चाहत

लेखक- जसविंदर शर्मा

यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया कि अपनी पत्नी को साथ ले कर जाना ठीक रहेगा कि नहीं. रमण हमारे इलाके का ही है. उस का गांव मेरे गांव से 3 किलोमीटर दूर है. इधर कई साल से हमारा मिलनाबोलना तकरीबन बंद ही था. अब मैं प्रमोशन ले कर उस के औफिस में उस के शहर में आ गया तो हमारे संबंध फिर से गहरे होने लगे थे. पिछले 20 सालों में हमारे बीच बात ही कुछ ऐसी हो गई थी कि हम एकदूसरे को अपना मुंह दिखाना नहीं चाहते थे.

रमण और मैं 10वीं क्लास तक एक ही स्कूल में पढ़े थे. यह तो लाजिम ही था कि हमें एक ही कालेज में दाखिला लेना था, क्योंकि 30 मील के दायरे में वहां कोई दूसरा कालेज तो था नहीं. हम दोनों रोजाना बस से शहर जाते थे.

रमण अघोषित रूप से हमारा रिंग लीडर था. वह हम से भी ज्यादा दिलेर, मुंहफट और जल्दी से गले पड़ने वाला लड़का था.

पढ़ाई में वह फिसड्डी था, पर शरीर हट्टाकट्टा था उस का, रंग बेहद गोरा.

बचपन से ही मुझे कहानीकविता लिखने का चसका लग गया था. मजे की बात यह थी कि जिस लड़की सुमन के प्रति मैं आकर्षित हुआ था, रमण भी उसी पर डोरे डालने लगा था. हमारी क्लास में सुमन सब से खूबसूरत लड़की थी.

हम लोग तो सारे पीरियड अटैंड करते, मगर रमण पर तो एक ही धुन सवार रहती कि किसी तरह जल्दी से कालेज की कोई लड़की पट जाए. अपनी क्लास की सुमन पर तो वह बुरी तरह फिदा था. खैर, हर वक्त पीछे पड़े रहने के चलते सुमन का मन किसी तरह पिघल ही गया था.

सुमन रमण के साथ कैफे जाने लगी थी. इस कच्ची उम्र में एक ही ललक होती है कि विपरीत लिंग से किसी तरह दोस्ती हो जाए. आशिकी के क्या माने होते हैं, इस की समझ कहां होती है. रमण में यह दीवानगी हद तक थी.

एक दिन लोकल अखबार में मेरी कहानी छपी. कालेज के इंगलिश के लैक्चरर सेठ सर ने सारी क्लास के सामने मुझे खड़ा कर के मेरी तारीफ की.

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मैं तो सुमन की तरफ अपलक देख रहा था, वहीं सुमन भी मेरी तरफ ही देख रही थी. उस समय उस की आंखों में जो अद्भुत चमक थी, वह मैं कई दिनों तक भुला नहीं पाया था. पता नहीं क्यों उस लड़की पर मेरा दिल अटक गया था, जबकि मुझे पता था कि वह मेरे दोस्त रमण के साथ कैफे जाती है. रमण सब के सामने ये किस्से बढ़ाचढ़ा कर बताता रहता था.

सुमन से अकेले मिलने के कई और मौके भी मिले थे मुझे. कालेज के टूर के दौरान एक थिएटर देखने का मौका मिला था हमें. चांस की बात थी कि सुमन मेरे साथ वाली कुरसी पर थी. हाल में अंधेरा था. मैं ने हिम्मत कर के उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया तो बड़ी देर तक उस का हाथ मेरे हाथ में रहा.

रमण से गहरी दोस्ती होने के बावजूद बरसों तक मैं ने रमण से सुमन के प्रति अपना प्यार छिपाए रखा. डर था कि क्या पता रमण क्या कर बैठे. कहीं कालेज आना न छोड़ दे. सुमन के मामले में वह बहुत संजीदा था.

एक दिन किसी बात पर रमण से मेरी तकरार हो गई. मैं ने कहा, ‘क्या हर वक्त ‘मेरी सुमन’, ‘मेरी सुमन’ की रट लगाता रहता है. यों ही तू इम्तिहान में कम नंबर लाता रहेगा तो वह किसी और के साथ चली जाएगी.’

रमण दहाड़ा, ‘मेरे सिवा वह किसी और के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती.’

मैं ने अनमना हो कर यों ही कह दिया, ‘कल मैं तेरे सामने सुमन के साथ इसी कैफे में इसी टेबल पर कौफी पीता मिलूंगा.’

हम दोनों में शर्त लग गई.

मैं रातभर सो नहीं पाया. सुमन ने अगर मेरे साथ चलने से मना कर दिया तो रमण के सामने मेरी किरकिरी होगी. मेरा दिल भी टूट जाएगा. मगर मुझे सुमन पर भरोसा था कि वह मेरा दिल रखेगी.

दूसरे दिन सुमन मुझे लाइब्रेरी से बाहर आती हुई अकेली मिल गई. मैं ने हिम्मत कर के उस से कहा कि आज मेरा उसे कौफी पिलाने का मन कर

रहा है.

मेरे उत्साह के आगे वह मना न कर सकी. वह मेरे साथ चल दी. थोड़ी देर बाद रमण भी वहां पहुंच गया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. खैर, कुछ दिनों बाद वह बात आईगई हो गई.

सुमन और मेरे बीच कुछ है या हो सकता है, रमण ने इस बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी और उसे कभी इस बात की भनक तक नहीं लगी.

कालेज में छात्र यूनियन के चुनावों के दौरान खूब हुड़दंग हुआ. रमण ने चुनाव जीतने के लिए दिनरात एक कर दिया. वह तो चुनाव रणनीति बनाने में ही बिजी रहा. वह जीत भी गया.

चुनाव प्रचार के दौरान मुझे सुमन के साथ कुछ पल गुजारने का मौका मिला. न वह अपने दिल की बात कह पाई और न

ही मेरे मुंह से ऐसा कुछ निकला. दोनों सोचते रहे कि पहल

कौन करे.

जब कभी कहीं अकेले सुमन के साथ बैठने का मौका मिलता तो हम ज्यादातर खामोश ही

बैठे रहते.

एक दिन तो रमण ने कह ही दिया था कि तुम दोनों गूंगों की अपनी ही

कोई भाषा है. सचमुच सच्चे प्यार में चुप रह कर ही दिल से सारी बातें करनी होती हैं.

मैं एमए की पढ़ाई करने के लिए यूनिवर्सिटी चला गया. रमण ने बीए कर के घर में खेती में ध्यान देना शुरू कर दिया. साथ में नौकरी के लिए तैयारी करता रहता.

मैं महीनेभर बाद गांव आता तो फटाफट रमण से मिलने उस के गांव में चल देता. वह मुझे सुमन की खबरें देता.

रमण को जल्दी ही अस्थायी तौर पर सरकारी नौकरी मिल गई. सुमन भी वहीं थी. सुमन के पिता को हार्टअटैक हुआ था, इसीलिए सुमन को जौब की सख्त जरूरत थी.

काफी अरसा हो गया था. सुमन से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई. मौका पा कर मैं उस के कसबे में चक्कर लगाता, उस कैफे में कई बार जाता, मगर मुझे सुमन का कोई अतापता न मिलता.

मेरी हालत उस बदकिस्मत मुसाफिर की तरह थी, जिस की बस उसे छोड़ कर चली गई थी और बस में उस का सामान भी रह गया था.

संकोच के मारे मैं रमण से सुमन के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं कर सकता था. रमण के आगे मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता था. मुझे उम्मीद थी कि अगर मेरा प्यार सच्चा हुआ तो सुमन मुझे जरूर मिलेगी.

सुमन को तो उस की जौब में पक्का कर दिया गया. उस में काम के प्रति लगन थी. रमण को 6 महीने बाद निकाल दिया गया.

रमण को जब नौकरी से निकाला गया, तब वह जिंदगी और सुमन के बारे में संजीदा हुआ. उस के इस जुनून से मैं एक बार तो घबरा गया.

अब तक वह सुमन को शर्तिया तौर पर अपना मानता था, मगर अब उसे लगने लगा था कि अगर उसे ढंग की नौकरी नहीं मिली तो सुमन भी उसे नहीं मिलेगी.

इसी दौरान मैं ने सुमन से उस के औफिस जा कर मिलना शुरू कर दिया था. मैं उसे साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियां बताता. उसे खास पत्रिकाओं में छपी अपनी रोमांटिक कविताएं दिखाता.

रमण ने सुमन को बहुत ही गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था. रमण मुझे कई कहानियां सुनाता कि आज उस ने सुमन के साथ फलां होटल में लंच किया और आज वे किसी दूसरे शहर घूमने गए. सुमन के साथ अपने अंतरंग पलों का बखान वह मजे ले कर करता.

पहले रमण का सुमन के प्रति लापरवाही वाला रुख मुझे आश्वस्त कर देता था कि सुमन मुझे भी चाहती है, मगर अब रमण सच में सुमन से प्यार करने लगा था. ऐसे में मेरी उलझनें बढ़ने लगी थीं.

फिर एक अनुभाग में मुझे और रमण को नियुक्ति मिली. रमण खुश था कि अब वह सुमन को प्रपोज करेगा तो वह न नहीं कहेगी. मैं चुप रहता.

मैं सोचने लगा कि अब अगर कुछ उलटफेर हो तभी मेरी और सुमन में नजदीकियां बढ़ सकती हैं. हमारा औफिस सभी विभागों के बिल पास करता था. यहां प्रमोशन के चांस बहुत थे. मैं विभागीय परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया.

एक दिन मैं और रमण साथ बैठे थे, तभी अंदर से रमण के लिए बुलावा

आ गया.

5 मिनट बाद रमण मुसकराता हुआ बाहर आया. उस ने मुझे अंदर जाने को कहा. अंदर जिला शिक्षा अधिकारी बैठे थे. वे मुझे अच्छी तरह से जानते थे. मेरे बौस ने ही सारी बात बताई, ‘बेटा, वैसे तो मुझे यह बात सीधे तौर पर तुम से नहीं करनी चाहिए. कौशल साहब को तो आप जानते ही हैं. मैं इन से कह बैठा कि हमारे औफिस में 2 लड़कों ने जौइन किया है. इन की बेटी बहुत सुंदर और होनहार है. ये करोड़पति हैं. बहुत जमीन है इन की शहर के साथ.

‘ये चाहते हैं कि तुम इन की बेटी को देख लो, पसंद कर लो और अपने घर वालों से सलाह कर लो.

‘रमण से भी पूछा था, मगर उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया. अब तुम्हें मौका मिल रहा है.’

रमण से मैं हर बार उन्नीस ही पड़ता था. बारबार कुदरत हमारा मुकाबला करवा रही थी. एक तरफ सुमन थी और दूसरी तरफ करोड़ों की जायदाद.

घरजमाई बनने के लिए मैं तैयार नहीं था और सुमन से इतने सालों से किया गया प्रेम…

फिर पता चला कि शिक्षा अधिकारी ने रमण के मांबाप को राजी कर लिया है. रमण ने अपना रास्ता चुन लिया था. सुमन से सारे कसमेवादे तोड़ कर वह अपने अमीर ससुराल चला गया था. मैं प्रमोशन पा कर दिल्ली चला गया था.

सुमन का रमण के प्रति मोह भंग हो गया था. सुमन ने एक दूसरी नौकरी ले ली थी और 2 साल तक मुझे उस का कोई अतापता नहीं मिला.

बहन की शादी के बाद मैं भी अखबारों में अपनी शादी के लिए इश्तिहार देने लगा था. सुमन को मैं ने बहुत ढूंढ़ा. इस के लिए मैं ने करोड़पति भावी ससुर का औफर ठुकरा दिया था. वह सुमन भी अब न जाने कहां गुम हो गई थी. उस ने मुझे हमेशा सस्पैंस में ही रखा. मैं ने कभी उसे साफसाफ नहीं कहा कि मैं क्या चाहता हूं और वह पगली मेरे प्यार की शिद्दत नहीं जान पाई.

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अखबारों के इश्तिहार के जवाब में मुझे एक दिन सुमन की मां द्वारा भेजा हुआ सुमन का फोटो और बायोडाटा मिला. मैं तो निहाल हो गया. मुझे लगा कि मुझे खोई हुई मंजिल मिल गई है. मैं तो सरपट भागा. मेरे घर वाले हैरान थे कि कहां तो मैं लड़कियों में इतने नुक्स निकालता था और अब इस लड़की के पीछे दीवाना हो गया हूं.

शादी के बाद भी लोग पूछते रहते थे कि क्या तुम्हारी शादी लव मैरिज थी या अरैंज्ड तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे पाता था. मैं तो मुसकरा कर कहता था कि सुमन से ही पूछ लो.

सुमन से शादी के बाद रमण के बारे में मैं ने कभी उस से कोई बात नहीं की. सुमन ने भी कभी भूले से रमण का नाम नहीं लिया.

वैसे, रमण सुंदर और स्मार्ट था. सुमन कुछ देर के लिए उस के जिस्मानी खिंचाव में बंध गई थी. रमण ने उस के मन को कभी नहीं छुआ.

जब रमण ने सुमन को बताया होगा कि उस के मांबाप उस की सुमन से शादी के लिए राजी नहीं हो रहे हैं तो सुमन ने कैसे रिएक्ट किया होगा.

रमण ने यह तो शायद नहीं बताया होगा कि करोड़पति बाप की एकलौती बेटी से शादी करने के लिए वह सुमन को ठुकरा रहा है. मगर जिस लहजे में रमण ने बात की होगी, सुमन सबकुछ समझ गई होगी. तभी तो वह दूसरी नौकरी के बहाने गायब हो गई.

इन 2 सालों में सुमन ने मेरे और रमण के बारे में कितना सोचाविचारा होगा. रमण से हर लिहाज में मैं पहले रैंक पर रहा, मगर सुंदरता में वह मुझ से आगे था.

आज रमण के बेटे की सगाई का समाचार पा कर मैं सोच में था कि रमण के घर जाएं या नहीं.

सुमन ने सुना तो जाने में कोई खास दिलचस्पी भी नहीं दिखाई. उसे यकीन था कि अब रमण का सामना करने में उसे कोई झेंप या असहजता नहीं होगी. इतने सालों से रमण अपने ससुराल में ही रह रहा था. सासससुर मर चुके थे. इतनी लंबीचौड़ी जमीन शहर के साथ ही जुट गई थी. खुले खेतों के बीच रमण की आलीशान कोठी थी. खुली छत पर पार्टी चल रही थी.

रमण ने सुमन को देख कर भी अनदेखा कर दिया. एक औपचारिक सी नमस्ते हुई. अब मैं रमण का बौस था, रमण के बेटे और होने वाली बहू को पूरे औफिस की तरफ से उपहार मैं ने सुमन के हाथों ही दिलवाया.

पहली बार रमण ने हमें हैरानी से देखा था, जब मैं और सुमन उस के घर के बाहर कार से साथसाथ उतरे थे. वह समझ गया था कि हम मियांबीवी हैं.

दूर तक फैले खेतों को देख कर मेरे मन में आया कि ये सब मेरे हो सकते थे, अगर उस दिन मैं जिला शिक्षा अधिकारी की बात मान लेता.

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उस शाम सारी महफिल में सुमन सब से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. शायद उसे देख कर रमण के मन में भी आया होगा कि अगर वह दहेज के लालच में न पड़ता तो सुमन उस की हो सकती थी. चलो, जिस की जो चाहत थी, उसे मिल गई थी.

एतराज

लेखक- अशरफ खान

अभी जमाल बैठा प्रिंसिपल साहब से बातें कर ही रहा था कि एक 10-11 साल का बच्चा वहां आया और उसे कहने लगा, ‘‘जमींदार साहब ने आप को बुलाया है.’’

यह सुन कर जमाल ने हैरानी से प्रिंसिपल साहब की तरफ देखा.

‘‘इस गांव के जमींदार बड़े ही मिलनसार इनसान हैं… जब मैं भी यहां नयानया आया था तब मुझे भी उन्होंने बुलाया था. कभीकभार वे खुद भी यहां आते रहते हैं… चले जाइए,’’ प्रिंसिपल साहब ने कहा तो जमाल उठ कर खड़ा हो गया.

जब जमाल जमींदार साहब के यहां पहुंचा तो वे बड़ी गर्मजोशी से मिले. सुर्ख सफेद रंगत, रोबीली आवाज के मालिक, देखने में कोई खानदानी रईस लगते थे. उन्होंने इशारा किया तो जमाल भी बैठ गया.

‘‘मुझे यह जान कर खुशी हुई कि आप उर्दू के टीचर हैं, वरना आजकल तो कहीं उर्दू का टीचर नहीं होता, तो कहीं पढ़ने वाले छात्र नहीं होते…’’

जमींदार साहब काफी देर तक उर्दू से जुड़ी बातें करते रहे, फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया, ‘‘अजी… अरे अजीजा… देखो तो कौन आया है…’’ उन्होंने अंदर की तरफ मुंह कर के आवाज दी.

