Short Story : कबीरदास दुखी, कबीरदास सुखी

कबीरदास बीच चौराहे पर लुकाटी लिये खड़े हैं. दूर तलक कोई  नजर नहीं आ रहा है. कबीरदास शांत भाव से चहलकदमी कर रहे हैं.

‘अरे ! शहर का व्यवस्तम चौराहा है या जंगल .दिनदहाड़े ऐसी शांति….’ कबीरदास बुदबुदाते खड़े हो जाते हैं. आखिर क्यों कोई मेरे साथ चलने की तो छोड़ो, बात करने को तैयार नहीं !  कुछ  समझने को तैयार नहीं !

शहर में हल्ला हो गया है- सुनो-सुनो, गांधी चौक से न गुजरना, वहां कबीरा खड़ा है.

रोहरानंद ने सुना तो उठ खड़ा हुआ- कबीर साहेब हमारे शहर आए हैं और लोग कतरा रहे हैं ? कैसे कृतध्न लोग हैं… रोहरानंद उत्सुक आगे बढ़ा तो नगर के एक गणमान्य ने  रोक- ‘ऐ ऐ… उधर न जाओ भईया .’

रोहरानंद सुनी अनसुनी कर आगे बढ़ा. एक राजनीतिज्ञ ने टोका- ‘मरना है क्या ?’ मगर रोहरानंद आगे बढ़ा. एक अभिनेत्री बोली- ‘इधर आइए न !’ मगर अनसुनी कर रोहरानंद आगे बढ़ता चला गया .’

गांधी चौक पर कबीरदास खड़े हैं .रोहरानंद पास पहुंचा तो कबीर साहेब की चरण वंदना की, उन्होंने कहा- मैं सुनता था, भारत में मेरी बड़ी कद्र है,पर आज स्वप्न टूट गया. उनके स्वर में आर्त भाव था.

ये भी पढ़ें- बुलडोजर : कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

-‘बाबा ! ऐसा नहीं है. आप तो हम भारतीयों के मन, आत्मा में बसे हुये हैं यह बात तो सारी दुनिया जानती है.’

‘हां, आज देख लिया. सुबह से खड़ा हूं, कितने लोग आए ? देखो मुझे मत भरमाओ. इस देश की तासीर बदली नहीं है, कल भी ऐसी थी, आज भी…’

रोहरानंद का मुंह फटा का फटा रह गया- ‘बाबा ! ऐसा कैसे कह रहे हैं ? ”

‘ ‘छ: सौ वर्ष पूर्व भी लोग मुझसे छिटककर दूर भाग जाते थे . मैं जब कहता- तेरा मेरा मनुआ कैसे इक होई रे… तू कहता कागज की लेखी मैं कहता आंखन की देखी… तो लोग टुकुर-टुकुर देखते और ऐसे भागते जैसे मैं कोई दूसरी दुनिया का आया हूं.”

‘बाबा !’ रोहरानंद ने कहा-‘ देखिए, मैं तो आया हूं न !’

‘ तुम अपवाद हो उस समय भी चंद लोग थे. मगर बहुसंख्यक तो देख कर छिटकने वाले ही हैं.’

‘ अच्छा बाबा ! आपको इसमें बड़ी कोफ्त होती होगी न… जब आप कहते हैं कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ.

कबीरदास हंस पड़े, मगर इस हंसी में खुलापन नहीं था- ‘मैंने जो दिल में आया अंर्तरात्मा की आवाज उठी, कहा, अब लोग सोए हुए हैं, तो मैं क्या करूं.

‘ मगर बाबा ! कवि की सार्थकता तो इसी में है कि लोग उसके बताए रास्ते पर चलें .बड़ी कोफ्त होती होगी न !’

– ‘देखो  मैंने कहा है न… कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटयन के पास, जो करनगे सो भरनगे, तुम क्यो भयो उदास.”

‘हां ! आपने तो बड़ी  तल्खी के साथ सांचा मार्ग बताया है.आप की गणना इसलिए तो महानतम कवियों में होती है.’ रोहरनंद ने सविनय कहा.

‘गणना ! गणना से क्या होगा भाई…’ ‘लोग आपका तहेदिल से सम्मान करते हैं.अक्सर सभा, संगोष्ठी, संसद, विधानसभा में आपकी वाणी  गुंजारित होती है ।’

‘हां, मैं भी सुनता हूं, मगर…”

‘जी ? रोहरानंद ने आश्चर्य प्रकट किया .’मगर कोई तो हो जो उस रास्ते पर चले. पूरी व्यवस्था ही विपरीत दिशा में दौड़ लगाये जा रही है. अब मेरी टांगों में इतनी उर्जा तो है नहीं कि मैं पीछे जाकर उन्हें समझाऊं. मैंने जो लिखना था, लिख डाला अब पालन करो या सुनकर अनसुना कर दो, तुम्हारी मर्जी.’ ‘कबीर दास ने आर्त स्वर में कहा.

‘लेकिन बाबा ! आप यह कैसे कह सकते हैं कि लोग आपकी नहीं सुन रहे  मैं तो कहूंगा जितना आप की सुनते और गुनते है, उतना किसी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति की भी नहीं सुनते, आप तो बिना पद के सम्मानीय हैं.’

-“फिर वही बात ! भले आदमी, तुम किसी कवि  का दुख नहीं समझ सकते. तुम्हारा सरोकार दूसरा है…’

-“मगर बाबा, आप को तो सदैव प्रसन्न मुद्रा में रहना चाहिए.”

-“देखो ! सुनना और गुनना एक बात है. सम्मानीय होना और भी अलग बात है इसमें खुशी कैसी ? “कबीरदास बोलें.

ये भी पढ़ें- ऐसी जुगुनी

-“‘तो आप क्या चाहते हैं ?’ रोहरनंद ने दुःखी  होकर कहा.

‘ मेरे कथन का प्रतिपालन… एम्पलीमेंट… कबीर देखी परखि ले परखि के मुखा बुलाय, जैसी अंतर होएगी मुख निकलेगी हाय ।’ कबीर दास ने संजीदा वाणी में कहा.

‘ लेकिन आज समय बड़ी रफ्तार से भागा जा रहा है. पीछे मुड़ कर आपकी और देखने का समय किसके पास है. आपकी अंतरात्मा को बेधती  बातें सुनकर अगर एम्पलीमेंट करूं तो मैं जिंदा इसां  कहां रह जाऊंगा.’

‘ हां शायद यही विचार करके जनमानस मेरी बात सुन चुपचाप बगल से निकल जाता है… कबीरदास ने कनखियों से  देखते हुए कहा.

‘ बहुत-बहुत कठिन है,आपकी वाणी का प्रतिपालन. किताबों में, सभा सम्मेलन के लिए ही ये शोभाप्रद है.’

‘ हां इसलिए मैं दुखी हूं. देखों न ! चौराहे पर कब से खड़ा था बमुश्किल एक तुम पिंजरे में फंसे हो.”

‘बाबा ! ऐसे ही कुछेक लोग भी आपकी बात को जीवन में धारण कर लें तो आपका कहा सार्थक हो गया न !’

‘ हां मैं भी नाहक परेशान हो जाता हूं… समय के धारे में जो कहा,कहा अब आगे निकल, यही सत्य है’.

रोहरानंद आगे बढ़ा उसके मुख से अस्पष्ट शब्द नि:सृत हो रहे हैं थे –

आटा तजि भूसि गहै चलनी देखु विचार, 

कबीर सराहि छादि के गहेअसार संसार.

सोने के लालच की “फांस”

अक्सर हम सुर्खियों में देखते हैं सोना देने, दिलाने की लालच में किस तरह ठगी  हो जाती है. मगर इसके बावजूद लोग आज भी सोने की पीली धातु की चमक में आकर ठगी का शिकार हो रहे हैं. छत्तीसगढ़ की स्टील सिटी कहे जाने वाले भिलाई एवं आदिवासी जिले जशपुर  में दो बड़ी सनसनीखेज घटना घटित हुई है. जो यह दर्शाता  है कि देश में आज भी सोने का लालच किस तरह बुरी बला बना हुआ है.

भिलाई शहर  स्थित एक हार्डवेयर व्यापारी को लालच में फांस कर एक व्यक्ति ने सोने का ऐसा झांसा दिया की वह दिन दहाड़े लुट गया. एक  व्यक्ति 2जून  को  नकली सोना थमाकर व्यापारी से 5 लाख रुपये लेकर फरार हो गया. दरअसल,  नंदिनी रोड में हुई इस घटना के बाद  छावनी पुलिस ने धारा 420,34 के तहत अपराध भी  कायम कर लिया है. ठगी के शिकार हुए निर्मल  जैन (53 वर्ष ) शांति नगर का रहवासी है.  निर्मल को  एक अनजान शख्स ने महिला सहयोगी के साथ मिल जाल मे फंसा ठगी का शिकार बनाया. इस वारदात को अंजाम देने से पहले आरोपी ने व्यापारी निर्मल कुमार जैन पर पेशेवर ठग की तर्ज पर पहले दाना डाला.

ये भी पढ़ें- Best of Crime Stories : पति परदेस में तो फिर डर काहे का

कथित आरोपी 20 मई को निर्मल की दुकान पर प्लायी  क्रय करने  पहुंचा. इस दौरान रुपये कम होने का हवाला देकर उसने एक चांदी का सिक्का सामने रख दिया. निर्मल ने कहा,- यह तो प्लायी की कीमत से काफी महंगा है. तब उस शख्स ने संजीदगी से  कहा  कि उसके पास बहुत  सा  सोना है, जिसे वह बाजार रेट से कम में निकालना  चाहता है. शख्स की बातों से प्रभावित निर्मल जैन ने सोना देखने के बाद सौदा करने हामी भर दी.  दूसरी  बार 22 मई को वह अनजान शख्स एक सोने का चेन लेकर निर्मल की दुकान पर फिर से पहुंचा. इस बार उसके साथ एक महिला भी थी.आदिनाथ सेल्स एजेंसी के संचालक को विश्वास में लेकर ठग ने पांच लाख रुपये  लेकर चलता बना.

सोने की लालच बनी  बला

भिलाई छावनी  मामले के जांच अधिकारी विनय बघेल  बताते हैं  करुणा हॉस्पिटल के पास  सुपेला शांति नगर सड़क-3 क्र्वाटर- 238 निवासी निर्मल जैन (53 वर्ष) की नंदनी रोड में आदिनाथ सेल्स एजेन्सी के संचालक है कोरोना काल के संक्रमण समय मे  20 मई को सुबह 10 बजे उनकी दुकान आया और अपनी मोहक बातों में फंसा कर ठग ने  विश्वास में ले लिया. ठग ने निर्मल का भरोसा जीतने के लिए उसे 4 दाना सोने की चेन से तोड़कर उसी के सामने  रख  दिया. ठग ने कहा कि इसकी पहले जांच करा लीजिए. इसके बाद खरीदना. निर्मल जैन ने सोने के दाना को निकट के  राधा ज्वेलर्स  में चेक कराया. चारों दाना पक्का गोल्ड था. ठग पर निर्मल का भरोसा पक्का हो गया. अज्ञात  ठग ने कहा कि उसके पास बहुत चांदी और सोना है जो  वह निकालना चाहता है.

2 जून को पीतल धातु में सोने का पानी चढ़ाकर वह ले आया.  और निर्मल जैन से  5 लाख नकद ले लिए. दोनों के बीच 7 लाख 50 हजार में सौदा हुआ था . निर्मल ने उसे पांच लाख रुपए नकद दिया.बाकि 2.50 लाख बाद में देने की बात तय हुई . ठग राजी खुशी  उसकी बात पर सहमत हो गया.पांच लाख रुपए  लेकर चलता बना. शाम को जब निर्मल ने जब सोना की जांच कराई को वह पीतल का निकला तो मानो उसके होश उड़ गए .

ये भी पढ़ें- पति से दूरी ने बढ़ाया यार से प्यार

महिला थी ठग की साथी

भिलाई शहर में हुई ठगी से सनसनी का माहौल निर्मित हो गया. एक शिक्षित उच्च वर्गीय शख्स  को ठगे जाने की मिश्रित प्रतिक्रिया हुई. यह तथ्य भी सामने आया कि ठग के साथ एक खूबसूरत महिला थी. उसके रूप लावण्य में फंसकर जैन साहब ठगी का शिकार हो गए! इसी तरह छत्तीसगढ़ के जशपुर में थाना बगीचा अंतर्गत एक गांव की सरपंच जो पूर्व में शिक्षिका थी  लाखों रुपए लाल सोना प्राप्त करने के लिए लुटा बैठी. छत्तीसगढ़ पुलिस इस मामले की भी तत्परता से जांच कर रही है.

बदबू : कमली की अनोखी कहानी

ऐसी जुगुनी : भाग 2

अब तक आप ने पढ़ा कि

किस तरह जुगुनी ने विवाह के बाद अपनी ससुराल में कलह के बीज बोने शुरू कर दिए. भाई व मां के भड़काने पर जुगुनी ने पति तेजेंद्र को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया. जुगुनी के इस साजिशाने रवैए ने आगे क्या गुल खिलाया, जानने के लिए

पढ़िए कहानी का आखिरी भाग…

इधर कोई 3 वर्षों तक जुगुनी गर्भवती नहीं हुई तो मायके वालों को चिंता हो गई कि कहीं तेजेंद्र नामर्द या नपुंसक तो नहीं है. अम्मा के सिखाने पर जुगुनी ने पड़ोस में ढिंढोरा पीटना शुरू कर दिया कि कमी तेजेंद्र में है.

अम्मा मुंबई आई तो उस ने जुगुनी की आंखों में झांक कर देखा, ‘‘बिटिया, कोई खास बात है क्या?’’ वह आंखें नचाते हुए बोल पड़ी, ‘‘अम्मा, मुझे तो लगता है कि तेजेंद्र का अपने ही औफिस में किसी लड़की के साथ कोई चक्करवक्कर चल रहा है. वरना शादी के 3 वर्षों बाद भी…’’ पर, सचाई यह थी कि तेजेंद्र बड़ी सावधानी बरतता था और कुछ वर्षों तक बालबच्चों की जिम्मेदारियों से दूर रहना चाहता था.

एक दिन तेजेंद्र के औफिस जाते ही अम्मा जुगुनी को खींचती हुई एक मौलवी के पास ले गई. मौलवी ने अम्मा और जुगुनी की सारी समस्याएं सुनने के बाद उन के शक पर सच की मुहर लगा दी, ‘‘आप की बिटिया के पांव इसलिए भारी नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि उस के शौहर के किसी के साथ नाजायज ताल्लुकात हैं और वह जल्दी ही आप की बिटिया को छोड़ कर उस से निकाह करने जा रहा है. पर, उस बदचलन औरत से इस के शौहर का छुटकारा दिलाने का तिलिस्मी नुसखा मेरे पास है. कल तुम दोनों मुझ से पीर बाबा के मजार पर मिलना.’’

