी का, जिसकी प्रशंसा सिर्फ कांग्रेस और हाईकमान ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के घोर विरोधी संघ अर्थात भारतीय जनता पार्टी की पितृ संस्था ने भूपेश बघेल से मुलाकात कर  की है.

भूपेश बघेल का मुख्यमंत्रित्व  काल इसलिए भी  रेखांकित करने योग्य है क्योंकि अल्प समय में ही उन्होंने जो विकास के कार्य किए हैं वे महत्वपूर्ण हैं यही नहीं उन्होंने आम लोगों से भिन्न लगातार आम जन से मुलाकात का सिलसिला बनाए रखा. भूपेश बघेल कोरोना कोविड 19 के समय काल में भी छत्तीसगढ़ की जनता से वर्चुअल ही सही लेकिन लगातार मुलाकात करते रहे और लोगों के दुख दर्द को समझ कर के दूर करने का निरंतर प्रयास किया. आमतौर पर जब कोई सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाता है तो उसमें एक मद दिखाई देता है मगर छत्तीसगढ़ इस संदर्भ में आज सौभाग्यशाली है कि भूपेश बघेल आज भी अपने आप को एक सामान्य साधारण सादगीपूर्ण गांधी वादी जीवन शैली अपनाते हुए लोगों के साथ सीधे जुड़े हुए दिखाई देते हैं.

रही बात ढाई साल के कार्यकाल पर उठे सवाल की तो यह अपने आप में आज एक जवाब है …. आगे इस पर हम विस्तार से चर्चा कर रहे हैं.

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किसानों, गरीब आदमी,जन हितैषी सरकार

भूपेश बघेल सरकार ने इन ढाई वर्ष  में लगातार केंद्र की उपेक्षा सही है अगर  यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा. हर पल  हर रास्ते पर केंद्र ने रोड़ा अटकाने का ही प्रयास किया. यह भूपेश बघेल सरकार के लिए एक ऐसा अंधेरा पक्ष है जिसे छत्तीसगढ़ के लोग ने देखा है. किसानों के बोनस का  मामला हो या धान खरीदी का हो केंद्र सरकार को  जैसे जिम्मेदार तरीके से एक संघीय ढांचे के तहत राज्य सरकार को मुक्त हस्त मदद करनी चाहिए थी वह मदद भूपेश बघेल को नहीं मिली. इसके लिए बावजूद किसानों के लिए जो कल्याणकारी कार्य भूपेश बघेल सरकार ने किए हैं वह अपने आप में ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं. 25 00 रूपए में प्रति कुंतल धान खरीदी ऐसा काम है जो देश में और कहीं नहीं हुआ, इस तरह भूपेश बघेल ने जहां किसानों को अपने पैरों पर खड़े करने के लिए काम किया है.

दरअसल, आज तक देश में कहीं भी ऐसा साहसिक कार्य नहीं हुआ है.इसके साथ ही सरकार में आते ही किसानों का सारा कर्ज माफ कर देना भी भूपेश बघेल सरकार का महत्वपूर्ण कार्य कहा जा सकता है. जबकि मध्य प्रदेश में ही कमलनाथ की कांग्रेस की सरकार ने बहुत कम राशि ही माफ की. जबकि भूपेश भगत सरकार ने सारी की सारी किसानों को दिये गए ऋण की राशि को माफ कर दिया. किसानों के लिए हृदय से जो काम छत्तीसगढ़ में हुआ है, वह देश के लिए एक नजीर है. यही नहीं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हों या फिर शिक्षक हों, इस  सरकार ने अल्प समय में ही ठोस काम करके दिखाया है कि सरकार को किस तरीके से जनहितकारी होना चाहिए इसका सबसे बड़ा उदाहरण है हाल ही में कोरोना वायरस के कारण ड्यूटी पर काल कवलित हुए शिक्षकों के एक परिजन को शासकीय नौकरी की पहल.

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भूपेश बघेल की कुर्सी पर संकट!

