आसरा: भाग-2

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लेखिका- मीनू सिंह

करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई. अगले दिन स्कूल जाते समय जया की नजरें करन को ढूंढ़ती रहीं, लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया.

3 दिन लगातार जब वह जया को दिखाई नहीं दिया तो उस का मन उदास हो गया. उसे लगा कि करन ने शायद ऐसे ही कह दिया होगा और वह उसे सच मान बैठी, लेकिन चौथे दिन जब करन नियत स्थान पर खड़ा मिला तो उसे देखते ही जया के मन की कली खिल उठी. उस दिन जया के पीछेपीछे चलते हुए करन ने आहिस्ता से पूछा, ‘आप मुझ से नाराज तो नहीं हैं?’

‘नहीं,’ जया ने धड़कते दिल से जवाब दिया, तब करन ने उत्साहित होते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’

‘जया,’ उस का छोटा सा उत्तर था. ‘आप बहुत अच्छी हैं, जयाजी.’ अपनी बात कहने के बाद करन थोड़ी दूर तक जया के साथ चला, फिर उसे ‘बाय’ कर के अपने रास्ते चला गया.

उस दिन के बाद वह दोनों एक निश्चित जगह पर मिलते, वहां से करन थोड़ी दूर जया के साथ चलता, दो बातें करता और फिर दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता. इन पल दो पल की मुलाकातों और छोटीछोटी बातों का जया पर ऐसा असर हुआ कि वह हर समय करन के ही खयालों में डूबी रहने लगी. नादान उम्र की स्वप्निल भावनाओं को करन का आधार मिला तो चाहत के फूल खुद ब खुद खिल उठे. यही हाल करन का भी था.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने अपने मन की बात जया से कह ही दी, ‘आई लव यू जया,’ मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर जिंदगी अधूरीअधूरी सी लगती है. करन के मन की बात उस के होंठों पर आई तो जया के दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. उस ने नजर भर करन को देखा और फिर पलकें झुका लीं. उस की उस एक नजर में प्यार का इजहार भी था और स्वीकारोक्ति भी.

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एक बार संकोच की सीमाएं टूटीं, तो जया और करन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. ज्योंज्यों दूरियां कम होती गईं, दोनों एकदूसरे के रंग में रंगते गए. फिर उन्होंने सब की नजरों से छिप कर मिलना शुरू कर दिया. जब भी मौका मिलता, दोनों प्रेमी किसी एकांत स्थल पर मिलते और अपने सपनों की दुनिया रचतेगढ़ते. उस वक्त जया और करन को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि पागल मन की उड़ान का कोई वजूद नहीं होता. किशोरवय का प्यार एक पागलपन के सिवा और क्या है.

बिलकुल उस बरसाती नदी की तरह जो वर्षाकाल में अपने पूरे आवेग पर होती है, लेकिन उस के प्रवाह में गंभीरता और गहराई नहीं रहती. इसीलिए वर्षा समाप्त होते ही उस का अस्तित्व भी मिट जाता है. अब जया की हर सोच करन से शुरू हो कर उसी पर खत्म होने लगी थी. अब उसे न कैरियर की चिंता रह गई थी और न मातापिता के सपनों को पूरा करने की उत्कंठा. बेटी में आए इस परिवर्तन को आशा की अनुभवी आंखों ने महसूस किया तो एक मां का दायित्व निभाते हुए उन्होंने जया से पूछा, ‘क्या बात है जया, इधर कुछ दिन से मैं महसूस कर रही हूं कि तू कुछ बदलीबदली सी लग रही है? आजकल तेरी सहेलियां भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं.

तू उन के घर जाती रहती है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बुलाती?’ मां द्वारा अचानक की गई पूछताछ से जया एकदम घबरा गई. जल्दी में उसे कुछ सुझाई नहीं दिया, तो उस ने बात खत्म करने के लिए कह दिया, ‘ठीक है मम्मी, आप मिलना चाहती हैं तो मैं उन्हें बुला लूंगी.’ कई दिन इंतजार करने के बाद भी जब जया की कोई सहेली नहीं आई और उस ने भी जाना बंद नहीं किया तो मजबूरी में आशा ने जया को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अब तू कहीं नहीं जाएगी. जिस से मिलना हो घर बुला कर मिल.’ घर से निकलने पर पाबंदी लगी तो जया करन से मिलने के लिए बेचैन रहने लगी. आशा ने भी उस की व्याकुलता को महसूस किया, लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. धीरेधीरे 4-5 दिन सरक गए तो एक दिन जया ने आशा को अच्छे मूड में देख कर उन से थोड़ी देर के लिए बाहर जाने की इजाजत चाही, जया की बात सुनते ही आशा का पारा चढ़ गया. उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में जया को जोर से डांटते हुए कहा, ‘इतनी बार मना किया, समझ में नहीं आया?’ ‘‘इतनी बार मना कर चुका हूं, सुनाई नहीं देता क्या?’’

नारी निकेतन के केयरटेकर का कर्कश स्वर गूंजा तो जया की विचारधारा में व्यवधान पड़ा. उस ने चौंक कर इधरउधर देखा, लेकिन वहां पसरे सन्नाटे के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. जया को मां की याद आई तो वह फूटफूट कर रो पड़ी. जया अपनी नादानी पर पश्चाताप करती रही और बिलखबिलख कर रोती रही. इन आंसुओं का सौदा उस ने स्वयं ही तो किया था, तो यही उस के हिस्से में आने थे. इस मारक यंत्रणा के बीच वह अपने अतीत की यादों से ही चंद कतरे सुख पाना चाहती थी, तो वहां भी उस के जख्मों पर नमक छिड़कता करन आ खड़ा होता था.

उस दिन मां के डांटने के बाद जया समझ गई कि अब उस का घर से निकल पाना किसी कीमत पर संभव नहीं है. बस, यही एक गनीमत थी कि उसे स्कूल जाने से नहीं रोका गया था और स्कूल के रास्ते में उसे करन से मुलाकात के दोचार मिनट मिल जाते थे. आशा ने बेटी के गुमराह होते पैरों को रोकने का भरसक प्रयास किया, लेकिन जया ने उन की एक नहीं मानी. एक दिन आशा को अचानक किसी रिश्तेदारी में जाना पड़ा. जाना भी बहुत जरूरी था, क्योंकि वहां किसी की मृत्यु हो गई थी.

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जल्दबाजी में आशा छोटे बेटे सोमू को साथ ले कर चली गई. जया पर प्यार का नशा ऐसा चढ़ा था कि ऐसे अवसर का लाभ उठाने से भी वह नहीं चूकी. उस ने छोटी बहन अनुपमा को चाकलेट का लालच दिया और करन से मिलने चली गई. जया ने फोन कर के करन को बुलाया और उस के सामने अपनी मजबूरी जाहिर की. जब करन कोई रास्ता नहीं निकाल पाया तो जया ने बेबाक हो कर कहा, ‘अब मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती, करन. हमारे सामने मिलने का कोई रास्ता नहीं बचा है.’ जया की बात सुनने के बाद करन ने उस से पूछा, ‘मेरे साथ चल सकती हो जया?’

‘कहां?’ जया ने रोंआसी आवाज में कहा, तो करन बेताबी से बोला, ‘कहीं भी. इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं तो पनाह मिलेगी.’ …और उसी पल जया ने एक ऐसा निर्णय कर डाला जिस ने उस के जीवन की दिशा ही पलट कर रख दी. इस के ठीक 5-6 दिन बाद जया ने सब अपनों को अलविदा कह कर एक अपरिचित राह पर कदम रख दिया. उस वक्त उस ने कुछ नहीं सोचा. अपने इस विद्रोही कदम पर वह खूब खुश थी क्योंकि करन उस के साथ था. करन जया को ले कर नैनीताल चला गया और वहां गेस्टहाउस में एक कमरा ले कर ठहर गया. करन का दिनरात का संगसाथ पा कर जया इतनी खुश थी कि उस ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि उस के इस तरह बिना बताए घर से चले जाने पर उस के मातापिता पर क्या गुजर रही होगी. काश, उसे इस बात का तनिक भी आभास हो पाता.

