आप भी तो नहीं आए थे: भाग 2

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लेखक- विजय सिंघल ‘अकेला’

‘‘कभीकभार सड़कबाजार में मिल जाता है या घूमने के दर्शनीय स्थलों पर टकरा जाता है अचानक. बस.’’

‘‘कभी तुम्हारे पास आताजाता नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

भैया, फिर रोने लगे.

मैं लौन में जा कर टहलने लगा, कुछ देर बाद भैया मेरे पास आए और बोले, ‘‘अब कभी तन्मय तुम्हें मिले तो पूछना कि मां की मृत्यु पर क्यों नहीं आया. मां को एकदम ही क्यों भुला दिया?’’

तन्मय के इस बेगाने व रूखे व्यवहार की पीड़ा उन्हें बहुत कसक दे रही थी.

उन की इस करुण व्यथा के प्रति, उस बेकली के प्रति, मेरे मन में दया नहीं उपजी… क्रोध फुफकारने लगा, मन में क्षोभ उभरने लगा. मन में गूंजने लगा कि अपनी मां की मृत्यु पर तुम भी तो नहीं आए थे, तुम्हारे मन में भी तो मां के प्रति कोई ममता, कोई पे्रम भावना नहीं रह गई थी. यदि तुम्हारा बेटा अपनी मां की मृत्यु पर नहीं आया तो इतनी विकलता क्यों? क्या तुम्हारी मां तुम्हारे लिए मां नहीं थी, तन्मय की मां ही मां है. तन्मय की मां के पास तो धन का विपुल भंडार था, उसे तन्मय को पालतेपोसते वक्त धनार्जन हेतु खटना नहीं पड़ा था, पर तुम्हारी मां तो एक गरीब, कमजोर, बेबस विधवा थी. लोगों के कपड़े सींसीं कर, घरघर काम कर के उस ने तुम्हें पालापोसा, पढ़ाया, लिखाया था. जब तन्मय की मां अपने राजाप्रासाद में सुखातिरेक से खिल- खिलाती विचरण करती थी तब तुहारी मां दुख, निसहायता, अभाव से परेशान हो कर गलीगली पीड़ा के अतिरेक से बिलबिलाती घूमती थी. उसी विवश पर ममतामयी मां को भी तुम ने भुला दिया… भुलाया था या नहीं.

तेरहवीं बाद सब विदा होने लगे.

विदा होने के समय भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे. बोले, ‘‘पूछोगे न भैया तन्मय से?’’

मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘यह पूछना निरर्थक है.’’

‘‘क्यों? निरर्थक क्यों है?’’

‘‘क्योंकि आप जानते हैं कि वह क्यों नहीं आया?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह क्यों नहीं आया,’’ यंत्रचलित से वह दोहरा उठे.

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‘‘हां, आप जानते हैं…’’ मैं किंचित कठोर हो उठा, ‘‘जरा अपने दिल को टटोलिए. जरा अपने अतीत में झांक कर देखिए…आप को जवाब मिल जाएगा. याद कीजिए, जब आप अपनी मां के बेटे थे, अपनी मां के लाडले थे तो आप को अपनी बीमार मां का, आप के वियोग की व्यथा से जरूर दुखी मां का, आंसुओं से भीगा निस्तेज चेहरा दिखलाई देगा यही शिकायत करता हुआ जो आप को अपने बेटे तन्मय से है.

‘‘वह पूछ रही होगी, ‘बेटा, तू मुझे बीमारी में भी देखने कभी नहीं आया. तू ने बाहर जा कर धीरेधीरे मेरे पास आना ही छोड़ दिया, वह मैं ने सह लिया…मैं ने सोच लिया तू अपने परिवार के साथ खुश है. मेरे पास नहीं आता, मुझे याद नहीं करता, न सही. पर मैं लंबे समय तक रोग शैया पर लेटी बीमारी की यंत्रणा झेलती रही, तब भी तुझे मेरे पास आने की, बीमारी में मुझे सांत्वना देने की इच्छा नहीं हुई. तू इतना निर्दयी, इतना भावनाशून्य, क्योंकर हो गया बेटा, तू अपनी जन्मदात्री को, अपनी पालनपोषणकर्ता मां को ही भुला बैठा, तू मेरी मृत्यु पर मुझे कंधा देने भी नहीं आया, मैं ने ऐसा क्या कर दिया तेरे साथ जो तू ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.

‘‘ ‘ऐसा क्यों किया बेटा तू ने? क्या मैं ने तुझे प्यार नहीं किया? अपना स्नेह तुझे नहीं दिया. मैं तुझे हर समय हर क्षण याद करती रही, मां को ऐसे छोड़ देता है कोई. बतला मेरे बेटे, मेरे लाल. मेरे किस कसूर की ऐसी निर्मम सजा तू ने मुझे दी. तुझे एक बार देखने की, एक बार कलेजे से लगाने की इच्छा लिए मैं चली गई. मुझे तेरा धन नहीं तेरा मन चाहिए था बेटा, तेरा प्यार चाहिए था.’ ’’

कह कर मैं थोड़ा रुका, मेरा गला भर आया था.

मैं आगे फिर कहने लगा, ‘‘आप अपने परिवार, अपनी पत्नी और संतान में इतने रम गए कि आप की मां, आप की जन्मदात्री, आप के अपने भाईबहन, सब आप की स्मृति से निकल गए, सब विस्मृति की वीरान वादियों में गुम हो गए. सब को नेपथ्य में भेज दिया आप ने. उन्हीं विस्मृति की वीरान वादियों में…उसी नेपथ्य में आप के बेटे तन्मय ने आप सब को भेज दिया, जो आप ने किया वही उस ने किया. सिर्फ इतिहास की पुनरावृत्ति ही तो हुई है, फिर शिकवाशिकायत क्यों? रोनाबिसूरना क्यों? वह भी अपने प्रेममय एकल परिवार में लिप्त है और आप लोगों से निर्लिप्त है, आप लोगों को याद नहीं करता. बस, आप को अपने बच्चोंं की मां दिखलाई दी पर अपनी मां कभी नजर नहीं आईं, उस को भी अपनी मां नजर नहीं आ रहीं.’’

कह कर मैं फिर थोड़ा रुका, ठीक से बोल नहीं पा रहा था. गला अवरुद्ध सा हुआ जा रहा था. कुछ क्षण के विराम के बाद फिर बोला, ‘‘लगता यह है कि जब धन का अंबार लगने लगता है, जीवन में सुखसुकून का, तृप्ति का, आनंद का, पारावार ठाठें मारने लगता है, तो व्यक्ति केवल निज से ही संपृक्त हो कर रह जाता है. बाकी सब से असंपृक्त हो जाता है. उस के मनमस्तिष्क से अपने मातापिता, भाईबहन वाला परिवार बिसरने लगता है, भूलने लगता है और अपनी संतान वाला परिवार ही मन की गलियों, कोनों में पसरने लगता है. सुखतृप्ति का यह संसार शायद ऐसा सम्मोहन डाल देता है कि व्यक्ति को अपना निजी परिवार ही यथार्थ लगने लगता है और अपने मातापिता वाला परिवार कल्पना लगने लगता है और यथार्थ तो यथार्थ होता है और कल्पना मात्र कल्पना.