अगर यह कहा जाए भूपेश बघेल सरकार  के ढाई साल बनाम 20 वर्ष तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. क्योंकि इतने अल्प समय में ही छत्तीसगढ़ के जमीन से जुड़े हुए जो काम भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री के रूप में किए हैं वह कभी भुलाया नहीं जा सकते और जिनकी जमीनी स्तर पर बहुत आवश्यकता थी.  डॉ रमन सिंह की 15 वर्ष की सरकार से तुलना करें तो साफ है पहले सिर्फ हवा हवाई बन कर रह गई  थी सरकारें.  जैसे  एक सरकार को आम गरीब लोगों का हितेषी होना चाहिए यह भावना भूपेश बघेल की सरकार में दिखाई दी है चाहे वह राजस्व के साधारण से मामले हों, डॉ रमन सरकार ने 5 डिसमिल तक की भूमि के रजिस्ट्री पर  प्रतिबंध लगा दिया था.मगर भूपेश बघेल सरकार ने शपथ के साथ ही यह प्रतिबंध उठा लिया. ग्राम पंचायतों पर टैक्स लादा जाने वाला था. इसी तरह छोटी-छोटी और महत्वपूर्ण चीजों को भूपेश बघेल सरकार ने लागू किया और लोगों को बड़ी राहत दी.

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सरकार की लोकप्रियता के साथ ही यह अफवाह भी बाजार गर्म कर रही थी कि भूपेश बघेल तो सिर्फ ढाई साल के मुख्यमंत्री हैं! क्योंकि इसके बाद ढाई साल का कार्यकाल की एस सिंह देव संभालेंगे, मगर ढाई साल होते होते इस अफवाह के गुब्बारे से भी हवा निकल गई और लोगों ने देखा कि ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है.

हकीकत: अब विदेशी इमदाद के भरोसे कोरोना का इलाज

विदेशी अखबारों ने भारत में कोरोना फैलने की वजहों को ले कर संपादकीय लेख छापे हैं व बदतर हालात का जिक्र कर के दुनिया को जानकारी दी है. इस के बाद दूसरे देशों ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं.

‘बीबीसी वर्ल्ड’ ने लिखा है कि भारत के अस्पताल घुटनों के बल पड़े हैं, मरीजों का रैला लगा हुआ है.

‘टाइम्स मैगजीन’ ने लिखा कि यह नरक है. मोदी की नाकामियों के चलते भारत में कोरोना संकट गहराया है.

‘द गार्जियन’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि मोदी की गलतियों के चलते भारत में कोरोना बेकाबू हो कर विकराल हालात में आया है.

‘न्यूयौर्क टाइम्स’ लिखता है कि मजाकिया (हलके में लेने) और गलत फैसले की वजह से भारत में संकट गहराया है.

सभी अखबारों ने कुंभ में जुटी लाखों की भीड़ व 5 राज्यों में चुनावों की रैलियों को कोरोना फैलने की सब से बड़ी वजह बताया है.

गौरतलब है कि जिस सिस्टम की चर्चा भारतीय मीडिया कर रहा है, उस सिस्टम के मुख्य पदों पर पिछले 7 सालों में भगवाई और स्वयंसेवक संघ की बैकग्राउंड के लोगों को बिठाया गया व सिस्टम का मालिक यानी प्रधानमंत्री खुद संघ से आता है.

धर्म विशेष की राजनीति कर के सत्ता में आए लोगों से आपदा के समय वैज्ञानिक मैनेजमैंट की उम्मीद करना ही बेमानी है. यही वजह है कि मोदी सरकार के मंत्री औक्सीजन व बिस्तर का इंतजाम करवाने के लिए नारियल चढ़ाने या रामचरितमानस का पाठ पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.

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उत्तर प्रदेश सरकार कोरोना संकट के बीच अयोध्या जाने वाले हाईवे पर करोड़ों रुपए फूंकते हुए रामायणरूपी पौराणिक पात्रों की रंगोलियां बनवा रही है.

‘आस्ट्रेलियन फाइनैंशियल व्यू’ में एक कार्टून छपा है, जिस में मोदी को मरे हुए हाथी के ऊपर सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है, जिन के एक हाथ को रैली की भीड़ का अभिवादन स्वीकार करते हुए व दूसरे हाथ में भाषण को लालायित माइक थामे दिखाया गया है. मरा हुआ हाथी विशालकाय भारत का स्वरूप है.

