प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

जो बीत गई सो बात गई

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

बयार बदलाव की: नीला की खुशियों को किसकी नजर लग गई थी

रमन लिफ्ट से बाहर निकला, पार्किंग से गाड़ी निकाली और घर की तरफ चल दिया. वह इस समय काफी उल?ान में था. रात को 8 बजने वाले थे. वह साढ़े 8 बजे तक औफिस से घर पहुंच जाता था. घर पर नीला उस का बेसब्री से इंतजार कर रही होगी. पर उस का इस समय घर जाने का बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था. कुछ सोच कर उस ने आगे से यूटर्न लिया और कार दूसरी सड़क पर डाल दी. थोड़ी देर बाद उस ने एक खुली जगह पर कार खड़ी की और पैदल ही समुद्र की तरफ चल दिया.

यह समुद्र का थोड़ा सूना सा किनारा था. किनारा बड़े बड़े पत्थरों से अटा पड़ा था. वह एक पत्थर पर बैठ गया और हिलोरें मारते समुद्र को एकटक निहारने लगा. समुद्र की लहरें किनारे तक आतीं और जो कुछ अपने साथ बहा कर लातीं वह सब किनारे पर पटक कर वापस लौट जातीं. वह बहुत देर तक उन मचलती लहरों को देखता रहा.

देखतेदेखते वह अपने ही खयालों में डूबने लगा. वह दुखी हो, ऐसा नहीं था. पर बहुत ही पसोपेश में था. उस के पिता का फोन आया आज औफिस में. उस के मातापिता अगले हफ्ते एक महीने के लिए उस के पास आने वाले थे. मातापिता के आने की उसे खुशी थी. वह हृदय से चाहता था कि उस के मातापिता उस के पास आएं. पर अपने विवाह के एक साल पूरा होने के बावजूद वह एक बार भी उन्हें अपने पास आने के लिए नहीं कह पाया. कारण कुछ खास भी नहीं था. न उस के मातापिता अशिक्षित या गंवार थे. न उस की पत्नी नीला कर्कश या तेज स्वभाव की थी. फिर भी वह सम?ा नहीं पा रहा था कि उस के मातापिता आधुनिकता के रंग में रंगी उस की पत्नी को किस तरह से लेंगे. यह बात सिर्फ नीला की ही नहीं, बल्कि उस की पूरी पीढ़ी की है. नीला दिल्ली में विवाह से पहले नौकरी करती थी. विवाह के बाद नौकरी छोड़ कर उस के साथ मुंबई आ गईर् थी. यहां वह दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर रही थी.

नीला हर तरह से अच्छी लड़की थी. कोमल स्वभाव, अच्छे विचारों व प्यार करने वाली लड़की थी. उस के मातापिता के आने से वह खुश ही होगी. लेकिन उस के संस्कारी मातापिता, खासकर उस की मम्मी, नीला की आदतों, उस के रहनसहन के तरीकों को किस तरह से लेंगे, वह सम?ा नहीं पा रहा था.

विवाह के बाद वह चंडीगढ़ अपने मातापिता के पास थोड़ेथोड़े दिनों के लिए 2 बार ही गया था. मम्मी और नीला की अधिकतर बातें फोन से ही होती थीं. मम्मी उस के स्वभाव की बहुत तारीफ करती थीं. नीला भी अपनी सास का बहुत आदर करती थी और उन को पसंद करती थी. पर यह एक महीने का सान्निध्य कहीं उन के बीच की आत्मीयता को खत्म न कर दे, वह इसी उधेड़बुन में था.

नीला देर से सो कर उठती थी. उस के औफिस जाने तक भी कभी वह उठ जाती, कभी सोई रहती थी. नाश्ते में वह सिर्फ दूध व कौर्नफ्लैक्स लेता था. इसलिए वह खुद ही खा कर नीला को दरवाजा बंद करने को कह कर औफिस चला जाता था. उसे मालूम था, नीला की नौकरी लगते ही उस की दिनचर्या बदल जाएगी. फिर उसे जल्दी उठना ही पड़ेगा. अभी शादी को समय ही कितना हुआ है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. वह सारे दिन फ्लैट में अकेली रहती है. सुबह से उठ कर क्या करेगी.

खाना बनाना भी उसे बहुत ज्यादा नहीं आता था, मतलब का ही आता था. हालांकि एक साल में वह काफी कुछ सीख गई थी पर अभी तक उन का खाना अकसर बाहर ही होता था. मम्मीपापा के आने से काम भी बढ़ेगा. नीला इतना काम कहां संभाल पाएगी और मम्मी से अपने घर का पूरा काम संभालने की उम्मीद करना गलत था. वे नीला की सहायता करें, यह तो ठीक लगता है पर… फिर कपड़े तो नीला उस के मातापिता के सामने कितने भी शालीन पहनने की कोशिश करे, उस के बावजूद उस के मातापिता को उस का पहनावा नागवार गुजर सकता है.

मम्मी की पीढ़ी ने अपने पति की बहुत देखभाल की है. हाथ में सबकुछ उपलब्ध कराया है. औफिस जाते पति की हर जरूरत के लिए उस के पीछेपीछे घूमती पत्नी की पीढ़ी वाली उस की मम्मी क्या आज की पत्नी का तौरतरीका बरदाश्त कर पाएंगी, वह सम?ा नहीं पा रहा था. नीला से अगर थोड़े दिन अपना रवैया बदलने को कहता है तो नीला उस के मातापिता के बारे में क्या सोचेगी. उन दोनों के रिश्ते औपचारिक हो जाएंगे. यह रिश्ता एकदो दिन का तो है नहीं. उस के मातापिता तो अब उस के पास आतेजाते रहेंगे.

यही सब सोच कर वह अजीब सी उधेड़बुन में था. अंधकार घना हो गया था. समुद्र की लहरें किनारे पर सिर पटकपटक कर उसे उस के विचारों से बाहर लाने का असफल प्रयास कर रही थीं. उस ने घड़ी पर नजर डाली. 10 बजने वाले थे. तभी मोबाइल बज उठा. नीला थी.

‘‘हैलो, कहां हो? अभी औफिस से नहीं निकले क्या? कितनी बार फोन किया, उठा क्यों नहीं रहे थे, ड्राइव कर रहे हो क्या?’’ नीला चिंतित स्वर में कई सवाल कर बैठी. ‘‘हां, ड्राइव कर रहा था. बस, पहुंच ही रहा हूं,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और उठ कर कार की तरफ चला गया.

घर पहुंच कर भी वह गुमसुम ही रहा. नीला आदत के अनुसार चुहलबाजी कर रही थी. अपनी भोलीभाली बातों से उसे रि?ाने का प्रयास कर रही थी. पर उस की चुप्पी टूट ही नहीं रही थी. ‘‘क्या बात है रमन, आज कुछ अपसैट हो. सब ठीक तो है न?’’ वह उस के घने बालों में उंगलियां फेरती हुई उस की बगल में बैठ गई. उस ने नीला की तरफ देखा. नीला मीठे स्वभाव की सरल लड़की थी. इसलिए वह उसे बहुत प्यार करता था. उस की आदतों की कोई कमी उसे नहीं अखरती थी. फिर वह देखता कि नीला ही नहीं, उस के हमउम्र दोस्तों की बीवियां भी लगभग नीला जैसी ही हैं. यह पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से बिलकुल भिन्न है.

वह प्यार से नीला को बांहों में कसता हुआ बोला, ‘‘नहीं, कोई खास बात नहीं, बल्कि एक अच्छी बात है, चंडीगढ़ से मम्मीपापा आ रहे हैं एक महीने के लिए हमारे पास.’’

सुन कर नीला खुशी से उछल पड़ी, ‘‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छी खबर है. एक महीने के लिए मैं भी अकेले रहने की बोरियत से बच जाऊंगी. मम्मीपापा के साथ बहुत मजा आएगा. कब आ  रहे हैं?’’‘‘अगले हफ्ते की फ्लाइट है.’’

‘‘तो इतनी देर बाद क्यों बता रहे हो? आज तो देर हो गई. कल जल्दी आना, बहुत सारी चीजें खरीदनी हैं.’’ ‘‘हां, हां, तुम लिस्ट तैयार रखना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. फिर चलेंगे.’’ मम्मीपापा के आने के नाम से नीला खुश व उत्साहित थी. उसे तो मम्मीपापा के साथ चंडीगढ़ वाली मस्ती करनी थी. इस से अधिक वह कुछ नहीं सोच पा रही थी. रमन उस के उत्साह को मुसकराते हुए देख रहा था.

चंडीगढ़ में तो सबकुछ हाथ में मिलता है. मम्मी की तैयारियां पहले से ही अपने बच्चों के लिए इतनी संपूर्ण रहती हैं कि उन्हें बीच में परेशान नहीं होना पड़ता. खानेपीने की चीजों से फ्रिज भर देती हैं. इस के अलावा काम करने वाले भी घर के पुराने नौकर हैं, तो नीला को चम्मच हिलाने की भी जरूरत नहीं पड़ती है और न उस से थोड़े दिनों के लिए कोई ऐसी उम्मीद रखता है. उस ने खुद कुछ किया तो किया, नहीं किया तो नहीं किया. अपने प्यारे स्वभाव के कारण वह मम्मीपापा की इतनी लाड़ली है कि वे उसे पलकों पर बिठा कर रखते हैं.

नीला अपनी रौ में ढेर सारी प्लानिंग कर रही थी. रमन कुछ कह कर या उसे कुछ सम?ा कर उस की खुशी में विघ्न नहीं डालना चाहता था. इसलिए उस ने मन ही मन सोचा, जो होगा देखा जाएगा. ‘‘अब बातें ही करती रहोगी या कुछ खाने को भी दोगी. कुछ बनाया भी है या बाहर से और्डर करूं?’’ वह हंसता हुआ नीला को छेड़ता हुआ बोला.

‘‘आज तो मैं ने पास्ता बनाया है.’’ ‘‘पास्ता बनाया है? अरे, कुछ रोटीसब्जी बना देतीं. यह सब रोजरोज मु?ा से नहीं खाया जाता.’’ ‘‘पर मु?ा से रोटी अच्छी नहीं बनती है,’’ नीला मायूसी से बोली. ‘‘कोई बात नहीं,’’ वह उस के गालों को प्यार से सहलाता हुआ बोला, ‘‘अभी बाहर से और्डर कर देता हूं. मम्मी आएंगी तो इस बार तुम रोटी बनाना जरूर सीख लेना.’’

‘‘ठीक है, सीख लूंगी.’’ एक हफ्ते बाद उस के मातापिता आ गए. उन की दिल्ली से फ्लाइट थी. फ्लाइट शाम की थी. वह औफिस से जल्दी नहीं निकल पाया. नीला ही उन्हें एयरपोर्ट लेने चली गई. उस ने औफिस से मम्मीपापा से फोन पर बात कर ली. उस के मातापिता पहली बार उस के पास आए थे, इसलिए वह बहुत संतुष्टि का अनुभव कर रहा था.

शाम को वह घर पहुंचा तो नीला मम्मीपापा के साथ बातें करने में मशगूल थी. मम्मीपापा भी उस की गृहस्थी देख कर बहुत खुश थे. चारों बैठ कर बातें करने लगे. उन्हें पता ही नहीं चला कि कितना समय गुजर गया. डिनर तो आज बाहर ही कर लेंगे, उस ने सोचा, इसलिए बोला, ‘‘मम्मीपापा चलिए ड्राइव पर चलते हैं, घूम भी लेंगे और खाना भी खा कर आ जाएंगे.’’

चारों तैयार हो कर चले गए. सुबह उस का औफिस था. उस की नींद और दिनों से भी जल्दी खुल गई. उस ने एकदो बार नीला को हौले से उठाने की कोशिश की पर वह इतनी गहरी नींद में थी कि हिलडुल कर फिर सो गई. वह उठ कर मम्मीपापा के कमरे की तरफ चला गया. तभी उस ने देखा कि मम्मी किचन में गैस जलाने की कोशिश कर रही हैं. वह किचन में चला गया.

‘‘क्या कर रही हैं मम्मी?’’ ‘‘चाय बना रही थी बेटा, तू पिएगा चाय?’’ ‘‘हां, पी लूंगा.’’ ‘‘और नीला?’’ ‘‘वह तो अभी…’’ ‘‘सो रही होगी, कोई बात नहीं. जब उठेगी तब पी लेगी. हम तीनों की बना देती हूं,’’ मां के चेहरे से उसे बिलकुल भी नहीं लगा कि उन्हें नीला के देर तक सोने पर कोई आश्चर्य हो रहा है. बातें करतेकरते तीनों ने चाय खत्म की. पर दिल ही दिल में वह अनमयस्क सोच रहा था कि ‘काश, नीला भी उठ जाती.’

