आतंकवाद की दुनिया से वापस लौटा माजिद

दुनिया भर में आतंकवाद अपने चरम पर है. आश्चर्य की बात यह है कि आतंकवाद से घिरा पाकिस्तान कुछ आतंकियों की फैक्ट्री है. पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवादी चोरीछिपे सीमा पार आ कर कश्मीर में न केवल आतंक फैलाते हैं, बल्कि स्थानीय युवकों को भड़का कर उन्हें आतंकवादी बनने को प्रेरित करते हैं. कई युवक बहक कर आतंकवादी बन भी जाते हैं. ऐसे ही युवकों में था कश्मीरी युवा माजिद इरशाद खान. गनीमत रही कि आतंकवादियों की तरह उस की अंतरात्मा नहीं मरी थी, जिस की वजह से वह मां की पुकार सुन कर घर लौट आया.

माजिद ने आतंकी संगठन में शामिल होने का इरादा 29 अक्तूबर को एक फेसबुक पोस्ट में किया था. उस ने पोस्ट में लिखा, ‘जब शौक-ए-शहादत हो दिल में, तो सूली से घबराना क्या.’ बताते हैं कि माजिद अपने खास दोस्त यावर निसार शेरगुजरी की वजह से आतंकी बना. यावर जुलाई में एक आतंकवादी संगठन में शामिल हुआ था, लेकिन एक महीने में ही सुरक्षाबलों की गोलियों ने उस के प्राण लील लिए. दोस्त की मौत से माजिद इतना दुखी हुआ कि आतंकी बनने का फैसला कर लिया. ऐसा उस ने किया भी. वह लश्करएतैयबा में शामिल हो गया. लेकिन यह आतंकी संगठन उसे रोक नहीं पाया.

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दरअसल, माजिद की मां, पिता और दोस्तों ने उस से घर लौट आने की अपील की थी. उस की मां ने एक वीडियो में उसे संदेश देते हुए भावुक हो कर कहा था, ‘माजिद बेटे, लौट आओ और हमारी जान ले लो, फिर चले जाना. हमें यहां किस के लिए छोड़ गए हो?’

माजिद के दोस्तों ने उस के मातापिता का हवाला दे कर घर लौट आने को कहा था. माजिद के एक दोस्त ने फेसबुक पर बेहद भावुक पोस्ट डाली, ‘आज मैं ने तुम्हारी मां और अब्बू को देखा. वे पूरी तरह टूट चुके हैं. प्लीज लौट आओ. इस तरह अपनी अम्मी और अब्बू को मत छोड़ो. प्लीज लौट आओ, तुम अपने मांबाप की एकलौती उम्मीद हो. वे तुम्हारा बिछुड़ना नहीं सह पाएंगे. जब मैं ने देखा तब वे रो रहे थे. प्लीज, माजिद उन के लिए लौट आओ. हम सब तुम्हें बहुत प्यार करते हैं.’

दरअसल, 9 नवंबर, 2017 को अचानक माजिद गायब हो गया था. इस के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर उस की एक तसवीर घूमने लगी, जिस में वह हाथों में एके 47 थामे हुआ था. उस के परिवार को भी यह खबर सोशल मीडिया से ही पता चली कि उन के एकलौते बेटे ने फुटबौल छोड़ कर बंदूक थाम ली है. बहरहाल, मांबाप और दोस्तों की भावुक अपील से माजिद का दिल पिघल गया और उस ने 16 नवंबर को सेना के अधिकारियों के सामने सरेंडर कर दिया.

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सेना और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि माजिद से कोई पूछताछ नहीं की जाएगी. उसे मुख्यधारा में लाया जाएगा. इतना ही नहीं, अगर आतंक की राह पर चलने वाले अन्य युवक भी घर लौटना चाहें तो लौट सकते हैं. उन के खिलाफ कोई काररवाई नहीं होगी.

वल्लरी चंद्राकर : एमटेक क्वालीफाई महिला किसान

वल्लरी चंद्राकर ने कंप्यूटर साइंस से एमटेक किया था. इस शिक्षा के बूते पर अच्छी नौकरी भी मिल गई. लेकिन 27 साल की वल्लरी का मन नौकरी में नहीं लगा. उन्होंने नौकरी छोड़ कर खेती करने का निश्चय किया, जो एक महिला के लिए मुश्किल काम था. लेकिन वल्लरी पर खेती का जुनून सवार था. इस की एक वजह यह भी थी कि उन के पिता ने फार्महाउस बनाने के लिए 27 एकड़ जमीन खरीदी थी, जो यूं ही पड़ी थी.

वल्लरी चंद्राकर ने इंटरनेट की मदद से अत्याधुनिक खेती की टेक्नोलौजी सीखी और 2016 में 15 एकड़ जमीन से खेती की शुरुआत की. वह स्वयं ट्रैक्टर चला कर खेत जोतती हैं और मजदूरों की मदद से बीजारोपण से ले कर फसल तैयार होने तक सारे काम करती हैं. खेती के लिए उन्होंने पारंपरिक की जगह हाई टेक्नोलौजी अपनाई थी.

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अब वल्लरी 27 एकड़ में खेती करती हैं और उन्होंने अपनी मेहनत के बूते पर मार्केट में भी अच्छी जगह बना ली है. उन के फार्महाउस में पैदा होने वाली सब्जियां दिल्ली, भोपाल, इंदौर, ओडिसा, नागपुर, बेंगलुरु तक जाती हैं. जल्दी उन के फार्म में लौकी और टमाटर की फसल तैयार होने वाली है, जिसे वह दुबई और इजरायल निर्यात करने की तैयारी कर रही हैं.

शाम 5 बजे वल्लरी के खेतों में काम बंद हो जाता है. इस के बाद वह गांव की लड़कियों के लिए क्लास लगाती हैं, जिस में वह हर रोज 2 घंटे अंगरेजी और कंप्यूटर पढ़ाती हैं ताकि गांव की लड़कियां आत्मनिर्भर बन सकें. उन की इस क्लास में 40 लड़कियां नियमित अध्ययन करती हैं. वल्लरी खेतों में काम करने वाले किसानों के लिए भी वर्कशौप का आयोजन करती हैं, जिस में उन्हें खेती के नए तौरतरीकों के बारे में बताया जाता है. वर्कशौप में किसानों के सुझाव भी लिए जाते हैं.

वल्लरी बताती हैं, ‘शुरुआत में बहुत मुश्किल हुई. नौकरी छोड़ कर खेती करनी शुरू की तो लोगों ने पढ़ीलिखी बेवकूफ कहा. पिछली 3 पीढि़यों से हमारे यहां किसी ने खेतीबाड़ी नहीं की थी. किसान, बाजार और मंडी वालों के साथ डील करना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता था. लोग लड़की समझ कर मेरी बात को गंभीरता से नहीं लेते थे.

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खेतों में काम करने वाले लोगों से बेहतर ढंग से बात करने के लिए छत्तीसगढ़ी बोली सीखी. खेती को और उन्नत बनाने के लिए इंटरनेट से सीखा कि इजरायल, दुबई और थाइलैंड जैसे देशों में किस तरह से खेती की जाती है. मेरे फार्म में पैदा हुई सब्जियों की क्वालिटी देख कर धीरेधीरे खरीदार भी मिलने लगे. अब तक वल्लरी चंद्राकर के खेतों में करेला, खीरा, बरबरी और हरीमिर्च की खेती होती थी. इस बार उन्हें लौकी और टमाटर का और्डर मिला है. इन सब्जियों की फसल जल्दी ही आने वाली है, जिसे वल्लरी दुबई और इजरायल निर्यात करेंगी.

अच्छीभली नौकरी छोड़ कर वल्लरी ने जिस समर्पण भाव से खेती की है, उन्हें सफलता मिलनी ही थी. यूं तो तमाम औरतें खेती का काम करती हैं, लेकिन वल्लरी ने खेती के लिए जो हाईटेक तकनीक अपनाई है, उस ने उन्हें देश भर में मशहूर कर दिया है. वल्लरी का गांव सिरी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 88 किलोमीटर दूर जिला महासमुंद की तहसील बागबाहरा में है. द्य

नींदड़ जमीन समाधि सत्याग्रह हक के लिए जमीन में गडे़ किसान

पूरे देश में 6 साल पहले नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है, इस के बावजूद राजस्थान की राजधानी जयपुर में तरक्की के लिए काम करने वाला जयपुर विकास प्राधिकरण किसानों को नए कानून के तहत मुआवजा देने को तैयार नहीं है.

इसी को ले कर राजधानी जयपुर के बिलकुल पास सीकर रोड पर गांव नींदड़ में नींदड़ आवास योजना के तहत जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा ली गई 1,350 बीघा जमीन पर किसान जमीन समाधि सत्याग्रह करने पर मजबूर हो गए हैं.

