आ अब लौट चलें : भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अगले ही दिन से फुलवा ने काम करना शुरू कर दिया. वह दिनेश के काम पर जाने के बाद घर से निकली और पूरे महल्ले में अपने काम का नमूना ले कर सब को दिखा आई और साथ में यह बताना भी नहीं भूली कि जिस किसी को कढ़ाई आदि करवानी हो, तो इतने पैसे के साथ उस से बात करें.

खूबसूरती बहुत से कठिन कामों को भी आसान बना देती है. फुलवा खूबसूरत होने के साथसाथ व्यवहार में भी अच्छी थी. जल्द ही फुलवा के काम को लोगों ने पसंद किया. काम के और्डर भी आने लगे और आमदनी भी अच्छी होने लगी.

थोड़ीबहुत दिनेश की कमाई से बचा कर और बाकी अपनी कमाई से अब वे दोनों इस हालत में आ गए थे कि एक नई साइकिल खरीद सकें.

ये भी पढ़ें- फलक से टूटा इक तारा : सान्या का यह एहसास

और वह दिन भी आ गया, जब दिनेश और फुलवा ने पैसे गिने और साइकिल लेने के लिए मार्केट की ओर चल दिए.

आज फुलवा के चेहरे पर खुशी का रंग देखते ही बनता था. उस की गुलाबी साड़ी उस के चेहरे की आभा के आगे फीकी लग रही थी.

‘‘तभी तो राह आतेजाते लोग फुलवा को ही देख रहे हैं,” मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.

अपने मनपसंद रंग वाली साइकिल खरीद कर दिनेश बहुत ही खुश हो रहा था. उस ने साइकिल में घंटी भी लगवाई.

‘‘शहरों में घंटी सुनता ही कौन है… पर, हम जब मौज में होंगे तो इसी को बजा लिया करेंगे…

“और हां… वो गद्दी जरा मोटे फोम वाली लगाना भैया, ताकि कोई परेशानी न हो हमें… और एक कैरियर भी लगा देना पीछे… कभीकभी कुछ सामान ही रखना हो तो रख लो और आराम से चलते बनो.”

दिनेश कभी फुलवा को निहार रहा था, तो कभी अपनी नईनवेली साइकिल को.

पहले सोचा कि फुलवा को आगे वाले डंडे पर बिठा कर कोई गाना गाते हुए चल दें… लेकिन, फिर कुछ अच्छा नहीं लगा, तो पीछे कैरियर पर ही बिठा लिए और रास्ते भर गाना गाते और घंटी बजाते घर चला आया.

महल्ले में सब ही दिनेश को देखे जा रहे थे और दिनेश अपनी नई साइकिल के नशे में ही अकड़ा जा रहा था.

उस का आंगन कई किराएदारों का साझा आंगन था और बहुत गुंजाइश इस बात की भी थी कि निकलतेबैठते कोई जलन के कारण दिनेश की नई साइकिल को खरोंच ही मार दे.

हालांकि फुलवा ने रास्ते में ही बुरी नजर से बचने के लिए काला धागा खरीद कर बांध दिया था साइकिल के हैंडल पर, फिर भी सुरक्षा अपनाने में क्या जाता है, इसलिए दिनेश ने अपनी साइकिल को सब से अलग एक कमरे के पिछवाड़े वाले हिस्से में खड़ा करना शुरू कर दिया.

दिनेश जब साइकिल खड़ी कर के आ रहा था तो सामने फुलवा खड़ी मुसकरा रही थी. दिनेश के मन में भी अपनी पत्नी के लिए प्यार उमड़ आया और मस्ती भरी निगाहों से उस से बोला, ‘‘अरे फुलवा, आज तो नई साइकिल आई है… तो आज कुछ खट्टामीठा होना चाहिए.‘‘

‘‘खट्टामीठा… क्या मतलब है तुम्हारा, मैं कुछ समझी नहीं.‘‘

‘‘कुछ ऐसा काम करो, जो जबान का स्वाद खट्टा कर के भी मन को भा जाए और मीठा का मतलब जब तुम मुझे देखो और मैं तुम्हे देखूं और हम लोगों का मुंह अपनेआप मीठा हो जाए,‘‘ कह कर दिनेश ने फुलवा की तरफ आंख मारी, ‘‘धत्त… बेशर्म कहीं के.‘‘ और इतना कह कर फुलवा पीछे की ओर मुड़ी तो दिनेश ने अपने दोनों हाथों से उस के सीने को भींच लिया और बेतहाशा प्यार करने लगा.

दिनेश के हाथ फुलवा की गरदन पर फिसल रहे थे. उस की इन हरकतों से फुलवा भी जोश में आ गई और कमरे में 2 जिस्मों के दहकने की आवाजें साफ सुनाई देने लगीं. कुछ ही देर बाद कमरे का बढ़ा हुआ ताप धीरेधीरे ठंडा हो गया.

सुबह हुई तो नई साइकिल उठा कर दिनेश मिल की तरफ चला गया. जाते समय बड़ी शान से फुलवा से टाटा बायबाय करते हुए गया.

साइकिल के आ जाने से अब सबकुछ सही था. न ही दिनेश को किसी की डांट सुननी और न ही किसी सवारी का इंतजार करना पड़ता. और इधर फुलवा को भी इधरउधर से काम मिल जाता, जिस से कामकाज की गाड़ी अब पटरी पर चल रही थी.

ये भी पढ़ें- टीसता जख्म : उमा पर अनवर ने लगाए दाग

अपने काम पर जाने से पहले अपनी साइकिल को रगड़ कर पोंछना दिनेश के रोज के कामों में शामिल हो गया था और उस के इस तरह ध्यान रखने से मानो साइकिल भी खुश हो कर उसे धन्यवाद कहती थी.