जया दोपहर को उस वक्त घर से निकली थी जब आशा रसोई में काम कर रही थीं. काम कर के बाहर आने के बाद जब उन्हें जया दिखाई नहीं दी तो उन्होंने अनुपमा से उस के बारे में पूछा. उस ने बताया कि दीदी बाहर गई हैं. यह जान कर आशा को जया पर बहुत गुस्सा आया. वह बेताबी से उस के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं.

जब शाम ढलने तक जया घर नहीं लौटी तो उन का गुस्सा चिंता और परेशानी में बदल गया. 8 बजतेबजते किशन भी घर आ गए थे, लेकिन जया का कुछ पता नहीं था. बात हद से गुजरती देख आशा ने किशन को जया के बारे में बताया तो वह भी घबरा गए. उन दोनों ने जया को लगभग 3-4 घंटे पागलों की तरह ढूंढ़ा और फिर थकहार कर बैठ गए. वह पूरी रात उन्होंने जागते और रोते ही गुजारी. सुबह होने तक भी जया घर नहीं लौटी तो मजबूरी में किशन ने थाने जा कर उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

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त्रिया चरित्र भाग-1

रात के 10 बज रहे थे. जेल में चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. कैदियों को उन के बैरकों में भेज दिया गया था और अब तक उन में से ज्यादातर सो गए थे, तो कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे. जेल में गश्ती दल के सिपाही गश्त पर निकल गए थे.

इन्हीं सिपाहियों में आशा भी एक थी. जब वह पहरेदारी करते हुए एक बैरक से हो कर गुजरने लगी तो एक कैदी ने उसे धीमी आवाज में पुकारा.

आवाज सुन कर आशा के पैर ठिठके और वह बैरक के लोहे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. लोहे के दरवाजे के उस पार उसे पुकारने वाला कैदी खड़ा था.

‘‘क्या है रमेश, तुम ने मुझे क्यों पुकारा?’’ आशा धीमी आवाज में बोली.

यह पूछते हुए आशा की निगाहें कैदी के दोहरे बदन पर फिसल रही थीं और आंखों में तारीफ के भाव उभरे हुए थे.

‘‘सुन, मुझे बाहर एक संदेश पहुंचाना है,’’ रमेश यादव बोला.

‘‘लगता है, किसी दिन तुम मुझे  फंसवा दोगे. तुम नहीं जानते, अगर किसी को इस बात का पता चल गया कि मैं तुम्हारे साथियों को बाहर तुम्हारा संदेशा पहुंचाती हूं तो मेरी अच्छीखासी नौकरी पर बन आएगी.’’

‘‘तुम्हारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘फिर मैं तुम्हें इस की कीमत भी तो देता हूं.’’

‘‘तुम क्या समझते हो कि मैं इस कीमत के लालच में तुम्हारा काम करती हूं,’’ आशा ने कहा.

‘‘फिर किसलिए करती हो?’’ कहते हुए रमेश यादव के होंठों पर एक हलकी सी मुसकान उभरी.

‘‘तुम्हारा यह कसरती बदन और खूबसूरत थोबड़ा मुझे पसंद आ गया है इसलिए,’’ कहते हुए आशा मुसकराई.

‘‘तू भी कुछ कम खूबसूरत और मादक नहीं है,’’ रमेश यादव ने उस के हसीन चेहरे और गदराए बदन पर एक नजर डाली.

‘‘मतलब, मैं तुम्हें पसंद हूं?’’

‘‘बहुत…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘मैं खुद तुम्हें पाने को बेचैन हूं. पर तू फिक्र न कर. मेरे साथी जल्द ही मुझे यहां से निकाल लेंगे. फिर तो हम खुल कर एकदूसरे से मिल सकेंगे.’’

‘‘न जाने वह दिन कब आएगा,’’ आशा एक सर्द आह भर कर बोली.

‘‘जल्द आएगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘खैर, मेरा यह संदेश का पुरजा इस पर लिखे पते पर पहुंचा देना.’’

आशा ने एक सतर्क निगाह चारों तरफ डाली, फिर हाथ बढ़ा कर पुरजा थाम लिया और तेजी से आगे बढ़ गई. आगे एक सुनसान जगह पर पहुंच कर उस ने पुरजा खोला तो उस में 100 रुपए का एक नोट रखा था. उस ने नोट अपनी कमीज की जेब के हवाले किया, फिर उस पुरजे को अंदर की जेब में रख कर जेल का चक्कर काटने लगी.

आशा 35 साला गदराए बदन और खूबसूरत चेहरे की थी. 10 सालों से वह पुलिस में थी और 6 महीने पहले रमेश यादव इस जेल में आया था. दोहरे बदन, मोहक चेहरेमोहरे के इस अपराधी ने जब शुरूशुरू में उस से जानपहचान करने की कोशिश की तो आशा थोड़ी हिचकी थी, फिर न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह उस से जानपहचान करती चली गई.

शायद कसरती बदन और सलोना चेहरा उसे भा गया था या फिर अपने साथियों को संदेश पहुंचाने के एवज में वह उसे पैसे जो देता था.

रमेश यादव अपने क्षेत्र का एक बदनाम अपराधी था और दुकानदारों और कारोबारियों से रंगदारी वसूलता था. उस के साथी जान से मारने या जख्मी करने से नहीं हिचकते थे.

रमेश यादव का जेल में आनाजाना लगा रहता था. पर, चाहे वह जेल के बाहर रहता या अंदर, हर हाल में उस का धंधा चलता रहता. उस के जेल में रहने की हालत में उस के साथी उस की चिट्ठी ले कर उस के बताए दुकानदार और कारोबारी के पास पहुंचते और उस के डर से दुकानदार या कारोबारी उस के द्वारा मांगी गई रकम उस के साथी को दे देते.

रमेश यादव की ऐसी ही चिट्ठियां आशा उस के साथियों तक पहुंचाने लगी. लेनदेन में दोनों शारीरिक रूप से भी एकदूसरे की ओर खिंचते चले गए थे.

जहां आशा को रमेश का दोहरा बदन ललचाता था, वहीं रमेश आशा के गदराए मादक बदन को अपनी बांहों में समेटने का ख्वाब देखता था.

कुछ सप्ताह बाद आशा का फोन बजा, ‘हैलो.’

‘‘कौन?’’

‘मैं रमेश यादव बोल रहा हूं.’

‘‘अब याद आई है मेरी…’’ आशा अपनी आवाज में नाराजगी घोलते हुए बोली, ‘‘जबकि तुम 10 दिन पहले ही जेल से बाहर आ चुके हो.’’

‘नाराज मत हो यार…’ उधर से रमेश यादव की मनुहार भरी आवाज सुनाई पड़ी, ‘जेल जाने के कारण बहुत सारा काम पैंडिंग पड़ा था, उन्हें निबटाने में उलझ गया था. इन से जैसे ही फुरसत मिली, तुम्हें फोन किया.’

‘‘फोन कैसे किया?’’

‘अरे यार, तुझ से मिलने के लिए मन बेचैन है.’

‘‘बेचैन तो मैं भी हूं.’’

‘फिर तो ऐसा कर, आज शाम

मुझ से मिल. हम दोनों मिल कर अपनीअपनी बेचैनी मिटाएंगे,’ कह कर रमेश यादव हंसा.

‘‘कहां…?’’

‘तू किसी जानीपहचानी जगह पर तो मुझ से मिल नहीं सकती.’

‘‘फिर…?’’

‘मेरे फार्महाउस पर चली आ.’

‘‘पता बोल.’’

रमेश यादव ने पता बतलाया.

‘‘ठीक है, मैं शाम को साढ़े 5 बजे तक वहां पहुंच जाऊंगी.’’

‘अच्छी बात है.’ रमेश यादव बोला.

अपने वादे के अनुसार आशा साढ़े 5 बजे रमेश यादव के फार्महाउस पर पहुंच गई. दरवाजे पर खड़े दरबान ने उसे रमेश यादव के कमरे में पहुंचाया.

आशा को देखते ही रमेश यादव खुशदिली से बोला, ‘‘आओ आशा, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.’’

आशा सधे हुए कदमों से आगे बढ़ी और आ कर उस बिछावन पर बैठ गई जिस पर रमेश यादव शराब की बोतल खोले बैठा था.