गांव नींदड़ में जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा बिना किसानों से बातचीत किए व सूचना दिए अचानक ही जमीन पर कब्जा कर के काम शुरू कर दिया गया. इस के खिलाफ किसान गुस्से में हैं और जमीन समाधि सत्याग्रह चला रहे हैं.

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तकरीबन 2 साल पहले भी सैकड़ों किसान जमीन को ले कर धरना प्रदर्शन कर चुके हैं. किसानों का कहना है कि उन को नए जमीन अधिग्रहण कानून के मुताबिक मुआवजा नहीं मिला है.

जयपुर विकास प्राधिकरण की इस तानाशाही के खिलाफ गांव नींदड़ के किसानों ने डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत की अगुआई में ‘नींदड़ बचाओ युवा किसान संघर्ष समिति’ के कहने पर जमीन समाधि सत्याग्रह शुरू किया.

इस आंदोलन की अगुआई कर रहे डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत का कहना है कि जयपुर विकास प्राधिकरण अपने अडि़यल रवैए पर उतरते हुए 1 जनवरी, 2020 को इस जमीन पर अपना कब्जा लेने के लिए आदेश जारी कर चुका है.

किसानों का कहना है कि नया जमीन अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है, इस के बावजूद सरकार उन को पुराने कानून के मुताबिक मुआवजा देने का गलत काम कर रही है, जिस को किसान स्वीकार नहीं करेंगे.

इसी सिलसिले में नींदड़ आवासीय योजना में किसानों का हाल जानने की कोशिश की गई और यहां पर किसानों की अगुआई कर रहे जमीन समाधि सत्याग्रह में शामिल राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके डाक्टर नगेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत की गई. पेश हैं, उसी के खास अंश:

यहां के हालात कैसे हैं? जयपुर विकास प्राधिकरण के क्या हालात हैं? आप की डिमांड क्या है?

देखिए, यह आंदोलन लगातार पिछले 10 सालों से चल रहा है. जिस दिन जयपुर विकास प्राधिकरण ने नोटिफिकेशन डाला, तब से किसान आंदोलन कर रहे हैं. वे लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर रहे हैं. सरकार के मुख्यमंत्री के पास हम ने अपना पक्ष रखा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.

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जयपुर विकास प्राधिकरण यहां पर आवासीय कालोनी बसाना चाहता है और यहां पर पहले से ही 18 कालोनियां बसी हुई हैं. उन को उजाड़ कर और नए लोगों को बसाने की यह प्रक्रिया है, जिस का हम लोग पूरी तरीके से विरोध कर रहे हैं. यहां के मूल निवासियों को उजाड़ेंगे, नए लोगों को बसाएंगे, यह कहां का इंसाफ है?

जयपुर विकास प्राधिकरण किसान परिवारों की 3,500 करोड़ की जमीन हड़पना चाहता है, जबकि किसान नए कानून के हिसाब से मुआवजा चाहते हैं.

इस से कितने परिवार प्रभावित हुए हैं?

यह 1,350 बीघा जमीन का मामला है. यहां पर हजारों की आबादी है. इस के अलावा किसानों की अपनी खेती की जमीन है और सब से बड़ी बात है कि देश में नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू हो चुका है. पुराने कानून के तहत हम जमीन नहीं देना चाहते हैं.

क्या यहां के स्थानीय विधायक नरपत सिंह राजवी से कोई बात हुई है?

वे पिछले 10 साल से यहां लगातार विधायक हैं. उन को इस बारे में सबकुछ पता है और उन्होंने कितना सहयोग किया है या नहीं, यह किसान भी जानते हैं, और वे खुद भी जानते हैं, पर हमारा तो उन से भी और सरकार से भी निवेदन है कि किसानों की लोकतांत्रिक मांग को देखते हुए और वर्तमान में जो कानून इस देश में लागू है, उस के मुताबिक मुआवजा दिलवाएं, जिस से किसानों के साथ नाइंसाफी न हो.

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राजस्थान सरकार और मुख्यमंत्री से कोई बातचीत हुई या उन की तरफ से कोई मैसेज आया?

मुख्यमंत्री संवेदनशील हैं, वे किसानों के दर्द को समझते हैं और किसानों के प्रति उन्होंने इस देश में बहुत काम किया है. नई सरकार बनने के बाद 5 जनवरी, 2019 को हम ने इस मामले को ले कर उन को ज्ञापन दिया था. हमारे पिछले आंदोलन में भी उन का समर्थन मिला था, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वे किसानों की जायज मांग को समझेंगे.

मर्दों की विरासत को नया नजरिया देती गांव की बिटिया

लेखक- देवांशु तिवारी

हाथ में तलवार, आंखें तिरछी और तेज आवाज में क्या कोई आप के दिल को छू सकता है? कई लोग कहेंगे कि दिल को छूने का तो नहीं पता, पर दिल में छेद जरूर कर सकती है ऐसी शख्सीयत, लेकिन आप को इतना सोचने की जरूरत नहीं है, क्योंकि शीलू यह सबकुछ करती है और लोग उस को इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में एक छोटे से इलाके गुरुबक्शगंज की रहने वाली शीलू सिंह राजपूत एक आल्हा गायिका हैं.

याद रहे कि आल्हा गीत पुराने समय में राजामहाराजाओं के लड़ाई पर जाने से पहले गाया जाता था. इस गीत को केवल मर्द ही गाते थे.

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पर, शीलू तो एक लड़की है, फिर भला वह क्यों गाने लगी वीर रस से भरा मर्दों का यह आल्हा? यही एक सवाल कभी समाज ने उस से पूछा था, जब छोटी सी उम्र में शीलू ने अपने हाथ में पहली बार तलवार थामी थी और आल्हा गाना शुरू किया था.

शीलू रायबरेली जिले के जिस हिस्से से आती है, वह बेहद पिछड़ा हुआ इलाका है. यहां ज्यादातर लड़कियों के हाथों में जिस उम्र में किताबें होनी चाहिए, वे चूल्हे में पड़ी लकडि़यों को जलाने वाली फुंकनी और गोलगोल रोटी बनाने वाला बेलन लिए हुए नजर आ जाएंगी. इन देहाती हालात के बीच शीलू ने अपनी अलग राह खुद चुनी है और इस में सब से बड़ी बात यह रही कि उस के पिता भगवानदीन ने उस का हर कदम पर साथ दिया.

आल्हा गायक लल्लू बाजपेयी का आल्हा सुन कर शीलू बड़ी हुई और आज एक जानीपहचानी आल्हा गायिका बन चुकी है. उस के इस हुनर को आज केवल उस के गांव वाले ही नहीं, बल्कि कई राष्ट्रीय व राजकीय मंच भी सराह चुके हैं. पहले गांव के जो लोग उस को ऐसा करते देख आंखें टेढ़ी कर लिया करते थे, आज वही अपनी लड़कियों को शीलू का आल्हा दिखाने लाते हैं.

शीलू ने आल्हा गायन के साथसाथ हाल ही में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. लेकिन जब भी वह आल्हा गाने मंच पर आती है, तो उस की मासूमियत कहीं ऐसे छिप जाती है मानो दोपहर का चमचमाता सूरज अचानक बदली में कहीं गुम हो जाता है.

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चेहरे पर वही तेज, हाथों में धारदार तलवार और तिरछी आंखें. चारों ओर बैठे लोग उसे इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

लोग कहते हैं कि शीलू जब अपने हाथों में तलवार नचाते हुए आल्हा गाती है, तो मंच पर एक अजीब सा कंपन महसूस होता है और शरीर में अपनेआप रोमांच हो जाता है. उस का आल्हा दिल को ऐसे छू लेता है कि अगले दिन तक वह आवाज कानों में गूंजती रहती है.

शीलू का यह हुनर उस के परिवार को अब हर लमहा गर्व का अहसास कराता है और सीना ठोंक के चुनौती देता है समाज की हर उस रूढि़वादी सोच को, जो औरतों को हमेशा चारदीवारी के अंदर रहने को मजबूर करती है.

तुम रोको, हम तो खेलेंगी फुटबाल

जब कभी हम किसी गलत सोच के विरोध की बात करते हैं तो हाथ में किताब या हथियार उठाने को कहते हैं, पर कुछ संथाली लड़कियों ने विरोध के अपने गुस्से की फूंक से फुटबाल में ऐसी हवा भरी है जो उन की एक लात से उस सोच को ढेर कर रही है, जो उन्हें फुटबाल खेलने से रोकती है.

