बैलेंसशीट औफ लाइफ- भाग 3: अनन्या की जिंदगी में कैसे मच गई हलचल

कर के मुझे छेड़ा कि यह अनन्या कहीं तुम ही तो नहीं, मैं ने उस समय हंसी में टाल दिया था पर मैं अनुज से बातें करने के बाद समझ गया था कि तुम्हारे बारे में ही लिखा गया है पर ऐसी बातों को तूल देने में मैं कोई समझदारी नहीं समझता. जो हुआ सो हुआ. इसलिए, तुम से यह बात नहीं की. तुम भी इस बात को इग्नोर कर दो.’’

‘‘मगर सुमित, मैं ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना चाहती हूं, जो अपनी कहानी की पब्लिसिटी के लिए कई लड़कियों के जीवन से खिलवाड़ कर रहा है. यह तो तुम इतने अच्छे इंसान हो मगर जरा सोचो, कोई और हो तो क्याक्या हो सकता है. मेरे मन को तभी सुकून मिलेगा जब मैं उसे ऐसा सबक सिखाऊंगी कि पब्लिसिटी को तरसते लोग आजीवन याद रखे…मैं दिल्ली जाना चाहती हूं, सुमित.’’ ‘‘उस के लिए तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जो तुम्हें उसे कहना है, फोन पर कह लो. वैसे क्या कहना है?’’

‘‘उस का फोन नंबर कहां है हमारे पास? मैं उसे मानहानि के केस की धमकी दे कर उस का अपमान करना चाहती हूं.’’ ‘‘ठीक है, तुम चाहो तो गीता से बात भी कर सकती हो. वैसे हमें सिर्फ डराना और मानसिक परेशानी ही तो देनी है उसे. हमें उस का पैसा तो बिलकुल भी नहीं चाहिए. मुझे आराम से गीता का नंबर मिल सकता है. मेरे बौस की रिश्तेदार है वह. सुना है अच्छे स्वभाव की है. जरा भी घमंड नहीं है.’’

‘‘ठीक है, सुमित, मुझे उस का नंबर दे दो. वह शायद मुझे भी पहचान ही जाए. तुम मेरे साथ हो तो अब मुझे किसी भी बात की चिंता नहीं है.’’ ‘‘पर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘क्या?’’ ‘‘मुझे तुम्हारे चेहरे पर दुख या उदासी न दिखे.’’ अनन्या मुसकराती हुई सुमित से लिपट गई अब उस का मन हलका हो गया था. मन पर रखा एक भारी पत्थर जैसे हट गया था.

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अगले दिन सुमित ने अनन्या के फोन पर गीता का नंबर भेज दिया. अनन्या ने लंच टाइम में एक शांत जगह जा कर गीता का नंबर मिलाया. गीता ने फोन उठाया तो अनन्या ने कालेज के दिनों का अपना परिचय दिया, गीता को सब याद आ गया. बोली, ‘‘कैसी हो? मेरा नंबर कैसे मिला?’’ ‘‘कहां से मिला, वह छोड़ो गीता, बस यह पूछने का मन हुआ कि अपने पति की आत्मकथा पढ़ी होगी तुम ने कैसी लगी?’’

गीता का स्वर कुछ धीमा हुआ, ‘‘क्यों? अपना नाम आने पर परेशान हो?’’ ‘‘मुझे राघव का नंबर दे सकती हो? इतने सच दुनिया के सामने रखने पर उसे गर्व हो रहा होगा न. बधाई तो बनती है न?’’

‘‘मैं समझी नहीं. वैसे राघव इस समय मेरे सामने ही बैठा है.’’ ‘‘यह तो बहुत अच्छा है. क्या तुम फोन स्पीकर पर कर सकती हो? प्लीज.’’

गीता ने फोन स्पीकर पर कर लिया. अनन्या की ठहरी हुई, गंभीर आवाज स्पीकर पर गूंज उठी, ‘‘मैं ने फोन इसलिए किया है राघव कि तुम्हें पहले स्वयं ही बता दूं कि मैं तुम पर मानहानि का दावा करने जा रही हूं 2 करोड़ का. अपनी कहानी में तुम ने जिस तरह मेरे बारे में लिखा है, मैं तुम्हें छोड़ूगी नहीं. ‘‘गीता तुम्हारे जैसे लालची पति को जीवनसाथी बना कर कितनी खुश है, यह तो वही जानती होगी पर लड़कियों की भावनाओं के साथ खेलने वाले इंसान की पब्लिसिटी पाने की ऐसी आदत पर उसे शर्म तो जरूर आती होगी, तुम ने तो उसे भी शर्मिंदा किया है.

‘‘गीता, तुम तो एक औरत हो, इस हरकत में अपने पति का साथ कैसे दे पाई? वह लेखिका जिस से राघव ने यह किताब लिखवाई है, जानती हो, कौन है? वह भी इस का शिकार रही है, यह आदमी तुम्हारे पैसे से उस का मुंह बंद कर सकता है पर मैं इसे सबक सिखा कर रहूंगी. तुम्हारे पैसे ने राघव को तुम्हारा पति तो बना दिया पर चरित्र?’’

गीता के मुंह से हलकी सी आवाज निकली, ‘‘तुम्हारा पति क्या कहेगा?’’

‘‘उस ने यही कहा कि ऐसे आदमी को सजा मिलनी चाहिए जो लड़कियों के साथ खेले, फिर दुनिया के सामने अपने पौरुष का ऐसा डंका पीटे कि लड़कियां टूट जाएं, यह सर्वथा अनुचित है. और वाह, क्या नाम रखा है, ‘बैलैंसशीट औफ लाइफ’ नफेनुकसान के हिसाबकिताब में माहिर, रुपएपैसे के लालच में उलझा हुआ एक चरित्रहीन व्यक्ति अपनी कहानी को और नाम भी क्या दे सकता था? तुम लोगों के बच्चे तो बड़े हो कर अपने पिता के चरित्र पर बड़ा गर्व करेंगे. वाह.’’

गीता ने कहा, ‘‘अनन्या, मुझे थोड़ा समय दो.’’ अनन्या ने फिर फोन काट दिया. इतनी देर तक राघव सिर पर हाथ रखे ही बैठा रहा. उस में गीता से आंखें मिलाने का साहस नहीं था. गीता ने यह किताब लिखवाने के लिए पहले ही मना किया था पर राघव ने उस की एक न सुनी थी. आज वह एक सफल बिजनैसमैन था, गीता के मातापिता गुजर चुके थे. वह अब सारी प्रौपटी की एकमात्र अधिकारी थी.

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गीता ने राघव की छिटपुट गलतियां कई बार माफ की थीं, पर आज गीता ने राघव को जिन जलती नजरों से देखा, राघव उन नजरों को सह न सका. चुपचाप बैठा रहा. गीता नि:शब्द उसे पहले घूरती रही, फिर इतना ही कहा, ‘‘यह बुक मार्केट से तुरंत वापस ले लो. एक भी कौपी कहीं न दिखे और फौरन सब से माफी मांगो नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा,’’ कह कर गीता अपना पर्स उठा कर वहां से चली गई. राघव को इस के सिवा कोई और रास्ता सूझ भी नहीं रहा था. गीता उस के साथ बहुत अनर्थ कर सकती है, यह वह जानता था. वह जो भी था, गीता की दौलत के दम पर था. वह गीता को नाराज नहीं कर सकता था. अत: उस ने गीता को फौरन फोन किया, ‘‘आईएम वैरी सौरी, डियर तुम ने जैसा कहा है वैसा ही होगा.’’

राघव ने उसी समय अपने सैक्रेटरी को बुला कर गीता के कहे अनुसार आदेश दिए. अगली सुबह अनन्या राहुल को तैयार कर रही थी. तभी अपने फोन पर कुछ पढ़ता हुआ सुमित हंस पड़ा. अनन्या ने आंखों से ही कारण पूछा तो सुमित ने अपना फोन उस की ओर बढ़ा कर कुछ पढ़ने का इशारा किया. ट्विटर पर राघव का माफीनामा था और लिखा था कि इस बुक को मार्केट से विदड्रा कर रहा है.

सुमित ने अनन्या के कंधे पर हाथ रख कर पूछा, ‘‘खुश?’’ ‘‘थैंक्यू वैरी मच, सुमित. तुम्हारे जैसा जीवनसाथी पा कर मैं धन्य हो गई.’’

सुमित ने उस के माथे को चूम लिया. अचानक अनन्या ने अपने फोन को उठा कर कोई नंबर मिलाया तो सुमित ने पूछा, ‘‘किसे?’’ ‘‘गीता को थैंक्स कहना है कि उस ने एक स्त्री के मन की बात को समझा. उस ने जो गरिमा दिखाई, बहुत अच्छा लगा. वैसे भी ऐसे पति के साथ निभाना आसान तो नहीं होगा. उसे थैंक्स कहना फर्ज है मेरा.’’

‘हां’ में सिर हिलाता हुआ सुमित उसे प्यार भरी नजरों से देख रहा था.

पापाज बौय- भाग 1: ऐसे व्यक्ति पर क्या कोई युवती अपना प्यार लुटाएगी?

Writer- सतीश सक्सेना 

फरवरी का बसंती मौसम था. धरती पीले फूलों की चादर में लिपटी हुई थी. बसंती बयार में रोमांस का शोर घुल चुका था. बयार जहांतहां दो चाहने वालों को गुदगुदा रही थी. मेरे लिए यह बड़ा मीठा अनुभव था. मैं उस समय 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी. यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही शरीर में बदलाव होने लगे थे. सैक्स की समझ बढ़ गई थी. दिल चाहता था कि कोई जिंदगी में आई लव यू कहने वाला आए और मेरा हो कर रह जाए. मैं शुरू से ही यह मानती आई थी कि प्रेम पजैसिव होता है इसीलिए यही सोचती आई थी कि जो जिंदगी में आए वह सिर्फ मेरा और मेरा हो.

शतांश से मेरी मुलाकात क्लास में ही हुई थी. वह गजब का हैंडसम था साथ ही अमीर बाप की एकलौती संतान था. पता नहीं मुझ में ऐसा क्या था जो वह मुझ पर एकदम आकर्षित हो गया. वैसे क्लास और स्कूल में अनेक लड़कियां थीं, जो उस पर हर समय डोरे डालने का प्रयास करती थीं. मैं एक मध्यवर्गीय युवती थी और वह आर्थिक स्थिति में मुझ से कई गुना बेहतर था. पहली मुलाकात के बाद ही हमारी दोस्ती बढ़ने लगी थी. मुझे क्लासरूम में घुसते देख कर ही वह दरवाजा रोक कर खड़ा हो जाता और मुझे अपनी तरफ देखने को मजबूर करता. कभी वह मेरे बैग से लंच बौक्स निकाल कर पूरा खाना खा जाता तो कभी अपना टिफिन मेरे बैग में रख देता. वह मेरे से नितनई छेड़खानियां करता. अब उस की छोटीछोटी शरारतें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. शायद उस दौरान ही हमारे बीच प्रेम का पौधा पनपने लगा था.

