जिजीविषा- भाग 3: अनु ने अचानक शादी करने का फैसला क्यों किया?

हां, जब कभी मायके जाना होता था तो मां के मना करने के बावजूद मैं अनु से मिलने अवश्य जाती थी. मुझे याद है हमारी पिछली मुलाकात करीब 10-12 साल पहले हुई थी जब मैं मायके गई हुई थी. अनु के घर जाने के नाम पर मां ने मुझे सख्त ताकीद की थी कि वह लड़की अब पुरानी वाली अनु नहीं रह गई है. जब से उसे सरकारी नौकरी मिली है तब से बड़ा घमंड हो गया है. किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती. सुना है फिर किसी यारदोस्त के चक्कर में फंस चुकी है. मैं जानती थी कि मां की सभी बातें निरर्थक हैं, अत: मैं ने उन की बातों पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा.

पर अनु से मिल कर इस बार मुझे उस में काफी बदलाव नजर आया. पहले की अपेक्षा उस में अब काफी आत्मविश्वास आ गया था. जिंदगी के प्रति उस का रवैया बहुत सकारात्मक हो चला था. उस के चेहरे की चमक देख कर आसानी से उस की खुशी का अंदाजा लग गया था मुझे. बीती सभी बातों को उस ने जैसे दफन कर दिया था. मुझ से बातों ही बातों में उस ने अपने प्यार का जिक्र किया. ‘‘अच्छा तो कब कर रही है शादी?’’ मेरी खुशी का ठिकाना न था.

‘‘शादी नहीं मेरी जान, बस उस का साथ मुझे खुशी देता है.’’ ‘‘तू कभी शादी नहीं करेगी… मतलब पूरी जिंदगी कुंआरी रहेगी,’’ मेरी बात में गहरा अविश्वास था.

‘‘क्यों, बिना शादी के जीना क्या कोई जिंदगी नहीं होती?’’ उस ने कहना जारी रखा, ‘‘सीमा तू बता, क्या तू अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट है?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने मेरी ओर कई प्रश्न उछाल दिए. ‘‘नहीं, लेकिन इस के माने ये तो नहीं…’’

‘‘बस इसी माने पर तो सारी दुनिया टिकी है. इंसान का अपने जीवन से संतुष्ट होना माने रखता है, न कि विवाहित या अविवाहित होना. मैं अपनी जिंदगी के हर पल को जी रही हूं और बहुत खुश हूं. मेरी संतुष्टि और खुशी ही मेरे सफल जीवन की परिचायक है. ‘‘खुशियों के लिए शादी के नाम का ठप्पा लगाना अब मैं जरूरी नहीं समझती. कमाती हूं, मां का पूरा ध्यान रखती हूं. अपनों के सुखदुख से वास्ता रखती हूं और इस सब के बीच अगर अपनी व्यक्तिगत खुशी के लिए किसी का साथ चाहती हूं तो इस में गलत क्या है?’’ गहरी सांस छोड़ कर अनु चुप हो गई.

मेरे मन में कोई उत्कंठा अब बाकी न थी. उस के खुशियों भरे जीवन के लिए अनेक शुभकामनाएं दे कर मैं वहां से वापस आ गई. उस के बाद आज ही उस से मिलना हो पाया था. हां, मां ने फोन पर एक बार उस की तारीफ जरूर की थी जब पापा की तबीयत बहुत खराब होने पर उस ने न सिर्फ उन्हें हौस्पिटल में एडमिट करवाया था, बल्कि उन के ठीक होने तक मां का भी बहुत ध्यान रखा था. उस दिन मैं ने अनु के लिए मां की आवाज में आई नमी को स्पष्ट महसूस किया था. बाद में मेरे मायके जाने तक उस का दूसरी जगह ट्रांसफर हो चुका था. अत: उस से मिलना संभव न हो पाया था. एक बात जो मुझे बहुत खुशी दे रही थी वह यह कि आज अकेले में जब मैं ने उस से उस के प्यार के बारे में पूछा तो उस ने बड़े ही भोलेपन से यह बताया कि उस का वह साथी तो वहीं छूट गया, पर प्यार अभी भी कायम है. एक दूसरे साथी से उस की मुलाकात हो चुकी है औ वह अब उस के साथ अपनी जिंदगी मस्त अंदाज में जी रही है. मैं सच में उस के लिए बहुत खुश थी. उस का पसंदीदा गीत आज मेरी जुबां पर भी आ चुका था, जिसे धीरेधीरे मैं गुनगुनाने लगी थी…

‘हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी… छांव है कभी, कभी है धूप जिंदगी… हर पल यहां जी भर जियो… जो है समा, कल हो न हो.’

जिजीविषा: अनु ने अचानक शादी करने का फैसला क्यों किया?

जीने की इच्छा : कैसे अरुण ने दिखाया बड़प्पन

‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी. अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

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अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया.

लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा. थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली.

अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे. ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई. मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करत थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

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अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मुझे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’

दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जाकर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’ अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछचाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

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अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

ममा मेरा घर यही है

बेटी पारुल से फोन पर बात खत्म होते ही मेरे मस्तिष्क में अतीत के पन्ने फड़फड़ाने लगे. पति के औफिस से लौटने का समय हो रहा था, इसलिए डिनर भी तैयार करना आवश्यक था. किचन में यंत्रचालित हाथों से खाना बनाने में व्यस्त हो गई. लेकिन दिमाग हाथों का साथ नहीं दे रहा था.

बचपन से ही पारुल स्वतंत्र विचारों वाली, जिद्दी लड़की रही है. एक बार जो सोच लिया, सो सोच लिया. होस्टल में रहते हुए उस ने कभी मुझे अपनी छोटीबड़ी समस्याओं में नहीं उलझाया, उन को मुझे बिना बताए ही स्वयं सुलझा लेती थी. इस के विपरीत, मैं अपने परिचितों को देखती थी कि जबतब उन के बच्चों के फोन आते ही, उन की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन के होस्टल पहुंच जाया करते थे.

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एक दिन अचानक जब पारुल ने अपना निर्णय सुनाया कि एक लड़का रितेश उसे पसंद करता है और वह भी उस को चाहती है, दोनों विवाह करना चाहते हैं तो मैं सकते में आ गई और सोच में पड़ गई कि जमाना खराब है, किसी ने अपने जाल में उसे फंसा तो नहीं लिया. देखने में सुंदर तो वह है ही, उम्र भी अभी अपरिपक्व है, पूरी 22 वर्ष की तो हुई है अभी. ये सब सोच कर मैं बहुत चिंतित हो गई कि यदि उस ने सही लड़के का चयन नहीं किया होगा और जिद की तो वह पक्की है ही, तो फिर क्या होगा.

कुछ दिनों के सोचविचार के बाद तय हुआ कि रितेश से मिला जाए. पारुल के जन्मदिन पर उस को आमंत्रित किया गया और वह आ भी गया. वह सुदर्शन था, एमबीए की पढ़ाई पूरी कर के किसी नामी कंपनी में सीनियर पोस्ट पर कार्यरत था. पढ़ाई में आरंभ से ही अव्वल रहा. वह हम सब को बहुत भा गया था. केवल विजातीय होने के कारण विरोध करने का कोई औचित्य नहीं लगा. हम ने विवाह की स्वीकृति दे दी. लेकिन रितेश के  मातापिता ने आरंभ में तो रिश्ता करने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इकलौते बेटे की जिद के कारण उन्हें घुटने टेकने पड़े और विवाह धूमधाम से हो गया. पारुल अनचाही बहू बन कर ससुराल चली गई.