‘‘यकीन करो आशा, तुम्हारे इंतजार में शराब पीने का मजा ही नहीं आ रहा था. अब तुम आ गई हो तो पीने का असली मजा आएगा.’’

‘‘जरूर…’’ आशा उसे कातिल नजरों से देखती हुई बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपने हाथों से पिलाऊंगी,’’ कहते हुए आशा ने वहां पड़े शीशे के गिलास में शराब डाली, फिर उसे रमेश यादव की ओर बढ़ाया.

‘‘ऐसे नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘पहले तुम अपने होंठों का रस इस में घोलो. यकीन मानो, शराब का नशा दोगुना हो जाएगा.’’

आशा ने गिलास से एक घूंट भरा, फिर गिलास रमेश यादव के होंठों से लगा दिया. एक ही सांस में रमेश यादव ने गिलास खाली किया, फिर वह हसरतभरी नजरों से आशा के गदराए बदन को देखने लगा. ऐसे में जब आशा ने दोबारा गिलास भरा तो वह बोला, ‘‘ऐसे दूरदूर से मत पिला. जरा मेरे करीब आ जा.’’

बदले में आशा अपनी टांगें फैला कर उस की गोद में आ बैठी, फिर गिलास उस के होंठों से लगाया. अब की बार रमेश यादव ने जरा भी जल्दीबाजी नहीं की बल्कि घूंटघूंट शराब चुसकने लगा.

दूसरी ओर रमेश यादव के हाथ आशा के बदन की ऊंचाइयांगहराइयां नाप रहे थे. अपने बदन पर रमेश यादव के बेताब हाथों की छुअन पा कर आशा बेहाल होने लगी. ऐसे में उस ने अपने हाथ का गिलास फर्श पर टिकाया, फिर रमेश यादव को बिछावन पर लिटा कर उस को बेताबी से चूमने लगी.

आशा की इस हरकत से रमेश यादव के तनबदन में वासना के शोले भड़कने लगे और उस ने अपने ऊपर सवार आशा की कमर के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं.

इस के बाद तो आशा अकसर रमेश यादव से मिलने लगी. रमेश यादव न सिर्फ भरपूर जिस्मानी सुख देता था, बल्कि उस पर दोनों हाथों से पैसे भी लुटाता था.

आशा तो पहले ही अपने पति से खुश नहीं थी, रमेश यादव जैसा प्रेमी पा कर उस की ओर से आशा और भी लापरवाह हो गई. जेल की नौकरी में पैसा और रिश्वत दोनों मिलते थे, पर इतने नहीं.

अगले भाग में पढ़िए- क्या हुआ आशा और रमेश के नाजायज रिश्ते का… ?

त्रिया चरित्र भाग-2

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अब आगे….

आशा के पति रतनलाल ने जब उस में आए इस बदलाव को महसूस किया तो उस का माथा ठनका. रतनलाल को लगा कि हो न हो, आशा ने घर से बाहर अपना कोई यार पाल लिया है.

एक रात को वह आशा से बोला, ‘‘आशा, आजकल तू किस दुनिया में रह रही है?’’

पति रतनलाल के इस सवाल पर आशा चौंकी, पर जल्द ही अपनेआप

को संभालते हुए वह बोली, ‘‘क्या मतलब…?’’

‘‘मैं देख रहा हूं कि आजकल तेरे तो रंगढंग ही बदल गए हैं. तू यह बात बिलकुल भूल गई है कि घर में तेरा एक पति भी है. रात को जब मैं तुझे हाथ लगाता हूं तो तू मेरा हाथ झटक देती है. कहीं तू ने घर के बाहर अपना कोई यार तो नहीं पाल लिया है?’’

मन ही मन डरती आशा तेज आवाज में बोली, ‘‘तुम्हें अपनी पत्नी से ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती? यह सीधासीधा मेरे चरित्र पर लांछन है.’’

‘‘अच्छा होगा, यह लांछन ही हो. मगर हकीकत में बदला तो याद रख. मैं तेरा जीना हराम कर दूंगा,’’ रतनलाल उसे घूरता हुआ बोला.

पति रतनलाल के शक को देखते हुए आशा कुछ दिनों तक रमेश यादव से मिलने में सावधानी बरतती रही और जब उसे पक्का यकीन हो गया कि रतनलाल उस की ओर से बेपरवाह हो गया है तो फिर से खुल कर उस से मिलने लगी.

पर रतनलाल उस की ओर से लापरवाह नहीं हुआ था, बल्कि चोरीछिपे उस की हरकतों पर नजर रख रहा था.

कुछ ही दिन के बाद रतनलाल को मालूम हो गया कि आशा ने रमेश यादव नामक के एक अपराधी से यारी गांठ ली है और उस के साथ मिल कर रंगरलियां मनाती है.

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सचाई जानते ही उस का खून खौल उठा. एक रात जब वह घर लौटी, तो रतनलाल बोला, ‘‘कहां से आ रही है तू?’’

‘‘पुलिस स्टेशन से.’’

‘‘पता है, इस समय रात के 11 बज रहे हैं?’’ रतनलाल उसे घूरता हुआ बोला, ‘‘मैं ने पुलिस स्टेशन फोन किया था. मालूम हुआ कि तू वहां से शाम 7 बजे ही निकल गई थी.’’

‘‘रास्ते में एक सहेली मिल गई थी. उसी के साथ उस के घर चली गई थी,’’ आशा उस से नजरें चुराते हुए बोली.

‘‘और तुम्हारी उस सहेली का नाम रमेश यादव है?’’ रतनलाल गुस्से से चिल्लाया, ‘‘यह कहते हुए तेरी रूह कांपती है कि तू अपने इसी यार के साथ रंगरलियां मना कर वापस लौट रही है.’’

आशा बौखलाई हुई सी उसे देखती रह गई.

‘‘बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘यह सरासर झूठ है,’’ आशा कांपती हुई आवाज में बोली.

बदले में रतनलाल उस की ओर लपका, फिर उस के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ रसीद करता हुआ बोला, ‘‘तू क्या समझती है, मैं अंधा और

बहरा हूं. मुझे कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं देता?

‘‘जानती है, जिस रमेश यादव की तू आजकल प्यारी बनी हुई है, उस के फार्महाउस का गार्ड मेरा दोस्त है. कल वह मजे लेले कर कह रहा था कि उस के साहब ने आजकल एक रखैल पाल रखी है जिस का नाम आशा है और वह घंटों उस की बांहों में झूलती वासना का नंगा खेल खेलती है.’’

आशा के मुंह से बोल नहीं फूटे. दूसरी ओर गुस्से से पागल हुआ पति रतनलाल उसे पीटता चला गया.

रतनलाल उसे पीट कर घर से निकल गया, पर आशा घंटों बेइज्जती और बदले की आग में जलतीसिसकती रही.

अगली मुलाकात में रमेश यादव से जब आशा ने ये सारी बातें कहीं, तो वह गुस्से से उबलता हुआ बोला, ‘‘उस की यह हिम्मत कि वह रमेश यादव की यार पर हाथ उठाए, पर तुम फिक्र न करो. मैं जल्द ही इस का इलाज कर दूंगा. बस, तुम्हें मेरा साथ देना होगा.’’

आशा ने उसे इस की सहमति दे दी.

आशा के घर के दरवाजे पर एक खास अंदाज में थाप पड़ी. इसे सुनते ही बिछावन पर आंखें मूंदे लेटी आशा ने अपनी आंखें खोल दीं. वह चुपके से बिछावन से उतरी, फिर बिछावन पर गहरी नींद में सोए रतनलाल पर एक गहरी नजर डालने के बाद दरवाजे की ओर बढ़ गई. उस ने जब दरवाजा खोला तो रमेश यादव जल्दी से अंदर आता हुआ बोला, ‘‘कहां है?’’

‘‘अपने कमरे में गहरी नींद में सोया पड़ा है.’’

‘‘चलो,’’ रमेश यादव बोला.

आशा ने अंदर से दरवाजा बंद कर दिया, फिर कमरे में आ गई. कमरे में बिछी चारपाई पर पति रतनलाल दीनदुनिया से बेखबर सो रहा था.