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‘‘आप को अपनी पत्नी की अपने पुत्र को देखने की ललक दिखलाई पड़ी. अपनी मां की अपने पुत्र को देखने की तड़प दिखलाई नहीं पड़ी. अपनी बीमार पत्नी की बेटे के प्रति चाह भरी आहेंकराहें सुनाई पड़ीं पर अपनी बीमार मां की, आप को देखने की दुख भरी रुलाई नहीं सुनाई पड़ी.

‘‘क्यों सुनाई पड़ती? क्योंकि आप भूल गए थे कि कोई आप की भी मां है, जैसे आप की पत्नी ने रुग्ण अवस्था में दुख भोगा था आप की मां ने भी भोगा था. जैसे आप की पत्नी ने अपने पुत्र के आगमन की रोरो कर प्रतीक्षा की थी वैसे ही दुख भरी प्रतीक्षा आप की मां ने आप की भी की थी. पर आप न आए. न आप पलपल मृत्यु की ओर अग्रसर होती मां को देखने आए और न ही उस के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

‘‘वही अब आप के पुत्र ने भी किया. यह निरासक्ति की, बेगानेपन की फसल, आप ने ही तो बोई थी. तो आप ही काटिए.’’

भैया कुछ न बोले…बस,

आप भी तो नहीं आए थे: भाग 1

लेखक- विजय सिंघल ‘अकेला’

सुबह 6 बजे का समय था. मैं अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.

वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.

पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.

‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’

‘‘ठीक है, जाइए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगी?’’

‘‘चलती हूं मैं भी.’’

हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.

भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.

‘‘चाची, मां चली गईं.’’

शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.

इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.

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‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’

मैं उन की पीठ सहलाता रहा.

थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.

‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’

‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.

‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.

बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’

वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.

इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.

भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’

भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’

कहतेकहते भैया सिसक पड़े.

‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.

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भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

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तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

भैया मेरे पास आ कर बैठे तो बहुत दुखी, उदास, टूटेटूटे और निराश लग रहे थे. वह बोले, ‘‘एकदो दिन में सब चले जाएंगे. फिर मैं रह जाऊंगा और मकान में फैला मरघट सा सन्नाटा. प्रेम से बसाया नीड़ उजड़ गया. सब फुर्र हो गए. अब कैसे कटेगी मेरी तनहा जिंदगी…’’ और इतना कहतेकहते वह फफक पड़े.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

वो जलता है मुझ से: भाग 1

‘‘सुपीरियरिटी कांप्लेक्स जैसी कोई भी भावना नहीं होती. वास्तव में जो इनसान इनफीरियरिटी कांप्लेक्स से पीडि़त है उसी को सुपीरियरिटी कांप्लेक्स भी होता है. अंदर से वह हीनभावना को ही दबा रहा होता है और यही दिखाने के लिए कि उसे हीनभावना तंग नहीं कर रही, वह सब के सामने बड़ा होने का नाटक करता है.

‘‘उच्च और हीन ये दोनों मनोगं्रथियां अलगअलग हैं. उच्च मनोग्रंथि वाला इनसान इसी खुशफहमी में जीता है कि सारी दुनिया उसी की जूती के नीचे है. वही सब से श्रेष्ठ है, वही देता है तो सामने वाले का पेट भरता है. वह सोचता है कि यह आकाश उसी के सिर का सहारा ले कर टिका है और वह सहारा छीन ले तो शायद धरती ही रसातल में चली जाए. किसी को अपने बराबर खड़ा देख उसे आग लग जाती है. इसे कहते हैं उच्च मनोगं्रथि यानी सुपीरियरिटी कांप्लेक्स.

‘‘इस में भला हीन मनोगं्रथि कहां है. जैसे 2 शब्द हैं न, खुशफहमी और गलतफहमी. दोनों का मतलब एक हो कर भी एक नहीं है. खुशफहमी का अर्थ होता है बेकार ही किसी भावना में खुश रहना, मिथ्या भ्रम पालना और उसी को सच मान कर उसी में मगन रहना जबकि गलतफहमी में इनसान खुश भी रह सकता है और दुखी भी.’’

‘‘तुम्हारी बातें बड़ी विचित्र होती हैं जो मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती हैं. सच पूछो तो आज तक मैं समझ ही नहीं पाया कि तुम कहना क्या चाहते हो.’’

‘‘कुछ भी खास नहीं. तुम अपने मित्र के बारे में बता रहे थे न. 20 साल पहले तुम पड़ोसी थे. साथसाथ कालिज जाते थे सो अच्छा प्यार था तुम दोनों में. पढ़ाई के बाद तुम पिता के साथ उन के व्यवसाय से जुड़ गए और अच्छेखासे अमीर आदमी बन गए. पिता की जमा पूंजी से जमीन खरीदी और बैंक से खूब सारा लोन ले कर यह आलीशान कोठी बना ली.

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‘‘उधर 20 साल में तुम्हारे मित्र ने अपनी नौकरी में ही अच्छी इज्जत पा ली, उच्च पद तक पहुंच गया और संयोग से इसी शहर में स्थानांतरित हो कर आ गया. अपने आफिस के ही दिए गए छोटे से घर में रहता है. तुम से बहुत प्यार भी करता है और इन 20 सालों में वह जब भी इस शहर में आता रहा तुम से मिलता रहा. तुम्हारे हर सुखदुख में उस ने तुम से संपर्क रखा. हां, यह अलग बात है कि तुम कभी ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि आज की ही तरह तुम सदा व्यस्त रहे. अब जब वह इस शहर में पुन: आ गया है, तुम से मिलनेजुलने लगा है तो सहसा तुम्हें लगने लगा है कि उस का स्तर तुम्हारे स्तर से नीचा है, वह तुम्हारे बराबर नहीं है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है.’’

‘‘ऐसा ही है. अगर ऐसा न होता तो उस के बारबार बुलाने पर भी क्या तुम उस के घर नहीं जाते? ऐसा तो नहीं कि तुम कहीं आतेजाते ही नहीं हो. 4-5 तो किटी पार्टीज हैं जिन में तुम जाते हो. लेकिन वह जब भी बुलाता है तुम काम का बहाना बना देते हो.

