सच्चा प्यार- भाग 1: जब उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

Writer- Girija Zinna

‘‘उर्मी,अब बताओ मैं लड़के वालों को क्या जवाब दूं? लड़के के पिताजी 3 बार फोन कर चुके हैं. उन्हें तुम पसंद आ गई हो… लड़का मनोहर भी तुम से शादी करने के लिए तैयार है… वे हमारे लायक हैं. दहेज में भी कुछ नहीं मांग रहे हैं. अब हम सब तुम्हारी हां सुनने के लिए बेचैनी से इंतजार कर रहे हैं. तुम्हारी क्या राय है?’’ मां ने चाय का प्याला मेरे पास रखते हुए पूछा.

मैं बिना कुछ बोले चाय पीने लगी. मां मेरे जवाब के इंतजार में मेरी ओर देखती रहीं. सच कहूं तो मैं ने इस बारे में अब तक कुछ सोचा ही नहीं था. अगर आप सोच रहे हैं कि मैं कोई 21-22 साल की युवती हूं तो आप गलतफहमी में हैं. मेरी उम्र अब 33 साल है और जो मुझ से ब्याह करना चाहते हैं उन की 40 साल है.

अगर आप मन ही मन सोच रहे हैं कि यह शादी करने की उम्र थोड़ी है तो आप से मैं कोई शिकायत नहीं करूंगी, क्योंकि मेरे मन में भी यह सवाल उठ चुका है और इस का जवाब मुझे भी अब तक नहीं मिला. इसलिए मैं चुपचाप चाय पी रही हूं.

सभी को अपनीअपनी जिंदगी से कुछ उम्मीदें जरूर होती हैं, इस बात को कोई नकार नहीं सकता. हर चीज को पाने के लिए सही वक्त तो होता ही है. जैसे पढ़ाई के लिए सही समय होता है उसी तरह शादी करने के लिए भी सही समय होता है. मेरे खयाल से लड़कियों को 20 और 25 साल की उम्र के बीच शादी कर लेनी चाहिए. तभी तो वे अपनी शादीशुदा जिंदगी का पूरा आनंद उठा सकेंगी. प्यारमुहब्बत आदि जज्बातों के लिए यही सही उम्र है. इस उम्र में दिमाग कम और दिल ज्यादा काम करता है और फिर प्यार को अनुभव करने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की ही जरूरत होती है.

लेकिन मेरी जिंदगी की परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि मेरे जीवन में 20 से 25 साल की उम्र संघर्षों से भरी थी. हम खानदानी रईस नहीं थे. शुक्र है कि मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. यदि एक से अधिक बच्चे होते तो हमारी जिंदगी और मुश्किल में पड़ जाती. मेरे पापा एक कंपनी में काम करते थे और मां स्कूल अध्यापिका थीं. दोनों की आमदनी को मिला कर हमारे परिवार का गुजारा चल रहा था.

एक विषय में मेरे मातापिता दोनों ही बड़े निश्चिंत थे कि मेरी पढ़ाई को किसी भी हाल में रोकना नहीं. मैं भी बड़ी लगन से पढ़ती रही. लेकिन हमारी और कुदरत की सोच का एक होना अनिवार्य नहीं है न? इसीलिए मेरी जिंदगी में भी एक ऐसी घटना घटी, जिस से जिंदगी से मेरा पूरा विश्वास ही उठ गया.

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एक दिन दफ्तर में दोपहर के समय मेरे पिताजी अचानक अपनी छाती पकड़े नीचे गिर गए. साथ काम करने वालों ने उन्हें अस्पताल में भरती करा कर मेरी मां के स्कूल फोन कर दिया. मेरे पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था. मेरे पिताजी किसी भी बुरी आदत के शिकार नहीं थे, फिर भी उन्हें 40 वर्ष की उम्र में यह दिल की बीमारी कैसी लगी, यह मैं नहीं समझ पाई.

3 दिन आईसीयू में रह कर मेरे पिताजी ने अपनी आंखें खोलीं और फिर मेरी मां और मुझे देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए. मेरा हाथ पकड़ कर उन्होंने बहुत ही धीमी आवाज में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो बेटी… मैं अपना फर्ज पूरा किए बिना जा रहा हूं… मगर तुम अपनी पढ़ाई को किसी भी कीमत पर बीच में न छोड़ना… वही कठिन समय में तुम्हारे काम आएगी,’’ वे ही मेरे पिताजी के अंतिम शब्द थे.

पिताजी की मौत के बाद मैं और मेरी मां दोनों बिलकुल अकेली पड़ गईं. मेरी मां इकलौती बेटी थीं. उन के मातापिता भी इस दुनिया से चल बसे थे. मेरे पापा के एक भाई थे, मगर वे भी बहुत ही साधारण जीवन बिता रहे थे. उन की 2 बेटियां थीं. वे भी हमारी कुछ मदद नहीं कर सके. अन्य रिश्तेदार भी एक लड़की की शादी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं थे. मैं उन्हें दोषी नहीं ठहराना चाहती, क्योंकि एक कुंआरी लड़की की जिम्मेदारी लेना आज कोई आसान काम नहीं है.

मेरी मां ने अपनी कम तनख्वाह से मुझे अंगरेजी साहित्य में एम.ए. तक पढ़ाया. मैं ने एम.ए. अव्वल दर्जे में पास किया और उस के बाद अमेरिका में स्कौलरशिप के साथ पीएच.डी. की. उसी दौरान मेरी पहचान शेखर से हुई. अमेरिका में भारतवासियों की एक पार्टी में पहली बार मेरी सहेली ने मुझे शेखर से मिलवाया. पहली मुलाकात में ही शेखर ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया. वह बहुत ही सरलता से मुझ से बात करने लगा. जैसे मुझे बहुत दिनों से जानता हो. पूरी पार्टी में उस ने मेरा साथ दिया.

मुझे शेखर के बोलने का अंदाज बहुत पसंद आया. वह लड़कियों से बातें करने में माहिर था और कई लड़कियां इसी कारण उस पर फिदा हो गई थीं, क्योंकि जब वह मुझ से बातें कर रहा था, तो उस 2 घंटे के समय में कई लड़कियां खुद आ कर उस से बात कर गई थीं. सभी उसे डार्लिंग, स्वीट हार्ट आदि पुकार कर उस के गाल पर चुंबन कर गईं. इस से मुझे मालूम हुआ कि वह लड़कियों के बीच बहुत मशहूर है.

वह काफी सुंदर था… लंबाचौड़ा और गोरे रंग का… उस की आंखों में शरारत और होंठों में हसीन मुसकराहट थी. हमारे ही विश्वविद्यालय से एमबीए कर रहा था. उस के पिताजी भारत में दिल्ली शहर के बड़े व्यवसायी थे. शेखर एमबीए करने के बाद अपने पिताजी के कार्यालय में उच्च पद पर बैठने वाला था. ये सब उसी ने मुझे बताया था.

मैं विश्वविद्यालय के होस्टल में रहती थी और वह किराए पर फ्लैट ले कर रहता था. उसी से मुझे मालूम हुआ कि उस के पिता कितने बड़े आदमी हैं. हमारे एकदूसरे से विदा लेते समय शेखर ने मेरा सैल नंबर मांग लिया.

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सच कहूं तो उस पार्टी से वापस आने के बाद मैं शेखर को भूल गई थी. मेरे खयाल से वह बड़े रईस पिता की औलाद है और वह मुझ जैसी साधारण परिवार की लड़की से दोस्ती नहीं करेगा.

उस शुक्रवार शाम 6 बजे मेरे सैल फोन की घंटी बजी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने कहा.

‘‘हाय,’’ दूसरी तरफ से एक पुरुष की आवाज सुनाई दी.

कोरोना लव- भाग 2: शादी के बाद अमन और रचना के रिश्ते में क्या बदलाव आया?

अमन की बातें सुन कर रचना दंग रह गई कि कैसा इंसान है यह? जरा भी हमदर्द नहीं है? क्या सोचता है? क्या वह घर में आराम करती रहती है? रचना खामोश ही रही.

अमन फिर बोल पड़ा, ‘‘हां, बोलो न, क्या मुश्किल है, बताओ मुझे? जब मन आए काम करो, जब मन आए आराम कर लो. इतना अच्छा तो है, फिर भी नाकमुंह चढ़ाए रहती हो. सच में, तुम औरतों को तो समझना ही मुश्किल है.’’

अब रचना का पारा और चढ़ गया. अभी वह कुछ बोलती ही कि उस की दोस्त मानसी का फोन आ गया.