एक तो महल्ले में फुलवा की जवानी और उस के भड़काऊ कपड़ों की चर्चा पहले से ही थी, फिर उस के काम के हुनर को देख कर महल्ले के लोग उस का लोहा मान गए थे और अब फुलवा ने अपने पति को जो नई साइकिल दिलवा दी. अब महल्ले में दिनेश की साइकिल चर्चा और जलन का केंद्र बनी हुई थी.

रविवार वाले दिन उसी के महल्ले का एक लड़का मनोज दिनेश से बोला, ‘‘अरे भाई दिनेश, आज तो तुम्हें काम पर जाना नहीं है. मुझे थोड़ा तुम्हारी साइकिल की जरूरत है… अगर मिल जाती तो बड़ी मेहरबानी होती.”

साइकिल मांगने की बात पर दिनेश का मूड थोड़ा उखड़ गया. उस की आवाज में तल्खी सी आ गई, ‘‘क्यों…? मेरी साइकिल की भला तुम्हें क्या जरूरत आ पड़ी.”

‘‘गोदाम तक जा कर सिलेंडर लाना है. बस यों गया और यों आया,‘‘ मनोज ने विनम्रता से कहा.

‘‘नहीं भाई… मुझे भी आज जरा फुलवा को ले कर अस्पताल तक जाना है, इसलिए साइकिल तो मैं नहीं दे पाऊंगा.‘‘

दिनेश के इस तरह मना कर देने से मनोज को काफी निराशा हुई और वह मुंह लटका कर वहां से चला गया.

‘‘हुंह… साइकिल न हो गई मानो कोई ठेला हो गया, जिस पर सिलेंडर लाद देंगे… अरे, इतना भारी सिलेंडर मेरी साइकिल के कैरियर को न पिचका देगा भला… महल्ले में और लोग भी तो हैं उन की साइकिल मांगो जा कर,‘‘ मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.

ये भी पढ़ें- रिश्ता : कैसे बिखर गई श्रावणी

बस कुछ इसी तरह से कट रही थी फुलवा और दिनेश की जिंदगी. अपनी ही दुनिया में मस्त. जिंदगी के हर पल का मजा उठाते हुए, पर इन की खुशियों को एक झटका सा तब लगा, जब एक दिन अचानक देश के प्रधानमंत्री ने टीवी पर आ कर पूरे देश में लौकडाउन का ऐलान कर दिया. लौकडाउन अर्थात सब कामधाम बंद, सारी दुकानें, साप्ताहिक बाजार सब बंद, सारे कारखाने बंद…

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

आ अब लौट चलें : भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

यों तो फुलवा और दिनेश की शादी हुए 3 साल हो गए थे, पर दिनेश को लगता था जैसे उस के ब्याह को अभी कुछ ही रोज हुए हैं.

फुलवा को निहारते रहने के बाद भी उस का मन नहीं अघाता था. काम पर जाने से पहले फुलवा से मन भर के बातें करता और काम से जब घर लौटता तो फुलवा भी अपने पति के इंतजार में होंठों पर लाली और मांग में सिंदूर भर कर एक मधुर मुसकराहट के साथ दिनेश का स्वागत करती तो दिनेश की तबीयत हरी हो जाती.

ये भी पढ़ें- कल्लो : क्या बचा पाई वो अपनी इज्जत

दिनेश फुलवा को अपनी बांहों में भर लेता और उसे पागलों की तरह चूमने लगता, फुलवा भी उस का साथ देती, पर कभीकभी दिनेश का यह बहुत उतावलापन फुलवा को अखरने लगता था, वह दिनेश को पीछे धकेल देती और चाय बनाने का बहाना कर के अपना पीछा छुड़ा लेती, पर फिर भी दिनेश उस के पीछेपीछे पहुंच जाता.

‘‘अरे फुलवा, हम जानते हैं कि तुम तो यहां पाउडर, क्रीम लगा कर बैठी हो और हम आए हैं बाहर से धूलगरदा में सन कर और पसीना में लथपथ हो कर… तभी तो तुम हमारी बांहों में आने से कतरा जाती हो…

‘‘अरे, पर हम भी क्या करें, जब तक तुम को बांहों में कस कर नहीं भर लेते हैं… और दोचार चुम्मा नहीं ले लेते हैं, तब तक हमारे कलेजे में भी ठंडक नहीं पड़ती है.”

‘‘अरे नहीं ना… ऐसी तो कोई बात नहीं है… अपना मरद तो हर हाल में अच्छा लगता है… उस के बदन की महक तो हमेशा ही अच्छी लगती है… अरे, हम तो इस मारे जल्दी से हट जाते हैं कि आप थकेहारे आए हो काम से तो हम आप के लिए कुछ चायनाश्ता बना दें चल कर.”

फुलवा की इन प्यार भरी बातों का दिनेश के पास कोई जवाब नहीं होता, बदले में वह सिर्फ मुसकरा कर रह जाता.

दिनेश का फुलवा के लिए प्यार बेवजह नहीं था, फुलवा थी ही ऐसी…

लंबा शरीर, सुतवां चेहरा, सांवला रंग और गांव में मेहनत करने के कारण उस का अंगअंग कसा हुआ  था, ऐसा लगता था कि उस के शरीर को किसी ढांचे में ढाल कर बनाया गया है.

फुलवा जब से अपने शहर के महल्ले में ब्याहने के बाद आई थी, तब ही से महल्ले के मनचले उस की एक झलक पाने के लिए बेचैन रहते थे, जिस का बहुत बड़ा कारण था फुलवा का पहनावा.