बिछावन के पास पहुंच कर रमेश यादव ने आंखों ही आंखों में आशा को कुछ इशारा किया, फिर चुपके से वह बिछावन पर चढ़ गया. उस ने रतनलाल के बगल में पड़ा तकिया उठा कर उस के मुंह पर रखा, फिर उस के सीने पर सवार हो कर अपनी हथेलियों का पूरा वजन तकिए पर डाल दिया.

दबाव पड़ते ही रतनलाल ने अपनी आंखें खोल दीं. ऐसे में जब उस की नजर अपने सीने पर सवार रमेश यादव पर पड़ी तो हैरानी से उस की आंखें फटती चली गईं. उसे समझते देर न लगी कि रमेश यादव उस का गला घोंटना चाहता है. यह समझते ही उस की आंखों में खौफ के भाव उभरते चले गए और वह उस के चंगुल से छूटने के लिए अपने हाथपैर पटकने लगा.

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उस के ऐसा करते ही रमेश यादव बिछावन के पास ही खड़ी आशा से बोला, ‘‘इस के पैर पकड़ो आशा.’’

पर ऐसा लगा, जैसे आशा ने उस की बात सुनी ही न हो. वह मूर्ति बनी कभी रतनलाल के सीने पर सवार, उस का गला घोंटते रमेश यादव को देख रही थी, तो कभी हाथपैर पटकते रतनलाल को.

सच तो यह था कि इस समय उस के दिलोदिमाग में एक भयानक लड़ाई चल रही थी. एक औरत और एक पत्नी में धीरेधीरे पत्नी का पलड़ा भारी पड़ता चला गया और आशा सोचने लगी कि चाहे रतनलाल कैसा भी है, पर है तो उस का पति ही. उस का और उस के बच्चे का भविष्य उसी के साथ सुरक्षित था.

दूसरी ओर रमेश यादव एक अपराधी था और इस समय भी एक अपराध करने जा रहा था. वह उसे भी इस अपराध में शामिल करना चाहता था.

पुलिस में होने के चलते आशा को यह बात अच्छी तरह से मालूम थी कि अगर उस का यह अपराध उजागर हो जाता तो उस के साथ उस की भी जिंदगी तबाह हो जाती. पर आशा ऐसा हरगिज नहीं चाहती थी, तो फिर…?

जवाब में आशा ने अपनी नजरें कमरे में चारों तरफ दौड़ाईं. उसे कमरे में एक ओर मोटा डंडा पड़ा दिखाई दिया. उस ने डंडा उठाया, फिर रतनलाल का गला घोंटते रमेश यादव के सिर पर पूरी ताकत से दे मारा.

रमेश यादव के मुंह से एक दर्दनाक चीख उभरी. रतनलाल का गला छोड़ वह अपना सिर पकड़ कर वहीं जमीन पर गिर पड़ा. उस का सिर फट गया था और वहां से खून का फव्वारा फूट पड़ा था. कुछ देर तक वह तड़पता रहा, फिर वह मर गया.

एक घंटे बाद आशा के घर में पुलिस वालों की भीड़ लगी हुई थी और उस ने इंस्पैक्टर को यह बयान दिया था कि रमेश यादव उस पर बुरी नजर रखता था जिस का विरोध उस का पति रतनलाल करता था. रमेश यादव उस के घर में घुस आया और उस ने उस के पति का गला घोंट कर मारना चाहा. अपने पति की जान बचाने के लिए उसे रमेश यादव को मारना पड़ा.

जब आशा अपना यह बयान दे रही थी तो रतनलाल हैरत भरी नजरों से उसे देख रहा था.

आशा के इस बरताव ने उसे सकते में ला दिया था और वह यह सोचने पर मजबूर हो गया था कि लोग यह गलत नहीं कहते, ‘औरत का चरित्र इनसान तो क्या कोई नहीं समझ सकता.’

मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी: भाग 3

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देर तक एकदूसरे के सामने बैठे हम अपने बीते कल और अकेले आज पर आंसू बहाते रहे, न उस ने मुझे चुप कराना चाहा और न मैं ने ही उसे रोका.

काफी समय बीत गया. जब लगा मन हलका हो गया तब हाथ उठा कर चंद्रा का सिर थपथपा दिया मैं ने.

‘‘बस करो, अब और कितना रोओगी?’’

रोतेरोते हंस पड़ी चंद्रा. आंखें पोंछ अपना पर्स खोला और मेरे लिए लाया ढोकला मुझे दिखाया.

‘‘जरा सा चखना चाहोगे, मुंह का स्वाद अच्छा हो जाएगा.’’

लगा, बरसों पीछे लौट गया हूं. आज भी हम जवान ही हैं…जब आंखों में हजारोंलाखों सपने थे. हर किसी की मुट्ठी बंद थी. कौन जाने हाथ की लकीरों में क्या होगा. अनजान थे हम अपने भविष्य को ले कर और अनजाने रहने में ही कितना सुख था. आज सबकुछ सामने है, कुछ भी ढकाछिपा नहीं. पीछे लौट जाना चाहते हैं हम.

‘‘मन नहीं हो रहा चंद्रा…भूख भी नहीं लग रही.’’

‘‘तो सो जाओ, रात के 9 बज गए हैं.’’

‘‘तुम होस्टल चली जातीं तो आराम से सो पातीं.’’

‘‘यहां क्या परेशानी है मुझे? पुराना साथी सामने है, पुरानी यादों का अपना ही मजा है, तुम क्या जानो.’’

‘‘मैं कैसे न जानूं, सारी समझदारी क्या आज भी तुम्हारी जेब में है?’’

मेरे शब्दों पर पुन: चौंक उठी चंद्रा. मुझे ठीक से लिटा कर मुझ पर लिहाफ ओढ़ातेओढ़ाते उस के हाथ रुक गए.

‘‘झगड़ा करना चाहते हो क्या?’’

‘‘इस में नया क्या है? बरसों पहले जब हम अलग हुए थे तब भी तो एक झगड़ा हुआ था न हमारे बीच.’’

‘‘याद है मुझे, तो क्या आज हारजीत का निर्णय करना चाहते हो?’’

‘‘हां, आखिर मैं एक पुरुष हूं. जाहिर सी बात है जीतना तो चाहूंगा ही.’’

‘‘मैं हार मानती हूं, तुम जीत गए.’’

‘‘चंद्रा, मेरी बात सुनो…’’ सामने बेंच की ओर बढ़ती चंद्रा का हाथ पकड़ लिया मैं ने. पहली बार ऐसा प्रयास किया है मैं ने और मेरा यह प्रयास एक अधिकार से ओतप्रोत है.

‘‘मेरे पास बैठो, यहां.’’

एक उलझन उभर आई है चंद्रा की आंखों में. शायद मेरा यह प्रयास मेरी अधिकार सीमा में नहीं आता.

‘‘सब के सामने तो तुम पूछती हो कि मेरा परिवार कहां है? मेरी पत्नी कहां है? अगर शादी नहीं की तो क्यों नहीं की? अकेले में क्यों नहीं पूछतीं? अभी हम अकेले हैं न. पूछो मुझ से कि मैं किस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र?’’

मेरे हाथ से अपना हाथ नहीं छुड़ाया चंद्रा ने. मेरी बगल में चुपचाप बैठ गई.

‘‘बरसों पहले भी मैं तुम से हारना नहीं चाहता था. तब भी मेरे जीतने का मतलब अलग होता था और आज भी अलग है…

‘‘तुम्हें हरा कर जीतना मैं ने कभी नहीं चाहा. तब भी जब तुम सही प्रमाणित हो जाती थीं तो मुझे खुशी होती थी और आज भी तुम्हारी ही जीत में मेरी जीत है.

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‘‘चंद्रा, तुम्हारे सुख की कामना में ही मेरा पूरा जीवन चला गया और आज पता चला मेरा चुप रह जाना किसी भी काम नहीं आया. मेरा तो जीनामरना सब बस, यों ही…

‘‘देखो चंद्रा, जो हो गया उस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. वही हुआ जो होना था. स्वयं पर गुस्सा आ रहा है मुझे. जिस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र, कम से कम कभी उस का हाल तो पूछ लेता. तुम जैसी किसी को खोजखोज कर थक गया. थक गया तो खोज समाप्त कर दी. तुम जैसी भला कोई और हो भी कैसे सकती थी. सच तो यह है कि तुम्हारी जगह कोई और न ले सकती थी और न ही मैं ने वह जगह किसी को दी.’’