‘‘हैलो मानसी, बता, कैसा चल रहा है तेरा? बच्चेवच्चे सब ठीक तो हैं न?’’ लेकिन मानसी बताने लगी कि बहुत मुश्किल हो रही है, घर, बच्चे और औफिस का काम संभालना. क्या करें, कुछ समझ नहीं आ रहा है.

‘‘ज्यादा चिंता मत कर. चलने दे जैसा चल रहा है. क्या कर सकती है तू. लेकिन बच्चे और अपनी सेहत का ध्यान रख, वह जरूरी है अभी.’’

थोड़ी देर और मानसी से बात कर रचना ने फोन रख दिया. फिर किचन का सारा काम समेट कर अपनी टेबल पर जा कर बैठ गई.

उस दिन जब उस ने मानसी से अपनी समस्या बताई थी कि घर में वह औफिस की तरह काम नहीं कर पा रही है और ऊपर से बौस का प्रैशर बना रहता है हरदम, तब मानसी ने ही उसे सुझाया था कि बैडरूम या डाइनिंग टेबल पर बैठ कर काम करने के बजाय वह अपने घर के किसी कोने को औफिस जैसा बना ले और वहीं बैठ कर काम करे तो सही रहेगा. जब ब्रेक लेने का मन हो तो अपनी सोसाइटी का एक चक्कर लगा आए या पार्क में कुछ देर बैठ जाए. इस से  अच्छा लगेगा क्योंकि वह भी ऐसा ही करती है.

‘‘अरे वाह, क्या आइडिया दिया तू ने मानसी. मैं ऐसा ही करूंगी,’’ कहते हुए चहक पड़ी थी रचना. लेकिन मानसी की स्थिति जान कर दुख भी हुआ.

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मानसी बताने लगी कि उस के 2 बच्चे हैं, ऊपर से बूढ़े सासससुर, घर के काम के साथसाथ उन का भी बराबर ध्यान रखना होता है और औफिस का काम भी करना पड़ता है. पति हैं कि जहां हैं वहीं फंस चुके हैं, आ नहीं सकते. तो उस पर ही घरबाहर सारे कामों की जिम्मेदारी पड़ गई है. उस पर भी कोई तय शिफ्ट नहीं है कि उसे कितने घंटे काम करना पड़ता है. बताने लगी कि कल रात वह 3 बजे सोई, क्योंकि 2 बजे रात तक तो व्हाट्सऐप पर ग्रुप डिस्कशन ही चलता रहा कि कैसे अगर वर्क फ्रौम होम लंबा चला तो, सब को इस की ऐसी प्रैक्टिस करवाई जाए कि सब इस में ढल जाएं.

उस की बातें सुन कर रचना का तो दिमाग ही घूम गया. जानती है वह कि उस के बच्चे कितने शैतान हैं और सासससुर ओल्ड. कैसे बेचारी सब का ध्यान रख पाती होगी? सोच कर ही उसे मानसी पर दया आ गई. लेकिन, इस लौकडाउन में वह उस की कोई मदद भी तो नहीं कर सकती थी. सो, फोन पर ही उसे ढाढ़स बंधाती रहती थी.

‘सच में, कैसी स्थिति हो गई है देश की? न तो हम किसी से मिल सकते हैं,  न किसी को अपने घर बुला सकते हैं और न ही किसी के घर जा सकते हैं. आज इंसान, इंसान से भागने लगा है. लोग एकदूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं. क्या हो रहा है यह और कब तक चलेगा ऐसा? सरकार कहती रही कि अच्छे दिन आएंगे. क्या ये हैं अच्छे दिन? किसी ने सोचा था कभी कि ऐसे दिन भी आएंगे?’ अपने मन में यह सब सोच कर रचना दुखी हो गई.

रचना ने अपने घर के ही एक कोने में जहां से हवा अच्छी आती थी, टेबल लगा कर औफिस जैसा बना लिया और काम करने लगी. चारा भी क्या था? वैसे, अच्छा आइडिया दिया था मानसी ने उसे. थैंक यू बोला उस ने उसे फोन कर के.

काम करतेकरते जब रचना का मन उकता जाता, तो ब्रेक लेने के लिए थोड़ाबहुत इधरउधर चक्कर लगा आती. नहीं तो अपने घर की छत पर ही कुछ देर टहल लेती. और फिर अपने लिए चाय  बना कर काम करने बैठ जाती. अब रचना का माइंड सैट होने लगा था. लेकिन बौस का दबाव तो था ही, जिस से मन चिड़चिड़ा जाता कभीकभी कि एक तो इस लौकडाउन में भी काम करो और ऊपर से इन्हें कुछ समझ नहीं आता. सबकुछ परफैक्ट और सही समय पर ही चाहिए. यह क्या बात हुई? बारबार फोन कर के चैक करते हैं कि कर्मचारी अपने काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं. कहीं वे अपने घर पर आराम तो नहीं फरमा रहे हैं.

उस दिन बौस से बातें करते हुए रचना को एहसास हुआ कि कोई उसे देख रहा है. ऐसा होता है न? कई बार तो भरी बस या ट्रेन के कोच में भी ऐसी फीलिंग आती है कि कोई हम पर नजरें गड़ाए हुए है.  अकसर हमारा यह एहसास सच साबित होता है. अब ऐसा क्यों होता है, यह तो नहीं पता लेकिन सामने वाली खिड़की पर बैठा वह शख्स लगातार रचना को देखे ही जा रहा था.

जैसे ही रचना की नजर उस पर पड़ी, वह इधरउधर देखने लगा. लेकिन, फिर वही. रचना उसे नहीं जानती. आज पहली बार देख रही है. शायद, अभी वह नया यहां रहने आया होगा, नहीं तो वह उसे जरूर जानती होती. लेकिन वह उसे क्यों देखे जा रहा है? क्या वह इतनी सुंदर है और यंग है? वह बंदा भी कुछ कम स्मार्ट नहीं था. तभी तो रचना की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी. लेकिन, फिर यह सोच कर नजरें फेर लीं उस ने कि वह क्या सोचेगा.

एक दिन फिर दोनों की नजरें आपस में टकरा गईं, तो आगे बढ़ कर रचना ने ही उसे ‘हाय’ कहा. इस से उस बंदे को बात आगे बढ़ाने का ग्रीन सिग्नल मिल गया. अब रोज दोनों की खिड़की से ही ‘हायहैलो’ के साथसाथ थोड़ीबहुत बातें होने लगीं. दोनों कभी देश में बढ़ रहे कोरोना वायरस के बारे में बातें करते, कभी लौकडाउन को ले कर उन की बातें होतीं, तो कभी अपने वर्क फ्रौम होम को ले कर बातें करते. और इस तरह से उन के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ता, तो रुकता ही नहीं.

‘‘वैसे, सच कहूं तो औफिस जैसी फीलिंग नहीं आती घर से काम करने में, है न?’’ रचना के पूछने पर वह बंदा कहने लगा, ‘‘हां, सही बात है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘सही बोल रहे हैं आप, किया भी क्या जा सकता है. लेकिन पता नहीं, यह लौकडाउन कब खत्म होगा. कहीं लंबा चला तो क्या होगा?’’ रचना की बातों पर हंसते हुए वह कहने लगा कि भविष्य में क्या होगा, कौन जानता है? ‘‘वैसे जो हो रहा है सही ही है, जैसे हमारा मिलना’’ जब उस ने मुसकराते हुए यह कहा, तो रचना शरमा कर अपने बाल कान के पीछे करने लगी.

रचना के पूछने पर उस ने अपना नाम शिखर बताया और यह भी कि वह यहां एक कंपनी में काम करता है. अपना नाम बताते हुए रचना कहने लगी कि उस का औफिस उसी तरफ है.

काम के साथसाथ अब दोनों में पर्सनल बातें भी होने लगीं.

शिखर ने बताया कि पहले वह मुंबई में रहता था, मगर अभी कुछ महीने पहले ही तबादला हो कर दिल्ली शिफ्ट हुआ है.

ये घर बहुत हसीन है- भाग 5: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

‘‘साहब कितने खुश हैं आप के साथ. यहां आ गए तो… दुखी हो जाएंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे… मैं नहीं करूंगी आज यहां की सफाई,’’ वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

‘‘नहीं जाऊंगी मैं यहां से… बताओ मुझे कि यहां आ कर क्यों दुखी हो जाएंगे साहब.’’

‘‘सुरभि मेम साब ने मुझे आप को बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करूंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकल कर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.’’

बड़े कमरे में आ कर वान्या पलंग पर बैठ गई. प्रेमा ने दरवाजे को चिटकनी लगा

कर बंद कर दिया और वान्या के पास आ कर धीमी आवाज में कहना शुरू किया, ‘‘मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में 3 साल का फर्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आप को पता होगा कि साहब के मांपिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था.