मन की सुप्त इच्छाएं उस समय पूर्ण हुईं जब शतांश ने मुझे वैलेंटाइन डे पर लाल गुलाब देते हुए कहा था, ‘आई लव यू.’ मेरे लिए वह पल सुरमई हो उठा था. हृदय में खुशी का सैलाब उमड़ने लगा था. मैं शतांश की हो जाने को बेताब हो उठी थी. कैसे उस के शब्दों के बदले अपने प्रेम का इजहार करूं, अचानक कुछ भी नहीं सूझा था. जिस हाथ से शतांश ने वह फूल दिया था, मैं ने उस हाथ को शरमाते हुए चूम लिया था, बस.

उस दिन के बाद से न ही उस ने कुछ किया और न ही मैं ने. जो कुछ किया रोमांस की हवा के झोंकों ने किया. हमारे बीच प्रेम निरंतर बढ़ता जा रहा था. हम एकदूसरे के और करीब आते गए थे. रेस्तरां में शतांश के इंतजार में बैठी शायनी अपना अतीत उधेड़े जा रही थी. तभी वेटर आ कर उस के सामने कौफी का एक कप रख गया. कौफी का एक घूंट गले में उतारते हुए शायनी फिर अतीत में खो गई. रेस्तरां के शोरशराबे ने भी उस की सोच में कोई खलल नहीं डाला.

स्कूली शिक्षा समाप्त करते ही मैं ने मैडिकल में ऐडमिशन ले लिया था और शतांश ने ग्रैजुएशन के बाद एमबीए करने की चाह में आर्ट्स कालेज जौइन कर लिया था. यह सत्य है कि प्रेम किसी सीमा का मुहताज नहीं होता. वह न जाति में बंधता है, न धर्म में. न ऊंचनीच उसे बांधती है और न ही रंगभेद. कालेज की दूरियां और समय का अभाव कभी भी हमारे प्रेम में कमी नहीं ला पाया. मेरे और शतांश के रिश्तों में रोमांस की खुशबू सदा बनी रही.

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ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह मेरे साथ मैडिकल कालेज के लड़कों को देख कर चिढ़ा हो, उन्हें बरदाश्त न कर पाया हो और न ही कभी ऐसा हुआ कि उस के साथ लड़कियों को देख कर कभी किसी शंका ने मेरे मन में जन्म लिया हो. हम अपने प्रेम के लिए पजैसिव भी थे और प्रोटैक्टिव भी. समय का अभाव जरूर हमें सालता था, पर हम अपने दायित्वों को समझते थे. हम हरसंभव प्रयास करते थे कि सप्ताहांत में मिलें और रोमांस को बरकरार रखें. उस सैक्स को जीवंत रखें, जो रोमांस के लिए जरूरी है ताकि संबंधों में मधुरता बनी रहे.

एक डेट पर जब हम दोनों ने यह एहसास कर लिया कि हम एकदूसरे के लिए ही हैं तो हम ने विवाह बंधन में बंधने का निर्णय कर लिया. उस दिन पुलक कर मैं ने न जाने कितने चुंबन उस के गाल पर जड़ दिए थे और उस ने मुझे अपनी बांहों से बिलकुल भी छिटकने नहीं दिया था. मोबाइल की घंटी बजते ही शायनी की सोच बिखर गई. फोन पर शतांश था. शायनी ने उसे लगभग डांट सा दिया. हलके से क्रोध भरे स्वर में वह बोली, ‘‘शतांश, आजकल क्या हो गया है तुम्हें? मैं आधे घंटे से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’

‘‘सौरी डार्लिंग, मैं आज नहीं आ पाऊंगा,’’ शतांश बोला. ‘‘आखिर क्यों?’’

‘‘मैं बिजी हूं. एक पल की भी फुरसत नहीं है मुझे.’’ ‘‘मुझे पहले नहीं बता सकते थे,’’ शायनी ने अपनी नाराजगी जाहिर की.

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‘‘सौरी लव, मुझे ध्यान ही नहीं रहा.’’ गुस्से में शायनी ने फोन काट दिया. सोच का रथ फिर दौड़ने लगा. तेज और तेज. जीवन में कुछ परिवर्तन अचानक होते हैं. ऐसा ही परिवर्तन पिछले कुछ दिनों से मैं शतांश के व्यवहार में देख रही हूं. यद्यपि मेरा मन कई आशंकाओं और भय से इन दिनों लगातार घिरता रहा है पर मैं ने इन आशंकाओं को अब तक अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया.

बिन सजनी घर- भाग 3: मौली के जाने के बाद क्या हुआ

‘‘तुम होती तो हैरान होती, तुम होती तो खुश होती, तुम होती तो ये खाती, तुम होती तो वो…’’ वह अमिताभ बच्चन के डायलौग के अंदाज में बोलते हुए मुसकरा रहा था.

‘‘अच्छाअच्छा, बस. कल की तैयारी कर ली? कपड़े कल प्रैस होने के लिए दे दिए थे न?’’ वह हंसते हुए बोली.

उसे ध्यान आया कपड़े, मशीन में कब से पड़े रह गए, भूल ही गया था, मरा…

‘‘हांहां डियर, बस, आता ही होगा चंदू. शायद वही आया, मैं बाद में बात करता हूं.’’ सच बोल कर मरता क्या, उस ने झट से झूठ बोल कर मौली के आगे अपनी साख बना ली. वाश्ंिग मशीन की ओर लपका. पानी ड्रेन आउट होने पर जो देखा, खाना बनाते वक्त लाउड म्यूजिक के शौक ने मार डाला था, कपड़ों पर नजर पड़ी तो सारा मूड खराब हो गया. उस की नई गुलाबी शर्ट इतरा कर कई कपड़ों पे अपना रंग जमा चुकी थी. उस ने सिर पकड़ लिया. साफ पानी में 2 बार निकाला पर रंग न गया. उस के चेहरे का रंग अलबत्ता उड़ गया. मौली तो बेहद गुस्सा करेगी, बर्थडे पर उस की दी पैंटशर्ट दोनों ही खराब हो गईं. सारे कपड़े जल्दीजल्दी तार पर फैला डाले. इन में से तो कोई कल पहन के जाने लायक नहीं होंगी. कोई पहले की शर्टपैंट ही उस ने छांट कर प्रैस करवा ली. पर इस काम में पूरी अलमारी, पूरे कमरे की ऐसीतैसी हो गई थी. पर वह खुश था, चलो काम तो बन गया. उस ने पास बिखरे कपड़ों में से थोड़ेबहुत उठा कर अलमारी में ठूंस दिए.

शाम को दोस्तों का फिर जमघट लगना था. फिर नाइटशो, किसी इंग्लिश मूवी का प्रोग्राम था. लेकिन उस से पहले उन्हें, वादे अनुसार, अपने हाथों की बनी स्पैशल चिकनबिरयानी खिलानी थी. उस ने सोचा, शान में हांक दिया कि बड़ी अच्छी बनाता हूं. अब फंस गया बेटा समीर. तैयारी कर ले, वरना हो नहीं पाएगा.

लगभग 2 घंटे बाद सारा घर ही उस की भीषण तैयारी से बन रही बिरयानी की गवाही दे रहा था. हौल में प्याजलहसुन के छिलके पौलिथीन में पड़े थे. अदरक के छिलके चेस की गोटियां बने टेबल पर चिपके पड़े थे. मौली के संजोए सारे मसाले कैबिनेट से बाहर आ कर गैसस्टोव के अगलबगल पूरे प्लेटफौर्म पर जैसे मार्चपास्ट करने निकले थे.

फ्रिज तो ऐसे मुंहबाए खड़ा था मानो डकैती पड़ गई हो, उस में इक्कादुक्का सामान ही नजर आ रहा था. कई प्रकार के बरतन और टूल्स, यूटेंसिल्स, गजेट इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं बरती गई थी, जो उन की बेकाबू भीड़ बता रही थी.

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समीर ने गूंधे आटे का सांप बना बिरयानी के पतीले का मुंह बंद किया तो उस ने कार्य पूरा कर लेने की खुशी में गर्व से चौड़ी मुसकान चेहरे पर फैला ली. घड़ी में 7 बज रहे थे. वह बिरयानी दम पर कर नहाने के लिए बाथरूम में जा घुसा. शावर के नीचे 2 मिनट ही हुए होंगे, दरवाजे की घंटी बजी थी.

तौलिया लपेट कर उस ने दरवाजा खोला था.

‘‘बन गई तेरी बिरयानी? सामान तो खूब फैला रखा है,’’ दोस्तों ने कहा.

‘‘क्यों, लाजवाब खुशबू आ नहीं रही,’’ एक ने चुटकी ली तो सब हंस पड़े.

‘‘बस यार, आने ही वाली है खुशबू. थोड़ा सब्र करो. यार, तुम सब कोल्डडिं्रक निकालो. मैं बस अपने बदन की खुशबू का इंतजाम कर अभी आया,’’ समीर जोरों से हंसा.

पतीले का आटा मुंह खोल चुका था. बिरयानी की खुशबू आने लगी थी. समीर पतीला उठा कर डाइनिंग टेबल पर ही ले आया, ‘‘है न जोरदार खुशबू,’’ वह मुसकराया.

किसी ने खीरा, किसी ने प्याज, किसी ने गाजर तो किसी ने टमाटर ढूंढ़ कर काटे, सलाद भी बन गया. सब ने अपनी प्लेटों में चाव से परोसा और खाने बैठ गए.

‘‘कैसी लगी?’’ समीर ने कौलर ऊंचा कर पूछा.

‘‘अबे नमक तो डाला ही नहीं, खुद खा कर देख, मिस्टर लाजवाब,’’ सब हंस पड़े.

‘‘ला भई, नमक ले आ,’’ ऊपर से डालडाल कर सब ने किसी तरह बिरयानी खाई और मूवी के लिए भागे.

मूवी से लौट कर समीर ने जूतेमोजे उतारे और वैसे ही कपड़ों में बिस्तर पर पड़े गीले टौवेल के ऊपर ही सो गया. सुबह रामकली आई तो चारों ओर कूड़ा व फैला सामान देख कर उस की किटकिट शुरू हो गई.

‘‘साहब, ऐसे तो मैं काम नहीं कर पाऊंगी, रोजरोज इतना काम, मेमसाहब आ जाएं, तो बुला लेना. मैं जाती हूं.’’

‘‘अरे, कहां जाती है, मैं दे दूंगा न फालतू पैसे. वो दोस्त आ गए तो क्या करूं, जल्दी निबटाओ, मुझे औफिस भी जाना है.’’

‘‘नहीं साहब, मुझे गांव जाना है,

8 बजे की ट्रेन पकड़नी है. मां की तबीयत खराब है, सोचा था काम जल्दी कर के बोल दूंगी. पर न हो पाएगा, साहब.’’ वह केवल सिंक के बरतन धो कर चली गई थी.