मामला उस पश्चिम बंगाल का है, जहां आप को फुटबाल हर अांगन में उगी दिखाई देगी, पर जब इन बच्चियों ने इस की नई पौध लगाने की सोची तो कट्टर सोच के कुछ गांव वालों को लगा कि घुटने के ऊपर शौर्ट्स पहने हुई ये बालिकाएं उन के रिवाजों की घोर बेइज्जती कर रही हैं. इस बेइज्जती के पनपने से पहले ही उन्होंने लड़कियों में ऐसा खौफ पैदा करने की सोची कि दूसरे लोग भी सबक ले कर ऐसी ख्वाहिश मन में न पाल लें.

पर वे लड़कियां ही क्या, जो मुसीबतों से घबरा जाएं. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के पिछड़े आदिवासी संथाल समाज की इन लड़कियों में से एक है 16 साल की हांसदा. 5 भाईबहनों में सब से छोटी इस बच्ची के पिता नहीं हैं और मां बड़ी मुश्किल से रोजाना 300 रुपए कमा पाती हैं.

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ऐसे गरीब परिवार की 10वीं जमात में पढ़ने वाली हांसदा फुटबाल खेल कर अपने समाज और देश का नाम रोशन करना चाहती है. वह पहलवान बहनों गीताबबीता की तरह साबित करना चाहती है कि संथाली लड़कियां किसी भी तरह किसी से कमजोर नहीं हैं. वह पति की गुलाम पत्नी बन कर अपनी जिंदगी नहीं बिताना चाहती है कि बच्चों की देखभाल करो और घुटो घर की चारदीवारी के भीतर.

इसी तरह किशोर मार्डी भी मानती है कि वह फुटबाल से अपनी जिंदगी बदल सकती है. वह तो डंके की चोट पर कहती है कि ऐसे किसी की नहीं सुनेगी, जो उसे फुटबाल खेलने से रोकने की कोशिश करेगा.

गांव गरिया की 17 साला लखी हेम्ब्रम ने बताया कि 2 साल पहले उस का फुटबाल को ले कर जुनून सा पैदा हो गया था. एक गैरसरकारी संगठन उधनाऊ ने उसे खेलने के लिए बढ़ावा दिया था. तब ऐसा लगा था कि फुटबाल उस के परिवार को गरीबी से ऊपर उठा सकती है. पर कुछ गांव वालों के इरादे नेक नहीं थे. जब कुछ जवान लड़कों ने इन लड़कियों को शौर्ट्स में खेलते देखा तो उन्होंने इन पर बेहूदा कमैंट किए.

हद तो तब हो गई, जब नवंबर, 2018 को गांव गरिया में फुटबाल की प्रैक्टिस कर रही इन लड़कियों पर गांव के कुछ लोगों ने धावा बोल दिया. उन्होंने फुटबाल में पंचर कर के अपनी भड़ास निकाली. लेकिन जब लड़कियां नहीं मानीं तो उन सिरफिरों ने लातघूंसों से उन्हें पीटा. साथ ही, धमकी भी दी कि अगर फुटबाल खेलना नहीं छोड़ोगी तो इस से भी ज्यादा गंभीर नतीजे होंगे.

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ये गंभीर नतीजे क्या हो सकते हैं, इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि लड़कियां नहीं मानीं तो उन का रेप हो सकता है, तेजाब से मुंह झुलसा दिया जा सकता है या फिर जान से ही मार दिया जा सकता है.

पर क्या इस से लड़कियों के बीच डर का माहौल बना? नहीं. वे अब जगह बदल कर फुटबाल की प्रैक्टिस करती हैं. उन के पास गांव वालों की नफरत तो खूब है, पर फुटबाल से जुड़ी बुनियादी जरूरतें नहीं हैं. वे जंगली बड़ी घास और झाडि़यों से घिरी जमीन पर फुटबाल खेलती हैं, जहां रस्सियों से बंधे बांस गोलपोस्ट के तौर पर खड़े कर दिए जाते हैं.

ऐसे उलट हालात में फुटबाल खेलती रामपुरहाट ब्लौक की गरिया और भलका पहाड़ा गांव की रहने वाली ये संथाली लड़कियां आत्मविश्वास से भरी हैं और मानो पूरे समाज से पंगा ले रही हैं कि तुम कितना भी विरोध कर लो, एक दिन हमारी लगन साबित कर देगी कि हम ने जो देखा है, उस सपने को पूरा कर के रहेंगी.

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जाति ने बांट दिए दो कौड़ी के बरतन

घटना थोड़ी पुरानी है, पर सुनो तो आज भी सिहरा देती है. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में एक गांव है खेतलपुर भंसोली. वहां पर बरतन छू जाने से एक दलित औरत सावित्री की पिटाई और इलाज के दौरान मौत होने का शर्मनाक मामला सामने आया था. वह भी तब जब सावित्री पेट से थी.

हुआ यों था कि कूड़ेदान को हाथ लगाने से नाराज अंजू देवी और उस के बेटे रोहित कुमार ने कथित तौर पर सावित्री को डंडे और लातों से बहुत मारापीटा था.

सावित्री के पति दिलीप कुमार ने बताया था कि सावित्री को पीटने की घटना 15 अक्तूबर, 2017 को हुई थी. उस के चलते सावित्री के पेट में पल रहे बच्चे की मौत हो गई थी और उस के बाद मामूली इलाज कर के डाक्टर ने सावित्री को जिला अस्पताल से घर भेज दिया था.

घर आने के बाद एक दिन सावित्री अचानक बेहोश हो गई और जब उसे अस्पताल ले जाया गया, तो डाक्टरों ने उसे मरा हुआ बता दिया.

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ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब किसी को जाति के आधार पर अछूत समझ कर उस के साथ जोरजुल्म किया गया हो. जब कूड़ेदान पर हाथ लगने की इतनी बड़ी सजा दी जा सकती है, तो फिर खाने के बरतन को छूने पर तो पता नहीं क्या और कैसा बवाल मचा दिया जाएगा.

यही वजह है कि आज भी अनेक गांवों में चाय की दुकानों पर दलितों और पिछड़ों को निचला समझ कर मिट्टी के कुल्हड़ या फिर प्लास्टिक के ऐसे गिलासों में चाय परोसी जाती है, जिन्हें एक बार इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिया जाता है, जबकि अगड़ों को कांच या चीनीमिट्टी के बरतन में चाय थमाई जाती है.

इतना ही नहीं, ऐसी दुकानों पर निचलों के लिए अलग बैंचें बना दी जाती हैं या फिर ये जमीन पर दुकान से दूर बैठ कर चाय पीते हैं.

ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान में सब को बराबरी का हक नहीं दिया गया है. संविधान का अनुच्छेद 15 जाति, धर्म, नस्ल, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है.

साल 1989 का एससी व एसटी कानून भी जाति आधारित अत्याचारों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही तय करता है, इस के बावजूद भारत में जाति आधारित भेदभाव अब भी एक कड़वा सच है. देखने में तो दलित को अलग बरतन में चाय देना मामूली सी बात लगती है, पर इस की जड़ में जातिवाद का वह जहर है, जो उन्हें कभी उबरने नहीं देगा.

दलितों को पता होता है कि कुल्हड़ या प्लास्टिक के गिलास में चाय देने का क्या मतलब है, पर वे जानबूझ कर अनजान बने रहते हैं या फिर यही सोच कर खुश हो लेते हैं कि चाय मिल तो रही है. अगर कल को सवाल उठाया तो उन्हें दूसरी तरह से तंग किया जाएगा. अमीर अगड़ों के खेतों में काम मिलना बंद हो सकता है या किसी भी मामूली बात को मुद्दा बना कर ठुकाई कर दी जाएगी.

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जातिवाद के इस जहर का असर स्कूलों में दिखाई देता है. पिछले साल की बात है. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में एक स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव देखने को मिला था.

रामपुर इलाके के प्राइमरी स्कूल में ऊंची जाति के कुछ छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बरतन ले कर आते थे और वे अपने बरतनों में खाना ले कर एससीएसटी और पिछड़े समुदाय के बच्चों से अलग बैठ कर खाना खाते थे.

जब इस बारे में स्कूल के प्रिंसिपल पी. गुप्ता से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम बच्चों को कहते हैं कि वे साथ बैठें और खाएं, लेकिन वे नहीं मानते हैं. वे लोग घर से अपनी थाली ले कर आते हैं और अलग बैठ कर खाते हैं.

इस गंभीर मुद्दे पर स्कूल के प्रिंसिपल का इतना सतही सा जवाब देना गले के नीचे नहीं उतरता है, क्योंकि अगर स्कूल के बच्चे अपने प्रिंसिपल की ही नहीं सुनेंगे, तो फिर वे किस की बात मानेंगे? आज अगर बच्चे अपने बरतन में अलग बैठ कर खाने की बात कर रहे हैं, तो कल को वे यह मांग रख देंगे कि आगे से दलितवंचितों के बच्चों को स्कूल में ही दाखिल न किया जाए. तब प्रिंसिपल पी. गुप्ता जैसे लोग क्या करेंगे?