डबडबाई आंखों से चंद्रा मुझे देखती रही.

‘‘मेरे दिल पर इसी सत्य ने प्रहार किया है कि मेरा चुप रह जाना आखिर किस के काम आया. न तुम्हारे न ही मेरे. एक घर जो कभी बस सकता था… बस ही नहीं पाया… किसी का भी भला नहीं हुआ. खाली हाथ तुम भी हो और मैं भी.’’

‘‘कल से तुम्हें महसूस कर रही हूं मैं सोम. 50 के आसपास तो मैं भी पहुंच चुकी हूं. तुम जानते हो न मेरी छटी इंद्री की सूचना कभी गलत नहीं होती…जिस इनसान से मेरी शादी हुई थी वह कभी मुझे अपना सा नहीं लगा था. और सच में वह मेरा कभी था भी नहीं…उस के बाद हिम्मत ही नहीं हुई किसी पर भरोसा कर पाऊं.’’

‘‘क्या मुझ पर भी भरोसा नहीं कर पाओगी?’’

‘‘तुम तो सदा से अपने ही थे सोम, पराए कभी लगे ही नहीं थे. आज इतने सालों बाद भी लगता नहीं कि इतना समय बीत गया. तुम पर भरोसा है तभी तो पास बैठी हूं…अच्छा, मैं पूछती हूं तुम से…

‘‘सोम, तुम ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मत पूछना, क्योंकि अपनी बरबादी का सारा जिम्मा मैं तुम्हीं पर डाल दूंगा जो शायद तुम्हें बुरा लगेगा. तुम्हारे बाद रास्ता ही खो गया. वहीं खड़ा रहा मैं…दाएंबाएं कभी नहीं देखा. तनमन से वैसा ही हूं जैसा तुम ने छोड़ा था.’’

‘‘तनमन से मैं तो वैसी नहीं हूं न. 2 संतानें मेरे गर्भ में आईं और चली गईं. पहले उन्हीं को याद कर के दुखी हो लेती थी फिर सोचा पागल हूं क्या मैं? जिंदा पति किसी बदनाम औरत का हाथ पकड़ गंदगी में समा गया. उसे नहीं बचा पाई तो उन बच्चों का क्या रोना जिन्हें कभी न देखा न सुना. कभीकभी तो लगता है पत्थर बन गई हूं जिस पर सुखदुख का कोई असर नहीं होता.’’

‘‘असर होता है. असर कैसे नहीं होता?’’ और इसी के साथ मैं ने चंद्रा को अपने पास खींच लिया. फिर सस्नेह उस का माथा सहला कर सिर थपथपा दिया.

‘‘असर होता है तुम पर चंद्रा. समय की मार से हम समझदार हो गए हैं, पत्थर तो नहीं बने. पत्थर बन जाते तो एकदूसरे के आरपार कभी नहीं देख पाते.’’

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मेरे हाथों की ही सस्नेह ऊष्मा थी जिस ने दर्द की परतों को उघाड़ दिया.

‘‘यदि आज भी एकदूसरे का हम सहारा पा लें तो शायद 100 साल जी जाएं और उस हिसाब से तो अभी मध्यांतर भी नहीं हुआ.’’

नन्ही बच्ची की तरह रो पड़ी चंद्र्रा. बांहों में छिपा कर माथा चूम लिया मैं ने. छाती में जो हलकाफुलका दर्द सुबह शुरू हुआ था सहसा कहीं खो सा गया.

मां, पराई हुई देहरी तेरी: भाग 1

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता?है. मां के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब- कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी. कमरे में मेरी पसंद के क्रीम कलर की जगह आसमानी रंग हो गया है. परदे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिए गए हैं, जिन पर बड़ेबड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं.

मैं अपना पलंग दरवाजे के सामने वाली दीवार की तरफ रखना पसंद करती थी. अब भैयाभाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाजे से दिखाई न दे. पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं. जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था, अब उसे हटा कर वहां झूला रख दिया गया?है, जिस में वह सफेद मखमली सा शिशु किलकारियां ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के 10 महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूं.

‘‘आइए दीदी, आप की आवाज से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है,’’ भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है. वह तकिए का सहारा ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइए.’’

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है. मेरी मां के घर में मेरे कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराए मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है.

‘‘पहले यह बताइए कि अब आप कैसी हैं?’’ मैं सहज बनने की कोशिश करती हूं.

‘‘यह तो हमें देख कर बताइए. आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिए. हम ने तो आप को ननद के साथ गुरु  भी बना लिया है. सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आए?थे.’’

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मैं थोड़ा सकुचा जाती हूं. भैया मुझ से 3 वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की जिद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे. मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी.

भाभी अपनी ही रौ में बताए जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उन की हालत खराब हो गई थी. आपरेशन द्वारा प्रसव हुआ.

‘‘आप तो लिखती थीं कि सबकुछ सामान्य चल रहा है फिर आपरेशन क्यों हुआ?’’ कहते हुए मेरी नजर अलमारी पर फिसल जाती है, जहां मेरी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबें रखी रहती थीं. वहां एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने. ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है.

‘‘सबकुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मांबच्चे दोनों की जान को खतरा है. घर वालों को तो घबरा कर आपरेशन के लिए ‘हां’ कहनी ही पड़ती है.’’

‘‘अब तो जिस से सुनो, उस के ही आपरेशन से बच्चा हो रहा है. हमारे जमाने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही आपरेशन से होते थे,’’ मां शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं.

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों को छूना चाह रही है जो मैं ने अपनी मां के घर के इस कमरे में गुजारे हैं. परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा. बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो शृंगार मेज के सामने घूमघूम कर अपनेआप को निखारने के लिए यही कमरा. मां या पिताजी से कोई अपनी जिद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना. मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से. अब यही इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलतीकूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा.

‘‘तू यहीं छिपी बैठी है. मैं तुझे कब से ढूंढ़ रहा हूं,’’ भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं. भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, ‘‘लीजिए, बंदा आप के लिए शक्तिवर्धक दवाएं व फल ले आया है.’’ फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, ‘‘देखा तू ने इसे. मां कह रही थीं बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी. अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठातेउठाते हमारी मुसीबत ही आ जाएगी.’’

‘‘मारूंगी, ऐसे कहा तो,’’ मैं तुनक कर जवाब देती हूं. मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है. अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा. सबकुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी खुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है. मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी. भैया की शादी की तैयारी करवाने 15 दिन पहले ही चली आई थी. मैं ने और मां ने बहुत चाव से ढूंढ़ढूंढ़ कर शादी का सामान चुना था. अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के लिए तनछोई की साड़ी चुनी थी. बरात में भी देर तक नाचती रही थी.

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मां व मैं घर पर सारी खुशियां समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं. भैया भाभी के आंचल से अपने फेंटे की गांठ बांधे धीरेधीरे दरवाजे पर आ रहे थे.

‘‘अंदर आने का कर लगेगा, भैया.’’ मैं ने अपना हाथ फैला दिया था.

‘‘पराए घर की छोकरी मुझ से कर मांग रही है, चल हट रास्ते से,’’ भैया मुझे खिजाने के लिए आगे बढ़ते आए थे.

‘‘मैं तो नहीं हटूंगी,’’ मैं भी अड़ गई थी.

‘‘कमल, झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा,’’ मां और एक बुजुर्ग महिला ने बीचबचाव किया था.

‘‘तुम्हीं बताओ, इसे कितनी बख्शीश दें?’’ भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था.

भाभी तो संकोच से आधे घूंघट में और भी सिमट गई थीं. किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था. मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की जरूरत महसूस होने लगी है.