‘तू और तेरी मेमसाहब, चलो छुट्टी…’ मन में बुदबुदाते हुए उस ने दरवाजा बंद किया.

कोई सामान अपनी जगह नहीं था. पानी पीने को फ्रिज खोला तो एक बोतल भी नहीं मिली. बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुआ. बाहर ही ब्रैकफास्ट कर लूंगा, कोई नहीं. वह औफिस के लिए निकल गया. औफिस में फोन आया था मौली का. मेरी बड़ी बूआ अपनी बेटी रिंकू को परीक्षा दिलाने के लिए रात की गाड़ी से दिल्ली पहुंच रही हैं. 4 दिन घर पर ही रुकेंगी, मैनेज कर लोगे न, बाद में मैं भी पहुंच ही जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, डोंट वरी,’’ नईनई शादी है यह नहीं बोलता तो मरता क्या.

‘‘थैंक्यू डियर, तुम्हारी पाककला शौक के बारे में सुन कर तुम से बहुत खुश हैं, बूआ, मैं ने उन्हें बताया था.’’

घर लौट कर उस ने अपनी समझ से घर को काफी दुरुस्त किया और लललाला करते हुए बूआजी को स्टेशन लेने चला गया.

चौथे दिन जब मौली ने घर में प्रवेश किया तो उस की चीख निकलतेनिकलते बची, मुंह खुला रह गया. वह फटीफटी आंखों से अपने प्यारे घर को पहचानने की कोशिश कर रही थी. क्या हौल, क्या किचेन, क्या बैडरूम, बाथरूम, देखे नहीं जा रहे थे उस से. अजीब सी गंध से जल्दी ही उस का मुंह क्या, नाक भी सिकुड़ चुकी थी. सुना ही था लोगों से आज देख भी लिया, बिन सजनी घर.

‘बाप रे, कैसे सफाईपसंद बूआ और रिंकू ने यहां 3 दिन गुजारे होंगे. यह क्या किया समीर ने.’

‘‘समीर, दिस इज टू मच, यार,’’ उस ने घर का बिगड़ा नक्शा दिखा कर पूछना चाहा था.

‘‘क्या करता, बदमाश मेड तुम ने रखी थी, छुट्टी ले कर चली गई. मैं क्या करता?’’ खैर, ये सब छोड़ो, बूआजी और रिंकू मार्केट से आती होंगी. तुम फ्रैश हो कर जल्दी आओ और खाना लगाओ, आज तुम्हारी पसंद का सब बाहर से ले आया हूं,’’ वह मुसकराया. मौली के आ जाने से आज वह बेहद खुश, बहुत चैन की सांस ले रहा था. ललललाला करते हुए उस ने लाउड म्यूजिक लगा दिया.

फ्रैश…ऐसे कबाड़ में? फ्रैश होने से पहले तो दसियों काम करने को दिख रहे हैं, समीर.’’ पर समीर को लाउड म्यूजिक में कुछ न सुनाई दिया.

मौली ने सैंडल एक ओर कर चुन्नी कमर में बांधी और सब से पहले मेड का नंबर मिला दिया…

प्यार न माने सरहद- भाग 2: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

Writer- Kahkashan Siddiqui

ताया को अधिक धार्मिक होते देख दादा ने एमी के पिता पर अधिक अनुशासन नहीं लगाया और वे इकोनौमिक्स के प्रोफैसर बन गए. एमी की मां नैंसी अमेरिकन थीं और पिता की सहपाठी. वे अब नरगिस हैं. उन्होंने इसलाम कुबूल कर लिया और दादादादी की देखरेख में नमाजी और उर्दू बोलने वाली बहू बन गईं. दादा तो अब नहीं रहे, दादी साथ रहती थीं, हिंदी फिल्मों की दीवानी. एक सुखी परिवार है.

एमी की परवरिश में देशी और अमेरिकी संस्कृति का समावेश था. अत: वह सभ्य, अनुशासित, समय की पाबंद थी. सुंदर थी, साथ ही अपनी सुंदरता को संवार कर और संभाल कर रखने वाली भी थी. अमेरिकियों की तरह सुबह जल्दी उठना, व्यायाम करना, रात में जल्दी सोना और वीकैंड पर घूमना उस की दिनचर्या में शामिल था. उस के घर में उर्दू भाषा ही बोली जाती. वह उर्दू जानती थी पर बोलती इंग्लिश में थी. एमी के विषय में जान कर समीर को अच्छा लगा. समीर को एमी से प्यार हो गया. वह हर कीमत पर उसे पाना चाहता था. परंतु पाकिस्तानी मूल का होना… कैसे बात बनेगी?

दोनों 6 महीनों से साथ थे. एकदूसरे में रुचि अब एकदूसरे को पाने की चाह में बदल गई थी.

एमी ने समीर को अपने घर वालों से मिलने के लिए बुलाया. घर वालों से यह कह कर मिलाया कि यह औफिस का मित्र है समीर. एमी की दादी को देख कर समीर को अपनी दादी याद आ गई. सलवारसूट में वैसी ही लग रही थीं. प्रोफैसर साहब बहुत हंसमुख थे. तुरंत घुलमिल गए. फुटबौल के दीवाने थे. सीएटल टीम के फैन. समीर को यहां का फुटबौल अजीब लगता था. हाथपैर दोनों से खेला जाता. अधिकतर बौल हाथ में ले कर भागते हैं.

एमी की मां सभ्यशालीन महिला थीं. एमी बिलकुल अपनी मां जैसी थी. एमी की मां ने बिलकुल देशी खाना बनाया था. समीर लखनऊ से है, यह सुन कर दादी तो गदगद हो गईं. अपने बचपन के मायके के किस्से सुनाने लगीं. एक लंबे समय बाद वह इतनी देर हिंदी में बोला. उसे अच्छा लगा. यहां तो वह जब से आया है मुंह टेढ़ा कर के ऐक्सैंट में बोलने की कोशिश करता रहा है.

समीर ने ध्यान दिया दादी, प्रोफैसर, नरगिस सभी उर्दू में बात करते हैं. पर एमी इंग्लिश में जवाब देती. कभीकभी हिंदी में भी. उर्दूहिंदी एकजैसी भाषाएं हैं, जिन्हें वह अपने यहां भी सुनताबोलता था. बस इन के उर्दू में कुछ शब्द गाढ़े उर्दू के हैं पर बात समझ में आ जाती है. उसे यहां अपनापन लगा. एमी के घर वालों को भी समीर अच्छा लगा और उसे बराबर आते रहने का न्योता दिया.

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एमी ने समीर के जाने के बाद जब घर वालों से पूछा कि समीर उन्हें कैसा लगा तो वे लोग बोले कि अच्छा है. तब उस ने बताया कि समीर और वह शादी करना चाहते हैं.

यह सुन उस की दादी तो खुश हो गईं क्योंकि वह उन के मायके से जो था और उन्हें समीर नाम से मुसलमान लगा था. प्रोफैसर ने आपत्ति की कि वह पाकिस्तानी नहीं भारतीय है. एमी की मां ने अपना शक जाहिर करते हुए कहा कि कहीं ग्रीन कार्ड के लालच में शादी तो नहीं करना चाहता है. लड़के को अमेरिकन सिटीजन होना चाहिए.

एमी ने धीरेधीरे समीर के बारे में 1-1 बात बताई कि वह भारतीय भी है और हिंदू भी. उस का परिवार भारत में है. अत: कभी भी वापस जा सकता है.

दादी, प्रोफैसर और नरगिस सब ने एकसाथ आपत्ति की कि हिंदू से शादी नहीं हो सकती.

एमी बोली, ‘‘अब तक वह आप सब को बहुत पसंद था पर उस के हिंदू और भारतीय होने से वह बुरा कैसे हो गया?’’

जब कोई प्यार में होता है तो उसे धर्म, भाषा, नागरिकता कुछ दिखाई नहीं देता. दिखता है तो केवल प्यार से भरा मन और वह व्यक्ति जो उस के साथ जीवन बिताना चाहता है. वहीं दूसरे लोगों को व्यक्ति और उस का मन, उस के गुण नहीं दिखते, केवल धर्म दिखता है.

‘‘डैडी आप और ममा ने भी तो दूसरे धर्म में शादी की थी, फिर आप लोग कैसे कह रहे हैं?’’

‘‘बेटी, तुम्हारी मां को हम अपने घर लाए थे. वह हम में रचबस गई. उस ने इसलाम कुबूल कर लिया. तुम्हें दूसरे घर जाना है. यह अंतर है. कल को वह लड़का तुम्हें हिंदू बना ले तो तुम्हारी तो आखरत (मरने के बाद की जिंदगी) गई.’’

एमी ने समीर को सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘हम दोनों को जब कोई प्रौब्लम नहीं तो उन्हें क्यों है? हम जब चाहें शादी कर सकते हैं. हमें कोई रोक नहीं सकता पर मैं चाहती हूं कि मेरी फैमिली मेरे साथ हो,’’ यह एमी की देशी परवरिश की सोच थी.

समीर ने कहा, ‘‘तुम मेरा साथ दोगी?’’

‘‘मरते दम तक.’’

‘‘तो ठीक है अपने घर वालों से मेरी मीटिंग करवाओ.’’

रविवार को समीर एमी के घर वालों से मिलने गया. शाहरुख खान की मूवी की डीवीडी दादी के लिए ले गया. दादी शाहरुख खान की दीवानी थीं सो खुश हो गईं. प्रोफैसर कुछ ठंडे थे. समीर ने उन से सीएटल टीम फुटबौल की बातें छेड़ दीं. वे भी सामान्य हो गए. नरगिस के लिए कबाब ले गया था. वे भी कुछ नौर्मल हो गईं.

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फिर समीर ने अपनी मंशा बताई, ‘‘मैं और एमी एकदूसरे से प्यार करते हैं…जीवन भर साथ रहना चाहते हैं…शादी करना चाहते हैं. मगर आप सब की मरजी से…’’ मैं नेशनैलिटी के लिए शादी नहीं कर रहा हूं. मेरी कंपनी ने मेरा ग्रीन कार्ड अप्लाई कर दिया है. हां, मैं इंडियन हूं और मैं भारत आताजाता रहूंगा, मेरे परिवार को जब भी मेरी आवश्यकता होगी मैं उन के पास जाऊंगा… इसी प्रकार जब आप लोगों को भी मेरी जरूरत होगी तो मैं आप का भी साथ दूंगा. रहा धर्म तो यदि मैं आप को दिखाने के लिए मुसलिम बन जाऊं और मन से हिंदू रहूं तो आप क्या कर सकते हैं? धर्म में हम उसे ही याद करते हैं जिसे न आप ने देखा न मैं ने. उसे किस नाम से पुकारें इस पर लड़ाई है, किस प्रकार याद करें इस पर सहमति नहीं. इंसान जिन्हें एकदूसरे से प्यार है वे इसलिए शादी नहीं कर सकते, क्योंकि वे ऊपर वाले को अलगअलग नामों से पुकारते हैं, अलगअलग तरह से याद करते हैं.’’