दरअसल, हमारे समाज में जातिवाद इतनी गहराई तक अपनी पैठ बना चुका है कि अगड़ों द्वारा दलित व पिछड़ों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता है. कोई दलित अगर अपनी शादी में घोड़ी पर बैठ गया तो उस की खाल उतार लो. किसी दलित ने मूंछ ऊंची कर दी तो उस की हड्डियां तोड़ दो. पढ़नेपढ़ाने के नाम पर कोई गरीब अगर ज्यादा सिर पर चढ़े तो उस के घर की औरतों को सरेआम बेइज्जत कर दो. एक नहीं हजार तरीके हैं दलितपिछड़ों पर नकेल कसने के.

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और जब तक जाति का यह बेताल हमारी पीठ पर लदा रहेगा, तब तक तरक्की की बात तो पीछे छोड़ दो, हम राजा विक्रम की तरह अपनी नफरत के घने बियाबान में ही चक्कर काटते रहेंगे.

कालगर्ल के चक्कर में गांव के नौजवान

एक किस्सा हमें यह सबक देने वाला है कि गांवदेहात के पिछड़े तबके के नौजवान कैसे अपने सीधेपन के चलते शहरी कालगर्ल के चक्कर में फंस कर लुटपिट कर खिसियाए से वापस गांव आ जाते हैं और फिर डर और शर्म के मारे किसी से कुछ कह भी नहीं पाते हैं.

इस मामले में भी यही होता, अगर घर वालों ने पैसों का हिसाब नहीं मांगा होता. जब कोई बहाना या जवाब नहीं सूझा तो इन तीनों ने सच उगल देने में ही भलाई समझी, जिस से न केवल इन्हें लूटने वाली कालगर्ल पकड़ी गई, बल्कि उस के साथी लुटेरे भी धर लिए गए.

बात नए साल की पहली तारीख की है, जब पूरी दुनिया ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के जश्न और मस्ती में डूबी थी. दोपहर के वक्त कुछ बूढ़ों ने भोपाल के अयोध्या नगर थाने आ कर अपने बेटों के लुट जाने की रिपोर्ट लिखाई.

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दरअसल हुआ यों था कि 3 दिन पहले ही भोपाल के नजदीक सीहोर जिले के गांव श्यामपुर का विष्णु मीणा भोपाल में अपनी कार का टायर बदलवाने आया था. वक्त काटने और कुछ मौजमस्ती की गरज से वह अपने साथ 2 दोस्तों हेम सिंह और उमेश दांगी को भी ले आया था.

साल के आखिर के दिनों में उन तीनों नौजवानों पर भी मौजमस्ती करने का बुखार चढ़ा था. कार के टायर बदलवाने के लिए उन्होंने शोरूम पर कार खड़ी कर दी. उस वक्त विष्णु मीणा की जेब में तकरीबन 80 हजार रुपए नकद रखे थे.

टायर बदलवाने में 2-4 घंटे लगते, इसलिए उन्होंने तय किया कि तब तक आशमा नाम की कालगर्ल के साथ मौजमस्ती करते हैं, जिस में तकरीबन 3-4 हजार रुपए का खर्च आएगा, जो उन लोगों के लिए कोई बड़ी रकम नहीं थी.

विष्णु मीणा और उस के दोनों दोस्तों की गिनती भले ही पिछड़े तबके में होती हो, लेकिन इस तबके के ज्यादातर  लोग पैसे वाले हैं. इन लोगों के पास खेतीकिसानी की खूब जमीनें हैं और ये मेहनत भी खूब करते हैं.

उन्होंने आशमा को फोन किया, तो वह झट से राजी हो गई और अपनी फीस के बाबत भी उस ने ज्यादा नखरे नहीं दिखाए. दिक्कत जगह की थी तो वह भी आशमा ने ही दूर कर दी. मोबाइल फोन पर ही उस ने उन्हें बताया कि वे देवलोक अस्पताल के नजदीक के एक फ्लैट में आ जाएं.

आशमा की हां सुनते ही कड़कड़ाती ठंड में उन नौजवानों के जिस्म गरमा उठे. गदराए बदन की खूबसूरत 22 साला आशमा उन के लिए नई नहीं थी, इसलिए वे बेफिक्र थे कि जब तक शोरूम पर कार के टायर बदलते हैं, तब तक वे आशमा को ड्राइव कर आते हैं.

आशमा का बताया फ्लैट ज्यादा दूर नहीं था. वहां पहुंचते ही उन तीनों ने सुकून की सांस ली, क्योंकि फ्लैट में आशमा अकेली थी और आसपास के लोगों को उन के वहां जाने का कुछ नहीं पता चला था.

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उन तीनों का यह सोचना सही निकला कि शहरों में गांवों की तरह कोई अड़ोसपड़ोस में ताकझांक नहीं करता कि कौन किस के यहां क्यों आ रहा है. जैसे ही वे फ्लैट के अंदर पहुंचे, तो आशमा ने जानलेवा मुसकराहट के साथ सैक्सी अदा से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

आशमा का बस इतना करना काफी था और वे तीनों अपनेअपने तीरके से आशमा को टटोलने लगे.

बात पूरी हो पाती, इस के पहले ही आशमा बोली, ‘‘पहले चाय पी कर तो गरम हो लो. शराब तो तुम लोग पीते नहीं, फिर इतमीनान से गरम और ठंडे होते रहना,’’ इतना कह कर वह चाय बनाने रसोईघर में चली गई. वे तीनों बेचैनी से उस के आने का इंतजार करने लगे.

आशमा रसोईघर से बाहर आती, उस के पहले ही फ्लैट में बिलकुल फिल्मी अंदाज में 3 लोग दाखिल हुए और खुद को सीआईडी पुलिस बताया तो उन तीनों के होश उड़ गए. पुलिस वाले काफी दबंग और रोबीले थे और उन के पास वायरलैस सैट भी था.

एक पुलिस वाले ने कट्टा निकाल कर उन तीनों को हैंड्सअप करवा दिया, तो वे थरथर कांपने लगे. आशमा भी बेबस खड़ी रही.

कुछ देर बाद बात या सौदेबाजी शुरू हुई कि साहब कुछ लेदे कर छोड़ दो तो पुलिस वालों के तेवर कुछ ढीले पड़े, लेकिन उन्होंने उन तीनों की जेबें ढीली करवा लीं. विष्णु मीणा की जेब में रखे नकद 80 हजार रुपए भी उन्हें कम लगे तो उन्होंने 3 हजार रुपए औनलाइन भी योगेंद्र विश्वकर्मा नाम के पुलिस वाले के खाते में ट्रांसफर कराए.

घर लौटे बुद्धू

एकाएक ही टपक पड़े पुलिस वालों के चले जाने के बाद उन तीनों ने राहत की सांस ली और जातेजाते आशमा के भरेपूरे बदन को आह भर कर देखा, जिसे वे सिर्फ टटोल पाए थे, पर लुत्फ नहीं उठा पाए थे.

रास्ते में उन तीनों ने तय किया कि अब गांव जा कर अगर वे सच बताएंगे, तो बदनामी तो होगी ही. साथ ही, ठुकाईपिटाई होगी सो अलग, इसलिए बेहतरी इसी में है कि बात दबा कर रखी जाए.

लेकिन ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि जैसे ही विष्णु मीणा के पिता ने पैसों का हिसाब मांगा तो वह हड़बड़ा गया और सच उगल दिया.

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पिता बखूबी समझ गए कि वे तीनों कार्लगर्ल आशमा की साजिश का शिकार हो गए हैं. लिहाजा, उन्होंने भोपाल आ कर थाना इंचार्ज महेंद्र सिंह को सारी बात बता कर इंसाफ की गुहार लगाई.

पुलिस वाले भी समझ गए कि एक बार फिर देहाती लड़के योगेंद्र विश्वकर्मा और आशमा के गिरोह का शिकार हो गए, जो पहले भी एक बार इसी तरह ठगी के मामले में पकड़ा जा चुका है.

उन तीनों के पास सिर्फ आशमा का मोबाइल नंबर था, जिसे ट्रेस कर पुलिस वालों ने पहले आशमा और फिर उस के तीनों साथियों को गिरफ्तार कर सच उगलवा लिया.

एहतियात जरूरी है

भोपाल के नजदीक बैरसिया के एक गांव के 70 साला लल्लन सिंह कुशवाहा (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि अब से तकरीबन 30-40 साल पहले वे भी भोपाल के कोठों पर जाया करते थे, जो पुराने भोपाल और लक्ष्मी सिनेमाघर के आसपास हुआ करते थे. शाम ढलते ही इन कोठों पर मुजरा होता था, जिसे देखने के 20 रुपए लगते थे.