अम्मा को मौलवी द्वारा बताई गई एकएक बात पर भरोसा हो गया. मौलवी ने दोनों को नाको चने चबवाए. ऐसेऐसे कर्मकांड करवाए कि अम्मा के सिवा कोई और औरत होती तो भाग खड़ी होती.

अम्मा ने तो मौलवी के नुसखों को खूब आजमाया. बदले में, उसे मुंहमांगा पैसा दिया. इस के अलावा, मौलवी के कर्मकांडों में शिरकत करने के लिए जुगुनी को एक रात उसी के यहां छोड़ कर भी आई और तेजेंद्र से बहाना बना दिया कि जुगुनी अपनी एक सहेली की शादी में गई हुई है और रातभर वहीं रहेगी.

ये भी पढ़ें- सत्संग : धर्म की आड़ में हवस का गंदा खेल

इस तरह उस ने मौलवी द्वारा दिए गए झाड़फूंक वाले कुछ रसायन और राखभभूत भी चोरीछिपे तेजेंद्र को भोजन में मिला कर खिलाई जिस से वह कभीकभी बीमार भी पड़ गया. पर, जब सारे नुसखे बेकार हो गए तो फिर, वह उसे कर्मकांडी ओझाओं और बाबाओं के पास भी ले गई.

यह सब करते हुए जुगुनी उकता गई, ‘‘अम्मा, हमारी दुर्दशा काहे कर रही हो? अब जब तेजेंद्र ही नालायक और बेपरवाह हो कर गैरों पर अपना सर्वस्व लुटा चुका है तो हमारा कल्याण कभी नहीं हो सकता.’’

इसी दरम्यान, जुगुनी की एक रिश्ते की बहन कल्लो, जिसे टोनेटोटकों में बड़ी महारत हासिल थी, ने अम्मा को फोन कर के बताया, ‘‘मामी, जुगुनी के गर्भवती न होने का एक अहम कारण यह है कि तेजेंद्र के घर वालों ने ओझाओं द्वारा कुछ कर्मकांड करवाए हैं.

‘‘इस बार जब आप वापस घर आना तो जुगुनी को भी ले कर आना. मैं उस कर्मकांड की काट बताऊंगी. जुगुनी निश्चित तौर पर मां बनेगी और तेजेंद्र उस का साया बन कर उस के आगेपीछे डोलता फिरेगा.’’

उस के बाद, जब जुगुनी मायके गई तो उस की रिश्ते की बहन कल्लो समेत उस के जीजा ने भी उस से ढेरों कर्मकांड करवाए. उस ने अपने जीजा के घर में कुछ दिनों रह कर भी बहुतकुछ कर्मकांड किए. उन के साथ श्मशान घाट, पीर बाबा की मजार और शिवाले भी गई.

यों तो उस के जीजा किसी प्राइवेट औफिस में कार्यरत थे, पर वे भी हस्तविद्या, अंकविद्या जैसी ज्योतिष विद्याओं में पारंगत होने का खूब दम भरते थे और ज्योतिष की किताबें भी पढ़ा करते थे.

खुद जुगुनी ने तेजेंद्र को अपने जीजा की इस क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियों के बारे में विस्तार से बतलाया था कि उन्होंने कितनों को ही हीरा, पन्ना, नीलम और पुखराज जैसे पत्थरों की अंगूठियां पहना कर उन के समय में चारचांद लगाए हैं और तुम्हें उन से मिल कर अवश्य ही उपकृत-लाभान्वित होना चाहिए.

ऐसी बातों का हमेशा मखौल उड़ाने वाला तेजेंद्र उस की बात ही टाल जाता. बहरहाल, जब वह जीजा के यहां से वापस मायके आई तो तेजेंद्र के बड़े भाई कमलेंद्र उसे अपने शहर लेने आ गए. उन्होंने अम्मा से कहा, ‘‘मम्मीजी, जुगुनी को कुछ दिन मेरे यहां भी रहने के लिए भेज दीजिए, बच्चे अपनी छोटी आंटी से मिलने के लिए बेचैन हैं.’’

अम्मा तो कमलेंद्र की शक्लसूरत और कीरतसीरत पर पहले से ही फिदा थी और कई बार यह भी तमन्ना कर चुकी थी कि काश, जुगुनी को कमलेंद्र जैसा पति मिला होता. सो, उस ने कोई नानुकुर किए बिना, कमलेंद्र के साथ जुगुनी को विदा कर दिया, जहां वह उस के और उस के परिवार के साथ 2 हफ्ते रही.

कुल मिला कर, अम्मा तो इसी बात से बेहद खुश थी कि चलो, अपने पति तेजेंद्र के साथ रह कर जुगुनी भले ही खुश न रह पा रही हो, मायके आ कर कुछ दिन प्रसन्नचित्त तो हो जाती है. यहां वह अपने जीजा और तेजेंद्र के बड़े भाई के साथ कुछ दिन गुजार कर चैनसुकून की सांस ले पाती है.

उस ने उस से कहा भी, ‘‘जुगुनी, कभीकभार मायके आ कर रह जाया करो. मन बहल जाया करेगा. करमजले तेजेंद्र से दूर रह कर थोड़ी सी राहत तो तुम्हें मिल ही जाती है. यहां रहोगी तो हमारे प्रयास से तुम पेट से भी हो सकोगी. हम जल्दी ही मौलवियों, ज्योतिषियों, कर्मकांडियों और तुम्हारे जीजाजी के प्रयास से कुछ न कुछ करने में सफल हो ही जाएंगे. अब तो तुम्हारे जेठ भी तुम में बहुत दिलचस्पी लेने लगे हैं. वे तुम्हारे लिए बड़े चिंतित रहते हैं, कहते हैं कि जुगुनी को तेजेंद्र के रूप में नालायक शौहर मिला है.’’

वापस मुंबई लौट कर जुगुनी बहुत खुश थी. तेजेंद्र ने उस से कईर् बार उस की खुशी का राज जानना चाहा. वह बारबार एक ही बात कहती, ‘‘तुम्हें इतनी जलन क्यों हो रही है?’’

तेजेंद्र मायूस हो जाता, ‘‘मुझे जलन क्यों होने लगी? क्या मुझे तुम्हारी खुशी में शामिल होने का हक नहीं है?’’

तब वह तुनक उठती, ‘‘तुम्हें तो असली खुशी अपने भाईबहनों के साथ मिलती है. तुम्हें तो उन्हीं से शादी कर लेनी चाहिए थी.’’ वह चुप हो जाता, फुजूल में बात का बतंगड़ बनाने से क्या फायदा.

मायके से लौटने के बाद जुगुनी के तेवर बदलेबदले से थे. वह बारबार तेजेंद्र से उस की तनख्वाह और खर्च के बारे में पूछने लगी थी. पहले तो तेजेंद्र झल्ला गया, फिर, उस ने शांत मन से बतलाया, ‘‘मैं तो खर्चे का पैसा यथास्थान डब्बे में डाल ही देता हूं जहां से जिसे जितनी जरूरत हो, निकाल सकता है. कभी मैं ने यह नहीं पूछा कि किस मद में कितना पैसा खर्च हुआ है. तुम्हें भी अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए पर्याप्त पैसे दे देता हूं. फिर तुम ये सब क्यों पूछ रही हो?

घर के लिए कमाता हूं और घर पर ही खर्च करता हूं. मेरी कोई ऐसीवैसी नाजायज आदत तो है भी नहीं कि पैसे का दुरुपयोग करूं. हां, तुम जब चाहो, मुझ से हिसाब ले सकती हो.’’ जुगुनी आवेश में आ गई, ‘‘हांहां, मुझे सब पता है. तुम झूठे नंबर वन हो. सारा पैसा अपने घर, अपने भाईबहनों को भेज देते हो. तभी तो हमें इतनी तंगहाली में दिन गुजारने पड़ रहे हैं. उन कमीनों ने तुम्हारे ऊपर जादू कर के तुम्हें अपने वश में कर रखा है.’’

रोजरोज के ऐसे ताने सुन कर तेजेंद्र गुस्से में आ जाता. वह सोचता कि इतने रुपए खर्च करने और इतने आरामऐश से रखने पर भी जुगुनी की शिकायत बनी रहती है. पर वह कोई जवाब दिए बिना ऊपर छत पर चला जाता.

जुगुनी के मायके से आने के बाद कोई 2 हफ्ते ही गुजरे होंगे कि उस का जी मतलाने और सिरदर्द तथा बुखार आने की वजह से तेजेंद्र उसे डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने सारे चैकअप करने के बाद बताया कि जुगुनी गर्भवती है. डाक्टर की घोषणा पर तेजेंद्र झूम उठा, ‘‘अरे, मैं ने तो इस बारे में कभी सोचा भी नहीं था कि तुम्हारा पति बनने के बाद पिता भी बनना होगा.’’ उस ने डाक्टर के यहां से घर लौटते समय रास्ते में ही मिठाई खरीदी और पड़ोस के हरेक घर में बंटवाई.

अगले दिन, औफिस में दोस्तों का भी मुंह मीठा करवाया. जुगुनी ने अम्मा को फोन कर के यह खुशखबरी दी तो उधर की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी थी, ‘‘देखा न, मेरे कर्मकांडों का असर. अगर यह सब मैं न करती तो तुम्हें जीवनभर बांझ औरत होने का ताना खुद अपने ससुरालियों और पति से सुनना पड़ता. अब तेजेंद्र को उस औफिस वाली रखैल को छोड़ कर वापस तुम्हारे पास आना ही पड़ेगा.’’

ये भी पढ़ें- कोठे में सिमटी पार्वती

जीजा और कमलेंद्र की ओर से भी शुभकामनाएं आईं. पर, जुगुनी इस उधेड़बुन में थी कि वह किस को धन्यवाद दे? मुंबई वाले मौलवी को या अपने मायके वाले कर्मकांडियों को या अपनी रिश्ते की बहन-कल्लो को, या तेजेंद्र के भाई को? सभी ने उसे पेट से होने के लिए क्याक्या उपाय नहीं किए थे.

महीने और साल गुजरते गए. पहला बेटा होने के कोई 5 वर्षों बाद दूसरी संतान बिटिया के रूप में हुई. तेजेंद्र ने एक आदर्श परिवार का निर्माण किया. वह जिस तर्कपूर्ण वैज्ञानिक दौर में जी रहा था, उस में उस ने अपने बलबूते पर एक अच्छे इलाके में अपने लिए एक घर लिया, एक कार खरीदी और जरूरत के अधिकतर सामान इकट्ठे किए.

कहीं किसी औघड़ द्वारा तावीज पहन कर उसे ये चीजें मुहैया नहीं हुईं, जबकि सास का यह दावा था कि उस के अमुक पूजापाठ करवाने की वजह से तेजेंद्र एयर कंडीशन और वाश्ंिग मशीन खरीद सका. मेरे द्वारा फलानी देवी मइया के दर्शन से वह कार और स्कूटर खरीद पाया और प्रयाग में महाकुंभ स्नान करने पर वह अपने मकान में गृहप्रवेश कर सका.

अगर वह इतने ढेर सारे तामझाम और टोनेटोटके न करती तो वह सड़कछाप ही रह गया होता. बहरहाल, घर में कीमती सामान इकट्ठे कर के जुगुनी पूरे महल्ले में इतरा रही थी और पड़ोसवाले दिनेशजी, राय साहब व चौधरी साहब के बराबर अपनी हैसियत होने का वहम पाल रही थी.

पर, उफ्फ, तेजेंद्र के साथ सब से बुरी बात यह हुई कि छोटी बहनों में दूसरे नंबर की बहन मीठी की अचानक मौत हो गई. डाक्टरों ने कभी उसे क्षयरोग की दवा दी तो कभी निमोनिया की. कभी उसे पीलिया से ग्रस्त बताया गया तो कभी थैलीसीमिया से.

दरअसल, उसे तो कोई बीमारी हुई ही नहीं थी. बस, भावुक होने की वजह से सदमे में रहने लगी थी कि अब क्या होगा. 2 बेरोजगार भाइयों और 2 अनब्याही बहनों तथा एक परित्यक्त स्त्री (बहन) के परिवार का बेड़ा पार कैसे होगा? बड़े भाई ने अपनी जिम्मेदारियों से बहुत पहले ही किनारा कर लिया था. तेजेंद्र भी अपनी पत्नी के दबाव में उन के लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ था. यहां तक कि उन से मिलने की युक्ति भी नहीं कर पाता था. जुगुनी उसे बातबात में लांछित करती रहती थी.

अपनी मौत से ठीक एक दिन पहले मीठी ने खुद फोन कर के तेजेंद्र से निवेदन किया, ‘‘भैया, आप तुरंत मेरे पास आ जाइए. मेरी तबीयत बहुत खराब चल रही है. आप आ जाएंगे तो मुझे ढाढ़स मिलेगा. मेरा मनोबल बढ़ेगा और मैं ठीक हो जाऊंगी.’’

तेजेंद्र ने उसे दिलासा दिया, ‘‘मैं यहां तुम्हारी भाभी से इजाजत ले कर शीघ्र आने का बंदोबस्त कर रहा हूं.’’ पर उसे तो बेहद डर लग रहा था कि अगर उस ने बीमार मीठी से मिलने जाने के लिए जुगुनी से कुछ कहा तो वह झगड़ाफसाद करने पर उतारू हो जाएगी और उसे किसी कीमत पर वहां नहीं जाने देगी. सारे गड़े मुर्दे उखाड़ने और दहेज के स्कूटर को वापस लेने के मुद्दे पर झगड़ने लगेगी.

लेकिन, अफसोस कि इस के पहले वह जुगुनी से इस बारे में बात करता, अगले ही दिन मीठी की तबीयत बिगड़ गई और उस के दिल की धड़कन रुक गई. तेजेंद्र को फोन पर खबर मिली कि मीठी नहीं रही.

वह बेहद आहत हुआ. मीठी के अंतिम शब्द थे, ‘कोई बड़ा आदमी घर में नहीं है.’ क्योंकि जब वह अंतिम सांसें ले रही थी, न तो पिताजी घर पर थे, न ही गजेंद्र. कमलेंद्र भाईसाहब के उपस्थिति होने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी. बस, उस की बड़ी और छोटी दोनों बहनें नंदिनी और रोशनी तथा तेजेंद्र का छोटा भाई प्रेमेंद्र ही उपस्थित थे. कमलेंद्र और तेजेंद्र तथा छोटा भाई गजेंद्र उस की अंत्येष्टि में मौजूद हुए. कमलेंद्र का परिवार अंत्येष्टि और दूसरे क्रियाकर्म में शामिल होने के लिए बाद में आया जबकि तेजेंद्र की पत्नी जुगुनी मीठी के शव के पास बैठ कर घडि़याली आंसू बहाती रही. जुगुनी के बड़े भाई शांताराम ने अंत्येष्टि के बाद के कर्मकांडों में पहुंचने का नाटक किया जबकि उस के मांबाप ने एक दिन पहुंच कर वहां अपनी मौजूदगी दर्ज की. अम्मा ने जुगुनी को एक कोने में ले जा कर उस के कान से अपना मुंह सटा दिया, ‘‘देखो जुगुनी, आगेआगे होता है क्या? तेरी ससुराल में बचेखुचे लोगों का भी सफाया जल्दी ही होने वाला है. मैं अपने कर्मकांडों के बल से खुद डायन बन कर लोगों के जीवन से खेल सकती हूं, यह मेरा दावा है. सारी दुनिया में उथलपुथल मचा सकती हूं.’’ तब, जुगुनी ने मुसकरा कर अम्मा को शांत रहने की सलाह दी.