लक्ष्य- भाग 3: क्या था सुधा का लक्ष्य

तभी निलेश ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां, यह सुधा है, दिल्ली से आई है. कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी.’’ उस की मां सुधा से औपचारिक बातें करने लगीं, पर सुधा की नजरें दीवार पर लगी उस तसवीर पर टिकी थीं.

निलेश ने कहा, ‘‘सुधा, यह मेरे पिताजी की तसवीर है. वह पलंग से उठ कर उस तसवीर को स्पर्श कर भावविह्वल हो गई. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. निलेश की मां देख कर समझ गई कि  यह बहुत भावुक लड़की है.’’

उन्होंने उस का ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पति जिंदा होते तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होते, पर नियति को कौन टाल सकता है. आओ, मेरे पास बैठो. लगता है तुम मेरे बेटे से बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतनी दूर से मिलने आई हो वरना इस कुटिया में कौन आता है. मेरी बूढ़ी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. क्या तुम मेरे बेटे को पसंद करती हो?’’

यह सुन सुधा ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘हम और निलेश कालेज में बहुत अच्छे दोस्त थे.’’

जब निलेश की मां ने कहा, ‘‘तो क्या अब नहीं हो?’’ मुसकराते हुए उस ने बड़ी सहजता से कहा, ‘‘हां, अभी भी मैं उस की दोस्त हूं, तभी तो मिलने आई हूं.’’

निलेश की मां मुसकराने लगीं, और उस के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘सदा खुश रहो बेटी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, पर मेरी बीमारी के कारण वह कोई डिगरी न पा सका. मैं ने बहुत समझाया कि दिल्ली जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले, मेरा क्या है, आज हूं कल नहीं रहूंगी. पर उस की तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

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सुधा ने तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मांजी, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी. आप को इस हालत में छोड़ कर कोई भी बेटा कैसे जा सकता था?’’

तभी निलेश चाय का प्याला ले कर कमरे में उपस्थित हुआ और सुधा की बातें सुन कर सोचने लगा कि क्या यह वही सुधा है? जो परिवार की जिम्मेदारी के नाम से कोसों दूर भागती थी. मां को खुश करने के लिए कितना अच्छा नाटक कर रही है. न जाने क्यों झूठी तसल्ली दे रही है. वह उस के करीब जा कर कहने लगा, ‘‘सुधा, तुम सफर में थक गई होगी, फ्रैश हो कर चाय पी लो.’’ चाय मेज पर रखते हुए उसे आदेश दिया.

निलेश की मां पलंग से उठीं और अपने कमरे से बाहर चली गईं ताकि वे दोनों आपस में बातें कर सकें. उन के जाते ही सुधा निलेश से सवाल कर बैठी,  ‘‘निलेश, क्या चाय तुम ने बनाई है?’’

‘‘हां, सुधा, मुझे सबकुछ काम करना आता है और कोई है भी तो नहीं हमारी मदद करने के लिए घर में.’’

सुधा आश्चर्यचकित होती हुई बोली, ‘‘तुम लड़का हो कर भी अकेले कैसे सब मैनेज कर लेते हो. अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, ताकि तुम्हें जीवन में कुछ आराम तो मिलता.’’

निलेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह तुम कह रही हो सुधा. आजकल की लड़कियां घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहना चाहतीं. हर लड़की के सपने होते हैं. किसी लड़की के उन सपनों को मैं बिखेरना नहीं चाहता. मैं जैसा भी हूं, अकेले ही ठीक हूं.’’

सुधा अचानक एक प्रश्न कर बैठी, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करना चाहोगे?’’

वह उस की तरफ देख कर फीकी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘सुधा, क्यों मजाक कर रही हो?’’

‘‘यह मजाक नहीं निलेश, हकीकत है. क्या तुम मुझ से शादी करोगे? तुम से बिछड़ने के बाद एहसास हुआ कि जीवन में एक हमसफर तो होना ही चाहिए. अब जीवन में मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है. मैं ने जो चाहा, सब किया पर खुशी की तलाश में अब तक भटक रही हूं. मुझे लगता है कि वो खुशी तुम हो, कोई और नहीं. न जाने क्यों दिल तुम्हें ही पुकारता रहा. तुम ने ठीक कहा था. प्यार कब किस से हो जाए पता नहीं चलता, जब पता चला तो दिल पर तुम्हारा ही नाम देखा. तुम्हारी प्यारभरी बातें, मुझे सोने नहीं देतीं.’’

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‘‘यही तो प्यार है, सुधा, दो दिल मिलते हैं पर कभीकभी एकदूजे को समझ नहीं पाते, और जब समझते हैं तो बहुत देर हो जाती है. सुधा, सच तो यह है कि मैं तुम्हें खुश नहीं रख पाऊंगा. क्या तुम इस गांव के वातावरण में मेरे साथ रह पाओगी? मेरी परिस्थिति अब तुम्हारे सामने हैं. जैसी जिंदगी तुम्हें चाहिए, मैं नहीं दे सकता. तुम्हें बंधन पसंद नहीं और मैं उन्मुक्त नहीं. तुम्हारे सपने अधूरे रह जाए, यह मुझे मंजूर नहीं.’’

चाय की चुस्की लेते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, मेरे सपने तो अब पूरे होंगे. अब तक मैं शहर के बच्चों को पढ़ाती रही, चित्रकला भी सिखाती रही पर अब तुम्हारे गांव के बच्चों के साथ बिताना चाहती हूं. शहर में तो सभी रहना चाहते हैं, पर अब मैं तुम्हारे गांव के बच्चों को पढ़ाऊंगी. एक अलग अनुभव होगा मेरे जीवन में. इस तरह तुम्हारी मां की देखभाल भी कर पाऊंगी, अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिम्मेदारी और प्यार का एहसास तो तुम्हीं ने कराया है. तुम ठीक कहा करते थे कि बंधन में सुख भी होता है और दुख भी.’’

वह सुधा की बातें सुन, अवाक उसे देखने लगा. उस का जी चाहा कि सुधा को गले लगा ले. वह सोचने लगा, वक्त ने सुधा को कितना परिपक्व बना दिया या मेरी जुदाई ने प्यार का एहसास करा दिया है कि जब किसी से प्यार होता तो सभी परिस्थितियां अनुकूल दिखाई देने लगती हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो, निलेश, दरअसल, तुम से जुदा हो जाने के बाद मुझे एहसास हो गया कि दोस्ती और प्यार के बिना इंसान जीवनपथ पर चल नहीं सकता. कभी न कभी औरत हो या पुरुष दोनों को जीवन में एकदूसरे की आवश्यकता होती ही है. फिर तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में. आज उस प्यार को स्वीकार करने आई हूं जो कभी ठुकरा दिया था. बोलो, क्या मुझे स्वीकार करोगे?’’

‘‘सुधा, बात स्वीकार की नहीं, लक्ष्य की है. तुम तो अपनी सफलता की सारी मंजिले पार कर गई. पर मैं आज भी लक्ष्यविहीन हूं. तुम्हारे शब्दों में कहूं तो समय पर भरोसा जो करता था.’’

उसे दिलासा देते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, परिस्थितियां इंसान को बनाती हैं, और बिगाड़ती भी हैं. इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. तुम ने तो अपनी मां के लिए अपना कैरियर दांव पर लगा दिया. ऐसा बेटा होना भी तो आजकल इस संसार में दुर्लभ है. क्या तुम्हारा यह लक्ष्य नहीं? आज मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे पास अभी भी समय है, अपनी अधूरी शिक्षा पूरी कर सकते हो. बीए कर सेना में भरती हो सकते हो तुम्हारे पिता की भी यही इच्छा थी न?’’

यह सुन निलेश की खुशी का ठिकाना न रहा,‘‘तुम सचमुच ग्रेट हो. यहां आते ही मेरी हर समस्या को तुम ने ऐसे सुलझा दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.’’

तभी दरवाजे की ओर से निलेश की मां ने जब यह सुना तो खुशी से फूले न समाईं. अपने बेटे के भविष्य को ले जो उन के हृदय पर संकट के बादल घिर आए थे, वे सब छंट गए. आगे बढ़ कर सुधा को उन्होंने गले लगा लिया.

सुधा ने कहा, ‘‘आंटी, यदि आप इजाजत दें तो मैं अपनी नौकरी और शहर छोड़ कर यहीं आ जाऊं?’’

‘‘आंटी नहीं, सुधा, आज से तुम मुझे मां कहोगी,’’ निलेश की मां ने जब यह कहा तो दोनों मुसकरा पड़े. सुधा ने अपने मातापिता की इजाजत ले कर निलेश से शादी कर ली और गांव में ही जीवन व्यतीत करने लगी.

निलेश ने स्नातक की परीक्षा पास कर सेना में भरती होने के लिए अर्जी दे दी थी. आज वह अपने देश की सीमा पर तैनात है. शादी के 6 महीने बाद ही निलेश की मां की मृत्यु हो गई थी.

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आज वे जीवित होतीं तो कितनी खुश होतीं. सीमा पर तैनात निलेश यही सोच रहा है. शायद यही जीवन की रीत है. कभी मिलती खुशी तो कभी गम की लकीर. पर जिंदगी रुकती तो नहीं है. सुधा ठीक तो कहा करती थी कि इंसान चाहे तो कभी भी, कुछ भी कर सकता है. पर आज अगर अपने लक्ष्य तक पहुंचा हूं तो सुधा के सहयोग से. जीवन का हमसफर साथ दे तो कोई भी जंग इंसान जीत सकता है.

तलाक के बाद शादी- भाग 1: देव और साधना आखिर क्यों अलग हुए

न्यायाधीश ने चौथी पेशी में अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘आप दोनों का तलाक मंजूर किया जाता है.’’ देव और साधना अलग हो चुके थे. इस अलगाव में अहम भूमिका दोनों पक्षों के मातापिता, जीजा की थी.

दोनों के मातापिता इस विवाह से खफा थे. दोनों अपने बच्चों को कोसते रहे विवाह की खबर मिलने से तलाक के पहले तक. दूसरी जाति में शादी. घरपरिवार, समाज, रिश्तेदारों में नाक कटा कर रख दी. कितने लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. कितने सपने संजोए थे. लेकिन प्रेम में पगलाए कहां सुनते हैं किसी की. देव और साधना दोनों बालिग थे और एक अच्छी कंपनी में नौकरी करते थे साथसाथ. एकदूसरे से मिलते, एकदूसरे को देखते कब प्रेम हो गया, उन्हें पता ही न चला. फिर दोनों छिपछिप कर मिलने लगे. प्रेम बढ़ा और बढ़ता ही गया. बात यहां तक आ गई कि एकदूसरे के बिना जीना मुश्किल होने लगा.