देशी लश्कर ए मोदी मीडिया द्वारा अंधभक्तों की आंखों की पुतली पर विदेशों में डंका बजने वाला जो रंग चढ़ाया गया था, वह अब पूरी तरह से उतर चुका है. विदेशी अखबारों में जो छप रहा है, वह बेहद शर्मनाक है. 7 साल से सिस्टम पर कुंडली मार कर बैठे लोगों ने दिल्ली समेत 700 बड़ेबड़े पार्टी दफ्तर बनाने के लिए अरबों रुपए फूंक डाले हैं.

ये पैसे पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मनरेगा में काम कर के नहीं कमाए थे, बल्कि पीएम केयर फंड, टैक्स चोरी  व क्रोनीकैपिटलिज्म द्वारा हासिल किए गए थे.

आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेसबुक के पेज का कमैंट बौक्स चैक कीजिए. औक्सीजन व बिस्तर मांगने वालों की प्रोफाइल चैक कीजिए. पता चलेगा कि ज्यादातर लोग ‘भूतपूर्व चौकीदार’ हैं. ये घर की चौकीदारी के बजाय देश की चौकीदारी करने निकले थे, लेकिन राष्ट्रीय चौकीदार ने इन को उस जगह पर ला खड़ा कर दिया है, जहां मदद के लिए कोई नहीं दिख रहा है.

गौरतलब है कि महाराष्ट्र, दिल्ली व मध्य प्रदेश में कोरोना का विकराल रूप चल रहा था, तब बेपरवाह लोग केंद्रीय चुनाव आयोग के सहयोग से पश्चिम बंगाल जीतने निकले थे. पूरे देश पर पाबंदियां थोपते रहे और खुद पश्चिम बंगाल में नंगा नाच करते रहे थे.

इन के द्वारा पैदा की गई भूलों के चलते जनता ने भी गंभीरता से नहीं लिया और नतीजतन आज लाशों के ढेर पर देश खड़ा है. पश्चिम बंगाल में अब टैस्ट करवा रहे लोगों में से हर दूसरा इनसान कोरोना पौजिटिव आ रहा है.

5 महीनों से किसान आंदोलन कर रहे हैं, दुनियाभर में चर्चा हुई, संयुक्त राष्ट्र संघ तक ने भारत सरकार को नसीहत दी, लेकिन निष्ठुर लोगों ने उस पर ध्यान देने के बजाय किसानों की मौतों का मजाक उड़ाया, संसद तक में खड़े हो कर ‘आंदोलनजीवी’ कहते हुए तंज कसते रहे.

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वहीं, सामाजिक चिंतक रामनारायण चौधरी कहते हैं, ‘‘जिन को कत्ल का हुनर देख कर चुना गया हो, उन से रहमदिल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुझे यकीन है कि विदेशी मीडिया की इन खबरों से भी इन के दिलोदिमाग पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पश्चिम बंगाल में भयंकर रूप से फैले कोरोना व मरते लोगों की जिम्मेदारी भी ये नहीं लेंगे.

‘‘आपदा में अवसर का फायदा कालाबाजारी करने वाले उठा रहे हैं. भारत खुद को आत्मनिर्भर समझे और कोरोना से खुद लड़े, यह नसीहत पहले ही दे दी गई थी. जिस मिडिल क्लास ने पूंजीवाद की पूंछ पकड़ कर हरहर मोदी किया था, वह घरघर अर्थियां सजा रहा है. कुदरत उपहास उड़ाने वालों को उपहास का पात्र कब बना दे, कोई नहीं कह सकता.’’