एक अधेड़ उम्र की औरत बाहर आईं. वे शायद उन की बेगम थीं.

‘‘ये नए मास्टर साहब हैं जमाल. हमारे गांव के स्कूल में उर्दू पढ़ाएंगे,’’ यह सुन कर जमींदार साहब की बेगम ने खुशी का इजहार किया, फिर जमाल से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

जमाल ने कम शब्दों में अपने बारे में बताया.

‘‘अरे, कुछ चायनाश्ता लाओ…’’ जमींदार साहब ने कहा.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ जमाल बोला.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है… आप के प्रिंसिपल साहब भी कभीकभार यहां आते रहते हैं और हमारी मेहमाननवाजी का हिस्सा बनते हैं.’’

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‘‘जी, उन्होंने ऐसा बताया था,’’ जमाल ने कहा.

कुछ देर बाद वे चायनाश्ता ले कर आ गईं… जमाल ने चाय पी और उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए.’’

‘‘हां, आते रहना.’’

जमाल दरवाजे के पास था. उन लोगों ने आपस में खुसुरफुसुर की और जमींदार साहब ने उसे आवाज दी, ‘‘अरे बेटा, सुनो… आज रात का खाना तुम हमारे साथ यहीं पर खाना.’’

‘‘नहीं… नहीं… आप परेशान न हों. चची को परेशानी होगी,’’ जमाल ने जमींदार साहब की बेगम को चची कह कर मना करना चाहा.

‘‘अरे, इस में परेशान होने की क्या बात है… तुम मेरे बेटे जैसे ही हो.’’

जमाल रात के खाने पर आने का वादा कर के चला गया.

जब जमाल रात को खाने पर दोबारा वहां पहुंचा तो जमींदार साहब और उन की बेगम उस के पास बैठे हुए थे. इधरउधर की बातें कर रहे थे. इतने में अंदर जाने वाले दरवाजे पर दस्तक हुई…

चची ने दरवाजे की तरफ देखा और उठ कर चली गईं… लौटीं तो उन के हाथ में खाने की टे्र थी.

जमाल का खाना खाने में दिल नहीं लग रहा था. रहरह कर उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी… आखिर दरवाजे की उस ओर कौन था? बहरहाल, किसी तरह खाना खाया और थोड़ी देर के बाद वह वहां से चला आया.

उस दिन रविवार था. जमाल बैठा बोर हो रहा था.

‘क्यों न जमींदार साहब की तरफ चला जाया जाए,’ उस ने सोचा.

जमाल तेज कदमों से लौन पार करता हुआ अंदर जा रहा था. उस की आहट पा कर एक लड़की हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… वह क्यारियों में पानी दे रही थी. जमाल उसे गौर से देखता रहा. वह सफेद कपड़ों में थी. वह भी उसे देखती रही.

‘‘जमींदार साहब हैं क्या?’’ जमाल ने पूछा तो कोई जवाब दिए बगैर वह अंदर चली गई.

कुछ देर बाद जमींदार साहब अखबार लिए बाहर आए, ‘‘आओ बेटा, आओ…’’

जमाल उन के साथ अंदर दाखिल हो गया. उन के हाथ में संडे मैगजीन का पन्ना था. उन्होंने जमाल के सामने वह अखबार रखते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में मेरी बहू की गजल छपी है…’’

जमाल ने गजल को सरसरी नजरों से देखा, फिर नीचे नजर दौड़ाई तो लिखा था, शबीना अदीब.

जमाल को उस लड़की के सफेद लिबास का खयाल आया. उस ने जमींदार साहब की आंखों में देखा. शायद वे उस की नजरों का मतलब समझ गए थे. उन्होंने नजरें झुका लीं और फिर उन्होंने जोकुछ बताया था, वह यह था:

शबीना जमींदार साहब की छोटी बहन हसीना की बेटी थी. शबीना की पैदाइश के वक्त हसीना की मौत हो गई थी और बाप ने दूसरा निकाह कर लिया था. सौतेली मां का शबीना के साथ कैसा बरताव होगा, यह सोच कर जमींदार साहब ने उसे अपने पास रख लिया था.

अदीब जमींदार साहब का बेटा था. शबीना और अदीब ने अपना बचपन एकसाथ गुजारा था, तितलियां पकड़ी थीं और जब दोनों ने जवानी की दहलीज पार की तो उन का रिश्ता पक्का कर दिया गया था.

उन की नईनई शादी हुई थी. अदीब ने आर्मी जौइन की थी. कोई जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, लेकिन वह सब को मायूसी के अंधेरे में छोड़ कर चला गया. एक दिन वह वतन की हिफाजत करतेकरते शहीद हो गया.

शबीना पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा. आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे. फिर उस ने खुद को पत्थर बना लिया और कलम उठा ली, अपना दर्द कागज पर उतारने के लिए या अदीब का नाम जिंदा रखने के लिए.

अब जमाल अकसर जमींदार साहब के यहां जाता था. दिल में होता कि शबीना के दीदार हो जाएं… उस की एक झलक देख ले… लेकिन, वह उसे दोबारा नजर नहीं आई.

एक दिन जमाल उन के यहां बैठा हुआ था. जमींदार साहब किसी काम से शहर गए हुए थे. जमाल और उन की बेगम थे. वह बात का सिरा ढूंढ़ रहा था. आज जमाल उन से अपने दिल की बात कह देना चाहता था.

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‘‘चची, आप मुझे अपना बेटा बना लीजिए,’’ जमाल ने हिम्मत जुटाई.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है…

तू तो है ही मेरा बेटा…’’ उन्होंने हंस

कर कहा.

‘‘चची, मुझे अपने अदीब की जगह दे दीजिए. मेरा मतलब है कि शबीना का हाथ मेरे हाथ…’’ जमाल का इतना कहना था कि उन्होंने जमाल की आंखों में देखा.

‘‘अगर आप को कोई एतराज न

हो तो…’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ इस से पहले कि वे कोई जवाब देतीं, इस आवाज के

साथ शबीना खड़ी थी, किसी शेरनी की तरह बिफरी हुई… फटीफटी आंखों से देखती हुई…

‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया… अदीब की यादें मेरे साथ हैं. वे मेरे जीने का सहारा हैं… मैं यह साथ कैसे छोड़ सकती हूं… मैं शबीना अदीब थी, शबीना अदीब हूं… शबीना अदीब रहूंगी. यही मेरी पहचान है… मैं इसी पहचान के साथ ही जीना चाहती हूं…’’ अपना फैसला सुना कर वह अंदर कमरे में जा चुकी थी.

जमाल ने चची की आंखों में देखा तो उन्होंने नजरें झुका लीं. जमाल उठ कर बाहर चला आया.

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कुछ दिनों के बाद जमाल शहर जाने वाली बस के इंतजार में बसस्टैंड पर खड़ा था. इतने में एक बस वहां आ कर रुकी. उस ने अलविदा कहती नजरों से गांव की तरफ देखा और बस में सवार हो गया. उस ने नौकरी छोड़ दी थी.   द्य

आ बैल मुझे मार

लेखक- रंजीत कुमार मिश्र

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

हम ने बड़े सब्र के साथ बताया कि यह मुरदा नहीं, जिंदा है और हमारी यह पूरी कोशिश होगी कि इसे बचाया जा सके. हम ने उस से यह भी कहा कि वह जख्मी को टैक्सी में ले कर चले, जबकि हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल से पीछेपीछे आएंगे. हमारे लाख समझाने पर भी टैक्सी वाला उसे अकेले टैक्सी में ले जाने को तैयार नहीं हुआ.

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अब हम ने सिर पर कफन बांध

लिया था, सो खटारा मोटरसाइकिल

को अच्छी तरह से तालों से बंद किया और टैक्सी में बैठ गए. थोड़ी देर

में जख्मी को साथ ले कर सरकारी अस्पताल पहुंच गए.

बड़ी मुश्किल से हम वहां डाक्टर ढूंढ़ पाए, पर उस ने भी जख्मी को भरती करने से साफ इनकार कर दिया. हम से कहा गया कि यह पुलिस केस है. पुलिस को बुला कर लाओ, तब देखेंगे.

हम ने फोन मांगा, तो डाक्टर ने फोन खराब होने का बहाना बना दिया. तब हम ने थाने का रास्ता पूछा.

जब हम थाने पहुंचे तो पूरा थाना खाली पड़ा था. महज एक सिपाही

कोने में खड़ा था. हम ने उसे जल्दीजल्दी पूरा हाल बताया और साथ में चलने

को कहा.

वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘देखिए, थोड़ी देर रुक जाइए. अभी साहब लोग अंदर वाले कमरे में बिजी हैं, क्योंकि एक मुजरिम से पूछताछ हो रही है. वे आ जाएंगे, तभी कोई फैसला लेंगे.’’

हम अभी उसे आदमी की जान की कीमत समझाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अंदर वाले कमरे से 3-4 पुलिस वाले पसीना पोंछते हुए बाहर आए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे मुजरिम से अपने तरीके से पूछताछ कर के निकले हैं.

हम वरदी पर सब से ज्यादा सितारे लगाए एक पुलिस वाले के पास फुदक कर पहुंचे और अपनी बात कहने की कोशिश की. ठीक से बात शुरू होने से पहले ही उस ने एक जोर की उबासी ली और हम से कहा कि अपनी रामकहानी जा कर हवलदार को सुनाओ और रिपोर्ट भी लिखवा दो. उस के बाद देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है.

हम भाग कर हवलदार साहब के पास गए और जख्मी का इलाज कराने की अपील की.

हवलदार ने पूछा, ‘‘आप का क्या लगता है वह?’’

‘‘जी, कुछ नहीं.’’

‘‘तो मरे क्यों जा रहे हैं आप? देखते नहीं, हम कितना थक कर आ रहे हैं.

2 मिनट का हमारा आराम भी आप से बरदाश्त नहीं होता क्या?’’

‘‘देखिए हवलदार साहब, आप का यह आराम उस बेचारे की जान भी ले सकता?है. आप समझते क्यों नहीं…’’

‘‘आप क्यों नहीं समझते. मरनाजीना तो लगा रहता है. जिस को जितनी सांसें मिली हैं, उतनी ही ले पाएगा.

‘‘और आप से किस ने कहा था कि मौका ए वारदात से उसे हिलाने के लिए. बड़े समझदार बने फिरते हैं, सारा सुबूत मिटा दिया. गाड़ी का नंबर भी नोट नहीं किया. अब कैसे पता चलेगा कि उसे कौन साइड मार कर गया था. पता लग जाता तो केस बनाते.’’

हम भी तैश में आ गए, ‘‘आप को सुबूतों की पड़ी है, जबकि यहां किसी भले आदमी की जान पर बनी है. आप की ड्यूटी यह है कि पहले उसे बचाएं. सारे कानून आम आदमी की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि उसे तंग करने के लिए.’’

‘‘अच्छा, तो अब आप ही हम पर तोहमत लगा रहे हैं कि हम आप को तंग कर रहे हैं.’’

‘‘जी नहीं, हमारी ऐसी मजाल कहां कि हम आप को…’’

‘‘अच्छाअच्छा चलेंगे. जहां आप ले चलिएगा, वहां भी चलेंगे. बस, जरा यहां साहब का राउंड आने वाला है, उस को थोड़ा निबटा लें. उस के बाद चलते हैं. तब तक आप हमें कहानी सुनाइए कि क्या हुआ था और आप उसे कहां से ले कर आए हैं?’’

‘‘जी, हम उसे हाईवे पर सुलतानपुर चौक के पास से ले कर आए हैं और…’’

‘‘रुकिएरुकिए, क्या कहा आप ने? सुलतानपुर चौक. अरे, तो आप यहां हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हैं? वह इलाका तो सुलतानपुर थाने में आता है. आप को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘लेकिन, वह यहां के अस्पताल में भरती होने जा रहा है. आप एफआईआर तो लिखिए.’’

‘‘अरे साहब, आप भी न… देखिए तो, कितनी मेहनत से आज कई एफआईआर की किताबें कवर लगा कर तैयार की हैं, राउंड के लिए. आप इसे खराब क्यों करना चाहते हैं?’’ इतना कह कर हवलदार एक सिपाही की ओर मुंह कर के फिर चिल्लाया, ‘‘अबे गोपाल, आज रमुआ नहीं आया था क्या रे? देख तो ठीक से झाड़ू तक नहीं लगी दिखती है. डीसीपी साहब देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि हम लोग कितने गंदे रहते हैं.’’

हमें खीज तो बहुत आ रही थी, मगर क्या कर सकते थे? मन मार कर सब्र किए उन की अपनी वरदी के लिए वफादारी को देखते रहे. हम भी कुछ देर तक कोशिश करते रहे शांत रहने की, लेकिन उन के रवैए से हमारा खून खौलने लगा और हम भड़क उठे, ‘‘आप का यह राउंड किसी की जान से ज्यादा जरूरी है क्या?

‘‘अगर राउंड के समय डीसीपी साहब को सैल्यूट मारने वाले 2 आदमी कम हो जाएंगे तो क्या भूकंप आ जाएगा? आप भी कामचोर हैं. जनता के पैसे से तनख्वाह ले कर भी काम करने में लापरवाही करते हैं.’’

दारोगा बाबू को इस पर गुस्सा आ गया और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘अबे धनीराम, बंद कर इसे हवालात के अंदर. इतनी देर से चबरचबर किए जा रहा है. डाल दे इस पर सुबूत मिटाने का इलजाम. और अगर गाड़ी ठोंकने वाला न पकड़ा जाए, तो बाद में वह इलजाम भी इसी पर डाल देना. हमें हमारा काम सिखाता है. 2 दिन अंदर रहेगा, तो सारी हेकड़ी हवा हो जाएगी.’’

सचमुच हमारी हेकड़ी इतने में ही हवा होने लगी. कहां तो किसी की जान बचाने के लिए मैडल मिलने की उम्मीद कर रहे थे और कहां हथकड़ी पहनने की नौबत आ गई.

हम ने घिघियाते हुए कहा, ‘‘हेंहेंहें… आप भी साहब, बस यों ही नाराज हो जाते हैं. हम लोग तो सेवक हैं आप के. गुस्सा थूक दीजिए और जब मरजी आए चलिए, न मरजी आए तो न चलिए. रिपोर्ट भी मत लिखिए, मरने दीजिए उस को यों ही… हम चलते हैं, नमस्ते.’’

हम जान बचा कर भागने की फिराक में थे कि अगर अपनी जान बची, तभी तो दूसरों को बचाने की कोशिश कर सकेंगे. इतने में डीसीपी साहब थाने में दाखिल हो गए.

हुआ यह कि डीसीपी साहब ने हम से आने की वजह पूछ ली. खुन्नस तो खाए हुए थे ही, सो हम ने झटपट पूरी कहानी सुना दी.

उन्होंने पूरे थाने को जम कर लताड़ा और दारोगा बाबू को हमारे साथ जाने को कहा. सुलतानपुर थाने को भी खबर कर अस्पताल पहुंचने का निर्देश देने को कहा. अभी उन का जनता और पुलिस के संबंधों पर लैक्चर चल ही रहा था कि हम चुपके से सरक गए.

हम दारोगा बाबू और हवलदारजी के साथ अस्पताल पहुंचे, जहां वह घायल बेचारा एक कोने में बेहोश पड़ा था.

हम चलने लगे तो दारोगा ने कहा, ‘‘कहां चल दिए आप? अभी तो आप ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. उस का डंक नहीं भुगतेंगे?

‘‘अब यह मामला कानून के लंबे हाथों में पहुंच गया है, तो सरकारी हो गया. आप का काम तो अभी शुरू ही हुआ है.

‘‘आप बैठिए इधर ही, इसे होश में आने के बाद इस का बयान लिया जाएगा. तब तक आप अपना बयान लिखवा कर टाइम पास कीजिए. उस के बाद ही हम मिल कर सोचेंगे कि आप का क्या करना है.

‘‘अगर गाड़ी वाला गलती से पकड़ा गया, तो समझिए कि आप को कोर्ट में हर पेशी पर गवाही के लिए आना होगा. आज की दुनिया में भलाई करना इतना आसान थोड़े ही रह गया है.’’

‘‘मेरे बाप की तोबा हवलदार साहब, अगर मैं ने दोबारा कभी ऐसी गलती की तो… अभी तो मुझे यहां से जाने दीजिए, बालबच्चों वाला आदमी हूं. बाद में जब बुलाइएगा, तभी मैं हाजिर हो जाऊंगा,’’ कहते हुए हमारा दिमाग चकराने लगा.

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इतनी देर में ही डाक्टर साहब बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने ऐलान किया कि मरीज को होश आ गया है. कोई एक पुलिस वाला जा कर उस का बयान ले सकता है.

दारोगा बाबू हवलदार साहब को हमारे ऊपर निगाह रखने की हिदायत दे कर अंदर चले गए.

उस आदमी का अंदर बयान चल रहा था और बाहर बैठे हम सोच रहे थे कि वह अपनी जान बचाने के लिए किस तरह से हमारा शुक्रगुजार होगा. कहीं लखपति या करोड़पति हुआ, तो अपने वारेन्यारे हो जाएंगे.