पारुल अपने मधुर स्वभाव के कारण ससुराल में सब की चहेती बन गई. सब के दिल में स्थान बनाने के लिए उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि ऐसा करने में उसे रितेश का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ. उस ने पाया कि रितेश का अपने परिवार से तालमेल ही नहीं था. बिना लिहाज के अपने मातापिता को कभी भी कुछ भी बोल देता था. पारुल हैरान होती थी कि कोईर् अपने जन्मदाता से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता था. उसे समझाने की कोशिश करती तो वह और भड़क जाता था.

धीरेधीरे उस को एहसास हुआ कि दोष उस में नहीं, उस की परवरिश में है. उस के अपने मातापिता के विपरीत, रितेश के मातापिता उस की भावनाओं की कभी भी कद्र नहीं करते थे. अब इतना बड़ा हो गया था, फिर भी उस की बात को महत्त्व नहीं देते थे, जिस का परिणाम होता था कि वह आक्रोश में कुछ भी बोल देता था. कभीकभी पारुल असमंजस की स्थिति में आ जाती थी कि किस का साथ दे, मातापिता की गलती देखते हुए भी बड़े होने का लिहाज कर के उन को कुछ भी नहीं बोल पाती थी.

एक दिन मांबेटे में विवाद इतना बढ़ गया कि रितेश ने तुरंत अलग घर लेने का निर्णय ले डाला. पारुल ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ. वह क्या करती, मां ने भी अपने अहं के कारण उसे नहीं रोका. वह दोनों के बीच पिस गई. अंत में उसे पतिधर्म निभाना ही पड़ा.

अपने परिवार से अलग होने के बाद तो रितेश और भी मनमाना हो गया. जो लड़का विवाह के पहले कभी अपनी मां से ही नहीं जुड़ा, वह अपनी पत्नी से क्या जुड़ेगा. विवाह जैसे प्यारभरे बंधन के रेशमी धागे उसे लोहे की जंजीरें लगने लगीं. आरंभ से ही होस्टल में स्वच्छंद रहने वाले रितेश को विवाह एक कैद लगने लगा.

एक दिन अचानक रितेश का फोन मेरे पास आया, बोला, ‘अपनी बेटी को समझाओ, बच्ची नहीं है अब…’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करे, पारुल ने उस के हाथ से फोन ले लिया और कहा, ‘ममा, आप बिलकुल परेशान मत होना. ऐसे ही इस ने बिना सोचेसमझे आप को फोन घुमा लिया. छोटेमोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं.’ लेकिन रितेश को पहली बार इतनी अशिष्टता से बात करते हुए सुन कर मैं सकते में आ गई, सोचने लगी कि उन की अपनी पसंद का विवाह है, फिर क्या समस्या हो सकती है.

एक बार मैं ने और मेरे पति ने मन बनाया कि पारुल के यहां जा कर उस का घर देखा जाए. उस ने कईर् बार बुलाया भी था. विचार आते ही हम दोनों पुणे पहुंच गए. वे दोनों स्टेशन लेने आए थे. सालभर बाद हम उन से मिल रहे थे. मिलते ही मेरी दृष्टि पारुल के चेहरे पर टिक गई. उस का चेहरा पहले से अधिक कांतिमय लग रहा था. सुंदर तो वह पहले से ही थी, अब अधिक लावण्यमयी लग रही थी. मुझे याद आया कि जब रितेश के मातापिता ने विवाह से इनकार कर दिया था तो उस का चेहरा कितना सूखा और निस्तेज लगता था, तब हम कितना घबरा गए थे. आज उस को देख कर बहुतबहुत तसल्ली हुई थी.

10 किलोमीटर की दूरी पर उन का घर था. वहां पहुंच कर मैं ने पाया कि वह 2 बैडरूम का घर था. पारुल ने अपने घर को बहुत व्यवस्थित ढंग से सजा रखा था. घर के रखरखाव में तो उसे बचपन से ही बहुत रुचि थी. यह देख कर बहुत संतोष हुआ कि सासससुर के साथ रहते हुए, रितेश का उन से तालमेल न होने के कारण रातदिन  जो विवाद होते थे, वे समाप्त हो गए हैं और वे दोनों आपस में बहुत प्रसन्न हैं.

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लेकिन मेरा यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया. अगले दिन ही सुबह मैं ने देखा कि रितेश पारुल को छोटीछोटी बातों में नीचा दिखाने से नहीं चूकता था, चाहे उस के खाने का, कपड़े पहनने का या खाना बनाने का ढंग हो. वह उस के किसी भी कार्यकलाप से खुश नहीं रहता था. बातबात में उसे ताने देता रहता था कि उस को कुछ नहीं आता, वह कुछ नहीं कर सकती.

पारुल चुपचाप सुनती रहती थी. रितेश की उस से इतनी अधिक अपेक्षाएं रहती थीं कि उन को पूरा करना उस के वश की बात नहीं थी. उस के जिन गुणों, उस का मासूम लुक देता चेहरा, उस की नाजुकता, उस की मीठी आवाज, के कारण विवाह से पहले उस पर रीझा था, वे सब उस के लिए बेमानी हो गए थे.

हम दोनों अवाक उस की बेसिरपैर की बातें सुनते थे. मैं मन ही मन सोचती रहती थी कि क्या यही प्रेमविवाह की परिणति होती है. रितेश ने जिस से विवाह करने के लिए एक बार अपने मातापिता का गृह तक त्याग कर दिया था, आज उसी का व्यंग्यबाणों से कलेजा छलनी कर रहा था. दामाद था इसलिए उसे क्या कहते, लेकिन, आखिर कब तक?

एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं पारुल से बोली, ‘चल, अभी हमारे साथ वापस चल. हम ने देख लिया और बहुत झेल लिया तुम लोगों का तमाशा.’ मेरे बोलते ही रितेश उठ कर घर से चला गया.

पारुल बोली, ‘ममा, मुझे उस की तो आदत पड़ गई है. मेरा उस को छोड़ कर आप के साथ जाना ठीक है क्या? ऐसी बातें तो होती रहती हैं. देखना थोड़ी देर में वह सबकुछ भूल जाएगा और सामान्य हो जाएगा.’ मैं अपनी बेटी पारुल की बात सुन कर दंग रह गई. इतनी सहनशील तो वह कभी नहीं थी पर आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है. मैं ने कहा, ‘बेटा, तूने उस के इस बरताव के बारे में हमें कभी कुछ बताया नहीं.’

‘क्या बताती ममा, शादी भी तो मेरी मरजी से हुई थी, आप सुन कर करतीं भी क्या? लेकिन इस में रितेश की भी गलती नहीं है, ममा. आप को पता है उस की मां ने बचपन में ही उसे होस्टल में डाल दिया था. उस ने कभी जाना ही नहीं परिवार क्या होता है और उस का सुख क्या होता है. कभी उस की इच्छाओं को प्राथमिकता दी ही नहीं गई, न ही कभी कोई कार्य करने पर उसे प्रोत्साहन के दो बोल ही सुनने को मिले. इसलिए ही ऐसा है. वह दिल का बुरा नहीं है. आज उस की बदौलत ही इतनी अच्छी जिंदगी जी रही हूं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आप चिंता न करें.’

लेकिन मुझ पर उस के तर्क का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा था. पारुल ने मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर रितेश को फोन कर के घर आने के लिए कहा. और वह आ भी गया. दोनों ने एक ओर जा कर कोईर् बात की. उस के बाद रितेश हमारे पास आया और बोला, ‘सौरी ममापापा.’ हम दोनों का मन यह सुन कर थोड़ा हलका हुआ. हमारे लौटने का दिन करीब होने पर हम पारुल के सासससुर से मिलने गए. उस की सास ने कहा, ‘मेरी बहू पारुल तो बहुत स्वीट नेचर की है. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं है.’ हमें यह सोच कर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम उस की सास तो उस से बहुत प्रसन्न रहती है.