‘‘एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डाक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी, इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आई थीं. साहब वहां आतेजाते रहते थे. एक साल बाद उन का बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आए थे. यह बात आज से कोई ढाईतीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुंबई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उन को हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां… बहुत बुरा हुआ मेम साब.’’ प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या  की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.

‘‘मेम साब, बर्फ पर मौजमस्ती करते हुए अचानक साहब तेजी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरी, क्योंकि दोनों एकदूसरे का हाथ पकडे़ थे. लुढ़कतेलुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथसाथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उन का बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.’’

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वान्या दिल थाम कर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. ‘‘मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देख कर लिपट गया और पापा, पापा कह कर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो…’’ प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फोटो चिपकी थी, जिस में आर्यन और बड़ा भाई एकदूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एकदूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाए.

‘‘मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़ेबड़े फोटो से उन्हें घर सजाने का.’’ प्रेमा आज जैसे एकएक बात बता देना चाहती थी वान्या को.

‘‘ओह, अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा?’’ वान्या व्यथित हो कर बोली.

‘‘नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब 2 महीने का था. बताया था न मैं ने कि बड़े साहब ले आए थे उस को यहां. कभीकभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उन से. वैसे भी वे 6 महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सब के सामने. कृष कोई दीदीवीदी समझता होगा शायद उन को.’’

वान्या सब सुन कर गहरी सोच में डूब

गई. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, ‘‘मेम साब, जब आप का रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आप से मिल कर

आए थे तो आप की फोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आप के बारे में बताते हुए कहा था कि इन का चेहरा जितना भोलाभाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपएपैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे जरूरत है तो उस की जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिस के सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैं ने इन को तुम्हारी मेम साब बनाने का फैसला कर लिया है…’’

वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोई हुई थी. प्रेमा ने कहा, ‘‘मेम साब अब नीचे चलते हैं’’ कहते ही वह गुमसुम सी सीढि़यां उतरने लगी.

प्रेमा के वापस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम

में आ गई. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, ‘‘रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.’’

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‘‘लेकिन एक शर्त है मेरी,’’ वान्या आर्यन के सीने पर सिर रख कर बोली.

‘‘कहो न, कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी,’’ वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोल सका.

‘‘कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आएंगे.’’

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गई. ‘‘प्रेमा ने बताया न,’’ भर्राए गले से वह इतना ही बोल सका.

वान्या मुसकरा कर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन ने वान्या को अपने सीने से लगाए खामोश हो कर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद खूबसूरत लग रही थी. मन ?ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं… ये घर  बहुत हसीन है.

इधर-उधर- भाग 1: अंबर को छोड़ आकाश से शादी के लिए क्यों तैयार हो गई तनु?

Writer- Rajesh Kumar Ranga

‘‘देखो तनु शादी ब्याह की एक उम्र होती है, कब तक यों टालमटोल करती रहोगी, यह घूमनाफिरना, मस्ती करना एक हद तक ठीक रहता है, उस के आगे जिंदगी की सचाइयां रास्ता देख रही होती हैं और सभी को उस रास्ते पर जाना ही होता है,’’ जयनाथजी अपनी बेटी तनु को रोज की तरह समझने का प्रयास कर रहे थे.

‘‘ठीक है पापा, बस यह आखिरी बार कालेज का ग्रुप है, अगले महीने से तो कक्षाएं खत्म हो जाएंगी. फिर इम्तिहान और फिर आगे की पढ़ाई.’’

जयनाथजी ने बेटी की बात सुन कर अनसुना कर दी. वे रोज अपना काफी वक्त तनु के लिए रिश्ता ढूंढ़ने में बिताते. जिस गति से रिश्ते ढूंढ़ढूंढ़ कर लाते उस से दोगुनी रस्तार से तनु रिश्ते ठुकरा देती.

‘‘ये 2 लिफाफे हैं, इन में 2 लड़कों के फोटो और बायोडाटा है, देख लेना और हां दोनों ही तुम से मिलने इस इतवार को आ रहे हैं, मैं ने बिना पूछे ही दोनों को घर बुला लिया है, पहला लड़का अंबर दिन में 11 बजे और दूसरा आकाश शाम को 4 बजे आएगा,’’

जयनाथजी ने 2 लिफाफे टेबल पर रख आगे कहा, ‘‘इन दोनों में से तुम्हें एक को चुनना है.’’

तनु ने अनमने ढंग से लिफाफे खोले और एक नजर डाल कर लिफाफे वहीं पटक दिए, फिर सामने भाभी को खड़ा देख बोली, ‘‘लगता है भाभी इन दोनों में से एक के चक्कर में पड़ना ही पड़ेगा… आप लोगों ने बड़ा जाल बिछाया है… अब और टालना मुश्किल लग रहा है.’’

‘‘बिलकुल सही सोच रही हो तनु… हमें बहुत जल्दी है तुम्हें यहां से भागने की… ये दोनों रिश्ते बहुत ही अच्छे  हैं, अब तुम्हें फैसला करना है कि अंबर या आकाश… पापामम्मी ने पूरी तहकीकात कर के ही तुम तक ये रिश्ते पहुंचाए हैं. आखिरी फैसला तुम्हारा ही होगा.’’

‘‘अगर दोनों ही पसंद आ गए तो? ‘‘तनु ने हंसते हुए कहा.

भाभी भी मुसकराए बगैर नहीं रह पाई और बोली, ‘‘तो कर लेना दोनों से शादी.’’

तनु सैरसपाटे और मौजमस्ती करने में विश्वास रखती थी. मगर साथ ही वह पढ़ाईलिखाई और अन्य गतिविधियों में भी अव्वल थी. कई संजीदे मसलों पर उस ने डिबेट के जरीए अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाई थी. घर में भी कई देशविदेश के चर्चित विषयों पर अपने भैया और पापा से बहस करती और अपनी बात मनवा कर ही दम लेती.

यह भी एक कारण था कि उस ने कई रिश्ते नामंजूर कर दिए थे. उसे लगता था कि उस के सपनों का राजकुमार किसी फिल्म के नायक से कम नहीं होना चाहिए. हैंडसम, डैशिंग, व्यक्तित्व ऐसा कि चलती हवा भी उस के दीदार के लिए रुक जाए. ऐसी ही छवि मन में लिए वह हर रात सोती, उसे यकीन था कि उस के सपनों का राजकुमार एक दिन जरूर उस के सामने होगा.

रविवार को भाभी ने जबरदस्ती उठा कर उसे 11 बजे तक तैयार कर दिया, लाख कहने के बावजूद वे उस ने न कोई मेकअप किया न कोई खास कपड़े पहने. तय समय पर ड्राइंगरूम में बैठ कर सभी मेहमानों का इंतजार करने लगे. करीब आधे घंटे के इंतजार के बाद एक गाड़ी आ कर रुकी और उस में से एक बुजुर्ग दंपती उतरे.

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तनु ने फौरन सवाल दाग दिया, ‘‘आप लोग अकेले ही आए हैं अंबर कहां है?’’

तनु के इस सवाल ने जयनाथजी एवं अन्य को सकते में डाल दिया. इस के पहले कि कोई कुछ जवाब देता एक आवाज उभरी, ‘‘मैं यहां हूं, मोटरसाइकिल यहीं लगा दूं?’’

तनु ने देखा तो उसे देखती ही रह गई, इतना खूबसूरत बांका नौजवान बिलकुल उस के तसव्वुर से मिलताजुलता, उसे लगा कहीं वह ख्वाब तो नहीं देख रही. इतना बड़ा सुखद आश्चर्य और वह भी इतनी जल्दी… तनु की तंद्रा तब भंग हुई जब युवक मोटरसाइकिल पार्क करने की इजाजत मांग रहा था.

‘‘हां बेटा जहां इच्छा हो लगा दो,’’ जयनाथजी ने कहा.

अंबर ने मोटरसाइकिल पार्क की और फिर सभी घर के अंदर प्रविष्ट हो गए.

इधरउधर के औपचारिक वार्त्तालाप के बाद तनु बोल पड़ी, ‘‘अगर आप लोग इजाजत दें तो मैं और अंबर थोड़ा बाहर घूम आएं…?’’

‘‘गाड़ी में चलना चाहेंगी या…’’ अम्बर ने पूछना चाहा.

‘‘मोटरसाइकिल पर… मेरी फैवरिट सवारी है…’’

थोड़ी ही देर में अंबर की मोटरसाइकिल हवा से बातें कर रही थी. समंदर के किनारे फर्राटे से दौड़ती मोटरसाइकिल पर बैठ कर तनु स्वयं को किसी अन्य दुनिया में महसूस कर रही थी.