20-25 मिनट बाद दारोगा बाबू वापस आए और हमें घूरते हुए हवलदार से बोले, ‘‘धनीराम, हथकड़ी डाल इसे और घसीटते हुए थाने ले चल. वहां इस के हलक में डंडा डाल कर उगलवाएंगे कि इस जख्मी के 50,000 रुपए इस ने कहां छिपा रखे हैं.

‘‘उस ने बयान दिया है कि किसी ने उसे पीछे से गाड़ी ठोंक दी थी और उस के पैसे भी गायब हैं.

‘‘मैं ने इस का हुलिया बताया, तो उस ने कहा कि ऐसा ही कोई आदमी टक्कर के बाद सड़क पर उसे टटोल रहा था. खुद को बहुत चालाक समझता है.

‘‘यह सोचता है कि इसे बचाने

की इतनी ऐक्टिंग करने से हम पुलिस वाले इस पर शक नहीं करेंगे. बेवकूफ समझता है यह हम को. ले चल इसे, करते हैं खातिरदारी इस की.’’

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देखते ही देखते हमारे हाथों में हथकड़ी पड़ गई और हम अपने सदाचार का मातम मनाते हुए पुलिस वालों के पीछे चल पड़े.

अधूरा समर्पण

लेखक- कुमार गौरव अजीतेंदु

सुष्मिता के मांबाप के चेहरे पर संतोष था कि उन की बेटी का रिश्ता एक अच्छे घर में होने जा रहा है. सुष्मिता और सागर ने एकदूसरे की आंखों में देखा और मुसकराए. इस के बाद वे सुंदर सपनों के दरिया में डूबते चले गए.

सुष्मिता अपने महल्ले के सरकारी इंटर स्कूल में गैस्ट टीचर थी और उस के पिता सिविल इंजीनियर. उन्होंने अपने एक परिचित ठेकेदार के बेटे सागर

से, जो एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पद पर था, सुष्मिता का रिश्ता तय कर दिया.

सुष्मिता और सागर जब मिले तो उन्हें आपसी विचारों में बहुत मेल लगा, सो उन्होंने भी खुशीखुशी रिश्ते के लिए हामी भर दी.

सगाई के साथ ही उन दोनों के रिश्ते को एक सामाजिक बंधन मिल चुका था. कंपनी के काम से सागर को सालभर के लिए विदेश जाना था, इसलिए शादी की तारीख अगले साल तय होनी थी.

सुष्मिता से काम खत्म होते ही लौटने की बात कह कर सागर परदेश को उड़ चला. सुष्मिता ने सागर का रुमाल यह कहते हुए अपने पास रख लिया कि इस में तुम्हारी खुशबू बसी है.

एक शाम सुष्मिता अपनी छत पर टहल रही थी और हमेशा की तरह सागर वीडियो काल पर उस से बातें कर रहा था. जब बातों का सिलसिला ज्यादा हो गया तो सुष्मिता ने सागर को अगले दिन बात करने के लिए कहा. इस के थोड़ी देर बाद सुष्मिता ने काल काट दी.

इस के बाद जब सुष्मिता नीचे जाने के लिए पलटी तो अचानक उस की आंखें अपने पड़ोसी लड़के निशांत से मिल गईं जो अपनी छत पर खड़ा उन दोनों को बातें करता हुआ न जाने कब से देख रहा था.

सुष्मिता निशांत को पड़ोस के रिश्ते से राखी बांध चुकी थी, इसलिए वह थोड़ा सकुचा गई और बोली, ‘‘अरे निशांत भैया, आप कब आए? मैं ने तो ध्यान ही नहीं दिया.’’

‘‘जब से तुम यहां आई हो, मैं भी तब से छत पर ही हूं,’’ निशांत ने अपनी परतदार हंसी के साथ कहा.

सुष्मिता ने आंखें नीची कर लीं और सीढि़यों की ओर चल पड़ी. वह निशांत की नजर को अकसर भांपती थी कि उस में उस के लिए कुछ और ही भाव आते हैं.

एक और शाम जब सुष्मिता अकेली ही छत पर टहल रही थी कि तभी निशांत भी अपनी छत पर आया.

‘‘निशांत भैया, कैसे हैं आप? कम दिखते हैं…’’ निशांत उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर थोड़ा चौंका लेकिन फिर उस के मन में भी लड्डू फूटने लगे.

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निशांत तो खुद सुष्मिता से बात

करने को बेचैन रहता था. सो, वह छत की बाउंड्री के पास सुष्मिता के करीब आ गया और बोला, ‘‘मैं तो रोज इस समय यहां आता हूं… तुम ही बिजी

रहती हो.’’

‘‘वह तो है…’’ सुष्मिता मस्ती भरी आवाज में बोली, ‘‘क्या करूं भैया, अब जब से पढ़ाने जाने लगी हूं, समय और भी कम मिलता है.’’

इस के बाद उन दोनों के बीच इधरउधर की बातें होने लगीं.

कुछ दिनों बाद एक रोज सुष्मिता घर में अकेली थी. सारे लोग किसी रिश्तेदार के यहां गए हुए थे. सुष्मिता की चचेरी बहन सुनीति उस के साथ सोने के

लिए आने वाली थी. शाम के गहराते साए सुष्मिता को डरा रहे थे. उस ने कई बार सुनीति को मैसेज कर दिया था कि जल्दी आना.

खाना बनाने की तैयारी कर रही सुष्मिता को छत पर सूख रहे कपड़ों का खयाल आया तो वह भाग कर ऊपर आई. कपड़ों को समेटने के बाद उसे अपनी एक समीज गायब मिली. उस

ने आसपास देखा तो पाया कि वह समीज निशांत की छत पर कोने में पड़ी थी.

सुष्मिता पहले तो हिचकी लेकिन फिर आसपास देख कर निशांत की छत पर कूद गई. वह निशांत के आने से पहले वहां से भाग जाना चाहती थी मगर जैसे ही वह अपनी समीज उठा कर मुड़ी, निशांत उसे मुसकराता खड़ा मिला. सुष्मिता ने एक असहज मुसकराहट उस की ओर फेंकी.

निशांत बोला, ‘‘उड़ कर आ गई होगी यहां यह…’’

‘‘हां भैया, हवा तेज थी आज…’’ सुष्मिता वहां से निकलने के मूड में थी लेकिन निशांत उस के आगे दीवार से लग कर खड़ा हो गया और बतियाने लगा. तब तक शाम पूरी तरह चारों ओर छा चुकी थी.

सुष्मिता ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, मच्छर काट रहे मुझे भी यहां…’’ निशांत ने अपने पैरों पर थपकी देते हुए कहा, ‘‘अच्छा जरा 2 मिनट नीचे आओ न… मैं ने एक नया सौफ्टवेयर डाउनलोड किया है… बहुत मजेदार चीजें हैं उस में… तुम को भी दिखाता हूं.’’

न चाहते हुए भी सुष्मिता निशांत के साथ सीढि़यों से उतर आई. उस के मन में एक अजीब सा डर समाया हुआ था.

निशांत ने लैपटौप औन किया और उसे दिखाने लगा. सुष्मिता का ध्यान जल्दी से वहां से निकलने पर था. तभी उस ने गौर किया कि निशांत के घर में बहुत शांति है.

‘‘सब लोग कहां गए हैं?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा.

निशांत ने जवाब दिया, ‘‘यहां भी सारे लोग शहर से गए हुए हैं… कल तक आएंगे.’’

सुष्मिता का दिल धक से रह गया. उस ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं निकलती हूं… मुझे खाना भी बनाना है.’’

सुष्मिता का इतना कहना था कि निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं भैया?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा. उसे निशांत से किसी ऐसी हरकत का डर तो बरसों से थी लेकिन आज उसे करते देख कर

वह अपनी आंखों पर भरोसा नहीं कर पा रही थी.

निशांत ने सुष्मिता की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींचा और उस के हाथों में थमी समीज उस से ले कर टेबल पर रखते हुए बोला, ‘‘सागर की तसवीरों में रोज नईनई लड़की होती… तो तुम उस को एकदम पैकेट वाला खाना खिलाने के चक्कर में क्यों हो? तुम भी थोड़ी जूठी हो जाओ. किसी को पता नहीं चलेगा.’’

सुष्मिता का दिल जोर से धड़कने लगा. निशांत ने उस के मन में दबे उसी शक के बिंदु को छू दिया था जिस के बारे में वह दिनरात सोचसोच कर चिंतित होती थी.

क्या सही है और क्या गलत, यह सोचतेसोचते बहुत देर हो गई. तूफान कमरे में आ चुका था. बिस्तर पर देह

की जरूरत और मन की घबराहटों के नीचे दबी सुष्मिता एकटक दरवाजे के पास पड़े अपने और निशांत के कपड़ों

को देखती रही. निशांत की गरम, तेज सांसें सुष्मिता की बेचैन सांसों में मिलती

चली गईं.

सबकुछ शांत होने के बाद सुष्मिता ने अपनी आंखों के कोरों के गीलेपन को पोंछा और अपने कपड़ों और खुद को समेट कर वहां से चल पड़ी. निशांत ने भी उस से नजरें मिलाने की कोशिश

नहीं की.

कलैंडर के पन्ने आगे पलटते रहे. सुष्मिता और निशांत के बीच भाईबहन का रिश्ता अब केवल सामाजिक मुखौटा मात्र ही रह गया था. ऊपर अपने कमरे में अकेला सोने वाला निशांत आराम से सुष्मिता को रात में बुला लेता और वह भी खुशीखुशी अपनी छत फांद कर उस के पास चली जाती.

आएदिन सुष्मिता के अंदर जाने वाला इच्छाओं का रस आखिरकार एक रोज अपनी भीतरी कारगुजारियों का संकेत देने के लिए उस के मुंह से उलटी के रूप में बाहर आ कर सब को संदेशा भेज बैठा.

सुष्मिता के मांबाप सन्न रह गए. घर में जोरदार हंगामा हुआ. इस के बाद सुष्मिता की हाइमनोप्लास्टी करा कर सागर के आते ही उसे ब्याह कर विदा कर दिया गया.

सुहागरात में चादर पर सुष्मिता से छिटके लाल छींटों ने सागर को भी पूरी तरह आश्वस्त कर दिया. दोनों की जिंदगी शुरू हो गई. सुष्मिता का भी मन सागर के साथ संतुष्ट था क्योंकि निशांत के पास तो वह खुद को शारीरिक सुख देने और सागर से अनचाहा बदला लेने के लिए जाती थी.

धीरेधीरे 2 साल बीत गए लेकिन सुष्मिता और सागर के घर नया सदस्य नहीं आया. उन्होंने डाक्टर से जांच कराई. सागर में किसी तरह की कोई कमी नहीं निकली. इस के बाद बारी सुष्मिता की रिपोर्ट की थी.

डाक्टर ने दोनों को अपने केबिन में बुलाया और उलाहना सा देते हुए कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता मिस्टर सागर कि जब आप लोगों को बच्चा चाहिए

था तो आखिर आप ने अपना पहला बच्चा गिराया क्यों? बच्चा गिराना कोई खेल नहीं है.

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‘‘अगर ऐसा कराने वाला डाक्टर अनुभवी नहीं हो तो आगे चल कर पेट से होने में दिक्कत आती ही है. आप की पत्नी के साथ भी यही हुआ है.’’

सागर हैरान रह गया और सुष्मिता को तो ऐसा लगा मानो उसे किसी ने अंदर से खाली कर दिया हो. सागर ने टूटी सी नजर उस पर डाली और डाक्टर की बातें सुनता रहा.

वहां से लौट कर आने के बाद सागर चुपचाप पलंग पर बैठ गया. अब तक की जिंदगी में सागर से बेहिसाब प्यार पा कर उस के प्रति श्रद्धा से लबालब हो चुकी सुष्मिता ने उस के पैर पकड़ लिए और रोरो कर सारी बात बताई. सागर के चेहरे पर हारी सी मुसकान खेल उठी. वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया.

उन दोनों को वहीं बैठेबैठे रात हो गई. सुष्मिता जानती थी कि इस सब

की जड़ वही है इसलिए पहल भी उसे ही करनी होगी. थोड़ी देर बाद वह सागर

के पास गई. वह दीवार की ओर मुंह किए बैठा था. अपने आंसुओं को किसी तरह रोक कर सुष्मिता ने उस के कंधे पर हाथ रखा.

सागर ने उस की ओर देखा और भरी आंखें लिए बोल उठा, ‘‘तुम भरोसा करो या न करो लेकिन तुम्हारे लिए मैं ने काजल की कोठरी में भी खुद को बेदाग रखा और तुम केवल शक के बहकावे

में आ कर खुद को कीचड़ में धकेल बैठी.’’

सुष्मिता फूटफूट कर रोए जा रही थी. सागर कहता रहा, ‘‘यह मत समझना कि मैं तुम्हारी देह को अनछुआ न पा कर तुम्हें ताना मार रहा हूं, बल्कि सच तो यह है कि पतिपत्नी का संबंध तन के साथसाथ मन का भी होता है और तन को मन से अलग रखना हर किसी के बस में नहीं होता.

‘‘तुम्हारा मन अगर तन से खुद को बचा पाया है तो मेरा दिल आज भी तुम्हारे लिए दरवाजे खोल कर बैठा है, वरना मुझे तुम्हारा अधूरा समर्पण नहीं चाहिए. फैसला तुम्हारे हाथ में है सुष्मिता. अगर तुम्हें मुझ से कभी भी प्यार मिला हो तो तुम को उसी प्यार का वास्ता, अब दोबारा मुझे किसी भुलावे में मत रखना.’’

सुष्मिता ने सागर के सिर पर हाथ फेरा और वापस अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों के सामने सागर के साथ बिताई रातें घूमने लगीं जब वह निशांत को महसूस करते हुए सागर को अपने सीने से लगाती थी. उस के मन ने उसे धिक्कारना शुरू कर दिया.

विचारों के ज्वारभाटा में वह सारी रात ऊपरनीचे होती रही. भोर खिलने लगी थी, इसलिए उस ने अपने आंसू पोंछे और फैसला कर लिया.

सुष्मिता ने अपना सामान बांधा और सागर के पास पहुंची. सागर ने सवालिया निगाहों से उस की ओर देखा.

सुष्मिता ने सागर का माथा चूमा और सागर की जेब से उस का वही रुमाल निकाल लिया जो उस ने शादी से पहले उस के परदेश जाते समय निशानी के रूप में अपने पास रखा था.

सुष्मिता ने वह रूमाल अपने बैग में डाला और बोली, ‘‘मुझे माफ मत करना सागर… मैं तुम्हारी गुनाहगार हूं… मैं तुम्हारे लायक नहीं थी… मैं जा रही हूं… अपनी नई जिंदगी शुरू करो… और हां, इतना भरोसा दिलाती हूं कि अब तुम्हारे इस रुमाल को अपनी बची जिंदगी में दोबारा बदनाम नहीं होने दूंगी.’’

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सागर ने अपनी पलकें तो बंद कर लीं लेकिन उन से आंसू नहीं रुक पाए. सुष्मिता भी अपनी आंखों के बहाव को रोकते हुए तेजी से मुड़ी और दरवाजे की ओर चल पड़ी.                          द्य

चक्कर लड़की का

लेखक- विनोद कुमार

हमारी इस दोस्त मंडली का काम था रोज भांग खाना, सिगरेट और शराब पीना, फिल्में देखना, राह आतीजाती लड़कियों पर फिकरे कसना और उन से छेड़खानी करना.

वैसे मैं शरीफ और पढ़ाईलिखाई से ताल्लुक रखने वाला लड़का था, पर न जाने कैसे इस बुरी संगत में पड़ गया. वैसे अब कुछ याद भी नहीं है.

हम लोग रोज नजदीक के राजेंद्र पार्क में जमा हो कर खूब गप लड़ाते. इधरउधर की डींगें हांकी जातीं.

एक दिन रोजाना की तरह हमारी बैठक चल रही थी. उसी दौरान राकेश बोला, ‘‘यार, आज में ने बहुत खूबसूरत लड़की को फांसा है. वह 16 साल की है. एकदम गोरीचिट्टी, पतली कमर वाली लाजवाब लड़की है. मैं ने उसे क्या फांसा, समझो ऐश्वर्या राय को फांस लिया.’’

‘अच्छा,’ हम तीनों दोस्त चौंक कर उस की बात ऐसे सुनने लगे, जैसे उस ने कोई पते की बात कही हो.

तभी सुनील ने राकेश को चिकोटी काटते हुए कहा, ‘‘और कुछ सुनाओ यार, अपनी चिडि़या के बारे में.’’

इस तरह हमारा दिन कट गया. दूसरे दिन हमारी बैठक हुई तो राकेश फिर अपनी नईनवेली प्रेमिका की तारीफ के पुल बांधने लगा. उस की बातों में हम सब को बड़ा मजा आ रहा था लेकिन जैसे ही राकेश की बात खत्म हुई, सुनील ने एक धमाका किया, ‘‘यारो, हमारी भी सुनो. मेरे पड़ोस की एक लड़की है माया. बड़ी दिलकश है वह. उस के होंठ प्रियंका चोपड़ा की तरह हैं, आंखें ऐश्वर्या राय की तरह और गाल काजोल की तरह.