एक दिन पारुल ने जब मुझे मेरे नानी बनने का समाचार दे कर हमें चौंका दिया तो हम खुशी से फूले नहीं समाए. उस का कहना था कि उस की डिलीवरी के समय मुझे ही उस के पास रहना होगा, नहीं तो रितेश और अपनी सास के विवादों से उस समय वह परेशान हो जाएगी.

नियत समय पर मैं उस के पास पहुंच गई. उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. दोनों ओर के परिवार वालों के साथ रितेश भी बहुत प्रसन्न हुआ. मैं ने मन में सोचा, पारुल के मां बनने के बाद शायद उस का बरताव उस के प्रति बदल जाए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैं जब भी पारुल से उस के स्वभाव के बारे में जिक्र करती, उस का कहना होता, ‘ममा, आप उस की अच्छाइयां भी तो देखो, कितना स्वावलंबी और मेहनती है, मेरा कितना खयाल रखता है. थोड़ा जबान का वह कड़वा है, तो होने दो. अब उस की आदत पड़ गई है, जो मुश्किल से ही छूटेगी.’

मैं मां थी, मुझे तो रितेश के रवैये से तकलीफ होनी स्वाभाविक थी. 2 महीने किसी तरह निकाल कर मैं भारी मन से वापस लौट आई.

प्रिशा के जन्म के बाद पारुल ने नौकरी छोड़ दी और उस के लालनपालन में मग्न रहने लगी. लेकिन रितेश उस के इस निर्णय से बहुत क्षुब्ध रहता था. उस का कहना था कि प्रिशा को क्रैच में छोड़ कर भी तो वह नौकरी जारी रख सकती थी. उस के विचारानुसार उस के लिए सुखसुविधाओं के साधन जुटाने मात्र से उन का उस के प्रति कर्तव्यों की पूर्ति हो सकती है.

इस के विपरीत, पारुल सोचती थी कि कोई भी संस्था बच्चे के पालनपोषण में मां का विकल्प हो ही नहीं सकती. वह नहीं चाहती थी कि उस से दूर रहने के कारण वह भी अपने पापा का पर्याय बने. ऐसा कोई आर्थिक कारण भी नहीं था कि उसे मजबूरी में नौकरी करनी पड़े.

पारुल अपनी बेटी प्रिशा की बढ़ती हुई उम्र की एकएक गतिविधि का आनंद उठाना चाहती थी. उस के लालनपालन में वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहती थी. उस की तो पूरी दुनिया ही बेटी में सिमट कर आ गई थी. जो भी देखता, उस के पालने के ढंग को देख कर प्रशंसा किए बिना नहीं रहता था. इस का परिणाम बहुत जल्दी प्रिशा की गतिविधियों में झलकने लगा था. प्रिशा अपने हावभाव से सब का मन मोह लेती थी. मुझे भी यह देख कर पारुल पर गर्व होता था. लेकिन रितेश ने तो उस के विरोध में बोलने का जैसे प्रण ले रखा था.

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पारुल की सास तो मेरे सामने उस की प्रशंसा करते हुए नहीं थकती थीं. पोती होने के बाद तो वे अकसर पारुल के पास जाती रहती थीं. अपने बेटे के पारुल के प्रति उग्र स्वभाव से वे भी बहुत दुखी रहती थीं. उन्होंने कई बार पारुल से कहा कि वह उन के साथ आ कर रहे, लेकिन उस ने मना कर दिया. उसे लगा कि रितेश के अकेले की गलती तो है नहीं.

मुझे पारुल पर गुस्सा भी आता था कि आखिर स्वाभिमान भी तो कुछ होता है, पढ़ीलिखी है, अकेले रह कर भी नौकरी कर के प्रिशा को पाल सकती है. पहले वाला जमाना तो है नहीं कि विवश हो कर लड़कियां पति के अत्याचार सहते हुए भी उन के साथ रहें. मैं ने उसे कई बार समझाया, ‘वह सुधरने वाला नहीं है. आदमी दिल का कितना भी अच्छा हो, उसे अपनी जबान पर भी तो कंट्रोल होना चाहिए. तू उस से अलग हो जा, हम तुझे पूरा सहयोग देंगे. मैं रितेश से बात करूं क्या?’ तो उस ने आज जो फोन पर उत्तर दिया, उस ने तो मेरी सोच पर पूर्णविराम लगा दिया था.

‘ममा, शादी का निर्णय मेरा था. आप मेरी चिंता बिलकुल न करें. आगे मेरे भविष्य के लिए मुझे ही सोचने दीजिए. मेरे ही जीवन का प्रश्न नहीं है, मुझे प्रिशा के भविष्य के बारे में भी सोचना है. बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए मांबाप दोनों का उस के साथ होना आवश्यक है. फिर रितेश उसे कितना प्यार करता है और उस के पालनपोषण में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ता है.

‘आप जानती हैं, मेरी ससुराल वाले भी मुझे और प्रिशा दोनों को कितना प्यार करते हैं. रितेश से रिश्ता टूटने पर हम दोनों का उन से भी रिश्ता टूट जाएगा. आखिर उन का क्या कुसूर है? प्रिशा को उस के पापा और दादादादी के प्यार से वंचित रखने का मुझे क्या अधिकार है? प्रिशा को थोड़ा बड़ा हो जाने दो. 3 साल की हो गई है. आज के बच्चे पहले की तरह दब्बू नहीं हैं. देखना, वही अपने पापा का सुधार करेगी.

‘शादी एक समझौता है. यह 2 व्यक्तियों का ही नहीं, 2 परिवारों का बंधन है. इस के टूटने से बहुत सारे लोग प्र्रभावित हो सकते हैं. अभी ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं रितेश से संबंध तोड़ लूं. आखिर मैं ने उस से प्यार किया है. उस को आदत पड़ गई है छोटीछोटी बातों पर रिऐक्ट करने की, जो, हालांकि, अर्थहीन होती हैं. कभी न कभी उसे समझ आएगी ही, ऐसा मुझे विश्वास है.’

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पारुल ने धाराप्रवाह बोल कर मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया. एक बार तो यह लगा कि मैं उस की मां नहीं, वह मेरी मां है. विवाह के बाद कितनी समझदार हो गई है वह. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं कभी कि पति से रिश्ता तोड़ने पर पूरे परिवार से संबंध टूट जाते हैं. मुझे अपनी बेटी पर गर्व होने लगा था.

साक्षी के बाद: भाग 2

‘बसबस, तुम्हें इस हाल में टैंशन नहीं लेनी है, साक्षी. मम्मीजी भी जल्द ही बदल जाएंगी. तुम इतनी प्यारी हो कि कोई भी तुम से ज्यादा दिन नाराज नहीं रह सकता.’

साक्षी को बेटी हुई. परियों सी प्यारी, गुलाबी, गोलमटोल. बिलकुल साक्षी की तरह. मां को पोते की चाह थी शिद्दत से, लेकिन आई पोती. साक्षी डर रही थी कि न जाने उसे क्याक्या सुनना पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मम्मीजी ने नवजात कन्या को झट से उठा कर सीने से लगा लिया. खुशी से उन की पलकें भीग गईं, ‘मेरी सोनीसुहानी बच्ची,’ वे बोलीं और बस, उसी दिन से बच्ची का नाम ‘सुहानी’ हो गया.

अच्छी जिंदगी गुजर रही थी साक्षी की. वह न के बराबर ही मायके जाती थी. 4 बरस की थी सुहानी, जब फिर से साक्षी गर्भवती हुई पर इस बार वह बेटा चाहती थी.

‘पूर्वा भाभी, मैं सोनोग्राफी करवाऊंगी, अगर लड़का हुआ तो रखूंगी, नहीं तो…’

‘नहीं तो क्या?’