जवान और अनब्याही बहन के निधन पर भाईबहन और सगेसंबंधी सभी व्याकुल थे. तेजेंद्र पश्चात्ताप की आग में जलता रहा, ‘काश, मैं मीठी के बुलाने पर समय से पहुंच गया होता तो इस अनिष्ट को रोका जा सकता था.’

बहरहाल, जब वह सारा कर्मकांड पूरा करा कर वहां से वापस मुंबई पहुंचा तो जुगुनी का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ था. उस ने मुंबई पहुंचते ही अपने जवान हो रहे बेटे अनुग्रह के कान भर कर उसे अच्छी तरह पढ़ालिखा दिया था कि तुम्हारे चाचाबूआ तुम्हारे पापा के टुकड़ों पर पल रहे हैं और तुम्हारे पापा अपनी तनख्वाह का एक हिस्सा उन के खर्चे के लिए हर माह भेज देते हैं. अनुग्रह को लगा कि उस का हक उस के चाचाबूआ मार रहे हैं. सो, वह अपने पिता की न केवल पूरी तरह अवज्ञा करने लगा, बल्कि उन से बदतमीजी से पेश भी आने लगा.

जुगुनी ने पता नहीं किस तरह उसे भड़काया कि एक दिन वह सारी हदें लांघ गया और उस ने अपने पापा पर हाथ उठा दिया. तेजेंद्र अपने बेटे की मार खा कर शर्र्म से जारजार हो गया. उस का जी कर रहा था कि वह खुदकुशी कर ले. पर, उस के सामने तो घर की जिम्मेदारियां थीं, जिन्हें वह पूरा कर के ही इस दुनिया से कूच करेगा.

वह छत पर चला गया और खुद को एक कमरे में बंद कर लिया. वह विषम परिस्थितियों से बेहद डर गया. अब उसे ऐसी स्थिति से बचना चाहिए ताकि वह अपने बेटे की हिंसा का शिकार न हो.

पर, जुगुनी तो उस की हालत देख, मन ही मन खुश हो रही थी. उस ने झट अम्मा को फोन लगा कर इस बारे में जानकारी दी, ‘‘आज तेजेंद्र को हम ने बेबस व लाचार कर दिया है. कितनी अच्छी बात है कि अनुग्रह अब मेरा साथ दे रहा है और उस ने आज अपने बाप की पिटाई भी की है. पर, वह बेहया, अपनी हरकत से बाज आने वाला नहीं है. वह अभी भी अपने भाईबहनों के लिए बेचैन है.’’

अम्मा खुशी से चहक उठी, ‘जुगुनी, अभी कल मैं देवी मइया के दर्शन करने गई थी. मैं ने उन से मांगा था कि वे जल्दी से जल्दी मेरी जुगुनी की जिंदगी संवार दें. अहा, मइया की कृपा तत्काल हो गई है. देखना, अब तू गिनती के कुछ दिनों में आबाद हो जाएगी. कोई भूचाल आएगा जिस में तेजेंद्र और उस के परिवार वाले मीठी की तर्ज पर बिना वजह कुत्ते की मौत मरेंगे और तू तेजेंद्र की मिल्कियत पर राज करेगी. यह तुझ से मेरा वादा है.’’

अम्मा से बातचीत बंद होते ही जुगुनी का भाई शांताराम, जिस ने पड़ोस में ही मकान ले रखा था, आ धमका. दरअसल, तेजेंद्र के किसी पड़ोसी ने उस के घर में होहल्ला सुन कर उसे जा कर बता दिया था कि तेजेंद्र और जुगुनी के बीच आजकल खूब ठनी हुई है और ऐसे मौके का मजा लेने के लिए तुम्हारा वहां मौजूद होना जरूरी है. सो, शांताराम ने आते ही चुटकी ली, ‘‘मेरे इशारे पर सही जा रही हो, जुगुनी. कुछ समय पहले जब तेजेंद्र के भाईबहन भी आए हुए थे, मैं ने देखा था कि अनुग्रह अपने चाचाबूआओं से बड़े प्यार और इज्जत से पेश आ रहा था. मुझे अनुग्रह को उन के इतना करीब पा कर बेहद डाह हो रही थी. तब, मैं ने तुम से कहा था कि जुगुनी, तुम्हें अपने बच्चों के मन में ऐसी ऊलजलूल बातें डालनी होंगी कि वे अपने चाचाबूआओं से घोर नफरत करने लगे.

‘‘आज मुझे कितनी खुशी हो रही है कि तुम ने मेरे सबक पर अमल किया. अनुग्रह ने अपने बाप की पिटाई कर के मेरे मन को बहुत ठंडक पहुंचाई है. वह तो उस का दुश्मन बन गया है. अब देखना, तुम्हारे अच्छे दिन आने वाले हैं. तुम कुछ ही समय में फलनेफूलने लगोगी.’’

तब जुगुनी ने शांताराम के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘वो मुआ तेजेंद्र ऊपर कमरे में खुद को बंद कर के शोक मना रहा होगा. दरअसल, वह अपने भाईबहनों से मोबाइल पर बात कर रहा होगा. वह उन से छिपछिप कर बात करने से कभी बाज नहीं आएगा.’’

अत्यंत उपेक्षित और अपमानित हो कर तेजेंद्र छत पर बने अलग कमरे में रहने लगा था. जुगुनी अपनी अम्मा से पाठ पढ़ कर उसे मानसिक रूप से और भी प्रताडि़त करने लगी थी.

जैसे ही वह नीचे की मंजिल पर किसी काम से आता, वह ताने देने लगती, ‘‘अपनी रसोई भी ऊपर ही कर लो. नीचे अपनी मनहूस शक्ल दिखाने क्यों आ जाते हो?’’ तब, अनुग्रह भी व्यंग्य करने से बाज नहीं आता. लेकिन, मन से तनिक भावुक बेटी रचना, जो अपने भाई से 5 साल छोटी थी, बड़ी सहानुभूति से पापा को देखती. पर, मम्मी के डर से उस के पक्ष में कुछ भी न बोल पाती. वह सशंकित होती कि मम्मी उस की शिकायत नानी अर्थात अम्मा से न कर दें.

तेजेंद्र का मन दुनिया से उचटता जा रहा था. पत्नी ने तो उसे औरत का सुख कभी दिया ही नहीं, बेटे ने भी उस का दिल खूब तोड़ा जबकि उस ने अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभाई थीं. अपनी पैतृक विरासत और रिश्तों से भी वह दूर होता जा रहा था.

एक दिन शाम को औफिस से लौट कर उसे अचंभा हुआ. उस ने नीचे की मंजिल में झांक कर देखा कि जुगुनी की अम्मा, भाई शांताराम और जीजा दोनों ड्राइंगरूम में आ कर जमे हुए हैं. पता नहीं, वे कब आए और क्यों? उस ने छिप कर उन की बातें सुनी. उसे यह जान कर अत्यधिक क्षोभ हुआ कि वे सारे उसे येनकेनप्रकारेण किनारे लगाने की साजिश रच रहे हैं. वह बेहद रोंआसा और संजीदा हो गया. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की ससुराल वाले ही नहीं, खुद उस की पत्नी भी उस से किनारा करना चाहती है.

मानसिक तनाव से उस का सिर फटने लगा. ब्लडप्रैशर से दिल में दर्द भी होने लगा. तब उस ने सिरदर्द की एक गोली ली और छत पर जा कर दरवाजे पर सांकल चढ़ाया और जमीन पर ही लेट गया. लेटे ही लेटे उस ने सीलिंग फैन की ओर देखा, फांसी लगा कर आत्महत्या कर लेने से ही मेरी दैहिकमानसिक अशांति का शमन होगा. पर, उस ने आखिरकार अपने कदम वापस खींच लिए, अभी तो बेटे अनुग्रह को उच्चशिक्षा दिलानी है और जवान हो रही बिटिया की शादी करनी है.

ये भी पढ़ें- बच्चे की चाह में : भौंरा ने कैसे सिखाया सबक

अभी मुझे तो आत्महत्या का खयाल तक नहीं लाना चाहिए, अन्यथा लोग

क्या कहेंगे कि इस ने अपनी जरूरी जिम्मेदारियां तक नहीं निभाईं, फिर जैसे ही उस ने सीढि़यां उतरने के लिए जमीन से उठने की कोशिश की, वह संभल नहीं पाया और बैड पर ही निढाल लुढ़क गया. शायद, ब्लडप्रैशर ज्यादा बढ़ गया था.

सुबह जब देर तक तेजेंद्र का दरवाजा नहीं खुला तो जुगुनी ने शांताराम को बुला भेजा, वह मुआ अभी भी नींद के खुमार में ऊपर बैड तोड़ रहा है. उस से पूछो कि उसे औफिस जाना है या नहीं? जुगुनी लगातार भुनभुनाती जा रही थी.

लेकिन, कई बार जोरजोर से आवाज लगाने और दरवाजा पीटने पर भी जब तेजेंद्र की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो जुगुनी ने ताना कसा, ‘‘लगता है, उस ने नींद की गोली खा रखी है?’’ आखिरकार, शांताराम ने दरवाजा पड़ोसियों की मदद से तोड़ दिया. अंदर प्रवेश कर जब उस ने बैड पर पड़े तेजेंद्र का बदन हिलाया तो उस में कोई हरकत नहीं हुई. वहां खड़ी जुगुनी ने फिर चुटकी ली, यह तो ऐसे ही घोड़ा बेच कर सोता है.

फिर शांताराम ने उस की नाड़ी टटोली और सीने पर हाथ रखा तो वह एकदम से हड़बड़ा उठा, ‘‘अरे, इस की तो सांस ही नहीं चल रही.’’ तब तक पड़ोस के डाक्टर हितेश भी आ चुके थे, उन्होंने तेजेंद्र की जांच की और सिर झुका लिया, ‘‘ही इज नो मोर. ही डाइड औफ अ सीवियर हार्ट अटैक.’’

जब शांताराम ने जुगुनी को आंख मार कर कुछ गुप्त इशारा किया तो उस ने माहौल के मुताबिक अपनेआप को ढालते हुए रोने का नाटक शुरू कर दिया. जब तक महल्ले वाले शोरगुल सुन कर इकट्ठे होते, जुगुनी झट रूमाल पानी से भिगो कर आंखें पोंछते हुए दहाड़ें मारमार कर रोने लगी. जमीन पर हाथ पटकपटक कर चूडि़यां तोड़ीं, मांग में लगा सिंदूर मिटाया. उस की अम्मा को उस के इस सिद्धहस्त व्यवहार को देख बड़ा अचंभा हो रहा था कि उस की बेटी तो उस से भी बढि़या नौटंकी कर लेती है.

पूरे तेरह दिनों तक चलने वाली तेजेंद्र की अंत्येष्टिक्रिया के समापन के बाद ताजी जानकारी यह है कि जुगुनी के जीजा स्थायी तौर पर मुंबई में बस चुके हैं तेजेंद्र द्वारा जमाई गई गृहस्थी में. अम्मा  ने भी वहां पक्का डेरा जमा लिया है जबकि तेजेंद्र के बड़े भाई कमलेंद्र, जिन की जुगुनी पर विशेष कृपा थी, का आनाजाना लगा रहता है. जुगुनी अपने रचे हुए इस नए संसार में बेहद खुश नजर आ रही थी. ऐसा लग रहा था मानो बुराई ने अच्छाई को निगल लिया हो.

ऐसी जुगुनी

ऐसी जुगुनी : भाग 1

‘‘अगर तुम आजीवन सुखी रहना चाहती हो तो अपनी ससुराल वालों, खासकर अपनी ननदों और देवरों से भरसक दूरी बनाए रखो. मैं उन्हें पहली नजर में ही पहचान गया था कि वे एक नंबर के कंजूस व मक्खीचूस किस्म के लोग हैं. यदि तुम ने मेरा कहना नहीं माना तो वे हरामखोरनिठल्ले एक दिन तुम्हारे सीने पर मूंग दलेंगे. इतना ही नहीं, वे दरिद्रजन तुम्हारा सारा हक भी मार लेंगे. तुम्हारे दकियानूस पति की बेवकूफी का वे पूरा फायदा उठाएंगे,’’ शांताराम ने अपनी नवब्याहता बहन को समझाने और ससुराल वालों के खिलाफ उस के मन में जहर की पहली डोज डालने की कोशिश की.

उस ने फिर कहा, ‘‘तुम्हें गलती से हम ने ऐसे परिवार में ब्याह दिया है जहां एक भाई कमाता है, बाकी तोंद पर हाथ फेरते हुए, बस, डेढ़ सेर खाते हैं. तेजेंद्र के सिवा तो वहां कोई कुछ करता ही नहीं. मां पहले ही कालकवलित हो चुकी है और बाप रिटायर्ड हो चुका है जिस का घर से कुछ भी लेनादेना नहीं है जबकि बड़ा भाई अपने परिवार में बीवीबच्चों के साथ मस्त है. किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है. सब आपस में लड़मर रहे हैं. एक बात मैं कहूं, यह परिवार कई प्रकार से कमजोर है और तुम इस कमजोरी का खूब फायदा उठा सकती हो. आखिर, पढ़ीलिखी लड़की हो. कम से कम अपनी अक्ल का थोड़ा तो इस्तेमाल करो और इस परिवार का बेड़ा गर्क करो.’’

नाम तो उस का ज्योतिंद्रा था पर सब उसे जुगुनी ही कहते थे. जुगुनी भौंहें चढ़ाती हुई मुसकरा उठी, ‘‘भैया, मैं अब कोई दूधपीती बच्ची नहीं हूं. इन 7 दिनों में ही सबकुछ देख चुकी हूं, सब समझ चुकी हूं. अब मुझे क्या करना है, यह भी तय कर चुकी हूं. देखना, मैं ससुराल में इतनी साजिश रचूंगी और इतनी तिकड़म आजमाऊंगी कि तेजेंद्र खुदबखुद उन से दूरी बना कर रहने लगेगा. तेजेंद्र तो मेरी तरेरती निगाहों के आगे कठपुतली की तरह नाचता फिरेगा. और हां, ससुरालियों के मन में भी एकदूसरे के प्रति इतना जहर भरूंगी कि वे एकदूसरे के जानीदुश्मन बन जाएंगे.’’