‘‘साल भर हो गया है उसे इस शहर में आए. क्या एक दिन भी तुम उस के घर पर पहले जितनी तड़प और ललक लिए गए हो जितनी तड़प और ललक लिए वह तुम्हारे घर आता रहता था और अभी तक आता रहा? तुम्हारा मन किया दोस्तों से मिलने का तो तुम ने एक पार्टी का आयोजन कर लिया. सब को बुला लिया, उसे भी बुला लिया. वह भी हर बार आता रहा. जबजब तुम ने चाहा और जिस दिन उस ने कहा आओ, थोड़ी देर बैठ कर पुरानी यादें ताजा करें तो तुम ने बड़ी ठसक से मना कर दिया. धीरेधीरे उस ने तुम से पल्ला झाड़ लिया. तुम्हारी समस्या जब यह है कि तुम ने अपने बेटे के जन्मदिन पर उसे बुलाया और पहली बार उस ने कह दिया कि बच्चों के जन्मदिन पर भला उस का क्या काम?’’

‘‘मुझे बहुत तकलीफ हो रही है राघव…वह मेरा बड़ा प्यारा मित्र था और उसी ने साफसाफ इनकार कर दिया. वह तो ऐसा नहीं था.’’

‘‘तो क्या अब तुम वही रह गए हो? तुम भी तो यही सोच रहे हो न कि वह तुम्हारी सुखसुविधा से जलता है तभी तुम्हारे घर पर आने से कतरा गया. सच तो यह है कि तुम उसे अपने घर अपनी अमीरी दिखाने को बुलाते रहे हो, अचेतन में तुम्हारा अहम संतुष्ट होता है उसे अपने घर पर बुला कर. तुम उस के सामने यह प्रमाणित करना चाहते हो कि देखो, आज तुम कहां हो और मैं कहां हूं जबकि हम दोनों साथसाथ चले थे.’’

‘‘नहीं तो…ऐसा तो नहीं सोचता मैं.’’

‘‘कम से कम मेरे सामने तो सच बोलो. मैं तुम्हारे इस दोस्त से तुम्हारे ही घर पर मिल चुका हूं. जब वह पहली बार तुम से मिलने आया था. तुम ने घूमघूम कर अपना महल उसे दिखाया था और उस के चेहरे पर भी तुम्हारा घर देखते हुए बड़ा संतोष झलक रहा था और तुम कहते हो वह जलता है तुम्हारा वैभव देख कर. तुम्हारे चेहरे पर भी तब कोई ऐसा ही दंभ था…मैं बराबर देख रहा था. उस ने कहा था, ‘भई वाह, मेरा घर तो बहुत सुंदर और आलीशान है. दिल चाह रहा है यहीं क्यों न आ जाऊं…क्या जरूरत है आफिस के घर में रहने की.’

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‘‘तब उस ने यह सब जलन में नहीं कहा था, अपना घर कहा था तुम्हारे घर को. तुम्हारे बच्चों के जन्मदिन पर भागा चला आता था और आज उसी ने मना कर दिया. उस ने भी पल्ला खींचना शुरू कर दिया, आखिर क्यों. हीन ग्रंथि क्या उस में है? अरे, तुम व्यस्त रहते हो इसलिए उस के घर तक नहीं जाते और वह क्या बेकार है जो अपने आफिस में से समय निकाल कर भी चला आता है. प्यार करता था तभी तो आता था. क्या एक कप चाय और समोसा खाने चला आता था?

‘‘जिस नौकरी में तुम्हारा वह दोस्त है न वहां लाखों कमा कर तुम से भी बड़ा महल बना सकता था लेकिन वह ईमानदार है तभी अभी तक अपना घर नहीं बना पाया. तुम्हारी अमीरी उस के लिए कोई माने नहीं रखती, क्योंकि उस ने कभी धनसंपदा को रिश्तों से अधिक महत्त्व नहीं दिया. दोस्ती और प्यार का मारा आता था. तुम्हारा व्यवहार उसे चुभ गया होगा इसलिए उस ने भी हाथ खींच लिया.’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है…मुझ में उच्च गं्रथि का विकास होने लगा है या हीन ग्रंथि हावी हो रही है?’’

‘‘दोनों हैं. एक तरफ तुम सोचने लगे हो कि तुम इतने अमीर हो गए हो कि किसी को भी खड़ेखडे़ खरीद सकते हो. तुम उंगली भर हिला दोगे तो कोई भी भागा चला आएगा. यह मित्र भी आता रहा, तो तुम और ज्यादा इतराने लगे. दोस्तों के सामने इस सत्य का दंभ भी भरने लगे कि फलां कुरसी पर जो अधिकारी बैठा है न, वह हमारा लंगोटिया यार है.

‘‘दूसरी तरफ तुम में यह ग्रंथि भी काम करने लगी है कि साथसाथ चले थे पर वह मेज के उस पार चला गया, कहां का कहां पहुंच गया और तुम सिर्फ 4 से 8 और 8 से 16 ही बनाते रह गए. अफसोस होता है तुम्हें और अपनी हार से मुक्ति पाने का सरल उपाय था तुम्हारे पास उसे बुला कर अपना प्रभाव डालना. अपने को छोटा महसूस करते हो उस के सामने तुम. यानी हीन ग्रंथि.

‘‘सत्य तो यह है कि तुम उसे कम वैभव में भी खुश देख कर जलते हो. वह तुम जितना अमीर नहीं फिर भी संतोष हर पल उस के चेहरे पर झलकता है…इसी बात पर तुम्हें तकलीफ होती है. तुम चाहते हो वह दुम हिलाता तुम्हारे घर आए…तुम उस पर अपना मनचाहा प्रभाव जमा कर अपना अहम संतुष्ट करो. तुम्हें क्या लगता है कि वह कुछ समझ नहीं पाता होगा? जिस कुरसी पर वह बैठा है तुम जैसे हजारों से वह निबटता होगा हर रोज. नजर पहचानना और बदल गया व्यवहार भांप लेना क्या उसे नहीं आता होगा. क्या उसे पता नहीं चलता होगा कि अब तुम वह नहीं रहे जो पहले थे. प्रेम और स्नेह का पात्र अब रीत गया है, क्या उस की समझ में नहीं आता होगा?

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‘‘तुम कहते हो एक दिन उस ने तुम्हारी गाड़ी में बैठने से मना कर दिया. उस का घर तुम्हारे घर से ज्यादा दूर नहीं है इसलिए वह पैदल ही सैर करते हुए वापस जाना चाहता था. तुम्हें यह भी बुरा लग गया. क्यों भई? क्या वह तुम्हारी इच्छा का गुलाम है? क्या सैर करता हुआ वापस नहीं जा सकता था. उस की जराजरा सी बात को तुम अपनी ही मरजी से घुमा रहे हो और दुखी हो रहे हो. क्या सदा दुखी ही रहने के बहाने ढूंढ़ते रहते हो?’’ आंखें भर आईं विजय की.