लेकिन जिन्हें रात काटनी होती थी उन्हें 300-400 रुपए देने पड़ते थे, वह भी इन के दलालों की मारफत तब ऐसी ठगी कभीकभार होती थी. दलाल पैसा ले कर छूमंतर हो जाते थे या फिर तवायफ ही जेब का सारा पैसा झटक लेती थी, क्योंकि इन बदनाम इलाकों की पुलिस वालों से मिलीभगत होती थी, इसलिए वह वहां दखल नहीं देती थी.

लल्लन सिंह एक दिलचस्प खुलासा यह भी करते हैं कि तब भी तवायफों के पास जाने वालों में हम पिछड़ों की तादाद ज्यादा हुआ करती थी. दबंग तो अपनी हवेलियों में ही मुजरा करवा लिया करते थे और रात भी रंगीन करते थे. मुसीबत हम पिछड़ों की थी, जिन्हें अपने घरों से महफिल सजाने की इजाजत नहीं थी. यह हक दबंगों को ही था. कोई और महफिल सजाता था, तो इन की शान और रसूख पर बट्टा लगता था, इसलिए ये लोग अकसर मारपीट और हिंसा पर उतर आते थे.

अब पिछड़े नौजवान नई गलती करते हैं, जो विष्णु मीणा, हेम सिंह और उमेश दांगी ने की कि कालगर्ल पर आंखें मूंद कर भरोसा किया. किसी भी अनहोनी से बचना जरूरी है. ऐसी अनहोनी से बचने के लिए जरूरी है कि इस तरह के एहतियात बरते जाएं:

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* कालगर्ल के पास जाते वक्त ज्यादा नकदी साथ न रखें.

* कालगर्ल पर आंख बंद कर के भरोसा न करें.

* अगर एक से ज्यादा लड़के हों, तो एक लड़का बाहर पहरा दे और कोई गड़बड़झाला दिखे, तो तुरंत साथी को मोबाइल पर खबर करे.

* कालगर्ल के साथ मौजमस्ती के दौरान पुलिस वाले या पुलिस वालों की वरदी में कोई धड़धड़ाता आ जाए तो डरें नहीं, बल्कि उस से सवालजवाब करें और गिरफ्तारी की धौंस से भी न डरें.

* जिस जगह जाना तय हुआ है, उस का एकाध चक्कर पहले से लगा कर मुआयना कर लें.

* मौजमस्ती के दौरान कालगर्ल का मोबाइल बंद करा लें, जिस से वह वीडियो रेकौर्डिंग कर बाद में ब्लैकमेल न कर पाए.

* कमरे की भी तलाशी लें कि कहीं छिपा हुआ कैमरा न लगा हो.

* कालगर्ल ज्यादा जोर दे कर खानेपीने को कहे तो मना कर दें.

* शराब का नशा कर कालगर्ल के पास न जाएं.

* कालगर्ल से मोलभाव करें और पैसा कम होने का रोना रोएं.

* कालगर्ल की बताई जगह के बजाय खुद की जगह पर उसे बुलाएं. जगह का इंतजाम पहले से करें.

* इस के बाद भी ऐसी कोई वारदात हो जाए, जो इन तीनों नौजवानों के साथ हुई तो थाने जाने से हिचकिचाएं नहीं. बदनामी तो हर हाल में होगी या फिर लंबा चूना लगेगा, इसलिए बदनामी से न डरें.

* अगर लुटपिट जाएं और थाने जाने की हिम्मत न पड़े तो दोस्तों और घर वालों की मदद लें. डांटफटकार तो पड़ेगी, लेकिन पैसे वापस मिलने की उम्मीद रहेगी.

वैसे, पहली कोशिश शहरी कालगर्ल से बचने की होनी चाहिए. शहरों में अब इन का कोई भरोसा नहीं रह गया है. ये गिरोह बना कर गांवदेहात के लड़कों का सीधापन देख कर तरहतरह से उन की जेबें ढीली कराने से गुरेज नहीं करतीं, इसलिए इन से परहेज ही करना चाहिए.

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पुलिस को फटकार

दिल्ली की जिला अदालत ने भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर को जमानत पर रिहा करने का आदेश तो दिया पर जो फटकार पुलिस को लगाई वह मजेदार है. आजकल पुलिस की आदत बन गई है कि किसी पर भी शांति भंग करने, देशद्रोह, भावनाएं भड़काने का आरोप लगा दो और जेल में बंद कर दो. आमतौर पर मजिस्ट्रेट पुलिस की बात बिना नानुकर किए मान जाते हैं और कुछ दिन ऐसे जने को जेल में यातना सहनी ही पड़ती है.

जिला न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने पुलिस के वकील से पूछा कि क्या जामा मसजिद के पास धरना देना गुनाह है? क्या धारा 144 जब मरजी लगाई जा सकती है और जिसे जब मरजी जितने दिन के लिए चाहो गिरफ्तार कर सकते हो? क्या ह्वाट्सएप पर किसी आंदोलन के लिए बुलाना अपराध हो गया है? क्या यह संविधान के खिलाफ है? क्या बिना सुबूत कहा जा सकता है कि कोई भड़काऊ भाषण दे रहा था? पुलिस के वकील के पास कोई जवाब न था.

दलितों के नेता चंद्रशेखर से भाजपा सरकार बुरी तरह भयभीत है. डरती तो मायावती भी हैं कि कहीं वह दलित वोटर न ले जाए. छैलछबीले ढंग से रहने वाला चंद्रशेखर दलित युवाओं में पसंद किया जाता है और भाजपा की आंखों की किरकिरी बना हुआ है. वे उसे बंद रखना चाहते हैं.

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सहारनपुर का चंद्रशेखर धड़कौली गांव के चमार घर में पैदा हुआ था और ठाकुरों के एक कालेज में छुटमलपुर में पढ़ा था. कालेज में ही उस की ठाकुर छात्रों से मुठभेड़ होने लगी और दोनों दुश्मन बन गए. जून, 2017 में उसे उत्तर प्रदेश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और महीनों तक बेबात में जेल में रखा और कानूनी दांवपेंचों में उलझाए रखा. कांग्रेस ने उसे सपोर्ट दी है और प्रियंका गांधी उस से मिली भी थीं, जब वह जेल के अस्पताल में था. उसे बहुत देर बाद रिहा किया गया था और फिर नागरिक कानून पर हल्ले में पकड़ा गया था.

पुलिस का जिस तरह दलितों और पिछड़ों को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, यह कोई नया नहीं है. हार्दिक पटेल भी इसी तरह गुजरात में महीनों जेल में रहा था. नागरिकता संशोधन कानून के बारे में सरकार ने मुसलिमों के साथ चंद्रशेखर की तरह बरताव की तैयारी कर रखी थी, पर जब असल में हिंदू ही इस के खिलाफ खड़े हो गए और दलितपिछड़ों को लगने लगा कि यह तो संविधान को कचरे की पेटी में डालने का पहला कदम है तो वे उठ खड़े हुए हैं. चंद्रशेखर को पकड़ कर महीनों सड़ाना टैस्ट केस था. फिलहाल उसे जमानत मिल गई है, पर कब उत्तर प्रदेश या कहीं और की पुलिस उस के खिलाफ नया मामला बना दे, कहा नहीं जा सकता.

सरकारों के खिलाफ जाना आसान नहीं होता.

जब पूर्व गृह मंत्री व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को 100 दिन जेल में बंद रखा जा सकता है तो छोटे नेताओं को सालों बंद रखने में क्या जाता है. अदालतें भी आमतौर पर पुलिस की मांग के आगे झुक ही जाती हैं.

देश दिवालिएपन की ओर

देश के छोटे व्यापारियों को किस तरह बड़े बैंक, विदेशी पूंजी लगाने वाले, सरकार, धुआंधार इश्तिहारबाजी और आम जनता की बेवकूफी दिवालिएपन की ओर धकेल रही है, ओला टैक्सी सर्विस से साफ है. उबर और ओला 2 ऐसी कंपनियां हैं, जो टैक्सियां सप्लाई करती हैं. कंप्यूटरों पर टिकी ये कंपनियां ग्राहकों को कहीं से भी टैक्सी मंगाने के लिए मोबाइल पर एप देती हैं और इच्छा जाहिर करने के 8-10 मिनट बाद कोई टैक्सी आ जाती है, जिस का नंबर पहले सवारी तक पहुंच जाता है और सवारी का मोबाइल नंबर ड्राइवर के पास.

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पर यह सेवा सस्ती नहीं है. बस, मिल जाती है. इस ने कालीपीली टैक्सियों का बाजार लगभग खत्म कर दिया है और आटो सेवाओं को भी धक्का पहुंचाया है. इन्होंने जवान, मोबाइल में डूबे, अच्छे जेबखर्च पाने वालों का दिल जीत लिया है. वे अपनी खुद की बाइक को भूल कर अब ओलाउबर पर नजर रखते हैं.