ये भी पढ़ें- कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है

शांताराम बहन के इस अंदाज में शेखी बघारने पर फख्र करते हुए आश्चर्य से भर उठा, ‘‘ससुराल में कदम रखते ही तुम्हारी छठी इंद्रिय काम करने लगी है. पहले तो तुम गधी थी. तो भी मैं तुम्हें बता देना चाहता हूं कि तुम्हारा पति कमअक्ल और लकीर का फकीर है. थोड़ाबहुत साहित्य क्या लिख लेता है, वह खुद को तुलसीदास और शेक्सपियर समझने लगा है. पर, वह है पूरा डपोरशंख. खुद को भौतिकवाद से दूर रखने का पाखंड खूब कर लेता है. दरअसल, तुम्हारे सारे ससुराल वाले कंजूस और लीचड़ हैं. तुम्हारा तेजेंद्र भी दांत से पैसा दबाए रखता है. ऐसे लोग कूपमंडूक होते हैं और उन्हें विरासत, परंपरा, तहजीब जैसी गैरजरूरी बातों से ज्यादा लगाव होता है. उसे समझाना होगा कि अब उस का अपना परिवार है और इसी के लिए जीना व मरना है. मांबाप और भाईबहन के लिए जिंदगी तबाह करने की जरूरत नहीं है. वे कमीने तो उस की शादी के बाद से ही पराए हो गए हैं. अब उस के अपने हैं तो केवल हम ससुराल वाले,’’ जुगुनी उस की हर बात पर ध्यान देती हुई संजीदा होती जा रही थी.

बेशक, ससुराल में कदम रखते ही नई बहू के तेवर तीखे हो गए. अभी हफ्ताभर ही तो हुआ है जुगुनी और तेजेंद्र की शादी हुए. तेजेंद्र के भाईबहनों ने उस की शादी में बड़े उत्साह से सभी कामों को अंजाम दिया था और नए रिश्तेदारों के साथ वे बड़ी गंभीरता व शालीनता से पेश भी आ रहे थे.

बहनों में बड़ी, नंदिनी तो इतनी खुश थी कि वह पंख उग आए गौरैये के चूजे की भांति घर से बाहर तक फुदकती फिर रही थी, और जो भी मिलता उस से कहती जा रही थी- ‘अब घर में मां के बाद उन की कमी को मेरी दूसरी भाभी पूरी करेंगी. हम सब उन्हें भाभी नहीं भाभीमां कह कर पुकारेंगे. इतने मिलजुल कर और प्यार से रहेंगे कि अपने मतलबी रिश्तेदारों और जिगरी दोस्तों के मन में भी हमारे लिए बेहद ईर्ष्या पैदा हो जाएगी.’

उस ने तेजेंद्र से कहा, ‘‘भैया, अभी भाभी को मुंबई मत ले जाना. जब महीनेभर बाद अगली बार आना, तो ले जाना. अभी तो हमें इन से दिल से दिल मिला कर मेलजोल बढ़ाना है.’’

पर, जुगुनी को नंदिनी का प्रस्ताव बिलकुल अटपटा सा लगा. उस ने तुरंत तेजेंद्र को बैडरूम में ले जा कर समझाया, ‘‘अभी मैं यहां बिलकुल नहीं रहूंगी. क्या हम हनीमून पर नहीं चलेंगे? अगर हनीमून पर नहीं जाना है तो मुझे मुंबई अपने साथ ले चलो, वरना, मुझे कुछ समय के लिए मायके में ही छोड़ दो. जब दोबारा मुंबई से आना तो मुझे अपने साथ ले जाना. लेकिन, मेरा निर्णय कान खोल कर सुन लो, मैं यहां हरगिज नहीं रहने वाली.’’

तेजेंद्र चिंता में पड़ गया. उसे जुगुनी का स्वभाव एकदम अटपटा सा लग रहा था. बहरहाल, उस ने सोचा कि अभी जुगुनी को ऐसे नाखुश करना उचित नहीं होगा. सो, उस ने नंदिनी को समझाया कि वह अभी जुगुनी को यहां रुकने के लिए न कहे और वह मान भी गई. पर, जुगुनी तो मन ही मन खुश हो रही थी कि तेजेंद्र तो बड़ी सहजता से उस की बात मान लेता है. बेवकूफ है तो क्या हुआ, अपने परिवार वालों के बीच मुझे अहमियत तो देता है, गोबरगणेश कहीं का…

उस के बाद वह मुंबई के लिए अपनी अटैचियां व जरूरी सामान पैक करने लगी.

विवाह के समय मायके से जो उपहार मिले थे, जब तेजेंद्र उन्हें घर पर ही छोड़ कर जुगुनी के साथ मुंबई जाने को तैयार होने लगा तो वह एकदम से बौखला उठी, ‘‘तेजेंद्र, यह तो तुम अच्छा नहीं कर रहे हो. क्या मेरे घर वालों ने इतने ढेर सारा दानदहेज, गिफ्ट वगैरा तुम्हारे निठल्ले भाईबहनों को ऐश करने के लिए दिए हैं? कम से कम टीवी, फ्रिज और बैड तो अपने साथ ले चलो.’’

तेजेंद्र ने जुगुनी से अचानक ऐसे शब्दों की अपेक्षा नहीं की थी. लिहाजा, उस ने ठंडे दिमाग से उसे समझाया, ‘‘जुगुनी, मुझे तुम मिल गई, यह मेरे लिए बहुतकुछ है. सामान को तो गोली मारो. बहरहाल, इतना ढेर सारा सामान लाद कर हम मुंबई जाएंगे तो कैसे जाएंगे? इन्हें यहीं छोड़ दो. वहां हम अपने बलबूते पर सैटल होंगे और ये सारे सामान खुद खरीदेंगे. तुम्हें तो पता ही है, मेरी अच्छी तनख्वाह है. इन से कहीं बेहतर क्वालिटी के सामान वहां किस्तों में खरीद लेंगे.’’

जुगुनी इतराने लगी, ‘‘अच्छा, क्या मेरे मायके से आए सामान एवन क्वालिटी के नहीं हैं?’’

तेजेंद्र समझ गया कि जुगुनी और उस के परिवार वाले दुनियादारी व सामान के पीछे जान भी दे सकते हैं. छोटे शहरों के लोगों में विलासिता के साजोसामान खरीदने की ललक तीव्र होती है. उसे एहसास हो गया कि जुगुनी के मन में क्या चल रहा है. वह समझ गया कि जुगुनी के लिए मानवीय रिश्तों की कोई खास अहमियत नहीं है.

लिहाजा, उस पल तेजेंद्र के चेहरे पर आए हावभाव को पढ़ कर जुगुनी को लगा कि अभी उसे ऐसा अडि़यल रुख नहीं अपनाना चाहिए. वह कोई तरकीब सोचने लगी ताकि उस पर कोई दोष भी न आए और उस के मन की मुराद भी पूरी हो जाए. यानी उस के मायके का सारा सामान और उपहार उस के कब्जे में आ जाए. उस ने एकांत में जा कर झट मायके अपनी अम्मा को फोन लगाया तथा उन्हें सारी बात से अवगत कराया और मुंबई रवाना होने से पहले उन्हें और बाबूजी को मिलनेजुलने के बहाने फोन पर ही ठीक एक दिन पहले बुला लिया.

अम्मा ने आते ही कमर कस ली. ‘‘जुगुनी, तुम बिलकुल फिक्र मत करना. देखो, मैं किस तरह से सारा दानदहेज तुम्हारे साथ मुंबई भिजवाती हूं. एक तो इन लीचड़ ससुरालियों ने दहेज की सारी रकम ऐंठ ली, दूसरे, अब वे सारा दानदहेज और गिफ्ट भी हजम कर लेना चाहते हैं.’’

अम्मा ने बाबूजी को बरगलाना शुरू कर दिया, ‘‘अजी सुनते हो, अब कान में रुई डाल कर सोना बंद करो. देखो, तुम्हारी गाढ़े पसीने की कमाई पर गैरों की गिद्धदृष्टि लगी हुई है.’’

बाबूजी के कान खड़े हो गए, ‘‘वह कैसे?’’

‘‘वह ऐसे कि जुगुनी की शादी में जो सामान तुम ने इतने जतन कर के दिए हैं, तेजेंद्र उन्हें अपने भाईबहनों को सौंप कर खाली हाथ ही मुंबई जा रहा है. अब भला, मेरी बिटिया टीवी, फ्रिज के बगैर एक पल को भी कैसे रह पाएगी? तेजेंद्र तो रोज ड्यूटी बजाने औफिस को चला जाया करेगा जबकि मेरी गुडि़या घर में अकेली दीवारों पर रेंगती छिपकलियां देख कर ही सारा समय काटेगी. तेजेंद्र के भाईबहन दहेज के सामान पर जोंक की तरह चिपके हुए हैं. उस ने तो दहेज में मिला स्कूटर पहले ही अपने भाई प्रेमेंद्र के हवाले कर दिया है.’’

बाबूजी अपनी पत्नी के बहकावे में आने से पहले थोड़ीबहुत जो समझदारी दिखा सकते हैं वह उस से बातें करने के बाद पलभर में उड़नछू हो जाती है. उन्होंने अम्मा को समझाने की कोशिश की, ‘‘अभी कुछ ऐसा बखेड़ा खड़ा मत करो क्योंकि अभी शादी को हफ्ताभर ही तो हुआ है. अगर मैं तेजेंद्र के पापा से इस बारे में कुछ कहूंगा तो यह अच्छा लगेगा क्या? आखिर, यह तुम्हारा घर नहीं, बिटिया का ससुराल है.’’

अम्मा तुनक उठी, ‘‘अजी, ऐसा अच्छाभला सोचने लगोगे तो ससुराल में तुम्हारी बिटिया का जीना दूभर हो जाएगा. कल को ये लोग उस का गला भी घोंट सकते हैं. तेजेंद्र के घर वाले कितने कमीने हैं, इस बात का सुबूत देने की जरूरत नहीं है. उन के हौसले को बढ़ने से पहले ही तोड़ना होगा. सांप के फन उठाने से पहले ही उसे कुचल देना होगा. वरना, एक दिन तुम्हारी बेटी को चिथड़ा पहना कर वापस मायके भेज दिया जाएगा. तलाक तक की नौबत आ जाएगी. हो सकता है कि वे उसे जिंदा फूंकने का दुस्साहस भी करें, हां.’’

उस के शब्द सुन कर तो बाबूजी ऐसे चिहुंक उठे जैसे किसी पहाड़ी बिच्छू ने उन्हें डंक मार दिया हो. वे अच्छी तरह समझ रहे थे कि उन की पत्नी उन्हें जुगुनी के ससुराल वालों के खिलाफ बरगला रही है. उन्होंने मांबेटी दोनों को दुनियाभर के चमचमाते सामान के पीछे पागल होते पहले भी देख रखा है. पर, उन्हें यकीन है कि जुगुनी की अम्मा ने जो मन में ठान लिया है, वह उसे पूरा कर के ही दम लेगी. और अगर उन्होंने उस के मनमुताबिक नहीं किया, तो वह उन्हें चैन से जीने न देगी, खानापीनासोना सब हराम हो जाएगा.

ये भी पढ़ें- बच्चे की चाह में : भौंरा ने कैसे सिखाया सबक

वे उधेड़बुन में खो गए. चलो, तेजेंद्र के पापा से बात कर ही लेते हैं. भले ही उन्हें और उन के परिवारजनों के गले से मेरी बात नीचे न उतरे, पर उन्हें तो मनाना ही होगा कि वे दहेज का सारा सामान तेजेंद्र के साथ रवाना कर दें. वरना जुगुनी की अम्मा उन की जान खा जाएगी. उन के परिवार वालों को बुरा लगता है तो लगने दो. जुगुनी को भी इस दो कौड़ी की ससुराल में कहां रहना है? उसे तो मुंबई महानगर में अपनी जिंदगी गुजारनी है तेजेंद्र के साथ.

बाबूजी का मन अभी भी हिचक रहा था. रात को अम्मा ने उन्हें गहरी नींद से जगा कर फिर उन पर दबाव बनाया, ‘‘पौ फटते ही तेजेंद्र के बड़ेबुजुर्गों से बात कर लेना क्योंकि कल शाम की ही ट्रेन से जुगुनी और तेजेंद्र को मुंबई के लिए कूच करना है.’’

सो, सुबह जब बाबूजी उठे तो वे हिम्मत बटोर कर, चाय की चुसकी लेते हुए तेजेंद्र के पापा से मुखातिब हुए, ‘‘भाईसाब अब आप का बेटा तेजेंद्र घरवाला गृहस्थ बन गया है. मुंबई में अपनी बीवी के साथ रहेगा. उस के यहां यारदोस्तों का आनाजाना होगा. इस बार अपनी दुलहन ले कर पहुंचने पर, वे उस से पूछेंगे कि तेजेंद्र, ससुराल से तुम्हें क्या मिला है, तब तेजेंद्र उन से क्या कहेगा कि दहेज तो बाप के घर छोड़ आया हूं. बस, बीवी ले कर आया हूं? वे तो समझेंगे कि बिटिया का बाप तो कंगला है जिस ने उसे एक धेला भी नहीं दिया. मुफ्त में अपनी बेटी उस के गले मढ़ दी.

‘‘सच, यह सोच कर मेरा दिल शर्म से डूबा जा रहा है. बेटी के बाप की तो नाक ही कट जाएगी. सो, मेरी आप से विनती है कि तेजेंद्र को अपने साथ कुछ सामान जैसे टीवी, फ्रिज वगैरा ले जाने की इजाजत जरूर दे दीजिए जिन्हें वह अपने महल्ले वालों और दोस्तों को दिखा सके कि हां, किसी फटीचर खानदान में उस की शादी नहीं हुई है.’’

बाबूजी ने दोनों हाथ जोड़ कर अपनी बात को इतने सलीके से पेश किया था कि तेजेंद्र के पापा से प्रतिक्रिया में कुछ भी कहते नहीं बना. वे हकला उठे, ‘‘मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती है?’’

वहां उपस्थित तेजेंद्र का छोटा भाई प्रेमेंद्र भी बोल उठा, ‘‘हां हां, अगर भाईसाहब ये सामान खुद ले जाने में सक्षम हों तो इस से अच्छी बात क्या हो सकती है. हम तो सोच रहे थे कि भाभीजी का सामान हम खुद धीरेधीरे मुंबई पहुंचा देंगे. इसी बहाने मुंबई भी आनाजाना बना रहेगा.’’

जुगुनी ने सोचा, ‘अगर दहेज का सामान अभी हमारे साथ चला जाएगा तो इन कमीनों द्वारा फुजूल में मुंबई आ कर मेरा दिमाग खराब करने से छुटकारा भी मिल जाएगा.’

उस वक्त बाबूजी अम्मा का मुंह ताकने लगे जैसे कि कह रहे हों कि तुम तो कह रही थी कि दहेज का सारा सामान तेजेंद्र के घर वाले हड़पना चाहते हैं जबकि वे सभी सारे सामान को तेजेंद्र के साथ सहर्ष भेजने को तैयार हैं.