‘‘आज सवेरेसवेरे उस ने मुझ से करीब एक घंटे बात की. बस, इतनी ही देर में वह मुझ पर मरमिटी है.’’

तभी बड़ी देर से चुप मोहन ने दूसरा धमाका किया, ‘‘तुम लोगों को लड़की फांसने का कोई तजरबा नहीं है. अरे, लड़की फांसने का हुनर तो कोई मुझ से सीखे. आज मैं ने 2-2 लड़कियां फंसाईं. एक सिनेमाहाल के पीछे वाली गली में रहती है और दूसरी शिव मंदिर के पास की कोठी में. दोनों एक से बढ़ कर एक खूबसूरत हैं.’’

मेरे तीनों दोस्त काफी देर से बढ़चढ़ कर अपनीअपनी प्रेमिकाओं का बखान कर रहे थे, पर मैं चुप था. अपनी इस दोस्त मंडली में मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती थी क्योंकि मेरी कोई प्रेमिका नहीं थी.

दरअसल बात यह थी कि अगर मेरे दोस्त किसी लड़की पर फिकरे कसते या उस से छेड़खानी करते, तो मैं उन लोगों का साथ दे देता था, पर अकेले में किसी लड़की के साथ ऐसा करना तो दूर, उसे देखने की भी हिम्मत मुझ में नहीं थी.

लिहाजा, मैं ने फैसला कर लिया था कि जब तक किसी लड़की को फंसा कर उसे अपनी प्रेमिका न बना लूंगा, तब तक दोस्तों को अपना मुंह न दिखाऊंगा.

अगले दिन मैं किसी लड़की की तलाश में निकल पड़ा. मैं ने सोचा

कि अच्छे घर की लड़की तो मुझ से फंसने से रही, इसलिए किसी चालू और दिलफेंक किस्म की लड़की की खोज करनी चाहिए.

मैं सारा दिन लड़की की तलाश में भटकता रहा. 2-4 लड़कियां मिली थीं, लेकिन मैं जैसे ही किसी लड़की को देखने की कोशिश करता, तो वह मुझे घूरने लगती. लिहाजा, मैं सकपका जाता और दाल गलती न देख आगे बढ़ जाता.

धीरेधीरे शाम हो गई. तभी एक लड़की देख कर मेरी बांछें खिल गईं. वह चुस्त जींसटौप पहने हुए थी. वह अकेली कहीं जा रही थी. मैं ने सोचा कि जरूर वह दिलफेंक किस्म की होगी. लिहाजा, मैं ने उसे फंसाने की कोशिश शुरू कर दी.

मैं थोड़ा तेज कदम चल कर उस की बराबरी में आ गया और मौका देख कर हौले से उस से टकरा गया. पर वह गुर्रा कर बोली, ‘‘ऐ मिस्टर, तमीज से चलो, वरना मेरी जूती देखते हो न. 5 जूती लगते ही अक्ल ठिकाने आ जाएगी.’’

यह सुनना था कि मैं सिर पर पैर रख कर भागा और सीधा घर आ कर ही रुका. आज मैं अपने दोस्तों के पास नहीं गया. मैं ने सोचा कि अगले दिन जब कोई लड़की पट जाएगी, तभी जाऊंगा.

अगले दिन मैं ने नए सिरे से कोशिश शुरू की. तय किया कि जो लड़की सब से पहले नजर आएगी, उसे तब तक लगातार देखते रहना है, जब तक कि वह दिखती रहे, चाहे इस पर वह खफा हो या खुश. अगर दूसरी तरफ से रजामंदी का संकेत मिलेगा, तो प्यार की पेंगें बढ़ाऊंगा.

मैं कुछ ही दूर गया था कि एक दोमंजिला मकान की बालकनी में एक खूबसूरत सी लड़की को बालों में कंघी करते देखा. मैं वहीं रुक कर उसे लगातार देखने लगा. मेरी इस अदा पर वह भी मुसकराई.

मैं अपनी हथेलियों से चुंबन उछालने लगा. अभी 2-4 चुंबन ही उछाले थे कि लगा जैसे किसी ने मेरी गरदन जकड़ ली हो. मेरी चीख निकल गई. तभी उस ने मुझे जोरदार लात लगाई. मैं औंधे मुंह गिर पड़ा.

मैं कराहते हुए पलटा, तो भयानक मूंछों वाला एक गंजा गुर्रा कर कहने लगा, ‘‘आवारा कहीं का… मेरी बेटी

पर लाइन मारता है. मैं तेरी खाल

खींच लूंगा.’’

मैं किसी तरह लंगड़ाते हुए वहां से भागा. भागतेभागते मैं साइकिल की एक दुकान के पास पहुंचा. वहां एक लड़की अपनी साइकिल में हवा भरा रही थी. वह लड़की ‘छम्मक छल्लो’ की तरह हसीन मालूम पड़ रही थी.

मैं उस के पास पहुंचा और मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘हाय मेरी जान, तुम्हारी काली घटा सी जुल्फों में तो गुलाब सी खुशबू है. होंठ इतने रसीले हैं जैसे रसभरी और आंखें इतनी नशीली हैं कि मेरे होश उड़ा दें.’’

इतना कहते ही मेरे सिर पर सैंडलों की बरसात होने लगी. मैं ने गिने, कुल 13 सैंडल मेरे सिर पड़े. आगे की गिनती भूल गया. जब होश आया तो पाया कि साइकिल मिस्त्री अपनी बैंच पर लिटा कर मुझे होश में लाने के लिए मेरे मुंह पर पानी छिड़क रहा था.

मैं सिर सहलाते और कराहते हुए उठा. रहरह कर मुझे चक्कर आ रहे थे. अब मुझ में हिम्मत नहीं थी कि किसी और लड़की को फंसाने की भूल करूं. मैं गिरतेपड़ते घर की ओर चल पड़ा.

मैं यह सोच कर परेशान था कि आखिर अपनी दोस्त मंडली को कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा… आखिर मैं ने हार न मानने की ठानी. बहादुर जंग के मैदान में कभी पीठ नहीं दिखाते, पीठ दिखाना तो कायरों का काम है.

अगले दिन मैं भूलेभटके से चाय की एक दुकान पर चला गया. वहां 15-16 साल की एक लड़की चाय पिला रही थी. उसे देख कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. मैं ने सोचा कि अगर उस

से प्यार का नाटक करूं, तो शायद कामयाबी मिले. सो मैं ने चाय पीते हुए उस की चाय की खूब तारीफ की और

8 रुपए की जगह 10 रुपए दिए. मेरी यह दरियादिली देख कर वह तो जैसे लाजवाब हो गई.

अगले दिन भी मैं ने यही किया और किसी को न देख अपने प्यार का इजहार कर दिया. वह बिलकुल निहाल हो गई. हालांकि वह मैलाकुचैला सलवारकुरता पहने थी. शक्लसूरत भी कोई खास

नहीं थी.

मैं ने अपने दोस्तों को दिखाने के लिए उस से उस का एक फोटो मांगा,

तो वह बोली, ‘‘फोटो की बात तो दूर,

मैं ने आज तक कोई स्टूडियो भी नहीं देखा है.’’

मैं परेशान हो गया, फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘मेरे साथ फोटो खिंचवाने चलोगी?’’

वह हैरान रह गई, फिर बोली, ‘‘मैं कल तैयार रहूंगी. तुम इसी समय यहीं पर आ जाना.’’

मैं अगले दिन उस चाय वाली के पास पहुंचा, तो वह तैयार थी. उस के साधारण से सलवारकुरते पर सिलवटें देख मैं परेशान हो गया. उस के बाल नारियल तेल से तरबतर थे. उस के पैरों में 2 रंग की चप्पलें थीं. अपनी ऐसी प्रेमिका पर मुझे रोना आ गया.

बाजार में उस के साथ देख कर लोग मुझे क्या समझेंगे. खैर, दोस्तों के बीच अपनी साख बचाने के लिए मुझे सबकुछ मंजूर था.

लोगों की नजर से खुद को बचातेबचाते मैं स्टूडियो गया और आननफानन में लौट आया.

अगले दिन मैं उस के पास गया, तो वह चाय वाली बोली, ‘‘तुम फौरन यहां से भाग जाओ. मेरे भाई पंजाब मजदूरी करने गए थे, कल वे लौट आए हैं. उन्हें हमारे प्यार की भनक मिल गई है. वे लोग तुम्हें आज देखते ही मारेंगे. शायद वे यहींकहीं छिपे हैं.’’

यह सुन कर मेरे हाथपैर ठंडे हो गए. मैं ने फौरन भागना चाहा, पर तभी 2-4 मजदूर किस्म के नौजवान वहां आए और मुझे घेर कर भद्दीभद्दी गालियां देते हुए कहने लगे, ‘हमारी बहन को बहकाता है. आज हम तेरी जवानी का नशा भुला देंगे.’

फिर वे मुझ पर टूट पड़े और मेरी खूब धुनाई की. मैं ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाता रहा, फिर कब बेहोश हो गया, पता नहीं चला. होश आया तो खुद को नाली में पाया.

मेरे बदन के हर हिस्से में दर्द हो रहा था. मैं किसी तरह उठा और पास के सरकारी हैंडपंप पर अपने बदन पर लगे कीचड़ को धोया, फिर घर लौट गया. इस के बाद तकरीबन एक महीने तक मैं बीमार रहा.

इस घटना के बाद मैं ने अपने दोस्तों का साथ छोड़ दिया और कान पकड़े कि कभी किसी लड़की को फंसाने की भूल नहीं करूंगा.                         द्य

बदला नजरिया

कोठी तक पहुंचने में उसे करीब 15 मिनट लगे. अंदर घुसते ही उस की सास सुमित्रा ने उसे आवाज दे कर अपने कमरे में बुला लिया.

‘‘शिवानी, तुम कहां चली गई थीं?’’ सुमित्रा नाराज और परेशान नजर आईं.

‘‘मम्मीजी, केमिस्ट से बैंडएड लाने गई थी,’’ शिवानी डरीसहमी बोली, ‘‘सेब काटते हुए चाकू से उंगली कट गई थी.’’

‘‘देखो, सेब काट कर देने का काम कमला का है. हमारी सेवा करने की वह पगार लेती है. उस का काम खुद करने की आदत तुम्हें छोड़नी चाहिए.’’

‘‘जी,’’ सास की कही बातों के समर्थन में शिवानी के मुंह से इतना ही निकला.

‘‘बैंडएड लाने इतनी दूर तुम पैदल क्यों गईं? क्या ड्राइवर रामसिंह ने कार से चलने की बात तुम से नहीं कही थी?’’

‘‘कही थी, पर दवा की दुकान है ही कितनी दूर, मैं ने सोचा कार से जाने की अपेक्षा पैदल जा कर जल्दी लौट आऊंगी,’’ शिवानी ने सफाई दी.

‘‘इस घर की बहू हो तुम, शिवानी.  किसी काम से बाहर निकलो तो कार से जाओ. वैसे खुद काम करने की आदत अब छोड़ दो.

‘‘जी,’’ शिवानी और कुछ न बोल सकी.

‘‘मैं समझती हूं कि तुम्हें मेरी इन बातों में खास वजन नजर नहीं आता क्योंकि तुम्हारे मायके में कोई इस तरह से व्यवहार नहीं करता. लेकिन अब तुम मेरे कहे अनुसार चलना सीखो. हर काम हमारे ऊंचे स्तर के अनुसार करने की आदत डालो, और सुनो, नेहा के साथ डा. गुप्ता के क्लीनिक पर जा कर अपनी उंगली दिखा लेना.’’

‘‘मम्मीजी, जख्म ज्यादा गहरा… ठीक है, मैं चली जाऊंगी,’’ अपनी सास की पैनी नजरों से घबरा कर शिवानी ने उन की हां में हां मिलाना ही ठीक समझा.

‘‘जाओ, नाश्ता कर लो और सारा काम कमला से ही कराना.’’

अपनी सास के कमरे से बाहर आ कर शिवानी कमला को सिर्फ चाय लाने का आदेश दे कर अपने शयनकक्ष में चली आई.

समीर की अनुपस्थिति उसे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही थी. वह  सामने होता तो रोझगड़ कर अपने मन की बेचैनी जरूर कम कर लेती.

इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में वह अतीत की यादों में खो गई.

समीर के साथ उस का प्रेम विवाह करीब 3 महीने पहले हुआ था. एक साधारण से घर में पलीबढ़ी शिवानी एक बेहद अमीर परिवार की बहू बन कर आ गई.

समीर और शिवानी एम.बी.ए. की पढ़ाई के दौरान मिले थे. दोनों की दोस्ती कब प्रेम में बदल गई उन्हें पता भी न चला पर कालिज के वे दिन बेहद रोमांटिक और मौजमस्ती से भरे थे. शिवानी को समीर की अमीरी का एहसास था पर अमीर घर की बहू बन कर उसे इस तरह घुटन व अपमान का सामना करना पड़ेगा, इस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

शिवानी चाह कर भी ऐसे मौकों पर अपने मन की प्रतिक्रियाओं को नियंत्रण में न रख पाती. वह अजीब सी कुंठा का शिकार होती और बेवजह खुद की नजरों में अपने को गिरा समझती. ऐसा था नहीं पर उसे लगता कि सासससुर व ननद, तीनों ही मन ही मन उस का मजाक उड़ाते हैं. सच तो यह है कि उसे बहू के रूप में अपना कर भी उन्होंने नहीं अपनाया है.

हर 2-4 दिन बाद कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हो जाती है जो शिवानी के मन का सुखचैन खंडित कर देती.

वह दहेज में जो साडि़यां लाई थी उन की खरीदारी उस ने बडे़ चाव से की थी. उस के मातापिता ने उन पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया था. पर यहां आ कर सिर्फ 2 साडि़यां पहनने की इजाजत उसे अपनी सास से मिली. बाकी सब को उन्होंने रिजेक्ट कर दिया.

‘बहू, साडि़यों में कोई बुराई नहीं है, पर इन की कम कीमत का अंदाजा मेरी परिचित हर औरत आसानी से लगा लेगी. तब मैं उन की मखौल उड़ाती नजरों व तानों का सामना नहीं कर सकूंगी. प्लीज, तुम इन्हें मत पहनना… या कभी मायके जाओ तो वहां जी भर कर पहन लेना.’

अपनी सास की सलाह सुन कर शिवानी मन ही मन बहुत दुखी हुई थी.

बाद में शिवानी ने गुस्से से भर कर समीर से पूछा था, ‘दूसरों की नजरों में ऊंचा बने रहने को क्या हमें अपनी खुशी व शौक दांव पर लगाने चाहिए?’

‘डार्लिंग, क्यों बेकार की टेंशन ले रही हो,’ समीर ने बड़े सहज भाव से उसे समझाया, ‘मां तुम्हें एक से एक बढि़या साडि़यां दिला रही हैं न? उन की खुशी की खातिर तुम ऐसी छोटीमोटी बातों को दिल से लगाना छोड़ दो.’

शादी के बाद समीर के प्रेम में जरा भी अंतर नहीं आया था. इसी बात का उसे सब से बड़ा सहारा था, वरना वह अपनी ससुराल वालों की अमीरी की दिखावट के कारण अपना बहुत ज्यादा खून फूंकती.

उस के ससुर रामनाथजी ने भी उस की इच्छाओं व भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया.

शिवानी समीर के बराबर की योग्यता रखती थी. दोनों ने एम.बी.ए. साथसाथ किया था. पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनने की इच्छा सदा ही उस के मन में रही थी.

समीर ने अपने खानदानी व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरू किया. शिवानी भी वैसा ही करना चाहती थी और समीर को इस पर कोई एतराज न था. पर उस के ससुर रामनाथजी ने उस की बिजनेस में सहयोग देने की इच्छा जान कर अपना एकतरफा निर्णय पल भर में सुना दिया.

‘अपनी भाभी या बड़ी बहन की तरह से काम पर जाने की उसे न तो जरूरत है और न ही ऐसा करने की इजाजत मैं उसे दूंगा. अब वह मेरे घर की बहू है और उसे सिर्फ ठाटबाट व रुतबे के साथ जीने की कला सीखने पर अपना ध्यान लगाना चाहिए.’

एक बार फिर समीर उसे प्यार से समझाबुझा कर निराशा व उदासी के कोहरे से बाहर निकाल लाया था. अपने पति की गैरमौजूदगी में ससुराल की आलीशान कोठी में शिवानी लगभग हर समय घुटन व बेचैनी अनुभव करती. यद्यपि कभी किसी ने उस के साथ बदसलूकी या उस का अनादर नहीं किया था, फिर भी शिवानी को हमेशा लगता कि वह शादी कर के सोने के पिंजरे में कैद हो गई है.