अब इतनी बड़ी कंपनियां हैं तो इन्हें मोटा मुनाफा हो रहा होगा? नहीं. यही तो छोटे व्यापारियों के लिए आफत है. ओला कंपनी ने 2018-19 में 2,155 करोड़ रुपए का धंधा किया, पर उस को नुकसान जानते हैं कितना है? 1,158 करोड़ रुपए. इतने रुपए का नुकसान करने वाले अच्छेअच्छे धन्ना सेठ दिवालिया हो जाएं पर ओलाउबर ही नहीं अमेजन, फ्लिपकार्ट, बुकिंगडौटकौम, नैटफिलिक्स जैसी कंपनियां भारत में मोटा धंधा कर रही हैं, जबकि भारी नुकसान में चल रही?हैं. उन का मतलब यही है कि भारत के व्यापारियों, धंधे करने वालों, कारीगरों, सेवा देने वालों की कमर इस तरह तोड़ दी जाए कि वे गुलाम से बन जाएं.

ओलाउबर ने शुरूशुरू में ड्राइवरों को मोटी कमीशनें दीं. ज्यादा ट्रिप लगाने पर ज्यादा बोनस दिया. ड्राइवर 30,000-40,000 तक महीना कमाने लगे, पर जैसे ही कालीपीली टैक्सियां बंद हुईं, उन्होंने कमीशन घटा दी. अब 10-12 घंटे काम करने के बाद भी 15,000-16,000 महीना बन जाएं तो बड़ी बात है.

यह गनीमत है कि आटो और ईरिकशा वाले बचे हैं, क्योंकि उस देश में हरेक के पास क्रेडिट कार्ड नहीं है और यहां अभी भी नकदी चलती है. ओलाउबर मोबाइल के बिना चल ही नहीं सकतीं. आटो, ईरिकशा 2 या 4 की जगह 6 या 10 जनों तक बैठा सकते हैं और काफी सस्ते में ले जा सकते है. यही हाल आम किराने की दुकानों का है. जो सस्ता माल, चाहे कम क्वालिटी का हो, हाटबाजार में मिल सकता है वह अमेजन और फ्लिपकार्ट पर नहीं मिल सकता, पर ये अरबों नहीं खरबों का नुकसान कर के छोटे दुकानदारों को सड़क पर ला देना चाहते हैं और सड़कों से अपना आटो और ईरिकशा चलाने वाले लोगों को भगा देना चाहते हैं.

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यह अफसोस है कि सरकार गरीबों की न सोच कर मेढकों की तरह छलांग लगाने के चक्कर में देश को साफ पानी तक पहुंचाने की जगह लूट और बेईमानी के गहरे गड्ढे में धकेलने में लग गई है.

बदहाल अस्पताल की बलि चढ़े नौनिहाल

कोटा के इस अस्पताल की दशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जरूरी उपकरणों के साथ ही मैडिकल स्टाफ की कमी से भी जूझ रहा है. इतना ही नहीं, जब राज्य सरकार की एक समिति इस अस्पताल का दौरा करने गई तो उस ने वहां सूअर व कुत्ते टहलते हुए देखे.

इस पर हैरत नहीं है कि कोटा के अस्पताल में बड़ी तादाद में नवजात बच्चों की मौत की खबर आने के साथ ही एकदूसरे पर आरोप लगाने की ओछी राजनीति सतह पर आ गई. लेकिन ऐसी राजनीति से बचने की नसीहत वे नहीं दे सकते, जो खुद ऐसा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक अस्पताल में कोटा की तरह बच्चों की मौत का मामला सामने आया था तो उस के बहाने राजनीति चमकाने की कैसी भद्दी होड़ मची थी.

सरकारी तंत्र की ढिलाई और लापरवाही को उजागर किया ही जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि बदहाली के आलम से कैसे छुटकारा मिले? यह कोशिश रहनी चाहिए, क्योंकि यह एक कड़वी सचाई है कि अस्पतालों की तरह स्कूल, सार्वजनिक परिवहन के साधन वगैरह भी बदहाली से दोचार हैं और इस के लिए वह घटिया राजनीति ही ज्यादा जिम्मेदार है, जो हर वक्त दूसरों पर आरोप मढ़ कर अपने फर्ज को पूरा समझने की ताक में रहती है.

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गलत है मौत पर राजनीति

‘‘मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने 50 किलोमीटर दूर से आया हूं. रास्ते में इतनी सर्दी थी कि बच्चे की सांसें तेज चल रही थीं. बच्चे की हालत देख कर ही डर लग रहा था.’’

ये शब्द मोहन मेघवाल के हैं, जो अपने बच्चे का इलाज कराने के  लिए राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल आए थे.

यह वही अस्पताल है, जहां बीते दिनों 100 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया था.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चिट्ठी लिख कर के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत की रोजाना बढ़ती तादाद को देखते हुए जरूरी सुविधाओं को मजबूत बनाने के लिए गुजारिश की थी. इस के साथ ही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट कर के अशोक गहलोत और प्रियंका गांधी पर निशाना साधा था.

पर, उस से भी ज्यादा दुखद है कि कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं खासकर महासचिव प्रियंका गांधी की इस मामले में चुप्पी साधे रखना. अच्छा होता कि वे उत्तर प्रदेश की तरह उन गरीब पीडि़त मांओं से भी जा कर मिलतीं, जिन की गोद केवल उन की पार्टी की सरकार की लापरवाही के चलते उजड़ गई है. लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मुद्दे पर राजनीति नहीं किए जाने की अपील की.

अशोक गहलोत ने कहा, ‘‘हम लोग बारबार कह रहे हैं कि पूरे 5-6 साल में सब से कम आंकड़े अब आ रहे हैं. इतनी शानदार व्यवस्था वहां कर रखी है.

‘‘मैं किसी को इस मौके पर दोष नहीं देना चाहता हूं. पिछले 5 साल के आंकड़े थे. इन में भाजपा के शासन में ही ये आंकड़े कम होते गए. हमारी सरकार बनने के बाद ये आंकड़े और कम हो गए.

‘‘नागरिकता संशोधन कानून के बाद  देश और प्रदेश में जो माहौल बना हुआ है, ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर ध्यान हटाने के लिए यह शरारत कर रहे हैं.’’

वहीं, राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा कहते हैं, ‘‘यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रहा है. सीएए और एनआरसी को ले कर राजस्थान में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, अब उन्हें कोई और चीज तो मिलती नहीं है. पहला सवाल तो यह है कि जब योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में औक्सीजन की कमी से 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हुई थी, तब भाजपा का एक भी डैलिगेशन गया था वहां? यहां राजनीति करने आ रहे हैं, तो एक जवाब दें कि जब 2015 में अस्पताल प्रशासन ने 8 करोड़ रुपए मांगे तो भाजपा सत्ता में थी, ऐसे में अस्पताल को पैसे क्यों नहीं दिए गए?’’

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राजस्थान भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया अस्पताल का औचक निरीक्षण करने पहुंचे. उन्होंने कहा, ‘‘इस मामले में राज्य सरकार के प्रशासन को दोष क्यों नहीं देना चाहिए? मैं ने देखा कि हर बिस्तर पर 2 से 3 बच्चे लेटे थे और उन की देखभाल करने के लिए बिस्तर के किनारे ही उन की मां भी खड़ी थीं. साफतौर पर संक्रमण के प्रसार की जांच के लिए कोई सावधानी नहीं बरती जा रही है.’’

इस से पहले बच्चों की मौत की सूचना के तुरंत बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दावा किया था कि उस अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा पिछले 6 सालों में सब से कम है.

बाद में स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने भी अलगअलग सालों में हुई मौतों को गिनाते हुए कहा कि साल 2014 में 1,198 बच्चों की मौत हुई, 2015 में 1,260 बच्चे मारे गए, 2016 में 1,193, 2017 में 1,027 बच्चों और 2018 में 1,005 बच्चों की मौत हुई.

कुलमिला कर राजनीतिक लैवल पर बयानबाजी का सिलसिला जारी है और इस के साथ ही बच्चों की मौत का सिलसिला भी जारी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है और क्या रोजाना मरते हुए इन बच्चों को बचाया जा सकता है?

अस्पताल ही बीमार

राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल के आईसीयू में एक ही बिस्तर पर 2 से 3 बीमार बच्चों का होना एक सामान्य सी बात बनी हुई है. इन मासूम बच्चों को साफ हवा के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है.

यही नहीं, अव्यवस्था के बीच गंभीर बीमारियों से जूझ रहे इन बच्चों की देखभाल के लिए नर्स नहीं, बल्कि उन की मां खड़ी रहती हैं.