अम्मा ने उन के हावभाव को कनखियों से देखा और मुंह बिचका लिया. तुम्हें जो मगजमारी करनी है, वह करो. हमें तो दहेज का सामान बस मुंबई रफादफा करना है.

सो, कुछ मामूली उपहारों को छोड़ कर बाकी सामान धीरेधीरे 2-3 खेपों में मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया. तेजेंद्र मायूस हो गया, यह सोचते हुए कि मेरे घर वाले सोच रहे होंगे कि तेजेंद्र भौतिकवादी हो गया है. उसे अपने घर वालों से ज्यादा निर्जीव वस्तुओं से प्यार हो गया है.

वैसे तो, वह शादी से पहले ऐसी मानसिकता वाले लोगों की नुक्ताचीनी करने से बाज नहीं आता था. भाइयों में सब से छोटे भाई गजेंद्र ने सभी को समझाया, ‘‘भैया सुलझे हुए विचारों के भले आदमी हैं. वे स्वार्थी कभी नहीं हो सकते. उन्हें तो मर्यादित जीवन और अच्छे संस्कारों से हमेशा प्यार रहा है. स्वार्थपरता से तो उन्हें सख्त नफरत है. इसलिए हमें उन के बारे में कोई अनापशनाप धारणा नहीं बनानी चाहिए.

वे हम से और हमारी पारिवारिक संस्कृतियों से हमेशा जुड़े रहे हैं. हां, भाभीजी के बारे में अभी मैं कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि भविष्य में वे अपने ससुराल में क्या गुल खिलाएंगी. पर, यह तो तय है कि वे भारत में पाकिस्तान बनवा कर ही दम लेंगी.’’

तेजेंद्र के विवाह के चिह्न के तौर पर घर में कुछ भी उपलब्ध न रहने के कारण उस की तीनों बहनें नंदिनी, मीठी और रोशनी कुछ समय तक सदमे में थीं. शादी के उल्लास और चहलपहल के बाद अचानक छाए सन्नाटे से घर का कोनाकोना भांयभांय कर रहा था. उन की मां तो डेढ़ साल पहले ही डाक्टर की गलत दवा के कारण मौत का शिकार हो चुकी थीं. मां की असामयिक मौत के बाद, पापा गुमसुम रहने लगे थे.

बड़े भाई कमलेंद्र अपनी एकल पारिवारिक व्यवस्था में ही इस तरह उलझ गए थे जैसे उन का इस के सिवा दुनिया में कुछ और है ही नहीं. ऐसे में, परिवार को तेजेंद्र से ही बड़ी उम्मीदें थीं. उन्हें उन से आर्थिक मदद से अधिक मानसिक संबल की अपेक्षा थी. प्रेमेंद्र कोचिंग इंस्टिट्यूट चला कर अपनी और अपनी बहनों की आर्थिक आवश्यकताएं पूरी कर ही लेता था. पापाजी के पैंशन के रुपए भी काम में आ जाते थे.

इस दरम्यान, जुगुनी की अम्मा का मुंबई आनाजाना अधिक बढ़ गया था. वह जुगुनी को ससुराल से भरसक दूरी बनाए रखने के लिए सचेत करती रहती थी. इस के लिए नएनए तौरतरीके भी वह उसे बताती रहती थी.

एक दिन उस ने जुगुनी से कहा, ‘‘अगर तेजेंद्र के मन में अपने भाईबहनों के प्रति लगाव बना रहेगा तो उसे उन की आर्थिक मदद भी करनी पड़ेगी. सो, तुम्हारी कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि उन के बीच संबंधों में दरार बढ़ती जाए. अभी तो उस की तीनों बहनें अनब्याही हैं. उन की शादी के लिए तेजेंद्र को ही पैसे खर्च करने पड़ेंगे. उस के पापा और कमलेंद्र तो कुछ भी करने से रहे. देखो, कमलेंद्र कितनी होशियारी से उन से कन्नी काट गया है. दरअसल, तुम्हें तो दूल्हा कमलेंद्र जैसा मिलना चाहिए था.’’

अम्मा कमलेंद्र का गुणगान करते हुए तेजेंद्र के नाम पर रोरो कर अपना माथा पीटती. एक दिन उस ने जुगुनी से कहा, ‘‘कुछ ऐसे गंभीर हालात पैदा करो कि तेजेंद्र की बहनें कुंआरी ही बूढ़ी हो जाएं. इस से तुम्हें फायदे होंगे-एक तो तेजेंद्र को उन की शादी पर पैसे खर्च नहीं करने पड़ेंगे, दूसरे, तेजेंद्र के कमीने परिवार की सारे समाज में थूथू हो जाएगी.

‘‘जिस घर में बेटियां और बहनें अविवाहित रह जाती हैं, समाज में उसे बड़ी नीची निगाह से देखा जाता है. उस के बाद तुम अपनी सहेलियों और जानपहचान वालों में भाईबहन के रिश्ते के बारे में कुछ गंदी अफवाहें फैला देना. देखना, सारे के सारे सदमों से न केवल बीमार होंगे बल्कि दुश्ंिचताओं में पड़ कर पीलिया से ग्रस्त हो कर दम भी तोड़ देंगे.’’

पर, तेजेंद्र ने तो संकल्प ले रखा था कि वह अपने सहोदरों की जीवननैया पार लगा कर ही दम लेगा. इस बीच, प्रेमेंद्र ने तेजेंद्र को नंदिनी की शादी से संबंधित बातचीत करने और इस बाबत अन्य बंदोबस्त करने के लिए आने का आग्रह किया. जब अम्मा को इस बारे में पता चला तो उस ने जुगुनी को दिनरात बरगलाया, ‘‘बिटिया, तेजेंद्र को किसी भी कीमत पर नंदिनी की शादी के बारे में बातचीत करने के लिए उस के घर मत जाने देना.’’

इस तरह जिस शाम तेजेंद्र को ट्रेन पकड़नी थी, जुगुनी दहेज के मुद्दे पर उस से झगड़ बैठी. उस ने तेजेंद्र से कहा, ‘‘जब तक तुम दहेज में मिला स्कूटर प्रेमेंद्र से छीन कर वापस नहीं लाओगे, तुम्हें तुम्हारे कमबख्त भाईबहनों के पास जाने नहीं दूंगी.’’ फिर, उस ने उस के पर्स से रिजर्वेशन टिकट निकाल कर फाड़ कर चिंदीचिंदी कर दिया. झगड़े पर उतारू औरत के सामने वह बेबस हो गया.

दूसरी और तीसरी बार भी जब वह नंदिनी के लिए लड़का देखने जाने की तैयारी में था तो जुगुनी ने उसे इसी तरह घर न जाने के लिए मजबूर कर दिया. तेजेंद्र तो जुगुनी के जोरजोर से शोर मचाने के कारण ही सहम जाता था, महल्ले वालों में शोर मच जाएगा तो उसी की बदनामी होगी. गलती भले ही औरत की हो, दुनिया पुरुष को ही दोषी ठहराती है.

जुगुनी ने उस की कमजोर नस पहचान ली थी और जबजब वह किसी ऐसे ही निहायत जरूरी काम से अपने पैतृक घर जाने का मन बनाता, जुगुनी शोर मचाने लगती और तेजेंद्र खामोश हो कर बैठ जाता. वह उस की कमजोर नस पर हाथ रख देती.

ये भी पढ़ें- कोठे में सिमटी पार्वती

बहरहाल, हर बात में तूतूमैंमैं उन के दांपत्य जीवन का रोजमर्रा का हिस्सा बन गया था. जुगुनी तो मुंहफट थी ही, लेकिन जब उग्र होती तो गालीगलौज भी करने लगती. ऐसे में, तेजेंद्र अपना माथा पीट कर अपने बुरे समय को कोसता रहता. उस ने तो अपने ही क्षेत्र की लड़की से सिर्फ इसलिए शादी की थी कि उस की आदतें, रहनसहन आदि उसी की तरह होंगे जिस से रिश्तेदारी निभाने में कोई अड़चन नहीं आएगी. वह मुंबई में रह रहा होगा जबकि उस का और उस की पत्नी का परिवार सुखदुख में एकदूसरे के साथ होगा.

मुंबई में ही उस के लिए कितने ही शादी के प्रस्ताव आए थे. पर, उस ने सब से न कर दिया कि शादी करूंगा तो अपने ही क्षेत्र की किसी संस्कारी लड़की से, वरना नहीं करूंगा.

तेजेंद्र के पापा सेहत से और अपने अक्खड़ स्वभाव से इस लायक नहीं थे कि वे अपनी जिम्मेदारियों को निबटाते. कुल मिला कर वे अपने गृहस्थ जीवन के प्रति उदासीन हो गए थे. यह सोच कर कि मेरे सारे बेटे तो इतने बड़े और समझदार हो ही गए हैं कि वे उन की जिम्मेदारियों को भलीभांति निभा सकें.

इस बीच, तेजेंद्र ने मुंबई से फोन कर के अपने हाथ खड़े कर दिए, ‘‘प्रेमेंद्र, तुम्हारी भाभी मुझे तुम लोगों के लिए कुछ भी करने की इजाजत नहीं देतीं. इसलिए मैं तुम लोगों के लिए कुछ भी न कर पाने के लिए मजबूर हूं.’’

थकहार कर प्रेमेंद्र ने खुद नंदिनी के लिए एक रिश्ता तय किया, वह भी बड़ी अफरातफरी में क्योंकि उस की उम्र शादी के लिहाज से ज्यादा हो रही थी. नंदिनी की शादी हुई, पर अफसोस कि सफल नहीं रही. यह सब हताशा में उठाए गए कदमों के कारण हुआ. किसी को क्या पता था कि जिस लड़के के साथ नंदिनी का विवाह हुआ है, उस का पहले से ही किसी औरत के साथ नाजायज संबंध है जिस से उस की एक संतान भी है.

अम्मा को जब जुगुनी से यह बात पता चली तो वह फूली न समाई, ‘‘चलो, उस कमीने परिवार की बरबादी शुरू हो गई है. अब उन की बरबादी का मंजर हम तसल्ली से देखेंगे. कमीने प्रेमेंद्र को खुद पर कितना गरूर था. हमारे दहेज का स्कूटर हथियाने का उसे अब अच्छा दंड मिला है. उस की बहनों ने भी दहेज का सामान कब्जा कर बहती गंगा में खूब हाथ धोया. अब उन की मांग में कभी सिंदूर नहीं सजेगा, यह मेरी साजिश है. उन सब का ऐसा सत्यानाश हो कि वे फिर कभी आबाद न हो सकें और तेजेंद्र का सारा खानदान मटियामेट हो जाए.’’

एक दिन अम्मा ने जुगुनी को फोन पर बतलाया, ‘‘देखना, नंदिनी को जल्दी ही ससुराल से खदेड़ दिया जाएगा और वह घर आ कर बैठेगी. अब उस का दूसरा ब्याह न हो सकेगा क्योंकि यह सब मेरे ही टोनेटोटके का असर है. मैं एक डायन के भी संपर्क में हूं जिस ने अपने कर्मकांडों से तेजेंद्र के परिवार को नेस्तनाबूद करने का मुझ से वादा किया है.’’

जुगुनी खुश थी कि उस की अम्मा उस के रास्ते के सारे कांटे हटा कर उस की जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए हर संभव कोशिश करने में जुटी हुई है. वैसे भी, वह अकेले यह सब कैसे कर पाती? टोनेटोटकों और औघड़बाजी के बारे में तो उसे इतना ज्ञान भी नहीं है जितना अम्मा को है. इसी वजह से अम्मा का मुंबई आनाजाना बढ़ गया. उस का मुंबई आने का तो उद्देश्य ही था कि येनकेनप्रकारेण तेजेंद्र का अपने परिवार से मोहभंग करा कर उसे ऐसी हालत में छोड़ा जाए जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का. आखिरकार, वह अपनी बीवी के ही तलवे चाटेगा.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है: भाग 1

लेखक- राजन सिंह

फूल संस्कृत विद्यालय पर पहुंचता और कृष्णकली साइकिल के पिछले कैरियर से बीच के हैंडल तक का सफर तय कर के कालेज जाने लग गई थी. कुल मिला कर कह सकते हैं, थोड़ा सा प्यार हो गया था, बस थोड़ा ही बाकी था.

हम को फिर से गांव जाना पड़ गया, धान फसल की कटाई के लिए. क्या करें? किस्मत ही खराब है अपनी तो पढ़ेंगे कैसे? फगुनिया कांड के बाद हमारे नाम के मुताबिक ही हम को सब खदेड़ते ही रहते हैं. अगर कटाई में नहीं जाएंगे तो बाबूजी खर्चापानी भी बंद कर देंगे.

ये भी पढ़ें- एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 4

एक तो देर से पढ़ाना शुरू कराया था हमारे घर वालों ने, ऊपर से बचीखुची कसर हम ने फेल हो कर पूरी कर दी. पूरे 22 साल के हो गए हैं हम, लेकिन हैं अब तक इंटरमीडिएट में ही.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि यह फगुनिया कहां से आ गई बीच में? पर क्या करें, न गाली देते बनता है और न ही अपना सकते हैं उस को हम. कभी हमारी जान हुआ करती थी वह. भैया की छोटकी साली. जबजब वह हम को करेजा कह कर बुलाती थी, तो लगता था जैसे कलेजा चीर कर उस को दिल में बसा लें.

बहुत प्यार करते थे हम फगुनिया को. उस को एक नजर देखते ही दिल चांद के फुनगी पर बैठ कर ख्वाब देखने लगता था. बोले तो एकदम लल्लनटौप थी हमारी फगुनिया. उस के तन का वजन तो पूछिए ही मत, 3 हाथी मरे होंगे तब जा कर हमारी फगुनिया पैदा हुई होगी, फिर भी जब वह ठुमुकठुमुक कर चलती थी तो हमारे पेट में घिरनी नाचने लगती थी और आटा चक्की के जैसे कलेजा धुकधुकाने लगता था.

ये भी पढ़ें- बस नंबर 9261

लेकिन मुंह झौंसी हमारी भाभी को फूटी आंख नहीं सुहाती थी हमारी फगुनिया. दुष्ट कहीं की.

नैहर से ले कर ससुराल तक ऐसा ढोल बजाया हमारी प्रेम कहानी का कि हम सब जगह से बुड़बक बन कर रह गए. इतने पर भी भाभी ने दम नहीं लिया, हम को हमारी फगुनिया से लड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

जबजब हमारी फगुनिया हम से लड़ती थी तो ऐसा लगता था जैसे हमारे दिल का महुआ कच्चे में ही रस चुआने लगा हो. आंत ऐंठने लगती. हम तो न मरते थे, न जीते थे. बस, अंदर ही अंदर कुहुकते रहते थे.

पर, हम ने भी ठान लिया था कि ब्याह करेंगे तो फगुनिया से ही करेंगे, नहीं तो किसी से नहीं करेंगे. जब हम सब जगह से बदनाम हो ही गए हैं तो लिहाज किस का रखें. हम ने भी आव देखा न ताव, फगुनिया को भगा कर ब्याह कर ले जाने का प्लान बना लिया.