‘‘प्यार करते हो अपने दोस्त से तो उस के स्वाभिमान की भी इज्जत करो. बचपन था तब क्या आपस में मिट्टी और लकड़ी के खिलौने बांटते नहीं थे. बारिश में तुम रुके पानी में धमाचौकड़ी मचाना चाहते थे और वह तुम्हें समझाता था कि पानी की रुकावट खोल दो नहीं तो सारा पानी कमरों में भर जाएगा.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दिल का तीसरा कोना: भाग 1

प्यार को कैमिकल रिएक्शन मानने वाली कुहू को 15 साल बाद पता चला कि औरतों के दिल में 3 कोने होते हैं, जिन में से एक में उस का अपना घर, दूसरे में मायका सिमटा होता है. जबकि तीसरे में ऐसी यादें छिपी होती हैं, जिन्हें वह फुरसत के क्षणों में निकाल कर धोपोंछ कर रख देती है. आरव की यादें…

3बार घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो मोनिका चौंकी, ‘क्या बात है जो कुहू दरवाजा नहीं खोल रही. उसी ने तो फोन कर के कहा था. आज मैं फ्री हूं, उमंग कंपनी टूर पर गया है. कुछ देर बैठ कर गप्प मारेंगे, साथ में लंच करेंगे. बस तू आ जा.’

मोनिका ने एक लंबी सांस ली, कितनी बातें करती थी कुहू. मैं यहां असम में पति के औफिस में काम करने वाले सहकर्मियों की पत्नियों के अलावा किसी और को नहीं जानती थी और कुहू को देखो, उस के जानने वालों की कोई कमी नहीं थी. अपनी बातें कहने के लिए उस के पास दोस्त ही दोस्त थे.

मोनिका और कुहू ने बनारस में एक हौस्टल, एक कमरे में 3 साल साथ बिताए थे. इसलिए एकदूसरे पर पूरा विश्वास था. जो 3 साल एक कमरे में एक साथ रहेगा, वह बेस्ट फ्रैंड ही होगा. मोनिका और कुहू भी बेस्ट फ्रैंड थीं. शादी के बाद भी दोनों फोन और ईमेल से बराबर जुड़ी रहीं. बाद में जब मोनिका के पति की नियुक्ति भी असम के उसी नगर में हो गई, जहां कुहू उमंग के साथ रह रही थी. तो…

मोनिका इतना ही सोच पाई थी कि उस के विचारों पर विराम लगाते हुए कुहू ने दरवाजा खोला तो उस के चेहरे पर मुसकान खिली हुई थी. कुहू ने मोनिका का हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा, ‘‘अरे कब आई तुम, लगता है कई बार बेल बजाना पड़ा. मैं बैडरूम में थी, इसलिए सुनाई नहीं दिया.’’

उस के चेहरे पर भले ही मुसकान खिली थी, पर उस की आवाज से मोनिका को समझते देर नहीं लगी कि वह खूब रोई थी. उस के चेहरे पर उदासी के भाव साफ दिख रहे थे. मोनिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘एक बात तो उमंग बिलकुल सच कहता है कि रोने के बाद तुम्हारी आंखें बहुत खूबसूरत हो जाती हैं.’’

बातें करते हुए दोनों ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गईं. मोनिका के चेहरे पर कुहू से मिलने की खुशी और उसे देख कर अंदर उठ रहे सवालों के जवाब की चाह नजर आ रही थी.

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बातों के दौरान कुहू के चेहरे पर हल्की मुसकान के साथ उस की आंखों के कोर भीगे दिखाई दिए. उस ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘चलो मोनिका खाना खाते हैं.’’

खाने के लिए कह कर कुहू उठने लगी तो मोनिका ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा, ‘‘क्या बात है कुहू?’’

‘‘अरे कुछ नहीं यार, आज मैं ने एक वायरस को निपटा दिया है, जो मेरी जिंदगी की विंडो को खा रहा था.’’ कुहू ने बात तो मजबूरी के साथ शुरू की थी, पर पूरी करतेकरते उस का गला भर आया था.

मोनिका ने धीरे से पूछा, ‘‘कहीं तुम आरव की बात तो नहीं कर रही हो?’’

उस ने धीरे से स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’

आरव उस का कौन था या वह आरव की कौन थी. दोनों में से यह कोई नहीं जानता था. फिर भी दोनों एकदूसरे से सालों से जुड़े थे. और कुहू, उस की तो बात ही निराली थी. वह बहुत ज्यादा सुंदर तो नहीं थी, पर उस की कालीकाली बड़ीबड़ी आंखों में एक अनोखा आकर्षण था. कोई भी उसे एक बार देख लेता, वह उसी में खो जाता.

होंठों पर हमेशा मधुर मुसकान, कभी किसी से कोई लड़ाईगझगड़ा नहीं, वह एक अच्छी मददगार थी. उस के मन में दूसरों के लिए दया का विशाल सागर था.

वह कभी दूसरों के लिए गलत नहीं सोच सकती थी. वह चंचल और हमेशा खुश रहने वालों में थी, किसी को सताने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. वह हमेशा हंसती और दूसरों को हंसाती रहती थी.

और इसी तरह एक दिन उस का रौंग नंबर लग गया. दूसरी ओर से ऐसी आवाज आई, जो किसी के भी दिल को भा जाए. उस मनमोहक आवाज में मंत्रमुग्ध हो कर कुहू इस तरह बातें करने लगी जैसे वह उसे अच्छी तरह जानती हो. थोड़ी देर बातें करने के बाद उस ने खुश हो कर फोन डिसकनेक्ट करते हुए कहा, ‘‘तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा आरव, तुम से फिर बातें करूंगी.’’

फोन रख कर कुहू पलटी और मोनिका के गले में बांहें डाल कर कहने लगी, ‘‘आज तो बातें करने में मजा आ गया. आज पहली बार किसी ऐसे लड़के से बात की है, जिस से फिर बात करने का मन हो रहा है.’’

‘‘तुझे क्या पता, वह लड़का ही है, देखा है उसे?’’ मोनिका ने टोका.

‘‘उस ने बताया कि एलएलबी कर रहा है तो लड़का ही होगा न?’’

‘‘बस, छोड़ो मुझे जाने दो, मुझे पढ़ना है. मैं तुम्हारी तरह होशियार तो हूं नहीं.’’ मोनिका ने कहा और कमरे में आ गई.

उस के पीछेपीछे कुहू भी आ गई. वह इस तरह खुश थी मानो उस ने प्रशासनिक नौकरी की प्रीलिम पास कर ली हो. कुहू बहुत ज्यादा नहीं पढ़ती थी फिर भी उस के नंबर बहुत अच्छे आते थे. जबकि मोनिका खूब मेहनत करती थी, तब जा कर उस के अच्छे नंबर आ पाते थे.