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनिया में मस्त हो गई थी. मुझे खुश देखती मां, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई. मां तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थीं. घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो. शायद मेरे पराए हो जाने का एहसास ही उन के लिए मेरे बिछोह को सहने की शक्ति भी बना होगा.

‘‘संभालो अपने शहजादे को,’’ भैया, मुन्ने को भाभी के पास लिटाते हुए बोले, ‘‘अब पड़ेगी डांट. मैं यह कहने आया था कि मेज पर मां व विनयजी तेरा इंतजार कर रहे हैं.’’

खाने की मेज पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है.

मेरे बैठते ही मां विनय से कहती हैं, ‘‘विनयजी, मैं सोच रही हूं कि 3 महीने बाद हम लोग मुन्ने का मुंडन करवा देंगे. आप लोग जरूर आइए, क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बूआ लेती है.’’

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मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पाएंगे.’’

मैं जानती हूं कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है.

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, ‘‘3 महीने बाद तो आना नहीं हो सकता. इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रंगीला ‘रतन’ का खत डियर डैडी के नाम

लेखक- ब्रजकिशोर पटेल

माई डियर वीर बहादुर डैडी, आप को यह जान कर खुशी होगी कि मैं आप के ही नक्शेकदम पर चल रहा हूं यानी मेरे इम्तिहान के नतीजे भी आप के इस साल के चुनावी नतीजे की तरह ही रहे हैं… टांयटांय फिस.

डैडी, आप मेरे सम ादार पिता हैं और अगर मेरे इम्तिहान के रिजल्ट की जानकारी आप को मेरे बताने से पहले ही मिल भी गई हो, तो मु ो यकीन है कि आप ने कभी भूल कर भी यह नहीं सोचा होगा कि मैं शर्म के मारे मरा जा रहा होऊंगा या कहीं डूब मरने के लिए चुल्लूभर पानी की तलाश कर रहा होऊंगा.

मैं अपने बहादुर डैडी का हिम्मती बेटा हूं. अपनी मरजी से सिर मुंड़ाता हूं, तो फिर ओले की परवाह भी नहीं करता हूं. हारजीत के मायामोह से मैं कोसों दूर हूं और आप के ही इस फलसफे का कायल हूं कि ‘गिरते हैं घुड़सवार ही मैदानेजंग में…’

और फिर डैडी, जिस तरह आप बहुत थोड़े से वोटों के अंतर से अपना तकरीबन जीता हुआ चुनाव हार गए थे, मैं भी बहुत थोड़े अंकों की कमी से पास होतेहोते रह गया हूं.

आदरणीय पिताजी, चुनाव हारने के बाद आप ने अपने पै्रस नोट में कहा था कि आप हारे नहीं हैं, बल्कि साजिशन हराए गए हैं, क्योंकि विरोधियों ने फर्जी वोटिंग कराई थी.

आप के चुनाव हारने की एक बहुत बड़ी वजह ‘भितरघात’ भी रही है. मेरे साथ भी कुछ भितरघातियों ने खुराफात की है.

मैं जिन्हें अपना खास दोस्त सम ाता रहा, उन्होंने जानबू ा कर ‘भूगोल’ के परचे के दिन मेरी जेब में ‘इतिहास’ की चिटें और ‘इतिहास’ के परचे के दिन ‘अर्थशास्त्र’ की चिटें रख दी थीं,

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वरना डैडी आप ही सोचिए कि आप का पूत इतना

कपूत तो नहीं हो सकता

कि ठीक से नकल भी न

कर सके.

प्रिंसिपल के नोटिस से आप को पता चला ही होगा कि इस साल मु ो नकल करते रंगे हाथों पकड़ा

गया था.

ऐसा मेरे विरोधियों की चाल के चलते हुआ है. उन्होंने साजिशन मेरी जेब

में पहले से ही नकल

की परचियां और चाकू रख दिए थे, वरना डैडी, मैं तो अपने कारतूस इस तरह छिपा कर रखता हूं कि सीबीआई भी जांच करे तो हाथ कुछ नहीं लगे.

डियर डैडी, चुनाव में हारने के बावजूद जिस तरह आप ने हिम्मत नहीं हारी थी और पार्टी के संगठन की जिम्मेदारी उठाने के लिए हाईकमान का आदेश सिरआंखों पर ले लिया था, ठीक इसी तरह ‘नकल कांड’ और 3 साल तक इम्तिहान से वंचित किए जाने के बाद मु ो कोई गिलाशिकवा नहीं है. इन 3 सालों में मैं कालेज की छात्र यूनियन को मजबूत करने का काम पूरा मन लगा कर करूंगा.

सीनियर होने के नाते जूनियर छात्रों द्वारा आसानी से नेता मान लेने का फायदा तो मु ो मिलेगा ही, आप को यह जान कर खुशी होगी कि हमारी छात्र यूनियन ने उत्तर प्रदेश के नकल विरोधी कानून के बावजूद वहां के छात्रों द्वारा नकल परंपरा को जिंदा रखने और किए गए हिफाजत के उपायों की स्टडी करने के लिए वहां एक दल भेजने का फैसला लिया है.

यह दल उत्तर प्रदेश से लगे हुए हमारे मध्य प्रदेश के भिंड, मुरैना, शिवपुरी वगैरह जिलों में अपनाई जाने वाली ‘बेहतरीन’ नकल तरीकों की भी स्टडी करेगा.

अब आप यह तो सम ा ही गए होंगे कि इस दल की जिम्मेदारी भी मु ो ही सौंपी गई है.

अभी मुझे यह खबर मिली है कि मेरे सुपर डैडी ने कमाल कर दिया है. आप ने मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोंक दिया है. सत्ता दल के

25 विधायकों को तोड़ कर उसे अल्पमत में ला दिया है. ऐसा लग रहा है, जैसे आप सप्लीमैंट्री एग्जामिनेशन में पास हो गए हैं. वैरी गुड डैडी. आप को अब 5 साल का इंतजार नहीं करना पड़ा. मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण से पहले ही आप को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.

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डियर डैडी, इंतजार तो मु ो भी नहीं करना पड़ा, अगले इम्तिहान का सालभर. रीटोटलिंग की फैसिलिटी का फायदा उठा कर मैं एक विषय में पास हो गया. नतीजतन, मु ो पूरक परीक्षा का पात्र मान लिया गया. पूरक परीक्षा में कुछ नकल टीप ली और कुछ प्रिंसिपल को डराधमका कर पासिंग मार्क्स हासिल कर लिए.

आप के आशीर्वाद से मैं भी आप की ही तरह जुगाड़तुगाड़ कर के आखिरकार पास हो ही गया. आखिर बेटा किस

का हूं.

डियर डैडी, इस लिहाज से हम

दोनों की कामयाबी तो यही साबित करती है कि भारतीय लोकतंत्र में ‘जुगाड़तुगाड़’ बहुत जरूरी कला है. जो इस कला में माहिर है, वह हार कर भी जीत सकता है. और तो और जो इस कला से अनजान है, वह जीत कर भी हार सकता है.

आप का होनहार वारिस,

रंगीला ‘रतन’.

मां, पराई हुई देहरी तेरी: भाग 2

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भाग- 2

मां जैसे बचपन में मेरे चेहरे की एकएक रेखा पढ़ लेती थीं, वैसे ही उन्होंने अब भी मेरे चेहरे की भाषा पढ़ ली है. वह भैया को हलकी सी झिड़की देती हैं, ‘‘तू कैसा भाई है, अपनी तरफ से ही बहन के न आ सकने की मजबूरी बता रहा है. तभी तो हमारे लोकगीतों में कहा गया है, ‘माय कहे बेटी नितनित आइयो, बाप कहे छह मास, भाई कहे बहन साल पीछे आइयो…’’’ वह आगे की पंक्ति ‘भाभी कहे कहा काम’ जानबूझ कर नहीं कहतीं.

‘‘मां, मेरा यह मतलब नहीं था.’’ अब भैया का चेहरा देखने लायक हो रहा है, लेकिन मैं व विनय जोर से हंस कर वातावरण हलकाफुलका कर देते हैं.