फुलवा अपनी गहरी नाभि के नीचे लहंगा पहनती और उस के दो इंच ऊपर सीने पर कसी हुई चोली, और इस पहनावे में जब वह नीचे टंकी पर पानी लेने जाती तो महल्ले के मनचले सारा कामधाम छोड़ कर उसे एकटक निहारते रहते.

ऐसा नहीं था कि दिनेश को इस बात की भनक नहीं थी कि महल्ले में फुलवा के पहनावे और उस की खूबसूरती के चर्चे हैं और इसीलिए वह जब एक दिन काम से घर आया तो फुलवा के लिए एक साड़ी ले आया और रोमांटिक अंदाज में बोला, ‘‘देखो फुलवा, अब शहर में तुम रहने आई हो, इसलिए अब ये गांव वाले कपडे़ तुम पर अच्छे नहीं लगते… और वैसे भी इन कपड़ों में लड़के तुम्हारे अंगों को घूरते हैं. यह मुझे अच्छा नहीं लगता है, इसलिए अब तुम ये साड़ी पहना करो.”

दिनेश की ये प्यारभरी भेंट देख कर फुलवा बहुत खुश हुई और तुरंत ही साड़ी को अपने बदन पर रख कर देखने लगी और दिनेश को खुश होते हुए एक चुंबन दे दिया.

दिनेश शहर की एक आटा मिल में मुंशीगीरी करता था. मिल उस के कमरे से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर थी, इसलिए उसे रोज या तो बस या फिर टैंपो का सहारा लेना पड़ता था, जो कि खर्चीला तो था ही, साथ ही साथ सवारी पकड़ने के लिए उसे मुख्य सड़क तक आना पड़ता था. इन सब में दिनेश का डेढ़ घंटा व्यर्थ जाता था और फिर भी कभीकभी देर हो जाने पर अपने से सीनियर अधिकारी की डांट भी सुननी पड़ती थी.

एक दिन आटा मिल में दिनेश जब थोड़ी देरी से पंहुचा तो उसे अधिकारी की ऐसी डांट मिली कि मन ही मन उस ने फैसला कर लिया कि अब वह इस शहर में नहीं रहेगा और गांव में जा कर जो थोडीबहुत खेती है, वही देखेगा और आराम से अपने छप्पर के नीचे सोया करेगा. किसी कमबख्त की डांट तो नहीं सुननी पड़ेगी और घर आ कर उस ने अपने मन की बात पत्नी फुलवा को बताई.

ये भी पढ़ें- लक्ष्मण रेखा : धैर्य का प्रतिबिंब थी मिसेज राजीव

फुलवा ने ठंडे दिमाग से उस की बात सुनी, पर वह 3 साल पहले ही गांव से आई थी. लिहाजा, गांव में होने वाली परेशानियां उस से छिपी नहीं थीं और न ही स्वयं फुलवा ही गांव में रहना चाहती थी. उसे तो शहर की जिंदगी ही अच्छी लगती थी.

फुलवा ने दिनेश को समझाते हुए कहा, ‘‘अब अगर आप थोड़ा सा लेट हो गए, आप से बडे़ अधिकारी ने कुछ कह भी दिया तो इस में शहर छोड़ कर भागने जैसी कौन सी बात है. गांव में हमारे बाबूजी कहा करते थे कि अगर कोई समस्या हो, तो उस की जड़ में जाना चाहिए… समाधान वहीं छिपा होता है…

“और आप की समस्या है कि आप देर से मिल मेें पहुंचत हो… अब अगर आप रोजरोज देर से पहुंचोगे तो डांट तो पड़ेगी ही न… कुछ ऐसा क्यों नहीं करते, जिस से आप मिल में समय पर पहुंच जाओ.”

‘‘क्या करूं फुलवा… सवारी पकड़ने के चक्कर में देर हो जाती है… कभी तो बस देर से आती है, तो कभी इतनी भरी होती है कि मैं उस में बैठने की हिम्मत नहीं कर पाता हूं,” दिनेश ने लाचारी से कहा.

‘‘तो तुम अपनी सवारी क्यों नहीं खरीद लेते,” फुलवा ने उपाय सुझाया.

‘‘क्या मतलब… हम बस, ट्रक खरीद लें क्या…?” यह सुन कर दिनेश चौंक पड़ा.

‘‘नहीं… बस, ट्रक नहीं, अपनी सवारी… मैं तो साइकिल वगैरह की बात कर रही थी.”

‘‘हां… साइकिल ठीक रहेगी… आराम से जब मन हुआ चल दिए… घंटी बजा कर और छुट्टी में भी न किसी सवारी का मुंह देखना और न ही लेट हो जाने के डर से डांट सुनने का डर.‘‘

एक पल को तो ऐसा सोच चहक उठा था दिनेश… पर, अगले ही पल मायूस हो गया.

‘‘पर फुलवा, एक अच्छी साइकिल 3 से 4 हजार रुपए में आती है… और तुम तो जानती हो कि हमारी तनख्वाह ही 5 हजार रुपए है… हम अगर साइकिल ले भी लेंगे तो तुम को क्या खिलाएंगे,‘‘ दिनेश ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘हां, समस्या तो है, पर हम अपने गांव में अम्मां से जूट के बोरे पर बहुत अच्छी कढ़ाई करना सीखे हैं… सुना है, शहर में इस काम की बहुत मांग है. हम यहां महल्ले में अगलबगल के लोगों से काम लाएंगे और उस से हमारी आमदनी भी होगी और पहचान भी बनेगी.