अस्पताल के सूत्रों ने तसदीक की है कि यहां जरूरी और जिंदगी बचाने की श्रेणियों में आने वाले 60 फीसदी से ज्यादा उपकरण काम नहीं कर रहे हैं. लापरवाही की इतनी हद है कि अस्पताल मैनेजमैंट का कोई भी अफसर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि कुछ उपकरणों को फिर से ठीक किया जा सकता है. धूल फांक रहे कुछ उपकरण तो ऐसे भी हैं, जिन्हें महज 2 रुपए की कीमत के एक तार के छोटे से टुकड़े की मदद से फिर से चलाया जा सकता है.

इस के बावजूद कई नैबुलाइजर, वार्मर और वैंटिलेटर काम नहीं कर  रहे हैं. साथ ही, अस्पताल में संक्रमण की जांच के लिए इकट्ठा किए गए  14 नमूनों की जांच रिपोर्ट पौजीटिव आई है. यह जांच रिपोर्ट बैक्टीरिया के प्रसार का आकलन करने में मदद करती है. इस रिपोर्ट को अफसरों को सौंपे जाने के बावजूद बड़ी तादाद में बैक्टीरिया के प्रसार को साबित होने पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई.

बीते एक साल में कोटा के इस अस्पताल में भरती होने वाले तकरीबन 16,892 बच्चों में से 960 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

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जेके लोन अस्पताल के शिशु औषधि विभाग के एचओडी डाक्टर अमृत लाल बैरवा बताते हैं, ‘‘बीते एक महीने में यहां मरने वाले बच्चों में से 60 बच्चों का जन्म यहीं हुआ था, बाकी के बच्चे आसपास के अस्पतालों से गंभीर हालात में रैफर हो कर यहां लाए गए थे.

‘‘यह एक ऐसा अस्पताल है, जहां पर आसपास के 3-4 जिलों से बच्चों को लाया जाता है. साथ ही, मध्य प्रदेश के झाबुआ से भी बच्चों को यहां लाया जाता है. पर इस अस्पताल में मौजूद संसाधन और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम तादाद इतनी बड़ी तादाद में आए मरीजों का इलाज करने में चुनौती पेश करती है.’’

डाक्टर अमृत लाल बैरवा की ओर से 27 दिसंबर, 2019 को अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक, अस्पताल में मौजूद 533 उपकरणों में से 320 खराब हैं. इन में 111 इनफ्यूजन पंप में से 80 खराब हैं. 71 वार्मरों में से 44 खराब हैं. 27 फोटोथैरेपी मशीनों में से 7 खराब हैं और 19 वैंटिलेटर मशीनों में से 13 खराब हैं. वहीं, अगर स्टाफ की कमी की बात करें तो एनआईसीयू में कुल 24 बैड के लिए 12 स्टाफ उपलब्ध हैं, जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक, 12 बैड पर कम से कम

10 कर्मचारी तैनात होने चाहिए.

इसी तरह एनएनडब्ल्यू में सिर्फ 8 लोगों की तैनाती है. एनआईसीयू में उपलब्ध 42 बैड के लिए कुल 20 लोगों का स्टाफ उपलब्ध है, जबकि यह तादाद 32 होनी चाहिए.

वहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस अस्पताल में प्रोफैसर और एसोसिएट प्रोफैसर के 4 पद खाली पड़े हैं.

जेके लोन अस्पताल की बात करें, तो बीते 6 सालों में इस अस्पताल में 6,000 बच्चे दम तोड़ चुके हैं. इन में से 4,292 बच्चे गंभीर हालत में आसपास के जिलों से इस अस्तपाल में लाए गए थे.

डाक्टर अमृत लाल बैरवा इन बच्चों की मौत के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में फैली अव्यवस्था और जिला अस्पतालों में डाक्टरों की कम तादाद को जिम्मेदार मानते हैं.

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वे कहते हैं, ‘‘यह मैडिकल कालेज का अस्पताल है. यहां पर कोटा, बूंदी, बारा, झालावाड़, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर, मध्य प्रदेश से लोग अपने बच्चों को ले कर आते हैं और ये मरीज रैफर किए मरीज होते हैं.

‘‘हमारे पास काम का बहुत दबाव रहता है. हमारे पास जितने संसाधन हैं, उस से कहीं ज्यादा मरीज आते हैं. इन बच्चों की मौत की यही वजह है.’’

इन का भी बुरा हाल

कोटा से 50 किलोमीटर दूर डाबी कसबे में रहने वाले मोहन मेघवाल निमोनिया की शिकायत होने पर अपने बच्चे को सीधे जेके लोन अस्पताल ले कर आए हैं.

वे कहते हैं, ‘‘मैं ने पहले अपने घर के नजदीक बने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चे का इलाज कराया, लेकिन उस अस्पताल में दस्त और खांसीजुकाम जैसी सामान्य बीमारियां सही नहीं होती हैं. ऐसे में जब मेरे बच्चे की सांसें तेज चलना शुरू हो गईं तो मैं उसे ले कर एक निजी अस्पताल में गया. वहां मुझे बताया गया कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे जेके लोन अस्पताल में ले जाना चाहिए.’’

स्वास्थ्य क्षेत्र कवर करने वाली वरिष्ठ अफसर डाक्टर सविता बताती हैं, ‘‘यह कोई नई बात नहीं है कि सीएचसी और पीएचसी की हालत खराब होती है. मैं ने अपनी पड़ताल में पाया है कि अकसर इन संस्थानों के ताले बंद रहते हैं. यहां जरूरी उपकरण और डाक्टर मौजूद नहीं होते हैं. ऐसे में गरीब लोगों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है.

‘‘कभीकभार प्राइमरी लैवल पर सरकारी सुविधाओं की कमी के चलते लोगों को उन लोगों के पास भी जाने को मजबूर करती हैं, जो डाक्टर भी नहीं होते हैं.’’

‘‘सीएचसी के लैवल पर एक स्पैशलिस्ट, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, गायनोकोलौजिस्ट होना चाहिए. ये विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं होते हैं. जिन दवाओं की जरूरत होनी चाहिए, वैसी दवाएं उपलब्ध नहीं होती हैं. एएनएम उपलब्ध नहीं होती हैं. ऐसे में ग्रामीण और कसबाई इलाकों में रहने वाले लोग अपने बच्चों के बीमार होने पर गैरपंजीकृत डाक्टरों के पास ले कर जाते हैं.

‘‘ये डाक्टर उन्हें एंटीबायोटिक्स दे देते हैं, लेकिन जब कई दिनों तक बच्चे ठीक नहीं होते हैं, तब जा कर मांबाप अपने बच्चे को शहर के अस्पताल ले जाने की सोचते हैं.’’

कमजोर है बुनियाद

जनता को बेहतर डाक्टरी इलाज मुहैया कराने की तमाम सरकारी योजनाओं के बड़ेबड़े होर्डिंग भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर इन योजनाओं को असरदार तरीके से लागू न करने के चलते मरीजों का हाल बेहाल है.

अगस्त, 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मैडिकल कालेज में औक्सीजन की कमी से हुई सैकड़ों बच्चों की मौतें सरकारी अस्पतालों के बुरे हालात को उजागर करती हैं.

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गौरतलब है कि गोरखपुर और फर्रुखाबाद के जिला अस्पताल में मरने वाले बच्चे उन गरीब परिवारों के थे, जो इलाज के लिए केवल सरकारी अस्पतालों की ओर ताकते हैं.

राजस्थान के बांसवाड़ा में महात्मा गांधी चिकित्सालय में 51 दिनों में 81 बच्चों की मौतें कुपोषण की वजह से हो गईं. जमशेदपुर के महात्मा गांधी मैमोरियल अस्पताल में बीते चंद महीनों में 164 मौतें हुईं तो झारखंड के 2 अस्पतालों में पिछले साल 800 से ज्यादा बच्चों की मौतें हो गईं.

राज्य में जनस्वास्थ्य पर काम करने वाले डाक्टर नरेंद्र गुप्ता ने बताया, ‘‘प्राइमरी लैवल पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बहुत कमजोर है. पहले ऐसी मौतें घर पर ही हो जाती थीं, अब मरीज अस्पताल तक पहुंच रहे हैं. ऐसी मौतें तभी रुक सकती हैं, जब जमीनी लैवल पर बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों. यह भी एक हकीकत है कि डाक्टर देहाती क्षेत्र में जाना नहीं चाहते. जो बच्चे मर रहे हैं, उन में काफी कुपोषित होते हैं.

‘‘अगर तहसील लैवल पर स्वास्थ्य सेवाएं ठीक हों, तो काफी सुधार हो सकता है, क्योंकि ऐसे मरीज बड़े अस्पतालों तक देर में पहुंचते हैं. पहले वे लोकल लैवल पर कोशिश करते हैं.