साक्षी ने खामोशी से सिर झुका लिया.

‘इतनी पढ़ीलिखी हो कर कैसी सोच है तुम्हारी साक्षी? मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी. ऐसा कभी सोचना भी नहीं, समझीं?’

‘भाभी, लड़कियों के साथ कितने झंझट हैं, आप क्या जानें. आप की तो कोई बहन नहीं, बेटी नहीं, आप के पास तो बेटा है भाभी, इसीलिए आप ऐसा कह रही हैं.’

‘मैं भी लड़की चाहती थी साक्षी, सूर्य आया तो इस में मेरा क्या कुसूर? रही बात बेटी की तो क्या सुहानी मेरी बेटी नहीं?’

‘वह तो है भाभी, फिर भी…’

‘जाने दो न. कौन जाने बेटा ही हो तुम्हें.’

बात आईगई हो गई. अभी तो कुछ ही दिन चढ़े थे साक्षी को.

‘‘पूर्वा, लो चाय लो.’’

पूर्वा जैसे गहरी बेहोशी से बाहर आई. अरुण कब लौटे, कब ताला खोल कर भीतर आए और कब चाय भी बना लाए, वह जान ही नहीं पाई.

‘‘पी लो पूर्वा, थोड़ा आराम मिलेगा, फिर हमें चलना भी है. साक्षी घर आ गई है.’’

पूर्वा के पेट में जैसे एक गोला सा उठा. दर्द की एक तीखी लहर पोरपोर दुखा गई. नहीं भर सकी वह चाय का 1 घूंट भी.

वह दिसंबर की एक सुबह थी. हड्डियां कंपा देने वाली ठंड पड़ रही थी, लेकिन पूर्वा पर जैसे कोई असर नहीं कर रही थी ठंड. जब अरुण का हाथ थामे वह साक्षी के घर पहुंची, तो उस का कलेजा मुंह को आ गया यह देख कर कि उस हाड़ कंपा देने वाली ठंड में बर्फीले संगमरमर के फर्श पर मात्र एक चटाई पर साक्षी की निष्प्राण देह पड़ी थी.

साक्षी की सास बिलख रही थीं. अब तक रुके पूर्वा के आंसू जैसे बांध तोड़ कर बह निकले. साक्षी से लिपट कर चीखचीख कर रोने लगी वह. इसी ड्राइंगरूम में ही तो 6 साल पहले, पहला पग धरा था साक्षी ने. यहीं, इसी जगह बिछे कालीन पर बैठ कर ही तो कंगना खुलवाया था संदीप से साक्षी ने. सहसा पीठ पर एक स्नेहिल स्पर्श का आभास हुआ और किसी ने सुबकते हुए उसे बांहों में बांध लिया. वह सुनंदा दीदी थीं.

साक्षी की मां सूना मन और भरी आंखें लिए उस के सिरहाने बैठी थीं मौन भाव से, एकटक बेटी को निहारती. एक आंसू भी नहीं टपका उन की आंखों से.

साक्षी की बहन स्वाति कंबल में लिपटी सोई हुई सुहानी को कस कर सीने से लगाए एक कोने में बैठी थी… खामोश… बस आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी.

हाय, कितनी बार मना किया बिटिया को पर एक न सुनी इस ने… कहते हुए साक्षी की सास फिर से रोने लगीं.

पूर्वा का जी चाहा कि चीख कर कहे कि नहीं मम्मीजी, झूठ न बोलिए. आप ने बिलकुल मना नहीं किया साक्षी को, बल्कि उस से ज्यादा तो आप चाहती थीं कि दूसरी बेटी न आए.

उसे याद आया, उस के आगरा जाने से 1 दिन पहले की ही तो बात है. संदीप और सुहानी को दफ्तरस्कूल भेज कर सुबह 9 बजे ही आ गई थी साक्षी. चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. बोली, ‘पूर्वा भाभी, वही हुआ जिस का मुझे डर था.’

‘क्या हुआ साक्षी?’

‘सोनोग्राफी रिपोर्ट आ गई है, पूर्वा भाभी. लड़की ही है. मुझे अबौर्शन करवाना ही होगा.’

‘एक मां हो कर अपने ही बच्चे को मारोगी साक्षी, तो क्या चैन से जी पाओगी?’

‘मुझे नहीं चाहिए लड़की बस,’ दोटूक फैसला सुना दिया दृढ़ स्वर में साक्षी ने.

‘क्यों नहीं चाहिए? क्या संदीप भाई नहीं चाहते?’

‘नहीं, ऐसा होता तो प्रौब्लम ही क्या थी. संदीप को तो बहुत पसंद हैं बेटियां, भाभी.’

‘तो क्या मम्मीजी नहीं चाहतीं?’

‘पूर्वा भाभी, बहुत सहा है लड़की बन कर मैं ने, मेरी मां ने औैर बहन स्वाति ने भी. जानती हैं भाभी, हम 3 बहनें थीं. पापा जब गए तब मैं सिर्फ 10 साल की थी, स्वाति 6 साल की और सब से छोटी सिमरन, जो बेटे की आस में हुई थी, सिर्फ सवा साल की थी. पापा के गम में डूबी मां उस की ठीक से देखभाल नहीं कर पाईं और उसे डायरिया हो गया.

इलाज के लिए पैसे नहीं थे मां के पास…उस का डायरिया बिगड़ता गया और वह मर गई. मैं ने, मां और स्वाति ने बहुत तकलीफें उठाई हैं. मैं तो निकल आई पर वे दोनों अब भी… उन के दर्द की आंच हर पल झुलसाती है मुझे, पूर्वा भाभी. संघर्षों की आग में झोंकने के लिए एक और लड़की को मैं दुनिया में नहीं ला सकती.’

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नया ठिकाना- भाग 3: क्या मेनका और रवि की शादी हुई?

रवि बोलने लगा, ‘‘आप लोग चिंता मत कीजिए. हम आप को 6,000 रुपए महीना भेजते रहेंगे. किसी तरह वहां का घरजमीन बेच कर मामा के गांव में ही जमीन ले लीजिए. अगर दिक्कत होगी, तो आप दोनो को यहां शहर भी ला सकते हैं.’’

‘नहीं बेटा, हम लोग यहीं रहेंगे. शहर में नहीं आएंगे.’

रवि 12,000 रुपए महीने पर सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने लगा था. मेनका एक ब्यूटीपार्लर में रिसैप्शन पर 8,000 रुपए महीना पर काम करने लगी थी. दोनों के दिन खुशीखुशी बीत रहे थे.

इसी बीच कोरोना बीमारी की चर्चा होने लगी. आज प्रधानमंत्री का भाषण टैलीविजन पर आने वाला था. प्रधानमंत्री ने सभी लोगों को एक दिन के ‘जनता कर्फ्यू’ की कह कर घर पर बिठा दिया. 21 मार्च को शाम 5 बजे 5 मिनट तक अपने घर की छत से थाली और ताली बजाने को कहा गया.

देशभर के लोगों ने थाली और ताली, घंटी और शंख तक बजा दिए. प्रधानमंत्री सम झ गए कि वे जो बोलेंगे, जनता मानेगी. इस के बाद उन्होंने टैलीविजन पर बड़ा फैसला सुनाया कि अब देश में 21 दिन का लौकडाउन होगा और जो जहां है, वहीं रहेगा. सभी गाडि़यां, बस, ट्रेन और हवाईजहाज तक बंद रहेंगे. सिर्फ राशन और दवा की दुकानें खुली रहेंगी.

दूसरे दिन से हर जगह पर पुलिस प्रशासन मुस्तैद हो गया. किसी तरह बंद कमरे में 21 दिन बिताए, पर फिर 19 दिन का और लौकडाउन बढ़ा दिया गया. अब जितने भी काम करने वाले लोग थे, वे हर हाल में घर जाने का मन बनाने लगे. कंपनी के मालिक ने पैसा देना बंद कर दिया.