उस दिन के बाद उस ने आरव से बातचीत शुरू कर दी थी. दिन में कभी एक बार तो कभी 2 बार उस से बात जरूर करती थी. उस दिन कुहू बहुत खुश थी, क्योंकि आरव उस से मिलने हौस्टल आ रहा था. खुश तो थी, पर मन ही मन घबरा भी रही थी.

क्योंकि इस के पहले वह किसी लड़के से इस तरह नहीं मिली थी और न आमनेसामने बात की थी. पर अब तो आरव को आना ही था. उस दिन वह काफी बेचैन दिखाई दे रही थी. 11 बजे के आसपास हौस्टल के गेट पर बैठने वाली सरला देवी ने आवाज लगाई, ‘‘कुहू नेगी, आप से कोई मिलने आया है.’’

मोनिका भी कुहू के पीछेपीछे दौड़ी कि देखूं तो कुहू का बौयफ्रैंड कैसा है. क्योंकि वह अकसर मुंह टेढ़ा कर के उस के बारे में बताया करती थी.

आरव भी घबराया हुआ था. गोरा रंग, भूरी आंखें और तपे सोने जैसी आभा वाले बाल, वह काफी सुंदर नौजवान था. दोनों हौस्टल के पार्क में एकदूसरे के सामने बैठे थे. मोनिका ने देखा तो आरव शायद सोच रहा था कि वह क्या बात करे.

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वैसे कुहू के बताए अनुसार वह कम बातूनी नहीं था, पर किसी लड़की से शायद उस की यह पहली मुलाकात थी,  वह भी गर्ल्स हौस्टल  में. शायद वह रिस्क ले कर वहां आया था.

बात करने के लिए कुहू भी उत्सुक थी. उस से रहा नहीं गया तो उस ने आरव के हाथ में एक काला निशान देख कर उस के बारे  में पूछा, ‘‘यह क्या है? स्कूटर की ग्रीस लग गई है या जल गया है? क्या हुआ यहां?’’

एक साथ कुहू ने कई सवाल कर डाले.

आरव मुसकराया, अब उसे भी कुछ कहने यानी बातचीत करने का बहाना मिल गया था. उस ने कहा, ‘‘यह मेरा बर्थ मार्क है.’’

थोड़ी देर दोनों ने यहांवहां की बातें कीं, इधरउधर की बातें कर के आरव चला गया. वह गीतसंगीत का बहुत शौकीन था. जबकि कुहू को गीतसंगीत पसंद नहीं था. उसे सोना अच्छा लगता था. एक दिन वह सो रही थी, तभी सरला देवी ने आवाज लगाई, ‘‘कुहू नेगी का फोन आया है.’’

थोड़ी देर बाद कुहू बातचीत कर के लौटी, तो जोरजोर से हंसने लगी. मोनिका उस का मुंह ताक रही थी. हंस लेने के बाद कुहू ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आज तो आरव ने गाना गाया. उस की आवाज बहुत अच्छी है.’’

‘‘कौन सा गाना गाया?’’ मोनिका ने पूछा.

तो कुहू ने कहा, ‘‘बड़े अच्छे लगते हैं, ये धरती, ये नदियां, ये रैना और तुम.’’

थोड़ा रुक कर आगे बोली, ‘‘यही नहीं, वह सिनेमा देखने को भी कह रहा था. मैं मना नहीं कर पाई यार वह कितना भोला है, थोड़ा बुद्धू भी है. यार मोनिका, तुम भी साथ चलना. मैं उस के साथ अकेली नहीं जाऊंगी, ठीक नहीं लगता.’’

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कुहू एकदम से चल पड़ी तो उसे चुप कराने के लिए मोनिका ने कहा, ‘‘ठीक है बाबा, चलूंगी बस…’’

जाने आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दिल का तीसरा कोना

अग्निपरीक्षा: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- अग्निपरीक्षा: भाग 1

लेखिका- रेणु गुप्ता

भाई की यह हालत देख सुरभि का मन पसीज उठा था. लेकिन वह भी परिस्थितियों के हाथों मजबूर थी. मुंह मोड़ कर भर आई आंखों को भाई से छिपाते हुए उस ने राज से कहा था, ‘ठीक है, तू शादी का काम संभाल ले, पर इस बात का ध्यान रखना कि स्मिता से कभी बोलेगा नहीं?’ और राज सिर हिलाते हुए वहां से चला गया था.

आखिरकार स्मिता और भुवन की शादी हो गई थी. विदाई के समय रोते हुए राज को सामने देख कर स्मिता अपनेआप पर काबू नहीं रख पाई और बेहोश हो गई. होश आने पर उसे ऐसा महसूस हुआ था जैसे उस की दुनिया उजड़ गई हो.

खैर, टूटा हुआ दिल ले कर स्मिता भुवन के साथ अपनी ससुराल आ गई थी. सुहागरात को उस ने टूटे मन से रोते हुए भुवन के सामने समर्पण किया था. उन क्षणों में उस के अंतर्मन का सारा संताप उस के चेहरे पर आ गया था, जिसे भुवन ने संकोच और घबराहट समझा था.

भुवन एक बहुत ही अच्छे स्वभाव का, सज्जन युवक था. उस ने स्मिता को अपना पूरा प्यार दिया था, उसे टूट कर चाहा था.

शुरू में राज के बिना स्मिता बहुत बेचैन और उदास रही थी. जबजब भुवन उसे छूता, वह छटपटा उठती. लेकिन धीरेधीरे भुवन के सरल सहज बेशुमार प्यार की छांव में स्मिता सहज होने लगी, तथा उस के मन में भुवन के लिए चाहत पैदा होने लगी. वक्त गुजरने के साथ वह धीरेधीरे राज को भूलने भी लगी थी. हां, जब भी वह भैयाभाभी के घर आती, तो पुराने घाव हरे हो जाते.

भुवन के साथ रोतेहंसते कब 2 साल बीत गए, पता तक न चला था. स्मिता राज को एक हद तक भूल चुकी थी तथा भुवन के साथ अपनी नई जिंदगी में कुछकुछ रमने लगी थी.

राज की शादी भी उस की जाति की एक धनाढ्य परिवार की सुशिक्षित सुंदर लड़की से हो गई थी. राज अपनी शादी का कार्ड देने स्मिता के घर आया था. राज की शादी में जाने के लिए भुवन ने उस से कहा तो वह सिरदर्द का बहाना बना कर शादी में नहीं गई. उस दिन राज सारे दिन उसे बहुत याद आता रहा था तथा वह राज के साथ बिताए पलों को दोबारा जेहन में जीती रही थी. बाद में उस ने भाभी से सुना था कि राज ने यह शादी बहुत मुश्किल से की थी. उस की मां ने बहुत मिन्नतों- खुशामदों के बाद उसे शादी के लिए राजी किया था.