वे जानते थे कि मध्यवर्गीय परिवार में दूसरी जाति में विवाह निषेध है. बहुत सोचसमझ कर दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया और अपने कुछेक दोस्तों को बतौर गवाह ले कर रजिस्ट्रार औफिस पहुंच गए. शादीशुदा दोस्त तो बदला लेने के लिए सहायता करते हैं और कुंआरे दोस्त यह सोच कर मदद करते हैं मानो कोई भलाई का कार्य कर रहे हों. ठीक एक माह बाद विवाह हो गया. उन दोनों के वकील ने पतिपत्नी और गवाहों को अपना कार्ड देते हुए कहा, ‘यह मेरा कार्ड. कभी जरूरत पड़े तो याद कीजिए.’

‘क्यों?’ देव ने पूछा था.

वकील ने हंसते हुए कहा था, ‘नहीं, अकसर पड़ती है कुंआरों को भी और शादीशुदा को भी. मैं शादी और तलाक दोनों का स्पैशलिस्ट हूं.’

वकील की बात सुन कर खूब हंसे थे दोनों. लेकिन उन्हें क्या पता था कि वकील अनुभवी है. कुछ दिन हंसतेगाते बीते. फिर शुरू हुई असली शादी., जिस में एकदूसरे को एकदूसरे की जलीकटी बातें सुननी पड़ती हैं. सहना पड़ता है. एकदूसरे की कमियों की अनदेखी करनी पड़ती है. दुनिया भुला कर जैसे प्रेम किया जाता है वैसे ही विवाह को तपोभूमि मान कर पूरी निष्ठा के साथ एकदूसरे में एकाकार होना पड़ता है. प्रेम करना और बात है. लेकिन प्रेम निभाने को शादी कहते हैं. प्रेम तो कोई भी कर लेता है. लेकिन प्रेम निभाना जिम्मेदारीभरा काम है.

दोनों ने प्रेम किया. शादी की. लेकिन शादी निभा नहीं पाए. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों में तकरार होने लगी. साधना गुस्से में कह रही थी, ‘शादी के पहले तो चांदसितारों की सैर कराने की बात करते थे, अब बाजार से जरूरी सामान लाना तक भूल जाते हो. शादी हुई या कैद. दिनभर औफिस में खटते रहो और औफिस के बाद घर के कामों में लगे रहो. यह नहीं कि कोई मदद ही कर दो. साहब घर आते ही बिस्तर पर फैल कर टीवी देखने बैठ जाते हैं और हुक्म देना शुरू पानी लाओ, चाय लाओ, भूख लगी है. जल्दी खाना बनाओ वगैरा.’

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देव प्रतिउत्तर में कहता, ‘मैं भी तो औफिस से आ रहा हूं. घर का काम करना पत्नी की जिम्मेदारी है. तुम्हें तकलीफ हो तो नौकरी छोड़ दो.’

‘लोगों को मुश्किल से नौकरी मिलती है और मैं लगीलगाई नौकरी छोड़ दूं?’

‘तो फिर घर के कामों का रोना मुझे मत सुनाया करो.’

‘इतना भी नहीं होता कि छुट्टी के दिन कहीं घुमाने ले जाएं. सिनेमा, पार्टी, पिकनिक सब बंद हो गया है. ऐसी शादी से तो कुंआरे ही अच्छे थे.’

‘तो तलाक ले लो,’ देव के मुंह से आवेश में निकल तो गया लेकिन अपनी फिसलती जबान को कोस कर चुप हो गया.

तलाक का शब्द सुनते ही साधना को रोना आ गया. अचानक से मां का फोन और अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करते हुए बात करने से मां भांप गईं कि बेटी सुखी नहीं है. साधना की मां दूसरे ही दिन बेटी के पास पहुंच गई. मां के आने से साधना ने अवकाश ले लिया. देव काम पर चला गया. मां ने कहा, ‘मैं तुम्हारी मां हूं. फोन पर आवाज से ही समझ गई थी. अपने हाथ से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी है तुम ने. अगर दुखी है तो अपने घर चल. अभी मातापिता जिंदा हैं तुम्हारे. दिखने में सुंदर हो, खुद कमाती हो. लड़कों की कोई कमी नहीं है जातसमाज में. अपनी बड़ी बहन को देखो, कितनी सुखी है. पति साल में 4 बार मायके ले कर आता है और आगेपीछे घूमता है. एक तुम हो. तुम्हें परिवार से अलग कर के शादी के नाम पर सिवा दुख के क्या मिला.’

पति की बेरुखी और तलाक शब्द से दुखी पत्नी को जब मां की सांत्वना मिली तो वह फूटफूट कर रोने लगी. मां ने उसे सीने से लगा कर कहा, ‘2 वर्ष से अपना मायका नहीं देखा. अपने पिता और बहन से नहीं मिली. चलो, घर चलने की तैयारी करो.’

साधना ने कहा, ‘मां, लेकिन देव को बताए बिना कैसे आ सकती हूं. शाम को जब मैं घर पर नहीं मिलूंगी तो वे क्या सोचेंगे.’

मां ने गुस्से में कहा, ‘जिस आदमी ने कभी तुम्हारी खुशी के बारे में नहीं सोचा उस के बारे में अब भी इतना सोच रही हो. पत्नी हो, गुलाम नहीं. फोन कर के बता देना.’ साधना अपनी मां के साथ मायके आ गई.

शाम को जब देव औफिस से लौटा तो घर पर ताला लगा पाया. दूसरी चाबी उस के पास रहती थी. ताला खोल कर फोन लगाया तो पता चला कि साधना अपने मायके से बोल रही है.

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देव ने गुस्से में कहा, ‘ तुम बिना बताए चली गई. तुम ने बताना भी जरूरी नहीं समझा.’

‘मां के कहने पर अचानक प्रोग्राम बन गया,’ साधना ने कहा.

देव ने गुस्से में न जाने क्याक्या कह दिया. उसे खुद ही समझ नहीं आया कहते वक्त. बस, क्रोध में बोलता गया. ‘ठीक है. वहीं रहना. अब यहां आने की जरूरत नहीं. मेरा तुम्हारा रिश्ता खत्म. आज से तुम मेरे लिए मर…’

उधर से रोते हुए साधना की आवाज आई, ‘अपने मायके ही तो आई हूं. वह भी मां के साथ. उस में…’ तभी साधना की मां ने उस से फोन झपटते हुए कहा, ‘बहुत रुला लिया मेरी लड़की को. यह मत समझना कि मेरी बेटी अकेली है. अभी उस के मातापिता जिंदा हैं. एक रिपोर्ट में सारी अकड़ भूल जाओगे.’

तांक झांक- भाग 1: क्यों शालू को रणवीर की सूरत से नफरत होने लगी?

Writer- Neerja Srivastava

वह नई स्मार्ट सी पड़ोसिन तरुण को भा रही थी. उसे अपनी खिड़की से छिपछिप कर देखता. नई पड़ोसिन प्रिया भी फैशनेबल तरुण से प्रभावित हो रही थी. वह अपने सिंपल पति रणवीर को तरुण जैसा फैशनेबल बनाने की चाह रखने लगी थी.

शाम को जब प्रिया बनसंवर कर बालकनी में पड़े झले पर आ बैठती तो तरुण चोरीछिपे उस की हर बात नोटिस करता. कितनी सलीके से साड़ी पहने चाय की चुसकियां लेते हुए किसी किताब में गुम रहती है मैडम. क्या करे मियांजी का इंतजार जो करना है और मियांजी हैं जो जरा भी खयाल नहीं रखते इस बात का. बेचारी को खूबसूरत शाम अकेले काटनी पड़ती है. काश वह उस का पति होता तो सब काम छोड़ फटाफट चला आता.

तरुण का मन गाना गाने को मचलने लगता, ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए…’ कितने ही गाने हैं हसीन शाम के ‘ये शाम मस्तानी…’ ‘‘तरु कहां हो… समोसे ठंडे हो रहे हैं,’’ तभी उसे सपनों की दुनिया से वास्तविकता के धरातल पर पटकती उस की पत्नी शालू की आवाज सुनाई दी.

आ गई मेरी पत्नी की बेसुरी आवाज… इस के सामने तो बस एक ही गाना गा सकता हूं कि जब तक रहेगा समोसे में आलू तेरा रहूंगा ओ मेरी शालू…

‘‘बालकनी में हो तो वहीं ले आती हूं,’’ शालू कपों में चाय डालते हुए किचन से ही चीखी.

‘‘उफ… नहीं, मैं आया,’’ कह तरुण जल्दी यह सोचते हुए अंदर चल दिया, ‘कहां वह स्लिमट्रिम सी कैटरीना कैफ और कहां ये हमारी मोटी भैं…’

तरुण ने कदमों और विचारों को अचानक ब्रेक न लगाए होते तो चाय की ट्रे लाती शालू से टकरा गया होता.

तरुण रोज सुबह जौगिंग पर जाता तो प्रिया वहां दिख जाती. तरुण से रहा नहीं गया. जल्द ही उस ने अपना परिचय दे डाला, ‘‘माईसैल्फ तरुण… मैं आप के सामने वाले फ्लैट…’’

‘‘हांहां, मैं ने देखा है… मैं प्रिया और वे सामने जो पेपर पढ़ रहे हैं वे मेरे पति रणवीर हैं,’’ प्रिया उस की बात काटते हुए बोली.

‘‘कभी रणवीर को ले कर हमारे घर आएं.मैं और मेरी पत्नी शालू ही हैं… 2 साल ही हुएहैं हमारी शादी को,’’ तरुण बोला.

‘‘रियली? आप तो अभी बैचलर से ही दिखते हैं,’’ प्रिया ने तरुण के मजबूत बाजुओं पर उड़ती नजर डालते हुए कहा, ‘‘हमारी शादी को भी 2 ही साल हुए हैं.’’ अपनी तारीफ सुन कर तरुण उड़ने सा लगा.

‘‘रणवीर साहब अपना राउंड पूरा कर चुके?’’

‘‘अरे कहां… जबरदस्ती खींच कर लाती हूं इन्हें घर से… 1-2 राउंड भी बड़ी मुश्किल से पूरा करते हैं.’’

‘‘यहां पास ही जिम है. मैं यहां से सीधा वहीं जाता हूं 1 घंटे के लिए.’’

‘‘वंडरफुल… मैं भी जाती हूं उधर लेडीज विंग में…  ड्रौप कर के ये सीधे घर चले जाते हैं… सो बोरिंग… चलिए आप से मिलवाती हूं शायद आप को देख उन का भी दिल बौडीशौडी बनाने का करने लगे.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं? मेरी पत्नी भी कुछ इसी टाइप की है… जौगिंग क्या वाक तक के लिए भी नहीं आती… आप मिलो न उस से. शायद आप को देख कर वह भी स्लिम ऐंड फिट बनना चाहे,’’ तरुण तारीफ करने का इतना अच्छा मौका नहीं खोना चाहता था.