फूल से सलाहमशवरा लिया तो उस ने भी कहा कि वह रुपएपैसे का इंतजाम कर देगा किसी से सूदब्याज पर. हम भी जोश में थे ही, उस की सभी शर्तें मंजूर कर लीं. फगुनिया को भी हम ने मना लिया भागने के लिए.

तय दिन हम रोसड़ा बाजार में जा कर फगुनिया का इंतजार करने लगे, वहीं फूल भी रुपएपैसे का इंतजाम कर के आने वाला था. वहां से हम थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर समस्तीपुर जा कर ब्याह करते, उस के बाद गोरखपुर निकल जाने का प्लान था हमारा.

फगुनिया अपनी सहेली तेतरी को साथ ले कर पतलापुर गांव से रोसरा के दुर्गा मंदिर में आ गई. वहां हम पहले से ही मौजूद थे. तेतरी 3 भाई के बाद एकलौती बहन. फगुनिया की हमराज. एकदम पक्की वाली बहन. हम लोग फूल का इंतजार करते रहे, पर वह गधे के सिर से सींग के जैसे गायब हुआ, सो 3 महीने बाद जा कर मिला हम को. मर्द के नाम पर कलंक.

ये भी पढ़ें- फौजी ढाबा

उस समय मन तो कर रहा था कि एक बार फूल मिल जाता तो गरदन मरोड़ कर आंत में घुसा देता.

हम फिर भी फगुनिया पर जोर देते रहे भाग चलने के लिए. पर वह तो बहुत बड़ी वाली जालिम निकली. कहने लगी, बिना रुपएपैसे के भाग कर जाइएगा कहां? आप तो बकलोल के बकलोल ही रह गए. कम से कम इतने रुपएपैसे का इंतजाम तो कर लेते कि एकाध महीना सही से गुजारा हो जाता. हम तो ऐसे निखट्टू मरद के साथ नहीं जाएंगे, चाहे कुछ हो जाए. आप के चक्कर में हम अपनी जिंदगी बरबाद नहीं करेंगे.

हम घिघियाते रहे, मनाते रहे, पर फगुनिया के कान पर जूं तक न रेंगी. आखिर में हम भी खिसिया कर वहां से चल दिए. जातेजाते हम तड़कभड़क दिखा कर कहते गए, ‘‘आज दिनभर थानेश्वर स्थान में इंतजार करेंगे. अगर तुम नहीं आए तो जिंदगीभर मुंह नहीं देखेंगे तुम्हारा,’’ साइकिल उठाई और हम स्पीड में वहां से निकल गए.

हम तो वहां से पहुंच गए थानेश्वर स्थान महादेव मंदिर, पर फगुनिया के कलेजे पर सांप लोटने लगा. वह सोचसोच कर डर से घबराने लगी. कहीं वह आत्महत्या तो नहीं कर लेगा.

फगुनिया को फैसला लेना पड़ा, तेतरी को हमारे पीछे भेजने का. कितनी बेचैन हो कर बोली थी हमारी फगुनिया, ‘‘ऐ तेतरी, जाओ खदेरन को सम झाबु झा दो. घर चला जाएगा बेचारा.’’

हम  झटपट समस्तीपुर के महादेव मंदिर तो पहुंच गए, पर फगुनिया नहीं आई. उस की जगह तेतरी हम को सम झानेबु झाने पहुंच गई. तेतरी हम को जितना सम झाती, हम और ज्यादा गुस्सा होते जाते. जोशजोश में हम गुस्से से लालपीले होते हुए मंदिर में रखे सिंदूर की थाली से मुट्ठीभर सिंदूर उठाया और तेतरी की मांग भर दी.

जब तक होश आया, तब तक तेतरी कुमारी, बाबा की दुलारी हमारी तेतरी देवी बन चुकी थी. एक तो फगुनिया का गम हम को पहले से ही था, ऊपर से तेतरी के सरपंच ने हमारा बोलबम निकलवा दिया. हमारा हाल सेमर की रुई की तरह हो गया था जो न पेड़ से ही लगा हो और न हवा के संग उड़ ही पा रहा हो. दिल से बस एक ही चीज निकल रही थी, ‘ऐ तेतरी, तुम न लात मारी, न मारी घूंसा, फिर भी करेजा को तड़तड़ा दी.’

ये भी पढ़ें- दोस्त के नाम: एक ह्रदयस्पर्शी व्यंग्य

फगुनिया का फागुन कब बीत गया, पता ही नहीं चला. घरपरिवार, समाज की दुत्कार में. अब तो तेतरी के देह की देहरी पर जेठ अंगड़ाई लेने लगा. हम फगुनिया के गम में रेडियो पर दर्द भरे गाना सुनते हुए जंगल झाड़, खेतखलिहान में भटकते रहते. हमारा मन तो कर रहा था हैंडपंप में छलांग लगा कर डूब मरें, पर ससुरा कूदने का रास्ता ही नहीं था. अपने दर्द के वशीभूत हो कर हम उस दिन नहर किनारे वाले टूटे पुल पर बैठे रो रहे थे कि तभी वहां गांव के 3-4 संघाती पहुंच गए. हम को रोता देख कर बहुत सम झाया सब ने. पर हम को तनिक भी ढांढस न बंधा, हम और फूटफूट कर रोने लगे.

सत्संग : धर्म की आड़ में हवस का गंदा खेल

कुछ दिनों से गांव में हर रविवार के दिन एक सत्संग मंडली आना शुरू हो गई थी. मंडली में कुलमिला कर 3 लोग थे, एक मंडली के प्रमुख गुरु बाबा और बाकी 2 बूढ़ी बाईजी. गुरु बाबा की उम्र 45 साल के आसपास थी, लेकिन तंदुरुस्ती उन्हें जवान दिखाती थी. शुरुआत में गांव में केवल मीना का ही एक घर था, जिस में गुरु बाबा सत्संग करने आते थे, लेकिन कुछ ही दिनों में आधे गांव की औरतें गुरु बाबा की भक्त हो गईं.

गुरु बाबा इन दिनों शहर के किसी मंदिर में रहते थे और रविवार का दिन आते ही इस गांव में मीना के घर सत्संग करने आ पहुंचते थे. मीना का गुरु बाबा से परिचय अपने मायके में सत्संग के  दौरान हुआ था. उसी वक्त मीना ने गुरु बाबा की वाणी से प्रभावित हो कर उन्हें इस गांव में आने का न्योता दे डाला था. जिस दिन गुरु बाबा मीना के घर आए, उस दिन मीना ने अपनी शेखी बघारने के लिए पड़ोस की कुछ औरतों को भी वहां बुला लिया था.

मीना के घर पर पहले दिन ही गुरु बाबा ने ऐसा सत्संग किया कि सारी औरतें उन की मुरीद हो गईं. धीरेधीरे सब औरतों ने उन्हें अपना गुरु मान कर गुरु मंत्र भी ले लिया. गुरु बाबा केवल रविवार के दिन ही आते थे. यह बात अब उन के भक्तों को खासा अखरती थी.

ये भी पढ़ें- मजबूरी : रिहान क्यों नहीं कर पाया तबस्सुम से शादी

एक बार रविवार आने से पहले ही औरतों में इस बात पर चर्चा हुई कि गुरु बाबा को गांव के बाहर बने मंदिर में जगह दे दी जाए, जिस से उन का सत्संग रोज सुनने को मिल जाया करे. सभी औरतें इस बात पर एकमत थीं.

रविवार के दिन जब गुरु बाबा गांव में सत्संग के लिए आए, तो उन औरतों ने उन के सामने यह प्रस्ताव रख दिया. गुरु बाबा कुछ कहते, उस से पहले ही उन के साथ आने वाली बाईजी ने इस गांव के मंदिर में रुकने से मना कर दिया. वे कहती थीं कि साधुसंन्यासी को लालच के चलते कहीं नहीं रुकना चाहिए.

लेकिन बाईजी की सुनता कौन था. औरतों को तो वैसे ही बाईजी से कोई मतलब न था. वे तो गुरु बाबा के साथ आती थीं, इसलिए उन की इज्जत होती थी. गुरु बाबा इस बात को सुन कर जोश में थे, लेकिन बाईजी की वजह से कुछ कह न सके. वे आज जिस जगह पर थे, वहां तक लाने में बाईजी का बहुत बड़ा योगदान था.

पर गांव की औरतों द्वारा किया गया अनुरोध गुरु बाबा को बाईजी के खिलाफ बगावत करने के लिए मजबूर कर गया. जब गुरु बाबा ने बाईजी से अपनी दिली इच्छा जाहिर की, तो दोनों बाईजी उन से नाराज हो गईं और फिर कभी इस गांव में न आने को कह कर अपने आश्रम लौट गईं.

गुरु बाबा को इस बात से कोई फर्क न पड़ा. उन्हें इस गांव की औरतों से जो आश्वासन मिला था, वह बाईजी के साथ से कई गुना बड़ा था. उसी दिन औरतों ने खुद जा कर गांव के बाहर बने मंदिर के कमरे को झाड़पोंछ कर गुरु बाबा के रहने के लिए तैयार कर दिया.

शाम तक गुरु बाबा के लिए मंदिर में बढि़या भोजन बना कर भेज दिया गया. आज सालों बाद बाबाजी के लिए किसी ने इतना स्वादिष्ठ खाना भेजा था, जबकि बाईजी के आश्रम में तो हमेशा संन्यासियों वाला खाना ही मिलता था.

गुरु बाबा ने फैसला किया कि अब वे इसी गांव में रहेंगे. यह बात जब औरतों को पता चली, तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. अब हर रोज मंदिर में पूजा होने लगी थी. लोग इस बात से खुश हो कर मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने लगे थे. मर्द भी यह सोच कर खुश थे कि चलो मंदिर में गुरु बाबा के रहने से वहां का सूनापन खत्म हो जाएगा.

अब मीना के घर के बजाय मंदिर की धर्मशाला में ही सत्संग होना शुरू हो गया था. बड़ी जातियों के साथसाथ छोटी कही जाने वाली जातियों के लोग भी गुरु बाबा का सत्संग सुनने आने लगे थे. गुरु बाबा के पास चढ़ावे के पैसों का भी ढेर लगता जा रहा था. पिछड़ी जाति की एक लड़की रजनी को गुरु बाबा का सत्संग सुनने की ऐसी लत पड़ी कि घर के सब काम छोड़ कर वह रोज सत्संग में आ बैठती थी. रजनी की उम्र 19 साल थी, लेकिन जिस दिन उस ने गुरु बाबा का सत्संग सुना, तो भक्ति से सराबोर हो गई. घर में बूढ़ी दादी के अलावा कोई और नहीं था, जो उसे रोकता या टोकता. मांबाप उसे बचपन में ही छोड़ कर चल बसे थे.

गुरु बाबा की खातिरदारी और रोब देख कर उस के मन में खयाल आता था कि वह भी साध्वी हो जाए. लेकिन उस की राह में एक अड़चन थी कि वह पिछड़ी जाति की थी. भला पिछड़ी जाति की लड़की को कौन साध्वी मानेगा? यह खयाल मन में दबाए रजनी रोज गुरु बाबा का सत्संग सुनने आती रही.

सर्दियों के दिन थे. गुरु बाबा ने आग जलाने के लिए उपले और लकडि़यों का इंतजाम करने की बात भक्तों से कही, तो रजनी उछल कर बोल पड़ी कि इन सब चीजों का इंतजाम वह खुद कर देगी. गुरु बाबा की नजर रजनी पर पड़ी, तो भरे बदन की ठीकठाक दिखने वाली रजनी उन के दिल को भा गई. लेकिन चाह कर भी वे कुछ न कह सके.

शाम के वक्त रजनी एक गठरी में उपले और लकड़ी भर कर मंदिर जा पहुंचीं. उस वक्त मंदिर में गुरु बाबा के अलावा कोई और नहीं था. रजनी ने सिर से गठरी उतारी ही थी कि गुरु बाबा मंदिर के  कमरे से बाहर निकल आए. रजनी ने गुरु बाबा को देखा तो हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया. गुरु बाबा ने इधरउधर नजर घुमाई, फिर रजनी के सिर, कंधे और गाल पर बड़े प्यार से हाथ फेरा.

ये भी पढ़ें- Short Story : धंधा बना लिया

गुरु बाबा जानते थे कि रजनी पिछड़ी जाति की है, लेकिन उन की वासना को जातबिरादरी की दीवार कतई मंजूर न थी.

गुरु बाबा खीसें निपोरते हुए बोले, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

वह बोली, ‘‘जी… रजनी.’’

गुरु बाबा फिर से बोले, ‘‘और कौनकौन लोग हैं घर में?’’

रजनी ने उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं और मेरी दादी हैं… और कोई नहीं.’’

गुरु बाबा मन ही मन खुश हो उठे और बोले, ‘‘कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा. किसी बात की चिंता मत करो. चलो, तुम्हारी शादी में हम मदद कर देंगे.’’

रजनी शरमा कर बोली, ‘‘बाबाजी, मुझे अभी शादी नहीं करनी. मैं तो साध्वी बनना चाहती हूं.’’

गुरु बाबा खुश हो कर बोले, ‘‘अरे वाह, क्या बढि़या विचार है. तो फिर बन क्यों नहीं जातीं साध्वी? देर किस बात की है?’’

रजनी शरमाते हुए बोली, ‘‘बाबाजी, मैं पिछड़ी जाति की हूं न, इसलिए सोच कर रह जाती हूं.’’

गुरु बाबा खुद इस बात के खिलाफ थे कि कोई छोटी जाति का आदमी संत बने, लेकिन रजनी को पाने के लिए वे बेफिक्र हो कर बोले, ‘‘ऐसा कौन बोला? हम बनाएंगे तुम्हें साध्वी. आओ, अंदर बैठ कर बातें करते हैं.’’

रजनी गुरु बाबा के कमरे में जाने से थोड़ा हिचक रही थी, लेकिन उन के दोबारा कहने पर वह अंदर चली गई. अंदर कमरे में गुरु बाबा के लिए सुखसुविधा का हर सामान मौजूद था. कमरे में पड़े तख्त पर गुरु बाबा ने खुद बैठते हए रजनी को भी बिठा लिया और उस के शरीर पर जहांतहां हाथ फिरा कर बोले, ‘‘देखो रजनी, हम तुम्हें साध्वी तो बना सकते हैं, लेकिन यह बनना इतना आसान नहीं होता. इस के लिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. पहले शिष्या बन कर मेरी सेवा करनी पड़ेगी.

‘‘मैं जो भी कहूंगा, वह आंख मूंद कर करते रहना होगा, तब जा कर तुम साध्वी बन पाओगी. अगर यह सब मंजूर हो तो बताओ, फिर मैं इस बारे में सोचूं भी.’’