इधर कुछ दिनों से स्मिता कुछ परेशान चल रही थी. उस की शादी हुए 2 वर्ष हो चुके थे लेकिन उस की गोद भरने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस की परेशानी देख कर भुवन उसे डाक्टर के पास ले गया था. पूरी जांच करने के बाद डाक्टर ने उसे बताया कि आप की पत्नी में गर्भधारण की क्षमता सामान्य से कुछ कम है, लेकिन सही उपचार के बाद वह गर्भधारण कर सकती है.

डाक्टर की इस बात ने भुवन और स्मिता को हिला कर रख दिया था. उस दिन स्मिता फूटफूट कर रोई थी. रोतेरोते उस ने भुवन से कहा था, ‘भुवन, मैं बहुत बदनसीब हूं. विधाता ने बचपन में ही मेरी मां छीन ली. जिंदगी भर मैं मांबाप के प्यार से वंचित रही और अब मुझे बच्चे का सुख नहीं दिया?’

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स्मिता की गर्भधारण क्षमता में कमी की बात सुन कर भुवन भी बहुत मायूस हो गया था. खैर, स्मिता का उपचार शुरू हो गया. स्मिता की शादी को 4 वर्ष पूरे होने को आए लेकिन उस को मातृत्व का सुख मिलने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

बच्चों की कमी से उबरने के लिए भुवन ने अपनेआप को पूरी तरह अपने व्यापार में डुबो दिया था. बढ़ते व्यापार की वजह से वह स्मिता को बहुत कम वक्त देने लगा था. उन दोनों के बीच धीरेधीरे शून्य पसरता जा रहा था. इधर व्यापार के सिलसिले में वह अकसर नेपाल जाया करता और 2-2 महीने में वहां से वापस घर आया करता.

उस दिन सुबह ही भुवन नेपाल चला गया तो स्मिता को समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे वह अपना वक्त काटे? शाम को यों ही वह भैयाभाभी से मिलने उन के घर चली गई थी. अचानक वहां राज भी आ गया. एक लंबे अर्से बाद राज और स्मिता में बातचीत हुई थी. लौटते वक्त राज ने स्मिता से कहा था, ‘चलो, गाड़ी से तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

सुरभि भाभी ने भी राज से कहा था, ‘हांहां, तू इसे गाड़ी से इस के घर छोड़ दे. अकेली कहां जाएगी.’

स्मिता राज के साथ उस की गाड़ी में बैठ गई थी. अपने घर उतरते वक्त उस ने औपचारिकतावश राज को घर पर कौफी पीने का आमंत्रण दिया था, जिसे राज ने स्वीकार कर लिया था और वह स्मिता के घर आ गया था.

एक मुद्दत बाद राज और स्मिता एकांत में मिले थे. स्मिता की समझ में नहीं आ रहा था कि राज के साथ बात कहां से शुरू की जाए. तभी मौन तोड़ते हुए राज ने स्मिता से कहा था, ‘स्मिता, सुना है आजकल भुवन लंबे वक्त के लिए नेपाल जाया करते हैं. इस बार कितने दिनों के लिए नेपाल गए हैं?’

‘इस बार भी 2 महीने के लिए वह नेपाल गए हैं,’ स्मिता ने जवाब दिया था.

‘तो तुम 2 महीने यहां अकेली रहोगी?’

‘रहना ही पड़ेगा और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘स्मिता, तुम खुश तो हो?’

जवाब में स्मिता की आंखों से आंसू टपक पड़े थे, जिन्हें देख कर राज छटपटा उठा था और स्मिता के आंसू पोंछते हुए उस ने उस से कहा था, ‘बताओ स्मिता, क्या बात है? मेरा दिल बैठा जा रहा है. मैं सबकुछ देख सकता हूं लेकिन तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं देख सकता. बताओ स्मिता, बताओ…’

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जवाब में स्मिता ने उसे अपने गर्भधारण में अक्षमता, इस की वजह से भुवन का अपने व्यापार में ज्यादा से ज्यादा समय देने तथा उसे अकेला छोड़ कर नेपाल में महीनों रहने की बात सुनाई, जिसे सुन कर राज का जी कसक उठा और उस ने अचानक उठ कर स्मिता को अपनी बांहों में समेट लिया और बोला, ‘स्मिता, तो तुम भुवन के साथ सुखी नहीं हो. मैं भी शोभा के साथ बिलकुल सुकून नहीं महसूस करता. मैं उसे अपने जीवन में वह जगह नहीं दे पा रहा हूं जो कभी तुम्हारे लिए सुरक्षित थी. स्मिता, मैं अभी तक तुम्हें पूरी तरह भूल नहीं पाया हूं. क्या तुम मुझे भूल पाई हो? बोलो स्मिता, जवाब दो?’

यह कह कर राज ने स्मिता को जोर से अपने आलिंगन में भींच लिया था. राज की बांहों में स्मिता कसमसा उठी थी और उस ने राज की बांहों के बंधन से अपने को मुक्त करने का प्रयास करते हुए कहा था, ‘राज, यह तुम क्या कर रहे हो? यह गलत है राज, मैं शादीशुदा हूं. तुम भी शादीशुदा हो. राज, प्लीज, तुम चले जाओ यहां से.’ लेकिन राज ने स्मिता को अपनी बांहों के घेरे से मुक्त नहीं किया, उसे चूमता ही चला गया. भावुकता के उन क्षणों में स्मिता भी कमजोर पड़ गई थी. उस रात वे सारे बंधन तोड़ बैठे थे तथा कमजोरी के उन क्षणों में उस रात वह हो गया था जो नहीं होना चाहिए था.

उस रात राज करीब 1 बजे अपने घर लौटा था.

राज के जाने के बाद स्मिता आत्मग्लानि से भर उठी थी. वह सोच रही थी, छि:छि:, वह यह क्या कर बैठी? उस ने भुवन जैसे सीधेसच्चे पति से विश्वासघात किया, नहींनहीं, अब वह दोबारा राज का मुंह तक नहीं देखेगी. उस प्रण ने उस के दिमाग को थोड़ा सुकून दिया था.

लेकिन अगले ही दिन रात को राज फिर उस के घर आया था. राज के आते ही स्मिता ने उस से कहा था, ‘राज, तुम अभी इसी वक्त अपने घर वापस चले जाओ. कल रात जो कुछ हुआ वह बहुत गलत था. हमें वापस अपनी गलती नहीं दोहरानी चाहिए.’

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दिल का तीसरा कोना: भाग 2

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कुहू एकदम से चौंक कर बोली, ‘‘क्यों? वह कोई डरावनी फिल्म तो नहीं थी जो अंधेरे में डर के मारे मेरा हाथ पकड़ लेता.’’