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‘‘कल अपनी वाइफ को भी यहीं पार्क की सैर पर लाइएगा.’’ फिर कल आप के पति से वाइफ के साथ ही मिलूंगा.

‘‘ओके बाय,’’ उस ने अपने हेयरबैंड को ठीक करते हुए बड़ी अदा से थ हिलाया.

‘‘बाय,’’ कह कर तरुण ने लंबी सांस भरी.

तरुण जानबूझ कर उलटे राउंड लगाने लगा ताकि वह प्रिया को बारबार सामने से आता देख पाएगा. पर यह क्या पास आतेआते खड़ूस से पति की बगल में बैठ गई. ‘चल देखता हूं क्या गुफ्तगू, गुटरगूं हो रही है,’ सोच वह झडि़यों के पीछे हो लिया. ऐसे जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो… किसी को शक न हो. वह कान खड़े कर सुनने लगा…

‘‘रणवीर आप तो बिलकुल ही ढीले हो कर बैठ जाते हो. अभी 1 ही राउंड तो हुआ आप का… वह देखो सामने से आ रहा है… अरे कहां गया… कितनी फिट की हुई है उस ने बौडी… लगातार मेरे साथ 5 चक्कर तो हो ही गए उस के अभी भी… हमारे सामने वाले घर में ही तो रहता है… आप ने देखा है क्या सौलिड बौडी है उस की…’’

‘अरे, यह तो मेरे बारे में ही बात कर रही है और वह भी तारीफ… क्या बात है…. तरु तुम तो छा गए,’ बड़बड़ा कर वह सीधा हो कर पीछे हो लिया. ‘खड़ूस माना नहीं… आलसी कहीं का… बेचारी रह गई मन मार कर… चल तरु तू भी चल जिम का टाइम हो गया है’ सोच वह जौगिंग करते हुए ही जिम पहुंच गया.

प्रिया को जिम के पास उतार कर रणवीर चला गया यह कहते हुए, ‘घंटे भर बाद लेने आ जाऊंगा… यहां वक्त बरबाद नहीं कर सकता.’

‘हां मत कर खड़ूस बरबाद… तू जा घर में बैठ और मरनेकटने की खबरें पढ़.’ मन ही मन बोलते हुए तरु ने बुरा सा मुंह बनाया, ‘और अपनी शालू रानी तो घी में तर आलू के परांठे खाखा कर सुबहसुबह टीवी सीरियल से फैशन सीखने की क्लास में मस्त खुद को निखारने में जुटी होंगी.’

दूसरे दिन तरुण शालू को जबरदस्ती प्रिया जैसा ट्रैक सूट पहना कर पार्क में ले आया.1 राउंड भी शालू बड़ी मुश्किल से पूरा कर पाई. थक कर वह साइड की डस्टबिन से टकरा कर गिर गई.

‘‘कहां हो शालू? कहां गई?’’ पुकार लोगों के हंसने की आवाजें सुन तरुण पलटा. शालू की ऐसी हालत देख उस की भी हंसी छूट गई पर प्रिया को उस ओर देखता देख खिसियाई सी हंसी हंसते हुए हाथ का सहारा दे उठा दिया.

प्रिया के आगे गोल होती जा रही शालू को देख तरुण को और भी शर्मिंदगी महसूस होती. घर पर उस ने साइक्लिंग मशीन भी ला कर रख दी पर उस पर शालू 10-15 बार चलती और फिर पलंग पर फैल जाती.

‘‘बस न तरु हो गया न आज के लिए… सुबह से कुछ नहीं खाने दिया, बहुत भूख लगी है. खाने दो  पहले आलू के परांठे प्लीज.’’ खाने के नाम से उस में इतनी फुरती आ जाती कि तरुण के छिपाए परांठे फटाफट उठा लाती और फटाफट खाने लगती.

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‘‘तुम भी खा कर तो देखो मिर्च के अचार के साथ… बड़े टेस्टी लग रहे हैं… बाद में अपना घासफूस खा लेना,’’ परांठे का टुकड़ा उस की ओर बढ़ाते हुए शालू मुसकराई.

‘‘नो थैंक्स… तुम्हीं खाओ,’’ कह तरुण डाइनिंग टेबल पर रखे कौर्नफ्लैक्स दूध की ओर बढ़ गया.शालू टीवी खोल कर बैठ गई तो तरुण बाउल ले कर अपनी विंडो पर आ गया.

बस एक सनम चाहिए- भाग 1: शादी के बाद भी तनु ने गैर मर्द से क्यों रखा रिश्ता

‘‘सांसों की जरूरत है जैसे जिंदगी के लिए, बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए…’’ एफएम पर बजते ‘आशिकी’ फिल्म के इस गाने ने मुझे बरबस ही तनु की याद दिला दी. वह जब भी किसी नए रिश्ते में पड़ती थी, तो यह गाना गुनगुनाती थी.मनचली… तितली… फुलझड़ी… और भी न जाने किनकिन नामों से बुलाया करते थे लोग उसे…मगर वह तो जैसे चिकना घड़ा थी. किसी भी कमैंट का कोई असर नहीं पड़ता था उस पर. अपनी शर्तों पर, अपने मनमुताबिक जीने वाली तनु लोगों को रहस्यमयी लगती थी. मगर मैं जानती थी कि वह एक खुली किताब की तरह है. बस उसे पढ़ने और समझने के लिए थोड़े धीरज की जरूरत है.

वह कहते हैं न कि अच्छे दोस्त और अच्छी किताबें जरा देर से समझ में आते हैं…तनु के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि वह जरा देर से समझ आती है. तनु मेरी बचपन की सहेली थी. स्कूल से ले कर कालेज और उस के बाद उस के जौब करने तक… मैं उस के हर राज की हमराज थी. पता नहीं कितनी चाहतें, कितने अरमान भरे थे उस के दिल के छोटे से आसमान में कि हर बार अपनी ही उड़ान से ऊपर उड़ने की ख्वाहिशें पलती रहती थीं उस के भीतर. वह जिस मुकाम को हासिल कर लेती थी वह तुच्छ हो जाता था उस के लिए. कभीकभी तो मैं भी नहीं समझ पाती थी कि आखिर यह लड़की क्या पाना चाहती है. इस की मंजिल आखिर कहां है?

8वीं क्लास में जब पहली बार उस ने मुझे बताया कि उसे हमारे क्लासमेट रवि से प्यार हो गया है तो मेरी समझ ही नहीं आया था कि मैं कैसे रिएक्ट करूं. तनु ने बताया कि रवि के साथ बातें करना, खेलना, मस्ती करना उसे बहुत भाता है. तब तो हम शायद प्यार के माने भी ठीक ढंग से नहीं जानते थे. फिर भी न जाने किस तलाश में वह पागल लड़की उस अनजान रास्ते पर आगे बढ़ती ही जा रही थी.

एक दिन रवि का लिखा एक लव लैटर उस ने मुझे दिखाया तो मैं डर गई. बोली, ‘‘फाड़ कर फेंक दे इसे…कहीं सर के हाथ लग गया तो तुम दोनों की खैर नहीं,’’ मैं ने उसे समझाते हुए उस की सहेली होने का अपना फर्ज निभाया.

‘‘अरे, कुछ नहीं यार… लाइफ में एक जिगरी यार तो होना ही चाहिए न. बस एक सनम चाहिए. आशिकी के लिए…’’ उस ने गुनगुनाते हुए कहा. ‘‘तो क्या मैं तुम्हारी जिगरी नहीं?’’ मैं ने तुनक कर पूछा.

‘‘तुम समझी नहीं. जिगरी यार से मेरा मतलब एक ऐसे दोस्त से है जो मुझे बहुत प्यार करे. सिर्फ प्यार… तुम तो सहेली हो. यार नहीं…’’ तनु ने मुझ नासमझ को समझाया. फिर एक दिन तैश में आते हुए बोली, ‘‘आई हेट रवि.’’

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मैं ने कारण पूछा तो उस ने बताया कि आज सुबह गेम्स पीरियड में बैडमिंटन कोर्ट में रवि ने उसे किस करने की कोशिश की. मैं ने कहा, ‘‘तुम ही तो प्यार करने वाला जिगरी यार चाहती

थी न?’’ सुनते ही बिफर गई तनु. बोली, ‘‘हां, चाहती थी प्यार करने वाला. मगर तभी जब उस में मेरी मरजी शामिल हो. बिना मेरी सहमती के कोई मुझे छू नहीं सकता.’’ कहते हुए उस ने रवि के लिखे सारे लव लैटर्स फाड़ कर डस्टबिन के हवाले कर दिए और लापरवाही से हाथ झटक लिए.

‘‘उम्र मात्र 14 वर्ष और ये तेवर?’’ मैं डर गई थी. 9वीं क्लास में हम दोनों ने कोऐजुकेशन छोड़ कर गर्ल्स स्कूल में ऐडमिशन ले लिया. स्कूल हमारे घर से ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए हम सब सहेलियां साइकिल से स्कूल जाती थीं. 10वीं कक्षा तक आतेआते एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘‘स्कूल जाते समय रास्ते में अकसर एक लड़का हमें क्रौस करता है और वह मुझे बहुत अच्छा लगता है. लगता है मुझे फिर से प्यार हो गया…’’

मैं ने उसे एक बार फिर आग से न खेलने की सलाह दी. मगर वह अपने दिल के सिवा कहां किसी और की सुनती थी जो मेरी सुनती. अब तो स्कूल आतेजाते अनायास ही मेरा ध्यान भी उस लड़के की तरफ जाने लगा. मैं ने नोटिस किया कि आमनेसामने क्रौस करते समय तनु उस लड़के की तरफ भरपूर निगाहों से देखती है. वह लड़का भी प्यार भरी नजरें उस पर डालता है. स्कूल के मेन गेट में घुसने से पहले एक आखिरी बार तनु पीछे मुड़ कर देखती थी और फिर वह लड़का वहां से चला जाता था.

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प्रेम गली अति सांकरी: भाग 2

Writer- जसविंदर शर्मा 

मैं ने मां को बुलाया. ‘उसे’ घर के बाहर पा कर मां तो भड़क गईं. वे उस पर बुरी तरह चीखनेचिल्लाने लगीं. मां ने उसे धमकाया कि अगर ‘वह’ दोबारा इधर दिखी तो वे पुलिस को बुला लेंगी. ‘वह’ शांत बनी नीची नजर से धरती की तरफ देखती रही. उस की आंखें हमारे घर के अंदर कुछ ढूंढ़ रही थीं. उसे पता था कि मेरे पापा अंदर ही होंगे.

मां के इस प्रहार से एक मिनट के लिए तो वह घबरा गई. वह कुछ कहना चाहती थी मगर मां ने उसे मुंह खोलने का अवसर ही नहीं दिया. उस ने अपमान का कड़वा घूंट चुपचाप पी लिया.