कमला ने चाय की टे्र ले कर कमरे में प्रवेश किया तो शिवानी अतीत की यादों से उबर आई. उस के आदेश पर कमला चाय की टे्र मेज पर रख कर बाहर चली गई.

खराब मूड के चलते शिवानी ने कमरे में रखे स्टील के गिलास में चाय बनाई क्योंकि ठंडे मौसम में स्टील के गिलास में चाय पीने का उस का शौक वर्षों पुराना था.

पहली दफा उस की सास ने उसे स्टील के गिलास में चाय पीते देख कर फौरन टोका था, ‘‘बहू, वैसे तो चाय गिलास में भी पी जा सकती है… अपने मायके में तुम ऐसा करती ही रही हो, पर यहां की बात और है. अच्छा रहेगा कि कमला चाय की टे्र सजा कर लाए और तुम हमेशा कपप्लेट में ही चाय पीने की आदत बना लो.’’

आज बैंडएड वाली घटना के कारण शिवानी के मन में विद्रोह के भाव थे. तभी उस ने चाय गिलास में तैयार की और ऐसा करते हुए उसे अजीब सी शांति महसूस हो रही थी.

समीर फैक्टरी के काम से 3 दिन के लिए मुंबई गया था. उस की गैरमौजूदगी में शिवानी की व्यस्तता बहुत कम हो गई. चाय पीने के बाद उस ने कुछ देर आराम किया. फिर उठने के बाद वह अपने भैया के घर जन्मदिन पार्टी में शामिल होने गाजियाबाद जाने की तैयारी में लग गई.

सुमित्रा को जब पता चला कि बहू गाजियाबाद जाने की तैयारी कर रही है तो यह सोच कर वह भी पति रामनाथ सहित बहू के साथ हो लीं कि रास्ते में अपनी बहन सीमा से मिल लेंगी. मम्मी, पापा और भाभी को जाता देख कर नेहा भी उन के साथ हो ली.

सुमित्रा की बड़ी बहन सीमा की कोठी ऐसे इलाके में थी जहां का विकास अभी अच्छी तरह से नहीं हुआ था. रास्ता काफी खराब था. सड़क पर प्रकाश की उचित व्यवस्था भी नहीं थी. ड्राइवर रामसिंह को कार चलाने में काफी कठिनाई हो रही थी.

सुमित्रा जब अपनी बहन के घर पहुंचीं तो पता चला कि उन का लगभग पूरा परिवार एक विवाह समारोह में भाग लेने मेरठ गया हुआ था. घर में सीमा की छोटी बेटी अंकिता और नौकर मोहन मौजूद थे.

अंकिता ने जिद कर के उन्हें चाय पीने को रोक लिया. उन्हें वहां पहुंचे अभी 10 मिनट भी नहीं बीते थे कि अचानक हवा बहुत तेजी से चलने लगी और बिजली चली गई.

‘‘मैं मोमबत्तियां लाती हूं,’’ कहते हुए अंकिता रसोई की तरफ चली गई.

‘‘लगता है बहुत जोर से बारिश आएगी,’’ रामनाथजी की आवाज चिंता से भर उठी.

मौसम का जायजा लेने के इरादे से रामनाथजी उठ कर बाहर बरामदे की दिशा में चले. कमरे में घुप अंधेरा था, सो वह टटोलतेटटोलते आगे बढे़.

तभी एक चुहिया उन के पैर के ऊपर से गुजरी. वह घबरा कर उछल पड़े. उन का पैर मेज के पाए से उलझा और अंधेरे कमरे में कई तरह की आवाजें एक साथ उभरीं. मेज पर रखा शीशे का गुलदान छनाक की आवाज के साथ फर्श पर गिर कर टूट गया. रामनाथजी का सिर सोफे के हत्थे से टकराया. चोट लगने की आवाज के  साथ उन की पीड़ा भरी हाय पूरे घर में गूंज गई.

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‘‘क्या हुआ जी?’’ सुमित्रा की चीख में  नेहा और शिवानी की चिंतित आवाजें दब गईं.

रामनाथजी किसी सवाल का जवाब देने की स्थिति में ही नहीं रहे थे. उन की खामोशी ने सुमित्रा को बुरी तरह से घबरा दिया. वह किसी पागल की तरह चिल्ला कर अंकिता से जल्दी मोमबत्ती लाने को शोर मचाने लगीं.

अंकिता जलती मोमबत्ती ले भागती सी बैठक में आई. उस के प्रकाश में फर्श पर गिरे रामनाथजी को देख सुमित्रा और नेहा जोरजोर से रोने लगीं.

अपने ससुर के औंधे मुंह पड़े शरीर को शिवानी ने ताकत लगा कर सीधा किया. उन के सिर से बहते खून पर सब की नजर एकसाथ पड़ी.

‘‘पापा…पापा,’’ नेहा के हाथपांव की शक्ति जाती रही और वह सोफे पर निढाल सी पसर गई.

शिवानी के आदेश पर अंकिता ने मोमबत्ती सुमित्रा को पकड़ा दी.

मोहन भी घटनास्थल पर आ गया. शिवानी ने मोहन और अंकिता की सहायता से मूर्छित रामनाथजी को किसी तरह उठा कर सोफे पर लिटाया.

‘‘पापा को डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा,’’ शिवानी घाव की गहराई को देखते हुए बोली, ‘‘अंकिता, तुम बाहर खडे़ रामसिंह ड्राइवर को बुला लाओ.’’

सुमित्रा अपने पति को होश में लाने की कोशिश रोतेरोते कर रही थी और नेहा भयभीत हो अश्रुपूरित आंखों से अधलेटी सी पूरे दृश्य को देखे जा रही थी. अंकिता बाहर से आ कर बोली, ‘‘भाभी, आप का ड्राइवर रामसिंह गाड़ी के पास नहीं है. मैं ने तो आवाज भी लगाई, लेकिन उस का मुझे कोई जवाब नहीं मिला.’’

‘‘मैं देखती हूं. मम्मी, आप हथेली से घाव को दबा कर रखिए.’’

सुमित्रा की हथेली घाव पर रखवा कर शिवानी मेन गेट की तरफ बढ़ गई. अंकिता भी उस के पीछेपीछे हो ली.

‘‘पापा को डाक्टर के  पास ले जाना जरूरी है, अंकिता. यहां पड़ोस में कोई डाक्टर है?’’

‘‘नहीं भाभी,’’ अंकिता ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘नजदीकी अस्पताल कहां है?’’

‘‘बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर.’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर कहां मिलेगा?’’

‘‘मेन रोड पर.’’

‘‘चल मेरे साथ.’’

‘‘कहां, भाभी?’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर लाने. उसी में पापा को अस्पताल ले चलेंगे.’’

अंधेरे में डूबी गली में दोनों तेज चाल से मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ीं. तभी बादल जोर से गरजे और तेज बारिश पड़ने लगी.

सड़क के गड्ढों से बचतीबचाती दोनों करीब 10 मिनट में मुख्य सड़क पर पहुंचीं. बारिश ने दोनों को बुरी तरह से भिगो दिया था.

एक तरफ उन्हें थ्री व्हीलर खड़े नजर  आए तो वे उस ओर चल दीं.

शिवानी ने थ्री व्हीलर के अंदर बैठते हुए ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, अंदर कालोनी में चलो. एक मरीज को अस्पताल तक ले जाना है.’’

‘‘कौन से अस्पताल?’’ ड्राइवर ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘किसी भी पास के सरकारी अस्पताल में ले चलना है. अब जरा जल्दी चलो.’’

‘‘अंदर सड़क बड़ी खराब है, मैडम.’’

‘‘स्कूटर निकल जाएगा.’’

‘‘किसी और को ले जाओ, मैडम. मौसम बेहद खराब है.’’

‘‘बहनजी, आप मेरे स्कूटर में बैठें,’’ एक सरदार ड्राइवर ने उन की बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा.

‘‘धन्यवाद, भैया,’’ शिवानी ने अंकिता के साथ स्कूटर में बैठते हुए कहा.

सरदारजी सावधानी से स्कूटर चलाने के साथसाथ उन दोनों का हौसला भी अपनी बातों से बढ़ाते रहे. घर पहुंचने के बाद वह उन दोनों के पीछेपीछे बैठक में भी चले आए.

‘‘मम्मी, मैं थ्री व्हीलर ले आई हूं. पापा को अस्पताल ले चलते हैं,’’ शिवानी की आवाज में जरा भी कंपन नहीं था.

रामनाथजी होश में आ चुके थे पर अपने अंदर बैठने या बोलने की शक्ति महसूस नहीं कर रहे थे. चिंतित नजरों से सब की तरफ देखने के बाद उन की  आंखें भर आईं.

‘‘इन से चला नहीं जाएगा. पंजे में मोच आई है और दर्द बहुत तेज है,’’ घाव को दबा कर बैठी सुमित्रा ने रोंआसे स्वर में उसे जानकारी दी.

‘‘ड्राइवर भैया, आप पापाजी को बाहर तक ले चलने में हमारी मदद करेंगे,’’ शिवानी ने मदद मांगने वाली नजरों से सरदारजी की तरफ देखा.

‘‘जरूर बहनजी, फिक्र की कोई बात नहीं,’’ हट्टेकट्टे सरदारजी आगे बढ़े और उन्होंने अकेले ही रामनाथजी को अपनी गोद में उठा लिया.

थ्री व्हीलर में पहले सुमित्रा और  फिर शिवानी बैठीं. उन्होंने रामनाथजी को अपनी गोद में लिटा सा लिया.

सरदारजी ने अंकिता और नेहा को पास के सरकारी अस्पताल का रास्ता समझाया और रामसिंह के लौटने पर कार अस्पताल लाने की हिदायत दे कर स्कूटर अस्पताल की तरफ मोड़ दिया. बिजली की कौंध व बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश थमी नहीं थी.

मुख्य सड़क के किनारे बने छोटे से सरकारी अस्पताल में व्याप्त बदइंतजामी का सामना उन्हें पहुंचते ही करना पड़ा. वहां के कर्मचारियों ने खस्ताहाल स्ट्रेचर सरदारजी को मरीज लाने के लिए थमा दिया.

अंदर आपातकालीन कमरे में डाक्टर का काम 2 कंपाउंडर कर रहे थे. डाक्टर साहब अपने बंद कमरे में आराम फरमा रहे थे.

डाक्टर को बुलाने की शिवानी की  प्रार्थना का कंपाउंडरों पर कोई असर नहीं पड़ा तो वह एकदम से चिल्ला पड़ी.

‘‘डाक्टर यहां सोने आते हैं या मरीजों को देखने? मैं उठाती हूं उन्हें,’’ और इसी के साथ शिवानी डाक्टर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

एक कंपाउंडर ने शिवानी का रास्ता रोकने की कोशिश की तो सरदारजी उस का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘बादशाहो, इन बहनजी से उलझे तो जेल की हवा खानी पड़ेगी. यह पुलिस कमिश्नर की रिश्तेदार हैं. इनसान की पर्सनैलिटी देख कर उन की हैसियत का अंदाजा लगाना सीखो और अपनी नौकरी को खतरे में डालने से बचाओ.’’

एक ने भाग कर शिवानी के पहुंचने से पहले ही डाक्टर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. डाक्टर ने नाराजगी भरे अंदाज में दरवाजा खोला. कंपाउंडर ने उन्हें अंदर ले जा कर जो समझाया, उस के प्रभाव में आ कर डाक्टर की नींद हवा हो गई और वह रामनाथजी को देखने चुस्ती से कमरे से बाहर निकल आया.

डाक्टर को जख्म सिलने में आधे घंटे से ज्यादा का समय लगा. रामनाथजी  के पैर में एक कंपाउंडर ने कै्रप बैंडेज बड़ी कुशलता से बांध दिया. दूसरे ने दर्द कम करने का इंजेक्शन लगा दिया.

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‘‘मुझे लगता नहीं कि हड्डी टूटी है पर कल इन के पैर का एक्स-रे करा लेना. दवाइयां मैं ने परचे पर लिख दी हैं, इन्हें 5 दिन तक खिला देना. अगर हड्डी टूटी निकली तो प्लास्टर चढे़गा. माथे के घाव की पट्टी 2 दिन बाद बदलवा लीजिएगा,’’ डाक्टर ने बड़े अदब के साथ सारी बात समझाई.

तभी रामसिंह, अंकिता और नेहा वहां आ पहुंचे. नेहा अपने पिता की छाती से लग कर रोने लगी.

रामसिंह ने सुमित्रा को सफाई दी, ‘‘साहब ने कहा था कि घंटे भर बाद चलेंगे. मैं सिगरेट लाने को दुकान ढूंढ़ने निकला तो जोर से बारिश आ गई. मुझ से गलती हुई. मुझे कार से दूर नहीं जाना चाहिए था.’’

स्टे्रचर पर लिटा कर दोनों कंपाउंडर रामनाथजी को कार तक लाए. शिवानी ने उन्हें इनाम के तौर पर 50 रुपए सुमित्रा से दिलवाए.

सरदारजी तो किराए के पैसे ले ही नहीं रहे थे. ‘‘अपनी इस छोटी बहन की तरफ से उस के भतीजेभतीजियों को मिठाई खिलवाना, भैया,’’ शिवानी के ऐसा कहने पर ही भावुक स्वभाव वाले सरदारजी ने बड़ी मुश्किल से 100 रुपए का नोट पकड़ा.

विदा लेने के समय तक सरदारजी ने शिवानी के हौसले व समझदारी की प्रशंसा करना जारी रखा.

इसी तरह का काम लौटते समय अंकिता भी करती रही. वह इस बात से बहुत प्रभावित थी कि अंधेरे और बारिश की चिंता न कर शिवानी भाभी निडर भाव से थ्री व्हीलर लाने निकल पड़ी थीं.

अंकिता को उस के घर छोड़ वह सब वापस लौट पड़े. सभी के कपड़े खराब हो चुके थे. रामनाथजी को आराम करने की जरूरत भी थी.

उस रात सोने जाने से पहले सुमित्रा और नेहा शिवानी से मिलने उस के कमरे में आईं, ‘‘बहू, आज तुम्हारी हिम्मत और समझबूझ ने बड़ा साथ दिया. हमारे तो उन की खराब हालत देख कर हाथपैर ही फूल गए थे. तुम न होतीं तो न जाने क्या होता?’’ शिवानी को छाती से लगा कर सुमित्रा ने एक तरह से उसे धन्यवाद दिया.

‘‘भाभी, मुझे भी अपनी जैसी साहसी बना दो. अपने ढीलेपन पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही है,’’ नेहा ने कहा.

‘‘बहू, तुम्हारे सीधेसादे व्यक्तित्व की खूबियां हमें आज देखने को मिलीं. मुसीबत के समय हम मांबेटी की सतही चमकदमक फीकी पड़ गई. हम बेकार तुम में कमियां निकालते थे. जीवन की चुनौतियों व संघर्षों का सामना करने का आत्मविश्वास तुम्हीं में ज्यादा है. तुम्हारा इस घर की बहू बनना हम सब के लिए सौभाग्य की बात है,’’ भावुक नजर आ रही सुमित्रा ने एक तरह से अपने अतीत के रूखे व्यवहार के लिए शिवानी से माफी मांगी.

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बोया पेड़ बबूल का

दर्पण के सामने बैठी मैं असमय ही सफेद होते अपने केशों को बड़ी सफाई से बिखरे बालों की तहों में छिपाने की कोशिश कर रही थी. इस काया ने अभी 40 साल भी पूरे नहीं किए पर दूसरों को लगता कि मैं 50 पार कर चुकी हूं. बड़ी कोशिश करती कि 40 की लगूं और इस प्रयास में चेहरे को छिपाना तो आसान था मगर मन में छिपे घावों को कैसे छिपाती.

दरवाजे की घंटी बजने के साथ ही मैं ने घड़ी की ओर देखा तो 11 बजने में अभी 10 मिनट बाकी थे. मैं ने सोचा कि शायद मेरी कुलीग संध्या आज समय से पहले आ गई हों. फिर भी मैं ने सिर पर चुन्नी ढांपी और दरवाजा खोला तो सामने पोस्टमैन था. मुझे चूंकि कालिज जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए झटपट अपनी डाक देखी. एक लिफाफा देख कर मेरा मन कसैला हो गया. मुझे जिस बात का डर था वही हुआ. मैं कटे वृक्ष की तरह सोफे पर ढह गई. संदीप को भेजा मेरा बैरंग पत्र वापस आ चुका था. पत्र के पीछे लिखा था, ‘इस नाम का व्यक्ति यहां नहीं रहता.’

कालिज जाने के बजाय मैं चुपचाप आंखें मूंद कर सोफे पर पड़ी रही. फिर जाने मन में कैसा कुछ हुआ कि मैं फफक कर रो पड़ी, लेकिन आज मुझे सांत्वना देने वाले हाथ मेरे साथ नहीं थे.

अतीत मेरी आंखों में चलचित्र की भांति घूमने लगा जिस में समूचे जीवन के खुशनुमा लमहे कहीं खो गए थे. मैं कभी भी किसी दायरे में कैद नहीं होना चाहती थी किंतु यादों के सैलाब को रोक पाना अब मेरे बस में नहीं था.