मोनिका को खूब हंसी आई, जबकि वह थोड़ाथोड़ा समझ गई थी. जब उस ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आरव की वकालत नहीं चली तो वह अच्छा गायक बन जाएगा. आज उस ने मुझे फिर एक गाना सुनाया, आप की आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं… आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं…’’

मोनिका ने हंसते हुए उसे हिला कर कहा, ‘‘कहीं, उसे तुम से प्यार तो नहीं हो गया?’’

कुहू थोड़ी ढीली पड़ गई. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘देख मोनिका, ये प्यारव्यार कुछ नहीं होता, बस एक कैमिकल लोचा होता है. तू छोड़ उस को…चल खाना खाने चलते हैं.’’

इस के बाद हम पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी में लग गए, कुहू के पेपर पहले हो गए तो वह घर लौटने की तैयारी करने लगी. उस की सुबह 7 बजे की बस थी. मेरे साथ मेरी एक सहेली बिंदु भी उसे बस स्टौप पर छोड़ने आई थी. आरव भी उसे बस पर बिठाने आया था. जातेजाते उस का कुछ अलग ही अंदाज था. उस ने आरव से खुद तो हाथ मिलाया ही बिंदु का हाथ पकड़ कर उस से मिलवाया.

‘‘मोनिका, सही बात तो यह कि मैं वहां से जा नहीं सकी, अभी भी उस का हाथ पकड़े वहीं खड़ी हूं. जब मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए उस की आंखों में झांका तो उन में जो दिखाई दिया, उसे उस समय तो नहीं समझ सकी. उस की बातें, उस के सुनाए गीत कानों में गूंज रहे थे. उस ने मेरी सगाई की बात सुनी तो उस का चेहरा उतर गया था. मेरा शरीर कहीं भी रहा हो, आत्मा अभी भी वहीं है.’’ आंसू पोंछते हुए कुहू ने कहा और चाय बनाने के लिए किचन में चली गई.

उस के पीछेपीछे मोनिका भी गई. उस ने कहा, ‘‘उस के बाद तुम फेसबुक पर आरव के संपर्क में आई थीं क्या?’’

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कुहू ने हां में सिर हिलाया और कहने लगी, ‘‘हौस्टल से घर आने के बाद कुछ ही दिनों में उमंग से मेरी शादी हो गई. उमंग बहुत ही अच्छा और नेक आदमी था. उस के जीवन का एक ही ध्येय था जियो और जीने दो. पार्टी के शौकीन उमंग को खूब घूमने और घुमाने का शौक था. वह जहां भी जाता, मुझे अपने साथ ले जाता. बेटे की पढ़ाई में नुकसान न हो, इस के लिए उसे हौस्टल में डाल दिया. पर मेरा साथ नहीं छोड़ा.’’

बात सच भी थी. कुहू जब भी मोनिका को फोन करती, यही कहती थी, ‘शादी के 15 साल बाद भी उमंग का हनीमून पूरा नहीं हुआ है.’

कभीकभी हंसती, मस्ती में डूबी कुहू की आंखों के सामने एक जोड़ी थोड़ी भूरी, थोड़ी काली आंखें आ जातीं तो वह खो जाती. ऐसे में ही एक रोज उमंग ने कहा, ‘‘चलो अपना फेसबुक पेज बनाते हैं और अपने पुराने मित्रों को खोजते हैं. अपने पुराने मित्र से मिलने का यह एक बढि़या रास्ता है.’’

इस के बाद दोनों ने अपनेअपने मोबाइल पर फेसबुक पेज बना लिए.

एक दिन कुहू अकेली थी और अपने मित्रों को खोज रही थी. अचानक उस के मन में आया हो सकता है आरव ने भी अपना फेसबुक पेज बनाया हो. वह आरव को खोजने लगी. पर वहां तो तमाम आरव थे उस का आरव कौन है, कैसे पता चले. तभी उस की नजर एक चेहरे पर पड़ी तो वह चौंकी. शायद यही है आरव.

उस के पास उस की कोई फोटो भी तो नहीं. बस, यादें ही थीं. उस ने उस की प्रोफाइल खोल कर देखी. उस की जन्मतिथि और शहर भी वही था. उस ने तुरंत उस के मैसेज बौक्स में अपना परिचय दे कर मैसेज भेज दिया. अंत में उस ने यह भी लिख दिया, ‘क्या अभी भी मैं तुम्हें याद हूं?’

बाद में उसे संकोच हुआ कि अगर कोई दूसरा हुआ तो वह उसे कितना गलत समझेगा. कुहू ने एक बार फिर उस की प्रोफाइल चैक की और उस के फोटो देखने लगी तो उस के फोटो देख कर कुहू की आंखें नम हो गईं. यह तो उसी का आरव है.

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फोटो में उस के हाथ पर वह काला निशान यानी ‘बर्थ मार्क’ था. अगले ही दिन आरव का संदेश आया, ‘हां’. अब इस ‘हां’ का अर्थ 2 तरह से निकाला जा सकता था. एक ‘हां’ का मतलब मैं आरव ही हूं. दूसरा यह कि तुम मुझे अभी भी याद हो. पर कुहू को दोनों ही अर्थों में हां दिखाई दिया.

कुहू ने इस संदेश के जवाब में अपना फोन नंबर दे दिया. थोड़ी देर में आरव औनलाइन दिखाई दिया तो दोनों ही यह भूल गए कि उन की जिंदगी 15 साल आगे निकल चुकी है. कुहू एक बच्चे की मां तो आरव 2 बच्चों का बाप बन चुका था. इस के बाद दोनों में बात हुई तो कुहू ने कहा, ‘‘आरव, तुम ने अपने घर में मेरी बात की थी क्या?’’

आरव की मां को कुहू के बारे में पता था कि दोनों बातें करते हैं. जब उस ने अपनी मां से कुहू की सगाई के बारे में बताया था तो उस की मां ने राहत की सांस ली थी. कुहू को यह बात आरव ने ही बताई थी. आरव पर इस का क्या असर पड़ा, यह जाने बगैर ही कुहू खूब हंसी थी. और आरव सिर्फ उस का मुंह देखता रह गया था.

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हां, तो जब कुहू ने आरव से  पूछा कि उस ने उस के बारे में अपने घर में बताया कि नहीं? इस पर आरव हंस पड़ा था. हंसी को काबू में करते हुए उस ने कहा, ‘‘न बताया है और न बताऊंगा. मां तो अब हैं नहीं, मेरी पत्नी मुझ पर शक करती है. इसलिए मैं उस से कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं कर सकता.’’