‘‘अस्पतालों पर काफी भार होता है. प्राथमिक और मध्यम स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा न के बराबर है. तभी इन लोगों को कोटा जैसे बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.’’

नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

अमेरिकी लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर जिम रौन ने कहा है कि आप वास्तव में जो चाहते हैं, आप का मस्तिष्क खुद ही आप को उस ओर खींच लेता है. इसलिए नकारात्मकता के अंधेरे से आप सकारात्मकता के उजाले में आसानी से आ सकते हैं. बस, आप को अपने मस्तिष्क में बने दृष्टिकोण और उस की शब्दावली में थोड़ा हेरफेर करना होगा. आइए जानें कैसे करें :

नैगेटिव थिंकिंग वाले लोगों से रहें दूर

कुछ लोग इतने नैगेटिव होते हैं कि उन के साथ रह कर पौजिटिव सोच वाला व्यक्ति भी बदलने लगता है. ऐसे लोग हर समय नकारात्मक माहौल बनाए रखते हैं, ऐसे लोगों से बचें, क्योंकि उन के साथ रह कर जीवन में कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि अन्य लोग भी आप से दूरी बनाने लगेंगे.

बहाने बनाने से बचें

जो भी काम आप ने अपने हाथ में लिया है, उसे समय पर पूरा करें. आलस में आ कर उसे न करने के बहाने मारने से नुकसान आप का ही होगा, अगर एक बार आप ने बहाना छोड़ कर यह काम कर लिया तो आप को कभी जिंदगी में इस तरह के नकारात्मक विचार तंग नहीं करेंगे.

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तुलना न करें

अगर आप के किसी दोस्त को किसी कंपीटिशन ऐग्जाम में सफलता मिली है तो उस की तुलना खुद से कर रोना न रोएं कि आप को इतने प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिली. ऐसा करना बेवकूफी है बल्कि ऐसे में आप को चाहिए कि दोस्त की खुशी में शामिल हों और उस से सलाह लें कि सफलता के लिए उस ने क्या किया और अपनी कमियों को ढूंढ़ कर दूर करने का प्रयास करें.

सफलता असफलता एक सिक्के के 2 पहलू हैं इस बात को हमेशा ध्यान रखें कि यदि आप सफल नहीं होते और डिप्रैशन में जा कर सब से बोलचाल बंद कर खुद को अलगथलग कर लेते हैं, तो यह कोई हल नहीं है.

अगर असफलता मिली है तो उस से सीख कर आगे बढ़ते हुए ही कामयाबी के शिखर पर पहुंचेंगे.

म्यूजिक सुनें

जब भी आप तनाव या नकारात्मकता से घिरे हुए हों तो इस सिचुएशन से खुद को बाहर निकालने के लिए संगीत का सहारा लें. इस से आप का तनमन दोनों प्रसन्न होंगे और आप परेशानी को भूल कर आगे बढ़ पाएंगे.

खुद को प्रोत्साहित करें

जब भी आप को लगे कि आप विफल होने लगे हैं तो खुद को समझाने का प्रयास करें और कहें कि हमें नहीं हारना. जब आप खुद से इस तरह की बातें करेंगे तो निराशा कम होगी और हिम्मत मिलेगी जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी.

आज में जीएं

वर्तमान में रहने की कोशिश करें. जो बीत गया है उस के बारे में विचार कर दुखी न हों और जो होने वाला है उस की सोच में डूबने के बजाय जो आज है उसे ऐंजौय करें.

खुश रहें

आज क्या अच्छा हुआ है उस पर विचार करें. यह कुछ भी हो सकता है सुबह नाश्ते का स्वादिष्ठ परांठा, किसी दोस्त की फोन कौल या फिर रास्ते में देखा कोई सुंदर बच्चा. इस से तनाव कम होगा और आप अच्छे काम के लिए प्रेरित होंगे. आप दूसरों को खुशी तभी दे पाएंगे जब आप खुद खुश रहें. इसलिए अपने मन को प्रसन्नचित्त रखें. जिन कामों को करने में आप को खुशी महसूस होती है. उन के लिए वक्त निकालें.

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शराब न पीएं

शराब नकारात्मक विचारों को जन्म देती है और इस के इस्तेमाल से मनुष्य जानवरों की तरह बरताव करने लगता है. उस का अपनी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं रहता. इसलिए शराब का सेवन न करें.

हंसने की आदत डालें

यह एक तरह की थेरैपी है. बिना किसी कारण के रोजाना 5-10 मिनट जोर से ठहाके लगा कर हंसें. इस से ब्लडप्रैशर कंट्रोल रहता है और विचारों में सकारात्मकता आती है. हंसने के लिए मौके न तलाशें. हर रोज ऐक्सरसाइज की तरह कुछ देर हंसने की आदत डालें.

बच्चों के साथ समय बिताएं

बच्चों के साथ खेलें, उन के साथ बातें करें, चीजों को उन के नजरिए से देखें, सुनें. तब आप को एहसास होगा कि दुनिया में कितना भोलापन है और आप का चीजों को देखने का नजरिया ही बदल जाएगा. बच्चों के साथ आप का जिस तरह से मन चाहे उस तरह से खेलें. लोग क्या कहेंगे इस बात की परवा न करें.

सहज रहना सीखें

दुखद परिस्थिति में भी सहज रहना सीखें. जटिल समय में उन लोगों के बारे में सोचें, जिन्होंने खुद को मुश्किल स्थितियों से बाहर निकाला. वर्तमान में आप क्या अच्छा कर सकते हैं. इस बारे में सोचें.

खुद के साथ समय बिताएं

सुबह पार्क में टहलें, छुट्टियों में घूमने जाएं, प्रकृति के बीच समय बिताएं, अपने फोटो खींचें, अपने लिए शौपिंग करें, अपना मनपसंद खाना खाने रैस्टोरैंट जाएं, फिल्म देखें. इस तरह खुद से प्यार करना भी जीवन में अच्छाई की ओर ले जाता है.

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नैगेटिविटी क्या है

– दूसरों के कार्यों में हमेशा कमी निकालना.

– अपने काम से संतुष्ट न होना. हमेशा काम में मन न लगने का रोना रोते रहना, लेकिन उसे अच्छा बनाने के लिए कोई खास प्रयास न करना.

– छोटी सी बात पर हायतोबा मचाना और अपने साथ दूसरों को भी परेशान करना.

– दूसरों को आगे बढ़ता और खुश देख कर जलन महसूस करना.

– अपने से अमीर या संपन्न लोगों को देख कर खुद को हीन समझना.

– खुद पर विश्वास न होना.

– किसी भी काम को ट्राई करने से पहले ही उस का नतीजा सुना देना, ‘वह काम मुझ से नहीं होगा, मुझे नहीं आता,’ वगैरावगैरा.

नैगेटिव थिंकिंग को पौजिटिव थिंकिंग में कैसे बदलें

– यदि किसी खास परिस्थिति को ले कर आप के मन में नकारात्मक विचार हैं और आप गुस्से में हैं तो कुछ देर शांत रहें और उस परिस्थिति को किसी दूसरे नजरिए से देखें. खुद ब खुद आप के मन में सकारात्मक विचार आ जाएंगे.

– आज नियमित काम से कुछ अलग हट कर करें. वह आप की कोई हौबी या फिर ऐसा गुण भी हो सकता है जिसे आप भूल गए थे. ऐसा करने पर आप को खुद से प्यार होगा और लगेगा कि आप भी लीक से हट कर कुछ नया और अच्छा करने की काबिलीयत रखते हैं, इस से अपने प्रति आप का नजरिया पौजिटिव हो जाएगा.

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– यदि शारीरिक रूप से सौंदर्य के मामले में आप में कोई कमी है तो उसे सहज स्वीकार करें. अगर उस कमी के बारे आप हीनभावना के शिकार होते हैं तो ऐसे में उन्हें न देखें, जिन में कोई कमी नहीं है बल्कि ऐसे लोगों को देखें जिन में आप से भी ज्यादा कमी है और वे खुशहाल जीवन जी रहे हैं. ऐसे लोगों से प्रेरणा लें.

– किसी फैमिली फंक्शन में जाएं तो वहां कमियां न निकालें. ऐसा करने से खुद को रोकें और अच्छा देखने का प्रयास करें. वहां आप कमियां निकालने नहीं बल्कि ऐंजौय करने आए हैं.

– नकारात्मकता से व्यक्ति गुस्सैल हो जाता है इसलिए किसी भी बात पर तुरंत रिऐक्ट करने से पहले एक बार अवश्य सोचें कि जो आप कहने जा रहे हैं वह सही है या आप के बेवजह के गुस्से का परिणाम है. जवाब आप को मिल जाएगा और उस के साथ आप का गुस्सा भी शांत हो जाएगा व पौजिटिव सोच भी आ जाएगी.

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