“और जब हम और तुम दोनों मिल कर कमाएंगे तो साइकिल के लिए पैसा जल्दी जुट जाएगा न…‘‘ फुलवा ने खुशी से अपनी आंखें घुमाते हुए कहा.

आधेअधूरे मन से दिनेश ने अपनी रजामंदी दे दी.

ये भी पढ़ें- फलक से टूटा इक तारा : सान्या का यह एहसास

दरअसल, गांव की जिंदगी किस्सों और फिल्मों के लिए तो बहुत अच्छी है, पर जिन्होंने गांव की गरीबी देखी है, भुखमरी और अकाल देखा है, उन के दिल से पूछिए और इसीलिए फुलवा बिलकुल भी गांव नहीं जाना चाहती थी और इसीलिए वह दिनेश को मनाए रखने के लिए सारे प्रयास कर रही थी, भले ही इस के लिए उसे खुद भी काम करना पड़ जाए.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

आ अब लौट चलें

चार बीवियों का पति

ये कैसी सजा

  • नाबालिगों को पेड़ से बांधकर दी सजा की पिटाई..
  • आपत्तिजनक स्थिति में मिले नाबालिक..
  • ग्रामीणों ने की लड़के की जमकर पिटाई..
  • दोनों नाबालिगों को पेड़ से बांधकर दी सजा..
  • घंटों बांधकर रकहा दोनों को की बेइज्जती और पिटाई..
  • जानकारी लगाने पर पुलिस मौके पर दोनों को छुड़ाया..
  • बांधकर बुलाई पंचायत परिवार में हुआ आपसी समझौता..
  • माडा थाना क्षेत्र सितुल गांव की घटना..
  • वीडियो सोशल मीडिया पर हुआ वॉयरल..

मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले के सितुल गांव में 2 नाबालिगों को पेड़ से बांधकर सज़ा देने का मामला सामने आया है. जहां नाबालिग लड़के और लड़की को कई घंटो तक पेड़ से बांधकर पीटा गया. उक्त घटना का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वॉयरल हुआ है.

ये भी पढ़ें- मनगढ़ंत अपराध का दंड

जानकारी के अनुसार नाबालिक लड़के और लड़की को गांव वालों ने एक नदी के किनारे आपत्तिजनक स्थिति में देखा, जिसके बाद उन्हें उन दोनों को पकड़कर ग्रामीणों ने एक पेड़ में बांध कर कई घंटो तक रखा और पिटाई भी की. और फिर पंचायत बुलाई गई.

मामले की जानकारी पुलिस को लगी तो वह मौके पर पहुंची और पेड़ से बंधे नाबालिगों को छुड़ाया, जहां पुलिस दोनों नाबालिक लड़के-लड़की को थाने ले गये. बाद मे दोनों के परिवारजनों की आपसी सहमति से समझौता/सुलह हो गया और पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया.

नाबालिगों से पेड़ मे बांधकर इस तरह की क्रूरतम सजा देने की उक्त घटना का वीडियो सोशल मीडिया में वॉयरल हो गया है. जिसपर कई सवाल खड़े हो रहे हैं.

मामला चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि आज़ाद भारत में तालिबानी सज़ा का प्रावधान नहीं है बाबजूद इसके लोगों ने कानून को हाथ में लेकर इस तरह के जघन्य अपराध को अंजाम दिया.

ये भी पढ़ें- दगाबाज दोस्त, बेवफा पत्नी

मामले में पुलिस भी मौके पर पहुंच गई और दोनों को छुड़ाया भी बाबजूद इसके पुलिस ने तालिबानी सजा देने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं की यह एक बड़ा सवाल है.

यहां मामला दो नाबालिगों का है जहां लोगों ने कानून अपने हाथ में लेकर दोनों को पेड़ से बांधकर पीटा जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है. हालांकि अब इस मामले में पुलिस प्रशासन को चाहिए कि सजा देने वालों पर कड़ी से कड़ी कार्यवाही करे.

मनगढ़ंत अपराध का दंड

अपराध अपराध होता है. मगर उसके भी रंग अनोखे होते हैं कभी हम कल्पना भी नहीं कर सकते की अपराध कैसे कैसे रंग रूप में हमारे आसपास घटित होते हैं. अगर आप में थोड़ी भी समझदारी है तो अपराध के रंगों को देखकर आप जीवन में कुछ ऐसी गांठ बांध सकते हैं जो आपको आजीवन अपराध से मुक्त व्यापार सुरक्षित रखेगा.

है ना यह अजीब बात! आज हम आपको इस लेख में मनगढ़ंत अपराध के रंग दिखाने जा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह खबर आग की तरह फैल गई कि खमतराई के पास एक शख्स से 10 लाख  रुपए की लूट हो गई है. कोरोना वायरस के इस समय काल में इस अपराध की तीखी प्रतिक्रिया हुई और लोग तरह तरह की बातें करने लगे. इधर पुलिस  परेशान थी और उसके ऊपर एक जिम्मेदारी थी कि किसी भी तरह इस केस को डिटेक्ट करके दिखाएं.

ये भी पढ़ें- दगाबाज दोस्त, बेवफा पत्नी

और आपको आश्चर्य होगा 12 घंटे के भीतर पुलिस ने इस लूट के मामले का पर्दाफाश कर दिया. और यह सनसनीखेज तथ्य सामने आया कि यह पूरी लूट की घटना मनगढ़ंत थी यानी प्रार्थी ने पूरे प्लान के साथ लूट की घटना की कहानी बनाई और पुलिस के सामने मानो प्लेट में सज़ा कर रख दी.