जाने आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दिल का तीसरा कोना: भाग 3

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आरव ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं, पर अब उस का कोई मतलब नहीं है और तुम जो जवाब दोगी, वह भी मुझे पता है. फिर भी तुम मुझे बताओ, अगर मैं तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाता तो तुम मना तो नहीं करती. पर आज बात कुछ अलग है.’’

और सचमुच इस सवाल का कुहू के पास कोई जवाब नहीं था. और कोई भी…

एक दिन आरव ने हंस कर कहा, ‘‘कुहू कोई समय घटाने का यंत्र होता तो हम 15 साल पीछे चले जाते.’’

‘‘अरे मैं तो कब से वहीं हूं, पर तुम कहां हो.’’ कुहू ने कहा.

‘‘अरे तुम मेरे पीछे खड़ी हो,’’ आरव ने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने देखा ही नहीं. तुम बहुत झूठी हो.’’ इस के बाद उस ने एक गाना गाया, ‘बंदा परवर थाम लो जिगर…’

कुहू भी जोर से हंस कर बोली, ‘‘तुम्हारी यह गाने की आदत गई नहीं. अब इस आदत का मतलब खूब समझ में आता है, पर अब इस का क्या फायदा?’’

दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई कि वह जो कर रही है गलत है. फिर उस ने सब कुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया और रात में खाने के बाद उस ने सारी सच्चाई उसे बता दी. अंत में कहा, ‘‘इस में सारी मेरी ही गलती है. मैं ने ही आरव को ढूंढा और अब मुझ से झूठ नहीं बोला जाता. अब जो सोचना हो सोचिए.’’

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पहले तो उमंग थोड़ा परेशान हुआ, उस के बाद बोला, ‘‘कुहू तुम झूठ बोल रही हो, मजाक कर रही हो. सच बोलो, मेरे दिल की धड़कनें थम रही हैं.’’

‘‘नहीं उमंग, यह सच है.’’ कुहू ने कहा. उस ने सारी बातें तो उमंग को बता ही दी थीं, पर गाने सुनाने और फिल्म देखने वाली बात नहीं बताई थी. शायद हिम्मत नहीं हुई.

उमंग ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. उस ने कहा, ‘‘जाने दो, कोई प्राब्लम नहीं, यह सब तो होता रहता है.’’

अगले दिन कुहू ने आरव को सारी बात बताई तो उसे आश्चर्य हुआ. उस ने हैरानी से कहा, ‘‘कुहू, तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिला है. जबकि सुरभि ने तो मुझे कैद कर रखा है.’’

‘‘इस में गलती तुम्हारी है, तुम अपने जीवनसाथी को विश्वास में नहीं ले सके.’’ कुहू ने कहा.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है, मैं ने बहुत कोशिश की. सुरभि भी वकील है. पर पता नहीं क्यों वह ऐसा करती है.’’ आरव ने कहा.

इस के बाद एक दिन आरव ने कुहू की बात सुरभि को बता दी. उस ने कुहू से तो खूब मीठीमीठी बातें कीं, पर इस के बाद आरव का जीना मुहाल कर दिया. उस ने आरव से स्पष्ट कहा, ‘‘तुम कुहू से संबंध तोड़ लो, वरना मैं मौत को गले लगा लूंगी.’’

अगले दिन आरव का संदेश था, ‘कुहू मैं तुम से कोई बात नहीं कर सकता. सुरभि ने सख्ती से मना कर दिया है.’

उस समय कुहू और उमंग खाना खा रहे थे. संदेश पढ़ कर कुहू रो पड़ी. उमंग ने पूछा तो उस ने बेटे की याद आने का बहाना बना दिया. कई दिनों तक वह संताप में रही. फोन की भी किया, पर आरव ने बात नहीं की. हार कर कुहू ने संदेश भेजा कि अंत में एक बार तो बात करनी ही पड़ेगी, जिस से मुझे पता चल सके कि क्या हुआ है.

इस के बाद आरव का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे यहां कुछ ठीक नहीं है. 3 दिन हो गए हम सोए नहीं हैं. सुरभि को हमारी नि:स्वार्थ दोस्ती से सख्त ऐतराज है. अब मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं कि मुझे माफ कर दो. मुझे पता है, इन बातों से तुम्हें कितनी तकलीफ हो रही होगी. यह सब कहते हुए मुझे भी. विधि का विधान यही है. हम इस से बंधे हुए हैं.’’

कुहू बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना ही बोल सकी, ‘‘कोई प्राब्लम नहीं, अब मैं तुम से मिलने के लिए 15 साल और इंतजार करूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’ कह कर आरव ने फोन काट दिया.

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कुहू ने भी उस का नंबर डिलीट कर दिया, अपनी फ्रैंड लिस्ट से उसे भी बाहर कर दिया.

कुहू ने मोनिका का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘यार मोनिका मैं ने उस का नंबर तो डिलीट कर दिया, पर जो नंबर मैं पिछले 15 सालों से नहीं भूल सकी, उसे इस तरह कैसे भूल सकती हूं. वजह, मुझे पता नहीं, मुझे उस से प्यार नहीं था, फिर भी मैं उसे भूल नहीं सकी. उस के लिए मेरा दिल दुखी है और अब मुझे यह भी पता नहीं कि इस दिल को समझाने के लिए क्या करूं. मेरी समझ में नहीं आता उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? जब उसे पता था तो उस ने ऐसा क्यों किया? बस, जब तक उसे अच्छा लगता रहा, मुझ से बातें करता रहा और जब जान पर आ गई तो तुम कौन और मैं कौन वाली बात कह कर किनारा कर लिया.’’

कुहू इसी तरह की बातें कह कर रोती रही और मोनिका ने उसे रोने दिया. उसे रोका नहीं. यह समझ कर कि उस के दिल पर जितना बोझ है, वह आंसुओं के रास्ते बह जाए तो अच्छा है.

वैसे भी मोनिका उस से कहती भी क्या? जबकि वह जानती थी कि वह प्यार ही था, जिसे कुहू भुला नहीं सकी थी, एक बार उस ने आरव से कहा था, ‘‘हम औरतों के दिल में 3 कोने होते हैं. एक में उस का घर, दूसरे में उस का मायका होता है, और जो दिल का तीसरा कोना है, उस में उस की अपनी कितनी यादें संजोई होती हैं, जिन्हें वह फुरसत के क्षणों में निकाल कर धोपोंछ कर रख देती है.’’

मोनिका सोचने लगी, जो लड़की प्यार को कैमिकल रिएक्शन मानती थी और दिल को मात्र रक्त सप्लाई करने का साधन, उस ने दिल की व्याख्या कर दी थी और अब भी वह कह रही थी कि आरव से प्यार नहीं है.

मोनिका ने उसे यही समझाया और वह खुद भी समझतीजानती थी कि उसे जो भी मिला है, अच्छा ही मिला है. जिसे कोई भी विधि का विधान बदल नहीं सकता.

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