औफिस का समय हो रहा था. वह तैयार होने चला गया. वह रोज सुबह अपने कपड़े खुद ही प्रैस करता था. खासकर शर्ट तो रोज ही प्रैस करनी पड़ती थी. मम्मी बाथरूम में थीं. प्रैस की टेबल लौबी में लगी थी. उस ने सोचा जब तक मम्मी बाथरूम से आती हैं तब तक वह शर्ट प्रैस कर लेगा. अभी वह प्रैस कर ही रहा था कि मम्मी बाथरूम से निकल आईं.

‘‘अरे, तू प्रैस कर रहा है बेटा, ला मैं कर देती हूं.’’ ‘‘नहींनहीं मम्मी, मैं कर लूंगा,’’ वह कुछकुछ ?ोंपता हुआ सा बोला. ‘‘नहींनहीं, मैं कर देती हूं. तू तैयार हो जा और नाश्ते में क्या खाएगा?’’ ‘‘मैं तो कौर्नफ्लैक्स और दूध लेता हूं.’’ ‘‘आजकल तो कुछ और नाश्ता कर ले. कौर्नफ्लैक्स और दूध तो रोज ही लेते हो तुम दोनों. जो नीला को भी पसंद हो…’’

‘‘नीला को तो उत्तपम बहुत पसंद है. वहां अलमारी में पड़े हैं पैकेट,’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘ठीक है, मैं उत्तपम ही बना देती हूं. मु?ो और तेरे पापा को भी बहुत पसंद है,’’ मम्मी ने हंस कर कहा. उसे लगा मम्मी ने कुछ कहा नहीं पर सोच रही होंगी कि बीवी सो रही है और वह औफिस जाने के लिए चीजों से जू?ा रहा है. पर मम्मी के चेहरे पर उसे ऐसा कोई भाव नजर नहीं आया.

उस ने तृप्ति से नाश्ता किया. तब तक नीला भी उठ गई. अपनी तरफ से तो वह भी रोज से जल्दी उठ गई थी. वह सब को बाय करता हुआ औफिस चला गया. नीला बाथरूम से फ्रैश हो कर आई तो मम्मी ने उसे भी नाश्ता पकड़ा दिया.

वह औफिस में बैठा लंच के बारे में सोच रहा था. पता नहीं घर में क्या बना होगा. उस के मातापिता तो रोज बाहर का भी नहीं खा पाएंगे. उस ने नीला को फोन किया.

‘‘हैलो,’’ नीला की सुरीली व मासूम सी आवाज सुन कर वह सबकुछ  भूल गया. ‘‘लंच में कुछ बनाया भी है या नहीं? नहीं तो बाहर से और्डर कर लो.’’ ‘‘मम्मी ने बढि़या राजमाचावल बनाए हैं और मेरी पसंद की गोभी की सब्जी भी,’’ नीला के स्वर में मां के आने का सा लाड़लापन था. इठलाते हुए बोली, ‘‘आप को भी खाना है तो घर आ जाओ.’’

‘‘नहीं, तुम ही खाओ. मैं शाम को बचा हुआ खा लूंगा,’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘चाय तुम अच्छी बनाती हो. कम से कम शाम की बढि़या चाय पिला देना मम्मीपापा को,’’ जवाब में नीला भी बिना सोचेसम?ो हंस दी.

शाम को वह जल्दी घर पहुंच गया. तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. उस के आते ही मम्मीपापा ने नीला की बनाई चाय की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. वह मन ही मन मुसकरा दिया.’’ ‘‘मम्मी, नीला टमाटर का सूप भी बहुत अच्छा बनाती है. नीला, आज सूप बना कर पिला दो.’’

‘‘हां, आज मैं सूप बना दूंगी, ठीक है मम्मी?’’ ‘‘ठीक है. डिनर में क्या बनाऊं,’’ मम्मी किचन की तरफ जाती हुई बोलीं.

‘‘बाहर घूमने चलेंगे तो खाना खा कर आ जाएंगे,’’ वह बोला.‘‘नहींनहीं, कुछ तैयारी कर देती हूं. फिर घूमने जाएंगे. जब तक हम हैं,  तब तक घर का खा लो,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘हां मम्मा,’’ नीला लाड़ से मम्मी के गले में बांहें डालती हुई बोली, ‘‘आज दमआलू बना दो जैसे आप ने चंडीगढ़ में बनाए थे. सारी तैयारी मैं कर देती हूं. आप मु?ो बता दीजिए. बना आप दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं अपनी गुडि़या की पसंद बनाऊंगी,’’ मम्मी प्यार से नीला की बलैयां लेती हुई बोलीं.

रमन सुखद आश्चर्य से मम्मी को देख रहा था. बदली सिर्फ उस की पीढ़ी ही नहीं है. उस के मातापिता की पीढ़ी ने भी खुद को कितना बदल लिया है.

मम्मी ने आननफानन डिनर की तैयारी की और चारों घूमने चल दिए. बाहर वह देख रहा था. नीला मम्मीपापा से ही चिपकी हुई है. कभी एक का हाथ पकड़ रही है तो कभी दूसरे का. कभीकभी तो उसे लग रहा था कि शायद मांबाप नीला के आए हैं और वह दामाद है.

नीला छोटीछोटी बातों में मम्मीपापा का बहुत ध्यान रख रही थी. घुमाते समय भी एकएक जगह के बारे में उन्हें बता रही थी और उस के मातापिता तो अपनी लाड़ली बहू पर फिदा हुए जा रहे थे.

रोज की यही दिनचर्या बीत रही थी. मम्मी ने किचन का लगभग सारा भार अपने ऊपर ले लिया था. नीला को जो कुछ बनाना आता था, वह भी पूरे मनोयोग से बना कर खिलाने की कोशिश करती. शाम को चारों घूमने निकल जाते. घर आ कर जहां नीला कपड़े बदलने में लग जाती, मम्मी किचन में पहुंच कर डिनर का बचा हुआ कार्य खत्म करतीं और फिर बैठ जातीं. तब तक नीला आती और बढि़या चाय बना कर मम्मीपापा को पिलाती. गजब का सामंजस्य था. कहीं कोई हलचल नहीं. कहीं कुछ गड़बड़ नहीं.

एक दिन उस ने पापा से नाइट क्लब  में जाने की बात कही. उस के मम्मीपापा उच्चशिक्षित थे. सहर्ष तैयार हो गए. वे तैयार होने कमरे में चले गए. वे दोनों भी तैयार होने चले गए. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठ गया. मम्मीपापा भी बाहर आ कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद नीला तैयार हो कर निकली तो रमन सन्न रह गया. नीला ने घुटनों से ऊपर की स्लीवलैस लाल रंग की मिनी पहनी हुई थी.

वह घबरा कर मम्मीपापा के चेहरे देखने लगा. अभी तक की उस की ड्रैसेज को तो वे सहर्ष पचा रहे थे पर… उसे पता होता कि नीला आज क्या पहनने वाली है तो वह उसे मना कर देता. हालांकि नीला जहां जा रही थी वहां के माहौल के अनुरूप ही उस ने ड्रैस पहनी थी.

मम्मीपापा की नजर उस पर पड़ी तो दोनों मुसकरा दिए, ‘‘अरे वाह, नीला, तू तो पहचान में ही नहीं आ रही है. बहुत स्मार्ट लग रही है. किसी फिल्म की हीरोइन लग रही है,’’ पापा बोले.

‘‘हमारी बेटी किसी फिल्म हीरोइन से कम है क्या. जो भी पहनती है उस पर सबकुछ अच्छा लगता है,’’ मम्मी भी हुलस कर बोलीं.

सुन कर वह चारों खाने चित्त हो गया. उस के मम्मीपापा की सोच उस की कल्पना से बहुत आगे व आधुनिक थी. वह अपने दोस्तों के घरों की स्थितियों के बारे में सोचने लगा. जब उन की बीवियों और उन के मातापिताओं का आमनासामना होता है तो इन्हीं छोटीछोटी बातों पर उन की अपने बेटों की आधुनिक मिजाज बीवियों से, जो लाड़ली बेटियां रही हैं, खटपट मची रहती है. उन के मातापिताओं को अपनी बहुओं के देर से उठने से ले कर पहननेओढ़ने के तौरतरीकों, ठीक से खाना खाना न आना, काम करने की आदत न होना आदि तमाम बातों से शिकायतें थीं. और बहुओं को सासससुर की टोकाटाकी वह पहननेओढ़ने के बंधनों से सख्त नफरत थी. जिस में बेचारे बेटे या पति की दुर्दशा हो जाती थी.

बेटा अपनी पत्नी से प्यार करता है. वह उस की अच्छीबुरी आदतों के साथ सम?ाता करना चाहता है पर यह बात मातापिता नहीं सम?ा पाते. उन्हें अपना बेटा बेचारा लगने लगता है. वे नहीं सम?ा पाते कि बहू की बुराई या उसे नापसंद करना बेटे के हृदय को तोड़ देता है, उन के बीच के नाजुक रिश्ते, जो समय के साथ मजबूती पाया है, को कमजोर करता है. खैर, यह उन की समस्या है. उस ने सोचा, वह तो खामखां ही डर रहा था इतने दिनों से. इसलिए अपने मम्मीपापा को खुलेदिल से आने के लिए भी नहीं कह पा रहा था.

वे चारों साथ में खूब मस्ती कर रहे थे. घूमने जाते, हंसतेबोलते. हंसीमजाक से उस का छोटा सा फ्लैट हर समय गुलजार रहता. नीला को भले ही किचन का बहुत अधिक काम नहीं आता था पर उस के प्यार व उस की भावनाओं में मम्मीपापा के प्रति कहीं कमी नहीं थी. बल्कि, उन की उपस्थिति से वह उस से अधिक आनंदित हो रही थी.

धीरेधीरे मम्मीपापा के जाने का दिन करीब आ रहा था. जैसेजैसे उन के जाने का दिन करीब आ रहा था, नीला उदास होती जा रही थी. वह बराबर मम्मीपापा से मीठा ?ागड़ा करने पर तुली हुई थी.

‘‘आप वापस क्यों जा रहे हैं मम्मी, वहां क्या रखा है? आप के बच्चे तो यहां पर हैं. यहीं रहिए न.’’

‘‘फिर आएंगे बेटा. अब तुम आ जाओगे छुट्टी पर. साल में 2 बार तुम आ जाओगे, एक बार हम आ जाएंगे. मिलनाजुलना होता रहेगा,’’ पापा उसे दुलार करते हुए बोले.

‘‘लेकिन आप दोनों यहीं क्यों नहीं रह सकते हमेशा,’’ नीला लगभग रोंआसी सी हो गई.

मम्मी ने उसे सीने से लगा लिया, ‘‘हम यहीं रह गए तो तुम घर किस के पास जाओगे. अगली बार आएंगे तो ज्यादा दिन रहेंगे,’’ फिर उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘बहुत दिन घर भी अकेला नहीं छोड़ा जाता. तू तो हमारी लाखों में एक लाड़ली बेटी है. तेरे साथ तो हमें बहुत अच्छा लगता है.’’ पर नीला की आंखें भर आई थीं. नीला की भरी आंखें देख कर उस का हृदय भी भावुक हो रहा था. ‘‘पापा, थोड़े दिन और रुक जाइए न. मैं फ्लाइट का टिकट आगे बढ़ा देता हूं,’’ रमन बोला.

‘‘नहीं बेटा. इस बार रहने दो, अगली बार आएंगे तो घर का प्रबंध ठीक से कर के आएंगे तब ज्यादा दिन रह लेंगे.’’

मम्मीपापा के जाने का दिन आ गया. उन की शाम की फ्लाइट थी. उस दिन रविवार था. मम्मीपापा के न… न… करतेकरते भी नीला ने उन के लिए ढेर सारे गिफ्ट खरीदवाए थे. सुबह वह काफी जल्दी उठ कर मम्मीपापा के कमरे में चला गया. पापा मौर्निंग वाक पर गए हुए थे. वह मम्मी के पास जा कर बैठ गया.

‘‘मैं तेरे लिए चाय बना कर ले आती हूं,’’ मम्मी उठने का उपक्रम करती  हुई बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी, रहने दो. मु?ो रोज चाय पीने की आदत नहीं है. बैठो आप. कल से आप कहां होंगी. इतने दिन तो पता ही नहीं चला. कब एक महीना बीत गया, बहुत अच्छा लगा आप के और पापा के आने से.’’

‘‘हमें भी तो बहुत अच्छा लगा बेटा तुम्हारे पास आने से. कितना ध्यान रखा तुम दोनों ने, कितना घुमाया, कितना खर्च किया हमारे ऊपर, इतनी सारी चीजें भी खरीद लीं.’’