मैं चाय पीते हुए देख रही हूं कि मां का चेहरा इन 10 महीनों में खुशी से कितना खिलाखिला हो गया है. वरना मेरी शादी के बाद उन की सूरत कितनी बुझीबुझी रहती थी. जब भी मैं बनारस से यहां आती तो वह एक मिनट भी चुप नहीं बैठती थीं. हर समय उत्साह से भरी कोई न कोई किस्साकहानी सुनाने में लगी रहती थीं.

‘‘मां, आप बोलतेबोलते थकती नहीं हैं.’’ मैं चुटकी लेती.

‘‘तू चली जाएगी तो सारे घर में मेरी बात सुनने वाला कौन बचेगा? हर समय मुंह सीए बैठी रहती हूं. मुझे बोलने से मत मना कर. अकेले में तो सारा घर भांयभांय करता रहता है.’’

‘‘तो भैया की शादी कर दीजिए, दिल लग जाएगा.’’

‘‘बस, उसी के लिए लड़की देखनी है. तुम भी कोई लड़की नजर में रखना.’’

कभी मां को मेरी शादी की चिंता थी. उन दिनों तो उन के जीवन का जैसे एकमात्र लक्ष्य था कि किसी तरह मेरी शादी हो. लेकिन वह लक्ष्य प्राप्त करने के बाद उन का जीवन फिर ठिठक कर खड़ा हो गया था. कैसा होता है जीवन भी.  एक पड़ाव पर पहुंच कर दूसरे पड़ाव पर पहुंचने की हड़बड़ी स्वत: ही अंकुरित हो जाती है.

‘‘मां, लगता है अब आप बहुत खुश हैं?’’

‘‘अभी तो तसल्ली से खुश होने का समय भी नहीं है. नौकर के होते हुए भी मैं तो मुन्ने की आया बन गई हूं. सारे दिन उस के आगेपीछे घूमना पड़ता है,’’ वह मुन्ने को रात के 10 बजे अपने बिस्तर पर लिटा कर उस से बातें कर रही हैं. वह भी अपनी काली चमकीली आंखों से उन के मुंह को देख रहा है. अपने दोनों होंठ सिकोड़ कर कुछ आवाज निकालने की कोशिश कर रहा है. तनु भी नानी के पास आलथीपालथी मार कर बैठा हुआ है. वह इसी चक्कर में है कि कब अपनी उंगली मुन्ने की आंख में गड़ा दे या उस के गाल पर पप्पी ले ले.

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‘‘मां, 10 बज गए,’’ मैं जानबूझ कर कहती हूं क्योंकि मां की आदत है, जहां घड़ी पर नजर गई कि 10 बजे हैं तो अधूरे काम छोड़ कर बिस्तर में जा घुसेंगी क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठने की आदत है.

‘‘10 बज गए तो क्या हुआ? अबी अमाला मुन्ना लाजा छोया नहीं है तो अम कैसे छो जाएं?’’ मां जानबूझ कर तुतला कर बोलते हुए स्वयं बच्चा बन गई हैं.

थोड़ी देर में मुन्ने को सुला कर मां ढोलक ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘चल, आ बैठ. 5 जच्चा शगुन की गा लें, आज दिन भर वक्त नहीं मिला.’’

मैं उबासी लेते हुए उन के पास नीचे फर्श पर बैठ जाती हूं. उन्हें रात के 11 बजे उत्साह से गाते देख कर सोच रही हूं कि कहां गया उन का जोड़ों या कमर का दर्द. मां को देख कर मैं किसी हद तक संतुष्ट हो उठी हूं, अब कभी बनारस में अपने सुखद क्षणों में यह टीस तो नहीं उठेगी कि वह कितनी अकेली हो गई हैं. मेरा यह अनुभव तो बिलकुल नया है कि मां मेरे बिना भी सुखी हो सकती हैं.

नामकरण संस्कार वाले दिन सुबह तो घरपरिवार के लोग ही जुटे थे. भीड़ तो शाम से बढ़नी शुरू होती है. कुछ औरतों को शामियाने में जगह नहीं मिलती, इसलिए वे घर के अंदर चली आ रही हैं. खानापीना, शोरशराबा, गानाबजाना, उपहारों व लिफाफों को संभालते पता ही नहीं लगता कब साढ़े 11 बज गए हैं.

मेहमान लगभग जा चुके हैं. कुछ भूलेभटके 7-8 लोग ही खाने की मेज के इर्दगिर्द प्लेटें हाथ में लिए गपशप कर रहे हैं. बैरों ने तंग आ कर अपनी टोपियां उतार दी हैं. वे मेज पर रखे डोंगों, नीचे रखी व शामियाने में बिखरी झूठी प्लेटों व गिलासों को समेटने में लगे हुए हैं.

तभी एक बैरा गुलाब जामुन व हरी बरफी से प्लेट में ‘शुभकामनाएं’ लिख कर घर के अंदर आ जाता?है. लखनऊ वाली मामी बरामदे में बैठी हैं. वह उन्हीं से पूछता है, ‘‘बहूजी कहां हैं, जिन के बच्चे की दावत है?’’

तभी सारे घर में बहू की पुकार मच उठती है. भाभी अपने कमरे में नहीं हैं. मुन्ना तो झूले में सो रहा है. मैं भी उन्हें मां, पिताजी के कमरे में तलाश आती हूं.

तभी मां मुझे बताती हैं, ‘‘मैं ने ही उसे ऊपर के कमरे में कपड़े बदलने भेजा है. बेचारी साड़ी व जेवरों में परेशान हो रही थी.’’

मैं ऊपर के कमरे के बंद दरवाजे पर ठकठक करती हूं, ‘‘भाभी, जल्दी नीचे उतरिए, बैरा आप का इंतजार कर रहा है.’’

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भाभी आहिस्ताआहिस्ता सीढि़यों से नीचे उतरती हैं. अभी उन्होंने जेवर नहीं उतारे हैं. उन के चलने से पायलों की प्यारी सी रुनझुन बज रही है.

‘‘बहूजी, हमारी शुभकामनाएं लीजिए,’’ बैरा सजी हुई प्लेट लिए आंगन में आ कर भाभी के आगे बढ़ाता?है. भाभी कुछ समझ नहीं पातीं. मामी बरामदे में निक्की की चोटी गूंथते हुए चिल्लाती हैं, ‘‘बहू, इन को बख्शीश चाहिए.’’

‘‘अच्छा जी,’’ भाभी धीमे से कह कर अपने कमरे में से पर्स ले आती हैं.

अब तक मां के घर के हर महत्त्वपूर्ण काम में मुझे ही ढूंढ़ा जाता रहा है कि मीनू कहां है? मीनू को बुलाओ, उसे ही पता होगा. मैं…मैं क्यों अनमनी हो उठी हूं. क्या सच में मैं यह नहीं चाह रही कि बैरा प्लेट सजा कर ढूंढ़ता फिरे कि इस घर की बेटी कहां है?

‘‘21 रुपए? इतने से काम नहीं चलेगा, बहूजी.’’

भाभी 51 रुपए भी डालती हैं लेकिन वह बैरा नहीं मानता. आखिर भाभी को झुकना पड़ता है. वह पर्स में से 100 रुपए निकालती हैं. बैरे को बख्शीश देता हुआ उन का उठा हुआ हाथ मुझे लगता है, जिस घर के कणकण में मैं रचीबसी थी, जिस से अलग मेरी कोई पहचान नहीं थी, अचानक उस घर की सत्ता अपनी समग्रता लिए फिसल कर उन के हाथ में सिमट आई है. न जाने क्यों मेरे अंदर अकस्मात कुछ चटखता है.

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मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी: भाग 1

‘‘आपका परिवार कहां है, सोम? अब तो बच्चे बड़े हो गए होंगे. मैं ने तो सोचा भी नहीं था, इस तरह अचानक हमारा मिलना हो जाएगा.’’

‘‘सब के सामने आप यह कैसा सवाल पूछने लगी हैं, चंद्राजी. कहां के बच्चे… कैसे बच्चे…अभी तो हमारी उम्र खेलनेखाने की है.’’