क्या और कैसे हुआ इस लूट कांड में, यह सब आपको हम बताएं उसके पहले ऐसे ही कुछ  अपराध की बानगी आपके समक्ष प्रस्तुत है-

पहला  मामला- दुर्ग शहर में  20 वर्ष की एक युवती घर से गायब हो गई. परिजनों को फोन आया मिनी का अपहरण कर लिया गया है. घर परिवार और शहर में हंगामा खड़ा हो गया पुलिस जांच में जुट गई जब मामला पर से पर्दा उठा तो यह तथ्य सामने आया कि युवती ने अपने अपहरण की मनगढ़ंत कहानी बनाई थी उसकी मंशा अपने पिता से 10 लाख  रुपए वसूली का था.

दूसरा मामला- रायपुर जिला के तिल्दा में शख्स ने थाने में यह रिपोर्ट दर्ज कराई कि उसके यहां ताला तोड़कर सोना चांदी नकद सहित 15 लाख रुपए की चोरी हो गई है. पुलिस ने जब जांच पड़ताल की तो यह तथ्य सामने आ गया कि मामला पूरी तरह से मनगढ़ंत था.

तीसरा मामला- कोरबा नगर में एक युवती थाने पहुंची और नगर के एक व्यक्ति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई कि यह मुझे उठा ले गया और मेरे साथ बलात्कार किया. पुलिस जांच में यह तथ्य सामने आ गया की ऐसी कोई घटना घटित नहीं हुई है और मामला पूरी तरह मनगढ़ंत है.

लाखों की लूट का सच

आगे, राजधानी रायपुर के खमतराई थाना अंतर्गत लूट की सच्चाई की कहानी  नीचे प्रस्तुत है-

पुलिस ने पूरी जांच के बाद इस मामले में प्रार्थी कुलेश्वर साहू से जब कड़ाई से पूछताछ की तो उसने पूरी कहानी पुलिस के सामने उगल दी. खुलासे के बाद इस मामले में पुलिस ने कुलेश्वर के भांजे और उसके दोस्त को भी अब गिरफ्तार कर लिया है.

ये भी पढ़ें- मासूम किशोरी के साथ वहशीपन का नंगा नाच

खमतराई पुलिस के सनसनीखेज खुलासे के अनुसार  लकड़ी कारोबारी भरत पटेल के यहां मुंशी का काम करने वाले कुलेश्वर साहू  ने  8 अगस्त को टिम्बर मार्केट के व्यापारियों कें यहा से साढ़े दस लाख रुपये वसूली कर लौट रहा था. तभी डीआरएम ऑफिस के सामने ओवरब्रिज पर दो बाइक सवार युवक आकर उससे पैसा छीनकर फरार हो गए . पीड़ित ने पुलिस को पूछताछ में जो लूट की घटना की कहानी बताई  तो पुलिस को पहले ही नजर में मामला अविश्वसनीय प्रतीत हुआ. पुलिस के पास पहुंचे प्रार्थी कुलेश्वर साहू पर पुलिस को यकीन नहीं हो रहा था. अगर मामले की पड़ताल करना उसकी जिम्मेदारी थी सो जांच के दौरान पुलिस जब प्रार्थी के घर पहुंची तो अचानक उसका पड़ोसी अपना मोबाइल मांगने आ गया . पुलिस को शक गहरा हो गया  जब उसने किसी भी  मोबाइल लेने की बात से इनकार कर दिया. उसके संदिग्ध व्यवहार को देखकर पुलिस को शक हुआ और जब जांच की तो मामला परत दर परत खुलता चला गया.

पुलिस की पूछताछ मे कुलेश्वर साहू ने अंततः स्वीकार कर लिया.

दरअसल, पड़ोसी के मोबाइल का इस्तेमाल कुलेश्वर साहू ने लूट में शामिल अपने भांजे को कॉल करने के लिए किया था. कुलेश्वर ने दुर्ग जिला के पाटन के रहने वाले अपने भांजे और उसके दोस्त के साथ मिलकर इस लूट की वारदात की योजना बनाई थी. पुलिस ने उसके भांजे के पास से लूटी गई रकम बरामद कर तीनो को गिरफ्तार कर लिया और अब मनगढ़ंत लूट का किस्सा गढ़ने वाले तीनों शख्स रायपुर के सेंट्रल जेल में हवा खा रहे हैं.

मनगढ़ंत अपराधों के संदर्भ में पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा बताते हैं दरअसल, ऐसे अपराधों के पीछे मानसिकता यह होती है कि कानून की आंखों में धूल झोंक कर रातों रात मालामाल हो जाएं. मगर वे नहीं जानते आज अनुसंधान में ऐसी ऐसी विधियां इजाद हो गई है की अपराधी का बचना नामुमकिन है और मनगढ़ंत अपराध के लिए भारतीय दंड विधान की धारा में सख्ती बरतते हुए दंडनीय है. अतः कभी भी ऐसा अपराध करने की हिमाकत नहीं करनी चाहिए. उच्च न्यायालय के अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल के अनुसार ऐसे अपराधों में आरोपी को न्यायालय 3 से 7 वर्ष तक की सजा दिया करती है. क्योंकि यह माना जाता है ऐसे अपराध कारित करने वाले आरोपी कथित रूप से समाज के लिए खतरनाक है.

ये भी पढ़ें- पटरियों पर बलात्कर

दगाबाज दोस्त, बेवफा पत्नी

रिश्ता : भाग 2- कैसे बिखर गई श्रावणी

अनुभवी अम्मां ने मुझ से कुछ निजी प्रश्न पूछे फिर हंस दीं, ‘ये उलटियां बदहजमी की वजह से नहीं हैं. मुझे तो लगता है खुशखबरी है.’

