लेखक- रोहित और शाहनवाज
कोरोना की दूसरी लहर ने देश में हाहाकार मचा दिया है. इस की गवाही श्मशान से ले कर कब्रिस्तान ने चीखचीख के दे दी है. इस समय जिन्होंने अपने कानों को बंद कर लिया है, उन के लिए अस्पतालों में तड़पते लोग, गंगा में बहती लाशें किसी सुबूत से कम नहीं हैं. सैकड़ों मौतें सरकारी पन्नों में दर्ज हुईं, तो कई अनाम मौतें सरकार की लिस्ट में अपना नाम तक दर्ज नहीं कर पाईं.
कोरोना की पड़ती इस दूसरी मार से बचने के लिए देश की तमाम सरकारों ने अपनेअपने राज्यों में लौकडाउन लगाया, जिस से दिल्ली व एनसीआर का इलाका भी अछूता नहीं रहा.
कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने लौकडाउन को सिलसिलेवार तरीके से लागू किया. पहले नाइट कर्फ्यू लगाया गया, जिसे कुछ दिनों बाद वीकैंड कर्फ्यू में बदला गया और आखिर में हफ्ते दर हफ्ते पूरे लौकडाउन में तबदील किया गया.
जाहिर है, यह इसलिए हुआ, क्योंकि सभी सरकारों खासकर मोदी सरकार ने पिछले एक साल से कोई खास तैयारी नहीं की थी. अगर उन की पिछले एक साल की कोरोना प्रबंधन की रिपोर्ट मांगी जाए, तो सारी सरकारें बगलें ?ांकतीं और एकदूसरे पर छींटाकशी करती नजर आएंगी.
इस सब ने समाज के कौन से हिस्से पर गहरी चोट की है, उस पर आज कोई भी सरकार बात करने को तैयार नहीं है.
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पिछले साल जब देश में लौकडाउन लगा था, तब लाखों मजदूर शहरों से पैदल सैकड़ों मील चलने को मजबूर हुए थे. वे चले थे, क्योंकि लौकडाउन के चलते उन की नौकरियां, रहने और खानेपीने के लाले पड़ गए थे, क्योंकि सरकार ने बिना इंतजाम किए सख्त लौकडाउन लगा दिया था.
सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में लौकडाउन के चलते अप्रैल महीने में 12.2 करोड़ भारतीयों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. वहीं 60 लाख डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अकाउंटैंट ने मई से अगस्त 2020 में अपनी नौकरियां गंवाईं. उस दौरान सरकार ने लौकडाउन में यातायात के सारे साधनों को बंद कर दिया था और मजदूर तबके को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था.
इस साल भी सरकार ने मजदूरों के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए हैं. जो मजदूर शहरों में फिर से नई उम्मीद ले कर आए थे, उन्हें खाली हाथ निराश हो कर अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है. लौकडाउन से पहले बसअड्डों की भारी भीड़ ने इस बात की गवाही दी.
पिछले साल इन मजदूरों की आवाज सरकार तक पहुंची भी थी, पर इस साल उन की समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं है. जो मजदूर अभी भी शहरों में रुक गए हैं, उन का या तो गांव में कुछ भी नहीं है या वे घर का सामान गिरवी रख कर अपना घर चला रहे हैं. कई मजदूर ऐसे भी हैं, जिन के पास घर जाने तक का किराया भी नहीं है और वे यहांवहां से उधार मांग कर अपने खानेपीने का इंतजाम ही कर पा रहे हैं.
इस साल सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2021 में कम से कम 73 लाख कामगारों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं.
इन मजदूरों की हालत खस्ता है, काम नहीं है. गांव की जमीन गिरवी रख कर, घरों के गहने गिरवी रख कर ये जैसेतैसे अपना गुजारा चला रहे हैं. आखिर इन शहरों ने इन्हें दिया क्या है?
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एक समय था, जब गांव से कोई शहर अपनी माली हालत ठीक करने के लिए आता था, लेकिन आज ये शहर मानो काटने के लिए दौड़ रहे हैं. शहरों में बैठे हुक्मरान वादे और दावे दोनों करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन्हें सामाजिक सिक्योरिटी तक मुहैया नहीं है.
दिल्ली के बलजीत नगर के पंजाबी बस्ती इलाके में रहने वाले 19 साला ललित पेशे से मोची हैं. ललित समाज की दबाई गई उस जाति से संबंध रखते हैं, जिसे आमतौर पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आज भी वे इस काम को पारंपरिक तरीके से ढो रहे हैं.
ललित बताते हैं कि वे रोज ही सुबह 7 बजे से ले कर रात के 9 बजे तक अपने इलाके में तकरीबन 12-14 किलोमीटर तक चलते हैं. लौकडाउन के समय में बचबचा कर वे यह काम कर रहे हैं. कोई राहगीर उन से अपने जूतेचप्पल ठीक कराते हैं, तो वे दिन का 200 रुपए तक बना लेते हैं. लौकडाउन से पहले यह कमाई 400 रुपए तक हो जाती थी.
ललित के कंधे पर लकड़ी का छोटा संदूक रहता है, जिस के अंदर वे अपने पेशे से जुड़े औजार रखते हैं. वहीं उन के दूसरे हाथ में फटापुराना काला बस्ता रहता है, जिस में जूतेचप्पल की पौलिश करने का सामान होता है. संदूक का बो?ा इतना है कि लगातार उसे बाएं कंधे पर टांगे रखने की वजह से उन का कंधा ?ाक गया है.
ललित बताते हैं कि उन्होंने 7वीं जमात तक ही पढ़ाई की और घर में माली तंगी होने के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़ कर अपने पिताजी के इस परंपरागत काम को सीखना पड़ा.
ललित की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. उन के परिवार में पत्नी, बच्चे और मातापिता हैं. वे सभी अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, लेकिन पैसा न होने के चलते वे यहां बुरी तरह फंस चुके हैं. ललित जिस कालोनी में रहते हैं, वहां इसी पेशे से जुड़े और भी मोची हैं और सभी इस समय त्रस्त हैं.
यह सिर्फ ललित का हाल नहीं है, बल्कि पूरे देश में मजदूर तबके का हाल है. वे इस समय जिंदगी और मौत से जू?ा रहे हैं. उन्हें कोरोना से ज्यादा इस बात का डर लग रहा है कि कोरोना से पहले उन्हें भूख मार देगी. सरकार का हाल यह तबका पिछले साल ही देख चुका था, इसलिए इस साल इसे सरकार से कोई उम्मीद भी नहीं बची.
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ये लोग उस सरकार से उम्मीद भी लगाएं कैसे, जो इस समय प्राथमिकताएं ही नहीं तय कर पा रही है? ऐसे त्रस्त हालात में भी यह सरकार लोगों को माली और सामाजिक मदद पहुंचाने के बजाय अपनी शानोशौकत के लिए हजारों करोड़ रुपए का सैंट्रल विस्टा तैयार कर रही है.