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नई रोशनी की एक किरण- भाग 2: सबा की जिंदगी क्यों गुनाह बनकर रह गई थी

सबा उस मामूली से सजे कमरे में दुलहन बनी बैठी थी. उस की ननदें और उस की सहेलियां कुछ देर उस के पास बैठी बचकाने मजाक करती रहीं, फिर भाई को भेजने का कह कर उसे तनहा छोड़ गईं. काफी देर बाद उस की जिंदगी का वह लमहा आया जिस का लड़कियां बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हैं. नईम हाथ में मोबाइल लिए अंदर दाखिल हुआ और उस के पास बैठ गया, उस का घूंघट उठा कर कोई खूबसूरत या नाजुक बात कहने के बजाय वह, उसे मोबाइल से अपने दोस्तों के बेहूदा मैसेज पढ़ कर सुनाने लगा जो खासतौर पर उस के दोस्तों ने उसे इस रात के लिए भेजे थे. सबा सिर झुकाए सुनती रही. उस का दिल भर आया. वह खूबसूरत रात बिना किसी अनोखे एहसास, प्यार के जज्बात के गुजर गई.

सुबह नाश्ते में पूरियां, हलवा, फ्राइड चिकन देख उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं सुबहसुबह इतना भारी नाश्ता नहीं कर सकती.’’

‘‘ठीक है, न खाओ,’’ नईम ने लापरवाही से कहा, फिर उस के लिए ब्रैडदूध मंगवा दिया, न कोई मनुहार न इसरार.

फिर जिंदगी एक इम्तिहान की तरह शुरू हो गई. सबा अभी अपनेआप को इस बदले माहौल में व्यवस्थित करती, उस से पहले ही सब के व्यवहार बदलने लगे. सास की तीखी बातें, ननदों के बातबात पर पढे़लिखे होने के ताने. जैसे उसे नीचा दिखाने की होड़ शुरू हो गई. उस का व्यवहारकुशल और पढ़ालिखा होना जैसे एक गुनाह बन गया. सबा इसे झेल नहीं पा रही थी इसलिए उस ने खामोशी ओढ़ ली. धीरेधीरे सब से कटने लगी. उन लोगों की बातों में भी या तो किसी की बुराई होती या मजाक उड़ाया जाता, वह अपने कमरे तक सीमित हो गई.

नईम का नरम और बचकाना रवैया उसे खड़े होने के लिए जमीन देता रहा. इतना भी काफी था. जब वह स्टोर से आता मांबहनों के पास एकडेढ़ घंटे बैठता, तीनों उस की शिकायतों के दफ्तर खोल देतीं. हर काम में बुराई का एक पहलू मिल जाता, खाने में कम तेल डालना, छोटी रोटियां बनाना कंजूसी गिना जाता, साफसफाई की बात पर मौडर्न होने का इलजाम, चमकदमक के रेशमी कपड़े न पहनने पर फैशन की दुहाई, ये सब सुन उस का मन कसैला हो जाता.

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नईम पर कुछ देर इन शिकायतों का असर रहता फिर वह सबा से अच्छे से बात करता. क्योंकि यह उसी की ख्वाहिश थी कि उसे पढ़ीलिखी बीवी मिले और वह अपने दोस्तों पर उस की धाक जमा सके पर सबा को एक शोपीस बन कर नईम के दोस्तों के यहां जाना जरा भी अच्छा नहीं लगता था.

नौकरी तो वह छोड़ ही चुकी थी. एक तो स्कूल ससुराल से बहुत दूर था, दूसरे, शादी की एक शर्त नौकरी छोड़ना भी थी. अपना काम पूरा कर अपने कमरे में किताबें पढ़ती रहती. कानून की डिगरी लेना उस के सपनों में से एक था पर हालात ने इजाजत न दी, न ही वक्त मिला. अब वह अपने खाली टाइम में कानून की किताबें पढ़ अपना यह शौक पूरा करती. वह एक समझदार बेटी, एक परफैक्ट टीचर, एक संपूर्ण औरत तो थी पर मनचाही बहू नहीं बन पा रही थी.

कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि नईम कुछ उलझाउलझा और परेशान है. न पहले की तरह दिनभर के हालात उसे सुनाता है न बातबेबात कहकहे लगाता है. अम्मी व बहनों की बातों का भी बस हूंहां में जवाब देता है. पहले की शोखी, वह बचपना एकदम खत्म हो गया था. उस रात सबा की आंख खुली तो देखा नईम जाग रहा है, बेचैनी से करवटें बदल रहा है. सबा ने एक फैसला कर लिया, वह उठ कर बैठ गई और बहुत प्यार से पूछा, ‘‘नईम, मैं कई दिनों से देख रही हूं, आप परेशान हैं. बात भी ठीक से नहीं करते, क्या परेशानी है?’’

नईम ने टालते हुए कहा, ‘‘नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं, स्टोर की कुछ उलझनें हैं.’’

सबा ने उस के बाल संवारते हुए कहा, ‘‘नईम, हम दोनों ‘शरीकेहयात’ हैं यानी जिंदगी के साथी. आप की परेशानी और दुख मेरे हैं, उन्हें बांटना और सुलझाना मेरा भी फर्ज है, हो सकता है कोई हल हमें, मिल कर सोचने से मिल जाए. आप खुल कर मुझे पूरी बात बताइए.’’

‘‘सबा, मैं एक मुश्किल में फंस गया हूं. एक दिन एक सेल्सटैक्स अफसर मेरे स्टोर पर आया. ढेर सारा सामान लिया. जब मैं ने पैसे लेने के लिए बिल बना कर दिया तो वह एकदम गुस्से में आ गया. कहने लगा, ‘तुम जानते हो मैं कौन हूं, क्या हूं? और तुम मुझ से पैसे मांग रहे हो?’

‘‘मैं ने विनम्र हो कर कहा, ‘साहब, काफी बड़ा बिल है, मैं खुद सामान खरीद कर लाता हूं.’

‘‘इतना सुनते ही वह बिफर उठा, ‘मैं देख लूंगा तुम्हें, स्टोर चलाने की अक्ल आ जाएगी. तुम मेरी ताकत से नावाकिफ हो. ऐसे तुम्हें फसाऊंगा कि तुम्हारी सारी अकड़ धरी की धरी रह जाएगी.’ और सामान पटक कर स्टोर से निकल गया. उस के बाद उस का एक जूनियर आ कर सारे खातों की पूछताछ कर के गया और धमकी दे गया कि जल्द ही पूरी तरह चैकिंग होगी और एक नोटिस भी पकड़ा गया. इतना लंबा नोटिस अंगरेजी में है, पता नहीं कौनकौन से नियम और धाराएं लिखी हैं. तुम तो जानती हो मेरी अंगरेजी बस कामचलाऊ है, हिसाबकिताब का ज्यादा काम तो मुंशी चाचा देखते हैं.’’

सबा ने सुकून से सारी बात सुनी और तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल परेशान न हों, जब आप कोई गलत काम नहीं करते हैं तो आप को घबराने की जरा भी जरूरत नहीं है. अगर खातों में कुछ कमियां या लेजर्स नौर्म्स के हिसाब से नहीं हैं तो वह सब हो जाएगा. आप सारे खाते और नोटिस, नौर्म्सरूल्स सब घर ले आइए, मैं इत्मीनान से बैठ कर सब चैक कर लूंगी या आप मुझे स्टोर पर ले चलिए, पीछे के कमरे में बैठ कर मैं और मुंशी चाचा एक बार पूरे खाते और हिसाब नियमानुसार चैक कर लेंगे. अगर कहीं कोई कमी है तो उस का भी हल निकाल लेंगे, आप हौसला रखें.’’

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सबा की विश्वास से भरी बातें सुन कर नईम को राहत मिली. उस के होंठों की खोई मुसकराहट लौट आई.

दूसरे दिन एक अलग तरह की सुबह हुई. सबा भी नईम के साथ जाने को तैयार थी. यह देख अम्मी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘हमारे यहां औरतें सुबहसवेरे शौहर के साथ सैर करने नहीं जाती हैं.’’

नईम अम्मी का हाथ पकड़ कर उन्हें उन के कमरे में ले गया और उस पर पड़ने वाली विपदा को इस अंदाज में समझाया कि अम्मी का दिल दहल गया. वे चुप थीं, कमरे में बैठी रहीं. सबा नईम के साथ चली गई. बात इतनी परेशान किए थी कि अम्मी का सारा तनतना झाग की तरह बैठ गया.

सबा के लिए यह कड़े इम्तिहान की घड़ी थी. यही एक मौका उसे मिला था कि अपनी तालीम का सही इस्तेमाल कर सकती थी. उस ने युद्धस्तर पर काम शुरू कर दिया. एक तो वह सहनशील थी दूसरे, बीएससी में उस के पास मैथ्स था, और जनरलनौलेज व कानूनी जानकारी भी अच्छीखासी थी.