चंद्रा के चेहरे की मुसकान फैलतेफैलते रुक गई. उस ने आगेपीछे देखा मानो जो सुना उसी पर अविश्वास करने के लिए किसी का समर्थन चाहती हो. उस ने गौर से मेरा चेहरा देखा और बोली, ‘‘अरे भई, बाल काले कर लेना कोई बड़ी बात नहीं. उम्र छिपा कर दिखाओ तो मानें. आंखों का बढ़ता नंबर और चाल में आए ठहराव को छिपाया नहीं जा सकता. हां, अगर अपना नाम ही बदल लो तो मैं मान लूंगी कि पहचानने में मैं ही भूल कर गई हूं. आप सोम नहीं हैं न?’’

चंद्रा के शब्दों का तर्क आज भी वही है जो बरसों पहले था. वह आज भी उतनी ही सौम्य है जितनी बरसों पहले थी. बल्कि उम्र के साथ पहले से भी कहीं ज्यादा गरिमामय लग रहा है चंद्रा का स्वरूप. मुसकरा पड़ा मैं. हाथ बढ़ा कर चंद्रा का सर थपथपा दिया.

‘‘याद है तुम मुझे क्या कहा करती थीं जब हम पीएच.डी. कर रहे थे. वह आदत आज भी बदली नहीं. निहायत निजी बातें तुम सब के सामने पूछने लगती हो…’’

‘‘पहचान लिया है मैं ने. आज भी मेरे पापा की तरह सर थपथपा रहे हो. तब भी तुम मुझे मेरे पापा जैसे लगते थे…आज भी वैसे ही हो…तुम जरा भी नहीं बदले हो, सोम.’’

20-22 साल पुरानी दोस्ती और सौहार्द्र आंखों में नमी बन कर तैरने लगा था. सुबह से सेमिनार में व्यस्त था. पहचान तो बहुत लोगों से थी लेकिन कोई अपना सा पा कर यों लगने लगा है जैसे बुझते दिए में किसी ने तेल डाल दिया हो.

‘‘तुम कहां ठहरी हो, चंद्रा?’’

‘‘यहीं होस्टल में ही हमारा इंतजाम किया गया है.’’

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‘‘भूख नहीं लगी तुम्हें, 7 बज रहे हैं. आओ, चलो मेरे साथ…कुछ खा कर आते हैं.’’

मैं ने कहा तो साथ चल पड़ी चंद्रा. हम ने टैक्सी पकड़ी और 5-10 मिनट बाद ही हम उसी जगह पर खडे़ थे जहां अकसर 20-22 साल पहले हमारा गु्रप खानेपीने आया करता था.

‘‘क्या खाओगी, चंद्रा, बोलो?’’

‘‘कुछ भी हलकाफुलका मंगवा लो. भारी खाना मुझे पचता नहीं है.’’

‘‘मैं भी मीठा नहीं ले पाऊंगा, शुगर का मरीज हूं. इसीलिए भूख सह नहीं पाता. मुझे घबराहट होने लगती है.’’

डोसा और इडली मंगवा लिया चंद्रा ने. कुछ पेट में गया तो शरीर की झनझनाहट कम हुई.

‘‘तुम्हें खाने की कोई चीज पास रखनी चाहिए थी, सोम.’’

‘‘क्या पास रखनी चाहिए थी? यह देखो, है न पास में. अब क्या इन से पेट भर सकता है?’’

जेब से मीठीनमकीन टाफियां निकाल सामने रख दीं मैं ने. दोपहर में खाना खाया था. उस के बाद सेमिनार इतना लंबा ख्ंिच गया कि शाम के 7 बज गए. 6 घटे में क्या मेरी तबीयत खराब नहीं हो जाती.

मुसकरा पड़ी चंद्रा, ‘‘इस का मतलब है अब हम बूढे़ हो गए हैं. तुम्हें शुगर है, मेरा जिगर ठीक से काम नहीं करता. लगता है हमारी एक्सपायरी डेट पास आ रही है.’’

‘‘नहीं तो, ऐसा क्यों सोचती हो. हम बूढे़ नहीं हो रहे बडे़ हो रहे हैं, ऐसा सोचो. जीवन का सार हमारे सामने है. बीता कल अपना अनुभव लिए है जिस का उपयोग हम भविष्य को सुधारने में लगा सकते हैं.’’

पुरानी बातों का सिलसिला चला और खूब चला. चंद्रा के साथ विश्वविद्यालय के भव्य पार्क में हम रात 10 बजे तक बैठे रहे.

‘‘अच्छा समय था वह भी. बहुत याद आता है वह एकएक पल,’’ ठंडी सांस ली थी चंद्रा ने.

‘‘क्या बीता समय लौटाया नहीं जा सकता?’’

‘‘हमारे बच्चे हमारा बीता कल ही तो हैं, जो हमें नहीं मिला वह बच्चों को दिला कर हम अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं. जीवन इसी का नाम है…पुराना गया नया आया.’’

मुझे होटल तक पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 बज गए. मैं थक गया हूं फिर भी मन प्रफुल्लित है. अपनी सहपाठी से जो मिला हूं इतने बरसों बाद. बहुत अच्छी दोस्ती थी मेरी चंद्रा के साथ. अच्छे इनसान अकसर कम होते हैं और इन्हीं कम लोगों में अकसर मैं चंद्रा की गिनती  किया करता था. कभीकभी हमारे बीच झगड़ा भी हो जाया करता था जिस की वजह हमारी निजी कमी नहीं होती थी. उसूलों की धनी थी चंद्रा और यही उसूल अकसर टकरा जाते थे.

मैं कभी चंद्रा को झुकने को कह देता तो उस का जवाब होता था, ‘‘मैं केंचुआ बन कर नहीं जी सकती. प्रकृति ने मुझे रीढ़ की हड्डी दी है न. मैं वैसी ही हूं जैसी मुझ से प्रकृति उम्मीद करती है.’’

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‘‘तुम्हारी फिलासफी मेरी समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो मत समझो, तुम जैसे हो रहो न वैसे. मैं ने कब कहा मुझे समझो.’’

7-8 लड़केलड़कियों का गु्रप था हमारा जिस में हर स्वभाव का इंसान था… बस, चंद्रा ही थी जो अपनी सीमाओं, अपनी दलीलों में बंधी थी.

मैं चंद्रा की नसनस से वाकिफ था. उस के चरित्र और बातों में गजब की पारदर्शिता थी, न कहीं कोई लागलपट न हेरफेर. कभी कोई गोलमोल बात करने लगता तो वह झुंझला जाती.

‘‘यह जलेबी क्यों पका रहे हो? सीधी तरह मुद्दे की बात पर क्यों नहीं आते…साफसाफ कहो क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘कोई भी बात कभीकभी इतनी सीधी सरल नहीं न होती चंद्रा जिसे हम झट से कह दें…कुछ बातें छिपानी भी पड़ती हैं.’’

‘‘तो छिपाओ उन्हें, आधीअधूरी भी क्यों बतानी. तुम्हें अगर लगता है बात छिपाने वाली है तो सब के सामने उस का उल्लेख भी क्यों करना. पूरी तरह छिपा लो न.’’

मुझे आज भी याद है जब हम आखिरी बार मिले थे तब भी झगड़ कर ही अलग हुए थे. वह दिल्ली लौट गई थी और मैं आगरा. उस के बाद कभी नहीं मिले थे. उस की शादी की खबर मिली थी जिस पर इक्कादुक्का मित्र ही पहुंच पाए थे.

दूसरे दिन विश्वविद्यालय पहुंचे तो नजरें चंद्रा को ही खोजती रहीं. कहने को तो ढेर सारी बातें कल हम ने की थीं लेकिन अपनी निजी एक भी बात हम नहीं कर पाए थे.

‘‘किसे खोज रहे हैं, वर्माजी? किसी का इंतजार है क्या?’’

मेरी नजरों को भांप गए थे मेरे एक सहयोगी.

‘‘हां, वह मेरी सहपाठी मिल गई थीं कल मुझे. आज भी उन्हीं को खोज रहा हूं.’’

‘‘लंचब्रेक में ढूंढ़ लीजिएगा. अभी जरा इन की बातें सुनिए. इन की बातों का मैं सदा ही कायल रहता हूं. मिसेज गोयल की फिलासफी कमाल की होती है. कभी इन के लेख नहीं पढे़ आप ने…कमाल की सोच है.’’

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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