सुन कर आकाश के पैरों तले की जमीन खिसक गई. वह मुझे डा. मेहरा के क्लिनिक पर ले गए. जांच के बाद डाक्टर ने जैसे ही मुझे गर्भवती घोषित किया, आकाश के चेहरे का रंग उड़ गया. वह इस खबर को सुन कर खुश नहीं हुए थे. तुरंत डा. मेहरा के सामने अपने मन की बात जाहिर कर दी थी, ‘डाक्टर, हमें यह बच्चा नहीं चाहिए.’

‘क्यों?’

‘परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि हम बच्चे के दायित्व को उठाने के लिए सक्षम नहीं हैं.’

आकाश के चेहरे पर बेचारगी के भाव देख कर मैं हैरान रह गई थी. वह सृजनकर्ता मैं धरती? बीज को पुष्पितपल्लवित होने से पहले ही उसे समूल उखाड़ कर फेंक देने को तत्पर… काश, मेरे पति ने मुझ से तो पूछा होता कि मैं क्या चाहती हूं.

ये भी पढ़ें- गायब : क्या था भाईजी का राज

मेरे कुछ कहने से पहले ही डाक्टर मेहरा ने उन की बात को अनसुनी करते हुए जवाब दिया, ‘आकाशजी, आप के घर 2 बरस बाद उम्मीद की किरण फूटी है. अपने इस अंश को सहेज, संभाल कर रखिए. आने दीजिए उसे इस संसार में.’

भुनभुनाते हुए आकाश घर पहुंचे. जूते की नोक से दरवाजे को धक्का दिया तो वह चरमरा कर खुल गया. उस पल अम्मां और अन्नू उन के इस रूप को देख कर सहम गए थे. आकाश से पूछताछ की तो? आंखें तरेर कर बोले, ‘श्रावणी प्रेगनेंट है.’

खुशी के अतिरेक में अन्नू ने मुझे गले से लगा लिया था. अम्मां ने उठ कर बेटे का मस्तक चूम लिया था और  बधाई देते हुए बोलीं, ‘यह तो बहुत खुशी की बात है बेटा. इस खुशखबरी को सुनने के लिए कब से कान तरस रहे थे.’

आननफानन में अम्मां ने न जाने कितनी योजनाएं बना डालीं. उधर आकाश कुछ और ही सोच रहे थे. अम्मां की बात सुन कर उन्होंने अपना आखिरी अस्त्र फेंका, ‘बराबरी तो हर समय करती हो तुम औरतें लेकिन अक्ल पासंग भर नहीं है. श्रावणी तो कमअक्ल है लेकिन आप तो समझ सकती हैं. कितने खर्चे हैं, कितनी जिम्मेदारियां हैं सिर पर? अभी तो अन्नू का ब्याह भी करवाना है. मकान की मरम्मत करवानी है. अगर श्रावणी की तबीयत यों ही गिरीगिरी रही तो इस की नौकरी भी जाती रहेगी. जो थोड़ाबहुत कमाती है वह भी निकल जाएगा हाथ से.’

अम्मां ने भाग्य और तकदीर का हवाला दिया तो आकाश बोले, ‘वह बीते जमाने की बात थी. अब ऐसा नहीं होता.’

अम्मां की हिदायतों, मेरी गुजारिशों और अन्नू की सिफारिशों के बावजूद वह चोरीछिपे डाक्टरों से मशविरा कर के, मेरा गर्भपात करवाने के लिए प्रयास करते रहे. खेल भी खुद खेलते थे, पांसा भी खुद ही फेंकते थे. सही कहा है किसी ने कि मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष स्त्री को, स्त्री के लिए ही परिभाषित करता है. वह स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं मानता. स्त्री अपने बारे में वही सोच सकती है और बन सकती है जैसा पुरुष उस को आदेश देगा.

बिट्टू को मेरी ही कोख से जन्म लेना था, इसीलिए शायद डाक्टरों ने एकमत हो कर आकाश को मेरा गर्भपात न करवाने की सलाह दी थी. उस पल आकाश के व्यवहार ने मेरे विश्वास की निधि को खो कर मेरे अंदर अविश्वास का पहाड़ जमा कर दिया था.

अन्नू के ब्याह की तारीख नजदीक आ रही थी. हालांकि अन्नू की ससुराल पक्ष से दहेज की कोई मांग नहीं रखी गई थी, लेकिन मानसम्मान और बारातियों की आवभगत की अभिलाषा सभी को होती है. मेरा और अम्मां का रिश्ता सासबहू का नहीं मां और बेटी का था, इसीलिए हम दोनों एकदूसरे की दुखतकलीफ बिना कुछ कहे ही पहचान लेते थे.

इस समय भी अम्मां की मजबूरी मैं समझ रही थी. पैसा पास न हो तो मन छोटा होता ही है. आकाश इस पूरे मामले में जरा भी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. सुबह मेरे साथ निकलते, शाम को मुझे घर छोड़ कर दोबारा निकल जाते. कहां जाते यह कई बार पूछने पर भी उन्होंने कभी नहीं बताया. अन्नू क्या कहती? बेचारी, नौकरी कर के जितनी रकम जमा की थी वह आकाश के अकाउंट में थी.

