Writer- वीरेंद्र बहादुर सिंह
सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.
सेवकराम ने नई कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?’’
‘‘मैं संतू हूं साहब.’’
‘‘तुम कब से काम करने आने लगी हो?’’ सेवकराम ने पूछा.
‘‘बस, कल से.’’
‘‘पर, मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.’’
‘‘साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही घर चली गई थी.
‘‘मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मु?ा से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,’’ संतू ने कहा.
‘‘मतलब…?’’
‘‘वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मु?ो लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.’’
‘‘ऐसा क्यों साहब?’’
‘‘संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं, तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं, तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.
‘‘एक दिन मैं ?ाठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मु?ो शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मु?ो भूखे ही सोना पड़ा था,’’ सेवकराम ने कहा.
संतू ने हाथ में ?ाड़ू लिए हुए ही पूछा, ‘‘आप कोई नेता हैं क्या साहब?’’
‘‘यह बात बाद में करेंगे, पहले मु?ो यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?’’
संतू ने कहा, ‘‘मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?’’
‘‘मस्त लगती हो.’’
‘‘थैंक्यू साहब.’’
‘‘तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?’’
‘‘हां साहब, मैं 12वीं तक पढ़ी हूं.’’
‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?’’
‘‘24 साल की हूं साहब.’’
‘‘पर, तुम 20 की ही लगती हो.’’
‘‘दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मु?ो 16 साल की ही कहते थे.’’
‘‘तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.’’
कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का नाम क्या है?’’
‘‘सेवकराम.’’
‘‘इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?’’
‘‘बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मु?ो भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.
‘‘पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों
रखा है?’’
संतू बोली, ‘‘साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मु?ो प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को
अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मु?ो बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था,
फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.’’
‘‘वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.’’
संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का कामकाज क्या है?’’
‘‘देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं, इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौयन करने वाला हूं.’’
‘‘तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.’’
‘‘संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.’’
‘‘तो फिर आप क्या करेंगे साहब?’’
‘‘मैं कांग्रेस पार्टी को जौयन
करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.’’
‘‘पर, वह ट्रेन न चली तो…?’’
‘‘मैं आशावादी हूं. एक जमाने में भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.’’
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संतू ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों साहब?’’
‘‘सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.’’
‘‘इस से आप को क्या फायदा होगा?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘देखो संतू, मु?ो टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?’’
‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.’’
‘‘अरे संतू, मु?ो तो पैसे का फायदा हो रहा है न.’’
‘‘आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मु?ो एडवांस में एक साड़ी दे दीजिए न.’’
‘‘अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढि़या साड़ी ला दूं.’’
‘‘थैंक्यू साहब, मु?ो अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.’’
‘‘मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?’’
‘‘अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मु?ो तो साड़ी आज ही चाहिए.’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.’’
‘‘हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी तब…?’’
‘‘मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब
कर दी.’’
‘‘इस का मतलब तो यह कि आप अपनी घरवाली से ?ाठ बोलेंगे?’’
‘‘तुम्हारे जैसी खूबसूरत कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, बल्कि सौ ?ाठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त
पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.’’
‘‘कौन सी शर्त?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.
‘‘पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मु?ो सोते से उठा कर चाय देनी होगी.
‘‘मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.’’
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‘‘ठीक है साहब, आप की शर्त
मंजूर है.’’
‘‘पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मु?ो चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.’’
‘‘साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मु?ो साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और भी खूबसूरत लगती हूं.’’
‘‘ठीक है, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे,
ले लो.’’
‘‘ठीक है साहब,’’ कह कर संतू अंदर गई और एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.
संतू के इंतजार में सेवकराम को उस रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा कि रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.
थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.
सेवकराम ने कहा, ‘‘आ गई डार्लिंग?’’
‘‘हां, लो यह चाय.’’
सेवकराम, को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.
चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.’’
घबराते हुए सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे तुम… तुम तो एक हफ्ते के लिए गई
थीं, दूसरे ही दिन कैसे आ गईं?’’
‘‘मु?ो तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मु?ो फोन कर देना.
‘‘कल रात को ही संतू ने फोन
कर के मु?ो सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढि़या साड़ी पहले ही दे दी
थी. सम?ो?’’
‘‘सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.’’
‘‘घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.’’
‘‘सच में…’’
सेवकराम की घरवाली ने कहा, ‘‘मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.’’
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.’’
सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी. द्य
वकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.
सेवकराम ने नई कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?’’
‘‘मैं संतू हूं साहब.’’
‘‘तुम कब से काम करने आने लगी हो?’’ सेवकराम ने पूछा.
‘‘बस, कल से.’’
‘‘पर, मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.’’
‘‘साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही घर चली गई थी.
‘‘मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मु?ा से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,’’ संतू ने कहा.
‘‘मतलब…?’’
‘‘वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मु?ो लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.’’
‘‘ऐसा क्यों साहब?’’
‘‘संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं, तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं, तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.
‘‘एक दिन मैं ?ाठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मु?ो शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मु?ो भूखे ही सोना पड़ा था,’’ सेवकराम ने कहा.
संतू ने हाथ में ?ाड़ू लिए हुए ही पूछा, ‘‘आप कोई नेता हैं क्या साहब?’’
‘‘यह बात बाद में करेंगे, पहले मु?ो यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?’’
संतू ने कहा, ‘‘मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?’’
‘‘मस्त लगती हो.’’
‘‘थैंक्यू साहब.’’
‘‘तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?’’
‘‘हां साहब, मैं 12वीं तक पढ़ी हूं.’’
‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?’’
‘‘24 साल की हूं साहब.’’
‘‘पर, तुम 20 की ही लगती हो.’’
‘‘दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मु?ो 16 साल की ही कहते थे.’’
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‘‘तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.’’
कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का नाम क्या है?’’
‘‘सेवकराम.’’
‘‘इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?’’
‘‘बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मु?ो भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.
‘‘पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों
रखा है?’’
संतू बोली, ‘‘साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मु?ो प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को
अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मु?ो बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था,
फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.’’
‘‘वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.’’
संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का कामकाज क्या है?’’
‘‘देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं, इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौयन करने वाला हूं.’’
‘‘तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.’’
‘‘संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.’’
‘‘तो फिर आप क्या करेंगे साहब?’’
‘‘मैं कांग्रेस पार्टी को जौयन
करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.’’
‘‘पर, वह ट्रेन न चली तो…?’’
‘‘मैं आशावादी हूं. एक जमाने में भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.’’
संतू ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों साहब?’’
‘‘सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.’’
‘‘इस से आप को क्या फायदा होगा?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘देखो संतू, मु?ो टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?’’
‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.’’
‘‘अरे संतू, मु?ो तो पैसे का फायदा हो रहा है न.’’
‘‘आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मु?ो एडवांस में एक साड़ी दे दीजिए न.’’
‘‘अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढि़या साड़ी ला दूं.’’
‘‘थैंक्यू साहब, मु?ो अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.’’
‘‘मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?’’
‘‘अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मु?ो तो साड़ी आज ही चाहिए.’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.’’
‘‘हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी तब…?’’
‘‘मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब
कर दी.’’
‘‘इस का मतलब तो यह कि आप अपनी घरवाली से ?ाठ बोलेंगे?’’
‘‘तुम्हारे जैसी खूबसूरत कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, बल्कि सौ ?ाठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त
पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.’’
‘‘कौन सी शर्त?’’
सेवकराम ने कहा, ‘‘अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.
‘‘पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मु?ो सोते से उठा कर चाय देनी होगी.
‘‘मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.’’
‘‘ठीक है साहब, आप की शर्त
मंजूर है.’’
‘‘पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मु?ो चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.’’
‘‘साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मु?ो साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और भी खूबसूरत लगती हूं.’’
‘‘ठीक है, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे,
ले लो.’’
‘‘ठीक है साहब,’’ कह कर संतू अंदर गई और एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.
संतू के इंतजार में सेवकराम को उस रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा कि रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.
थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.
सेवकराम ने कहा, ‘‘आ गई डार्लिंग?’’
‘‘हां, लो यह चाय.’’
सेवकराम, को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.
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चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.’’
घबराते हुए सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे तुम… तुम तो एक हफ्ते के लिए गई
थीं, दूसरे ही दिन कैसे आ गईं?’’
‘‘मु?ो तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मु?ो फोन कर देना.
‘‘कल रात को ही संतू ने फोन
कर के मु?ो सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढि़या साड़ी पहले ही दे दी
थी. सम?ो?’’
‘‘सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.’’
‘‘घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.’’
‘‘सच में…’’
सेवकराम की घरवाली ने कहा, ‘‘मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.’’
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.’’
सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.