रजनी को दुनियादारी की समझ नहीं थी. संतगीरी की चमक ने उसे दीवाना बना दिया था. इस सब के लिए वह कुछ भी दांव पर लगाने को तैयार थी. रजनी बोली, ‘‘बाबाजी, आप जो कहो मैं वही करने को तैयार हूं. आप मेरी जान मांगो, तो वह भी मैं दे दूं. बस, आप मुझे साध्वी बना दो.’’

रजनी का साध्वी बनने के  प्रति इतना जोश देख कर गुरु बाबा खुश हो उठे. अब उन्हें अपनी इच्छा पूरी करने से कोई नहीं रोक सकता था. गुरु बाबा ने रजनी को अपने करीब किया और उस का मुंह चूम लिया. रजनी को थोड़ा अटपटा तो लगा, लेकिन इसे उन का प्यार समझ कर सह गई. गुरु बाबा ने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. रजनी के दिल की धड़कनें बढ़ गईं, लेकिन कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी.

गुरु बाबा ने रजनी को अपनी बांहों में भरा और चूम लिया. रजनी का सारा जिस्म डर से कांप उठा, मुंह से निकला, ‘‘बाबाजी, यह आप…’’

रजनी विरोध में बस इतना ही कह पाई, क्योंकि गुरु बाबा ने उसे यह बोल कर चुप कर दिया, ‘‘रजनी, हम ने तुम से क्या कहा था. तुम तो कहती थीं कि जान भी दे दूंगी. तुम्हें साध्वी बनना है या नहीं?’’

रजनी चुप हो कर सब सहती गई. बाबा अपनी हवस मिटा चुके थे. उन्होंने एक बार फिर से रजनी को साध्वी बनाने का आश्वासन दे कर घर भेज दिया. रजनी अपनी इज्जत लुटा कर घर को चल दी. उसे बुरा तो लग रहा था, लेकिन मन में साध्वी बनने का खयाल तसल्ली दिए जा रहा था. अगले दिनों में रजनी इसी तरह गुरु बाबा के पास आती रही और बाबा इसी तरह उस का शोषण करते रहे.

एक दिन रजनी ने गुरु बाबा से साध्वी बनने की जिद कर दी. बाबा रजनी को और ज्यादा दिनों तक टाल नहीं सके. उन्होंने अगले ही दिन रजनी को गेरुए कपड़े मंगवा कर दे दिए और विधिविधान से उसे साध्वी बना दिया.

रजनी के साध्वी बनने की बात सुन कर गांव के लोगों ने इस बात पर कड़ा एतराज दर्ज किया, लेकिन गुरु बाबा के आगे उन की एक न चली. कुछ दिन तक तो रजनी साध्वी के वेश में रात के वक्त अपने घर पर ही रही, लेकिन जल्दी ही गुरु बाबा के बारबार कहने पर उस के साथ ही मंदिर के दूसरे कमरे में रहने लगी.

गुरु बाबा के भक्तों को तो इस बात में कोई खराबी न दिखती थी, क्योंकि उन्हें अपने गुरु बाबा की नीयत पर पूरा भरोसा था. गांव के छिछोरे लड़के, जो दिनभर रजनी को ताका करते थे, वे अब दिनभर मंदिर में डेरा जमाए रहते. गुरु बाबा ने इस बात का फायदा भी उठाना शुरू कर दिया था. वे अब इन लोगों के लिए साध्वी रजनी का अलग से प्रवचन रखवाते और इन लोगों से मनमाना पैसा भी वसूलते थे.

धीरेधीरे प्रवचन छिछोरी बातों के प्रवचन में तबदील होता चला गया, साथ ही गुरु बाबा के पास पैसों की बरसात भी होती चली गई. एक शाम एक छिछोरे लड़के ने कैमरे से चुपके से गुरु बाबा और रजनी का आपत्तिजनक फोटो खींच लिया. जब गुरु बाबा को इस बात की खबर लगी, तो उन के होश उड़ गए. उन्होंने तुरंत उस लड़के को बुलाया और उस के सामने गिड़गिड़ाने लगे कि यह बात वह किसी को न बताए, इस के बदले वह उस लड़के को मुंहमांगी रकम भी देने को तैयार हो गए. लड़का चालाक था. उसे पता था कि इस बाबा ने खूब कमाया है. उस ने खींचे हुए फोटो वापस कर गुरु बाबा से मोटी रकम ऐंठ ली. यह रकम इतनी मोटी थी कि गुरु बाबा की जमापूंजी खत्म सी हो गई.

सत्संग के नाम से कमाया गया पैसा गुरु बाबा के शौक और ऐयाशियों को छिपाने के काम आ रहा था. गुरु बाबा ने पैसा कम होते देखा, तो भक्तों से और ज्यादा दान करने के लिए बोल दिया. लड़के को पैसा दे कर गुरु बाबा और साध्वी रजनी अभी चैन की सांस भी न ले पाए थे कि और भी लड़के इन लोगों के अश्लील फोटो लिए घूमने लगे.

ये भी पढ़ें- शौक : अखिलेश क्या अपना शौक पूरा कर पाया

यह सब देख गुरु बाबा अधमरे हो गए. उन्होंने आननफानन सभी लड़कों को बुला कर इस सब को बंद करने की प्रार्थना कर डाली. गुरु बाबा ने इन सभी लड़कों को धर्म के नाम पर जम कर लूटा था, फिर ये लोग बाबा को इतनी आसानी से कैसे छोड़ देते. उन्होंने गुरु बाबा के सामने शर्त रख दी कि अगर वे अपनी साध्वी से उन लोगों को मस्ती करने देंगे, तो कोई कुछ नहीं कहेगा.

अब गुरु बाबा क्या करते, उन्होंने अपनी इज्जत बचाने की खातिर जैसेतैसे साध्वी रजनी को इस बात के लिए मना लिया. अब हालत यह हो गई कि भगवान के मंदिर के  ठीक बगल में दिनभर वासना का खेल चलने लगा.

रजनी साध्वी इसलिए बनी थी कि आराम से जिंदगी गुजार सकेगी, लेकिन यहां तो उस की जिंदगी ही नरक सी हो गई थी. गांव में इस बात की चर्चा जोरों पर थी, लेकिन गुरु बाबा के अंधभक्त लोग अब भी इस बात पर यकीन न करते थे. लेकिन अब कुछ घरों की औरतों ने सत्संग में आना बंद कर दिया था.

गुरु बाबा की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही थीं. एक रात गुरु बाबा चुपके से साध्वी रजनी को ले कर मंदिर से भाग गए. सोचते थे, अब दूर कहीं जा कर सत्संग किया करेंगे, जहां साध्वी रजनी उन की धर्मपत्नी के तौर पर रहा करेगी.

गुरु बाबा और साध्वी रजनी के मंदिर से भागते ही लोगों को पूरी कहानी समझ आ गई. लेकिन अब भी उन के भक्तों को लगता था कि गुरु बाबा जरूर किसी और वजह से इस तरह गए होंगे, क्योंकि जिस तरह से गुरु बाबा सत्संग में प्रवचन देते थे, उस हिसाब से वे ऐसा कर ही नहीं सकते थे.

प्रतीक्षा की गलती

यशवंत की जगह कोई दूसरा होता तो सुहागरात को ही प्रतिक्षा की कामेच्छाओं के वेग को समझ जाता, लेकिन यशवंत को इस बात का अहसास तक नहीं हुआ. पत्नी की खूबसूरती ने उसे कुछ भी सोचनेसमझने का मौका नहीं दिया, दिमाग कुंद हो गया था उस का.

सुहागरात को यशवंत कमरे में पहुंचा तो प्रतीक्षा पलंग पर लेटी थी. उस की आहट पाते ही उस ने सिर उठा कर दरवाजे की ओर देखा. पति को आया देख वह उठ कर बैठ गई और साड़ी के पल्लू को घूंघट बना कर मुंह ढक लिया.

मिलन की उमंगों से भरा यशवंत अपनी दुलहन प्रतीक्षा के पास जा बैठा. उसे उन शादीशुदा दोस्तों की बातें याद आ रही थी, जिन्होंने उसे सुहागरात को बीवी का तनमन जीतने का हुनर सिखाया था. उसे दोस्तों की पहली टिप्स याद आई. जब तुम दुलहन का घूंघट उठाओगे, तब उस के गाल शर्म से गुलाबी हो जाएंगे. उस के होठों पर मुसकान तो रहेगी, मगर लाज से नजरें झुक जाएंगी. हालांकि सुहागरात का यह दूसरा अनुभव था यशवंत का, फिर भी वह प्रतीक्षा के सामने पहली बार बने दूल्हे की तरह व्यवहार कर रहा था.

यशवंत ने उंगलियों से साड़ी का किनारा पकड़ा और अपनी दुलहन का घूंघट उलट दिया. चेहरे की दमक तो सामने आ गई, लेकिन न तो लाज से दुलहन की नजरें झुकीं और न होठों पर सौम्य मुसकान आई. कुछ देर तक वह यशवंत की आंखों में देखती रही, फिर खिलखिला कर हंसने लगी. हतप्रभ यशवंत प्रतीक्षा का मुंह ताकता रह गया.

पति के भावों को समझने की कोशिश करते हुए प्रतीक्षा शोखी से बोली, ‘‘ऐ ऐसे क्यों देख रहे हो, मैं पागल नहीं हूं.’’

ये भी पढ़ें- बेस्ट ऑफ क्राइम : 5 सालों का रहस्या

‘‘तुम हंस क्यों रही हो?’’ कुछ नहीं सूझा तो हैरानपरेशान यशवंत ने सवाल किया, ‘‘दूल्हा घूंघट उठाए तो इस तरह नहीं हंसना चाहिए.’’

‘‘यह क्या बात हुई’’ प्रतीक्षा की हंसी घट कर मुसकान में तबदील हो गई. ‘‘सुहागरात को दुलहन पति के लिए निर्वस्त्र हो सकती है, मगर हंस नहीं सकती. मैं हंस दी तो कौन सा पाप हो गया?’’

‘‘पाप तो नहीं हुआ,’ यशवंत ने धीमे से मुंह खोला, ‘‘लेकिन दुलहनें इस तरह नहीं हंसा करतीं.’’

‘‘मैं पुराने जमाने की नहीं, इक्कीसवी सदी की दुलहन हूं’’ प्रतीक्षा का लहजा बेबाक था, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम मेरे पास क्यों आए हो. मैं जानती हूं कि तुम मेरे साथ क्याक्या करने वाले हो. मेरे मातापिता जानते हैं कि आज की रात दूल्हादुलहन कैसे खेलेंगे. तुम्हारे घर वालों ने तुम्हें मेरे पास खेलने के लिए ही भेजा है. सब जानते हैं कि आज क्या होगा, फिर मैं क्यों लाज का आडंबर करूं.’’

यशवंत हैरत से प्रतीक्षा का मुंह देखता रह गया. प्रतीक्षा अपनी रौ में बोली, ‘‘मैं जिंदगी के हर पल को शिद्दत से जीना चाहती हूं. आज रात हमारी देहों का मिलन होना है. लाज संकोच के बजाय अगर सबकुछ हंसीखुशी हो तो उस का आनंद ही निराला होगा.’’ वह यशवंत की आंखों में देखते हुए मुसकराई. ‘‘होगा न?’’

यशवंत प्रतीक्षा के तर्कों से प्रभावित हुआ. सोचा, नए जमाने की लड़कियां शर्म की गुडि़यां थोड़े ही बनेंगी. पुराने जमाने की बात अलग थी, जब लड़कियां स्त्रीपुरूष के अंतरंग संबंध से अंजान होती थीं. शादी के पहले भावी दुलहनों को रिश्ते की भाभियां समझाती थीं कि सुहागरात को दूल्हादुल्हन के बीच क्या होता है. अब तो फिल्मों, केबल और इंटरनेट सब कुछ सिखा देते हैं. लड़केलड़कियों को होश संभालते ही इस सब की समझ आने लगती है. यही सब सोच कर यशवंत के होठों पर मुसकान आ गई.

‘‘तुम सही कहती हो प्रतीक्षा, एक घंटे बाद हमें बेशर्म होना है तो क्यों न पहले ही शर्म का लबादा उतार कर खूंटी पर टांग दें. मिलन का आनंद दूना हो जाएगा.’’

‘‘तो फिर दूर क्यों हो, करीब आओ.’’ प्रतीक्षा ने मुसकरा कर बांहे फैला दी. यशवंत सारी बातें भूल कर प्रतीक्षा की बांहों में समा गया. 40 वर्षीय प्रतीक्षा फतेहपुर जनपद के दुर्गा कालोनी, हरिहरगंज की रहने वाली थी. उस की मां का नाम कमला और पिता का नाम चंद्रभान था. चंद्रभान विकास भवन में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे. प्रतीक्षा के अलावा उन की कोई संतान नहीं थी.

प्रतीक्षा मांबाप की एकलौती संतान थी. इसलिए न तो उस के कहीं घूमने पर पाबंदी थी, और न ही उसे किसी चीज के लिए तरसना पड़ता था. फरमाइश करते ही मनचाही चीज हाजिर हो जाती थी. संभवत: परिवार में मिली आजादी का ही नतीजा था कि प्रतीक्षा जीवन के हर पल को खुल कर और मस्ती से जीने की आदी हो गई थी.

मांबाप भी प्रतीक्षा के खुल कर मस्ती से जीने के अंदाज को जानते थे. इसलिए जब वह जवान हुई तब उन्हें डर सताने लगा कि कहीं प्रतीक्षा जवानी को भी खुल कर एंजौय न करने लगे. यह अलग बात थी कि प्रतीक्षा ने न किसी से प्रेमिल संबंध बनाया, न किसी को अपने यौवन का अनमोल तोहफा दिया. उस ने अपना कौमार्य पति की अमानत समझ कर सहेजे रखा. हां, उस की यह तमन्ना जरूर थी कि शादी के बाद का जीवन वह खुल कर मस्ती से जीएगी और इस की शुरुआत वह सुहागरात से ही कर देगी.

क्रांतिकारी विचारधारा की पुत्री को मातापिता अधिक दिनों तक घर में बैठाए रखने के पक्ष में नहीं थे. जवानी का क्या भरोसा, कब बहक जाए. लेकिन सोचने भर से सब काम नहीं हो जाते. प्रतीक्षा के लिए कई रिश्ते देखे गए लेकिन बात नहीं बनी. शायद समय और किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.

बीतते समय के साथ प्रतीक्षा की उम्र बढ़ती जा रही थी, लेकिन कहीं भी उस का रिश्ता नहीं हो पा रहा था. ऐसे में उस के मांबाप को चिंता सताने लगी. जवान बेटी को अधिक दिनों तक घर में नहीं बैठाया जा सकता, लोग तरहतरह की बातें बनाने लगते हैं.