कोरोना के कहर से कराह रहे गांव

आजकल वैश्विक महामारी कोरोना का कहर गांवदेहात के इलाकों में तेजी से बढ़ रहा है, फिर वह चाहे उत्तर प्रदेश हो, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश या फिर कोई दूसरा राज्य ही सही, जबकि राज्य सरकारों का दावा

है कि कोरोना महामारी का संक्रमण गांवों में बढ़ने से रोकने के लिए ट्रैकिंग, टैस्टिंग और ट्रीटमैंट के फार्मूले पर कई दिन से सर्वे किया जा रहा है यानी अभी तक सिर्फ सर्वे? इलाज कब शुरू होगा?

खबरों के मुताबिक, राजस्थान के जिले जयपुर के देहाती इलाके चाकसू में एक ही घर में 3 मौतें कोरोना के चलते हुई हैं.

यही हाल राजस्थान  के टोंक जिले का है. महज 2 दिनों में टोंक के अलगअलग गांवों में कई दर्जन लोगों की एक दिन  में मौत की कई खबरें थीं. इस के बाद शासनप्रशासन हरकत में आया.

जयपुर व टोंक के अलावा कई जिलों के गांवों में बुखार से मौतें होने की सूचनाएं आ रही हैं. राजस्थान के भीलवाड़ा में भी गांवों में बहुत ज्यादा मौतें हो रही हैं. इसी तरह दूसरे गांवों में भी कोरोना महामारी के बढ़ने की खबरें आ रही हैं. हालांकि सब से ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के गांवों में हो रही हैं, उस से कम गुजरात, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में मौतें हो रही हैं.

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कोरोना की पहली लहर में गांव  बच गए थे, लेकिन इस बार गांवों से बुखारखांसी जैसी समस्याएं ही नहीं, बल्कि मौतों की लगातार खबरें आ रही हैं. पिछली बार शहर से लोग भाग कर गांव गए थे, लेकिन इस बार गांव के हालात भी बदतर होते जा रहे हैं.

गौरतलब है कि पिछले साल कोरोना बड़े शहरों तक ही सीमित था, कसबों और गांवों के बीच कहींकहीं लोगों के बीमार होने की खबरें आती थीं. यहां तक कि पिछले साल लौकडाउन में तकरीबन डेढ़ करोड़ प्रवासियों के शहरों से देश के गांवों में पहुंचने के बीच कोरोना से मौतों की सुर्खियां बनने वाली खबरें नहीं आई थीं, लेकिन इस बार कई राज्यों में गांव के गांव बीमार पड़े हैं, लोगों की जानें जा रही हैं. हालांकि, इन में से ज्यादातर मौतें आंकड़ों में दर्ज नहीं हो रही हैं, क्योंकि टैस्टिंग नहीं है या लोग करा नहीं रहे हैं.

राजस्थान में जयपुर जिले की चाकसू तहसील की ‘भावी निर्माण सोसाइटी’ के गिर्राज प्रसाद बताते हैं, ‘‘पिछले साल मुश्किल से किसी गांव से किसी आदमी की मौत की खबर आती थी, लेकिन इस बार हालात बहुत बुरे हैं. मैं आसपास के 30 किलोमीटर के गांवों में काम करता हूं. गांवों में ज्यादातर घरों में कोई न कोई बीमार है.’’

गिर्राज प्रसाद की बात इसलिए खास हो जाती है, क्योंकि वे और उन की संस्था के साथी पिछले 6 महीने से कोरोना वारियर का रोल निभा रहे हैं.

राजस्थान के जयपुर जिले में कोथून गांव है. इस गांव के एक किसान  44 साला राजाराम, जो खुद घर में आइसोलेट हो कर अपना इलाज करा रहे हैं, के मुताबिक, गांव में 30 फीसदी लोग कोविड पौजिटिव हैं.

राजाराम फोन पर बताते हैं, ‘‘मैं खुद कोरोना पौजिटिव हूं. गांव में ज्यादातर घरों में लोगों को बुखारखांसी की दिक्कत है. पहले गांव में छिटपुट केस थे, फिर जब 5-6 लोग पौजिटिव निकले तो सरकार की तरफ से एक वैन आई और उस ने जांच की तो कई लोग पौजिटिव मिले हैं.’’

जयपुरकोटा एनएच 12 के किनारे बसे इस गांव की जयपुर शहर से दूरी महज 50 किलोमीटर है और यहां की आबादी राजाराम के मुताबिक तकरीबन 4,000 है.