पहले तो उस ने नोटिस ध्यान से पढ़ा, फिर एकएक एतराज और इलजाम का जवाब तैयार करना शुरू किया. मुंशीजी ईमानदार व मेहनती थे पर इतने ज्यादा पढ़े न थे लेकिन सबा के साथ मिल कर उन्होंने सारे सवालों के सटीक व नौर्म्स पर आधारित, सही उत्तर तैयार कर लिए. शाम तक यह काम पूरा कर उस ने नोटिस का टू द पौइंट जवाब भिजवा दिया.

एक बोझ तो सिर से उतरा. अब उन्हें बिलबुक के अनुसार सारे खाते चैक करने थे कि कहीं भी छोटी सी भूल या कमी न मिल सके. एक जगह बिलबुक में एंट्री थी पर लेजर में नहीं लिखा गया था. नईम ने उस बिल पर माल भेजने वाली पार्टी से बातचीत की तो खुलासा हुआ कि माल भेजा गया था पर मांग के मुताबिक न होने की वजह से वापस कर के दूसरे माल की डिमांड की गई थी जो जल्द ही आने वाला था. सबा ने उस के लिए जरूरी कागजात तैयार कर लिए. पार्टी कंसर्न से जरूरी कागजात पर साइन करवा के रख लिए.

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3 दिन की जीतोड़ मेहनत के बाद नईम और सबा ने चैन की सांस ली. अब कभी भी चैकिंग हो जाए, कोई परेशानी की बात नहीं थी. शाम 4 बजे जब सबा घर वापस जाने की तैयारी कर रही थी उसी वक्त सेल्सटैक्स अफसर अपने 2 बंदों के साथ आ गया. आते ही उस ने नईम और मुंशीजी से बदतमीजी से बात शुरू कर दी.

द चिकन स्टोरी- भाग 3: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

‘‘तुम ही चल कर एक बार पिताजी को सम?ा लो,’’ उस ने मेरी बात को अनसुनी करते हुए कहा.

‘‘अरे नहीं रे बाबा.’’ गोलगप्पा मेरे मुंह से बाहर निकलतेनिकलते बचा. मैं तो आज तक भी उन के सामने आने से घबराता हूं. याद है, कैसे तुम ने मु?ो फंसवा दिया था. अब तुम दोनों ही कुछ रास्ता निकालो, मैं ने साफ इनकार  कर दिया.

पिताजी और उपकार दोनों ही ?ाकने के लिए तैयार नहीं थे. फिर कुछ दिनों बाद उपकार को एक मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए एक हफ्ते के लिए अमेरिका जाना पड़ा. अभी वह अमेरिका पहुंचा भी नहीं था कि उस के पिताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई. रातभर बेचारे दर्द से तड़पते रहे. अगले दिन जब खाना बनाने वाली आंटी आईं तो उन्होंने ?ाट से अस्पताल से एंबुलैंस मंगवा कर उन को एडमिट कराया. उन्होंने उपकार को फोन कर के सूचित किया. उपकार के लिए इतनी जल्दी वापस आना लगभग असंभव था. किसी भी सूरत में वह दोतीन दिनों से पहले वापस नहीं आ सकता था. उस ने मु?ो फोन करने की कोशिश की, लेकिन मेरा फोन खराब होने की वजह से मु?ा से बात नहीं हो पाई. तब उस ने नयना को फोन किया तो वह तुरंत पिताजी के पास अस्पताल पहुंच गई.

अंकलजी की हालत में अब काफी सुधार था. नयना 2 दिनों तक उन के पास अस्पताल में ही रही. नयना ने उपकार को फोन कर के वापस आने से मना कर दिया कि अब अंकल की तबीयत बिलकुल सही है और वह अपना काम खत्म कर के ही लौटे.

फिर वह उन को अस्पताल से घर ले आई और उन की खूब सेवा की.

‘‘तुम पाठक साहब की बेटी हो न. पाठक साहब तो काशी गए हुए हैं. तुम दिल्ली से कब आईं. सौरी, तुम को मेरे लिए इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है.’’ उपकार के पिताजी नयना को पाठक साहब की बेटी सम?ा रहे थे. शहर में पाठक साहब ही उन के एकमात्र मित्र थे, इसलिए उन को लगा शायद नयना पाठक साहब की बेटी है.

‘‘मैं आप की बेटी हूं और मु?ो आप की सेवा करने में कोई कष्ट नहीं है. और आप को डाक्टर ने ज्यादा बोलने के लिए मना किया है, इसलिए आप ज्यादा बात न करें,’’ नयना ने उन को दवाई देते हुए कहा.

‘कितनी सुशील और संस्कारी लड़की है. काश, उपकार इस से शादी के लिए तैयार हो जाए.’ नयना को अपनी सेवा करते देख अंकलजी ने मन ही मन सोचा.

उपकार रोज ही अंकलजी से फोन पर बात करता. अंकलजी ने उस को बिलकुल भी चिंता नहीं करने की बात कही.

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नयना ने मु?ो फोन कर के अंकलजी के बारे में बता दिया था, तो मैं उन से मिलने आया. नयना ने मु?ो मना किया था कि मैं उस के बारे में अंकलजी को कुछ न बताऊं. अंकलजी की तबीयत अब काफी अच्छी थी. उपकार 2 दिनों बाद वापस आने वाला था.

‘‘बेटा, तुम तो उपकार के सब से अच्छे दोस्त हो. उस को सम?ाओ कि वह इस लड़की से शादी के लिए तैयार हो जाए. इस से अच्छी लड़की उस को कहां मिलेगी. पता नहीं, वह किस लड़की से शादी करने की जिद पकड़े बैठा है.’’ अंकलजी ने यह मु?ा से धीरे से कहा.

अब मैं अंकलजी से क्या कहता. चुपचाप चाय पी कर वहां से चला आया.

फिर जिस दिन उपकार को वापस आना था, नयना वापस अपने घर आ गई. उपकार के आने से पहले ही पाठक साहब काशी से वापस आ गए थे.

‘‘अरे पंडितजी, यह क्या हाल बना लिया. मैं तो मिठाई लाया था अपनी पारुल का रिश्ता काशी में कर दिया है.  अब जल्दी से ठीक हो जाइए, शादी अगले महीने ही है,’’ पाठक साहब अंकलजी के पास बैठते हुए बोले.

‘‘अरे बिटिया की शादी तय भी कर आए इतनी जल्दी.’’ पाठक साहब की बेटी की शादी की बात सुन अंकलजी बिलकुल निराश हो गए.

‘‘जी, बस, सबकुछ जल्दी ही तय हो गया. एक छोटे से समारोह में पारुल और शैलेश की सगाई भी कर दी है,’’ पाठक साहब ने अंकलजी को बताया.

‘‘सगाई भी हो गई, लेकिन बिटिया तो यहीं थी, फिर कैसे?’’ अंकलजी हैरानी से बोले.

‘‘नहीं, पारुल तो हमारे साथ काशी में ही थी. वह दिल्ली से वहीं आ गई थी,’’ पाठक साहब ने कहा तो अंकलजी सोच में पड़ गए कि अगर पारुल काशी में थी तो उन के साथ इतने दिनों तक कौन थी.

फिर शाम तक उपकार भी वापस आ गया. अंकलजी ने उपकार से पूछा कि आखिर इतने दिनों तक उन की सेवा करने वाली लड़की कौन थी.

‘‘मेरे एक दोस्त की बहन थी,’’ उपकार ने छोटा सा जवाब दिया, ‘‘कल से आप की देखभाल के लिए एक नर्स आ रही है. आप जल्दी से अच्छे हो जाइए, तो मैं आप को प्रयाग ले कर चलूंगा,’’ उपकार ने मुसकरा कर अंकलजी से कहा.

‘‘मेरी एक बात मान ले बेटा, नर्स की जगह तू उसी लड़की को इस घर में ले आ मेरी बहू बना कर,’’ अंकलजी ने उपकार का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा.

‘‘मैं तो कब का माना हुआ हूं, आप ही नहीं मान रहे,’’ उपकार ने हताशाभरी मुसकान से कहा, तो अंकलजी को मानो एक ?ाटका सा लगा.

‘‘तो क्या यह वही लड़की है जिस से तुम शादी करना चाहते हो,’’ अंकलजी ने बड़ी हैरत से कहा.

‘‘जी बाबूजी, लेकिन अब नहीं. मेरे लिए वह आप से बढ़ कर नहीं है. आप को यह शादी मंजूर नहीं है, तो फिर यह शादी नहीं होगी,’’ उपकार अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए बोला और फिर वहां से चला गया. लेकिन अंकलजी विचलित हो गए.