मैं ने पीहर से लाए जड़ाऊ कंगन, हीरों के कर्णफूल और सोने के 2 सैट अम्मां की गोद में रख दिए. कुछ साडि़यां भी ऐसी थीं जिन की तह भी नहीं खुली थी, क्योंकि आकाश को मेरा ज्यादा घूमनाफिरना, सजनासंवरना पसंद नहीं था, वे भी अम्मां को दे दीं. शौपिंग, हलवाइयों, कैटरर से बातचीत, कार्ड छपवाने और बांटने तक का पूरा काम मेरे जिम्मे था. आकाश की तटस्थता विचित्र थी. वह तो ऐसा बरताव कर रहे थे जैसे ब्याह उन की बहन का नहीं, किसी दूसरे की बहन का था.

अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’

अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :

‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’

मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’

‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’

मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’

मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :

ये भी पढ़ें- वापसी : वीरा के दिमाग में था कौन सा बवंडर

‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?

‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’

सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’

उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर  बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.

अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.

अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’

घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.

ये भी पढ़ें- सवाल का जवाब : रीना ने कैसे दिया जवाब

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रिश्ता : कैसे बिखर गई श्रावणी

रिश्ता : भाग 3- कैसे बिखर गई श्रावणी

कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

ये भी पढ़ें- सवाल का जवाब : रीना ने कैसे दिया जवाब

‘मैं शुरू से ही जानता था. तुम्हें ऐसे ही लोग पसंद हैं जो औरतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं और खासकर के तुम्हारी जीहुजूरी करते हैं,’ फिर मां और पापा को संबोधित कर के बोले, ‘प्रमोद जैसा लड़का ढूंढ़ दीजिए अपनी बेटी को,’ और धड़धड़ाते हुए वह कमरे से बाहर निकल गए.

आकाश का ऐसा व्यवहार मैं कई बार देख चुकी थी. बरदाश्त भी कर चुकी थी. कई बार दिल में अलग होने का खयाल भी आया था लेकिन कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिस कर वह चूरचूर हो गया. आकाश के झूठ, दंभ और पशुता को मैं इसीलिए अपनी पीठ पर लादे रही कि समाज में मेरी इमेज, एक सुखी पत्नी की बनी रहे. लेकिन आकाश ने इन बातों को कभी नहीं समझा. वहां आए रिश्तेदारों के सामने, मां की मृत्यु के मौके पर वह मुझे इस तरह जलील करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे.

तेरहवीं के दिन, शाम के समय मां और पापा ने मुझे साथ चलने के लिए कहा तो, सभ्य रहने की दीवार जो मैं ने आज तक खींच रखी थी, धीरे से ढह गई. पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता था? चुपचाप चली आई थी मां के साथ.

इसे औरत की मजबूरी कहें या मोह- जाल में फंसने की आदत. बरसों तक त्रासदी और अवहेलना के दौर से गुजरने के बाद भी, उसी चिरपरिचित चेहरे को देखने का खयाल बारबार आता था. क्रोध से पागल हुआ आकाश, नफरत भरी दृष्टि से मुझे देखता आकाश, अम्मां को खरीखोटी सुनाता आकाश, अन्नू को दुत्कारता, प्रमोदजी का अनादर करता आकाश.

मां और पापा, सुबहशाम की सैर को निकल जाते तो मुझे तिनकेतिनके जोड़ कर बनाया अपना घरौंदा याद आता, एकांत और अकेलापन जब असहनीय हो उठता तो दौड़ कर अन्नू को फोन मिला देती. अन्नू एक ही उत्तर देती कि सागर में से मोती ढूंढ़ने की कोशिश मत करो श्रावणी. आकाश भैया अपनी एक सहकर्मी मालती के साथ रह कर, मुक्ति- पर्व मना रहे हैं. हर रात शराब  के गिलास खनकते हैं और वह दिल खोल कर तुम्हें बदनाम करते हैं.

बिट्टू के जन्म के समय भी आकाश की प्रतीक्षा करती रही थी. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर मेरी आंखों में चमक लौट आती. लेकिन आकाश नहीं आए. अन्नू प्रमोदजी के साथ आई थी. मेरी पसीने से भीगी हथेली को अपनी मजबूत हथेली के शिकंजे से, धीरेधीरे खिसकते देख बोली, ‘मृगतृष्णा में जी रही हो तुम श्रावणी. आकाश भैया नहीं आएंगे. न ही किसी प्रकार का संपर्क ही स्थापित करेंगे तुम से. जब तक तुम थीं तब तक कालिज तो जाते थे. परिवार के दायित्व चाहे न निभाए, अपनी देखभाल तो करते ही थे. आजकल तो नशे की लत लग गई है उन्हें.’

अन्नू चली गई. मां मेरी देखभाल करती रहीं. लोग मुबारक देते, साथ ही आकाश के बारे में प्रश्न करते तो मैं बुझ जाती. मां के कंधे पर सिर रख कर रोती, ‘बिट्टू के सिर से उस के पिता का साया छीन कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है, मां.’

‘जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके, वह समाज में रह कर भी समाज का अंग नहीं बन सकता, न ही किसी दृष्टि में सम्मानित बन सकता है,’ पापा की चिढ़, उन के शब्दों में मुखर हो उठती थी.

मां, पुराने विचारों की थीं, मुझे समझातीं, ‘बेटी, यह बात तो नहीं कि तू ने प्रयास नहीं किए, लेकिन जब इतने प्रयासों के बाद भी तुझे तेरे पति से मंजूरी नहीं मिली तो क्या करती? साए की ओट में दम घुटने लगे तो ऐसे साए को छोड़ खुली हवा में सांस लेने में ही समझदारी है.’

‘लेकिन जगहजगह उसे पिता के नाम की जरूरत पड़ेगी तब?’

‘अब वह जमाना नहीं रहा, जब जन्म देने वाली मां का नाम सिर्फ अस्पताल के रजिस्टर तक सीमित रहता था और स्कूल, नौकरी, विवाह के समय बच्चे की पहचान पिता के नाम से होती थी. आज कानूनन इन सभी जगहों पर मां का नाम ही पर्याप्त है.’

मां की मृत्यु पर भी आकाश नहीं दिखाई दिए थे. अन्नू और प्रमोदजी ही आए थे. मैं समझ गई, जिस व्यक्ति ने मुझ से संबंध विच्छेद कर लिया वह मेरी मां की मृत्यु पर क्यों आने लगा. जाते समय अन्नू ने धीरे से बतला दिया था, ‘आजकल आकाश भैया सुबह से ही बोतल खोल कर बैठ जाते हैं. मैं ने सौ बार समझाया और उन्होंने न पीने का वादा भी किया, लेकिन फिर शुरू हो जाते हैं,’ फिर एक सर्द आह  भर कर बोली, ‘लिवर खराब हो गया है पूरी तरह. प्रमोदजी काफी ध्यान रखते हैं उन का लेकिन कुछ परहेज तो भैया को भी रखना चाहिए.’

ये भी पढ़ें- खेल : दिव्या ने मेरे साथ कैसा खेल खेला

सोच के अपने बयावान में भटकती कब मैं झांसी पहुंची पता ही नहीं चला. तंद्रा तो मेरी तब टूटी जब किसी ने मुझे स्टेशन आने की सूचना दी. लोगों के साथ टे्रन से उतर कर मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंच गई. अन्नू पहले से ही मौजूद थी. प्रमोद डाक्टरों के साथ बातचीत में उलझे थे. मैं ने आकाश के पलंग के पास पड़े स्टूल पर ही रात काट दी. सच कहूं तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. मेरा मन सारी रात न जाने कहांकहां भटकता रहा.

सुबह अन्नू ने चाय पी कर मुझे जबर्दस्ती घर के लिए ठेल दिया. आकाश तब भी दवाओं के नशे में सोए हुए थे.

घर आ कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. पराएपन की गंध हर ओर से आ रही थी. नहाधो कर आराम करने का मन बना ही रही थी, पर अकेलापन मुझे काटने को दौड़ रहा था. घर से निकल कर अस्पताल पहुंची तो आकाश, नींद से जाग चुके थे. अन्नू के साथ बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देख कर भी कुछ नहीं बोले. मैं ने धीरे से पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन का जवाब ठंडे लोहे की तरह लगा. किसी के बारे में कुछ पूछताछ नहीं की. यहां तक कि बिट्टू के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. अन्नू ही कमरे में मौन तोड़ती रही. हम दोनों के बीच पुल बनाने का प्रयास करती रही. डाक्टरों की आवाजाही जारी थी. सारे दिन लोग, आकाश से मिलने आते रहे. मुझे देख कर हर आने वाला कहता, ‘अच्छा हुआ आप आ गईं,’ पर 3 दिन में, एक बार भी मेरे पति ने यह नहीं कहा, ‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा था मैं.’

आकाश की हालत काबू में नहीं आ रही थी. प्रमोदजी ने मुझ से धीरे से कहा, ‘‘भाभीजी, आकाश भैया की हालत अच्छी नहीं लग रही है. आप जिसे चाहें खबर कर दें.’’

मैं जब तक कुछ कहती या करती, आकाश ने दम तोड़ दिया. अन्नू फूटफूट कर रो रही थी. प्रमोदजी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे. मेरे तो जैसे आंसू ही सूख गए थे. इस पर क्या आंसू बहाऊं? जिस आदमी ने मुझे कभी अपना नहीं समझा…मेरे बेटे को अपना समझना तो दूर उस का चेहरा तक नहीं देखा, मैं कैसे उस आदमी के लिए रोऊं? यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

जाने कितने लोग, शोक प्रकट करने आ रहे थे. हर आदमी, इतनी कम उम्र में इन के चले जाने से दुखी था, पर मैं जैसे जड़ हो गई थी. इतने लोगों को रोते देख कर भी मैं पत्थर की हो गई थी. मेरे आंसू न जाने क्यों मौन हो गए थे? सब कह रहे थे, मुझे गहरा शौक लगा है. इन दिनों आकाश की सारी बुराइयां खत्म हो गई थीं. हर व्यक्ति को उन की अच्छाइयां याद आ रही थीं. मैं खामोश थी.

पापा का फोन मेरे मोबाइल पर कई बार आ चुका था. मैं उन्हें 1-2 दिन का काम और है बता कर फोन काट देती थी.

तेरहवीं के बाद सब ने अपनाअपना सामान बांध लिया. मेरी उत्सुक निगाहें मालती को ढूंढ़ रही थीं. अन्नू से ही पूछताछ की तो बोली, ‘‘आकाश भैया का सारा पैसा अपने नाम करवा कर वह तो कभी की चली गई झांसी छोड़ कर. कहां है, कैसी है हम नहीं जानते. भला ऐसी औरतें रिश्ता निभाती हैं?’’

ये भी पढ़ें- इक घड़ी दीवार की

झांसी से टे्रन के चलते ही मैं ने राहत की सांस ली. ऐसा लगा, जैसे मैं किसी कैद से बाहर आ गई हूं. झांसी की सीमा पार करते ही मुझे पहली बार एहसास हुआ कि झांसी से मेरा रिश्ता सचमुच टूट गया है. अब मैं यहां क्यों आऊंगी? रिश्तों के दरकने का मुझे पहली बार एहसास हुआ. मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें