Writer- वीरेंद्र बहादुर सिंह

सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नई कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?’’

‘‘मैं संतू हूं साहब.’’

‘‘तुम कब से काम करने आने लगी हो?’’ सेवकराम ने पूछा.

‘‘बस, कल से.’’

‘‘पर, मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.’’

‘‘साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही घर चली गई थी.

‘‘मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मु?ा से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,’’ संतू ने कहा.

‘‘मतलब...?’’

‘‘वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मु?ो लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.’’

‘‘ऐसा क्यों साहब?’’

‘‘संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं, तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं, तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

‘‘एक दिन मैं ?ाठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मु?ो शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मु?ो भूखे ही सोना पड़ा था,’’ सेवकराम ने कहा.

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