रवि और मेनका के अगलबगल के सारे लोग अपनेअपने घर के लिए निकल पड़े. संजय ने भी 1,200 रुपए में एक पुरानी साइकिल खरीद कर चलने का मन बना लिया.

रवि ने अपने मामा के पास फोन किया, तो मामा ने कहा, ‘यहां भूल कर भी मत आना. अगर लड़की वालों को मालूम हो गया तो तुम्हारे साथसाथ हम लोग भी मुश्किल में पड़ जाएंगे.’

आखिर मेनका और रवि जाएं तो जाएं कहां? मेनका पेट से थी. संजय दूसरे दिन साइकिल ले कर निकल गया था. पूरे मकान में सिर्फ रवि और मेनका ही बच गए थे. कोरोना के मरीज हर रोज बढ़ रहे थे. कुछ हो गया, तो कोई साथ नहीं देगा.

रवि ने भी एक साइकिल खरीद ली और मेनका को बोला, ‘‘चलो, हम लोग भी निकल चलें. चाहे जो भी हो, एक दिन तो सब को मरना ही है.’’

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रवि अपना सारा सामान मकान मालिक को 15,000 रुपए में बेच कर निकल पड़ा. रास्ते के लिए कुछ खाना बना लिया. 4 बजे भोर में रवि मेनका को साइकिल की पीछे वाली सीट पर बैठा कर चल पड़ा.

धीरेधीरे शाम हो गई थी. रवि को तेज प्यास लगी थी. सड़क के किनारे एक आलीशान मकान था. गेट के पास एक नल था. रवि रुक कर बोतल में पानी भर रहा था.

उस आलीशान मकान से गेट तक एक बुढि़या आई और पूछने लगी, ‘‘बेटा, तुम लोग कहां से आ रहे हो?’’

‘‘माताजी, हम लोग दिल्ली से आ रहे हैं और बिहार जाएंगे.’’

‘‘अरे, साइकिल से तुम लोग इतनी दूर जाओगे?’’

‘‘हां माताजी, क्या करें. जिस कंपनी में काम करते थे, वह बंद हो गई. मकान मालिक किराया मांगने लगा, तो सभी किराएदार निकल गए. हम लोग क्या करते?’’

‘‘अब रात में तुम लोग कहां रुकोगे?’’

‘‘माताजी, कहीं भी रुक जाएंगे.’’

‘‘अरे, तुम दोनों यहीं रुक जाओ. यहां मेरे घर में कोई नहीं रहता. एक हम हैं और एक खाना बनाने वाली नौकरानी. तुम लोग चिंता मत करो. तुम लोग जैसे मेरे भी बेटाबहू हैं, जो अमेरिका में रहते हैं. वहां दोनों डाक्टर हैं.’’

रवि ने हां कर दी. वह औरत उन  दोनों को घर में ले गई और नौकरानी को बोली, ‘‘2 लोगों का और खाना बना देना.’’

रवि बोला, ‘‘माताजी, हम लोगों के पास खाना है. आप ने रुकने के लिए जगह दे दी, यही बहुत है.’’

‘‘कोई बात नहीं. वह खाना तुम लोगों को रास्ते में काम आएगा.’’

‘‘अच्छा, ठीक है माताजी.’’

इस के बाद वे दोनों फ्रैश हुए. उस के बाद मेनका और बूढ़ी माताजी आपस में बातें करने लगीं.

बूढ़ी माताजी कहने लगीं, ‘‘मेरा भी एक ही बेटा है. वह अमेरिका में डाक्टर है. वहीं उस ने शादी कर ली. 10 साल के बाद पिछले साल जब वह यहां आया था, तब उस के पिताजी इस दुनिया में नहीं रहे थे.

‘‘मेरे पति आईएएस अफसर थे. बहुत अरमान से बेटे को डाक्टरी पढ़ाई थी. मु झे पैसे की कोई कमी नहीं है. 40,000 रुपए पैंशन मिलती है. जमीनजायदाद से साल में 5 लाख रुपए की आमदनी हो जाती है.’’

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खाना खा कर बात करतेकरते काफी रात बीत गई. सुबह जब रवि और मेनका उठे, तो दिन के 8 बज गए थे. नहानाधोना करतेकरते 9 बज गए थे. जब दोनों निकलने की तैयारी करने लगे, तो बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘धूप बहुत हो गई है. अब तुम दोनों कल सुबह जल्दी निकलना.’’

दोनों आज भी वहीं रुक गए थे. मेनका नौकरानी के साथ खाना बनाने में मदद करने लगी थी.

बूढ़ी माता रात को अपना दुखदर्द सुनाते हुए रोने लगीं, ‘‘सिर्फ पैसे से ही खुशी नहीं मिलती. मेरे बेटे को शादी किए 10 साल हो गए हैं. मैं ने आज तक अपनी बहू को देखा तक नहीं. एक पोता भी हुआ है, पर उसे भी आज तक देखने का मौका नहीं मिला.’’

मेनका को लगा जैसे उसे नई मां मिल गई है. रात को उस ने बूढ़ी माताजी के पैर दबाए और तेल लगाया. बूढ़ी माताजी को आज असली सुख का एहसास होने लगा था.

सुबह जब रवि ने निकलने के लिए बोला, तो बूढ़ी माता जिद पर अड़ गईं, ‘‘तुम लोग हमेशा यहीं रहो न…’’

रवि और मेनका को भी नया ठिकाना मिल गया था और वे खुशीखुशी यहीं रहने लगे.

नया ठिकाना: क्या मेनका और रवि की शादी हुई?

नया ठिकाना- भाग 2: क्या मेनका और रवि की शादी हुई?

‘‘अरे बेटा, हमारी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है. लड़की वाले भी बढि़या हैं. तुम्हारे मामा जब शादी के लिए लड़की वाले को ले कर आए हैं, तो उन की बात भी माननी चाहिए. बता रहे थे कि लड़की भी सुंदर और सुशील है. उस के मातापिता भी बहुत अच्छे हैं. इस तरह का परिवार दोबारा नहीं मिलेगा. लड़की भी मैट्रिक पास है. शादी में अच्छा पैसा भी देने के लिए तैयार हैं… और क्या चाहिए?’’

रवि उदास हो गया. उसे सम झ में नहीं आ रहा था कि पिताजी को क्या जवाब दे. वह उल झन में पड़ गया. एक तरफ मातापिता और दूसरी तरफ दिलोजान से चाहने वाली मेनका.

रवि मेनका के फोन का इंतजार करने लगा. अब तो मेनका ही कुछ उपाय निकाल सकती है.

रात 11 बजे मोबाइल की घंटी बजी. हैलोहाय होने के बाद मेनका ने पूछा, ‘आज गुमटी नहीं खोले थी?’

रवि बोला, ‘‘अरे, बहुत गड़बड़ हो गई है.’’

‘क्या हुआ?’

‘‘कुछ रिश्तेदार घर आए थे.’’

‘तुम्हारी शादी के लिए आए थे क्या?’

‘अरे हां, उसी के लिए आए थे. तुम्हें कैसे मालूम हुआ?’

‘मैं तुम्हारी एकएक चीज का पता करती रहती हूं.’

‘‘अच्छा छोड़ो, मु झे उपाय बताओ. इस से छुटकारा कैसे मिलेगा? मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता हूं. मांबाबूजी शादी करने के लिए अड़े हुए हैं. सम झ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं? तुम्हीं कुछ उपाय निकालो.’’

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मेनका बोली, ‘एक ही उपाय है. हम लोग यहां से दूसरी जगह किसी शहर में निकल जाएं.’

‘‘गुमटी का क्या करें?’’

‘बेच दो.’