‘‘कुछ नहीं किया मम्मी, फिर मातापिता को खुश करने से आशीर्वाद तो हमें ही मिलेगा.’’

‘‘कितनी प्यारी और मीठी बातें करते हो तुम दोनों,’’ मम्मी खुशी से छलक आई अपनी आंखों को पोंछती हुई बोलीं, ‘‘दिल को छू जाती हैं तुम्हारी बातें, तुम्हारी भावनाएं. खुशनसीब हैं हम कि हमारे ऐसे प्यारे बच्चे हैं. एक महीना बहुत खुशी से बीता.’’

‘‘पर आप पर काम का भार पड़ गया,’’ रमन संकोच से बोला, ‘‘दरअसल, नीला को अभी गृहस्थी का ज्यादा काम नहीं आता. धीरेधीरे सीख रही है. नौकरी करेगी तो जल्दी उठने की आदत भी पड़ जाएगी.’’

‘‘काम कोई माने नहीं रखता बेटा. नीला कोशिश करती है, आलसी नहीं है. उस से जो भी हो पाता है वह पूरा प्रयत्न करती है. कुछ कर न पाना और कुछ करना ही न चाहना, दोनों बातों में फर्क है. मुख्य तो स्वभाव होता है, भावनाओं और विचारों से यदि इंसान अच्छा है तो ये बातें कोई अहमियत नहीं रखतीं. आदतें बदल जाती हैं. काम करना आ जाता है. आजकल एकदो बच्चे होते हैं. बेटियां बहुत लाड़प्यार और संपन्नता में बड़ी होती हैं. उन के जीवन का ध्येय किचन या गृहस्थी का काम सीखना नहीं, बल्कि पढ़ाईलिखाई कर के कैरियर बनाना होता है. इसलिए विवाह होते ही उन से ऐसी उम्मीद करना गलत है.

‘‘नीला बहुत प्यारी लड़की है, उस के हृदय का पूरा प्यार और भावना हम तक पूरी की पूरी पहुंच जाती है. हम तो ऐसी बहू पा कर बहुत खुश हैं,’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

‘‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

नेकी वाला पेड़: क्या हुआ जब यादों से बना पेड़ गिरा?

टन…टन… टन… बड़ी बेसब्री से दरवाजे की घंटी बज रही थी. गरमी की दोपहर और लौकडाउन के दिनों में थोड़ा असामान्य लग रहा था. जैसे कोई मुसीबत के समय या फिर आप को सावधान करने के लिए बजाता हो, ठीक वैसी ही घंटी बज रही थी. हम सभी चौंक उठे और दरवाजे की ओर लपके.

मैं लगभग दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी. एक आदमी मास्क पहने दिखाई दिया. मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

वह जल्दी से हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैडम, आप का पेड़ गिर गया.’’

‘‘क्या…’’ हम सभी जल्दी से आंगन वाले गेट की ओर बढ़े. वहां का दृश्य देखते ही हम सभी हैरान रह गए.

‘‘अरे, यह कब…? कैसे हुआ…?’’

पेड़ बिलकुल सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था. कुछ सूखी हुई कमजोर डालियां इधरउधर टूट कर बिखरी हुई थीं. पेड़ के नीचे मैं ने छोटे गमले क्यारी के किनारेकिनारे लगा रखे थे, वे उस के तने के नीचे दबे पड़े थे. पेड़ पर बंधी टीवी केबल की तारें भी पेड़ के साथ ही टूट कर लटक गई थीं. घर के सामने रहने वाले पड़ोसियों की कारें बिलकुल सुरक्षित थीं. पेड़ ने उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाई थी.

गरमी की दोपहर में उस समय कोई सड़क पर भी नहीं था. मैं ने मन ही मन उस सूखे हुए नेक पेड़ को निहारा. उसे देख कर मुझे 30 वर्ष पुरानी सारी यादें ताजा हो आईं.

हम कुछ समय पहले ही इस घर में रहने को आए थे. हमारी एक पड़ोसिन ने लगभग 30 वर्ष पहले एक छोटा सा पौधा लगाते हुए मुझ से कहा था, ‘‘सारी गली में ऐसे ही पेड़ हैं. सोचा, एक आप के यहां भी लगा देती हूं. अच्छे लगेंगे सभी एकजैसे पेड़.’’

पेड़ धीरेधीरे बड़ा होने लगा. कमाल का पेड़ था. हमेशा हराभरा रहता. छोटे सफेद फूल खिलते, जिन की तेज गंध कुछ अजीब सी लगती थी. गरमी के दिनों में लंबीपतली फलियों से छोटे हलके उड़ने वाले बीज सब को बहुत परेशान करते. सब के घरों में बिन बुलाए घुस जाते और उड़ते रहते. पर यह पेड़ सदा हराभरा रहता तो ये सब थोड़े दिन चलने वाली परेशानियां कुछ खास माने नहीं रखती थीं.

मैं ने पता किया कि आखिर इस पौधे का नाम क्या है? पूछने पर वनस्पतिशास्त्र के एक प्राध्यापक ने बताया कि इस का नाम ‘सप्तपर्णी’ है. एक ही गुच्छे में एकसाथ 7 पत्तियां होने के कारण इस का यह नाम पड़ा.

मुझे उस पेड़ का नाम ‘सप्तपर्णी’ बेहद प्यारा लगा. साथ ही, तेज गंध वाले फूलों की वजह से आम भाषा में इसे लोग ‘लहसुनिया’ भी कहते हैं. सचमुच पेड़ों और फूलों के नाम उन की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं. उन के नाम लेते ही हमें वे दिखाई पड़ने लगते हैं, साथ ही हम उन की खुशबू को भी महसूस करने लगते हैं. मन को कितनी प्रसन्नता दे जाते हैं.

यह धराशायी हुआ ‘सप्तपर्णी’ भी कुछ ऐसा ही था. तेज गरमी में जब भी डाक या कुरियर वाला आता तो उन्हें अकसर मैं इस पेड़ के नीचे खड़ा पाती. फल या सब्जी बेचने वाले भी इसी पेड़ की छाया में खड़े दिखते. कोई अपनी कार धूप से बचाने के लिए पेड़ के ठीक नीचे खड़ी कर देता, तो कभी कोई मेहनतकश कुछ देर इस पेड़ के नीचे खड़े हो कर सुस्ता लेता. कुछ सुंदर पंछियों ने अपने घोंसले बना कर पेड की रौनक और बढ़ा दी थी. वे पेड़ से बातें करते नजर आते थे. टीवी केबल वाले इस की डालियों में अपने तार बांध कर चले जाते. कभीकभी बच्चों की पतंगें इस में अटक जातीं तो लगता जैसे ये भी बच्चों के साथ पतंगबाजी का मजा ले रहा हो.

दीवाली के दिनों में मैं इस के तने के नीचे भी दीपक जलाती. मुझे बड़ा सुकून मिलता. बच्चों ने इस के नीचे खड़े हो कर जो तसवीरें खिंचवाई थीं, वे कितनी सुंदर हैं. जब भी मैं कहीं से घर लौटती तो रिकशे वाले से बोलती, ‘‘भैया,

वहां उस पेड़ के पास वाले घर पर रोक देना.’’

लगता, जैसे ये पेड़ मेरा पता बन गया था. बरसात में जब बूंदें इस के पत्तों पर गिरतीं तो वे आवाज मुझे बेहद प्यारी लगती. ओले गिरे या सर्दी का पाला, यह क्यारी के किनारे रखे छोटे पौधों की ढाल बन कर सब झेलता रहता.

30 वर्ष की कितनी यादें इस पेड़ से जुड़ी थीं. कितनी सारी घटनाओं का साक्षी यह पेड़ हमारे साथ था भी तो इतने वर्षों से… दिनरात, हर मौसम में तटस्थता से खड़ा.

पता नहीं, कितने लोगों को सुकून भरी छाया देने वाले इस पेड़ को पिछले 2 वर्ष से क्या हुआ कि यह दिन ब दिन सूखता चला गया. पहले कुछ दिनों में जब इस की टहनियां सूखने लगीं, तो मैं ने कुछ मोटी, मजबूत डालियों को देखा. उस पर अभी भी पत्ते हरे थे.

मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई कि अभी सब ठीक है, परंतु कुछ ही समय में वे पत्ते भी मुरझाने लगे. मुझे अब चिंता होने लगी. सोचा, बारिश आने पर पेड़ फिर ठीक हो जाएगा, पर सावनभादों सब बीत गए, वह सूखा ही बना रहा. अंदर ही अंदर से वह कमजोर होने लगा. कभी आंधी आती तो उसे और झकझोर जाती. मैं भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे बंद करती, पर बाहर खड़े उस सूखे पेड़ की चिंता मुझे लगी रहती.

पेड़ अब पूरा सूख गया था. संबंधित विभाग को भी इस की जानकारी दे दी गई थी.

जब इस के पुन: हरे होने की उम्मीद बिलकुल टूट गई, तो मैं ने एक फूलों की बेल इस के साथ लगा दी. बेल दिन ब दिन बढ़ती गई. माली ने बेल को पेड़ के तने और टहनियों पर लपेट दिया. अब बेल पर सुर्ख लाल फूल खिलने लगे.

यह देख मुझे अच्छा लगा कि इस उपाय से पेड़ पर कुछ बहार तो नजर आ रही है… पंछी भी वापस आने लगे थे, पर घोंसले नहीं बना रहे थे. कुछ देर ठहरते, पेड़ से बातें करते और वापस उड़ जाते. अब बेल भी घनी होने लगी थी. उस की छाया पेड़ जितनी घनी तो नहीं थी, पर कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. पेड़ सूख जरूर गया, पर अभी भी कितने नेक काम कर रहा था.

टीवी केबल के तार अभी भी उस के सूखे तने से बंधे थे. सुर्ख फूलों की बेल को उस के सूखे तने ने सहारा दे रखा था. बेल को सहारा मिला तो उस की छाया में क्यारी के छोटे पौधे सहारा पा कर सुरक्षित थे. पेड़ सूख कर भी कितनी भलाई के काम कर रहा था. इसीलिए मैं इसे नेकी वाला पेड़ कहती. मैं ने इस पेड़ को पलपल बढ़ते हुए देखा था. इस से लगाव होना बहुत स्वाभाविक था.

परंतु आज इसे यों धरती पर चित्त पड़े देख कर मेरा मन बहुत उदास हो गया. लगा, जैसे आज सारी नेकी धराशायी हो कर जमीन पर पड़ी हो. पेड़ के साथ सुर्ख लाल फूलों वाली बेल भी दबी हुई पड़ी थी. उस के नीचे छोटे पौधे वाले गमले तो दिखाई ही नहीं दे रहे थे. मुझे और भी ज्यादा दुख हो रहा था.

घंटी बजाने वाले ने बताया कि अचानक ही यह पेड़ गिर पड़ा. कुछ देर बाद केबल वाले आ गए. वे तारें ठीक करने लगे. पेड़ की सूखी टहनियों को काटकाट कर तार निकाल रहे थे.

यह मुझ से देखा नहीं जा रहा था. मैं घर के अंदर आ गई, परंतु मन बैचेन हो रहा था. सोच रही थी, जगलों में भी तो कितने सूखे पेड़ ऐसे गिरे रहते हैं. मन तो तब भी दुखता है, परंतु जो लगातार आप के साथ हो वह आप के जीवन का हिस्सा बन जाता है.

याद आ रहा था, जब गली की जमीनको पक्की सड़क में तबदील किया जा रहा था, तो मैं खड़ी हुई पेड़ के आसपास की जगह को वैसा ही बनाए रखने के लिए बोल रही थी.

लगा, इसे भी सांस लेने के लिए कुछ जगह तो चाहिए. क्यों हम पेड़ों को सीमेंट के पिंजड़ों में कैद करना चाहते हैं? हमें जीवनदान देने वाले पेड़ों को क्या हम इतनी जमीन भी नहीं दे सकते? बड़ेबुजुर्गों ने भी पेड़ लगाने के महत्त्व को समझाया है.

बचपन में मैं अकसर अपनी दादी से कहती कि यह आम का पेड़, जो आप ने लगाया है, इस के आम आप को तो खाने को मिलेंगे नहीं.

यह सुन कर दादी हंस कर कहतीं कि यह तो मैं तुम सब बच्चों के लिए लगा रही हूं. उस समय मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी, पर अब स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमारे पूर्वजों की परमार्थ भावना समझ आती हैं. क्यों न हम भी कुछ ऐसी ही भावनाएं अगली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे जाएं.

मैं ने पेड़ के आसपास काफी बड़ी क्यारी बनवा दी थी. दीवाली के दिनों में उस पर भी नया लाल रंग किया जाता तो पेड़ और भी खिल जाता.

पर आज मन व्यथित हो रहा था. पुन: बाहर गई. कुछ देर में ही संबंधित विभाग के कर्मचारी भी आ गए. वे सब काम में जुट गए. सभी छोटीबड़ी सूखी हुई सारी टहनियां एक ओर पड़ी हुई थीं. मैं ने पास से देखा, पेड़ का पूरा तना उखड़ चुका था. वे उस के तने को एक मोटी रस्सी से खींच कर ले जा रहे थे.

आश्चर्य तो तब हुआ, जब क्यारी के किनारे रखे सारे छोटे गमले सुरक्षित थे. एक भी गमला नहीं टूटा था. जातेजाते भी नेकी करना नहीं भूला था ‘सप्तपर्णी’. लगा, सच में नेकी कभी धराशायी हो कर जमीन पर नहीं गिर सकती.

मैं उदास खड़ी उन्हें उस यादों के दरफ्त को ले जाते हुए देख रही थी. मेरी आंखों में आंसू थे.

पेड़ का पूरा तना और डालियां वे ले जा चुके थे, पर उस की गहरी जड़ें अभी भी वहीं, उसी जगह हैं. मुझे पूरा यकीन है कि किसी सावन में उस की जड़ें फिर से फूटेंगी, फिर वापस आएगा ‘सप्तपर्णी.’

लेखिका- मंजुला अमिय गंगराड़े

अच्छे शेर की तलाश : नेताओं के पालने के शौक

मैं कुछ सम झ नहीं पाया. मु झे लगा कि वे वन्य पशु संरक्षण बिल के खिलाफ जा कर अपने बंगले में शेर बांधना चाहते हैं. मैं ने उन्हें याद दिलाना चाहा  झ्कि वन्य प्राणी संरक्षा बिल के चलते वे शेर नहीं पाल सकते. लेकिन नेताओं का क्या, कुछ भी कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के एक नेता ने तो अपने बंगले में मगरमच्छ पाल रखे थे. नेता हैं तो अपने आलीशान बंगले में शेर, हाथी, गैंडा, हिरन, कछुआ कुछ भी रख सकते हैं. मु झे उन की शेर मंगवाने की वजह सम झ में नहीं आ रही थी. नेता तो कुछ भी पाल सकते हैं. गुंडे तो पालते ही हैं.

‘‘वह कवि सम्मेलनों या ऐसे ही किसी साहित्यिकफाहित्यिक कार्यक्रम में गा कर पढ़ते हैं न, उस वाले शेर की बात कर रहा हूं. लगता है कि तुम कवि सम्मेलनों में नहीं जाते?’’ उन्होंने मेरी जानकारी पर तरस खाते हुए कहा.

मु झे उन की इस 180 डिगरी की छलांग पर हैरानी हुई. बातबात में संस्कृत के श्लोक पढ़ने वाला आज उर्दू के शेर की बात कर रहा है. दल बदल तो नहीं कर लिया? वैसे भी अच्छे दिनों का सपना देखतेदेखते दोपहर हो गई है.

‘‘कहीं से भी लाओ, जल्दी लाओ. लाते रहो. काम आते जाएंगे. मु झे भाषण देना है. अब मैं घिसेपिटे भाषण देने

के बजाय शेर के जरीए अपनी बात कहूंगा,’’ उन्होंने कहा.

मैं शेर का मतलब सम झ तो गया था, लेकिन भाषण और शेर का नाता नहीं जोड़ पाया. मैं ने कलैंडर देखा. बजट या उस का संशोधन भी नहीं आया, जो वित्त मंत्री जातेजाते परंपरा के मुताबिक कोई शेर पढ़ें और ये भी उस का शेर में ही जवाब दें.

अपना तो शेरोशायरी से नाता कभी का टूट चुका था. कालेज के दिनों में तो जरूर मौकेबेमौके शेर ठूंस दिया करता था. साथ में पढ़ने वाली किसी लड़की की भी शादी हो गई तो उदासी का शेर गुनगुना लेता था. किसी लड़की ने खुद बात कर ली तो दिनभर रोमांटिक शेर जबान पर खेलता रहता था.

शादी के बाद जिंदगी से रोमांटिसिज्म विदा हो जाता है और उस की जगह रियलिज्म ले लेता है. अब तो ‘मेक इन इंडिया’ का नशा उतरने के बाद शेर की याद भी डराती है. बस याद आता है तो ‘अप्लाई अप्लाई बट नो रिप्लाई’.

अखबारों में बढ़ती रोजगारी और जमीन चूमने को बेचैन जीडीपी खबरों के चलते कोई शेर कैसे कह सकता है. सुनने की ही ताकत नहीं रही. फिर भी मैं ने उन्हें यकीन दिलाया कि जल्द ही शेर ढूंढ़ लाऊंगा.

‘‘कैसा शेर चाहिए आप को? खुशी का चाहिए या गम का? स्पिरिचुअल या रिवौलूशनल?’’ मैं ने जानना चाहा.

सच ही तो है. उन्हें गुस्से का शेर चाहिए हो और मैं मजाक का शेर पकड़ा दूं. खुशी का शेर चाहिए और मैं गम का ले आऊं तो बेइज्जती मेरी पढ़ाईलिखाई की होगी. उन का क्या, उन की शैक्षणिक योग्यता का पता तो उन्हें खुद को नहीं है.

‘‘सिचुएशनल… मु झे सिचुएशनल शेर चाहिए. आज की मांग सिचुएशनल शेर की है. कल तक जो अपने थे, वे आज बेगाने हो गए,’’ उन्होंने हताशा से शायराना अंदाज में कहा.

उन की बात में दम तो था. आजकल सामने वाले की खिल्ली उड़ाने के लिए शेरोशायरी का इस्तेमाल होने लगा है.

उन की फरमाइश पूरी करने के लिए मैं ने दोस्तों के घर जा कर शायरी की किताबें इकट्ठा कीं. सभी को हैरानी हो रही थी कि जो आदमी खर्चे कैसे कम करें, कम आमदनी में घर कैसे चलाएं, अखबार की रद्दी का सब से अच्छा भाव पाएं जैसे विषयों पर किताबें ढूंढ़ता रहता था, वह आज शेरोशायरी की किताबें मांग रहा है. उसे अब शायरी में फिर से कैसे दिलचस्पी हो आई. कहीं कोई ऐसावैसा चक्करवक्कर तो नहीं है.

लेकिन मैं ने सही बात नहीं बताई. मेरा ज्यादातर समय नौकरी ढूंढ़ने के साथसाथ शायरी की किताबें पढ़ने में जाने लगा. गालिब, मोमिन, अकबर इलाहाबादी से लगा कर साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, जां निसार, जावेद अख्तर, सरदार जाफरी, राहत इंदौरी, मुनव्वर राना तक को खंगाल डाला. कुछ शेर इस के लिए चुरा लिए तो कुछ उस के और 2 अलगअलग शेरों को जोड़ कर नया शेर बनाने की तिकड़म भी भिड़ाई.

सच कहूं तो खुद भी कुछ शेर लिख मारे. काफिया नहीं मिला तो क्या, भाषण देने वालों का शायरी से कोई मतलब नहीं होता. कभी सुना या देखा है नेता लोगों से मुशायरों में जाते हुए.

सब महाराष्ट्र के चलते हो रहा है, 2 हफ्ते बाद नेताजी ने मेरे चुने हुए सारे शेर खारिज कर दिए.

‘‘बयानों में शायरी का चलन वहीं से शुरू हुआ है. न वहां के नेता अपने अखबार में शेर पर शेर लिख कर सामने वाली पार्टी को ललकारते और न ही सामने वाले उस का जवाब शेर में देते. वह क्या, किसी ने कहा है कि मैं लहर हूं, लौट कर आऊंगा या ऐसा ही कुछ. अब तो इधर से एक शेर गया नहीं कि उधर से एक शेर दौड़ा चला आता है.

‘‘लगता है कि जिंदाबादमुरदाबाद के नारे घिस गए हैं जो शेर पर शेर चले आ रहे हैं. मेरे पास कोई शेर नहीं होता मौके पर. ऐसे में मैं खुद को पिछड़ा सम झने लगता हूं. तुम्हारी किताबों का एक भी शेर आज के हालात पर हो तो लगी शर्त.’’

वे बोले, ‘‘पढ़ाई के नाम पर फिल्में देखने या लड़कियों के साथ होटल में गुजारने के बजाय 2-4 शेर ही रट लेते, तो आज यह शर्मनाक नौबत नहीं आती. लगता है कि खुद ही शेर लिखना होगा.’’

मैं ने तो अपना काम कर दिया. रोज अखबार तो खरीदता ही था कि नौकरी का कोई इश्तिहार दिख जाए, लेकिन इस बार उन का कोई दहाड़ता शेर पढ़ने को मिल जाए, इस पर भी नजर दौड़ाने लगा हूं.

बहुत दिन हो गए, लेकिन उन का शेर मांद में ही रहा. उन्हें भी बिना शेर के चैन नहीं था. एक दिन मेरे घर आए और डांटने लगे कि मैं ने कोई नया शेर नहीं सु झाया. बड़ी देर तक वे हमारी दोस्ती का वास्ता देते रहे. मुसीबत के समय दोस्त ही काम आता है जैसी किताबी बातें करते रहे.

मैं सम झ गया कि अब मामला आईसीयू में ले जाने जितना गंभीर हो गया है. मैं उन्हें हाईवे के टोल नाके पर ले गया.

मैं ने उन से अदब से कहा, ‘‘कुछ पल गुजारिए टोल नाके पर, शेरों की बरात निकलेगी. इस रास्ते से दिनरात कई ट्रक गुजरते हैं. उन के पीछे देखते रहिए. नएनए शेर मिल जाएंगे.’’

हयात : जज्बातों का समंदर

‘‘कल जल्दी आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ हयात ने पूछा.

‘‘कल से रेहान सर आने वाले हैं और हमारे मिर्जा सर रिटायर हो रहे हैं.’’

‘‘कोशिश करूंगी,’’ हयात ने जवाब तो दिया लेकिन उसे खुद पता नहीं था कि वह वक्त पर आ पाएगी या नहीं.

दूसरे दिन रेहान सर ठीक 10 बजे औफिस में पहुंचे. हयात अपनी सीट पर नहीं थी. रेहान सर के आते ही सब लोगों ने खड़े हो कर गुडमौर्निंग कहा. रेहान सर की नजरों से एक खाली चेयर छूटी नहीं.

‘‘यहां कौन बैठता है?’’

‘‘मिस हयात, आप की असिस्टैंट, सर,’’ क्षितिज ने जवाब दिया.

‘‘ओके, वह जैसे ही आए उन्हें अंदर भेजो.’’

रेहान लैपटौप खोल कर बैठा था. कंपनी के रिकौर्ड्स चैक कर रहा था. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘में आय कम इन, सर?’’

‘‘यस प्लीज, आप की तारीफ?’’

‘‘जी, मैं हयात हूं. आप की असिस्टैंट?’’

‘‘मुझे उम्मीद है कल सुबह मैं जब आऊंगा तो आप की चेयर खाली नहीं होगी. आप जा सकती हैं.’’

हयात नजरें झुका कर केबिन से बाहर निकल आई. रेहान सर के सामने ज्यादा बात करना ठीक नहीं होगा, यह बात हयात को समझे में आ गई थी. थोड़ी ही देर में रेहान ने औफिस के स्टाफ की एक मीटिंग ली.

‘‘गुडआफ्टरनून टू औल औफ यू. मुझे आप सब से बस इतना कहना है कि कल से कंपनी के सभी कर्मचारी वक्त पर आएंगे और वक्त पर जाएंगे. औफिस में अपनी पर्सनल लाइफ को छोड़ कर कंपनी के काम को प्रायोरिटी देंगे. उम्मीद है कि आप में से कोई मुझे शिकायत का मौका नहीं देगा. बस, इतना ही, अब आप लोग जा सकते हैं.’’

‘कितना खड़ूस है. एकदो लाइंस ज्यादा बोलता तो क्या आसमान नीचे आ जाता या धरती फट जाती,’ हयात मन ही मन रेहान को कोस रही थी.

नए बौस का मूड देख कर हर कोई कंपनी में अपने काम के प्रति सजग हो गया. दूसरे दिन फिर से रेहान औफिस में ठीक 10 बजे दाखिल हुआ और आज फिर हयात की चेयर खाली थी. रेहान ने फिर से क्षितिज से मिस हयात को आते ही केबिन में भेजने को कहा. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘मे आय कम इन, सर?’’

‘‘जी, जरूर, मुझे आप का ही इंतजार था. अभी हमें एक होटल में मीटिंग में जाना है. क्या आप तैयार हैं?’’

‘‘जी हां, कब निकलना है?’’

‘‘उस मीटिंग में आप को क्या करना है, यह पता है आप को?’’

‘‘जी, आप मुझे कल बता देते तो मैं तैयारी कर के आती.’’

‘‘मैं आप को अभी बताने वाला था. लेकिन शायद वक्त पर आना आप की आदत नहीं. आप की सैलरी कितनी है?’’

‘‘जी, 30 हजार.’’

‘‘अगर आप के पास कंपनी के लिए टाइम नहीं है तो आप घर जा सकती हैं और आप के लिए यह आखिरी चेतावनी है. ये फाइल्स उठाएं और अब हम निकल रहे हैं.’’

हयात रेहान के साथ होटल में पहुंच गई. आज एक हैदराबादी कंपनी के साथ मीटिंग थी. रेहान और हयात दोनों ही टाइम पर पहुंच गए. लेकिन सामने वाली पार्टी ने बुके और वो आज आएंगे नहीं, यह मैसेज अपने कर्मचारी के साथ भेज दिया. उस कर्मचारी के जाते ही रेहान ने वो फूल उठा कर होटल के गार्डन में गुस्से में फेंक दिए. ‘‘आज का तो दिन ही खराब है,’’ यह बात कहतेकहते वह अपनी गाड़ी में जा कर बैठ गया.

रेहान का गुस्सा देख कर हयात थोड़ी परेशान हो गई और सहमीसहमी सी गाड़ी में बैठ गई. औफिस में पहुंचते ही रेहान ने हैदराबादी कंपनी के साथ पहले किए हुए कौंट्रैक्ट के डिटेल्स मांगे. इस कंपनी के साथ 3 साल पहले एक कौंट्रैक्ट हुआ था लेकिन तब हयात यहां काम नहीं करती थी, इसलिए उसे वह फाइल मिल नहीं रही थी.

‘‘मिस हयात, क्या आप शाम को फाइल देंगी मुझे’’ रेहान केबिन से बाहर आ कर हयात पर चिल्ला रहा था.

‘‘जी…सर, वह फाइल मिल नहीं रही.’’

‘‘जब तक मुझे फाइल नहीं मिलेगी, आप घर नहीं जाएंगी.’’

यह बात सुन कर तो हयात का चेहरा ही उतर गया. वैसे भी औफिस में सब के सामने डांटने से हयात को बहुत ही इनसल्टिंग फील हो रहा था. शाम के 6 बज चुके थे. फाइल मिली नहीं थी.

‘‘सर, फाइल मिल नहीं रही है.’’

रेहान कुछ बोल नहीं रहा था. वह अपने कंप्यूटर पर काम कर रहा था. रेहान की खामोशी हयात को बेचैन कर रही थी. रेहान का रवैया देख कर वह केबिन से निकल आईर् और अपना पर्स उठा कर घर निकल गई. दूसरे दिन हयात रेहान से पहले औफिस में हाजिर थी. हयात को देखते ही रेहान ने कहा, ‘‘मिस हयात, आज आप गोडाउन में जाएं. हमें आज माल भेजना है. आई होप, आप यह काम तो ठीक से कर ही लेंगी.’’

हयात बिना कुछ बोले ही नजर झुका कर चली गई. 3 बजे तक कंटेनर आए ही नहीं. 3 बजने के बाद कंटेनर में कंपनी का माल भरना शुरू हुआ. रात के 8 बजे तक काम चलता रहा. हयात की बस छूट गई. रेहान और उस के पापा कंपनी से बाहर निकल ही रहे थे कि कंटेनर को देख कर वे गोडाउन की तरफ मुड़ गए. हयात एक टेबल पर बैठी थी और रजिस्टर में कुछ लिख रही थी.

तभी मिर्जा साहब के साथ रेहान गोडाउन में आया. हयात को वहां देख कर रेहान को, कुछ गलत हो गया, इस बात का एहसास हुआ.

‘‘हयात, तुम अभी तक घर नहीं गईं,’’ मिर्जा सर ने पूछा.

‘‘नहीं सर, बस अब जा ही रही थी.’’

‘‘चलो, जाने दो, कोई बात नहीं. आओ, हम तुम्हें छोड़ देते हैं.’’

अपने पापा का हयात के प्रति इतना प्यारभरा रवैया देख कर रेहान हैरान हो रहा था, लेकिन वह कुछ बोल भी नहीं रहा था. रेहान का मुंह देख कर हयात ने ‘नहीं सर, मैं चली जाऊंगी’ कह कर उन्हें टाल दिया. हयात बसस्टौप पर खड़ी थी. मिर्जा सर ने फिर से हयात को गाड़ी में बैठने की गुजारिश की. इस बार हयात न नहीं कह सकी.

‘‘हम तुम्हें कहां छोड़ें?’’

‘‘जी, मुझे सिटी हौस्पिटल जाना है.’’

‘‘सिटी हौस्पिटल क्यों? सबकुछ ठीक तो है?’’

‘‘मेरे पापा को कैंसर है, उन्हें वहां ऐडमिट किया है.’’

‘‘फिर तो तुम्हारे पापा से हम भी एक मुलाकात करना चाहेंगे.’’

कुछ ही देर में हयात अपने मिर्जा सर और रेहान के साथ अपने पापा के कमरे में आई.

‘‘आओआओ, मेरी नन्ही सी जान. कितना काम करती हो और आज इतनी देर क्यों कर दी आने में. तुम्हारे उस नए बौस ने आज फिर से तुम्हें परेशान किया क्या?’’

हयात के पापा की यह बात सुन कर तो हयात और रेहान दोनों के ही चेहरे के रंग उड़ गए.

‘‘बस अब्बू, कितना बोलते हैं आप. आज आप से मिलने मेरे कंपनी के बौस आए हैं. ये हैं मिर्जा सर और ये इन के बेटे रेहान सर.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई सुलतान मियां. अब कैसी तबीयत है आप की?’’ मिर्जा सर ने कहा.

‘‘हयात की वजह से मेरी सांस चल रही है. बस, अब जल्दी से किसी अच्छे खानदान में इस का रिश्ता हो जाए तो मैं गहरी नींद सो सकूं.’’

‘‘सुलतान मियां, परेशान न हों. हयात को अपनी बहू बनाना किसी भी खानदान के लिए गर्व की ही बात होगी. अच्छा, अब हम चलते हैं.’’

इस रात के बाद रेहान का हयात के प्रति रवैया थोड़ा सा दोस्ताना हो गया. हयात भी अब रेहान के बारे में सोचती रहती थी. रेहान को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए सजनेसंवरने लगी थी.

‘‘क्या बात है? आज बहुत खूबसूरत लग रही हो,’’ रेहान का छोटा भाई आमिर हयात के सामने आ कर बैठ गया. हयात ने एकबार उस की तरफ देखा और फिर से अपनी फाइल को पढ़ने लगी. आमिर उस की टेबल के सामने वाली चेयर पर बैठ कर उसे घूर रहा था. आखिरकार हयात ने परेशान हो कर फाइल बंद कर आमिर के उठने का इंतजार करने लगी. तभी रेहान आ गया. हयात को आमिर के सामने इस तरह से देख कर रेहान परेशान तो हुआ लेकिन उस ने देख कर भी अनदेखा कर दिया.

दूसरे दिन रेहान ने अपने केबिन में एक मीटिंग रखी थी. उस मीटिंग में आमिर को रेहान के साथ बैठना था. लेकिन वह जानबूझ कर हयात के बाजू में आ कर बैठ गया. हयात को परेशान करने का कोई मौका वह छोड़ नहीं रहा था. लेकिन हयात हर बार उसे देख कर अनदेखा कर देती थी. एक दिन तो हद ही हो गई. आमिर औफिस में ही हयात के रास्ते में खड़ा हो गया.

‘‘रेहान तुम्हें महीने के 30 हजार रुपए देता है. मैं एक रात के दूंगा. अब तो मान जाओ.’’

यह बात सुनते ही हयात ने आमिर के गाल पर एक जोरदार चांटा जड़ दिया. औफिस में सब के सामने हयात इस तरह रिऐक्ट करेगी, इस बात का आमिर को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था. हयात ने तमाचा तो लगा दिया लेकिन अब उस की नौकरी चली जाएगी, यह उसे पता था. सबकुछ रेहान के सामने ही हुआ.

बस, आमिर ने ऐसा क्या कर दिया कि हयात ने उसे चाटा मार दिया, यह बात कोई समझ नहीं पाया. हयात और आमिर दोनों ही औफिस से निकल गए.

दूसरे दिन सुबह आमिर ने आते ही रेहान के केबिन में अपना रुख किया.

‘‘भाईजान, मैं इस लड़की को एक दिन भी यहां बरदाश्त नहीं करूंगा. आप अभी और इसी वक्त उसे यहां से निकाल दें.’’

‘‘मुझे क्या करना है, मुझे पता है. अगर गलती तुम्हारी हुई तो मैं तुम्हें भी इस कंपनी से बाहर कर दूंगा. यह बात याद रहे.’’

‘‘उस लड़की के लिए आप मुझे निकालेंगे?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘यह तो हद ही हो गई. ठीक है, फिर मैं ही चला जाता हूं.’’

रेहान कब उसे अंदर बुलाए हयात इस का इंतजार कर रही थी. आखिरकार, रेहान ने उसे बुला ही लिया. रेहान अपने कंप्यूटर पर कुछ देख रहा था. हयात को उस के सामने खड़े हुए 2 मिनट हुए. आखिरकार हयात ने ही बात करना शुरू कर दिया.

‘‘मैं जानती हूं आप ने मुझे यहां बाहर करने के लिए बुलाया है. वैसे भी आप तो मेरे काम से कभी खुश थे ही नहीं. आप का काम तो आसान हो गया. लेकिन मेरी कोई गलती नहीं है. फिर भी आप मुझे निकाल रहे हैं, यह बात याद रहे.’’

रेहान अचानक से खड़ा हो कर उस के करीब आ गया, ‘‘और कुछ?’’

‘‘जी नहीं.’’

‘‘वैसे, आमिर ने किया क्या था?’’

‘‘कह रहे थे एक रात के 30 हजार रुपए देंगे.’’

आमिर की यह सोच जान कर रेहान खुद सदमे में आ गया.

‘‘तो मैं जाऊं?’’

‘‘जी नहीं, आप ने जो किया, बिलकुल ठीक किया. जब भी कोई लड़का अपनी मर्यादा भूल जाए, लड़की की न को सम?ा न पाए, फिर चाहे वह बौस हो, पिता हो, बौयफ्रैंड हो उस के साथ ऐसा ही होना चाहिए. लड़कियों को छेड़खानी के खिलाफ जरूर आवाज उठानी चाहिए. मिस हयात, आप को नौकरी से नहीं निकाला जा रहा है.’’

‘‘शुक्रिया.’’

अब हयात की जान में जान आ गई. रेहान उस के करीब आ रहा था और हयात पीछेपीछे जा रही थी. हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी.

रेहान ने हयात का हाथ अपने हाथ में ले लिया और आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘‘मिस हयात, आप बहुत सुंदर हैं. जिम्मेदारियां भी अच्छी तरह से संभालती हैं और एक सशक्त महिला हैं. इसलिए मैं तुम्हें अपनी जीवनसाथी बनाना चाहता हूं.’’

हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी. क्या बोले, क्या न बोले. बस, शरमा कर हामी भर दी.

भाभी: क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई. पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधर उधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचा चाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं. उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

दिल का बोझ : दीदी लाई थी कौन सी खुशियां

मंजू अपनी मां के साथ फर्स्ट फ्लोर पर रहती थी. वह अपने फ्लैट के नीचे वाली दुकान से दूध लाने गई थी. वह जैसे ही दूध ले कर आई, अपने साथ एक नन्हा सा गोलमटोल बच्चा भी गोद में ले आई थी.

‘‘अरे, यह किस का बच्चा उठा लाई?’’ मां ने हैरानी से देख कर पूछा.

‘‘विनोद अंकल की दुकान पर खेल रहा था. उन्हीं के घर का कोई होगा… मैं ज्यादा नहीं जानती,’’ मंजू ने हंसते हुए अपनी मां को सफाई दी.

विनोद ने मंजू के घर के नीचे मोटर पार्ट्स की दुकान खोल रखी है. दुकान में भीड़ कम ही रहती है.

बच्चा बहुत खूबसूरत था. मां की भी ममता जाग गई. उन्होंने उसे गोद में ले लिया.

बच्चा घंटाभर वहां खेलता रहा. बच्चे की किलकारी से मंजू की मां के चेहरे पर खुशी की लकीरें उभर आई थीं. वे उस का खास खयाल रख रही थीं. बच्चा एक कटोरी दूध भी पी गया था.

एक घंटे बाद मां मंजू से बोलीं, ‘‘जा कर बच्चे को दुकान पर पहुंचा दे.’’

मंजू बच्चे को विनोद अंकल की दुकान पर छोड़ आई. इस तरह से वह बच्चा कई दिन तक मंजू के घर आता रहा. उस की मां बच्चे का ध्यान रखतीं. बच्चा वहां खेलता, घंटे 2 घंटे बाद मंजू दुकान में छोड़ आती. कई दिनों से यह सिलसिला चल रहा था.

उस दिन रात के 10 बज रहे थे. मंजू अपनी मां के बगल में सोई हुई थी. मंजू को नींद नहीं आ रही थी. वह सोच रही थी कि कैसे बात को शुरू करे.

‘‘बच्चा कितना खूबसूरत है न मां?’’ मंजू बोली.

‘‘अरे, तू किस की बात कर रही है?’’

‘‘उसी बच्चे की मां जो विनोद अंकल की दुकान से लाई थी.’’

‘‘सो जा. क्या तुझे नींद नहीं आ रही है? अभी भी तेरा ध्यान उस बच्चे पर अटका है?’’ मां ने मंजू को हिदायत दी.

‘‘दीदी का बच्चा भी ऐसा ही होता न मां?’’ मंजू अचानक बोली.

यह सुन कर मां गुस्से में बिफर पड़ीं, इसलिए वे बिस्तर से उठ कर बैठ गईं.

‘‘तेरे बड़े चाचा ने मना किया था न कि दीदी का नाम कभी मत लेना? वह हम लोगों के लिए मर गई है…’’ मां गुस्से में बोलीं.

अब तक मंजू भी चादर फेंक कर उठ कर बैठ गई थी और बोली, ‘‘मानती हूं कि दीदी हम लोगों के लिए मर गई हैं, लेकिन सचमुच में तो नहीं मरी हैं न?’’ उस ने मां से सवाल किया.

मां के पास कोई जवाब नहीं था. वे मंजू का मुंह ताकती रह गईं.

मंजू का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह सोच नहीं पा रही थी कि जो कहने वाली है, उस का क्या नतीजा होने वाला है? अपना दिल मजबूत कर के वह मां से बोली, ‘‘मां, वह जो बच्चा रोज आ रहा है न, वह अपनी दीदी का ही बच्चा है. तुम उस की नानी हो और वह तुम्हारा नाती है. तुम्हारी अपनी बेटी का बेटा है,’’ मंजू हिम्मत कर के सबकुछ एक ही सांस में बोल गई.

मां को यह सुन कर ऐसा लगा, जैसे वे आसमान से जमीन पर गिर गई हैं. वे कुछ भी नहीं बोल पा रही थीं, सिर्फ मंजू को देखे जा रही थीं. मंजू अपनी मां के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. मां पुरानी यादों में खोने लगी थीं.

3 साल पहले की घटी हुई वह घटना. उन की बड़ी बेटी सोनी कालेज में पढ़ती थी. कालेज आतेजाते वह अमर डिसूजा नाम के एक ईसाई लड़के के इश्क में पड़ गई थी.

अमर बहुत खूबसूरत था. वह सोनी से बहुत प्यार करता था. दोनों घंटों एकदूसरे से मोबाइल पर बात किया करते थे. सोनी उस के प्यार में पागल हो गई थी. उसे इस बात का कहां ध्यान रहा कि वह एक हिंदू ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती है, जबकि अमर एक ईसाई परिवार से था.

जैसे ही सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता को मालूम हुआ, सोनी को काफी भलाबुरा सुनना पड़ा था. घर के लोगों के साथसाथ बाहर के लोगों ने भी उसे खूब जलील किया था. लोग यही कह रहे थे कि सोनी को कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था? उस ने अपना धर्म भ्रष्ट कर दिया था, इसीलिए उस के बड़े चाचा ने उसे घर से बाहर निकलने से मना कर दिया था. अमर से भी दूर रहने की हिदायत दे दी थी.

उस के चाचा ने चेतावनी दी थी, ‘अब से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई बंद रहेगी. बहुत हो गया पढ़नालिखना.’

सोनी की शादी की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. कई जगह लड़के देखे जा रहे थे, लेकिन वह पढ़ना चाहती थी. उस ने अपनी मां और अपने पिता से काफी गुजारिश की थी. कुछ दिन बाद उस के पिता ने सिर्फ कालेज में एडमिशन लेने और फार्म भरने की इजाजत दी थी. धीरेधीरे सोनी कालेज आनेजाने लगी थी.

एक दिन अचानक थाने से खबर आई कि सोनी अमर के साथ थाने में पहुंच गई है. दोनों ने एकदूसरे से प्यार करने की बात स्वीकार ली थी.

सोनी 18 साल की हो चुकी थी और अमर भी 21 साल का था. दोनों की पहले से ही गुपचुप तरीके से शादी करने की तैयारियां चल रही थीं, वे सिर्फ बालिग होने का इंतजार कर रहे थे.

सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता ने शादी रुकवाने की कई तरह से कोशिश की, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए. जब लड़कालड़की ही राजी थे, तो भला उन्हें कौन रोक सकता था. थानेदार की मदद से दोनों की शादी करवा दी गई थी. प्रशासन ने उन्हें प्रोटैक्शन दे कर अमर के घर तक पहुंचाया था.

बड़े चाचा ने गुस्से में आ कर सोनी का पुतला बना कर दाह संस्कार करवा दिया. पिता ने खास हिदायत दी थी, ‘वह हमारे लिए मर गई है. घर में कोई अब उस का नाम तक नहीं लेगा.’

तब से ले कर आज तक किसी ने भी सोनी का नाम इस घर में नहीं लिया था. आज जब मंजू उस के बच्चे की बात कर रही थी, तो मां सुन कर सन्न रह गई थीं.

मां मन ही मन सोनी से रिश्ता खत्म हो जाने के चलते दुखी रहती थीं. वे इस दुख को किसी के साथ जाहिर भी नहीं कर पाती थीं. आज वे अपने नाती को अनजाने में ही दुलार चुकी थीं.

जब मंजू ने मां को जोर से झुकझुरा, तो वे अपनी यादों से बाहर आ गईं, ‘‘ऐसा तू ने क्यों किया मंजू?’’ मां गुस्से में बोलीं.

‘‘तुम दीदी के जाने के बाद क्या कभी उन्हें भुला पाई हो मां? अपने दिल पर हाथ रख कर सच बताना?’’

मां के चेहरे पर बेचैनी देखी जा सकती थी. उन के पास कोई जवाब नहीं था. जैसे वे सच का सामना कर ही नहीं सकती थीं. वे मंजू से नजरें नहीं मिला पा रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे उन की चोरी पकड़ी गई है. चोरी पकड़ने वाला कोई और नहीं, बल्कि उन की अपनी बेटी की थी.

यह तो सच था कि जब से सोनी चली गई थी, मां दुखी थीं. वे कैसे जिंदा बेटी को मरा मान सकती थीं? उसे जितना भी भुलाने की कोशिश की थी, वे अपनी बेटी की यादों में खो जाती थीं. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को खूब प्यार दिया था.

बड़ी बेटी के गम में पिता उदास रहने लगे थे. कुछ दिन बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे. तब से मां अकेली हो गई थीं. वे चाहती थीं कि किसी तरह मंजू की भी शादी हो जाए.

‘‘मंजू, तुम कब से यह सब जानती हो?’’ मां ने सवाल किया.

‘‘एक दिन अचानक दीदी बाजार में मिल गई थीं. दीदी ने मुझे से नजरें फेर ली थीं, लेकिन मैं ने ही उन का पीछा किया था. बात करने पर उन्हें मजबूर कर दिया था. वे कहने लगी थीं कि मैं तो तुम्हारे लिए मर गई हूं. मैं ने उन्हें बहुत समझाया, तब जा कर वे बात करने के लिए तैयार हुई थीं.

‘‘दीदी भी यह जान कर बहुत दुखी थीं कि हम सब ने उन्हें मरा समझे लिया है. दीदी के गम में पिताजी नहीं रहे, उन्हें यह जान कर काफी दुख हुआ. लेकिन मैं ने उन्हें बताया कि यह सब बड़े चाचा का कियाधरा है. पिताजी तो उन की हां में हां मिलाते रहे. मां तो कुछ समझे ही नहीं पाई थीं. वे आज भी आप के लिए दुखी रहती हैं.

‘‘यह सुन कर दीदी रोने लगी थीं. वे आप को बहुत याद करती हैं. मैं उन से लगातार फोन पर बातचीत करती रहती हूं. तभी मैं जान पाई थी कि दीदी को एक बच्चा हुआ है और यह मेरी ही योजना थी कि किसी तरह से आप को और दीदी को मिला दूं. दीदी का बच्चा उन का देवर ले कर आता है. वह विनोद अंकल की दुकान पर सेल्समैन है.’’

मां मंजू के सिर पर हाथ फेरने लगीं. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था, दिल का बोझे आंखों से बाहर निकल रहा था.

मंजू अपनी मां से आज ये सब बातें कर के हलका महसूस कर रही थी. वह बहुत खुश थी. रात के 11 बज गए थे, इसलिए वह अपनी दीदी को परेशान नहीं करना चाहती थी, वरना यह खुशखबरी दीदी तक अभी पहुंचा देती, पर वह खुश थी कि अब उस की दीदी मां से बात कर सकेंगी. अब उस के घर में एक नन्हा बच्चा खेलेगा. वह सालों से 2 परिवारों में आई दरार को पाटने में कामयाब हो गई थी.

असंभव: क्या पति को छोड़ने वाली सुप्रिया को मिला परिवार का साथ

सुप्रिया की शादी बुरी तरह असफल रही. पति बेहद नशेड़ी, उसे बहुत मारतापीटता था. मातापिता के घर के दरवाजे उस के लिए एक प्रकार से बंद थे इसीलिए पति से तंग आ कर घर छोड़ अकेली रहने लगी.

उसी के दफ्तर में काम करने वाले हेमंत से धीरेधीरे सुप्रिया की नजदीकियां बढ़ने लगीं. शादीशुदा हेमंत की पत्नी अत्यंत शंकालु थी. उस पर पत्नी का आतंक छाया रहता था. हेमंत के सुप्रिया के घर आनेजाने से महल्ले वाले सुप्रिया को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे. उस को लगा वह कीचड़ से निकल कर दलदल में आ गई है.

बहुत सोचसमझ कर हेमंत से सारे संबंध समाप्त कर वह दूसरे महल्ले में आ जाती है. तनाव से मुक्ति पाने के लिए रोजसुबह सैर को जाती है. एक रोज उस का परिचय तनय नामके व्यक्तिसे होता है. वह योग शिक्षक तथा 2 बच्चों का पिता था. दार्शनिकलहजे में बातें करता तनय सुप्रिया को साफ दिल का इनसान लगता है.

यह सुन कर सुप्रिया एकाएक गंभीर हो गई. आदमी हमेशा अपनी पत्नी को ही क्यों दोषी ठहराता है जबकि दोष पतियों का भी कम नहीं होता.

‘‘हर इनसान सिर्फ अपने ही तर्कों से सहमत हुआ करता है मैडम…’’ तनय बोले तो वह मुसकरा दी, ‘‘अपना परिचय आप को दे दूं. मेरा नाम सुप्रिया है. मैं इस कालोनी के फ्लैट नंबर 13 में रहती हूं. लोगों के लिए फ्लैट का नंबर मनहूस था इसलिए मुझे आसानी से मिल गया. फ्लैट लेते समय मुझे लगा कि आदमी को जिस जगह रहते हुए सब से ज्यादा डर लगे, सब से ज्यादा खतरा महसूस हो, वहां जरूर रहना चाहिए. जिंदगी का असली थ्रिल, असली जोखिम शायद इसी में हो.’’

इस पर तनय ने हंसते हुए कहा, ‘‘और आप उस फ्लैट में अकेली रहती हैं क्योंकि पति से आप ने अलग रहने का फैसला कर लिया है. एक और विवाहित व्यक्ति के चक्कर में आप ने अपने को उस महल्ले में खासा बदनाम कर लिया जिस में आप पहले रहती थीं. अब आप उस सारे अतीत से पीछा छुड़ाने के लिए इस नए महल्ले के नए फ्लैट नंबर 13 में आ गई हैं, और यहां सुबह घूम कर ताजा हवा में अपने गम गलत करने का प्रयत्न कर रही हैं.’’

‘‘आप को यह सबकुछ कैसे पता?’’ चौंक गई सुप्रिया.

‘‘चौंकिए मत. मेरी इस सारी जानकारी से आप को कोई नुकसान नहीं होने वाला क्योंकि मैं कभी किसी के जीवन की बातें इधर से उधर नहीं करता. आप से यह बातें कह दीं क्योंकि आप को यह बताना चाहता था कि मैं आप के बारे में बहुत कुछ जानता हूं. असल में हेमंतजी मेरी योग कक्षा के छात्र रहे हैं. एक बार उन्होंने अपने तनावों के बारे में सब बताया था, वे दो नावों पर सवार थे, डूबना तो था ही. उन्हें पता है कि आप यहां फ्लैट नंबर 13 में रहती हैं पर मैं ने उन से कह दिया है कि अपना भला चाहते हो तो आप का पीछा न करें.’’

‘‘लेकिन आदमी बहुत स्वार्थी होता है, सर, वह हर काम अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कर करता है. क्या आप के समझाने से उस की समझ में आया होगा?’’

‘‘मेरा फर्ज था उन्हें समझाना. समझ जाएंगे तो उन के हित में रहेगा, वरना अपने किए कर्मों का दंड वह जरूर भोगेंगे.’’

‘‘आप सचमुच बहुत समझदार और भले व्यक्ति हैं,’’ सुप्रिया ने ऊपर से नीचे तक देखते हुए तनय की मुक्तकंठ से प्रशंसा की.

अब सुबह की सैर के समय तनयजी से हर रोज सुप्रिया की मुलाकात होने लगी. ढेरों बातें, हंसी, ठहाके, खुश रहना, बातचीत करना, फिर उस ने अनुभव किया कि जिस दिन वह नहीं जा पाती या तनय से मुलाकात नहीं हो पाती उस दिन उसे लगता था जैसे जिंदगी में कुछ है जो छूट गया है. वह अपनी इस मानसिक स्थिति के बारे में बहुत सोचती थी पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

सुप्रिया को अपना जन्मदिन याद नहीं था, पर उस दिन उसे अचरज हुआ जब ताजे गुलाबों का एक गुलदस्ता ले कर तनय उस के फ्लैट पर आ कर जन्मदिन की मुबारकबाद देते हुए बोले, ‘‘तुम ने तो नहीं बुलाया पर मुझे लगा कि मुझे तुम्हारे पास आज के दिन आना ही चाहिए.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ खिल सी गई सुप्रिया, ‘‘दरअसल जिंदगी की उलझनों में मैं अपने जन्मदिन को ही याद नहीं रख पाई. आप गुलाबों के साथ आए तो याद  आया कि आज के दिन मैं पैदा हुई थी.

‘‘भीतर आइए न, सर, दरवाजे पर तो अजनबी खड़े रहते हैं. आप अब मेरे लिए अपरिचित और अजनबी नहीं हैं.’’

‘‘अपना मार्कट्वेन का वाक्य तुम भूल गईं क्या?’’ और ठहाका लगा कर हंसे तनयजी. फिर संभल कर बोले, ‘‘मैं यहां बैठने नहीं, आप को आमंत्रित करने आया हूं. मैं चाहता हूं कि आप आज मेरे घर चलें और मेरी पाक कला का जायजा व जायका लें.’’

अपना फ्लैट बंद कर जब सुप्रिया तनयजी के साथ बाहर निकली तो शाम पूरी तरह घिर आई थी. सड़क पर बत्तियां जल गई थीं.

रास्ते में तनयजी खामोशी को तोड़ते हुए बोले, ‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम के अनेक रूप होते हैं. आदमी ऐसी हजार चीजें गिना सकता है जिन के बारे में वह कह सकता है कि यह प्यार नहीं है पर प्यार किसे कहते हैं, ऐसी वह एक भी बात नहीं गिना सकता.’’

सुप्रिया ने एक बार भर नजर तनयजी की तरफ देखा और सोचने लगी, क्या हर आदमी औरत से सिर्फ एक ही मतलब साधने की फिराक में रहता है? संदेह के कैक्टस उस की आंखों में शायद तनय ने साफ देख लिए थे. अत: गंभीर ही बने रहे.

‘‘आप मेरे बारे में कतई गलत सोच रही हैं. मैं ने आप को पहले ही बताया था कि मैं लोगों के चेहरे के भाव पढ़ने में माहिर हूं. असल में हर अकेला आदमी दूसरे लोगों में अपनी जगह तलाशता है पर मैं इस तरह अपने अकेलेपन को भरने का प्रयत्न करता रहता हूं. इसीलिए मैं ने कहा था कि प्रेम और मनुष्य के अनेक रूप होते हैं.’’

‘‘माफ करें मुझे,’’ सुप्रिया ने क्षमा मांगी, ‘‘असल में दूध का जला व्यक्ति छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार ठगी गई औरत दोबारा नहीं ठगी जाना चाहती.’’

‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम का एक और रूप है. दूसरों के जीवन में अपनेआप को खोजना, अपने महत्त्व को तलाशना, मुझे नहीं पता कि मैं तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण हो पाया हूं या नहीं पर मेरे लिए तुम एक महत्त्वपूर्ण महिला हो. इसलिए कि मुझे सुबह तुम से मिल कर अच्छा लगता है, बातें करने का मन होता है क्योंकि तुम अच्छी तरह सोचतीसमझती हो, शायद इसलिए कि अपनी इस छोटी सी जिंदगी में तुम ने बहुत कुछ सहा है.

‘‘जिंदगी की तकलीफें इनसान को सब से ज्यादा शिक्षित करती हैं और उसे सब से ज्यादा सीख भी देती हैं. शायद इसीलिए तुम समझदार हो और समझदार से समझदार को बातचीत करना हमेशा अच्छा लगता है.’’

‘‘क्या करते हैं हम ऐसी कोशिश. क्या बता सकते हैं आप?’’ अपने सवाल का भी वह शायद उत्तर तलाशने लगी थी तनय के तर्कों में.

‘‘क्योंकि हर व्यक्ति की जिंदगी में कुछ न कुछ गड़बड़, अभाव, कमी और अनचाहा होता रहता है जिसे वह दूसरों की सहायता से भरना चाहता है.’’

‘‘पर आप को नहीं लगता कि ऐसी कोशिशें बेकार जाती हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘यह सब असंभव होता है, दूसरे उस अभाव को, उस कमी को, उस गड़बड़ी को कभी ठीक नहीं कर सकते, न भर सकते हैं.’’

आगे कुछ न कह सकी वह क्योंकि तनय अपने फ्लैट का फाटक खोल कर उसे अंदर चलने का इशारा कर रहे थे. भीतर घर में दोनों बच्चों को खाने की मेज पर उन की प्रतीक्षा करते पाया तो सुप्रिया को अच्छा लगा. बेटे रोमेश ने कुरसी से उठ कर सुप्रिया का स्वागत किया और अपना नाम एवं कक्षा बताई पर बेटी रूपाली खड़ी नहीं हुई, उस का चेहरा तना हुआ था और आंखों

में संदेह व आक्रोश का मिलाजुला

भाव था.

‘‘हैलो, रूपाली,’’ सुप्रिया ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ाया पर उस ने हाथ नहीं मिलाया. वह तनी बैठी रही. तनय ने उस की ओर कठोर नजरों से देखा, पर कहा कुछ नहीं.

जिस हंसीखुशी के मूड में वे लोग यहां पहुंचे थे वैसा खुशनुमा वातावरण वहां नहीं था, फिर भी औपचारिक बातों के बीच उन लोगों ने खाना

खाया था. विस्तृत परिचय हुआ था. सुप्रिया ने भी अपने फ्लैट का नंबर आदि बता दिया था और यह भी कहा था, ‘‘आप लोग जब चाहें, शाम को आ सकते हैं. मैं अकेली रहती हूं. आप लोगों को अपने फ्लैट में पा कर प्रसन्न होऊंगी.’’

रूपाली शायद कहना चाहती थी, क्यों? क्यों होंगी आप प्रसन्न? क्या हम दूसरों के मनोरंजन के साधन हैं? उस ने यह बात कही तो नहीं, पर उस के चेहरे के तनाव से सुप्रिया को यही लगा.

दरवाजे की घंटी बजी तो सुप्रिया ने सोचा, शायद तनयजी होंगे. दरवाजा खोला तो अपने सामने रूपाली को खड़ा देखा. चेहरा उसी तरह तना हुआ. आंखों में वही नफरत के भाव.

‘‘आप मेरे घर क्यों आई थीं, मैं यह अच्छी तरह से जान गई हूं,’’ वह उसी तरह गुस्से में बोली.

‘‘आप मुझ से सिर्फ यही कहने नहीं आई हैं,’’ सुप्रिया संभल कर मुसकराई, ‘‘पहले गुस्सा थूको और आराम से मेरे कमरे में बैठो. फिर पूछो कि क्यों आई थी मैं आप के घर…’’

‘‘मुझे ऐसी हर औरत पर गुस्सा आता है जो मेरे पापा पर कब्जा करना चाहती है. एक आंटीजी पहले भी थीं, मैं ने उन्हें अपमानित और जलील कर भगा दिया. हालांकि पापा मेरे इस व्यवहार से मुझ से नाराज हुए थे पर मुझे कतई अच्छा नहीं लगता कि

कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में दखल दे.’’

‘‘तुम ने यह कैसे मान लिया कि

मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी जिंदगी में दखल देने आ रही हूं?’’ रूपाली का हाथ पकड़ कर सुप्रिया उसे भीतर ले गई. कुरसी पर बैठाया. ठंडा पानी पीने को दिया, फिर पूछा, ‘‘क्या लेना चाहोगी. ठंडा या गरम?’’

‘‘कुछ नहीं. मैं सिर्फ आप से लड़ने आई हूं,’’ रूपाली सख्त स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, हम लोग लड़ भी लेंगे, पहले कुछ खापी लें, फिर लड़ाई अच्छी तरह लड़ी जा सकेगी,’’ हंसती रही सुप्रिया.

सुप्रिया किचन से वापस लौटी तो उस के हाथ में एक टे्र थी और उस में कौफी व अन्य चीजें.

‘‘आप को कैसे पता कि मैं सिर्फ कौफी पीना पसंद करती हूं?’’

‘‘मुझे तो यह भी पता है कि एक लड़का है अरुण जो तुम्हारा दोस्त है और तुम से मिलने तब आता है जब तुम्हारे पापा घर पर नहीं होते. भाई स्कूल गया हुआ होता है. तुम स्कूल गोल कर के उस लड़के के साथ फ्लैट में अकेली होती हो.’’

एकदम सन्नाटे में आ गई रूपाली और सकपका कर बोली, ‘‘क्या पापा को भी पता है?’’

‘‘अभी तक तो नहीं पता है पर ऐसी बातें महल्ले में बहुत दिन तक लोगों की नजरों से छिपती नहीं हैं. आज नहीं तो कल लोग जान ही जाएंगे और घूमफिर कर यह बातें तुम्हारे पापा तक पहुंच ही जाएंगी.’’

‘‘आप ने तो पापा को कुछ नहीं बताया?’’ उस ने पूछा.

‘‘और बताऊंगी भी नहीं पर यह जरूर चाहूंगी कि स्कूल गोल कर किसी लड़के के साथ अपने खाली फ्लैट में रहना कोई अच्छी बात नहीं है. इस से तुम्हारी पढ़ाई बाधित होगी और ध्यान बंटेगा.’’

चुपचाप कौफी पीती रही रूपाली, फिर बोली, ‘‘असल में मैं नहीं चाहती कि कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में आए और मेरी मां बन बैठे. खासकर आप की उम्र की औरत जिस की उम्र मुझ से कुछ बहुत ज्यादा नहीं है. आप को पता है, पापा की उम्र क्या है?’’

‘‘हां, शायद 50-52 के आसपास,’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘और मुझे यह भी पता है कि उन की पत्नी… यानी आप लोगों की मां की मृत्यु एक कार दुर्घटना में हुई थी.’’

‘‘दुर्घटना के समय उन के साथ कौन था, शायद आप को यह भी पता है?’’ रूपाली ने पूछा.

‘‘हां, वह अपने प्रेमी के साथ थीं और वह प्रेमी शायद उन से पीछा छुड़ाना चाहता था. इसीलिए गाड़ी से उसे धक्का दिया था पर धक्का देने में स्टियरिंग गड़बड़ा गया और कार एक गहरे खड्ड में जा गिरी जिस से दोनों की ही मृत्यु हो गई.’’

‘‘आप को नहीं लगता कि हर औरत बेवफा होती है और हर आदमी विश्वसनीय?’’