रातभर अंकलजी सही से सो नहीं पाए. बारबार उन्हें नयना की सेवा और उपकार की आंखों में आंसू याद आते रहे. एक तरफ उन का धर्म था, तो दूसरी तरफ बेटे की खुशियां. वे किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे. फिर सुबह होतेहोते उन्होंने एक फैसला कर लिया.

‘‘अगर तुम मु?ो इतना ही मान देते हो तो जहां मैं कहूं वहां शादी करोगे,’’ अंकलजी ने चाय पीते हुए उपकार से कहा.

‘‘जैसा आप कहें पिताजी,’’ उपकार ने हार मानते हुए कहा.

‘‘तो फिर नयना को बोलो जल्दी से मेरी बहू बन कर इस घर में आ जाए,’’ अंकलजी ने मुसकरा कर कहा तो उपकार को विश्वास ही नहीं हुआ.

‘‘पिताजी, क्या आप सच कह रहे हैं?’’ उपकार की बांछें खिल गईं.

‘‘हां, अभी के अभी उस को यहां बुलाओ. 2 दिनों से उस को नहीं देखा, तो कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा,’’ अंकलजी उपकार की खुशी देख कर खुद भी बहुत खुश थे.

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उपकार ने ?ाट से नयना को फोन कर के घर बुला लिया.

‘‘बेटी, क्या तुम इस घर की बहू बनोगी,’’ अंकलजी ने आते ही नयना से कहा, तो नयना आंखों में आंसू लिए उन के गले लग गई.

‘‘नालायक, तू ने भी मु?ा को नहीं बताया,’’ कुछ दिनों बाद दोनों की सगाई के मौके पर अंकलजी ने मेरे कान खींचते हुए कहा.

फिर उपकार और नयना दोनों ने एकदूसरे को सगाई की अंगूठी पहनाई.

‘‘आज मैं अगर तुम से कुछ मांगूं, तो दोगे,’’ नयना ने उपकार से मेरी मौजूदगी में कहा.

‘‘जी बोलिए, आज आप जो कहेंगी, मैं वह करूंगा,’’ उपकार ने हंसते हुए कहा.

‘‘तो आज से आप और मैं पूर्ण शाकाहारी होंगे. हम पिताजी के लिए इतना तो कर सकते हैं न,’’ नयना ने गंभीरता से कहा तो ह्यमु?ो अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ.

‘‘जो हुक्म मल्लिका का.’’ चिकन छोड़ने के खयाल से उपकार का मुंह लटक तो गया लेकिन फिर उस ने नयना से नाटकीय अंदाज में ?ाकते हुए यह कहा, तो हम सब हंस पड़े. हम ने ध्यान भी नहीं दिया कि हमारे पीछे अंकलजी हमारी बातें सुन कर अपनी आंखों में आए पानी को साफ कर रहे थे.

सच्चा प्यार- भाग 2: जब उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

Writer- Girija Zinna

मैं ने तुरंत उस आवाज को पहचान लिया. हां वह और कोई नहीं शेखर ही था.

‘‘कैसी हैं आप? उम्मीद है आप मुझे याद करती हैं?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कोई आप को भूल सकता है क्या? बताइए, क्या हालचाल हैं? कैसे याद किया मुझे आप ने अपनी इतनी सारी गर्लफ्रैंड्स में?’’

‘‘आप के ऊपर एक इलजाम है और उस के लिए जो सजा मैं दूंगा वह आप को माननी पड़ेगी. मंजूर है?’’ उस की आवाज में शरारत उमड़ रही थी.

‘‘इलजाम? मैं ने ऐसी क्या गलती की जो सजा के लायक है… आप ही बताइए,’’ मैं भी हंस कर बोली.

शेखर ने कहा, ‘‘पिछले 1 हफ्ते से न मैं ठीक से खा पाया हूं और न ही सो पाया… मेरी आंखों के सामने सिर्फ आप का ही चेहरा दिखाई देता है… मेरी इस बेकरारी का कारण आप हैं, इसलिए आप को दोषी ठहरा कर आप को सजा सुना रहा हूं… सुनेंगी आप?’’

‘‘हां, बोलिए क्या सजा है मेरी?’’

‘‘आप को इस शनिवार मेरे फ्लैट पर मेरा मेहमान बन कर आना होगा और पूरा दिन मेरे साथ बिताना होगा… मंजूर है आप को?’’

‘‘जी, मंजूर है,’’ कह मैं भी खूब हंसी.

उस शनिवार मुझे अपने फ्लैट में ले जाने के लिए खुद शेखर आया. मेरी खूब खातिरदारी की. एक लड़की को अति महत्त्वपूर्ण महसूस कैसे करवाना है यह बात हर मर्द को शेखर से सीखनी चाहिए. शाम को जब वह मुझे होस्टल छोड़ने आया तब हम दोनों को एहसास हुआ कि हम एकदूसरे को सदियों से जानते… यही शेखर की खूबी थी.

उस के बाद अगले 6 महीने हर शनिवार मैं उस के फ्लैट पर जाती और फिर रविवार को ही लौटती. हम दोनों एकदूसरे के बहुत करीब हो गए थे. मगर मैं एक विषय में बहुत ही स्पष्ट थी. मुझे मालूम था कि हम दोनों भारत से हैं. इस के अलावा हमारे बीच कुछ भी मिलताजुलता नहीं. हमारी बिरादरी अलग थी. हमारी आर्थिक स्थिति भी बिलकुल भिन्न थी, जो बड़ी दीवार बन कर हम दोनों के बीच खड़ी रहती थी.

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शुरू से ही जब मैं ने इस रिश्ते में अपनेआप को जोड़ा उसी वक्त से मेरे मन में कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे मालूम था कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मगर जो समय मैं ने शेखर के साथ व्यतीत किया वह मेरे लिए अनमोल था और मैं उसे खोना नहीं चाहती थी. इसलिए मुझे हैरानी नहीं हुई जब शेखर ने बड़ी ही सरलता से मुझे अपनी शादी का निमंत्रण दिया, क्योंकि उस रिश्ते से मुझे यही उम्मीद थी. अगले हफ्ते ही वह भारत चला गया और उस के बाद हम कभी नहीं मिले. कभीकभी उस की याद मुझे आती थी, मगर मैं उस के बारे में सोच कर परेशान नहीं होती थी. मेरे लिए शेखर एक खत्म हुए किस्से के अलावा कुछ नहीं था.

शेखर के चले जाने के बाद मैं 1 साल के लिए अमेरिका में ही रही. इस दौरान मेरी मां भी अपनी अध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त हो चुकी थीं. उन्हें अमेरिका आना पसंद नहीं था, क्योंकि वहां का सर्दी का मौसम उन के लिए अच्छा नहीं था. इसलिए मैं अपनी पीएच.डी. खत्म कर के भारत लौट आई.

अमेरिका में जो पैसे मैं ने जमा किए और मेरी मां के पीएफ से मिले उन से मुंबई में 2 बैडरूम वाला फ्लैट खरीद लिया. बाद में मुझे क्व30 हजार मासिक वेतन पर एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

मेरे मुंबई लौटने के बाद मेरी मां मेरी शादी करवाना चाहती थीं. उन्हें डर था कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो मैं इस दुनिया में अकेली हो जाऊंगी. मगर शादी इतनी आसान नहीं थी. शादी के बाजार में हर दूल्हे के लिए एक तय रेट होता था. हमारे पास मेरी तनख्वाह के अलावा कुछ भी नहीं था. ऊपर से मेरी मां का बोझ उठाने के लिए लड़के वाले तैयार नहीं थे.

जब मैं अमेरिका से मुंबई आई थी तब मेरी उम्र 25 साल थी. शादी के लिए सही उम्र थी. मैं भी एक सुंदर सा राजकुमार जो मेरा हाथ थामेगा उसी के सपने देखती रही. सपने को हकीकत में बदलना संभव नहीं हुआ. दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में और महीने सालों में बदलते हुए 3 साल निकल गए.

मेरी जिंदगी में दोबारा एक आदमी का प्रवेश हुआ. उस का नाम ललित था. वह भी अंगरेजी का लैक्चरर था. मगर उस ने पीएचडी नहीं की थी. सिर्फ एमफिल किया था. पहली मुलाकात में ही मुझे मालूम हो गया कि वह भी मेरी तरह मध्यवर्गीय परिवार का है और उस की एक मां और बहन है. उस ने कहा कि उस के पिता कई साल पहले इस दुनिया से जा चुके हैं और मां और बहन दोनों की जिम्मेदारी उसी पर है.