फतेहपुर के थाना हुसैनगंज क्षेत्र के गांव चांदपुर में भवानी शंकर सिंह रहते थे. वह एक स्कूल में अध्यापक थे. इस के साथ ही खेतीबाड़ी का काम भी करते थे. परिवार में पत्नी शिवरानी देवी और 3 बेटे थे. कालिका, रवींद्र और यशवंत. बेटे जवान हो गए तो उन्होंने अपनी जमीनजायदाद का बराबरबराबर बंटवारा कर दिया. बड़े बेटे कालिका का विवाह करने के बाद 1994 में भवानी शंकर दुनिया से चल बसे. रवींद्र शिक्षा पूरी करने के बाद सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया. सन 2000 में विवाह के बाद वह फतेहपुर शहर में शिफ्ट हो गया था.

सब से छोटा यशवंत सरल स्वभाव का था. बीएससी करने के बाद वह गांव में ही खेती करने लगा. 2003 में उस का विवाह फतेहपुर के मलौली थाना क्षेत्र की कुर्रा कनक गांव निवासी गुड्डन से हुआ. गुड्डन ने 2 बेटों को जन्म दिया लेकिन दूसरे बच्चे की डिलीवरी के समय उस की मृत्यु हो गई. गुड्डन की मौत के बाद दोनों बच्चों को उन की नानी अपने साथ ले गई.

ये भी पढ़ें- एक हत्या ऐसी भी

2013 में चंद्रभान अपनी बेटी प्रतीक्षा का रिश्ता ले कर आए तो यशवंत के घर वाले मना नहीं कर पाए क्योंकि यशवंत के सामने लंबी जिंदगी पड़ी थी. बिना हमसफर के जिंदगी काटना मुश्किल था.

शादी तय हो जाने के बाद दोनों का विवाह हो गया. प्रतीक्षा सुर्ख जोड़े में मायके से ससुराल आ गई. ससुराल में दूल्हादुलहन के मिलन की पहली रात थी, अरमानों की रात सुहागरात. सुहागशैया पर यशवंत के घूंघट उठाते ही जिस तरह प्रतीक्षा खुलेपन से पेश आई, उस से यशवंत स्तब्ध रह गया. यह अलग बात है कि प्रतीक्षा ने उसे गलत सोचने नहीं दिया. उस ने यशवंत को विश्वास दिला दिया कि वह इक्कीसवीं सदी की औरत है, बिंदास जिंदगी के हर पल का आनंद ले कर शिद्दत से जीने वाली.

नई और पुरानी का फर्क

यशवंत को भी अलग अनुभव हुआ. पहली पत्नी गुड्डन पुराने ढर्रे पर चलने वाली ठेठ परिवारिक युवती थी. उस के साथ यशवंत ने वहीं अनुभव किया था जो वह सोच रहा था. लेकिन प्रतीक्षा के साथ उसे एक अलग ही अनुभव मिला.

जो युवती पहली रात को खुल कर खेल सकती थी, वह आगामी रातों में क्या गजब करेगी कहना मुश्किल था. यही सोच कर सशवंत के मन में संदेह का कीड़ा कुलबुलाने लगा. वह सोचने लगा कि प्रतीक्षा शायद ऐसा अनुभव मायके से ले कर आई है. यशवंत ने उसे कटघरे में खड़ा भी किया, मगर उस का जवाब था कि वह जीवन के हर पल को आनंद से जीने की आदी है. खुलापन उस के जीने का अंदाज है, चरित्रहीनता का प्रमाण नहीं.

यशवंत उस समय तो चुप रहा, पर प्रतीक्षा की तरफ से उस का मन साफ नहीं हुआ. यशवंत ने किसी तरह प्रतीक्षा के मायके से जानकारी जुटाई तो उस पर उंगली उठाने लायक कोई बात पता नहीं चली. इस से यशवंत ने मान लिया कि प्रतीक्षा तबियत से शौकीन जरूर है, पर उस का चरित्र बेदाग है.

यह प्रतीक्षा का शौक ही था कि वह एक रात भी न तो यशवंत से अलग रहती थी और न उसे अलग सोने देती थी. फलस्वरूप प्रतीक्षा ने 5 वर्ष पूर्व एक पुत्र को जन्म दिया, जिस का नाम यतेंद्र रखा गया. उस के कुछ बड़ा होने पर दोनों ने उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए उस के नाना के घर भेज दिया.

यशवंत की यह दूसरी शादी थी, उस की उम्र भी 40 के पार हो गई थी. अब उस में इतना दमखम नहीं रह गया था कि हर रोज प्रतीक्षा के बिस्तर का साथी बन कर रास रचाए. दूसरी ओर प्रतीक्षा को काफी देर से पुरूष सुख मिलना शुरू हुआ था, बढ़ती उम्र के साथ उस की कामेच्छाएं भी बढ़ गई थीं.

रात को यशवंत जब उस के पास नहीं आता तो वह झुंझला जाती. इस बात को ले कर दोनों में काफी बहस भी होती. प्रतीक्षा जिस तरह सुहागरात में यशवंत पर हावी हुई थी, उसी तरह समय के साथसाथ उस की जिंदगी पर भी हावी होती चली गई. उस के गलत व्यवहार के कारण ही यशवंत के भाई और परिवार उन दोनों से दूर हो गए थे. वे लोग उन से किसी तरह का संबंध नहीं रखते थे. यशवंत कभीकभी चोरीछिपे अपने भाइयों से बात कर लेता था.

दूसरी ओर प्रतीक्षा ने शादी से पहले तक अपने यौवन को किसी के हवाले नहीं किया था, अब वह पति की बेरुखी के चलते अपने यौवन के खजाने को दूसरों पर लुटाने को अमादा थी. यशवंत के ठंडेपन के चलते वह अपनी मर्यादा की सीमा को भी लांघने को तैयार थी. लेकिन इस के लिए उसे उपयुक्त साथी की जरूरत थी.

नवंबर 2018 में यशवंत के बड़े भाई कालिका की मुत्यु हो गई. उस की तेरहवीं में खाना बनाने के लिए एक व्यक्ति से बात की गई. पेसा वगैरह तय हो जाने के बाद उसे खाना बनाने का काम दे दिया गया. खाना बनाने के लिए आए कारीगरों में 30 वर्षीय संग्राम सिंह भी था. संग्राम सिंह फतेहपुर के थाना मलवां के गांव नसीरपुर बेलवारा निवासी कुंवर बहादुर सिंह का बेटा था. जो अविवाहित था.

खाना बनाने के दौरान संग्राम प्रतीक्षा के संपर्क में आया. प्रतीक्षा ने कुंवारे खूबसूरत जवान संग्राम को देखा तो वह उसे मन भा गया. कभी कोई सामान देने तो कभी खाना कैसे बनाना है, को ले कर प्रतीक्षा उसे अपने पास बुलाती और रिझाने की कोशिश करती.

प्रतीक्षा की चालढाल और उस की हरकतों से संग्राम को भी समझते देर नहीं लगी कि वह उस पर डोरे डाल रही है. संग्राम खुद से 10 साल बड़ी प्रतीक्षा की खूबसूरती पर फिदा हो गया. जब शिकार खुद शिकार होने को तैयार था तो शिकारी क्यों चिंता करता.

दोनों में हंसीमजाक, चुहलबाजियां हुई लेकिन लोगों की नजरों से बच कर. संग्राम जब अपना काम निपटा कर जाने लगा तो प्रतीक्षा की नजरों में बेचैनी झलकने लगी, जिसे संग्राम ने अच्छी तरह समझ लिया था. वह प्रतीक्षा से बोला, ‘‘अब हमारी इतनी जानपहचान तो हो ही गई है कि आगे भी मिलते रहें.’’

संग्राम खेलने के लिए कूदा प्रतीक्षा की पिच पर

प्रतीक्षा ने मुसकरा कर संग्राम को हरी झंडी दे दी. यशवंत के गांव चांदपुर से संग्राम के गांव की दूरी महज 8 किलोमीटर थी. उस दिन के बाद से संग्राम अपनी बाइक से प्रतीक्षा से मिलने आने लगा.

जब वह आता तो यशवंत खेतों पर होता. घर में प्रतीक्षा अकेली रहती थी. बारबार मिलते रहने से उन के बीच की झिझक खत्म होती गई. झिझक खत्म होते ही दोनों एकदूसरे से बेशर्मी से पेश आने लगे. उन के बीच अश्लील मजाक भी होने लगे.

एक दिन ऐसे ही अश्लील मजाक के दौरान संग्राम ने प्रतीक्षा को दबोच लिया. घबराने का नाटक करते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हो संग्राम?’’

जबकि मन ही मन वह संग्राम की इस हरकत से खुश थी. संग्राम ने उस के नाटक को भांप लिया था, क्योंकि वह यह सब दिखावे के लिए कर रही थी. संग्राम ने प्रतीक्षा को और ज्यादा कसके दबोचते हुए कहा, ‘‘मैं तो वही कर रहा हूं, जो तुम चाहती हो.’’

ये भी पढ़ें- प्यार बना जहर

‘‘मैं ऐसा चाहती हूं, यह मैं ने तुम से कहा?’’

‘‘हर बात जुबां से ही नहीं कही जाती, आंखों भी बहुत कुछ बता देती हैं. मुझे तुम्हारी खूबसूरत आंखों ने बता दिया कि तुम्हें मेरे प्यार की बेहद जरूरत है.’’

‘‘अच्छा जी, मेरी आंखों ने तुम्हें सब कुछ बता दिया. जब बता ही दिया तो मेरी देह की किताब के पन्ने भी खोल कर पढ़ लो.’’

प्रतीक्षा बेचैन हो कर संग्राम के बदन से लिपट गई. इस के बाद संग्राम ने उस की देह की किताब का एकएक पन्ना खोल कर ऐसा पढ़ा कि प्रतीक्षा उस की दीवानी हो गई. उस दिन के बाद तो यह सिलसिला ही बन गया.

29 जनवरी, 2020 की सुबह साढ़े 9 बजे प्रतीक्षा घर से निकल कर चीखनेचिल्लाने लगी. उस की चीखपुकार सुन कर गांव के लोग घर के सामने इकट्ठा हो गए. प्रतीक्षा ने बताया कि कुछ बदमाशों ने घर में घुस कर उस के पति यशवंत की हत्या कर दी है. लगभग 10 बजे प्रतीक्षा ने 112 नंबर पर काल कर के पुलिस को घटना की सूचना दी. चूंकि घटनास्थल थाना हुसैनगंज क्षेत्र में आता था, सो कंट्रोल रूप से इस घटना की सूचना हुसैनगंज थाने को दे दी गई.

सूचना पा कर इंसपेक्टर निशिकांत राय पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. मृतक यशवंत के शरीर, सिर व गले पर किसी तेज धारदार हथियार के निशान थे. प्रतीक्षा से पूछताछ की गई तो उस ने कुछ लोगों द्वारा घर में घुस कर यशवंत को मारने की बात बताई.

प्रतीक्षा की बातें इंसपेक्टर राय के गले से नहीं उतर रही थीं. एक तो सुबह कोई घर में नहीं घुस सकता था. ऐसा होता तो हत्यारों के आते जाते या शोर मचने पर पड़ोसियों को पता चल जाता.

दूसरे बदमाशों ने यशवंत की तो हत्या कर दी थी, लेकिन प्रतीक्षा को छोड़ दिया, उसे एक खरोंच तक नहीं आई थी. इस से इंसपेक्टर निशिकांत राय का शक प्रतीक्षा पर ही गया. फिलहाल उन्होंने यशवंत की लाश को पोस्टमार्टम के लिए मौर्चरी भेज दिया.

मौके पर आए यशवंत के भाई रविंद्र और पड़ोसियों से पूछताछ के बाद इंसपेक्टर राय का शक प्रतीक्षा पर और गहरा हो गया.

रविंद्र ने अपनी लिखित तहरीर में प्रतीक्षा और उस के प्रेमी संग्राम सिंह पर हत्या का शक जताया था. रविंद्र की तहरीर मिलने के बाद इंसपेक्टर निशिकांत राय ने थाने में प्रतीक्षा और संग्राम सिंह के विरूद्ध भादवि की धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया.

गिरफ्तार हुई प्रतीक्षा

31 जनवरी को इंसपेक्टर राय ने प्रतीक्षा को घर से गिरफ्तार कर लिया. महिला कांस्टेबल की उपस्थिति में जब उस से कड़ाई से पूछताछ की गई तो उस ने यशवंत की हत्या का जुर्म स्वीकार कर लिया. इस हत्या में उस का साथ उस के प्रेमी संग्राम सिंह ने दिया था.

प्रतीक्षा ने बताया कि जब उस के संग्राम से नाजायज संबंध बने, तो फिर बेरोकटोक जारी रहे. लेकिन ऐसा कब तक चलता. लोगों की नजरों में उन के नाजायज संबंध छिपे नहीं रह सके. गांव में तरहतरह की बातें होने लगीं. यशवंत के कानों तक भी प्रतीक्षा की बेवफाई के किस्से पहुंच गए.

इस के बाद उस के और प्रतीक्षा के बीच काफी तीखी बहस होने लगी. लेकिन उस बहस का कोई नतीजा नहीं निकला, क्योंकि प्रतीक्षा पर उस का कोई असर नहीं हुआ था. यशवंत को उस के अवैध रिश्ते के बारे में पता चलने के बाद प्रतीक्षा संग्राम से खुल कर मिलने लगी. वह यशवंत की उपस्थित में भी आने लगा. वह पूरेपूरे दिन यशवंत के घर में पड़ा रहता.

यशवंत खून का घूंट पी कर रह जाता. जब उस से बर्दाश्त नहीं होता तो वह उन दोनों से भिड़ जाता था. लेकिन दोनों के सामने उस की एक नहीं चलती थी.

मिलन में यशवंत के बारबार व्यवधान डालने से प्रतीक्षा और संग्राम परेशान हो गए. इसलिए दोनों ने यशवंत नाम के कांटे को हमेशा के लिए हटाने का फैसला कर लिया.

28/29 जनवरी, 2020 की रात यशवंत के खाने में प्रतीक्षा ने कोई नशीला पदार्थ मिला दिया. खाना खाने के बाद यशवंत बेसुध हो कर बिस्तर पर लेट गया. संग्राम देर रात प्रतीक्षा के पास पहुंचा और बेसुध पड़े यशवंत पर कुल्हाड़ी से ताबड़तोड़ कई प्रहार कर दिए.

ये भी पढ़ें- बेस्ट ऑफ क्राइम : शादी जो बनी बर्बादी

यशवंत चीखचिल्ला भी न सका, उस ने दम तोड़ दिया. इस के बाद संग्राम वहां से चला गया. सुबह साढ़े 9 बजे प्रतीक्षा ने चीखचिल्ला कर बदमाशों द्वारा यशवंत को मार देने की झूठी कहानी लोगों को सुनाई, लेकिन वह अपने को बचाने में सफल नहीं हो सकी.

पुलिस ने प्रतीक्षा की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त कुल्हाड़ी बरामद कर ली. फिर कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उसे न्यायालय में पेश कर के जेल भेज दिया गया. पुलिस के दबाव के चलते संग्राम सिंह ने न्यायालय में आत्मसमर्पण कर दिया.

-कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें