कातिल

लेखक- भीमराव रामटेके ‘अनीश’

‘‘कुछ नहीं सर, वह कल वाला फिटनैस सर्टिफिकेट देने का हिसाब देना था. ये जीनियस स्कूल की 10 बसों के 5 लाख रुपए हैं. 50,000 के हिसाब से, 60,000 के लिए वे नहीं माने. कह रहे थे कि साहब का बच्चा पढ़ता है हमारे स्कूल में, तो इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिए, तो मैं ने भी ले लिए,’’ कहते हुए मुकेश ने एक बड़ा सा लिफाफा अपने बैग से निकाल कर सुनील के हाथ में दे दिया.

‘‘यार, फिर तुम एजेंट किस काम के हो… जब पहले ही बात हो गई थी तो पूरे ही लेने थे न… चलो, ठीक है.

‘‘अच्छा, आज मैं 3 बजे निकल जाऊंगा. मेरे बेटे का बर्थडे है… तो कल मुलाकात होगी,’’ सुनील लिफाफा सूटकेस में रखते हुए बोला और अपने काम में लग गया.

3 बजे सुनील अपनी कार से घर के लिए चल दिया. जैसे ही उस ने हाईवे पर मोड़ काटा, तो थोड़ी ही दूरी पर उसे जीनियस स्कूल की बस नजर आई.

‘अरे… 18 नंबर… यह तो चंकी की बस है…’ सुनील सोच ही रहा था कि बस को रुकवा कर उसे अपने साथ ले जाए कि अचानक बस लहराती हुई दूसरी तरफ उछली और सामने से आने वाले ट्रक से उस की जोरदार टक्कर हो गई. बच्चों की चीखों से आसमान जैसे गूंज उठा.

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सुनील का कलेजा कांप उठा. वह गाड़ी को ब्रेक लगा कर रुका और जल्दी से बस के अंदर घुसा.

अंदर का सीन देख कर सुनील के होश उड़ गए. बुरी तरह से जख्मी बच्चों की चीखें उस के कलेजे पर हथौड़े की तरह लग रही थीं. जैसे उस से कह रही हों कि तुम्हीं ने हमें मारा है. उस की नजरें तलाशती हुई जैसे ही चंकी पर पड़ीं, उस के तो मानो हाथपैर ठंडे पड़ गए.

चंकी के सिर और हाथों से खून बह रहा था. उस की सारी यूनीफौर्म खून से लथपथ हो चुकी थी और वह सिर पकड़ कर तड़पता हुआ जोरजोर से ‘मम्मीमम्मी’ चिल्ला रहा था.

सुनील ने तुरंत अपनी शर्ट उतार कर उस के सिर पर बांधी और उसे गोद में ले कर कार की तरफ दौड़ लगा दी. उसे कार में बिठा कर पास के ही अस्पताल की ओर तेजी कार से बढ़ा दी.

अस्पताल पहुंचते ही चंकी को स्ट्रैचर पर लिटा कर इमर्जैंसी में ले जाया गया.

सुनील ने कांपते होंठों से डाक्टर को हादसे की जानकारी दी… तुरंत ही इलाज शुरू हो गया.

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सुनील जरूरी कार्यवाही पूरी कर के बैठा ही था कि 2 एंबुलैंस आ कर रुकीं और उन में से ड्राइवर, कंडक्टर और कुछ बच्चों को निकाल कर स्टै्रचर पर लिटा कर अस्पताल के मुलाजिम उन्हें अंदर ले आए.अस्पताल में अफरातफरी का माहौल हो गया. नर्स ने बताया कि 8 बच्चों सहित ड्राइवर की मौत हो गई है. यह सुन कर सुनील पसीने से तरबतर

हो गया.‘तेरी रुपयों की हवस ने ही इन्हें मारा है… अगर तू उन खराब बसों को फिटनैस सर्टिफिकेट नहीं देता तो यह हादसा नहीं होता… तू ने ही अपने बेटे को जख्मी कर मौत के हवाले कर दिया है. तू ही कातिल है इन सब मासूम बच्चों का…’सुनील की पैसे की हवस जैसे पिघल कर उस की आंखों से बह रही थी.

मुख्यमंत्री रोहरानंद चले विदेश!

कहानी-हास्य

दोस्तों! तकदीर सबकी यूं ही नहीं खुलती,अब देखो आप और मैं, हम में कितना अंतर है .आप आम आदमी हैं, मैं भाग्य से मुख्यमंत्री हूं.आपने व्होट दिया, आप अगर वोट न देते,तो मैं मुख्यमंत्री भला कैसे बनता ? मगर, आप प्रदेश की तरक्की में अपनी भूमिका निभाईये मैं रोहरानंद मुख्यमंत्री, आपके व्होट की बदौलत दुनिया जहान के सुख भोग रहा हूं… मैं अमेरिका जा रहा हूं .हे! मतदाताओं…!! मैं आपको बताकर, अधिकारपूर्वक विदेश जा रहा हूं. आपने अपना कर्तव्य, ईमानदारी से निभाया है. आपने अपने बहुमूल्य मत का उपयोग किया, विधायक चुने, फिर विधायकों ( माफ करिए आलाकमान, पार्टी ) ने मुझे अपना वफादार सेवक माना और मैं मुख्यमंत्री बन गया. प्रदेश का मुखिया बनने के पश्चात, हालांकि आपकी और हमारे बीच की दूरियां बढ़ गई हैं. यह स्वभाविक है. यही लोकतंत्र है, जैसे ही मैं मुख्यमंत्री बना मेरी अंतरात्मा ने करवट बदली… मैं विशिष्ट बन गया .अब मैं आपसे दूर दूर रहता हूं. आप मुझसे सीधे नहीं मिल सकते.

दोस्तों…! यह सच है, कि मैंने कभी स्वपन में भी कल्पना नहीं की थी, कि मैं कभी मुख्यमंत्री बन जाऊंगा. मैं साफगोई से स्वीकार करता हूं कि मेरी तो लॉटरी ही निकल आईं है.मेरे इस सत्य स्वीकारोक्ति का प्लीज बतंगड़ मत बनाना. मैं स्पष्ट शब्दों में साहस के साथ कहना चाहूंगा कि मैं मुख्यमंत्री बनते ही, आप लोगों से बहुत बहुत दूर हो गया हूं. रूपक स्वरूप इस तरह समझे जैसे मनुष्य से चांद दूर है,जैसे आम आदमी से अमेरिका दूर है. मगर मैं ईमानदार इंसान हूं. राजनीतिज्ञ की बात में नहीं करता . राजनीतिज्ञ के रूप से मेरे चेहरे पर अनेकानेक मुखोटे लगे हुए हैं.

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हे मतदाताओं..!में यह कहने में कोई गुरेज नहीं करता कि आप भी जब मुख्यमंत्री बन जाएं तब मेरी ही तरह खूब सुख भोगना. जैसे मेरी फितरत देख रहे हो न… वैसी करना. कुर्सी की सौगंध मैं एक बार भी कुछ नहीं बोलूंगा. मैं बुरा भी नहीं मानूंगा.आप मेरी ही तरह जनता जनार्दन से दूर दूर रहना और पद की गरिमा को मेंटेन करना, तब मैं आम आदमी रहूगां, मगर मैं बुरा नहीं मानूंगा. आज जैसे आपके साथ मैं व्यवहार कर रहा हूं आप करना सच में बुरा नहीं मानूंगा .मैं मिलने आऊंगा, आप के चरण स्पर्श करूंगा तब मेरी और देखना भी मत. बस…

दोस्तों! मुख्यमंत्री बनने के बाद यह रोहरानंद परिपक्व हुआ है .बहुतेरी बातों को मैंने समझा है , जिसको आपसे शेयर करने में मुझे कोई संकोच नहीं है .मैं जान गया हूं यह परम सत्य है कि जैसे यह जीवन भाग्य से मिलता है, वैसे ही लोकतंत्र में भाग्य से मैं मुख्यमंत्री बन गया हूं. और जब भाग्य ने साथ दिया है तो क्यों न मैं जीवन का हर सुख भोग लूं. फिर पता नहीं मौका मिले या न मिले. मैं यह सत्य जान गया हूं कि मेरे कई सीनियर टापते रह गए . मेरे कई जूनियर इंतजार कर रहे हैं कि छींका कब टूटे.

हे मतदाताओं … इस जीवन दर्शन के पश्चात मै अमेरिका जा रहा हूं. मैं मुख्यमंत्री रहते रहते चीन, ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी अर्थात दुनिया के संपूर्ण 189 देशों को घूम लेना चाहता हूं . यही नहीं स्वीटजरलैंड मैं अवश्य जाऊंगा, बारंबार जाऊंगा क्योंकि इस देश से मैं कुछ ज्यादा ही प्रेम करता हूं. क्योंकि यहां एक से एक बैंक है. यहां मैं खाता भी खुलवाना चाहूंगा.क्योंकि हम उच्च श्रेणी के मुख्यमंत्रियों के मध्य अक्सर यह शिगुफा चलता है कि जिस मुख्यमंत्री का स्विजरलैंड में बैंक अकाउंट नहीं है, भला वह भी कोई मुख्यमंत्री है .तो मैं इसे ठीक करूगा. क्योंकि इज्जत का सवाल तो आपका है न. लोग क्या कहेंगे, कैसे लोग हैं इनके मुख्यमंत्री का एक अदद खाता भी स्विजरलैंड में नहीं है.

दोस्तों… मैं मुख्यमंत्री बनकर खुद तो दुनिया घूम ही रहा हूं,मुझे यह बताते काफी हर्ष हो रहा है कि मैं परिवार, धर्म पत्नी और बच्चों को भी घुमा रहा हूं. अगर मेरे मन में चोर होता तो यह सच्चाई में कदापि नहीं बताता. छुपकर सपरिवार चला जाता,आप ( तुम ) क्या कर लेते ? मगर मैं एक साफ दिल मुख्यमंत्री हूं अतः जो भी करता हूं आप सभी को स्पष्ट बता कर करता हूं. क्योकि मैं जानता हूं बताऊंगा तो भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि संवैधानिक रूप से मैं मुख्यमंत्री हूं ।और मुझे आपके हित में कोई भी निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है. वह इस तरह, कि मैं जिस परंपरा का पालन कर रहा हूं वह पूर्ववर्ती है,और आप के भले के लिए है, कल आप भी सपरिवार जा सकेंगे.

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हे मतदाताओं! में अमेरिका जा रहा हूं… मैं अपना जन्मदिन अबकी वही मनाऊंगा. देखो, यहां मनाता तो क्या आनंद आता ? जिंदगी भर तो यही धूल धक्कड़ खाता रहा हूं .समय मिला है, उसका भरपूर लाभ उठाना ही बुद्धिमत्ता है .यहां रखा क्या है ? अमेरिका में जीवन है, सुख है ऐश्वर्य है. मैं तो कहता हूं जिसने अमेरिका में जन्म दिवस नहीं मनाया वह जन्मा ही नहीं है.

दोस्तों ! बतौर मुख्यमंत्री, मैं अमेरिका जा रहा हूं….मैं जा रहा हूं …अर्थात प्रदेश का हर नागरिक जा रहा है.आखिरकार में प्रत्येक नागरिक का प्रतिनिधित्व ही हूं. मै आनंद उठाऊंगा,मैं समझूंगा मेरे प्रदेश के प्रत्येक नागरिक ने सदुपयोग किया. मैं मुख्यमंत्री के रूप में बेशकीमती सुख, सुविधाओं का उपयोग करूंगा समझूंगा मेरे मतदाता भी मेरे साथ आनंद उठा रहे हैं.देखिए मेरा हृदय कितना विशाल है. हे मतदाताओं… में बड़ा ही सहृदय मुख्यमंत्री हूं. आशा है आप भी सहृदयता का परिचय देंगे. जब दूरदर्शन, टीवी और समाचार पत्रों में मेरे अमेरिका दौरे की खबर पढेंगे, तो उसे सकारात्मक दृष्टि से लेंगे.

शेष फिर ( तुम्हारा ) रोहरानंद.

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ठोको ताली: शिल्पा ने कैसे सिखाया अनूप और सीमा को सबक?

लेखिका- मधु जैन 

“शिल्पा आज अनूप का फोन आया था.”

“ओफ्फो!! फिर से…”

“अरे! परेशान होने की बात नहीं मैंने कह दिया हम दो दिन के लिए बाहर जा रहे हैं.”

“हम इस तरह कब तक मुंह चुराएंगे, कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.”
अनूप शिल्पा के छोटे भाई का दोस्त है. इसीलिए शिल्पा से पहले से परिचित भी है. नई शादी और उसके ही शहर में रहने के कारण शिल्पा जब भी कुछ नया बनाती उन दोनों को बुला लेती. वह नहीं जानती थी कि वह आ बैल मुझे मार वाला काम कर रही है.

वैसे भी शिल्पा को खाना बनाना और खिलाना दोनों में ही मजा आता था. पर अब तो अनूप और उसकी पत्नी सीमा कभी भी किसी समय आ धमकते और खाने की फरमाइश कर देते.

शिल्पा ने तो उन्हें अंगुली पकड़वाई थी पर वह तो पौंचा ही पकड़ बैठे. उस दिन शिल्पा खाने से फुरसत ही हुई थी कि ये दोनों आ गये.

“शिल्पा दी आज तो आपके हाथ की कढ़ी चावल खाने का बहुत मन हो रहा है.”
“दी, कढ़ी बनाती भी तो इतनी अच्छी है.” मस्का लगाते हुए सीमा बोली.
“दी, वो पकौड़े वाली कढ़ी बनाना और थोड़े पकौड़े ज्यादा बना लेना सूखे खाने के लिए.”

शिल्पा के तो तन बदन में आग सी लग गयी थी फिर भी बनावटी मुस्कान ओढ़कर खाना बनाया. शिल्पा ने अब इन्हें सबक सिखाने का मनसूबा बना लिया था.

शर्मा जी के बेटे की बर्थडे पार्टी से लौटने के बाद शिल्पा काफी थकावट महसूस कर रही थी और बर्तन वाली न आने से बर्तन भी पड़े थे. थोड़ी देर आराम करने की सोच कर लेट गई. तभी उसे अनूप की आवाज सुनाई दी “जीजा जी आज हमारा मन आलू के पराठें खाने का हो रहा था और दीदी के हाथ के पराठों का तो जवाब ही नहीं. बाजार में भी इतने अच्छे नहीं मिलते.”

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शिल्पा ने एक चुन्नी सिर पर बांधी और बाहर आकर बोली “मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है अच्छा हुआ सीमा तुम आ गयीं पहले तो सबके लिए चाय बना लाओ.”

पति को चुप रहने का इशारा करती हुई “और हां कुकर धोकर आलू उबलने रख देना, बाई नहीं आई न. आज मैं तुम्हें आलू के पराठें बनाना सिखाऊंगी. आखिर तुम्हें भी तो अनूप की पसंद सीखना होगी.”

प्यार से “तुम तो अपनी हो, तो तुमसे कहने में क्या संकोच मेरी तो तबीयत ठीक नहीं है तो तुम्हें ही चारों के लिए पराठें बनाना होगें.”

चाय से ज्यादा तो सीमा का मन उबल रहा था.”क्या मैं नौकरानी हूं? जो बर्तन भी साफ करूं और सबके लिए पराठें भी बनाऊं.” अनूप से भी बात नहीं कर पा रही थी.

उसने अनूप को व्हाट्सएप पर सारी परेशानी बताई. और साथ ही उपाय भी.

चाय पीने के बाद कप रखने के बहाने अंदर जाकर सीमा ने अनूप को फोन लगाया .

फोन उठाते ही अनूप बोला. जी सर अभी घर पहुंच रहा हूं

“किसका फोन था?” शिल्पा ने पूछा.

“वो दीदी बौस का फोन है घर पर आ रहे हैं तो हमें निकलना पड़ेगा.”

“कोई बात नहीं फिर कभी, जब भी आओगे हम सीमा के हाथ के पराठें खा लेगें.”

अब तो अनूप और सीमा ऐसे नौ दो ग्यारह हुए कि शिल्पा के घर का रास्ता ही भूल गये.

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अथ माफिया पुराण

लेखक- प्रभाशंकर उपाध्याय

गुरुदेव ने जब आंखें खोलीं, तो अपने चेले जीवराज को सामने खड़ा पाया. उस के चेहरे की बेचैनी से गुरुजी भांप गए कि आज फिर कोई सवाल चेले को बेचैन किए हुए है.

गुरुजी मुसकराए और पूछा, ‘‘कहो जीवराज, सब ठीक तो है न?’’

‘‘नहीं गुरुदेव, सुबह की घटना से मेरा मन बेचैन है. हुआ यों कि आज भीख मांगने के लिए मैं एक नामीगिरामी सुनार की दुकान पर गया. वहां मैं कुछ देर तक इंतजार करता रहा. दुकानदार मुझे कुछ देने के लिए अपने गल्ले में हाथ डाल ही रहा था कि 2 मोटेतगड़े आदमी वहां आए और बोले, ‘भाई ने सलाम बोला है.’

‘‘उन्हें देख कर वह सुनार कांपने लगा. उस ने फौरन तिजोरी खोली और नोटों की कुछ गड्डियां उन की तरफ बढ़ा दीं, जिन्हें उठा कर वे दोनों हंसते हुए चले गए.

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‘‘हे गुरुदेव, जब मैं ने उस सुनार से भीख देने के लिए दोबारा कहा, तो अपने चेहरे का पसीना पोंछना छोड़ कर उस ने मुझे दुत्कार दिया.

‘‘गुरुदेव, सुनार के इस रवैए से मैं बहुत दुखी हुआ और भीख मांगने के लिए आगे न जा सका. हम साधु लोग एकाध रुपए की भीख के लिए दसियों बार आशीर्वाद देते हैं और बदले में हमें कई बार बेइज्जती का सामना करना पड़ता है. अब तो मुझे इस काम से नफरत होने लगी है…’’ यह कह कर चेले जीवराज ने सवाल किया, ‘‘गुरुजी, कृपा कर के मुझे बताएं कि वे दोनों मोटेतगड़े आदमी कौन थे?’’

चेले जीवराज की बात सुन कर गुरुजी ने कुछ देर ध्यान लगाया, फिर आंखें खोल कर कहने लगे, ‘‘सुन बच्चा, वे दोनों आदमी एक माफिया गिरोह के सदस्य थे, जो हफ्तावसूली के लिए

आए थे. ‘भाई’ उन के सरगना का पद नाम है.’’

यह सुन जीवराज चौंक कर बोला, ‘‘माफिया… हां, यह शब्द मैं ने भी सुना है. क्या यह सच है कि अगर ऊपर वाला भी अपनी फौज ले कर आ जाए तो उस की भी माफिया के मुखिया और उस के गिरोह के सामने नहीं चलेगी?’’

गुरुजी मजाकिया लहजे में बोले, ‘‘पहले तू माफिया की कहानी सुन, उस के बाद ही किसी फैसले पर पहुंचना.

‘‘जीवराज, इटली के सिसली शहर में माफिया का जन्म हुआ. वहां शराबखानों, जुआघरों, कोठों, नशीली दवाओं व हथियारों की तस्करी के

धंधे से जुड़े गिराहों को ‘माफिया’

कह कर पुकारा जाने लगा.

‘‘धीरेधीरे ऐसे गिरोहों के मुखिया को ‘किंग’, ‘डौन’ या ‘गैंगस्टर’ नाम से पुकारा जाने लगा. इस के बाद माफिया ने नए इलाकों में भी पकड़ बढ़ा ली, जैसे जमीन माफिया, पानी माफिया, मकान माफिया, सैक्स माफिया, शिक्षा माफिया, फिल्म माफिया, पर्यटन माफिया, झोंपड़पट्टी माफिया वगैरह. हर बड़े शहर में कम से कम ऐसे 15-20 तरह के माफिया गिरोह होते हैं.

‘‘वत्स, अब आगे ध्यान से सुन. माफिया गिरोह का मुखिया हमेशा वेश बदल कर अपने गैंग को चलाता है. आमतौर पर वह सामाजसेवक, नेता या साधुसंत का रूप धरे रहता है. उस की प्रशासन, राजनीति, इंडस्ट्री, फिल्म और कारोबार जगत में गहरी पैठ होती है. वह इन की हर बात पर असर डालता रहता है. वह देशविदेश में बड़ी आसानी से आजा सकता है और कहीं भी रह कर अपने गिरोह को चलाते हुए जायदाद को संभालता है.

‘‘अब तो इस काम में ‘इंटरनैट’ भी कारगर साबित हुआ है. कुछ माफिया ने तो अपनी ‘वैबसाइट’ भी इंटरनैट पर डाल दी है. गलती से अगर कोई माफिया मुखिया जेल चला जाए, तो उस की बीवी भी गिरोह चलाने की कूवत रखती है.

‘‘हे वत्स, अब मैं माफिया के कामकाज के तरीकों के बारे में बताता हूं. ये गिरोह हमेशा डर का माहौल बना कर काम करते हैं. किसी भी देश की कानून व्यवस्था से अलग इन की अपनी दुनिया होती है, सो इंगलिश में इन्हें ‘अंडरवर्ल्ड’ पुकारा जाता है.

‘‘धौंस दे कर ये गिरोह समाज के अलगअलग तबके से अपनी ‘चौथवसूली’ करते हैं. हत्या की ‘सुपारी’ लेते हैं. इन गिरोहों के सदस्य, जिन्हें ‘शूटर’ कहा जाता है, एक इशारे पर किसी का भी खून कर देते हैं. माफिया की बोली में इस काम को ‘टपका देना’, ‘गेम बजा देना’ या ‘शूटआउट कर देना’ कहते हैं.

‘‘अब इंटरनैट पर भी हत्याओं के लिए सुपारी ली जाने लगी है. आम आदमी को टपका देने के लिए 8-10 लाख रुपए और खास लोगों के लिए

5 करोड़ रुपए तक की सुपारी ली जाती है. जख्मी कर देने की दरें वैबसाइट पर अलग से तय हैं.

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‘‘हे जीवराज, सोना, शराब, नशीली चीजें, हथियार वगैरह की तस्करी, सरकारी या गैरसरकारी जमीन पर कब्जे के अलावा किसी देश या राज्य में आतंक फैलाने, वहां की सरकार को हिला देने, चुनावों में अपनी मनमरजी चलाने, स्कूलकालेजों में दाखिले और डिगरी दिलाने, फिल्म बनाने के लिए फाइनैंस और हीरोहीरोइनों को चुनने का आर्डर देने जैसे काम माफिया गिरोहों द्वारा किए जाते हैं. मीडिया भी इन का गुणगान करने से पीछे नहीं रहता है.

‘‘इन लोगों के कारनामों पर ‘गौडफादर’ नाम का इंगलिश उपन्यास व हिंदी फिल्म ‘गौडमदर’ बन चुकी है.’’

माफिया के बारे में इतना सुन कर जीवराज ने पूछा, ‘‘हे गुरुदेव, सरकारें और पुलिस इन की ऐसी हरकतों पर लगाम क्यों नहीं लगा पातीं?’’

‘‘प्रशासन और पुलिस हमेशा सही समय का इंतजार करती है. मतलब, पाप का घड़ा भरेगा तो फूटेगा. घड़ा कभी भरता नहीं, सो सही समय कभी आता ही नहीं.’’

यह सुन कर चेला तेजी से उठ कर कहीं जाने लगा, तो गुरुदेव ने पूछा, ‘‘अरे वत्स, कहां चल दिए?’’

‘‘गुरुवर, अब मैं यहां एक पल

भी नहीं ठहरूंगा. मैं किसी ताकतवर माफिया गिरोह की तलाश में जा रहा हूं, ताकि उस में शामिल हो कर अपनी जिंदगी कामयाब कर सकूं.’’

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उस के लाइक्स मेरे लाइक्स से ज्यादा कैसे

किट्टी पार्टी में मुंह लटकाए बैठी मनीषा से कारण पूछा तो उस की रुलाई फूट पड़ी. बोली, ‘‘क्या बताऊं, मुझे फेसबुक पर 2 साल से ज्यादा हो गए हैं फिर भी न जाने क्यों लाइक्स और कमैंट्स बहुत कम मिलते हैं जबकि अंजु अभी महीना पहले ही फेसबुक से जुड़ी है और उस के लाइक्स की भरमार है. भला उस के लाइक्स मेरे लाइक्स से ज्यादा कैसे?’’ उस की स्थिति देख कर मेरी आंखें भर आईं. मैं फेसबुक की माहिर नहीं थी, अत: मुझे उस का दुख दूर करने का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था. मैं ने इस समस्या पर सब के साथ चर्चा करने का मन बनाया. सब के आ जाने पर चाय पीते हुए जब प्रदूषण जैसे आम मुद्दे पर बात चल रही थी, तब मैं ने मनीषा की समस्या का जिक्र किया. समस्या सुन सभी को अपनी दुखती रग पर हाथ रखना लगा, क्योंकि उन्हें भी आएदिन इस समस्या से दोचार होना पड़ता था. सभी इस विषय पर चर्चा करने को राजी हो गए. फिर अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर सभी ने कुछ सुझाव पेश किए.

पहला सुझाव था, इस उपदेश पर अमल करना कि व्यक्ति को फल की इच्छा किए बिना कर्म करते रहना चाहिए. लोगों की पोस्ट और फोटो दिल खोल कर सिर्फ लाइक ही न करें बल्कि कमैंट्स भी करें. चाहे कोईर् तसवीर कितनी भी खराब लग रही हो, उस की प्रशंसा के पुल बांध दें. याद रखें कि भलाई कभी बेकार नहीं जाती. ये लाइक्स और कमैंट्स आप के पास कभी न कभी लौट कर अवश्य आएंगे.

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अगला सुझाव प्रेम में बंधन के महत्त्व से था. जैसे रक्षाबंधन पर भाईबहन का बंधन, फ्रैंडशिप डे के दिन दोस्तों को बांधे जाने वाले फ्रैंडशिप बैंड और इसी प्रकार गठबंधन आदि. आप भी अपने फेसबुक के दोस्तों को ‘टैग’ नामक बंधन में बांधिए. किसी भी पोस्ट को प्रस्तुत करते समय प्रेमपूर्वक कई लोगों को टैग कर दीजिए. फिर देखिए कि प्रेमभाव कैसे उमड़ कर लाइक्स और कमैंट्स में तबदील होता दिखाई देता है. टैग किए गए दोस्तों के वे मित्र जो आप के फ्रैंड नहीं हैं, उन्हें भी आप की पोस्ट दिखाई देगी और वे भी टैग जाल में फंस कर अपने लाइक्स आप को समर्पित करेंगे.

जब आप की पोस्ट पर मित्र लाइक्स और कमैंट्स की अमृतवर्षा करें तो इन अतिथियों का सत्कार करें. सुंदर फूलों का प्रावधान जो फेसबुक ने किया है, वह अपने जवाब में पेश करें. ‘आभार’, ‘हृदयतल से धन्यवाद’ और ‘बंदा नवाजी का शुक्रिया’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए मुसकराता स्टिकर चिपका कर उन्हें विदा कीजिए.

आप की इस मेहमाननवाजी से वे फूले नहीं समाएंगे व आप के द्वारा अगली पोस्ट डालने पर अवश्य आप को लाइक्स और कमैंट्स से नवाजेंगे.

जो मित्र कभी भी आप की पोस्ट को लाइक नहीं करते उन्हें निमंत्रण देने के उद्देश्य से अपनी पोस्ट को कौपीपेस्ट कर के उन के इनबौक्स में डाल दीजिए. वे खुद को किसी जज से कम नहीं समझेंगे और किसी चीफ गैस्ट की भांति खुद ही आप की वौल पर आ कर लाइक्स और कमैंट्स की ट्रौफियों की वर्षा कर देंगे.

जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए मौर्निंगवौक और योगा का सहारा लिया जाता है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए पीपल यू मे नो और अपने फेसबुक मित्रों की ‘फ्रैंडलिस्ट’ देखते हुए दिमागी कसरत करना आवश्यक है. टहलने और योगा करने से यदि रोग दूर होते हैं और वजन घटता है तो इन लिस्टों की मानसिक कसरत से फेसबुक फ्रैंड्स बढ़ते हैं, जिस से लाइक्स मिलने की आशा का दीया टिमटिमा उठता है. फिर ज्योंज्यों लाइक्स मिलने शुरू होते हैं, त्योंत्यों मानसिक तनाव दूर होता है तथा प्रसिद्धि की प्रसन्नता से चेहरा कांतिमय बनता है.

योगा और टहलने से मिलने वाली औक्सीजन यदि फेफड़ों को गतिशील बनाती है, तो लाइक्स और कमैंट्स मिलने की अपार खुशी से सीना चौड़ा हो जाता है. अत: फेसबुक दोस्त ढूंढ़ने की दिमागी कसरत अपनी दिनचर्या में शामिल करना जरूरी है.

लाइक्स पाने का एक उपाय यह भी है कि अपने दोस्तों की वौल पर जा कर उन की पोस्ट पर अन्य व्यक्तियों द्वारा किए गए कमैंट्स पढि़ए और कमैंट्स करने वालों में जो आप के मित्र नहीं हैं, उन के कमैंट्स के चरणों में अपने लाइक्स के फूल अर्पित कीजिए. आप की इस अदा से प्रसन्न हो कर वे खुद ही आप को मित्र बना लेंगे तथा आप की पोस्ट पर भी अपने लाइक्स भेजने लगेंगे.

यदि कोई मित्र आप की पोस्ट लाइक करना बंद कर दे या कमैंट्स करने में कंजूसी दिखाए तो ‘जैसे को तैसा’ वाली कहावत पर अमल करते हुए उस का तब तक बायकौट जारी रखें, जब तक उसे अपनी गलती का एहसास न हो जाए.

यदि आप की पुरानी पिक्स पर लाइक्स बहुत कम हैं और उन्हें देखदेख कर आप का कलेजा मुंह को आ रहा है तो घबराएं नहीं बल्कि उन पर स्वयं ही कोई टिप्पणी कर दें या खुद ही उसे लाइक कर दें, इस से वे फ्रैंड्स की न्यूजफीड में ऊपर दिखाई देने लगेंगे और आप कई लाइक्स के हकदार बनेंगे.

यदि आप का बौयफ्रैंड आप को लाइक्स से वंचित किए हुए है तो किसी दिन उस से जबरदस्ती झगड़ा कर लीजिए, फिर कभी न मिलने की धमकी देने के साथसाथ ‘मैं फेसबुक पर आगे से आप की कोईर् पिक्स लाइक नहीं करूंगी,’ कहते हुए कुछ दिन दूरी बना लीजिए. फिर देखिए कैसे वह आप को लाइक्स और कमैंट्स के तोहफों से नवाजता है.

याद रखिए, फेसबुक सोशल मीडिया है अर्थात जनता द्वारा और जनता के लिए. अत: अपनी प्रोफाइल में तसवीरें, पोस्ट, शेयर आदि पब्लिक कर के रखिए ताकि अधिक से अधिक लोग देख पाएं. केवल मित्रों के लिए रखेंगे तो कम लाइक्स मिलेंगे, सब के लिए रखेंगे तो न जाने कब कौन अपने लाइक्स और कमैंट्स की बारिश कर दे.03

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जय इंडिया, जय करप्शन, जय सरकारी रिपोर्ट

कई दिनों से बड़े बाबू का चेहरा लटकालटका देख रहा था. नीम के पेड़ पर सूखी, लटकी, सड़ीगली लौकी जैसा. पर उन से इस बारे में कुछ पूछने का दुसाहस मुझ में न हो सका. औफिस में भी सहमेसहमे से रहते. सोचा, होगी घरबाहर की कोई प्रौब्लम. राजा हो या रंक, घरबाहर की प्रौब्लम आज किस की नहीं? घरबाहर की प्रौब्लम तो आज सासबहू की तरह घरघर की कहानी है. जो जितना बड़ा, उस के घरबाहर की प्रौब्लम उतनी बड़ी. हमारे जैसों के घर की प्रौब्लम हमारे जैसी. यहां मोदी से ले कर मौजी तक, सब अपनेअपने घर की प्रौब्लम से परेशान हैं. और कोई प्रौब्लम न होना भी अपनेआप में एक प्रौब्लम है.

हफ्तेभर औफिस से बिन बताए गायब रहे. आज अचानक पधारे और बड़े बाबू के चेहरे पर औफिस का गेट पार करते ही सौ किलो मुसकान देखी तो हक्काबक्का रह गया. चेहरे पर ऐसा नूर…मानो वक्त से पहले ही वसंत आ गया हो. या फिर, वसंत ने अपने आने की सब से पहले सूचना उन के चेहरे पर आ कर दी हो. गोया, उन का चेहरा, चेहरा न हो कर कोई नोटिसबोर्ड हो. वाह, क्या कामदेव सा दमदमाता चेहरा. रामदेव भी देख लें तो योग क्रियाएं भूल जाएं.

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उन्होंने आव देखा न ताव, आते ही बड़ी बेरहमी से मुझे गले लगाते बोले, ‘‘वैल डन कामरेड, वैल डन. आज मैं तुम से बेहद खुश हूं.’’

‘‘सर मुझ से, मेरी वर्किंग से या…?’’

‘‘तुम्हारी वर्किंग से. तुम ने मेरे औफिस की ही नहीं, पूरे देश की नाक रख ली.’’

‘‘मैं समझा नहीं साहब, जिन का हमारे औफिस से आज तक वास्ता पड़ा है वे तो कहते हैं कि मेरी नाक ही नहीं. ऐसे में मेरी नाक न होने के बावजूद मैं ने अपने देश की नाक कैसे रख ली, सर?’’

‘‘ऐसे, ये देखो, भ्रष्टाचार की ऐनुअल ग्लोबल रिपोर्ट. हम ने हमजैसों के अथक प्रयासों से इस मामले में अपनी पोजिशन बरकार रखी है. ऊपर नहीं चढ़े तो नीचे भी नहीं गिरे. सच कहूं, अब के तो मैं डर ही गया था कि पता नहीं हमारा क्या होगा? हम अपनी इस पोजिशन को मेंटेन रख पाएंगे कि नहीं. अब एक यही तो फील्ड रह गई है जिस में हम अपना बैस्ट दे सकते हैं. सच कहूं मेरे दोस्त, यह सब तुम जैसे भ्रष्टाचार को समर्पित भ्रष्टाचारियों की वजह से ही संभव हो पाया है. आज सारे स्टाफ को लंच मेरी ओर से. कहो, क्या मेन्यू रखा जाए? जो तुम कहोगे, वही चलेगा.’’

‘‘मतलब, साहब?’’

‘‘अरे बुद्धू, तुम लोगों को जो मैं दिनरात रिश्वत लेने को बूस्ट करता था, उस का परिणाम आ गया है. देखा नहीं तुम ने अखबार में? कभीकभार अखबार पढ़ने के लिए औफिस के आरामों से वक्त निकाल लिया करो, मेरे दोस्त. तुम जैसों की मेहनत एकबार फिर रंग लाई है. भ्रष्टाचार के मामले में हम अपने पड़ोसी से आगे हैं.’’

‘‘मतलब, पड़ोसी के यहां ईमानदारी के दिन फिर रहे हैं. हम ईमानदारी में उन से पीछे हैं?’’

‘‘नहीं, भ्रष्टाचार में हम उन से आगे हैं. मैं तो कई दिनों से मरा जा रहा था कि पता नहीं अब की हमारी मेहनत का क्या रिजल्ट आएगा? भूखप्यास सब, रिजल्ट की सोच में डूबा, भूल गया था. दिनरात, सोतेजागते, उठतेबैठते यही मनाता रहा था कि भ्रष्टाचार में जो अब के हम कम से कम अपने पड़ोसी से चार कदम आगे न रहें तो न सही, पर जिस पोजिशन पर हैं उस से नीचे भी न आएं.’’

‘‘एक बात तो तय है मेरे दोस्त, कुछ और रंग लाए या न, पर जो मेहनत सच्चे मन से, बिना किसी कानून के डर से की जाए, वह रंग जरूर लाती है. अब उन के सीने के जो हाल हों, सो हों पर आज मेरा सीना चालीस इंच से फूल कर छप्पन इंच हुआ जा रहा है. क्या कर लिया उन के ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ के सिद्धांत ने हमारा? पर अंदर की बात कहूं, उन के इस बयान से मैं डर गया था यार, कि अब इस देश का क्या होगा? लेकिन अब सब समझ गया कामरेड, कोई इस देश में न खाए तो न खाए. एकाध के खाने या न खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आई एम प्राउड औफ यू, माई डियर. तुम लंबी उम्र जियो. मे यू लिव लौंग. जब तक तुमहम जैसे इस देश में भ्रष्टाचार को समर्पित रहेंगे, भ्रष्टाचार को बढ़ने से इस देश में कोई भी माई का लाल नहीं रोक सकता. जय इंडिया, जय करप्शन…’’

 

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प्रकाश स्तंभ

पूर्व कथा

रम्या अपनी बहन नंदिनी से छोटीछोटी बातों पर लड़ती थी. उन के झगड़ों से मां रचना परेशान हो जाती थीं. एक दिन रचना अपने परिवार को अपने विदेश ट्रांसफर की बात बताती हैं. अतीत की यादों में खोई रचना सहेली निमिषा के आने पर वर्तमान में लौट आती है. उस के पूछने पर वह बताती हैं कि बेटी रम्या, अपने पति प्रतीक के साथ मायके लौट आई है और नए व्यापार के लिए रुपए मांग रही है. परेशान रचना उसे अपने जीवन के उतारचढ़ाव के बारे में बताती हैं.

रचना के घर पहुंचने पर रम्या आ चुकी होती है. रम्या उन से नंदिनी की शिकायत करती है तो दोनों झगड़ने लगती हैं. रचना उन का बीचबचाव करती हैं. खाने की मेज पर बैठ कर भी दोनों लड़ती हैं तो पिता के डांटने पर नंदिनी रोती हुई अपने कमरे में चली जाती है. रम्या पति प्रतीक के व्यापार के लिए रुपयों की बात मां से करती है तो वह मूर्ति बनी सब सुनती रहती हैं. और अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

‘कितनी पूंजी चाहिए प्रतीक को?’ ‘कम से कम

15-20 लाख रुपए, मां. एक बार उन का काम चल निकला तो वह आप की पाईपाई चुका देगा.’

‘रम्या, मैं प्रतीक से बात करना चाहती हूं. उस के मुंह में तो लगता है जबान ही नहीं है.’

रम्या लपक कर प्रतीक को बुला लाई थी.

‘देखो, बेटे,’ रचना ने बात स्पष्ट की, ‘मेरी बात को अन्यथा मत लेना. मैं तो तुम्हें केवल अपनी वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहती हूं. हम ठहरे मध्यवर्गीय लोग. हमारा काम अवश्य चलता रहता है पर व्यापार के लिए बड़ी रकम जुटा पाना हमारे लिए संभव नहीं है. लेदे कर यह एक घर ही है. कम से कम सिर पर छत होने का संतोष तो है, जहां हर परिस्थिति में शरण ली जा सकती है.

‘मैं तो तुम्हें यही सलाह दूंगी कि एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ लो तुम दोनों. थोड़ा अनुभव और पूंजी दोनों पास हों तो व्यापार करने में सरलता रहती है. तुम समझ रहे हो न?’ प्रतीक के चेहरे पर बेचैनी के भाव देख कर वह पूछ बैठी थीं.

प्रतीक कुछ क्षणों तक शून्य में ताकता चुप बैठा रह गया था. रचना मन ही मन बदहवास हो उठी थीं. प्रतीक सामान्य तो है? ऐसा क्या है इस में जिस पर रम्या रीझ गई थी. रचना ने इसे भी नियति का खेल जान कर खुद को समझाना चाहा था.

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आखिर मौन रम्या ने ही तोड़ा था, ‘मां, हम आप से सलाह नहीं सहायता की उम्मीद ले कर आए थे.’

‘बेटी, मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार हर सहायता करने को तैयार हूं.’

उस दिन से रम्या ने उन से बोलचाल भी अत्यंत सीमित कर दी थी. कभी सामने पड़ जाती तो रचना ही बोल पड़ती अन्यथा रम्या और प्रतीक अपने ही कक्ष में सिमटे रहते.

ऐसे में सीशैल्स जाने का प्रस्ताव उन्हें ताजी हवा के झोंके की भांति लगा था. कुछ विशेष भत्तों के साथ उन्हें पदोन्नति दे कर भेजा जा रहा था. साथ ही नई शाखा स्थापित करने का अपना रोमांच भी था.

इसी ऊहापोह में देर तक सोचती हुई कब वह निद्रा की गोद में समा गईं उन्हें स्वयं ही पता नहीं चला था. नीरज ने जब बत्ती जलाई तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

‘‘सो रही थीं क्या? सोना ही है तो आराम से पलंग पर सो जाओ, मैं बत्ती बुझा देता हूं,’’ नीरज बाबू धीरगंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘थकान के कारण आंख लग गई थी. अभी सोने का मन नहीं है,’’ वह उठीं, घड़ी पर नजर डाली. अभी 9 ही बजे थे पर ऐसी शांति थी मानो आधी रात हो. चूंकि टीवी बंद था इसलिए उन्हें अजीब सा लगा.

‘‘क्या बात है नीरज, नाराज हो क्या? कुछ तो बोलो?’’

‘‘बोलने को क्या बचा है, रचना? तुम ने फैसला लिया है तो सोचसमझ कर ही लिया होगा. मुझे तो सदा यही अपराधबोध सताता है कि मैं ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है. पर सच मानो, मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया है,’’ नीरज बाबू का स्वर बेहद उदास था.

‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. तुम ने तो हर कदम पर मुझे मजबूत सहारा प्रदान किया है. केवल तुम्हारे ही बलबूते पर तो मैं बेधड़क कोई भी निर्णय ले लेती हूं. तुम्हारा मेरे जीवन में जो महत्त्व है उसे पैसे से नहीं आंका जा सकता,’’ रचना का स्वर अनजाने ही भीग गया था.

नीरज बाबू हंस दिए थे. एक उदास खोखली सी हंसी जो रचना के दिल को छलनी करती चली गई थी.

‘‘इस तरह मन क्यों छोटा करते हो,’’ रचनाजी बोलीं, ‘‘मैं अकेली नहीं जा रही, हम दोनों साथ जा रहे हैं. नंदिनी और रम्या स्वयं को संभालने योग्य हो गई हैं.’’

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‘‘लेकिन रचना, नंदिनी का हाल तो तुम जानती ही हो. हम दोनों के सहारे के बिना कैसे जीएगी वह.’’

‘‘मां हूं मैं, फिर भी मन को समझा लिया है मैं ने. शायद जो हमारी मौजूदगी से संभव नहीं हुआ वह हमारी गैरमौजूदगी में हो जाए. जब समस्या सिर पर आ खड़ी होती है तो हल ढूंढ़ने के अलावा और कौन सा रास्ता शेष रह जाता है?’’ रचना ने समझाना चाहा था.

‘‘ठीक है. मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो,’’ और कुछ दिनों की ऊहापोह के बाद वह मान गए थे. रचना ने अनेक तर्क दे कर उन्हें साथ जाने के लिए मना लिया था.

नंदिनी के व्यवहार में अब अजीब परिवर्तन देखा था रचना ने. वह कुछ खिंचीखिंची सी रहने लगी थी और बहुत जरूरी होने पर ही उन से बात करती. ज्यादातर अपने कमरे में बैठी, स्वयं में ही व्यस्त रहने लगी थी.

एक दिन रचना बेटी के कमरे में जा बैठीं और बोलीं, ‘‘क्या बात है नंदिनी, आजकल बहुत चुप रहने लगी हो?’’

‘‘मां, आप के पास भी कहां समय है मेरे लिए? आप तो कामक ाजी महिला हैं. मेरे जैसी निठल्ली थोड़े ही हैं…फिर अब तो आप विदेश जा रही हैं,’’ नंदिनी के स्वर का व्यंग्य उन से छिप नहीं सका था.

‘‘भविष्य संवारने के लिए एक से दूसरे स्थान जाने का सिलसिला तो सालों से चल रहा है बेटी. वैसे मैं तुम लोगों का पूरा प्रबंध कर के जा रही हूं. तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होगी. यदि कभी अचानक कोई जरूरत आ पड़े तो तुम्हारे मामा हैं न यहां. वह कह भी रहे थे कि तुम दोनों बहनों का वह पूरा खयाल रखेंगे.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ नंदिनी ने निश्वास लेते हुए कहा और बात आईगई हो गई थी.

1 माह का समय कैसे बीत गया रचना को पता भी नहीं चला. इस दौरान दफ्तर और घर दोनों ही जगहों पर उन की व्यस्तता बढ़ गई थी. जब जाने का समय आया तो रचना रो पड़ी थीं. नीरज बाबू का मन भी बोझिल हो उठा था पर वह पत्नी को ढाढ़स बंधाते रहे थे.

उधर मातापिता को विदा कर लौटी नंदिनी घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ी थी. जब बहुत देर तक उस का रोना बंद नहीं हुआ तो रम्या के संयम का बांध टूट गया.

‘‘अब कब तक यों रोनेपीटने का कार्यक्रम चलेगा, दीदी,’’ वह बेहाल स्वर में बोली थी.?

‘‘मांपापा चले गए हैं, यह पता है मुझे. मैं तो इसलिए रो रही हूं कि मां ने एक बार भी मुझ से साथ चलने को नहीं कहा,’’ नंदिनी सुबकते हुए बोली थी.

‘‘लो और सुनो, तुम्हारे कारण ही तो मांपापा घर क्या देश भी छोड़ कर चले गए. फिर तुम्हें साथ चलने को कहने का क्या औचित्य था?’’ रम्या खिलखिला कर हंसी थी.

‘‘वे मेरे कारण नहीं तुम्हारे कारण गए हैं. जब देखो तब पैसा चाहिए. मैं पूछती हूं कि जब पूंजी नहीं है तो व्यापार करना जरूरी है क्या? प्रतीक नौकरी नहीं कर सकते?’’ नंदिनी क्रोध में आ गई थी.

‘‘दीदी, मुझे कुछ भी कहो पर प्रतीक को बीच में न ही लाओ तो अच्छा है. पूंजी के लिए मां से मैं ने कहा था प्रतीक ने नहीं,’’ रम्या ने विरोध प्रकट किया था.

सुनते ही नंदिनी भड़क उठी थी और आरोपप्रत्यारोपों का सिलसिला कुछ इस तरह चला कि प्रतीक को हस्तक्षेप करना पड़ा.

‘‘यदि आप दोनों बहनों का झगड़ा शांत हो गया हो तो हम भोजन कर लें. मुझे जोर की भूख लगी है. मैं ने मेज पर खाना लगा दिया है,’’ प्रतीक ने अनुनयपूर्ण स्वर में पूछा था.

उस के नाटकीय अंदाज को देख कर रम्या शांत हो गई और नंदिनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई थी.

‘‘दीदी को भी बुला लो नहीं तो वह भूखी ही सो जाएंगी,’’ प्रतीक बोला था.

‘‘मैं न कभी रूठती हूं और न रूठे हुए को मनाती हूं,’’ रम्या ने उत्तर दिया था.

‘‘ठीक है तो मैं बुला लाता हूं उन्हें,’’ प्रतीक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘अरे, वाह, आज दीदी के लिए बड़ा प्यार उमड़ रहा है?’’

‘‘रम्या, समझ से काम लो. मम्मीपापा अब नहीं हैं यहां जो तुम्हारी दीदी को मना कर खिलापिला देंगे. तुम दोनों एकदूसरे की चिंता नहीं करोगी तो कौन करेगा?’’ प्रतीक ने समझाना चाहा था.

‘‘बड़ी वह हैं मैं नहीं. यों बातबात पर रूठना, उन्हें शोभा देता है क्या? मैं नहीं जाने वाली उन्हें मनाने,’’ रम्या ने दोटूक उत्तर दे दिया था.

प्रतीक नंदिनी को बुलाने चला गया था. वह प्रतीक के साथ आई तो तीनों भोजन करने बैठे पर दोनों बहनें बातचीत करना तो दूर एकदूसरे से नजरें मिलाने से भी कतरा रही थीं.

नंदिनी ने चुपचाप भोजन किया और फिर अपने कमरे में जा बैठी थी.

‘‘देखा तुम ने? ऐसा कितने दिन चलेगा, आईं, खाना खाया और फिर अपने कमरे में जा बैठीं. हम दोनों क्या उन के सेवक हैं जो सारा काम करते रहें.’’

‘‘वह तुम्हारी बड़ी बहन हैं, रम्या. लोग तो अनजान लोगों की भी सेवा कर देते हैं. मन शांत रखोगी तो स्वयं भी चैन से रहोगी और दूसरे भी आनंदित रहेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कुछ रिक्त स्थानों के विज्ञापन देखे थे, उन्हें भेजने के लिए प्रार्थनापत्र टाइप करने हैं,’’ वह उठ खड़ी हुई थी.

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‘‘रम्या, तुम अपनी पुरानी कंपनी में पुन: प्रयत्न क्यों नहीं करतीं. शायद बात बन जाए,’’ प्रतीक ने सलाह दी थी.

‘‘क्या कह रहे हो? जब मैं ने अचानक नौकरी छोड़ी थी तो हमारे प्रबंध निदेशक आगबबूला हो गए थे. विवाह के लिए 2 माह का वेतन अग्रिम लिया था. उसे चुकाए बिना ही मैं छोड़ आई थी. अब क्या मुंह ले कर वहां जाऊंगी?’’ रम्या रोंआसी हो उठी थी.

‘‘तुम ने ऐसा किया ही क्यों? तुम्हारे नए नियोक्ता अवश्य उन से पूछताछ करेंगे.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कंपनी का नाम तक नहीं ले रही.’’

‘‘ऐसा करने से कर्मचारी की साख को बट्टा लगता है. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘क्या पता था, फिर से नौकरी करनी पड़ेगी,’’ रम्या बोली, ‘‘विवाह से पहले कितने सपने देखे थे, सब मिट्टी में मिल गए.’’

‘‘यों मन छोटा नहीं करते, मैं नौकरी और व्यापार दोनों के लिए प्रयत्न कर रहा हूं. कुछ मित्रों से बात की है. कुछ न कुछ हो जाएगा,’’ प्रतीक ने आश्वासन दिया था.

अगले दिन रम्या और प्रतीक सो कर उठे तो नंदिनी चाय बना रही थी. आशा के विपरीत वह टे्र में 3 प्याली चाय ले कर आई और प्रतीक और रम्या को उन की चाय थमा कर अपनी चाय पीने लगी थी.

‘‘धन्यवाद, दीदी, चाय बहुत अच्छी बनी थी,’’ प्रतीक आखिरी घूंट लेते हुए बोला था.

‘‘धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए. रात्रि के भोजन के लिए तुम नहीं बुलाते तो शायद मैं भूखी ही सो जाती. इस घर में तो मेरे खाने न खाने से किसी को अंतर ही नहीं पड़ता,’’ नंदिनी भरे गले से बोली थी.

रम्या ने चौंक कर नंदिनी को देखा था.

‘‘आप क्यों चिंता करती हैं, दीदी, हम हैं न. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ प्रतीक ने ढाढ़स बंधाया था.

समय अपनी गति से बढ़ता रहा. रम्या ने अनेक प्रयत्न किए पर कहीं सफलता नहीं मिली. आखिर उस ने अपनी पुरानी कंपनी में जाने का निर्णय लिया.

‘‘नमस्ते, सर,’’ रम्या ने प्रबंध निदेशक अस्थाना के कमरे में घुसते ही अभिवादन किया था.

‘‘ओह रम्या, कहो कैसी हो, तुम विवाह करते ही ऐसी गायब हुईं जैसे गधे के सिर से सींग. तुम तो यह भी भूल गईं कि तुम ने कंपनी से 2 माह का अग्रिम वेतन लिया हुआ था.’’

‘‘यह मैं कैसे भूल सकती हूं सर. सच पूछिए तो कुछ व्यक्तिगत समस्याओं में ऐसी उलझ गई कि आ ही नहीं सकी. उस के लिए क्षमा प्रार्थी हूं.’’

‘‘ओह, तो काम करने आई हो तुम? पर मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता. मेरे ऊपर भी कुछ अफसर हैं और उन से आज्ञा लिए बिना तुम्हें फिर काम पर रखना संभव नहीं हो सकेगा.’’

‘‘लेकिन सर, यदि आप ने मुझे काम पर नहीं रखा तो 2 माह का वेतन चुकाने की सामर्थ्य मुझ में कहां है?’’

‘‘ठीक है, तुम अपना प्रार्थनापत्र छोड़ जाओ. कोई निर्णय लेते ही सूचित करेंगे,’’ अस्थाना साहब ने दोटूक शब्दों में कह दिया था.

थकीहारी रम्या घर पहुंची तो वह चौंक गई. घर में तीव्र स्वर लहरियां गूंज रही थीं. अंदर पहुंची तो पाया कि नंदिनी दीदी एक लोकप्रिय गीत की धुन पर थिरक रही थीं. कुछ देर तो रम्या ठगी सी उन्हें देखती रही थी.

‘‘दीदी, तुम तो छिपी रुस्तम निकलीं. इतना अच्छा नृत्य करती हो तुम और मुझे पता तक नहीं,’’ वह बोली थी.

‘‘जब मन प्रसन्न हो तो पांव स्वयं ही थिरक उठते हैं,’’ नंदिनी भावविभोर स्वर में बोली थी और फिर एक पत्र उस की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘ओह दीदी, एंजल कानवेंट स्कूल की ओर से भेजा गया यह तो तुम्हारा नियुक्तिपत्र है.’’

‘‘वही तो, यह मेरा पहला नियुक्ति- पत्र है. शायद मुझ अभागी का भाग्य भी करवट ले रहा है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते दीदी. मैं जानती थी कि एक न एक दिन तुम अवश्य अपनी योग्यता के झंडे गाड़ोगी.’’

‘‘रम्या, मुझे कल से ही काम पर जाना है पर तुम चिंता मत करना. मैं सारा काम कर लूंगी,’’ नंदिनी ने रम्या का मुंह मीठा करवाया था.

‘‘रम्या, कहां हो? देखो तो, बड़ा ही सुखद समाचार है,’’ कुछ ही देर में प्रतीक ने प्रवेश किया था.

‘‘कहो न, क्या बात है?’’

‘‘मैं ने अपने 3 दोस्तों के साथ मिल कर सौफ्टवेयर कंपनी बना ली है. बैंक ने कर्ज देने की बात भी मान ली है. मेरे एक हिस्सेदार के पिता बैंक में कार्यरत हैं. उन्होंने हमारी बड़ी सहायता की. अब तुम्हें कहीं नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’’

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रचना और नीरज बाबू को फोन पर जब नंदिनी और प्रतीक ने अपनी सफलता की बात बताई तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. रचना तो अपनी बेटियों को याद कर सिसक उठी थीं.

‘‘मन हो रहा है कि मैं उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं और दोनों बेटियों को गले से लगा लूं,’’ रचना बोली थीं.

‘‘मैं तो अगले सप्ताह ही उड़ कर अपनी बेटियों के पास जा रहा हूं, कई अधूरे काम पूरे करने हैं,’’ वह बोले थे.

‘‘मैं भी छुट्टी ले कर चलती हूं. नंदिनी और रम्या से मिलने को बड़ा मन हो रहा है,’’ रचना ने कहा तो नीरज बाबू प्रसन्नता से झूम उठे थे.

‘‘मैं ने कई जगह नंदिनी के विवाह की बात चलाई है. 2-3 जगह से कुछ आशा बंधी है. इस बार भारत जा कर नंदिनी का विवाह कर के ही लौटेंगे,’’ रचना पुलकित स्वर में बोलीं और नंदिनी के लिए आए विवाह प्रस्तावों की पतिपत्नी मिल कर कंप्यूटर पर विवेचना करने लगे थे.

‘‘क्यों न यह विवरण और फोटो नंदिनी को भेज दें. उस की राय भी तो जान लें,’’ नीरज बाबू बोले.

‘‘नहीं, यह सुखद समाचार तो वहां पहुंच कर हम स्वयं सुनाएंगे. नंदिनी के चेहरे पर आने वाले भाव मैं स्वयं देखना चाहती हूं,’’ रचना मुसकरा दी थीं. उस प्रकाश स्तंभ की भांति जो स्वयं निश्चल खड़ा रह कर भी दूरदूर तक लोगों को राह दिखाता है.   द्य

पदचिन्ह भाग -2

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

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‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्यावहारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

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समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

पदचिह्न

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

अगले भाग में पढ़िए- क्या पूजा को मिल पाया बहू-बेटे का साथ?

लाइफ एंज्वायमेंट

लेखक- डा. विजय श्रीवास्तव

टेलीफोन की घंटी घनघनाई. मैं ने जैसे ही फोन उठाया, उधर से आई मधुर आवाज ने कानों में मिठास घोल दी. ‘‘क्या मिस्टर गंभीर लाइन पर हैं? क्या मैं उन से बात कर सकती हूं?’’

प्रत्युत्तर में मैं ने कहा, ‘‘बोल रहा हूं.’’ इस से पहले कि मैं कुछ कहूं, उधर से पुन: बातों का सिलसिला जारी हो गया, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से रिसेप्स्निष्ट बोल रही हूं. हम ने हाल ही में एक स्कीम लांच की है. हम चाहते हैं कि आप को उस का मेंबर बनाएं. सर, इस के कई बेनीफिट हैं. शहर के प्रतिष्ठित लोगों से कांटेक्ट कर के आप हाइसोसायटी में उठबैठ सकेंगे. क्रीम सोसायटी में उठनेबैठने से आप का स्टेटस बढ़ेगा और आप ऐश से लाइफ एंज्वाय करेंगे. इतने सारे लाभों के बावजूद सर, आप के कुल बिल पर हम 10 परसेंट डिस्काउंट भी देंगे. आप समझ सकते हैं सर कि यह स्कीम कितनी यूजफुल है, आप के लिए. सर, बताइए, मैं कब आ कर मेंबरशिप ले लूं?’’

मैं एकाग्रता से उस की बातें सुन रहा था क्योंकि उस के लगातार बोलने के कारण मुझे कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिल सका. वह जब कुछ क्षण के लिए रुकी तो मैं ने तुरंत पूछ  लिया, ‘‘मैडम, आप पहले अपना नाम और परिचय दीजिए ताकि मैं आप की स्कीम के संबंध में कुछ सोच सकूं. बिना सोचेसमझे कैसे मेंबर बन पाऊंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पहले ही बता चुकी हूं कि मैं रिसेप्शनिस्ट हूं. क्या परिचय के लिए इतना काफी नहीं है? आप तो सर मेंबरशिप में इंटरेस्ट लीजिए. जो आप के लिए बहुत यूजफुल है.’’

‘‘मैडम, आप का कहना सही है पर उस से पहले आप के बारे में जानना भी तो जरूरी है. बिना कुछ जानेपहचाने मेंबर बनना कैसे संभव है.’’ वह अपनी बात पर कायम रहते हुए फिर बोली, ‘‘सर, आप मेंबर बनने के लिए यस कीजिए. जब मैं पर्सनली आ कर आप से कांटेक्ट करूंगी तब आप मुझ से रूबरू भी हो लीजिएगा. बस, आप के यस कहने की ही देर है. आप जो चाहते हैं, वह सब डिटेल में जान जाएंगे. हमारे आनरेबल कस्टमर के रूप में, आप जब यहां आएंगे तो मुलाकातें होती रहेंगी. लोगों को आपस में मिला कर, लाइफ एंज्वाय कराने का चांस देना ही हमारी स्कीम का मेन मोटो है. सर, प्लीज हमें सेवा करने का एक चांस तो अवश्य दीजिए. मेरा नाम और परिचय जानने में आप क्यों टाइम वेस्ट कर रहे हैं?’’

यह तर्क सुनने के बाद भी मैं अपनी बात पर अटल रहा. मैं ने कहा, ‘‘मैडम, जब तक आप नाम और परिचय नहीं बताएंगी, तब तक आप के प्रस्ताव पर कैसे विचार करूं?’’

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जब उस ने देखा कि मैं अपनी बात पर कायम हूं, तो हार कर उस ने कहा, ‘‘सर, जब आप को इसी में सैटिस्फैक्शन है कि पहले मैं अपना इंट्रोडक्शन दूं, तो मैं दिए देती हूं. पर सर, मेरी भी एक शर्त है. इस के बाद आप मेंबर अवश्य बनेंगे. आप इस का भी वादा कीजिए.’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ बताइए तो सही.’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मेरा नाम मोनिका है,’’ और यह बताने के साथ ही उस ने फिर अपनी बात दोहराई और बोली, ‘‘अब तो प्लीज मान जाइए, मैं कब आ जाऊं?’’

उस के बारबार के मनुहार पर कोई ध्यान न देते हुए मैं ने उस की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘मैडम, कितना सुंदर नाम है, मोनिका? जिसे बताने में आप ने इतनी देर लगा दी. जब नाम इतना शार्ट और स्वीट है, आप की आवाज इतनी मधुर है, आप बात इतने सलीके से कर रही हैं तो स्वाभाविक है, आप सुंदर भी बहुत होंगी? सच कहूं तो आप के दर्शन करने की अब इच्छा होने लगी है.’’

अपनी तारीफ सुन कर उस ने हंस कर कहा, ‘‘सर, अब आप मेन इश्यू को अवाइड कर रहे हैं. यह फेयर नहीं है. जो आप ने नाम पूछा वह मैं ने बता दिया. फिर आप मेरी तारीफ करने लगे और अब दर्शन की बात. आखिर इरादा क्या है आप का, सर? हम ने बहुत बातें कर लीं. अब आप काम की बात पर आइए. सर, बताइए कब आ कर दर्शन दे दूं.’’

वह बराबर सदस्यता लेने के लिए अनुनयविनय करती जा रही थी लेकिन मेरे मन में एक जिज्ञासा थी जिस का समाधान करना उपयुक्त समझा. मैं ने पूछा, ‘‘मोनिकाजी, इतने बड़े शहर में आप ने मुझे ही क्यों इस के लिए चुना? शहर में और लोग भी तो हैं?’’

उस ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘सर, वास्तव में स्कीम लांच होने पर हम शहर के स्टेटस वाले लोगों से फोन पर कांटेक्ट कर रहे हैं, जो हमारी मेंबरशिप अफोर्ड करने योग्य हैं. वैसे आप के नाम का प्रपोजल आप के मित्र सुदर्शनजी ने किया था. उन्होंने कहा था कि यदि मिस्टर गंभीर तैयार हो जाते हैं तो मैं भी मेंबर बन जाऊंगा. इसीलिए आप से इतनी रिक्वेस्ट कर रही हूं क्योंकि आप के यस कह देने पर हमें आप दोनों की मेंबरशिप मिल जाएगी. सर, अब तो सारी बातें क्लीयर हो गई हैं. इसलिए अब कोई और बहाना मत बनाइए. बताइए, मैं कब आऊं?’’

यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया क्योंकि कुछ कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. मुझे चुप देख कर उस ने घबराई आवाज में पूछा, ‘‘सर, अब क्या हो गया? किस गंभीर सोच में पड़ गए हैं? आप का नाम तो गंभीर है ही, क्या नेचर से भी गंभीर हैं? लाइफ में एंज्वाय करने का चांस, आप का वेट कर रहा है और आप इतनी देर से सोचने में टाइम वेस्ट कर रहे हैं. मैं ने कहा न, कम से कम मेरी बात मान कर आप एक चांस तो लीजिए, नो रिस्क नो गेन.’’

मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हो गया हूं. आप को जान कर दुख होगा कि मैं अब 68 का हो गया हूं. जीवन के इस पड़ाव में आप के द्वारा दर्शित जिंदगी का उपभोग कैसे कर सकूंगा? एंज्वाय करने के दिन तो लद गए.’’

उस ने तुरंत मेरी बात को काटते हुए कहा, ‘‘गंभीरजी, यही उम्र तो होती है मौजमस्ती करने की. जब आदमी सभी रिस्पोंसिबिलिटीज से फ्री हो जाता है. फ्री माइंड हो एंज्वाय करने का मजा ही कुछ और होता है. आप मिसेज को साथ ले कर आइए और दोनों मिल कर लुफ्त उठाइए. आप अभी तक जो मजा नहीं उठा पाए  हैं, उसे कम से कम लेटर एज गु्रप में तो उठा लीजिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यही तो परेशानी है. श्रीमतीजी एक घरेलू और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं. होटलों में आनाजाना उन्हें पसंद नहीं है. आज तक तो कभी गईं ही नहीं फिर अब कैसे जा पाएंगी? हमारे दौर में आज जैसा होटलों में जाने का चलन और संस्कृति नहीं थी. फिर इस उम्र में लोग क्या कहेंगे? आप ही बताइए, इन हालात में आप का प्रस्ताव कैसे स्वीकार करूं?’’

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उस ने तपाक से कहा, ‘‘गंभीरजी, आप जैसे एज गु्रप वालों के साथ यही तो समस्या है कि सेल्फ डिसीजन लेने में हिचकिचाते हैं. लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर अपना इंटरेस्ट और फ्यूचर क्यों किल कर रहे हैं आप? यदि आप की मिसेज को होटल आने में दिक्कत है तो क्या हुआ? उस का समाधान भी मेरे पास है. मैं आप के लिए पार्टनर का प्रबंध कर दूंगी. हाइसोसायटी में तो यह कामन बात है.

‘‘हमारे यहां कई सिंगल फीमेल मेंबर्स हैं. वे भी यही सोच कर मेंबर बनी हैं कि यदि अदर सेक्स का कोई सिंगल मेंबर होगा तो वे उस के साथ पार्टनरशिप शेयर कर लेंगी. गंभीरजी, जरा सोचिए, अब उन्हें आप के साथ एडजेस्ट होने में कोई आब्जेक्शन नहीं है तो आप को क्या डिफीकल्टी है? बस, आप को करेज दिखाने की जरूरत है. बाकी बातें आप मुझ पर छोड़ दीजिए. आप कोई टेंशन न लें अपने ऊपर. मैं हूं न, सब मैनेज कर दूंगी. आप तो अपनी च्वाइस भर बता दीजिए. बस, अब कोई और बहाना मत बनाइए और हमारा आफर फाइनल करने भर का सोचिए.’’

मोनिका की खुली और बेबाक दलीलें सुन कर मैं सकते में आ गया. मन में अकुलाहट होने लगी. सोचने लगा कि कहीं मैं उस के शब्दजालों में घिरता तो नहीं जा रहा हूं? यद्यपि उस से चर्चा करते हुए मन को आनंद की अनुभूति हो रही थी. टेलीफोन के मीटर घूमते रहने की भी चिंता नहीं थी. इसलिए बात को आगे बढ़ाते हुए, मैं ने पूछ लिया, ‘‘मोनिकाजी, इस प्रकार की पार्टनरशिप में पैसे काफी खर्च हो सकते हैं. मैं एक रिटायर आदमी हूं. इस का खर्च सब कैसे और कहां से बरदाश्त कर सकूंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘आप का यह सोचना सही है. हमारी एनुअल मेंबरशिप ही 5 हजार रुपए है. होटल विजिट की सिंगल सिटिंग में 700-800 का बिल आना साधारण बात है पर आप चिंता क्यों कर रहे हैं? इस बिल पर 10 परसेंट का डिस्काउंट भी तो मिल रहा है आप को. वैसे कभीकभी पार्टनर के बिल का पेमेंट भी आप को करना पड़ सकता है. कभी वह भी पेमेंट कर दिया करेंगी. मैं उन्हें समझा दूंगी. वह मुझ पर छोडि़ए.’’

वह एक पल रुक कर फिर बोली, गंभीरजी, एक बात कहूं, जब लाइफ एंज्वाय करना ही है तो फिर पैसों का क्या मुंह देखना? आखिर आदमी पैसा इसीलिए तो कमाता है. फिर बिना पार्टनरशिप के जिंदगी में एंज्वायमेंट कैसे होगा? सिर्फ रूखीसूखी दालरोटी खाना ही तो जिंदगी का नाम नहीं है. ‘‘गंभीरजी, एक बार इस लाइफ स्टाइल का टेस्ट कर के देखिए, सबकुछ भूल जाएंगे. शुरू में आप को कुछ अजीबअजीब जरूर लगेगा लेकिन एक बार के बाद आप का मन आप को बारबार यहां विजिट करने को मजबूर करेगा. इस का नशा सिर चढ़ कर बोलता है. यही तो रियल लाइफ का एंज्वायमेंट है.’’

‘‘मोनिकाजी, मैं 68 का हूं. क्या ऐसा करना मुझे अच्छा लगेगा?’’ मैं ने यह कहा तो वह तुनक कर बोली, ‘‘गंभीरजी, आप एज का आलाप क्यों कर रहे हैं? अरे, हमारे यहां तो 80 तक के  मेंबर हैं. उन्होंने तो कभी लाइफ एंज्वायमेंट में एज फेक्टर को काउंट नहीं किया. जिंदादिली इसी को कहते हैं कि आदमी हर एज गु्रप में स्वयं को फुल आफ यूथ समझे. बस, जोश और होश से जीने की मन में तमन्ना होनी चाहिए. ‘साठा सो पाठा’ वाली कहावत तो आप ने सुनी ही होगी. आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, जरूरत है सिर्फ आत्मशक्ति की.’’

मोनिकाजी द्वारा आधुनिक जीवन दर्शन का तर्क सुन कर मैं अचंभित हुए बिना नहीं रहा. मुझे ऐसा लगा कि मेरी प्रत्येक बात का, एक अकाट्य तथ्यात्मक उत्तर उस के पास है. वह मुझे प्रत्येक प्रश्न पर निरुत्तर करती जा रही है. अंदर ही अंदर भय भी व्याप्त होने लगा था. एकाएक मन में एक नवीन विचार प्रस्फुटित हुआ. उन से तुरंत पूछ बैठा कि आप की एज क्या है? यह सुन कर वह चौंक गई और कहने लगी, ‘‘अब मेरी एज बीच में कहां से आ गई?’’ पर जब इस के लिए मैं ने मजबूर किया तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप स्वयं समझ सकते हैं कि फाइव स्टार रिसेप्सनिस्ट की एज क्या हो सकती है? इतना तो श्योर है कि मैं आप के एज ग्रुप की नहीं हूं.’’

‘‘फिर भी बताइए तो सही, मैं विशेष कारण से पूछ रहा हूं.’’

‘‘25.’’

इस के बाद मैं ने फिर प्रश्न किया कि आप के मातापिता भी होंगे? उस ने सहजता से हां में उत्तर दिया. मैं ने फिर पूछा, ‘‘मोनिकाजी, क्या आप ने उन्हें भी सदस्य बना कर जीवन का आनंद उठाने का अवसर दिलाया है? वे तो शायद मुझ से भी कम उम्र के होंगे. जब आप अन्य लोगों को लाइफ एंज्वाय करने के लिए प्रोत्साहित और अवसर प्रदान कर रही हैं, तो उन्हें क्यों और कैसे भूल गईं? वे भी तो अन्य लोगों की तरह इनसान हैं. उन्हें भी जीवन में आनंद उठाने का अधिकार है. उन्हें भी मौका मिलना चाहिए. पूर्व में आप ही ने कहा कि यही उम्र तो एंज्वाय करने की होती है, इसलिए आप को स्मरण दिलाना मैं ने उचित समझा. ‘चैरिटी बिगिंस फ्राम होम’ वाली बात आप शायद भूल रही हैं.’’

मेरी बात सुन कर शायद उसे अच्छा नहीं लगा. खिन्न हो कर बोली, ‘‘आप मेरे मातापिता में कैसे इंटरेस्ट लेने लगे? मैं तो आप के बारे में चर्चा कर रही हूं.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘आप के मातापिता से मेरा इनसानियत का रिश्ता है. मुझे यही लगा कि जब आप सभी लोगों को जीवन में इतना सुनहरा अवसर प्रदान करने के लिए आमादा हो कर जोर दे रही हैं तो फिर इस में मेरा भी स्वार्थ है.’’

उस ने तुरंत पूछा, ‘‘मेरे मातापिता से आप का क्या स्वार्थ सिद्ध हो रहा है?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘कुछ खास नहीं, मुझे उन की कंपनी मिल जाएगी. आप मुझे पार्टनर दिलाने का जो टेंशन ले रही हैं, उस से मैं आप को मुक्त करना चाहता हूं. इसलिए मैं उन्हें भी मेंबर बनाने की नेक सलाह दे रहा हूं,’’ बिना अवरोध के अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, आप उन दोनों के मेंबर बन जाने का शुभ समाचार मुझे कब दे रही हैं, ताकि मैं खुद आप के पास आ कर सदस्यता ग्रहण कर सकूं?’’

मेरी इस बात का उत्तर शायद उस के पास नहीं था. अब उस की बारी थी निरुत्तर होने की. एकाएक खट की आवाज आई और फोन कट गया. मैं ने एक लंबी सास ली और फोन रख दिया.

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विगत 15 मिनट से चल रही बातचीत के क्रम का इस प्रकार एकाएक पटाक्षेप हो गया. मेरी एकाग्रता भंग हो गई. मैं गंभीरता से बीते क्षणों मेें हुई बातचीत के बारे में सोचने लगा कि आज के इस आधुनिक युग में विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ताओं को जीवन में आनंद और सुखशांति की परिभाषा जिस प्रकार युवाओं द्वारा परोसी तथा पेश की जा रही है, वह कितनी घिनौनी है. जिस का एकमात्र उद्देश्य उपभोक्ता को किसी भी प्रकार आकर्षित कर, उन्हें सिर्फ ‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ के आधुनिक मायाजाल में लिप्त और डुबो दिया जाए. क्या यह सब बातें हमारी भारतीय संस्कृति, संस्कारों, आदर्शों और परंपराओं के अनुरूप और उपयुक्त हैं? क्या यह उन के साथ छल और कपट नहीं है? सोच कर मन कंपित हो उठता है.

आज के आधुनिक युग की दुहाई दे कर जिस प्रकार का घृणित प्रचारप्रसार, वह भी देश की युवा पीढ़ी के माध्यम से करवाया जा रहा है, क्या वह हमारी संस्कृति पर अतिक्रमण और कुठाराघात नहीं है? हम कब तक मूकदर्शक बने, इन सब क्रियाकलापों तथा आपदाओं के साक्षी हो कर, इन्हें सहन करते जाएंगे?

दूसरे दिन फिर उसी होटल से फोन आया. इस बार आवाज किसी पुरुष की थी. उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से बोल रहा हूं. हम ने एक स्कीम लांच की है. हम उस का आप को मेंबर…’’ इतना सुनते ही मैं ने बात काटते हुए उस से प्रश्न किया, ‘‘आप के यहां मोनिकाजी रिसेप्शनिस्ट हैं क्या?’’

उस ने सकारात्मक उत्तर देते हुए प्रत्युत्तर में हां कहा. इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया कि कल इस बारे में उन से विस्तृत चर्चा हो चुकी है. मेंबरशिप के बारे में आप उन से बात कर लीजिए.

तब से मैं उन के फोन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. पर खेद है कि उन का फोन नहीं आया. इस प्रकार तब से मैं रियल माडर्न लाइफ एंज्वायमेंट करने के लिए प्रतीक्षारत हूं

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