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पहले कुछ महीने हमारे बीच दोस्ती थी. हमारे कालेज के पास एक अच्छा कैफे था. हम दोनों रोज वहां कौफी पीने जाते. इसी दौरान एक दिन उस ने मुझे अपने घर बुलाया. वह एक छोटे से फ्लैट में रहता था. उस की मां ने मेरी खूब खातिरदारी की और उस की बहन जो कालेज में पढ़ती थी वह भी मेरे से बड़ी इज्जत से पेश आई.

इसी दौरान एक दिन ललित ने मुझ से कहा, ‘‘उर्मी, क्या आप मेरे साथ कौफी पीने के लिए आएंगी?’’

उस का इस तरह पूछना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा, मगर फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘कोई खास बात है जो मुझे कौफी पीने को बुला रहे हो?’’

उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, बस ऐसा ही समझ लीजिए.’’

शाम कालेज खत्म होने के बाद हम दोनों कौफी शौप में गए और एक कोने में जा कर बैठ गए. मैं ने उस के चेहरे को देख कर कहा, ‘‘हां, बोलो ललित क्या बात करनी है मुझ से?’’

कहीं किसी रोज- भाग 1: आखिर जोया से विमल क्या छिपा रहा था?

स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.

कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.

विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘

विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.

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स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘

विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘

‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘

‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.

‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘

विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘

विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘

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‘‘जोया.‘‘

‘‘आगे?‘‘

‘‘आगे क्या?‘‘

‘‘मतलब, सरनेम?‘‘

‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘

विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.

‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.

लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

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शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

तलाक के बाद- भाग 1: जब सुमिता को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

Writer- Vinita Rahurikar

3 दिनों की लंबी छुट्टियां सुमिता को 3 युगों के समान लग रही थीं. पहला दिन घर के कामकाज में निकल गया. दूसरा दिन आराम करने और घर के लिए जरूरी सामान खरीदने में बीत गया. लेकिन आज सुबह से ही सुमिता को बड़ा खालीपन लग रहा था. खालीपन तो वह कई महीनों से महसूस करती आ रही थी, लेकिन आज तो सुबह से ही वह खासी बोरियत महसूस कर रही थी.

बाई खाना बना कर जा चुकी थी. सुबह के 11 ही बजे थे. सुमिता का नहानाधोना, नाश्ता भी हो चुका था. झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने वाली बाइयां भी अपनाअपना काम कर के जा चुकी थीं. यानी अब दिन भर न किसी का आना या जाना नहीं होना था.

टीवी से भी बोर हो कर सुमिता ने टीवी बंद कर दिया और फोन हाथ में ले कर उस ने थोड़ी देर बातें करने के इरादे से अपनी सहेली आनंदी को फोन लगाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से आनंदी का स्वर सुनाई दिया.

‘‘हैलो आनंदी, मैं सुमिता बोल रही हूं, कैसी है, क्या चल रहा है?’’ सुमिता ने बड़े उत्साह से कहा.

‘‘ओह,’’ आनंदी का स्वर जैसे तिक्त हो गया सुमिता की आवाज सुन कर, ‘‘ठीक हूं, बस घर के काम कर रही हूं. खाना, नाश्ता और बच्चे और क्या. तू बता.’’

‘‘कुछ नहीं यार, बोर हो रही थी तो सोचा तुझ से बात कर लूं. चल न, दोपहर में पिक्चर देखने चलते हैं,’’ सुमिता उत्साह से बोली.

‘‘नहीं यार, आज रिंकू की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं नहीं जा पाऊंगी. चल अच्छा, फोन रखती हूं. मैं घर में ढेर सारे काम हैं. पिक्चर देखने का मन तो मेरा भी कर रहा है पर क्या करूं, पति और बच्चों के ढेर सारे काम और फरमाइशें होती हैं,’’ कह कर आनंदी ने फोन रख दिया.

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सुमिता से उस ने और कुछ नहीं कहा, लेकिन फोन डिस्कनैक्ट होने से पहले सुमिता ने आनंदी की वह बात स्पष्ट रूप से सुन ली थी, जो उस ने शायद अपने पति से बोली होगी. ‘इस सुमिता के पास घरगृहस्थी का कोई काम तो है नहीं, दूसरों को भी अपनी तरह फुरसतिया समझती है,’ बोलते समय स्वर की खीज साफ महसूस हो रही थी.

फिर शिल्पा का भी वही रवैया. उस के बाद रश्मि का भी.

यानी सुमिता से बात करने के लिए न तो किसी के भी पास फुरसत है और न ही दिलचस्पी.

सब की सब आजकल उस से कतराने लगी हैं. जबकि ये तीनों तो किसी जमाने में उस के सब से करीब हुआ करती थीं. एक गहरी सांस भर कर सुमिता ने फोन टेबल पर रख दिया. अब किसी और को फोन करने की उस की इच्छा ही नहीं रही. वह उठ कर गैलरी में आ गई. नीचे की लौन में बिल्डिंग के बच्चे खेल रहे थे. न जाने क्यों उस के मन में एक हूक सी उठी और आंखें भर आईं. किसी के शब्द कानों में गूंजने लगे थे.

‘तुम भी अपने मातापिता की इकलौती संतान हो सुमि और मैं भी. हम दोनों ही अकेलेपन का दर्द समझते हैं. इसलिए मैं ने तय किया है कि हम ढेर सारे बच्चे पैदा करेंगे, ताकि हमारे बच्चों को कभी अकेलापन महसूस न हो,’ समीर हंसते हुए अकसर सुमिता को छेड़ता रहता था.

बच्चों को अकेलापन का दर्द महसूस न हो की चिंता करने वाले समीर की खुद की ही जिंदगी को अकेला कर के सूनेपन की गर्त में धकेल आई थी सुमिता. लेकिन तब कहां सब सोच पाई थी वह कि एक दिन खुद इतनी अकेली हो कर रह जाएगी.

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कितना गिड़गिड़ाया था समीर. आखिर तक कितनी विनती की थी उस ने, ‘प्लीज सुमि, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दो. मैं मानता हूं मुझ से गलतियां हो गईं, लेकिन मुझे एक मौका तो दे दो, एक आखिरी मौका. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें अब से शिकायत का कोई मौका न मिले.’

समीर बारबार अपनी गलतियों की माफी मांग रहा था. उन गलतियों की, जो वास्तव में गलतियां थीं ही नहीं. छोटीछोटी अपेक्षाएं, छोटीछोटी इच्छाएं थीं, जो एक पति सहज रूप से अपनी पत्नी से करता है. जैसे, उस की शर्ट का बटन लगा दिया जाए, बुखार से तपते और दुखते उस के माथे को पत्नी प्यार से सहला दे, कभी मन होने पर उस की पसंद की कोई चीज बना कर खिला दे वगैरह.

द चिकन स्टोरी- भाग 2: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

अभी मेरी सांस में सांस वापस आई भी नहीं थी कि अंदर से अंकलजी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी. ‘‘यह राक्षस फिर आ गया इस घर में.’’ अब तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. मु?ो लगा, अंकलजी को शायद पता चल गया. मैं तो उठ कर भागने ही वाला था कि अंदर से एक थैली उड़ती हुई आई और बाहर आंगन में आ कर गिरी. उस में से ढेर सारा प्याज निकल कर चारों तरफ फैल गया.

‘‘तु?ो कितनी बार मना किया है लहसुनप्याज खाने को, सुनता क्यों नहीं,’’ अंकलजी आग्नेय नेत्रों से उपकार को घूरते हुए बोले. अंकलजी को देख कर मु?ो घिग्गी बंध गई, लगा कि आज हम दोनों भस्म हुए ही हुए.

उपकार मुंह नीचे किए चुपचाप बैठा था. मु?ो काटो तो खून नहीं. और अंकलजी बड़बड़ाते हुए घर से बाहर चले गए.

मैं ने तुरंत टेबल के नीचे से डब्बा निकाला और बाहर की तरफ जाने लगा.

‘‘यह डब्बा तो छोड़ता जा, कल ले जाना,’’ उपकार की दबीदबी सी आवाज आई.

‘‘इतना सुनने के बाद तु?ो अभी भी चिकन खाना है,’’ मैं हैरत में डूबा हुआ उपकार को देख रहा था.

जवाब में उपकार ने मेरे हाथ से डब्बा ले लिया. उसी समय अंकलजी वापस आए और मैं उन को नमस्ते कर के घर से निकल गया.

पूरे एक हफ्ते तक मैं ने उपकार के घर की तरफ रुख न किया. पूरे एक साल तक मैं ने चिकन को हाथ भी नहीं लगाया. घर वाले हैरान थे कि मु?ो क्या हो गया. कहां मैं इतने शौक से चिकन खाता था और कहां मैं चिकन की तरफ देखता भी नहीं.