एक संभ्रांत और सुसंस्कृत परिवार में मेरा जन्म हुआ था. स्कूलकालिज की चुहलबाजी करतेकरते मैं बड़ी हो गई. बाहर मैं जितनी चुलबुली और चंचल थी घर में आतेआते उतनी ही गंभीर हो जाती. परिवार पर मां का प्रभाव था और वह परिस्थितियां कैसी भी हों सदा गंभीर ही बनी रहतीं. मुझे याद नहीं कि हम 3 भाईबहनों ने कभी मां के पास बैठ कर खाना खाया हो. पिताजी से सुबहशाम अभिवादन के अलावा कभी कोई बात नहीं होती. घर में सारे अधिकार मां के हाथों में थे. इसलिए मां के हमारे कमरे में आते ही खामोशी सी छा जाती. हमारे घर में यह रिवाज भी नहीं था कि किसी के रूठने पर उसे मनाया जाए. नीरस जिंदगी जीने की अभ्यस्त हो चुकी मैं सोचती जब अपना घर होगा तो यह सब नहीं करूंगी.

एम.ए., बी.एड. की शिक्षा के बाद मेरी नियुक्ति एक स्थानीय कालिज में हो गई. मुझे लगा जैसे मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंच रही हूं. समय गुजरता गया और इसी के साथ मेरे जीने का अंदाज भी. कालिज के बहाने खुद को बनासंवार कर रखना और इठला कर चलना मेरे जीवन का एक सुखद मोड़ था. यही नहीं अपने हंसमुख स्वभाव के लिए मैं सारे कालिज में चर्चित थी.

इस बात का पता मुझे तब चला जब मेरे ही एक साथी प्राध्यापक ने मुझे बताया. उस का सुंदर और सलौना रूप मेरी आंखों में बस गया. वह जब भी मेरे करीब से गुजरता मैं मुसकरा पड़ती और वह भी मुसकरा देता. धीरेधीरे मुझे लगने लगा कि मेरे पास भी दूसरों को आकर्षित करने का पर्याप्त सौंदर्य है.

एक दिन कौमन रूम में हम दोनों अकेले बैठे थे. बातोंबातों में उस ने बताया कि वह पीएच.डी. कर रहा है. मैं तो पहले से ही उस पर मोहित थी और यह जानने के बाद तो मैं उस के व्यक्तित्व से और भी प्रभावित हो गई. मेरे मन में उस के प्रति और भी प्यार उमड़ आया. आंखों ही आंखों में हम ने सबकुछ कह डाला. मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई जिस की आवाज शायद उधर भी पहुंच चुकी थी. मेरे मन में कई बार आया कि ऐसे व्यक्ति का उम्र भर का साथ मिल जाए तो मेरी दुनिया ही संवर जाए. उस की पत्नी बन कर मैं उसे पलकों पर बिठा कर रखूंगी. मेरी आंखों में एक सपना आकार लेने लगा.

उस दिन मैं ने संकोच छोड़ कर मां को इस बात का हमराज बनाया. उम्मीद थी कि मां मान जाएंगी किंतु मां ने मुझे बेहद कोसा और मेरे चरित्र को ले कर मुझे जलील भी किया. कहने लगीं, इस घर में यह संभव नहीं है कि लड़की अपना वर खुद ढूंढ़े. इस तरह मेरा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े, क्योंकि मुझ में मां की आज्ञा का विरोध करने का साहस नहीं था.

मेरी इस बात से मां इतनी नाराज हुईं कि आननफानन में मेरे लिए एक वर ढूंढ़ निकाला. मुझे सोचने का समय भी नहीं दिया और मैं विरोध करती भी तो किस से. मेरी शादी संदीप से हो गई. मेरी नौकरी भी छूट गई.

शादी के बाद सपनों की दुनिया से लौटी तो पाया जिंदगी वैसी नहीं है जैसा मैं ने चाहा था. संदीप पास ही के एक महानगर में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी था. कंपनी ने सभी सुख- सुविधाओं से युक्त घर उसे दिया था.

संदीप के आफिस जाने के बाद मैं घर पर बोर होने लगी तो एक दिन आफिस से आने के बाद मैं ने संदीप से कहा, ‘मैं घर पर बोर हो जाती हूं. मैं भी चाहती हूं कि कोई नौकरी कर लूं.’

वह हौले से मुसकरा कर बोला, ‘मुझे तुम्हारे नौकरी करने पर कोई एतराज नहीं है किंतु जब कभी मम्मीपापा रहने के लिए आएंगे, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा. अब यह तुम्हारा घर है. इसे बनासंवार कर रखने में ही स्त्री की शोभा होती है.’

‘तो फिर मैं क्या करूं?’ मैं ने बेमन से पूछा.

उस ने जब कोई उत्तर नहीं दिया तो थोड़ी देर बाद मैं ने फिर कहा, ‘अच्छा, यदि किसी किंडर गार्टन में जाऊं तो 2 बजे तक घर वापस आ जाऊंगी.’

‘देखो, बेहतर यही है कि तुम इस घर की गरिमा बनाए रखो. तुम फिर भी जाना चाहती हो तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. तुम कोई किटी पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेतीं.’

‘मुझे किटी पार्टियों में जाना अच्छा नहीं लगता. मां कहती थीं कि कालोनी वालों से जितना दूर रहो वही अच्छा. बेकार समय बरबाद करने से क्या फायदा.’

‘यह जरूरी नहीं कि मैं तुम्हारी मां के सभी विचारों से सहमत हो जाऊं.’

उस दिन मैं ने यह जान लिया कि संदीप मेरी खुशी के लिए भी झुकने को तैयार नहीं है. यह मेरे स्वाभिमान को चुनौती थी. मैं भी अड़ गई. अपने हावभाव से मैं ने जता दिया कि नाराज होना मुझे भी आता है. अब अंतरंग पलों में वह जब भी मेरे पास आना चाहता तो मैं छिटक कर दूर हो जाती और मुंह फेर कर सो जाती. जीत मेरी हुई. संदीप ने नौकरी की इजाजत दे दी.

अगली बार मैं जब मां से मिलने गई तो उन्हें वह सब बताती रही जो नहीं बताना चाहिए था. मां की दबंग आवाज ने मेरे जख्मों पर मरहम का काम किया. वह मरहम था या नमक मैं इस बात को कभी न जान पाई.

मां ने मुझे समझाया कि पति को अभी से मुट्ठी में नहीं रखोगी तो उम्र भर पछताओगी. दबाया और सताया तो कमजोरों को जाता है और तुम न तो कमजोर हो और न ही अबला. मैं ने इस मूलमंत्र को शिरोेधार्य कर लिया.

मैं संदीप से बोल कर 3 दिन के लिए मायके आई थी और अब 7 दिन हो चले थे. वह जब भी आने के लिए कहता तो फोन मां ले लेतीं और साफ शब्दों में कहतीं कि वह बेटी को अकेले नहीं भेजेंगी, जब भी समय हो आ कर ले जाना. मां का इस तरह से संदीप से बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैं ने कहा, ‘मां, हो सकता है वह अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त हों. मैं ऐसा करती हूं कि…’

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‘तुम नहीं जाओगी,’ मां ने बीच में ही बात काट कर सख्ती से कहा, ‘हम ने बेटी ब्याही है कोई जुर्म नहीं किया. शादी कर के उस ने हम पर कोई एहसान नहीं किया है. जैसा हम चाहेंगे वैसा होगा, बस.’

मां ने कभी समझौता करना नहीं सीखा था. विरासत में मुझे यही मिला. मैं खामोश हो गई. जब वह मेरी कोई बात ही नहीं मानता तो मैं क्यों झुकूं. आना तो उसे ही पड़ेगा.

2 दिन बाद ही संदीप आ गया तो मुझे लगा मां ठीक ही कह रही थीं. मां की छाती फूल कर 2 इंच और चौड़ी हो गई.

दीवाली से 4 दिन पहले संदीप के मम्मीपापा आ गए. सीधे तो उन्होंने कुछ कहा नहीं पर उन के हावभाव से ऐसा लगा कि मेरा नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया.

संदीप ने एक दिन कहा भी कि मैं घर पर ही रहूं और मम्मीपापा की देखभाल करूं लेकिन इसे मैं ने यह कह कर टाल दिया था, ‘मैं भी यही चाहती हूं कि मम्मीपापा की सेवा करूं पर इन दिनों लंबी छुट्टी लेना ठीक नहीं है. मेरी स्थायी नियुक्ति होने वाली है और इस छुट्टी का सीधा असर उस पर पड़ेगा.’

‘देखो, मैं तो चाहता ही नहीं था कि तुम नौकरी करो पर तुम्हारी जिद के कारण मैं कुछ नहीं बोला. अब यह बात उन को पता चली है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा.’

‘मैं ने विवाह तुम्हारे मम्मीपापा के सुख के लिए नहीं किया. वे दोनों तो कुछ दिनों के मेहमान हैं. चले जाएंगे तो मैं फिर अकेली रह जाऊंगी. मेरा इतने पढ़ने का क्या लाभ?’

बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. कोई बात कहीं पर भी खत्म नहीं होती जब तक कि उस के कारणों को जड़ से न निकाला जाए.

मम्मी ने एक दिन मेरे अच्छे मूड को देख कर कहा, ‘बेटी, मुझे यह घर सूनासूना सा लगता है. अगली दीवाली तक इस घर में रौनक हो जानी चाहिए. तुम समझ गईं न मेरी बात को. इस घर में अब मेरे पोतेपोती भी होने चाहिए.’

मैं नहीं चाहती थी कि वे किसी भ्रम में रहें, इसलिए सीधेसीधे कह दिया, ‘मैं अभी किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि अभी तो यह हमारे हंसनेखेलने के दिन हैं. किसी भी खुशखबरी के लिए आप को 4-5 वर्ष तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’

संदीप ने उन्हें सांत्वना दी. वैसे हमारे संबंधों की कड़वाहट उन के कानों तक पहुंच चुकी थी.

समय यों ही खिसकता रहा. हमारे संबंध बद से बदतर होते गए. मुझे संदीप की हर बात बरछी सी सीने में चुभती.

एक दिन मैं ने सुबह ही संदीप से कहा कि स्थायी नियुक्ति की खुशी में मुझे अपने सहयोगियों को पार्टी देनी है. संभव है, शाम को आने में थोड़ी देर हो जाए. पर वह पार्टी टल गई. मैं घर आ गई. घर पहुंची तो संदीप किसी महिला के साथ हंसहंस कर बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही दोनों चुप हो गए.

‘अरे, तुम कब आईं, आज पार्टी नहीं हुई क्या?’

मेरा चेहरा तमतमा गया. मैं ने अपना बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चली गई. मन के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था. अत: गुस्से में मैं अपना नियंत्रण खो बैठी. इस से पहले कि वह कुछ कहता, मैं ने खड़ेखड़े पूछा, ‘कौन है यह लड़की और आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

संदीप मुझे घूरते हुए बोला, ‘तुम बैठोगी तभी तो बताऊंगा.’

‘अब बताने के लिए रह ही क्या गया है?’ संदीप के घूरने से घायल मैं दहाड़ी, ‘बहाना तो तैयार कर ही लिया होगा?’

‘संगीता, थोड़ा तो सोचसमझ कर बात करो. आरोप लगाने से पहले हकीकत भी जान लिया करो.’

‘मुझे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है. मैं सब समझ चुकी हूं,’ कह कर मैं तेज कदमों से भीतर आ गई.

थोड़ी ही देर बाद संदीप मेरे पास आया और कहने लगा, ‘तुम ने तो हद ही कर दी. जानती हो कौन है यह?’

‘मुझे कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है. मेरे आते ही तुम्हारा हंसीमजाक एकदम बंद हो जाना, यह जानते हुए कि मैं शाम को देर से आऊंगी, अपनी चहेती के साथ यहां आना ही मेरे जानने के लिए बहुत है. मुझे क्या पता कि मेरे कालिज जाने के बाद कितनों को यहां ले कर आए हो,’ मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठी.

‘संगीता,’ वह एकदम दहाड़ पड़ा, ‘बहुत हो चुका अब. आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे चरित्र पर लांछन लगा सके. तुम ने शुरू से ही मुझे शक के दायरे में देखा और प्रभुत्व जमाने की कोशिश की है.’

‘यह सब बेकार की बातें हैं. सच तो यह है कि तुम ने शासन जमाने की कोशिश की है और जब मैं भारी पड़ने लगी तो तुम अपनी मनमानी करने लगे हो. मेरी मां ठीक ही कहती थीं…’

‘भाड़ में जाएं तुम्हारी मां. उन्हीं के कारण तो यह घर बरबाद हो रहा है.’

‘तुम ने मेरी मां को बुराभला कहा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. मैं यह घर और तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं.’

‘जरूर जाओ, जरूर जाओ, ताकि मुझे भी शांति मिल सके. आज तुम्हारी हरकतों ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है.’

संदीप के चेहरे पर क्रोध और वितृष्णा के भाव उभर आए थे. वह ऐसे हांफ रहा था जैसे मीलों सफर तय कर के आया हो.

मैं अपना सारा सामान समेट कर मायके चली आई और मां को झूठीसच्ची कहानी सुना कर उन की सहानुभूति बटोर ली.

मां को जब इन सब बातों का पता चला तो उन्होंने संदीप को जम कर फटकारा और उधर मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर हो रही थी. भैया ने तो यहां तक कह डाला कि यदि उस ने दोबारा कभी फोन करने की कोशिश की तो वह दहेज उत्पीड़न के मामले में उलझा कर सीधे जेल भिजवा देंगे. इस तरह मैं ने संदीप के लिए जमीन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जहां वह सांस ले सके.

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एक दिन रसोई में काम करते हुए भाभी ने कहा, ‘संगीता, तुम्हारा झगड़ा अहं का है. मेरी मानो तो कुछ सामंजस्य बिठा कर वहीं चली जाओ. सच्चे अर्थों में वही तुम्हारा घर है. संदीप जैसा घरवर तुम्हें फिर नहीं मिलेगा.’

‘तुम कौन होती हो मुझे शिक्षा देने वाली. मैं तुम पर तो बोझ नहीं हूं. यह मेरी मां का घर है. जब तक चाहूंगी यहीं रहूंगी.’

उस दिन के बाद भाभी ने कभी कुछ नहीं कहा.

वक्त गुजरता गया और उसी के साथ मेरा गुस्सा भी ठंडा पड़ने लगा. मेरी मां का वरदहस्त मुझ पर था. मैं ने इसी शहर में अपना तबादला करा लिया.

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’

इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

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फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

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औरत पैर की जूती

मैं अपने चैंबर में बैठ कर मेज पर रखी फाइलों को निबटा रहा था. उसी समय नरेश एक रौबदार मूंछ वाले व्यक्ति के साथ कमरे में घुसा. लंबा कद और घुंघराले बालों वाले उस व्यक्ति की उम्र कोई 40 साल के आसपास की लग रही थी. चेहरे से परेशान उस व्यक्ति का परिचय नरेश ने कराया, ‘‘यह कैलाशजी हैं, गुजराती होटल के मैनेजर. इन के मकानमालिक ने इन का सारा सामान घर से निकाल कर सड़क के किनारे रखवा दिया है. बेचारे, बहुत मुसीबत में हैं. सर, इन की मदद कर दें.’’

‘‘इन्होंने मकान का भाड़ा नहीं दिया होगा?’’

‘‘तो फिर उस की बहन या लड़की को छेड़ा होगा?’’

‘‘सर, इस उम्र में किसी की बहन या लड़की को क्यों छेड़ेंगे.’’ कैलाश बोला, ‘‘मैं पिछले 10 सालों से उस का किराएदार हूं, अब मकानमालिक को लगता है कि कहीं मैं उस का मकान न हड़प लूं. इसलिए पिछले एक साल से डरा रहा है कि मकान खाली करो, वरना सामान निकाल कर बाहर फेंक दूंगा.’’

‘‘अब उस ने सामान बाहर फेंक कर अपनी धमकी पूरी कर दी,’’ मैं बोला.

‘‘जी, आप ने बिलकुल ठीक सोचा. अपुन मर्द आदमी है. चाहे तो मकान मालिक का सिर फोड़ सकता है, पर नरेश ने समझाया कि ऐसा बिलकुल नहीं करना. अब नरेश ही आप के पास मुझे ले कर आया है,’’ कैलाश ने उत्तर दिया.

नरेश मेरे पास पिछले 5 महीनों से वकालत का काम सीख रहा था. नरेश और कैलाश आपस में अच्छे मित्र थे. मैं ने नरेश को आदेश दिया कि वह कैलाश को साथ ले कर थाने जाए और पहले वहां कैलाश की रिपोर्ट दर्ज करा कर उस रिपोर्ट की कापी मेरे पास ले कर लौटे.

उन दोनों के जाने के बाद मैं ने कैलाश के इलाके के थाने में गणपतराव थानेदार को फोन कर के आग्रह किया कि वह कैलाश की रिपोर्ट लिखवा लें और कैलाश का मकानमालिक के साथ कोई उचित समझौता करवा दें.

गणपतराव मेरा कोर्ट का साथी है. अत: गणपतराव और मुझ में अकसर बातचीत होती रहती थी.

मेरी छोटी सी सहायता के चलते कैलाश का अपने मकानमालिक से सम्मानजनक समझौता हो गया. कैलाश को एक साल की मोहलत मिल गई. कैलाश को उम्मीद थी कि इस एक साल के भीतर ही वह अपने प्लाट पर खुद का मकान बनवा लेगा.

फीस के रूप में कैलाश ने मुझे 5 हजार रुपए की एक गड्डी पेश की. मैं ने इसे लेने से इनकार कर दिया क्योंकि मेरा जमीर इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था. पर इस व्यवहार से कैलाश इतना प्रभावित हुआ कि वह मेरा मित्र बन गया. वह खुद भी बहुत मिलनसार था और उस के दोस्तों की शहर में कमी न थी.

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उस ने मेरे छोटेमोटे कई काम किए थे. अच्छा भुगतान करने वाले कुछ मुवक्किल भी मुझे दिलाए थे. अत: उस के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव मेरे मन में पैदा होना स्वाभाविक था.

कैलाश की यह एक बात मुझे बहुत चुभती थी कि वह हर बात छिड़ने पर कहता था, ‘अपुन मर्द आदमी है. किसी का उधार नहीं रखता.’ शायद इस तरह का संवाद बोलना उस का तकिया कलाम बन चुका था.

उस का यह तकियाकलाम सुनते- सुनते मैं अब तंग आ चुका था. अत: एक दिन जब कैलाश ने यही संवाद दोहराया तो मैं मुसकराते हुए बोला, ‘‘क्या तुम भाभीजी के सामने भी इसी तरह का संवाद बोल कर अपनी मर्दानगी दिखाते रहते हो? वह बरदाश्त कर लेती हैं क्या तुम्हारी हेकड़ी?’’

बस, फिर क्या था. कैलाश चालू हो गया, बोला, ‘‘अरे, तुम्हारी भाभी क्या कर लेगी? अपुन मर्द आदमी है. घर पर पूरा पैसा देता है, किसी भी तरह की कमी नहीं छोड़ता,’’ और जोर से होहो कर हंसते हुए बोला, ‘‘औरत को ताज चाहिए न तख्त……झापड़ चाहिए सख्त. पैर की जूती होती है, औरत.’’

मुझे कैलाश की बात पर बहुत हंसी आ रही थी और गुस्सा भी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम औरत के बारे में इतने पिछड़े विचार आज के आधुनिक जमाने में रखते हो. आजकल तो औरतें आदमी को उंगली पर नचा रही हैं. तुम इतना सबकुछ पत्नी को सुनाने के बाद घर में शांति से खाना खा लेते हो?’’

‘‘वकील साहब, मेरी होटल की नौकरी है. रात को 1 बजे घर पहुंचता हूं तो वह मुझे ताजी रोटी बना कर खिलाती है. मैं बीवी को सिर पर नहीं चढ़ाता. पैर की जूती है वह,’’ कैलाश बहुत ही अभिमान के साथ बोला.

मेरी आंखें आश्चर्य से फटी जा रही थीं. मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई और मेरा अनुभव बेकार है. मेरी वकालत पर कैलाश के अभिमान से आंच आने लगी थी. मेरी खुद की हिम्मत ऐसी नहीं थी कि मैं अपनी पत्नी या किसी दूसरी औरत के बारे में इतना खुला वक्तव्य दे सकूं.

यदि वह अपनी पत्नी से ऐसी बातें करे तो क्या इस के घर में झगड़ा नहीं होता होगा. क्या इस की पत्नी ऐसी बातें बरदाश्त कर लेती होगी? आखिर मैं अपना संयम रोक नहीं सका. उस से पूछ ही बैठा, ‘‘तब तो तुम्हारे घर में रोज ही खूब झगड़ा होता होगा?’’

‘‘झगड़ा…?’’ कैलाश अपनी आंखें चौड़ी कर के बोला, ‘‘बिलकुल नहीं होता. तुम्हारी भाभी की हिम्मत नहीं होती मेरे से झगड़ा करने की. अपुन मर्द आदमी है. औरतों का क्या, पैरों की जूतियां होती हैं. तुम्हारी भाभी को भी मैं ऐसे ही रखता हूं, जैसे पैर की जूती.’’

मेरे मन में उस समय कई तरह के प्रश्न उठ रहे थे. यदि कैलाश के दावे में दंभ अधिक नहीं है तो जरूर उस की पत्नी कोई असाधारण औरत होगी. यदि ऐसा नहीं है तो कैलाश के दावे का परीक्षण करना होगा. यह सोचते हुए मैं ने किसी समय कैलाश के घर जाने का फैसला लिया.

यह सुअवसर भी जल्दी ही मिल गया. कैलाश के 10 वर्षीय बेटे अजय का जन्मदिन था और इस मौके पर कैलाश अपने मित्रों को शाम का खाना घर पर ही खिलाना चाहता था. अत: उस ने अपने खासखास मित्रों को दावत पर बुलाया. मैं भी अपने जूनियर नरेश के साथ दावत में पहुंच गया.

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कैलाश के घर का एकएक सामान करीने से लगा हुआ था. ड्राईंग रूम, बेड रूम, किचन और यहां तक कि टायलेट भी बहुत साफसुथरे थे. पता चला कि यह सब उस की पत्नी माला का कमाल था. मैं और नरेश तो कैलाश के छोटे भाई गोपाल के साथ उस का घर देख रहे थे.

इस के बाद हम घर के पीछे बने मैदान में गए. वहां एक शानदार शामियाना लगा हुआ था. वहीं कैलाश और उस की पत्नी माला आने वाले मेहमानों का स्वागत करते मिले.

मैं ने माला को देखा. वह 34-35 साल की उम्र में भी बहुत सुंदर लग रही थी. मैरून रंग की साड़ी और मैच करता ब्लाउज, गले में लाल रंग के मोतियों की माला, गोल चेहरा और शालीन व्यक्तित्व.

कैलाश ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी धर्मपत्नी माला देवी हैं.’’

मैं ने तुरंत दोनों हाथ जोड़ कर माला को नमस्कार किया.

कैलाश ने माला से कहा, ‘‘ये वकील साहब राजेंद्र कुमारजी हैं.’’

‘‘अच्छा…अच्छा…समझ गई,’’ माला ने तुरंत कहा और मुझे हाथ के इशारे से आगे मेजकुरसी दिखाते हुए बोली, ‘‘आइए, भाई साहब, आप तो हमारे खास मेहमान हैं.’’

माला के साथ आगे बढ़ते हुए मैं ने पूछा, ‘‘लगता है कि आप मुझे जानती हैं?’’

‘‘देखा तो आज ही है, पर नाम से परिचित हूं क्योंकि इन की जबान पर हमेशा आप का ही नाम रहता है.’’

माला ने मुझे एक सोफे पर बैठने का इशारा किया और 1-2 मिनट के लिए इजाजत ले कर चली गई. जब वह वापस लौटी तो उसके हाथ की टे्र में संतरे का जूस 2 गिलासों में मौजूद था. उस के आग्रह पर मैं ने और नरेश ने जूस का एकएक गिलास थाम लिया. फिर वह बहुत ही कोमल लहजे में हम से इजाजत ले कर कैलाश के पास चली गई.

मैं और नरेश आपस में बातचीत करते रहे. पता चला कि माला ने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया है. घर में कैलाश के 2 बच्चे, (एक लड़का व एक लड़की) कैलाश की विधवा बहन तथा एक कुंवारा छोटा भाई मिल कर रहते हैं.

शामियाना थोड़ी ही देर में खचाखच भर गया तो कैलाश मेरे पास आया और केक की टेबल पर चलने का आग्रह किया. कैलाश का बेटा, पत्नी माला और निकट संबंधी भी केक की टेबल पर पहुंचे. ‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों कई हजार’ गाने की ध्वनि के साथ कैलाश के बेटे ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मेहमानों ने उसे बधाई दी. उपहार दिए. फोटोग्राफर फोटो लेने लगे. इस के साथ ही भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया.

कैलाश ने पहली प्लेट मुझे पकड़ाई. मैं प्लेट में खाना डालने लगा. तभी कैलाश को निकट संबंधियों की सेवा में जाना पड़ा. कुछ देर बाद कैलाश की पत्नी माला मेरे पास आई. मैं ने उस से आग्रह किया कि वह भी साथ में खाना ले ले. वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘सारे मेहमानों के बाद इन के साथ ही खाना लूंगी. आप के साथ सलाद ले लेती हूं,’’ और इतना कह कर उस ने एक गाजर का टुकड़ा उठा लिया.

मैं ने भी उसी मुसकराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘हांहां, आप अपने पति के साथ ही खाना, मेरे साथ सलाद लेने के लिए आप का बहुतबहुत धन्यवाद. लगता है कि उम्र के इस मोड़ पर भी आप अपने पति को बहुत चाहती हैं?’’

‘‘बढ़ती उम्र के साथ तो पतिपत्नी के बीच प्यार भी बढ़ना चाहिए न?’’ माला बोली.

‘‘आप दिल से कह रही हैं या असलियत कुछ और है?’’

‘‘भाई साहब, आप के मन में कोई शंका हो तो साफसाफ बताइए न, पहेलियां क्यों बूझ रहे हैं? हमारा जीवन तो खुली किताब है.’’

मैं थोड़ा संकोच के साथ बोला, ‘‘कैलाशजी मेरे परम मित्र हैं पर जब वह स्त्री जाति के बारे में कहते हैं कि वह तो पैर की जूती होती है, तब मुझे बहुत बुरा लगता है. वह कहते हैं कि मैं अपनी पत्नी को भी पैर की जूती समझता हूं. आप बताइए, अपने बारे में इतना जान कर आप कैसा महसूस कर रही हैं?’’

‘‘आप का प्रश्न कोई अनोखा नहीं है. इस तरह के प्रश्न अकसर लोग मुझ से पूछते रहते हैं. शुरू में यह सुन कर मुझे भी बहुत तकलीफ हुई थी पर अब तो आदत सी पड़ गई है. मैं ने इन को समझाया भी कि ऐसी गंदी बातें मत किया करो लेकिन यह सुधरते नहीं. अब तो मैं ने इन्हें इन के हाल पर छोड़ दिया है. वक्त ही इन्हें सुधारेगा. यदि मैं लोगों के उकसाने पर चलती तो शायद इन से मेरा तलाक हो जाता पर मैं ने बहुत ही गंभीरता से सारी परिस्थितियों पर विचार किया है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां, इन से झगड़ा कर के अपने घर की सुखशांति भंग करने के बजाय मैं बात की तह में गई कि यह ऐसे संवाद आखिर क्यों बोलते हैं?’’

‘‘कुछ मिला?’’

‘‘हां, इन के बूढ़े पिता, जिन का अब स्वर्गवास हो चुका है, अपने जातिगत एवं पुरातनपंथी संस्कारों से पीडि़त थे. अपनी जवानी क्या, बुढ़ापे तक वह शराब का सेवन करते रहे. वह अपनी बीवी यानी मेरी सास की पिटाई भी किया करते थे.

‘‘अपनी मां को मार खाते देख कर इन्हें गुस्सा बहुत आता था. पर इन्होंने कभी मुझे मारा नहीं. ये शराब भी नहीं पीते. फिर भी अपने पिता की तरह खुद को बड़ा मर्द समझते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें पिता की तरह ही रखी हुई हैं. कहते हैं कि मूंछें  रखना हमारी खानदानी परंपरा है. अपने पिता की तरह बारबार दोहराते हैं, ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी.’

‘‘डींग हांकते हुए कहते हैं कि औरत तो मर्द के पैर की जूती होती है. अगर मैं इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लूं तो हम दोनों एक पल भी साथ नहीं रह सकते. इन में यही एक कमी है. इसलिए मैं ने इन को अधिक से अधिक प्यार दे कर हिंसक नहीं बनने दिया. पर इन के तकियाकलाम और नारी जाति के बारे में ऐसे संवादों पर रोक नहीं लगा पाई.’’

मेरी प्लेट का खाना खत्म हो चुका था. जूठी प्लेट एक बड़ी प्लास्टिक की टोकरी में डालते हुए मैं बोला, ‘‘भाभीजी, यदि आप जैसी समझदार महिलाओं की संख्या समाज में बढ़ जाए तो व्यर्थ के घरेलू झगड़े कम हो जाएं. कैलाश को तो वक्त ही ठीक करेगा.’’

‘‘अच्छा, मै चलता हूं,’’ कहते हुए मैं ने उन से इजाजत ली.

इस के बाद कैलाश से कई मुलाकातें हुईं, वह अपनी पत्नी को ले कर मेरे घर भी आया. मेरी पत्नी को भी माला का स्वभाव अच्छा लगा.

जून माह के बाद मुझे कैलाश कई दिनों तक नहीं मिला. अपना मकान बनवाने के कारण नरेश भी 2 महीने की छुट्टी पर था. छुट्टी के बाद नरेश काम पर आया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘कैलाश की कोई खैरखबर है? पिछले 3 महीनों से वह दिखाई नहीं दिया.’’

‘‘सर, वह तो महाराजा यशवंतराव अस्पताल में भरती है.’’

‘‘आश्चर्य की बात है. मुझे  किसी ने खबर नहीं दी. तुम्हारा भी कोई फोन इस संबंध में नहीं आया?’’

‘‘सर, मुझे खुद परसों पता लगा है.’’

मैं शाम को अस्पताल में पहुंच कर कैलाश के बारे में पूछतेपूछते उस के वार्ड तक जा पहुंचा. वार्ड में अभी मैं कैलाश का बेड ढूंढ़ ही रहा था कि मुझे माला ने देख लिया और बोली, ‘‘आइए, भाई साहब.’’

माला मुझे आवाज न देती तो शायद मैं उसे पहचान भी नहीं पाता. वह सूख कर कांटा हो गई थी. उस के गोरे गाल किशमिश की तरह पिचक गए थे.

मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे, तुम इतनी बीमार कैसे हो गईं? मैं ने तो सुना था कि कैलाशजी बीमार हैं.’’

‘‘आप ने ठीक सुना था, भाई साहब, मैं नहीं आप के भाई बीमार हैं. देखिए, वह पड़े हैं पलंग पर, लेकिन अब पहले से बहुत ठीक हैं.’’

मुझे देख कर कैलाश पलंग पर ही उठ बैठा. मैं स्टूल खींच कर उस के पास बैठ गया.

‘‘क्या हो गया था, कैलाश? तुम ने या माला ने तो कोई सूचना भी नहीं भेजी. क्या तुम लोगों के लिए मैं इतना गैर हो गया,’’ कैलाश को कमजोर हालत में देख कर मैं ने शिकायत की.

कैलाश की पीठ के पीछे बड़ा सा तकिया लगाते हुए माला बोली, ‘‘भाई साहब, अभी तक तो हम लोग ही इन्हें संभाल रहे थे. यदि कोई कठिनाई आती तो आप के पास ही आते.

‘‘इन्हें पीलिया हो गया था. इन का न तो कोई खाने का समय है और न ही सोने का. लिवर पर तो असर पड़ना ही था. पीलिया का इलाज चल रहा था कि इन्हें टायफाइड हो गया. अब इन्हें आवश्यक रूप से बिस्तर पर आराम करना पड़ रहा है,’’ यह कहते हुए माला को हंसी आ गई.

मुझे लग रहा था कि मेरे पहुंचने से इन दोनों को बहुत राहत मिली थी. अत: माला के उदास चेहरे पर भी बहुत दिनों बाद हंसी की रेखा फूटी होगी.

कैलाश भी मुसकाराया और बोला, ‘‘वकील साहब, यह मेरी सेवा करतेकरते खुद बीमार हो गई है. इस ने मुझे मरने से बचा लिया है. बहन और रिश्तेदार तो आतेजाते रहते थे पर माला मुझे छोड़ कर एक पल के लिए भी घर नहीं गई.’’

‘‘अरे, आप कम बोलो ना? डाक्टर ने ज्यादा बोलने के लिए मना किया है,’’ माला ने कैलाश को रोका.

कैलाश रुका नहीं, बोलता रहा, ‘‘मैं बुखार में चीखताचिल्लाता था. माला पर अपना गुस्सा उतारता था. पर यह औरत ठंडे पानी की पट्टियां मेरे सिर और बदन पर रखते हुए हर समय मुझे बच्चा मान कर दिलासा देती रहती थी. मैं इस का यह कर्ज इस जीवन में उतार नहीं पाऊंगा,’’ इतना बतातेबताते कैलाश की आंखों में आंसू आ गए थे.

वह एक पल को रुक कर बोला, ‘‘यह कब जागती थी और कब सोती थी, मुझे नहीं पता. लेकिन जब भी रात में मेरी आंख खुलती  थी तो यह मेरी सेवा करते मिलती. मेरे कारण देखो इस का शरीर कितना कमजोर हो गया है.’’