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गांव में ऐसा क्या हुआ कि इतने लोग बीमार हो गए? इस सवाल के जवाब में राजाराम बताते हैं, ‘‘सब से पहले तो गांव में 1-2 बरातें आईं, फिर 23-24 अप्रैल, 2021 को यहां बारिश आई थी, जिस के बाद लोग ज्यादा बीमार हुए.

‘‘शुरू में लोगों को लगा कि मौसमी बुखार है, लेकिन लोगों को दिक्कत होने पर जांच हुई तो पता चला कि कोरोना  है. ज्यादातर लोग घर में ही इलाज करा रहे हैं.’’

जयपुर में रहने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता और जनस्वास्थ्य अभियान से जुड़े आरके चिरानियां फोन पर बताते हैं, ‘‘कोरोना का जो डाटा है, वह ज्यादातर शहरों का ही होता है. गांव में तो पब्लिक हैल्थ सिस्टम बदतर है. जांच की सुविधाएं नहीं हैं. लोगों की मौत हो भी रही है, तो पता नहीं चल रहा. ये मौतें कहीं दर्ज भी नहीं हो रही हैं.

‘‘अगर आप शहरों के हालात देखिए, तो जो डाटा हम लोगों तक आ रहा है, वह बता रहा है कि शहरों में ही मौतें आंकड़ों से कई गुना ज्यादा हैं. अगर ग्रामीण भारत में सही से जांच हो, आंकड़े दर्ज किए जाएं तो यह नंबर कहीं ज्यादा होगा.’’

ग्रामीण भारत में हालात कैसे हैं, इस का अंदाजा छोटेछोटे कसबों के मैडिकल स्टोर और इन जगहों पर इलाज करने वाले डाक्टरों (जिन्हें बोलचाल की भाषा में झोलाछाप कहा जाता है) के यहां जमा भीड़ से लगाया जा सकता है.

गांवकसबों के लोग मैडिकल स्टोर पर इस समय सब से ज्यादा खांसीबुखार की दवाएं लेने आ रहे हैं. एक मैडिकल स्टोर के संचालक दीपक शर्मा बताते हैं, ‘‘रोज के 100 लोग बुखार और बदन दर्द की दवा लेने आ रहे हैं. पिछले साल इन दिनों के मुकाबले ये आंकड़े काफी ज्यादा हैं.’’

कोविड 19 से जुड़ी दवाएं तो अलग बात है, बुखार की गोली, विटामिन सी की टैबलेट और यहां तक कि खांसी के अच्छी कंपनियों के सिरप तक नहीं मिल रहे हैं. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि खांसी और बुखार को लोग सामान्य फ्लू मान कर चल रहे हैं.

जयपुर जिले के चाकसू उपखंड से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर छांदेल कलां गांव है. इस गांव में तकरीबन 200 घर हैं और हर घर में कोई न कोई बीमार है. पिछले दिनों यहां एक बुजुर्ग की बुखार के बाद मौत भी हो गई थी, जो कोरोना पौजिटिव भी थे.

कोरोना से मां को खो चुके और पिता का इलाज करा रहे बेटे ने बताया, ‘‘मैं  2 लाख रुपए से ज्यादा का उधार ले चुका हूं. अब तो रिश्तेदार भी फोन नहीं उठाते.’’

उस बेटे की आवाज और चेहरे की मायूसी बता रही थी कि वह हताश है. हो भी क्यों न, उस के घर से एक घर छोड़ कर एक बुजुर्ग की मौत हुई थी.

रमेश और उन की पत्नी 15 दिनों से बीमार हैं. जिन के यहां मौत हुई, वे  इन के परिवार के ही थे. हाल पूछने पर रमेश कहते हैं, ‘‘

15 दिन से दवा चल रही है. कोई फायदा ही नहीं हो रहा, अब क्या कहें…’’

रमेश की बात खत्म होने से पहले उन से तकरीबन 15 फुट की दूरी पर खड़े 57 साल के लोकेश कुमावत बीच में ही बोल पड़ते हैं, ‘अरे, बीमार तो सब हैं, लेकिन भैया यहां किसी को भी कोरोना नहीं है और जांच कराना भी चाहो तो कहां जाएं, अस्पताल में न दवा है और न ही औक्सीजन. घर में रोज काढ़ा और भाप ले रहे हैं, बुखार की दवा खाई है, अब सब लोग ठीक हैं. और मौत आती है तो आने दो, एक बार मरना तो सभी को है.’’