‘‘अगर हम यही सच मान कर जिंदगी जिएं तो क्या तुम एक लड़के पर भरोसा कर के उस एकांत फ्लैट में मिलती हो, यह ठीक करती हो? और क्या यही राय तुम अपने बारे में रखती हो कि तुम उस के साथ बेवफाई करोगी? वह भी तुम्हें आगे चल कर धोखा देगा? जिंदगी क्या अविश्वासों के सहारे चल सकती है, रूपाली?’’

चुप हो गई रूपाली. उसे लगा कि वह सुप्रिया को जितना गलत समझ रही थी वह उतनी गलत नहीं थी. वह एक अदद काफी समझदार औरत लगी रूपाली को. अपनी मां से एकदम भिन्न, सहज, और सुहृदय.

‘‘आज के बाद मैं अरुण से कभी अपने फ्लैट के एकांत में नहीं मिलूंगी. पर प्लीज, पापा को मत बताना.’’

‘‘तुम न भी कहतीं तो भी मैं खुद ही तुम्हें किसी दिन इस के लिए टोकती. तुम्हारे पापा से तब भी नहीं कहती. मर्द ऐसी बातों को दूसरे रूप में लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘मैं तुम्हारी उम्र से गुजर चुकी हूं, यह सब भली प्रकार समझती हूं.’’

‘‘अब आप मेरे घर कब आएंगी?’’ रूपाली मुसकरा दी.

‘‘अभी तो हमें लड़ना है एकदूसरे से,’’ कह कर हंस दी सुप्रिया, ‘‘क्या अपने घर बुला कर लड़ना चाहती हो मुझ से?’’

रूपाली उठते हुए बोली, ‘‘आंटी, आप घर आएं और पापा की जिंदगी का सूनापन अगर संभव हो सके तो दूर करें. हालांकि जो घाव पापा को मम्मी ने दिया है वह भर पाना असंभव है. पर मैं चाहती हूं, वह घाव भरे और पापा एक सुखी संतुष्ट जीवन जिएं. करेंगी आप इस में मदद…?’’ देर तक उत्तर नहीं दे सकी सुप्रिया.

छल: आशिक की मारी रोमा

रोमा सारे घरों का काम जल्दीजल्दी निबटा कर तेज कदमों से भाग ही रही थी कि वनिता ने आवाज लगाई, ‘‘अरी ओ रोमा… नाश्ता तो करती जा. मैं ने तेरे लिए ही निकाल कर रखा है.’’‘‘रख दीजिए बीबीजी, मैं शाम को आ कर खा लूंगी. अभी बहुत जरूरी काम से जा रही हूं,’’ कहते हुए रोमा सरपट दौड़ गई. रोमा यहां सोसाइटी के कुछ घरों में झाड़ूपोंछा, बरतन, साफसफाई का काम करती थी. इस समय वह इतनी तेजी से अपने प्रेमी रौनी से मिलने जा रही थी. रौनी बगल वाली सोसाइटी में मिस्टर मेहरा के यहां ड्राइवर था.

पिछले 2 साल से रोमा और रौनी में गहरी जानपहचान हो गई थी. वे दोनों अगलबगल की सोसाइटी में काम करते थे और एक दिन आतेजाते उन की निगाहें टकरा गईं. फिर देखते ही देखते उन के बीच प्यार की शहनाई बज उठी.जवानी की दहलीज पर अभीअभी कदम रखने वाली रोमा पूर्णमासी के चांद की तरह बेहद ही खूबसूरत और मादक लगती थी. उस की हिरनी जैसी आंखें, सुराहीदार गरदन, पतली कमर और गदराया बदन देख कर हर कोई उसे रसभरी निगाहों से देखता था, लेकिन रोमा की जिंदगी का रस रौनी था, जिस से शादी कर के वह अपना घर बसाना चाहती थी. रौनी दिखने में बांका जवान था.

बिखरे बाल, आंखों पर चश्मा, शर्ट के सामने के 2 बटन हमेशा खुले, गले में चेन और कलाई में ब्रैसलेट… रौनी का यह स्टाइल किसी हीरो से कम नहीं था और रोमा उस के इसी स्टाइल पर मरमिटी थी.अकसर रोमा ही सारे घरों का काम निबटा कर रौनी को पास वाले पार्क में मिलने के लिए फोन किया करती थी, लेकिन आज पहली बार रौनी ने फोन कर के रोमा को ‘जरूरी काम है’ कह कर बुलाया था.रोमा भागीभागी पार्क में पहुंची, तो देखा कि रौनी वहां उस का इंतजार कर रहा था.

रोमा को सामने देखते ही रौनी ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया. रोमा खुद को छुड़ाते हुए बोली, ‘‘यही था तेरा जरूरी काम, जो तू ने मुझे यहां इतनी जल्दी में बुलाया… तुझे पता है कि मैं बनर्जी के घर का काम छोड़ कर आई हूं…

अब जल्दी से बोल कि यहां मुझे क्यों बुलाया?’’रोमा की कमर पर अपना हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच कर करीब लाने के बाद उस के होंठों पर अपनी उंगली फेरते हुए रौनी बोला, ‘‘हमारी शादी के लिए रुपयों का जुगाड़ हो गया…’’यह सुनते ही रोमा उछल पड़ी और बोली, ‘‘अरे वाह… यह सब तू ने कैसे किया? तेरा मालिक तुझे रुपए उधार देने के लिए तैयार हो गया क्या?’’रोमा के ऐसा पूछने पर रौनी के चेहरे पर एक राजभरी मुसकान और आंखों पर एक अजीब सी शरारत तैर गई और वह रोमा का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर उस के होंठों को चूमने लगा. रोमा झुंझला कर रौनी से अलग होते हुए बोली,

‘‘छोड़ मुझे… पहले यह बता कि रुपए कहां से आएंगे?’’अपने हाथों से अपने ही होंठों को पोंछते हुए रौनी बोला, ‘‘तुझे हमारे साहब के बच्चे को जन्म देना होगा.’’इतना सुनते ही रोमा चिढ़ गई और बोली, ‘‘तुझे शर्म नहीं आती, कैसी बेशर्मों जैसी बात करता है. मैं भला तेरे साहब के बच्चे की मां क्यों बनूंगी…’’

रोमा के ऐसा कहने पर रौनी हंसते हुए बोला, ‘‘अरे, तुझे साहब के बच्चे की मां नहीं बनना है, बच्चे की मां तो उन की बीवी ही रहेगी, तुझे तो बस उन के बच्चे को अपनी कोख में 9 महीने के लिए रखना है. इस के लिए साहब हमें 2 लाख रुपए देंगे, मकान किराए पर ले कर देंगे और खानापीना सब का खर्चा साहब ही उठाएंगे.’’पहले तो रोमा मानी नहीं, लेकिन जब रौनी ने उसे सरोगेसी मां के बारे में अच्छी तरह से समझाया, अपने प्यार का वास्ता दिया और जल्द ही शादी करने का वादा किया, तो 20 साल की भोलीभाली रोमा सरोगेसी मां बनने के लिए तैयार हो गई.

रोमा ने सारे घरों का काम छोड़ दिया. इतना ही नहीं, अपना घर भी छोड़ दिया. वैसे भी घर पर उस का अपना कोई था नहीं. बाप पूरा दिन शराब के नशे में पड़ा रहता. उसे अपना होश नहीं रहता था, तो वह अपनी बेटी की फिक्र कहां से करता. सौतेली मां के लिए रोमा बोझ ही थी. रोमा के आगेपीछे कोई नहीं था. जो था रौनी ही था, जिस पर उसे अंधा भरोसा था और वह रौनी पर जान छिड़कती थी.रौनी कोलकाता से रोमा को उत्तराखंड ले आया.

यहां आ कर रोमा को पता चला कि जहां वह रहने वाली है वह कोई घर नहीं, बल्कि एक आश्रम है, जहां उस के जैसी और भी बहुत सी लड़कियां और औरतें दिखाई दे रही थीं, जो मां बनने वाली थीं. आश्रम में कुछ जवान लड़कियां और बुजुर्ग औरतें भी थीं, जो साध्वी और सेवादार थीं. यह आश्रम एक जानेमाने आचार्य द्वारा चलाया जा रहा था, जिन का देशविदेश में हर दिन प्रवचन होता था और वे धर्म से जुड़ी कहानियां भक्तों से साझा करते थे.

रोमा को यह सब बहुत अटपटा लग रहा था, लेकिन वह रौनी का साथ पा कर इन सभी को नजरअंदाज कर रही थी. रोमा की दुनिया अब बदल गई थी. रौनी हर समय उस के साथ रहता, उस का पूरा खयाल रखता. एक महीने के भीतर डाक्टर की निगरानी में रोमा पेट से भी हो गई, लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आया कि यह सब हुआ कैसे? न रौनी के साहब यहां आए और न ही साहब की पत्नी.इस बीच रोमा ने न कभी आश्रम में रह रही किसी लड़की या औरत से कोई बात की और न ही यह जानने की कोशिश की कि वे सब कहां से आई हैं, उन के पति कहां हैं और वे इस आश्रम में कब से हैं.

एक रात अचानक खाना खाने के बाद रौनी कहीं जाने की तैयारी करने लगा. यह देख कर रोमा बोली, ‘‘रौनी, तू कहीं जा रहा है क्या?’’रोमा के ऐसा कहने पर रौनी बोला, ‘‘हां, काम पर तो लौटना होगा. शादी की तैयारी जो करनी है.’’यह सुन कर रोमा का चेहरा उतर गया. वह रोआंसी हो गई और रौनी के गले लगते हुए बोली, ‘‘तू मत जा, रौनी. मैं तेरे बगैर यहां नहीं रह पाऊंगी.

फिर अभी तो बच्चे के होने में पूरे 9 महीने हैं. मैं यहां अकेली तेरे बगैर कैसे रहूंगी… मैं भी तेरे साथ चलती हूं.’’रोमा को इस तरह रोते और साथ चलने की जिद करते देख रौनी उसे समझाते हुए बोला, ‘‘देख, साहब और मेमसाहब की पहली शर्त यही थी कि उन का बच्चा इसी आश्रम में पैदा हो, ताकि बच्चे में अच्छे गुण और संस्कार आएं, इसलिए तुझे यहीं रहना होगा और मुझे तो जाना ही होगा. ‘‘शादी के लिए और भी रुपयों की जरूरत पड़ेगी. तुझे दुखी होने की कोई जरूरत नहीं.

तू यहां अकेली कहां है. इस आश्रम में इतने सारे लोग हैं. सब तेरा ध्यान रखेंगे और मैं भी तो आताजाता ही रहूंगा,’’ ऐसा कह कर रौनी जाने लगा. रोमा उसे भारी मन से आश्रम के बाहर तक छोड़ने के लिए साथ चलने लगी. अभी वे दोनों आश्रम के मेन गेट से कुछ दूर ही पहुंचे थे कि एक लड़की दौड़ती हुई आई और रौनी से लिपट गई. यह देख कर रोमा हैरान थी, क्योंकि वह लड़की बारबार रौनी को अपने साथ ले चलने की बात कह रही थी.वह लड़की कह रही थी,

‘‘रौनी, यह आश्रम, आश्रम नहीं है. यहां लड़कियों की दलाली होती है. उन का शारीरिक शोषण होता है. जबरन उन्हें पेट से किया जाता है और उन से पैदा होने वाले बच्चों को उन पैसे वाले और विदेशी जोड़ों को बेच दिया जाता है, जिन के बच्चे नहीं हैं.’’उस लड़की की बातों को सुन कर रोमा को यह समझने में समय नहीं लगा कि उस के साथ छल हुआ है और वह भी उस लड़की की ही तरह रौनी के हाथों ठगी जा चुकी है. वह रौनी के किसी भी साहब या उन की पत्नी के लिए सरोगेसी मां नहीं बनाई जा रही है, बल्कि इस आश्रम में बच्चों का व्यापार होता है और उसे इसीलिए इस आश्रम में लाया गया है.

रोमा उस लड़की से कोई सवाल करती या फिर रौनी से पूछती कि उस ने उस के साथ यह छल क्यों किया, उस से पहले एक साध्वी तेज कदमों से वहां आई और उस लड़की के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ने के बाद उसे वहां से खींच कर ले जाने लगी. वह लड़की चीखचीख कर रौनी को पुकारती रही और उस से कहती रही, ‘‘रौनी, मुझे इस नरक से ले चलो…’’लेकिन रौनी उस लड़की को अनसुना और रोमा को अनदेखा कर आश्रम के गेट से बाहर अपने नए शिकार की तलाश में निकल गया. रोमा हैरान सी खड़ी रौनी को अपनी आंखों से ओझल होते हुए देखती रही.

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