‘‘बाहर क्या करेंगे?’’

‘वहां तुम कोई नौकरी ढूंढ़ लेना. मेरे लायक कुछ काम होगा, तो मैं भी कर लूंगी.’

‘‘लेकिन, यहां मांबाबूजी का क्या होगा?’’

‘रवि, तुम्हें हम दोनों में से एक को छोड़ना ही पड़ेगा. मांबाबूजी को छोड़ो या फिर मु झे.’

‘‘क्यों?’’

‘इसलिए कि मेरे मांपिताजी किसी भी शर्त पर तुम्हारे साथ मेरी शादी नहीं होने देंगे. इस की 2 वजहें हैं, पहली हम लोग अलगअलग जाति के हैं. दूसरी, मेरे मांपिताजी नौकरी करने वाले लड़के से मेरी शादी करना चाहते हैं.’

रवि बोलने लगा, ‘‘मेरे सामने तो सांपछछूंदर वाला हाल हो गया है. मांबाबूजी को भी छोड़ना मुश्किल लग रहा है और तुम्हारे बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता.’’

मेनका बोली, ‘सभी लड़के तो बाहर जा कर काम कर ही रहे हैं. उन्होंने क्या अपने मांबाप को छोड़ दिया है? वहां से तुम अपने मांबाप के पास पैसे भेजते रहना. जब यह गुमटी बेचना तो कुछ पैसे मांबाबूजी को भी दे देना. मांबाबूजी को पहले से ही सम झा देना.’

‘‘अच्छा, ठीक है. इस पर विचार करते हैं,’’ रवि ने कहा.

रवि का एक दोस्त संजय दिल्ली में काम करता था. उस से मोबाइल पर बराबर बातें होती थीं. रवि और संजय दोनों पहली क्लास से मैट्रिक क्लास तक एकसाथ पढ़े थे. संजय मैट्रिक के बाद दिल्ली चला गया था और रवि ने पान की गुमटी खोल ली थी.

संजय की शादी भी हो गई थी. उस की पत्नी गांव में ही रहती थी. संजय साल में 1 या 2 बार गांव आता था.

अगले दिन रवि ने संजय को फोन किया, ‘‘यार संजय, मेरे लिए भी काम दिल्ली में खोज कर रखना. एक कमरा भी देख लेना.’’

संजय बोला, ‘मजाक मत कर.’

‘‘नहीं यार, मैं सीरियसली बोल रहा हूं. अब गुमटी भी पहले जैसी नहीं चल रही है. बहुत दिक्कत हो गई है. घर का खर्चा चलाना मुश्किल हो गया है. तुम मेरे लंगोटिया यार हो. मैं अपना दुखदर्द किस से कहूंगा?’’

संजय बोला, ‘मैं यहां एक कंपनी में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करता हूं. तुम चाहोगे तो मैं तु झे ऐसी ही गार्ड की नौकरी दिलवा सकता हूं. हर महीने 10,000 रुपए मिलेंगे. ओवरटाइम करोगे, तो 12,000 रुपए तक हर महीने कमा लोगे.’

‘‘ठीक है. एक कमरा भी खोज लेना.’’

‘ठीक है, जब मन करे तब आ जाना,’ संजय ने कहा.

रवि गांव से शहर जाने का मन बनाने लगा. वह अपने मांबाबूजी से बोला, ‘‘मु झे शहर में अच्छा काम मिलने वाला है. एक साल कमाऊंगा तो यहां नया घर बना लूंगा. उस के बाद शादी करूंगा.’’

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यह सुन कर रवि के बाबूजी बोलने लगे, ‘‘हम लोग यहां तुम्हारे बिना कैसे रहेंगे?’’

‘‘मैं सब इंतजाम कर के जाऊंगा. वहां से पैसा भेजता रहूंगा. संजय बाहर रहता है, तो उस के मांबाबूजी यहां कौन सी दिक्कत में हैं? सब पैसा कमाते हैं. पैसा है तो सबकुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं है.’’

‘‘हां बेटा, वह तो है. तुम जो ठीक सम झो.’’

रवि ने 70,000 रुपए में सामान समेत गुमटी बेच दी और उन में से 30,000 रुपए अपने मांबाबूजी को दे दिए. बाकी अपने पास रख लिए. अब वह यहां से निकलने की प्लानिंग करने लगा.

उस ने मेनका को फोन किया. मेनका बोली, ‘आज मेरे पापा मामा के यहां जाने वाले हैं. मैं स्कूल जाने के बहाने घर से निकलूंगी और ठीक 10 बजे बसस्टैंड पर रहूंगी.’

दूसरे दिन दोनों ठीक 10 बजे बसस्टैंड पहुंच गए. बस से दोनों गया रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां से ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंच गए.

वहां रवि ने संजय को फोन किया. वह स्टेशन आ गया. रवि के साथ एक लड़की को देख कर संजय हैरान रह गया, पर कुछ पूछ नहीं सका.

वह उन दोनों को अपने कमरे पर ले गया. उस के बाद दोनों को फ्रैश होने के लिए बोला.

जब मेनका नहाने के लिए गई, तो संजय ने पूछा, ‘‘यह साथ में किस को ले कर आ गए हो? मु झे पहले कुछ बताया भी नहीं.’’

रवि ने सारी बात बता दी. संजय जहां पर रहता था, उसी मकान में एक कमरा था, जो हाल में ही खाली हुआ था. उसे रवि को  दिलवा दिया.

रवि और संजय दोनों बाजार से जा कर बिस्तर, गैस, चावल और जरूरत का दूसरा सामान खरीद कर ले आए. इस के बाद रवि और मेनका दोनों साथसाथ रहने लगे.

संजय ने जब अपने घर फोन किया तो उस की मां ने बताया कि रवि एक लड़की को ले कर भाग गया है. पंचायत ने रवि के मातापिता को गांव से निकल जाने का फैसला सुनाया है. मालूम हुआ है कि वे दोनों रवि के मामा के यहां चले गए हैं. रवि को ऐसा नहीं करना चाहिए था, लेकिन संजय ने अपनी मां को नहीं बताया कि रवि उसी के पास आया हुआ है.

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संजय ने रवि को सारी बातें बता दीं. रवि ने जब अपने मामा के यहां फोन किया, तो उस के मामा ने उसे बहुत भलाबुरा कहा.

रवि के पिताजी ने कहा, ‘अब हम लोग गांव में मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. हम ने कभी सपने में भी नहीं  सोचा था कि तुम इस तरह का काम करोगे. लेकिन एक बात बता रहे हैं कि कभी भूल कर भी तुम लोग गांव नहीं लौटना, नहीं तो लड़की के मातापिता तुम दोनों की हत्या तक कर देंगे.’

नया ठिकाना- भाग 1: क्या मेनका और रवि की शादी हुई?

गुमटी चलाने वाले रवि की उम्र भी तकरीबन 20 साल होगी. वह भी गोरा, लंबा और हैंडसम था. इस के अलावा वह बहुत हंसमुख लड़का था. किसी भी ग्राहक से मुसकराते हुए बातें करता था. उस की दुकान अच्छी चलती थी.

हर उम्र के लोग रवि की गुमटी पर दिखते थे. बच्चे चौकलेट और चिप्स के लिए, बुजुर्ग पान के लिए, तो नौजवान बीड़ीसिगरेट के लिए, तो औरतें साबुन और शैंपू के लिए.

रवि की गुमटी एक बड़ी बस्ती में थी, जहां कई गांवों के लोग खरीदारी करने के लिए आते थे. इस बस्ती में एक हाईस्कूल था, जहां आसपास के कई गांवों के लड़केलड़कियां पढ़ने के लिए आते थे. इस स्कूल में इंटर क्लास तक की पढ़ाई होती थी. इस बस्ती में जरूरत की तकरीबन हर चीज मिल जाती थी.