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गांवों के हालात कैसे हैं? लोग जांच क्यों नहीं करवा रहे हैं? क्या जांच आसानी से हो रही है? इन सवालों पर सब के अलगअलग जवाब हैं, लेकिन कुछ चीजें बहुत सारे लोगों में बात करने पर सामान्य नजर आती हैं.

‘‘गांवदेहातों में मृत्युभोजों और शादीबरातों ने काम खराब किया है. लोग देख रहे हैं कि सिर पर मौत नाच रही है, लेकिन फिर भी वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं,’’ ग्रामीण इलाके के एक मैडिकल स्टोर संचालक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया.

एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा प्रभारी गांव में बुखार और कोविड 19 के बारे में पूछने पर कहते हैं, ‘‘कोविड के मामलों से जुड़े सवालों के जवाब सीएमओ (जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी) साहब ही दे पाएंगे, बाकी बुखारखांसी का मामला है कि इस  बार के बजाय पिछली बार कुछ नहीं था.

कई गांवों से लोग दवा लेने आते  हैं. फिलहाल तो हमारे यहां तकरीबन 600 ऐक्टिव केस हैं.’’

इस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीन 42 ग्राम पंचायतें आती हैं यानी तकरीबन 250 गांव शामिल हैं. चिकित्सा प्रभारी आखिर में कहते हैं, ‘‘अगर सब की जांच हो जाए, तो 40 फीसदी लोग कोरोना पौजिटिव निकलेंगे. गांवों के तकरीबन हर घर में कोई न कोई बीमार है, लक्षण सारे कोरोना जैसे, लेकिन न कोई जांच करवा रहा है और न सरकारों को चिंता है.’’

यह महामारी बेकाबू रफ्तार से ग्रामीण इलाकों पर अपना शिकंजा कसती जा रही है. हालात ये हैं कि ग्रामीण इलाकों के कमोबेश हर घर को संक्रमण अपने दायरे में ले चुका है. लगातार हो रही मौतों से गांव वाले दहशत में हैं. इस के बावजूद प्रशासन संक्रमण की रफ्तार थाम नहीं पा रहा है. यहां तक कि कोरोना जांच की रफ्तार भी बेहद धीमी है.

कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण इलाके महफूज रहे थे, लेकिन दूसरी लहर ने शहर की पौश कालोनियों से ले कर गांव की पगडंडियों तक का सफर बेकाबू रफ्तार के साथ तय कर लिया है.

दूसरी लहर में ग्रामीण इलाकों में कोरोना वायरस के संक्रमितों की तादाद में बेतहाशा रूप से बढ़ोतरी हुई है. हालात ये हैं कि कमोबेश हर घर में यह महामारी अपनी जड़ें जमा चुकी है. संक्रमितों की मौत के बाद मची चीखपुकार गांव की शांति में दहशत घोल देती है.

ग्रामीण इलाकों में हाल ही में सैकड़ों लोगों को यह महामारी मौत के आगोश में ले चुकी है. ग्रामीणों के घर मरीजों की मौजूदगी की वजह से ‘क्वारंटीन सैंटरों’ में तबदील होते जा रहे हैं. गलियों में सन्नाटा पसरा रहता है और चौपालें दिनभर सूनी पड़ी रहती हैं.

ज्यादातर ग्रामीण सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं. ऐसे में मजबूरी में उन्हें अपना इलाज खुद करना पड़ रहा है. मैडिकल स्टोरों से दवा खरीद कर वे कोरोना से जंग लड़ रहे हैं, जो सरकार के लिए शर्मनाक बात है.

बेदर्द सरकार पेट पर पड़ी मार

आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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