वह चुपचाप वापस चली गई. पिछले एक सप्ताह से मां और पापा के बीच ‘उसे’ ले कर घमासान चल रहा था. पापा औफिस नहीं गए थे. मां उन्हें बाहर जाने नहीं दे रही थीं. सो, वह उन का पता करने आई थी. उस नादान उम्र में मैं साफ नहीं जान पाती थी कि बड़े लोग एकदूसरे के साथ कैसेकैसे खेल खेलते हैं. उन का व्यवहार हम बच्चों की समझ से बाहर था.

पापा की इस लंपट प्रवृत्ति के कारण हमारे घर में सदा शीतयुद्ध छिड़ा रहता था. पापा के अन्य स्त्रियों से भी अनैतिक संबंध थे और मां ने अपने विवाहित जीवन के पहले 10 वर्ष पापा की इन इश्कमिजाज पहेलियों को सुलझाने में ही होम कर दिए थे. रोमांस उन के जीवन से कोसों दूर था.

मां गोरीचिट्टी और जहीन दिमाग की भद्र महिला थीं. मगर पापा को तो तीखी व तुर्श स्त्रियां भाती थीं. पापा तो मां की सहेलियों से भी रोमांटिक संबंध बना लेते और फोन पर बतियाते रहते. मां किसकिस सौतन से उन का बचाव करतीं.

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‘वह’ पापा के रोमांस की धुरी बन कर रह गई. पापा उस से बहुत ज्यादा हद तक ‘इन्वौल्व’ थे. ‘उस के’ लिए वे मां व हम बच्चों को छोड़ देने को तैयार थे. मां ने कई बार पापा को छोड़ देने की बात की, कोशिश भी की.

पापा ने उन्हें उकसाया भी मगर 90 के दशक में एक मध्यवर्ग की औरत के लिए इतना आसान नहीं था कि वह एक आवारा भंवरेरूपी पति से छुटकारा पा सके और खासकर तब जब उस के 3 बच्चे हों.

पापा सच में शैतान का अवतार थे. उन्होंने एक ही समय में 2-2 औरतों को गर्भवती बना दिया था. मां के साथ तो चलो ठीक था, वे उन की कानूनी पत्नी थीं मगर ‘उसे’ अपनी हवस का शिकार बना कर कहीं का नहीं छोड़ा.

अपना बढ़ता हुआ पेट ले कर वह कहीं नहीं जा सकती थी. औफिस से उस ने छुट्टी ले रखी थी. आसपड़ोस में बदनामी हो रही थी. ‘उस के’ मांबाप ने उसे काफी साल पहले त्याग दिया था. वे उस की शादी अच्छी जगह करना चाहते थे मगर पापा से रोमांटिक तौर पर जुड़ने के चलते ‘उस ने’ आने वाले रिश्तों को ठुकरा दिया था.

‘उस में’ बला की हिम्मत थी और गजब का आत्मविश्वास. जब उस ने फैसला किया कि वह पापा के नाजायज बच्चे को जन्म देगी तो पापा ने उसे कितना समझाया होगा मगर वह बच्चा गिराने के पक्ष में नहीं थी. बेचारी को तब पता नहीं था कि उस का सामना कितने बड़े तूफान से होने वाला था. मगर उसे यों गुमनामी के अंधेरों में धकेला जाना अच्छा नहीं लगा. उस ने जम कर संघर्ष करना शुरू कर दिया था.

वह 25 बरस की थी और पापा 40 पार कर चुके थे. ‘उस में’ इतनी समझ तो थी ही कि ‘वह’ एक बंद गली के पार नहीं जा पाएगी मगर अब जब उस ने पापा से प्यार कर ही लिया था तो पीछे किस तरफ लौटती.

पापा अभी हम लोगों को छोड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. एक कुंआरी लड़की का मां बनने का यह साहसभरा फैसला विवाहित लोगों के लिए चुनौती ही था क्योंकि सिंगल पेरैंट बनने की यह आधुनिक संकल्पना अभी काफी दूर थी.

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पापा ने मां और हम से कड़ी बेरुखी दिखानी शुरू कर दी थी. वे अपनी मिस्ट्रैस को ज्यादा तवज्जुह देने लगे थे. जब मेरा छोटा भाई मां के पेट में था तब पापा कईकई दिन घर से बाहर रहते. जब बच्चा पैदा हुआ तब हमारे पड़ोस की आंटी मां के पास अस्पताल में थीं. मां को पता था कि पापा कहां हैं और किस के पास हैं.

बच्चा पैदा होने के 2 सप्ताह बाद पापा घर लौटे. मां ने पापा को बुलाना बंद कर दिया था. कोई वादप्रतिवाद नहीं हुआ. पापा को इस से कुछ ज्यादा ही शह मिली. अब उन्होंने अपना समय इस तरह बांट लिया था कि ज्यादा समय वे ‘उस के’ साथ बिताते.

अगर हमारे पास कुछ ज्यादा समय के लिए ठहर जाते तो उन की मिस्ट्रैस उन्हें ढूंढ़ते हुए हमारे घर पहुंच जाती. अगर पापा अपनी चहेती के घर ज्यादा दिनों तक टिके रहते तो मां कभी उन की छानबीन न करतीं. पापा घर में न होते तो घर में शांति बनी रहती.

पापा आते और सारी की सारी सैलरी मां को सौंप देते. ‘वह’ नौकरी करती थी, सो पापा का सारा खर्च वही उठाती थी. मां ने कभी पैसे की तंगी नहीं झेली. अच्छा मकान था और अच्छी आय, साथ में सारे बच्चे भी मां की तरफ ही थे.

मां ने पापा को इधरउधर मुंह मारने के लिए लंबी रस्सी थमा रखी थी और मन ही मन उन्हें पता भी था कि थकहार कर एक दिन उन का पति पूरी तरह उन के पास लौट आएगा. मां ने अगर पापा के साथ सख्त रवैया अपनाया होता तो हो सकता था कि पापा इतनी देर तक लंपट नहीं रहते. मां के ढुलमुल रवैये के कारण पापा बेलगाम होते गए.

और तभी मां के सब्र का प्याला भर गया. मां और पापा में एक दिन खूब झगड़ा हुआ. मां ने बताया कि पापा उस से जबरदस्ती करना चाहते थे. मां भड़क गईं, ‘उसे’ भलाबुरा कहने लगीं. पापा ने हाथ चला दिया तो मां ने आसमान सिर पर उठा लिया.

मैं स्कूल से घर आई तो पाया कि मां घर पर नहीं हैं. पापा मेरे छोटे भाई की नैपी बदल रहे थे. उन की हालत काफी दयनीय थी. मैं ने दबी जबान में पूछा, ‘मां कहां हैं?’

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पापा का सख्त व रूखा जवाब था, ‘चली गई है.’

मेरे पैरों तले जमीन डोल गई. कांपती आवाज में मैं ने फिर पूछा, ‘मां कहां चली गईं?’

पापा का गुस्से से भरा उत्तर था, ‘बस चली गई.’

पापा ने हम दोनों बहनों के लिए खाना बनाया जो हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगा. पिछले कितने महीनों से पापा हम से बेरुखी से बात करते थे.

घर का मालिक अपनी कमाई से परिवार के लिए सुविधाएं जुटाता है और इस के जरिए अपनी ताकत बढ़ाता है और इसी ताकत के आगे गिरवी पड़ी रहती है बच्चों की मां. हमारे लिए तो मां ही सबकुछ थीं. अब मां पता नहीं कहां होंगी. कहीं नानी के पास तो नहीं चली गईं. वहां तो जाने में ही 2 दिन लगते हैं और आने में भी समय लगता है. इतने दिनों तक हम कैसे रहेंगी? क्या पापा उन्हें मना कर लाएंगे?

अगले दिन भी मां नहीं लौटीं तो हम दोनों बहनों की चिंता बढ़ गई. पापा ने पिछले कई महीनों में हम से ढंग से बात नहीं की थी. हम तैयार हो कर स्कूल चली गईं. पापा ने घर की चाबियां पड़ोस में दीं व हमारे छोटे भाई को ले कर चले गए और रातभर नहीं लौटे.

पड़ोस की आंटी ने हमें खाना खिलाया. मां की हमें बुरी तरह याद आ रही थी. पता नहीं उन से मिलना हो पाएगा या नहीं.

वेटिंग रूम- भाग 2: सिद्धार्थ और जानकी की छोटी सी मुलाकात के बाद क्या नया मोड़ आया?

Writer- जागृति भागवत 

‘‘एनी वे, थैंक्स,’’ कह कर उस ने अपनी जगह पर जाना ही ठीक समझा. जानकी ने भी राहत की सांस ली. पिछले 4 घंटों में उस ने उस नौजवान के बारे में जितना समझा था, उस के बाद उस से बात करने की सोच भी नहीं सकती थी. जानकी की गाड़ी काफी देर से आने वाली थी. शुरू में उस ने पूछताछ खिड़की पर पूछा था तब उन्होंने 2:00 बजे तक आने को कहा था. अब न तो वह सो पा रही थी न कोई बातचीत करने के लिए ही था. किताब पढ़तेपढ़ते भी वह थक गई थी. वैसे भी प्रतीक्षालय में रोशनी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पढ़ना मुश्किल हो रहा था. नौजवान को भी कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे. वैसे स्वभाव के मुताबिक उस की नजर बारबार जानकी की तरफ जा रही थी. यह बात जानकी को भी पता चल चुकी थी. वह दिखने में बहुत सुंदर तो नहीं थी, लेकिन एक अनूठा सा आकर्षण था उस में. चेहरे पर गजब का तेज था. नौजवान ने कई बार सोचा कि उस के पास जा कर कुछ वार्त्तालाप करे लेकिन पहली बातचीत में उस के रूखे व्यवहार से उस की दोबारा हिम्मत नहीं हो रही थी. नौजवान फिर उठ कर बाहर गया. चाय के 2 गिलास ले कर बड़ी हिम्मत जुटा कर जानकी के पास जा कर कहा, ‘‘मैम, चाय.’’ इस से पहले कि जानकी कुछ समझ या बोल पाती, उस ने एक गिलास जानकी की ओर बढ़ा दिया. जानकी ने चाय लेते हुए धीरे से मुसकरा कर कहा, ‘‘थैंक्स.’’ नौजवान को हिम्मत देने के लिए इतना काफी था. थोड़ी औपचारिक भाषा में कहा, ‘‘क्या मैं आप से थोड़ी देर बातें कर सकता हूं?’’

जानकी कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बैठिए.’’

एक कुरसी छोड़ कर नौजवान बैठ गया. जानकी ने यह सोच कर उसे बैठने के लिए कह दिया कि लड़का चाहे जैसा भी हो, थोड़ी देर बात कर के बोरियत तो दूर होगी. चाय की चुस्कियां लेते हुए नौजवान ने ही शुरुआत की, ‘‘मेरा नाम सिद्धार्थ है, पर मेरे दोस्त मुझे ‘सिड’ कहते हैं.’’