रवि के पिता दमा की बीमारी से परेशान रहते थे. घर का सारा काम रवि की मां करती थीं. इस परिवार का सहारा यही गुमटी थी. सुबह 7 बजे से ले कर रात 9 बजे तक रवि इसी गुमटी में बैठ कर सामान बेचा करता था. उसे खाने और नाश्ता करने तक के लिए फुरसत नहीं मिलती थी.

रवि खुशमिजाज होने के साथसाथ दिलदार भी था. किसी के पास अगर पैसे नहीं होते थे तो वह उसे उधार सामान दे दिया करता था. ग्राहकों को चाचा, भैया, दीदी, चाची से ही संबोधित करता था.

स्कूल में सालाना जलसा मनाया जा रहा था. आज भी वह लड़की जींसटौप पहने रवि की गुमटी पर चिप्स और चौकलेट लेने आई थी. आज वह बला की खूबसूरत लग रही थी.

रवि ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

लड़की ने हंसते हुए कहा, ‘‘नाम जान कर क्या करेंगे?’’

रवि ने कहा, ‘‘ऐसे ही पूछ लिया. माफ करना.’’

लड़की बोली, ‘‘इस में माफी मांगने की क्या बात है? मेरा नाम मेनका है. वैसे, आज हमारे स्कूल में कार्यक्रम है. आप भी देखने आइएगा.’’

‘‘तुम भी हिस्सा लोगी क्या?’’ रवि ने पूछा.

मेनका बोली, ‘‘हां, मैं भी डांस करूंगी.’’

रवि बोला, ‘‘कितने बजे से कार्यक्रम शुरू होगा?’’

‘‘यही तकरीबन 11 बजे से.’’

रवि बोला, ‘‘कोशिश करूंगा.’’

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मेनका बोली, ‘‘कोशिश नहीं जरूर आइएगा. नाटक, गीतसंगीत और डांस… एक से बढ़ कर एक कार्यक्रम होगा. पहली बार इस तरह का बड़ा कार्यक्रम रखा गया है. उद्घाटन करने के लिए विधायकजी आने वाले हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. जरूर आऊंगा.’’

रवि स्कूल में 10 बजे ही पहुंच गया. मंच पर परदा लगाने और दूसरे कामों में मदद करने लगा. रवि भी इसी स्कूल से मैट्रिक पास हुआ था. वह भी पढ़ने में होशियार था. मजबूरी में उस ने यह गुमटी खोली थी.

विधायकजी मंच पर आए. फूलमाला और बुके दे कर उन्हें सम्मानित किया गया. उन्होंने दीया जला कर मंच का उद्घाटन किया. अपने विधायक फंड से स्कूल के चारों तरफ से चारदीवारी बनवाने का आश्वासन दिया.

स्वागत गीत, नाटक, सामूहिक लोकगीत यानी एक से बढ़ कर एक रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए गए. सब से आखिर में मेनका के डांस का ऐलान हुआ.

लहंगाचुनरी पहने जब मेनका ‘मैं नाचूं आज छमछम…’ गीत पर डांस करने लगी, तो वहां मौजूद लोग देखते रह गए. रवि तो उस का डांस देख कर बहुत ज्यादा खुश हो गया.

मेनका को डांस प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला. रवि के दिलोदिमाग पर मेनका का डांस घर कर गया था. उसे रातभर नींद नहीं आई.

दूसरे दिन सुबह 10 बजे मेनका फिर गुमटी पर चिप्स और चौकलेट लेने आई. रवि तो मन ही मन उस का इंतजार ही कर रहा था.

मेनका को देखते ही रवि बोलने लगा, ‘‘तुम ने क्या गजब का डांस किया. लोग तो तुम्हारी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं. जिधर सुनो, उधर तुम्हारी ही चर्चा.’’

जब मेनका चिप्स और चौकलेट के पैसे देने लगी, तो रवि ने कहा, ‘‘यह मेरी तरफ से गिफ्ट है. हम गरीब आदमी और दे ही क्या सकते हैं?’’

मेनका कुछ नहीं बोली और चिप्स व चौकलेट इसलिए ले ली कि रवि के दिल को ठेस न पहुंचे.

वैसे, मेनका भी रवि के विचारों से प्रभावित हो गई थी. उस ने एक दिन रवि से उस का मोबाइल नंबर मांगा. रवि तो इस का इंतजार ही कर रहा था, लेकिन खुद मोबाइल नंबर मांगने में संकोच कर रहा था.

आज रवि बेहद खुश था. वह मेनका के फोन का इंतजार कर रहा था. जब भी उस का मोबाइल बजता तो दिल धड़कने लगता. पर जब देखता कि किसी दूसरे का फोन है तो उस का मन खीज उठता.

रवि रात का खाना खा कर अपने बिस्तर पर करवटें बदल रहा था. उसे नींद नहीं आ रही थी. ठीक रात 11 बजे उस का फोन बजा. उस ने जल्दी से फोन रिसीव किया, तो उधर से सुरीली आवाज आई, ‘सो गए क्या?’

रवि बोला, ‘‘तुम ने तो मेरी नींद ही गायब कर दी है. जिस दिन से मैं ने तुम्हारा डांस देखा है, उस दिन से मेरे दिमाग में वही घूमता रहता है. रात में नींद ही नहीं आती है.’’

यह सुन कर मेनका एक गाना गाने लगी, ‘मु झे नींद न आए, मु झे चैन न आए, कोई जाए जरा ढूंढ़ के लाए, न जाने कहां दिल खो गया…’

‘‘अरे मेनका, तुम तो गजब का गीत गाती हो. मैं तो सम झा था कि तुम सिर्फ डांस ही करती हो. कोयल से भी सुरीली आवाज है. इस तरह की सुरीली आवाज कम लोगों को ही मिलती है…’’

वे दोनों काफी समय तक इधरउधर की बहुत सारी बातें करते रहे. रवि को मेनका से यह भी जानकारी मिली कि उस के पिता सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर हैं और मां सरकारी स्कूल में टीचर हैं. बातें करतेकरते पता ही नहीं चला और भोर के 4 बजे गए.

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मेनका बोली, ‘अब कल रात को बात करेंगे.’

रवि ने हां बोला और सुबह की सैर के लिए बाहर चला गया.

चायनाश्ता कर के रवि समय पर अपनी गुमटी पर हाजिर हो गया. उस के दिमाग से अब मेनका का चेहरा उतर ही नहीं रहा था.

ठीक 10 बजे मेनका आई और मुसकराते हुए चिप्स और चौकलेट ली. आंखों से इशारा किया, पैसे दिए और चलने लगी.

रवि पैसे नहीं लेना चाहता था, लेकिन वहां कई लोग खड़े थे, इसलिए वह पैसे लेने से इनकार नहीं कर सका.

मेनका अब हर रात रवि को फोन करती थी. छुट्टी का दिन छोड़ कर वह जब भी स्कूल आती, गुमटी पर जरूर आती. चिप्स और चौकलेट के बहाने रवि को नजर भर देखती और चली जाती.

रवि की शादी का रिश्ता आया था. रवि के पिताजी ने उस से कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है. तुम्हारी मां भी काम करतेकरते परेशान हो जाती है. जीतेजी अगर अपनी बहू देख लेते तो…’’

‘‘पिताजी, इस गुमटी से 3 लोगों का ही पेट पालना मुश्किल होता है. किसी तरह घर में 2 कमरे बन जाते, तब शादी कर लेता,’’ रवि ने कहा.