मैं अकसर उपकार को सम?ाता कि एक ब्राह्मण के लिए मांसाहार उचित नहीं है. साथ ही, उस को अपने पिताजी की भावनाओं का सम्मान करते हुए लहसुनप्याज भी नहीं खानी चाहिए. लेकिन, उस पर कोई असर हो तब न. उलटे, उस को तो मेरे घर का चिकन इतना अच्छा लगा कि कभी भी मेरे घर आ जाता और मां से चिकन बनवाने की फरमाइश कर बैठता. छोटी बहन नयना तो चिकन बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती थी.

मां कहती थी, ऐसा स्वादिष्ठ चिकन पूरे महल्ले में कोई नहीं बनाता था. पता नहीं मां ऐसा, बस, अपनी बेटी के मोह में कहती थी या सचमुच नयना सब से अच्छा चिकन बनाती थी. हमें तो महल्ले की किसी कन्या के हाथ का बना चिकन खाने का मौका मिला नहीं था, इसलिए नयना का बनाया चिकन ही हमारे लिए सब से अच्छा था.

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यों ही समय कटता चला गया और फिर हमारी ग्रेजुएशन पूरी हो गई. उपकार ने पूरी यूनिवर्सिटी में टौप किया था. मैं भी उस के साथ पढ़पढ़ कर ठीकठाक नंबर से पास हो गया था. उपकार ने तो अपने ही कालेज में एमएससी में ऐडमिशन ले लिया था जबकि मु?ो दिल्ली में एक एक्सपोर्ट कंपनी में नौकरी मिल गई. महीने में एक बार ही मैं घर आ पाता. उपकार मु?ा से मिलने आ जाता और फिर चिकन खा कर ही जाता.

देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उपकार को अपने ही कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई. बधाई देने के लिए मैं उस के घर गया, तो उस ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. मु?ो लगा जैसे वह मु?ा से कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा था.

‘‘क्या बात है, कुछ कहना चाह रहे हो?’’ मैं ने उस से पूछ ही लिया.

‘‘हां, नहीं… कुछ नहीं.’’ मेरे पूछने पर वह थोड़ा हड़बड़ा गया.

‘‘कालेज में सब ठीक तो है?’’ मु?ो लगा शायद उसे नई नौकरी में एडजस्ट करने में कोई दिक्कत हो रही हो.

‘‘कालेज में तो सब ठीक है, असल में, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं, पर डरता हूं कि पता नहीं तुम क्या सोचो,’’ उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई.

‘‘अरे, तो बोल न. अगर कुछ चाहिए तो बता. बस, मु?ा से चिकन लाने को मत बोलना,’’ मैं बोल कर जोर से हंस दिया.

‘‘मैं चिकन नहीं, चिकन वाली को इस घर में लाना चाहता हूं,’’ उपकार ने धीमी सी आवाज में कहा.

‘‘मतलब?’’ मैं सच में कुछ नहीं सम?ा था.

‘‘मैं नयना से शादी करना चाहता हूं, अगर तुम को कोई आपत्ति न हो.’’ आखिर उस ने हिम्मत कर के बोल ही दिया.

‘‘नयना, अपनी नयना.’’ मु?ो उपकार की बात सुन कर एक ?ाटका सा लगा, लेकिन अगले ही पल मु?ो लगा नयना के लिए उपकार से अच्छा लड़का और कहां मिलेगा.

‘‘हां, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं,’’ उपकार ने नजरें नीची किए हुए कहा.

‘‘सच कहूं तो मु?ो तो बहुत खुशी होगी अगर नयना को इतना अच्छा घरपरिवार मिल जाए,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा लेकिन अगले ही पल मेरी आंखों के आगे अंकलजी यानी उपकार के पिताजी का चेहरा घूम गया.

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‘‘लेकिन तुम्हारे पिताजी? वे तो लहसुनप्याज को भी घर में नहीं आने देते, भला एक मांसाहारी, गैरब्राह्मण लड़की को अपनी बहू बनाने के लिए कैसे तैयार होंगे,’’ मैं ने अपनी शंका उपकार के सामने रखी.

‘‘उन की चिंता तुम मत करो. उन को मैं किसी तरह मना ही लूंगा. मु?ो पहले तुम्हारी अनुमति की आवश्यकता थी,’’ उपकार ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘मेरी अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं है. नयना और तुम दोनों सम?ादार हो. मु?ो पूरा विश्वास है तुम दोनों की आपस में खूब बनेगी,’’ मैं एक बड़े भाई की तरह ज्ञान दे रहा था.

फिर घर आ कर मैं ने पहले मां व पिताजी से नयना और उपकार के बारे में बात की. मां तो बहुत प्रसन्न थीं, पिताजी यद्यपि थोड़े सशंकित थे कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार नयना को कैसे अपनी बहू बनाने के लिए तैयार होगा. लेकिन मैं ने उन को विश्वास दिलाया कि शादी उपकार के पिताजी की सहमति के बाद ही होगी.

फिर एक दिन उपकार ने मौका देख कर अपने पिताजी से नयना के बारे में बात की. जब उस ने बताया कि लड़की ब्राह्मण नहीं है तो वे थोड़े निराश हो गए. जानते तो थे ही कि उपकार जातपांत में विश्वास नहीं रखता, इसलिए उन्होंने भी अपने मन को सम?ा लिया.

लेकिन अगले ही पल उन का सवाल था, ‘‘लड़की मांसाहारी तो नहीं है?’’

अब उपकार ठहरा आज के जमाने का महाराजा हरिश्चंद्र, बता दिया सच. सुनते ही पिताजी हत्थे से उखड़ गए.

‘‘लड़की ब्राह्मण नहीं है, मैं यह तो स्वीकार कर सकता हूं, लेकिन एक मांसाहारी लड़की को मैं अपनी बहू स्वीकार नहीं कर सकता,’’ पिताजी अपने रौद्र रूप में आ गए थे.

‘‘आप एक बार उस से मिल तो लीजिए. वह एक बहुत अच्छी लड़की है,’’ उपकार ने पिताजी को मनाने की कोशिश की.

‘‘चाहे वह कितनी भी अच्छी हो और कितनी भी सुंदर हो, मैं तुम्हें उस से शादी की अनुमति नहीं दे सकता,’’ पिताजी ने उपकार से साफसाफ बोल दिया.

‘‘लेकिन मैं उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करूंगा,’’ अब उपकार को भी थोड़ा गुस्सा आने लगा था.

‘‘ठीक है, तो जाओ और कर लो उस से शादी. लेकिन उस से पहले तुम्हें मु?ो और इस घर को त्यागना होगा,’’  उपकार के पिताजी ने हाथ उठा कर उपकार को आगे कुछ भी बोलने से रोक दिया और उठ कर अपने कमरे में चले गए.

यहीं आ कर उपकार अपने को बड़ा असहाय पा रहा था. वह जानता था कि उस के पिताजी ने उस को किस तरह पाला है. मां के देहांत के बाद जब सभी रिश्तेदार उन से दूसरी शादी के लिए कह रहे थे, उन्होंने कहा था कि वे अपना सारा जीवन उपकार के लिए बिता देंगे. उन्होंने कभी भी उपकार को किसी चीज की कमी नहीं होने दी, कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया. लेकिन आज जब उपकार को पसंद की जीवनसाथी का साथ चाहिए था, तो उस के पिताजी किसी भी तरह तैयार नहीं थे.

उपकार ने एकदो बार फिर पिताजी को मनाने की कोशिश की, लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.  बड़ी मुश्किल थी. उधर उपकार, इधर नयना – दोनों दुखी और निराश थे.

‘‘यार, कोई रास्ता तो बताओ पिताजी को मनाने का. वे तो मेरी बात सुनने को ही तैयार नहीं हैं,’’ एक दिन उपकार मु?ा से मिला और बोला.

‘‘यार, मैं ने कहीं पढ़ा था अगर लड़की के पिता को मनाना हो तो एक काले कपड़े पर मिट्टी का पुतला रख कर उस पर लाल धागा बांध कर लालमिर्च और नारियल चढ़ाने से मनोकामना पूरी होती है, लेकिन मु?ो यह नहीं पता कि इस से लड़के के पिता भी मानेंगे या नहीं,’’ मैं ने उस को एक टोटके के बारे में बताया.

‘‘यार, तुम को मजाक सू?ा रही है. यहां मैं टैंशन लेले कर गंजा न हो जाऊं,’’ उपकार ने मु?ो घूरते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा. अब तुम न मानो तो तुम्हारी मरजी,’’ मैं ने सुरेश के मशहूर गोलगप्पे मुंह में डालते हुए कहा

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