‘‘क्यों? सिद्धार्थ में क्या बुराई है?’’ जानकी ने टोका. सिद्धार्थ को इस एतराज की उम्मीद नहीं थी, थोड़ा हिचकिचाते हुए वह बोला, ‘‘सि-द्-धा-र्थ काफी लंबा नाम है न और काफी पुराना भी, इसलिए दोस्तों ने उस का शौर्टकट बना दिया है.’’

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‘‘अमिताभ बच्चन, स्टैच्यू औफ लिबर्टी, सैंट फ्रांसिस्को, ग्रेट वौल औफ चाइना वगैरा नाम पचास बार भी लेना हो तो आप पूरा नाम ही लेते हैं, उस का तो शौर्टकट नहीं बनाते, फिर इतने अच्छे नाम का, जो सिर्फ साढ़े 3 अक्षरों का है, शौर्टकट बना दिया. जब बच्चा पैदा होता है तब मातापिता नामों की लंबी लिस्ट से कितनी मुश्किल से एक ऐसा नाम पसंद करते हैं जो उन के बच्चे के लिए फिट हो. बच्चा भी वही नाम सुनसुन कर बड़ा होता है और बड़ा हो कर दोस्तों के कहने पर अपना नाम बदल देता है. नाम के नए या पुराने होने से कुछ नहीं होता, गहराई उस के अर्थ में होती है.’’ पिछले 3 दिनों में जानकी ने पहली बार किसी से इतना लंबा वाक्य बोला था. पिछले 3 दिनों से वह अकेली थी, इसलिए किसी से बातचीत नहीं हो पा रही थी. शायद इसीलिए उस ने सिद्धार्थ से बातें करने का मन बनाया था. परंतु सिद्धार्थ एक मिनट के लिए सोच में पड़ गया कि उस ने जानकी के पास बैठ कर ठीक किया या नहीं. थोड़ा संभलते हुए कहा, ‘‘आप सही कह रही हैं, वैसे आप कहां जा रही हैं?’’ सिद्धार्थ ने बात बदलते हुए पूछा.

‘‘इंदौर जा रही हूं, और आप कहां जा रहे हैं?’’

‘‘मैं पुणे जा रहा हूं, आज से महाराष्ट्र में टैक्सी वालों की हड़ताल शुरू हो गई है, इसलिए ट्रेन से जाना पड़ रहा है, एक तो ये गाडि़यां भी कितनी लेट चल रही हैं. आज यहां मनमाड़ में कैसे?’’ सिद्धार्थ ने बातों की दिशा को मोड़ते हुए पूछा. अब जानकी, सिद्धार्थ के साथ थोड़ा सहज महसूस कर रही थी. कहा, ‘‘मैं पुणे गई थी लेक्चरर का इंटरव्यू देने, लौटते समय एक दिन के लिए नासिक गई थी, अब वापस इंदौर जा रही हूं.’’

‘‘पुणे में किस कालेज में इंटरव्यू देने गई थीं आप?’’ सिद्धार्थ ने जानकारी लेने के उद्देश्य से पूछा.

‘‘पुणे आर्ट्स ऐंड कौमर्स से हिस्ट्री के प्रोफैसर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू कौल आया था.’’

‘‘हिस्ट्री प्रोफैसर? आप हिस्ट्री में रुचि रखती हैं?’’ सिद्धार्थ ने चौंकते हुए पूछा. जानकी को उस की प्रतिक्रिया बड़ी अजीब लगी, उस ने पूछा, ‘‘क्यों? हिस्ट्री में क्या बुराई है? हमारे इतिहास में इतना कुछ छिपा है कि एक पूरी जिंदगी भी कम पड़े जानने में.’’ सिद्धार्थ अब जानकी से सिर्फ टाइमपास के लिए बातें नहीं कर रहा था, उसे जानकी के व्यक्तित्व में झांकने का मन होने लगा था. पिछले कुछ घंटों से वह दूर से जानकी को देख रहा था. वह जैसी दिख रही थी वैसी थी नहीं. उस ने सोचा था कि वह एक शर्मीली, छुईमुई, अंतर्मुखी, घरेलू टाइप की लड़की होगी. परंतु उस की शैक्षणिक योग्यता, उस के विचारों का स्तर और विशेषकर उस का आत्मविश्वास देख कर सिद्धार्थ समझ गया कि वह उन लड़कियों से बिलकुल अलग है जो टाइमपास के लिए होती हैं. कुछ देर वह शांत बैठा रहा. अब तक दोनों की चाय खत्म हो चुकी थी. आमतौर पर जानकी कम ही बोलती थी, पर यह चुप्पी उसे काफी असहज लग रही थी, सो उसी ने बात शुरू की. सिद्धार्थ के बाएं हाथ पर लगी क्रेप बैंडेज देख कर उस ने पूछा, ‘‘यह चोट कैसे लगी आप को?’’

‘‘मैं बाइक से स्लिप हो गया था.’’

‘‘बहुत तेज चलाते हैं क्या?’’

‘‘मैं दोस्तों के साथ नाइटराइड पर था, थोड़ा डिं्रक भी किया था, इसलिए बाइक कंट्रोल में नहीं रही और मैं फिसल गया.’’ सिद्धार्थ ने थोड़ा हिचकिचाते हुए बताया. जानकी ने शरारतभरे अंदाज में कहा, ‘‘जहां तक मैं जानती हूं, रात सोने के लिए होती है न कि बाइक राइडिंग के लिए. खैर, वैसे आप यहां कैसे आए थे?’’ ?‘‘डैड का टैक्सटाइल ऐक्सपोर्ट का बिजनैस है, मुझे यहां सैंपल्स देखने के लिए भेजा था. डैड चाहते हैं कि मैं उन का बिजनैस संभालूं. इसीलिए उन्होंने मुझ से टैक्सटाइल्स में इंजीनियरिंग करवाई और फिर मार्केटिंग में एमबीए भी करवाया, पर मेरा इस सब में कोई इंट्रैस्ट नहीं है. मैं कंप्यूटर्स में एमटैक कर के यूएस जाना चाहता था. पर डैड मुझे अपने बिजनैस में इन्वौल्व करना चाहते हैं.’’ सिद्धार्थ ने काफी संजीदा हो कर बताया. जानकी को भी अब उस की बातों में रुचि जाग गई थी. थोड़ा खोद कर उस ने पूछा, ‘‘कोई और भाई है क्या आप का?’’

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‘‘न कोई भाई न बहन, इकलौता हूं. इसीलिए सब को बहुत उम्मीदें हैं मुझ से.’’ सिद्धार्थ की आवाज में काफी उदासी थी. जानकी ने संवाद को आगे बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘और आप उन की उम्मीदें पूरी नहीं कर रहे हैं? आप उन की इकलौती संतान हैं, आप से उम्मीदें नहीं होंगी तो किस से होंगी. आप के लिए जमाजमाया बिजनैस है और आप उस के मुताबिक ही क्वालिफाइड भी हैं, मतलब बिना किसी संघर्ष के आप वह सब पा सकते हैं जिसे पाने के लिए लोगों की आधी जिंदगी निकल जाती है.’’ ये सब कह कर तो जानकी ने जैसे सिद्धार्थ की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. वह बिफर पड़ा, ‘‘ये सब बातें देखनेसुनने में अच्छी लगती हैं मैम, जिस पर बीतती है वह ही इस का दर्द जानता है. अगर पिता डाक्टर हैं तो बेटे को डाक्टर ही बनना होगा ताकि पिता का हौस्पिटल आगे चल सके. पिता वकील हैं तो बेटा भी वकील ही बने ताकि पिता की वकालत आगे बढ़ सके, ऐसा क्यों? टीचर का बेटा टीचर बने, यह जरूरी नहीं, बैंकर का बेटा बैंकर बने, यह भी जरूरी नहीं फिर ये बिजनैस कम्युनिटी में पैदा हुए बच्चों की सजा जैसी है कि उन्हें अपनी चौइस से अपना प्रोफैशन चुनने का अधिकार नहीं है, अपना कैरियर बनाने का अधिकार नहीं है. मैं ने तो नहीं कहा था अपने पिता से कि वे बिजनैस करें, फिर वे मेरी रुचि में इंटरफेयर क्यों करें?’’

जानकी सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसे फ्लर्ट से दिखने वाले नौजवान के अंदर इतनी आग होगी. जानकी ने बहस के लहजे में उस से कहा, ‘‘जिसे आप सजा कह रहे हैं, वह असल में आप के लिए सजा है, जब तक इंसान के सिर पर छत और थाली में खाना सजा मिलता है, तभी तक उसे कैरियर में चौइस और रुचि जैसे शब्द सुहाते हैं. जब बेसिक नीड्स भी पूरी नहीं होती है तब जो काम मिले, इंसान करने को तैयार होता है. कभी उन के बारे में भी सोच कर देखें, तब आप को आप से ज्यादा खुश कोई नहीं लगेगा.’’ ‘‘मैम, अगर आप मेरी जगह होतीं तो मेरी पीड़ा समझ पातीं, आप के पेरैंट्स ने कभी आप की लाइफ में इतना इंटरफेयर नहीं किया होगा, तभी आप इतनी बड़ीबड़ी बातें कर पा रही हैं.’’ सिद्धार्थ की आवाज में थोड़ा रूखापन था. जवाब में जानकी ने कहा, ‘‘इंटरफेयर तो तब करते न जब वे मेरे पास होते.’’

यह सुनते ही सिद्धार्थ के चेहरे के भाव ही बदल गए. वह क्या पूछे और कैसे पूछे, समझ नहीं पा रहा था. फिर आहिस्ता से पूछा, ‘‘सौरी मैम, कोई दुर्घटना हो गई थी?’’ ‘‘नहीं जानती,’’ जानकी की आवाज ने उसे व्याकुल कर दिया. ‘‘नहीं जानती, मतलब?’’ सिद्धार्थ ने आश्चर्य से पूछा. इस पर जानकी ने बिना किसी भूमिका के बताया, ‘‘नहीं जानती, मतलब मैं नहीं जानती कि वे लोग अब जिंदा हैं या नहीं. मैं ने तो उन्हें कभी देखा भी नहीं है. जब मेरी उम्र लगभग 4-5 दिन थी तभी उन लोगों ने या अकेली मेरी मां ने मुझे इंदौर के एक अनाथालय ‘वात्सल्य’ के बाहर एक चादर में लपेट कर धरती मां की गोद में छोड़ दिया, जाने क्या वजह थी. तब से ‘वात्सल्य’ ही मेरा घर है और उसे चलाने वाली मानसी चाची ही मेरी मां हैं. मैं धरती की गोद से आई थी, इसलिए मानसी चाची ने मेरा नाम जानकी रखा. न मैं अपने मातापिता को जानती हूं और न ही मुझे उन से कोई लगाव है.

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