वचन -भाग -1: जब चिकचिक और शोरशराबे से परेशान हुई निशा

Anita Jain

निशा ने अपने जन्मदिन के अवसर पर हम सब के लिए बढि़या लंच तैयार किया. छक कर भोजन करने के बाद सब आराम करने के लिए जब उठने को हुए तो निशा अचानक भाषण देने वाले अंदाज में उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘मैं आप सब से आज कुछ मांगना चाहती हूं,’’ कुछ घबराते, कुछ शरमाते अंदाज में उस ने अपने मन की इच्छा प्रकट की.

हम सब हैरान हो कर उसे देखने लगे. उस का यह व्यवहार उस के शांत, शर्मीले व्यक्तित्व से मेल नहीं खा रहा था. वह करीब 3 महीने पहले मेरी पत्नी बन कर इस घर में आई थी. सब बड़ी उत्सुकता से उस के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

‘‘आप सब लोग मुझ से बड़े हैं और मैं किसी की डांट का, समझाने का, रोकनेटोकने का जरा सा भी बुरा नहीं मानती हूं. मुझे कोई समझाएगा नहीं तो मैं सीखूंगी कैसे?’’ निशा इस अंदाज में बोल रही थी मानो अब रो देगी.

‘‘बहू, तू तो बहुत सुघड़ है. हमें तुझ से कोई शिकायत नहीं. जो तेरे मन में है, तू खुल  कर कह दे,’’ मां ने उस की तारीफ कर उस का हौसला बढ़ाया. पापा ने भी उन का समर्थन किया.

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‘‘बहू, तुम्हारी इच्छा पूरी करने की हम कोशिश करेंगे. क्या चाहती हो तुम?’’

निशा हिचकिचाती सी आगे बोली, ‘‘मेरे कारण जब कभी घर का माहौल खराब होता है तो मैं खुद को शर्म से जमीन में गड़ता महसूस करती हूं. प्लीज…प्लीज, आप सब मुझे ले कर आपस में झगड़ना बिलकुल बंद कर दीजिए…अपने जन्मदिन पर मैं बस यही उपहार मांग रही हूं. मेरी यह बात आप सब को माननी ही पड़ेगी…प्लीज.’’

मां ने उसे रोंआसा होते देखा, तो प्यार भरी डांट लगाने लगीं, ‘‘इस घर में तो सब का गला कुछ ज्यादा जोर से ही फटता है. बहू, तुझे ही आदत डालनी होगी शोर- शराबे में रहने की.’’

‘‘वाह,’’ अपनी आदत के अनुसार पापा मां से उलझने को फौरन तैयार हो गए, ‘‘कितनी आसानी से सारी जिम्मेदारी इस औरत ने बहू पर ही डाल दी है. अरे, सुबह से रात तक चीखतेचिल्लाते तेरा गला नहीं थकता? अब बहू के कहने से ही बदल जा.’’

‘‘मैं ही बस चीखतीचिल्लाती हूं और बाकी सब के मुंह से तो जैसे शहद टपकता है. कोई ऐसी बात होती है घर में जिस में तुम अपनी टांग न अड़ाते हो. हर छोटी से छोटी बात पर क्लेश करने को मैं नहीं तुम तैयार रहते हो,’’ मां ने फौरन आक्रामक रुख अपना लिया.

‘‘तेरी जबान बंद करने का बस यही इलाज है कि 2-4 करारे तमाचे…’’

गुस्से से भर कर मैं ने कहा, ‘‘कहां की बात कहां पहुंचा देते हैं आप दोनों. इस घर की सुखशांति भंग करने के लिए आप दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं.’’

‘‘मनोज भैया, आप भी चुप नहीं रह सकते हो,’’ शिखा भी झगड़े में कूद पड़ी, ‘‘इन दोनों को समझाना बेकार है. आप भाभी को ही समझाओ कि इन की कड़वी बात को नजरअंदाज करें.’’

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हम दोनों के बोलते ही मम्मी और पापा अपना झगड़ा भूल गए. उन का गुस्सा हम पर निकलने लगा. मैं तो 2-4 जलीकटी बातें सुन कर चुप हो गया, पर शिखा उन से उलझी रही और झगड़ा बढ़ता गया.

हमारे घर में अकसर ऐसा ही होता है. आपस में उलझने को हम सभी तैयार रहते हैं. चीखनाचिल्लाना सब की आदत है. मूल मुद्दे को भुला कर लड़नेझगड़ने में सब लग जाते हैं.

अचानक निशा की आंखों से बह कर मोटेमोटे आंसू उस के गालों पर लुढ़क आए थे. सब को अपनी तरफ देखते पा कर वह हाथों में मुंह छिपा कर रो पड़ी. मां और शिखा उसे चुप कराने लगीं.

करीब 5 मिनट रोने के बाद निशा ने सिसकियों के बीच अपने दिल का दर्द हमें बताया, ‘‘जैसे आज झगड़ा शुरू हुआ ऐसे ही हमेशा शुरू हो जाता है…मेरी बात किसी ने भी नहीं सुनी…क्या आप सब मेरी एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? मेरी खुशी के लिए मेरे जन्मदिन पर एक छोटा सा वचन नहीं दे सकते?’’

हम सभी ने फटाफट उसे वचन दे दिया कि उस की इच्छा पूरी करने का प्रयास दिल से करेंगे. उस का आंसू बहाना किसी को भी अच्छा नहीं लग रहा था.

निशा ने आखिरकार अपनी मांग हमें बता दी, ‘‘घर का हर काम कर के मुझे खुशी मिलती है. मेरा कोई हाथ बटाए, वह बहुत अच्छी बात होगी, लेकिन कोई किसी दूसरे को मेरा हाथ बटाने को कहे…सारा काम उसे करने को आदेश दे, यह बात मेरे दिल को दुखाती है. मैं सब से यह वचन लेना चाहती हूं कि कोई किसी दूसरे को मेरा हाथ बटाने को नहीं कहेगा. यह बात खामखा झगड़े का कारण बन जाती है. जिसे मेरी हैल्प करनी हो, खुद करे, किसी और को भलाबुरा कहना आप सब को बंद करना होगा. आप सब को मेरी सौगंध जो आगे कोई किसी से कभी मेरे कारण उलझे.’’

निशा को खुश करने के लिए हम सभी ने फौरन उसे ऐसा वचन दे डाला. वह खुशीखुशी रसोई संभालने चली गई. उस वक्त किसी को जरा भी एहसास नहीं हुआ कि निशा को दिया गया वचन आगे क्या गुल खिलाने वाला था. कुछ देर बाद पापा ने रसोई के सामने से गुजरते हुए देखा कि निशा अकेली ढेर सारे बरतन मांजने में लगी हुई थी.

‘‘शिखा,’’ वह जोर से चिल्लाए, ‘‘रसोई में आ कर बहू के साथ बरतन क्यों नहीं…’’

‘‘पापा, अभीअभी मुझे दिया वचन क्यों भूल रहे हैं आप?’’ निशा ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘पापा, प्लीज, आप दीदी से कुछ मत कहिए.’’

कुछ पलों की बेचैनी व नाराजगी भरी खामोशी के बाद उन्होंने निर्णय लिया, ‘‘ठीक है, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, पर तुम्हारे काम में हाथ बटाना तो तेरे हाथ में है. मैं मंजवाता हूं तेरे साथ बरतन.’’

अपने कुरते की बाजुएं ऊपर चढ़ाते हुए वे निशा की बगल में जा खड़े हुए. वे अभी एक तश्तरी पर ही साबुन लगा पाए थे कि मां भागती रसोई में आ पहुंचीं.

‘‘छी…यह क्या कर रहे हो?’’ उन्होंने पापा के हाथों से तश्तरी छीनने की असफल कोशिश की.

मां ने चिढ़ और गुस्से का शिकार हो शिखा को ऊंची आवाज में पुकारा तो निशा ने दबी, घबराई आवाज में उन के सामने भी हाथ जोड़ कर वचन की याद दिला दी.

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