‘‘यह ठीक हो गए. अब घर जाने पर मैं भी अपनेआप ठीक हो जाऊंगी,’’ माला बोली.

मैं अपने साथ कुछ फल लाया था. उस में से एक संतरा निकाल कर छीला और फांके कैलाश को दी. माला को भी दिया. इस के बाद हम लोेग गपशप करने लगे. जब माहौल पूरी तरह से प्रसन्नता का हो गया तो मैं ने कैलाश से चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘कैलाश, तुम तो कहते थे, औरत पैर की जूती होती है. माला भी इसी दरजे में आती है. अब तुम माला को महान कह रहे हो. तुम्हारी यह राय सचमुच बदल गई है या सिर्फ अस्पताल तक सीमित है.’’

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‘‘आप, वकील साहब सुधरेंगे नहीं, यहां अस्पताल में भी अपनी वकालत दिखा कर रहेंगे.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं चौंका.

‘‘मतलब यह है कि आप मेरे गुनाहों को सब के सामने कबूलने के लिए कहेंगे?’’

‘‘मेरी ओर से कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. मुजरिम भी तुम खुद हो और यह अदालत भी तुम्हारी है, जो मर्जी में आए फैसला लिख लो.’’

‘‘अगर ऐसी बात है तो वकील साहब मेरा फैसला भी सुन लो. मैं अपने दंभ और झूठे घमंड के कारण औरत को पैर की जूती कहता था. अब जमाना बदल गया है. कई मामलों में औरत आदमी से आगे निकल गई है. उसे सलाम करना होगा. उस का स्थान पैरों पर नहीं दिल और माथे पर है.

सबसे बड़ा रुपय्या

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके  रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने  दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर  पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया. वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

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श्ेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे. बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर ंिंचंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

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‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को,  यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी.

उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म- विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

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अंतिम भाग

पूर्व कथा

शोभना अब भी बच्चों की पुरानी चीजों, उन से जुड़ी हर बात से मोह नहीं छोड़ पाई थी. उन से जुड़ी बातों को याद करकर के मन को बहला लेती जबकि नरेंद्र अकसर उस के ऐसा करने पर उसे रोका करते. बेटों के पास जा कर रहने से भी अब शोभना कतराने लगी थी.

वह बीती बात भूली नहीं थी जब मोहित के बेटे मयूर के जन्मदिन पर उन के पास जाने की उस ने पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन रिजर्वेशन करवाने से पहले मोहित से बात की तो उस ने कहा कि हम मयूर का जन्मदिन मना ही नहीं रहे. नरेंद्र ने शोभना को समझाया कि वह उन्हें घर आने के लिए मना नहीं कर रहा लेकिन शोभना का तर्क था कि आने के लिए भी तो नहीं कहा. अब आगे…

गतांक से आगे…

शोभना की बात सुन नरेंद्र ने बात बदल देने में ही खैरियत समझी, ‘क्यों न हम कुछ दिनों के लिए मयंक के पास चलें…’ मेरे प्रस्ताव से सहमत थी वह, पर हां या ना कुछ नहीं कहा.

मयंक से बात भी हुई, ‘नहीं, डैडी, इतनी गरमी में आप लोग प्रोग्राम न ही बनाएं तो बेहतर होगा…’

‘वह भला क्यों, बेटा? आखिर तुम सब भी तो रह रहे हो वहां,’ थोड़ा विचलित हो उठा था मैं…अपने लिए नहीं, शोभना के लिए…क्या सोचेगी अब वह…?

‘हम लोगों की बात छोडि़ए, डैड, हम सब को तो आदत पड़ गई है, पर आप लोग परेशान हो जाएंगे…एक तो पावर कट की प्राब्लम, उस पर से इन्वर्टर भी बीच में बोल जाता है.

सोच रहा हूं एक जेनरेटर ले ही लूं. पर उस का भी शोर सहना आप दोनों के वश का नहीं,’ स्पीकर आन था…कुछ भी कहना नहीं पड़ा मुझे, सब कुछ खुद ही सुन लिया था शोभना ने…थोड़ी देर के लिए खामोशी पसर गई हमारे बीच.

मैं देर तक…गौर से देखता रहा उस की तरफ. उस के मन के कुरुक्षेत्र में चल रहे भावनाओं के महाभारत को महसूस करता रहा…मुझ से सिरदर्द का बहाना कर रात जल्द ही सो गई शोभना…

मगर अभी मुझे अकेला छोड़ कर कहां चली गई वह? अतीत के दलदल से मैं ने अपनेआप को जबरन निकाला… थोड़ी देर के लिए भी शोभना अगर खामोश हो जाए तो घर काटने को दौड़ता है…कहां गई होगी वह. मुझ से उलझने के बजाय, घर के किसी कोने में बैठ कर चुपचाप पुरानी अलबम पलट रही होगी…यही उस का सब से प्रिय टाइमपास है. उस की नाराजगी दूर करने के लिए मैं ने खुद ही 2 कप कौफी बनाई और उस के करीब जा पहुंचा…कुछ संजीदा दिखी वह.

‘‘देखो न नरेंद्र…लगता है जैसे यह सब कल की ही बात हो…’’ एकएक तसवीर को उंगलियों से टटोल रही थी…किसी में अंकिता मेरी गोद में थी तो किसी में उस की गोद में, ‘‘देखो तो मोहित, कैसा अपने बेटे मधुर सा दिख रहा है…और ये देखो, मयंक को…कैसा लग रहा है, जैसे एकदम धु्रव…कर क्या रहा है, जैसे अब रोया तब रोया…याद तो करो क्या हुआ था?’’ लाख कोशिशों के बावजूद कुछ नहीं याद आया था मुझे… शोभना हंसने लगी…याद है नरेंद्र, कैसे थे वे दिन…बच्चों से घिरे हम, तनहाई तलाशते रहते…कभीकभी तो तुम झुंझला उठते, ‘यह घर है या चिडि़याघर,’ दिन भर बच्चों की चैं-पैं. रात में बिस्तर पर सोओ तो इधर बांह के नीचे मोहित की पेंसिल चुभती, तो उधर पैर के नीचे अंकिता की डौल आ दबती…और अब…

‘‘नरेंद्र, तुम्हें भी कभी याद आते हैं वह दिन…वक्त कितने चुपके से निकल जाता है न और हमें खबर ही नहीं होती…’’

‘‘हूं…’’ मैं अपने खयालों में खोया सा चौंक पड़ा…शोभना के सामने मैं भी सरलता से कहां स्वीकारता हूं कि कभीकभी मैं भी भावुक हो जाता हूं, उसी की तरह…

अचानक फोन की घंटी घनघना उठी. ‘‘किस का फोन होगा?’’ आदतन मैं पूछ बैठा.

‘‘अंकिता का…’’ रिसीवर उठातेउठाते चहक उठी शोभना.

‘‘हां, अंकिता बोल रही हूं मम्मा…सारी मम्मा…इस बार गरमी की छुट्टियों में मैं नहीं आ सकूंगी…प्लीज, मम्मा, बुरा मत मान जाना…क्या करूं…गांव से तुषार के मांबाबूजी आ रहे हैं…अब हमारे ही पास रहेंगे वह…तुम्हीं बताओ, ऐसे में मैं कैसे आ जाऊं तुम्हारे पास, तुषार को भी बुरा लगेगा…’’ अब कैसे कहती बेचारी शोभना कि अपने फर्ज भूल कर यहां आ जाओ…वैसे भी वह उन दोनों पतिपत्नी में होने वाले टेंशन का कारण खुद को ही मानती है.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं… अंकिता थी…कह रही थी, इस बार गरमियों में नहीं आ सकेगी…’’ बस, इस बार की ही बात तो है नहीं है यह…होली हो, दीवाली हो या कोई भी अवसर…यही होता है…कोई न कोई बहाना सब के पास होता है, किसी न किसी मजबूरी की आड़ में सब खड़े हो जाते हैं…

‘‘ओ हो, तो क्या हो गया…’’ उस के चेहरे की उदासी को निहारते हुए कहा था मैं ने, ‘‘चलो, इसी वक्त फोन से और सब का भी प्रोग्राम पता कर लेते हैं,’’ फिर शुरू हो गया, वही एक सिलसिला…सब से पहले मोहित से पूछा, ‘‘हां बेटा, क्या प्रोग्राम है, तुम सब का? कब आ रहे हो?’’

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‘‘नहीं, डैडी, ममता इस बार अपने मायके जाने की जिद कर रही है…फिर बच्चे भी हर बार एक ही जगह जाजा कर बोर हो चुके हैं…’’

‘‘ठीक है, ठीक है बेटा, कोई बात नहीं…’’ कह कर फोन रख दिया मैं ने.

थोड़ी देर बाद मैं मयंक का नंबर डायल करने लगा, ‘‘हैलो, बेटा…’’ पता नहीं क्यों, चाह कर भी आवाज में कोई जोश न ला सका मैं, ‘‘कैसे हो?’’

‘‘ठीक हूं डैड, आप लोग कैसे हो?’’

‘‘बहुत अच्छे, बेटा…क्या प्रोग्राम है तुम सब का?’’

‘‘डैड, अभी तक तो हम ने कुछ भी सोचा ही नहीं है…’’ उस की जबान की लड़खड़ाहट क्षण भर में ही इस बात का एहसास करा गई कि हमारी छोटी बहू उस के करीब ही खड़ी होगी, ‘‘आप लोगों को तो पता ही है न, कविता ने अभीअभी जाब चेंज किया है डैड, हमें नहीं लगता कि हम आ पाएंगे…सारी डैड…’’

अब मीता से क्या पूछना, उन डाक्टर पतिपत्नी के पास कहां वक्त होगा हमारे लिए…फिर भी…नंबर डायल करने के लिए उंगलियां बढ़ाई थीं कि शोभना ने आगे बढ़ कर रिसीवर मेरे हाथ से ले लिया और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. बोली, ‘‘रहने दो, कोई जरूरत नहीं है सब के सामने गिड़गिड़ाने की…अगर उसे आना होगा तो खुद ही खबर करेगी.’’

जी में आया कहूं कि शोभना, ये तुम कह रही हो?…लेकिन नहीं…कुछ नहीं कह सका मैं…दोचार दिनों तक हमारे बीच संवाद के सारे सूत्र ही जैसे खो से गए…चारों तरफ…वातावरण में…खामोशी सी पसरी रहती…शोभना सारे दिन आराम करती, फिर भी हर वक्त थकीथकी सी नजर आती…मैं सारेसारे दिन व्यस्तता का उपक्रम कर के भी खालीपन सा महसूस करता…

चाय पीतेपीते शोभना अचानक ही चौंक पड़ी, ‘‘नरेंद्र, तुम ने कुछ कहा क्या?’’

‘‘नहीं तो…’’ मेरी नजरें फिर से पेपर पर गड़ गईं…पर मन, पेपर से हट कर कुछ और ही सोचता रहा…शोभना को बारबार ऐसा क्यों लगता है कि जैसे मैं ने कुछ कहा हो…कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी तरह उस के मन को भी अकेलापन डस रहा हो…

‘‘देखो न नरेंद्र, वक्त तो आज भी अपनी ही रफ्तार से भागा चला जा रहा है, तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि जैसे हम ही ठहर गए हों…’’ उस ने दूर झुंड बना कर खेल रहे बच्चोंको देखते हुए कहा, ‘‘नरेंद्र, कभीकभी तो मुझे ऐसा लगता है मानो हम कारवां से अलग हो चुके हैं…’’

‘‘कैसी बातें करती हो शोभना. जानती तो हो, मुझे इस तरह की बातें पसंद नहीं…तुम्हें पता है न कि मैं उन लोगों में से नहीं हूं और न ही तुम्हें उन लोगों में शामिल होने दूंगा जो कारवां गुजर जाने के बाद गुबार देखने के लिए खड़े रह जाते हैं…चलो, उठो, आज कहीं बाहर घूम आते हैं.’’ उस के माथे पर पड़े बल मुझ से छिपे न रहे… किसी अबूझ पहेली में उलझी वह मेरी तरफ देखने लगी, ‘‘कहां?’’

‘‘कहीं भी…नदी के किनारे या किसी पार्क में…मंदिर या फिर आश्रम…’’

मैं उठ खड़ा हुआ था. शोभना खामोश मेरे साथसाथ चल पड़ी… कई बार सहारा देने के बहाने मैं ने उस का हाथ भी थामा…

बहुत दिनों बाद इस तरह खुली हवा में सांस लेना मुझे अच्छा लग रहा था…शायद शोभना को भी अच्छा लग रहा था खुले आसमां के नीचे हरी घास पर बैठना.

मेरा मन मानो मुझे ही झकझोर कर पूछने लगा, ‘हम रोज क्यों नहीं निकलते घर से…’ क्या जवाब देता मैं अपने मन को. बस, शोभना को निहारता रह गया.

कैसी बुझीबुझी सी…कितनी उदास लग रही है वह आज…कितना मुरझा गया है उस का चेहरा…

‘‘शोभना, जरा याद कर के बताना तो, आज क्या है?’’

‘‘ओहो…पहेलियां क्यों बुझा रहे हो नरेंद्र, जो कुछ भी कहना है साफसाफ कहो न.’’

‘‘सच, कुछ याद भी है तुम्हें…’’

‘‘कहीं तुम आयुशी के जन्मदिन की बात तो नहीं कर रहे, नरेंद्र?’’

‘‘जी हां…इंतजार कर रही होगी वह अपनी दादी का…याद नहीं, जब तक हम केक और नए कपड़े ले कर नहीं पहुंचें वह मुंह लटकाए बैठी रहती है…’’

‘‘तो आप इसीलिए आज आश्रम चलने की बात कर रहे थे…’’

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‘‘जी हां…तुम भी न शोभना, कितनी अजीब हो…जो तुम्हारी ममता का मोल नहीं समझते उन पर प्रेम लुटाती हो और जो तुम्हारी ममता को तरसते हैं उन्हें…’’ देखती रह गई थी शोभना मुझे. सोच रही होगी, ऐसा क्यों कह रहा हूं मैं…उसे क्या पता मैं कौन सी घटना याद दिलाना चाह रहा हूं उसे…एक बार जब बच्चे आए थे और शोभना मचल रही थी उन में से किसी को गोद में लेने के लिए…कभी किसी की तरफ लपकती तो कभी किसी की…बच्चे थे कि मां के आंचल के पीछे छिपे जा रहे थे और उन के मातापिता उन्हें समझाने में लगे थे, ‘हैलो करो बेटा, ग्रैंड पा को…एक छोटी सी किस्सी दे दो न ग्रैंड मम्मा को…’ अंत क्या हुआ था, शोभना खिसियाई सी मेरे पीछे यह कहते हुए आ खड़ी हुई थी कि ‘बच्चे हैं, दोचार दिन में हिलमिल जाएंगे.’ बहुत भोली है, इतना भी नहीं समझती कि कौन रहने देगा इन्हें दोचार दिन हमारे साथ…

‘‘एक बात बता दूं, मुझे खूब याद  है आयुशी का जन्मदिन. ये देखो, मैं ने तो उस के लिए गिफ्ट भी ले कर रखा है,’’ उस ने अपने बैग से एक पैकेट निकाल कर मुझे दिखाते हुए कहा.

शोभना, हम उन के जीवन के खालीपन को भरने की कोशिश करते हैं तो वे भी तो हमारे मन के सूनेपन को भरते हैं…याद है, ऐसे ही पिछली बार हम बहुत दिनों बाद आश्रम गए थे तो नन्ही अर्चिता तुम से कितनी नाराज हो गई थी, तुम्हारे पास ही नहीं आ रही थी…मेरी गोद में आ दुबकी थी और मोहिता…कितने नखरे करने के बाद आई थी तुम्हारे पास. 4 साल का अक्षत बिलकुल अपने मयूर जैसा लगता है न…उसी बार की तो बात है, जब हम चलने को हुए तो पता चला कि 7 साल का अर्पित बुखार से तप रहा है…वहीं ठहर गए थे हम, तुम सारी रात उसे गोद में लिए बैठी रहीं…उस के माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रहीं…लगता है इतने वर्षों से साथ रहतेरहते मुझ पर भी शोभना का असर हो गया है. शोभना को वर्तमान में जीना सिखातेसिखाते मुझे भी जाने कब उस की ही तरह अतीत की गलियों में भटकना अच्छा लगने लगा…

‘‘…अच्छा छोड़ो यह सब…अब हम सब से पहले मार्केट चलते हैं…बच्चों के लिए कुछ फल, मिठाइयां और खिलौने लेंगे, फिर आश्रम चलेंगे…ठीक है न?’’ मैं ने अपनी हथेली शोभना की ओर बढ़ा दी.

सहारा ले कर वह उठ खड़ी हुई. आज बहुत दिनों बाद मैं ने देखा कि उस की आंखें चमक उठीं…उस का चेहरा खिल उठा, लाख गमों के बावजूद उस के होंठों पर मुसकराहट खेलने लगी, मैं भी मुसकराए बगैर कहां रह सका था.

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