लेखक- अभिजीत माथुर
मैं घर के कामों से फारिग हो कर सोने की सोच ही रही थी कि फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने बड़े बेमन से रिसीवर उठाया व थके स्वर से कहा, ‘‘हैलो.’’
उधर से अपनी सहेली अंजु की आवाज सुन कर मेरी खुशी की सीमा नहीं रही.
‘‘यह हैलोहैलो क्या कर रही है,’’ अंजु बोली, ‘‘मैं ने तो तुझे एक खुशखबरी देने के लिए फोन किया है. तेरे भैया शैलेंद्र की 24 जून की शादी पक्की हो गई है. कल ही शैलेंद्र भैया कार्ड दे कर गए हैं. तुझे भी शादी में आना है, तू आएगी न?’’
यह सुन कर मैं हड़बड़ा गई और झूठ ही कह दिया, ‘‘हां, क्यों नहीं आऊंगी, मैं जरूर आऊंगी. भाई की शादी में बहन नहीं आएगी तो कौन आएगा. मैं तेरे जीजाजी के साथ जरूर आऊंगी.’’
अंजु बोली, ‘‘ठीक है, तू जरूर आना, मैं तेरा इंतजार करूंगी,’’ यह कह कर अंजु ने फोन रख दिया.
फोन रखने के बाद मैं सोच में पड़ गई कि क्या मैं वाकई शादी में जा पाऊंगी? शायद नहीं. अगर मैं जाना भी चाहूं तो अखिल मुझे जाने नहीं देंगे. हमारी शादी के बाद अखिल ने जो कुछ झेला है वह उसे कैसे भूल सकते हैं.
मैं ने व अखिल ने 2 साल पहले घर वालों की इच्छा के खिलाफ कोर्ट में प्रेमविवाह किया था. मेरे घर वाले मेरे प्रेमविवाह करने पर काफी नाराज थे. उन्होंने मुझ से हमेशा के लिए रिश्ता ही तोड़ दिया था. वे अखिल को बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे. हम विवाह के बाद घर वालों का आशीर्वाद लेने गए थे, पर हमें वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया गया था. तब से ले कर आज तक मैं ने व अखिल ने उस घर की दहलीज पर पैर नहीं रखा है.
मैं धीरेधीरे अपने इस संसार में रमती गई और अखिल के प्यार में पुरानी कड़वी यादें भूलती गई पर आज अंजु के फोन ने मुझे फिर उन्हीं यादों के भंवर में ला कर खड़ा कर दिया, जहां से मैं हमेशा दूर भागना चाहती थी. मैं सोच रही थी कि आखिर मैं ने ऐसा क्या किया है जो मेरे घर वाले मुझ से इतने खफा हैं कि उन्होंने मुझे शैलेंद्र भैया की शादी की सूचना तक नहीं दी. क्या मैं ने अखिल से प्रेमविवाह कर इतनी भारी भूल की है कि मेरा उस घर से रिश्ता ही तोड़ दिया, जिस घर में मैं पली और बड़ी हुई. उस भाई से नाता ही टूट गया जिसे मैं सब से ज्यादा चाहती थी, जिस से मैं लड़ कर हक से चीज छीन लिया करती थी.
क्याक्या सपने संजोए थे मैं ने शैलेंद्र भैया की शादी के कि यह करूंगी, वह करूंगी, पर सारे सपने धराशायी हो गए. मैं भैया की शादी में जाना तो दूर, जाने की सोच भी नहीं सकती थी.
ये भी पढ़ें- काश, आपने ऐसा न किया होता: भाग 3
मैं दिन भर इसी ऊहापोह में रही कि इस बारे में अखिल को कहूं या नहीं.
शाम को अखिल के आने के बाद मैं ने बड़ी हिम्मत जुटा कर उन से शैलेंद्र भैया की शादी के बारे में कहा तो अखिल ने आराम से मेरी बातें सुनीं फिर मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, वाह, मेरे साले की शादी है, तब तो हमें जरूर चलना चाहिए.’’
मैं ने कहा, ‘‘अखिल, कोई कार्ड या कोई संदेश नहीं आया है. यह तो मुझे अंजु ने फोन पर बताया है.’’
यह सुन अखिल कुछ सोच कर बोले, ‘‘तब तो हमारा न जाना ही ठीक है.’’
मैं अखिल के मुंह से यह सुन कर उदास हो गई और पूरी रात गुमसुम सी रही. अखिल कुछ कहते तो मैं केवल हूंहां में जवाब दे देती.
अगले दिन अखिल के आफिस जाने के बाद मेरा किसी काम में मन नहीं लगा और मैं घुटघुट कर रोए जा रही थी. बाहर से घंटी की आवाज सुन कर मैं दौड़ती हुई फाटक तक जाती कि शायद पोस्टमैन आया हो और शैलेंद्र भैया की शादी का कार्ड आया हो. फोन की घंटी बजने पर मैं सोचती, शायद ताऊजी या पापा का हो पर ऐसा कुछ नहीं था. मैं 3-4 दिन तक ऐसे ही रही थी. अखिल मेरा यह हाल रोज देखते और शायद परेशान होते.
एक रात अखिल मेरी उदासी से परेशान हो कर बोले, ‘‘बीना, क्या तुम शैलेंद्र भैया की शादी में शरीक होना चाहती हो?’’
मैं तो जैसे यह सुनने को तरस रही थी. बोली, ‘‘हां, अखिल, मैं अपने शैलेंद्र भैया को दूल्हा बने देखना चाहती हूं. मेरी यह दिली इच्छा थी कि मैं अपने भाई की शादी में खूब मौजमस्ती करूं. प्लीज, अखिल, शादी में चलो न. मैं एक बार भैया को दूल्हे के रूप में देखना चाहती हूं.’’
‘‘ठीक है, फिर हम तुम्हारे शैलेंद्र भैया की शादी में जरूर शरीक होंगे,’’ अखिल बोले, ‘‘मैं तुम्हारी यह ख्वाहिश जरूर पूरी करूंगा. लेकिन बीना, मेरी एक शर्त है.’’
‘‘शैलेंद्र भैया की शादी में जाने के लिए मुझे हर शर्त मंजूर है,’’ मैं खुशी से पागल होते हुए बोली.
‘‘बीना, हम तुम्हारे घर पर नहीं बल्कि वहां किसी होटल में रुकेंगे.’’
मैं ने कहा, ‘‘ठीक है.’’
24 जून को मैं व अखिल जयपुर के लिए रवाना हो गए. मैं पूरे रास्ते सपने संजोती रही कि मैं वहां यह करूंगी, वह करूंगी. हमें देख सब खुश होंगे. खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चला कि रास्ता कैसे कटा.
जयपुर पहुंचते ही होटल के कमरे में सामान रखने के बाद मैं फटाफट तैयार होने लगी. अखिल मुझे यों उतावले हो कर तैयार होते पहली बार देख रहे थे. उन की आंखों में उस दिन पहली बार मैं ने दर्द देखा था. मैं इतनी जल्दी तैयार हो गई तो अखिल बोले, ‘‘हमेशा डेढ़ घंटे में तैयार होने वाली तुम आज पहली बार 10 मिनट में तैयार हुई हो, वाकई घर वालों से मिलने के लिए कितनी बेकरार हो.’’
मैं ने कहा, ‘‘अब ज्यादा बातें मत करो, प्लीज, जल्दी टैक्सी ले आओ.’’
अखिल टैक्सी ले आए. मैं पूरे रास्ते घबराती रही कि पता नहीं वहां क्या होगा. मेरा दिल आने वाले हर पल के लिए घबरा रहा था.
हम घर पहुंचे तो हमें आया देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए. शायद किसी को हमारे आने का गुमान नहीं था. सब हमें किसी अजनबी की तरह देख रहे थे. मैं 2 साल बाद अपने घर आई थी, पर वहां मुझे कुछ भी बदलाव नजर नहीं आया. सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं छोड़ कर गई थी. बस, बदले नजर आ रहे थे तो अपने लोग जो मुझे एक अजनबी की तरह देख रहे थे. हां, मेरे छोटे भाईबहन मुझे व अखिल को घेर कर खड़े थे. कोई कह रहा था, ‘‘दीदी, आप कहां चली गई थीं? आप व जीजाजी अब कहीं मत जाना.’’
मैं बच्चों से बातें करने में व्यस्त हो गई. अखिल मेरी तरफ देख चुपचाप एक कुरसी पर जा कर बैठ गए. मैं ने देखा वह डबडबाई आंखों से मुझे देखे जा रहे थे.
मैं ने बूआजी के लड़के राकेश को चुपचाप शैलेंद्र भैया को बुलाने भेजा. शैलेंद्र भैया 15-20 मिनट तक नहीं आए तो मैं ने सोचा शायद वह हम से मिलना नहीं चाहते हैं. मैं अपने को कोस रही थी कि क्यों मैं ने यहां आने की जिद की. मैं फालतू ही यहां अपनी व अखिल की बेइज्जती कराने आ गई. मैं तो कितना चाव ले कर यहां आई थी पर इन लोगों को हमारे आने की जरा भी खुशी नहीं है. मैं समझ गई कि यहां कोई हमारी इज्जत नहीं करेगा. मैं ने वहां से वापस जाने की सोची.
मैं हारी हुई लुटेपिटे कदमों से अखिल के पास जा ही रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘बीनू.’’
मैं ने पलट कर देखा तो राकेश के साथ शैलेंद्र भैया खड़े थे. मैं भैया के पांव छूने झुकी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मैं रोने लगी. भैया भी रोने लगे और बोले, ‘‘कैसी है री, तू? मुझे अभीअभी पता चला कि तू आ चुकी है. मैं सब की नजर बचा कर दौड़ादौड़ा तेरे पास चला आया. अच्छा हुआ, अंजु ने तुझे सही समय पर सूचित कर दिया, नहीं तो मैं सोच रहा था कि पता नहीं अंजु तुझे कहेगी भी या नहीं.’’
मैं बोली, ‘‘तो क्या आप ने अंजु को कहा था मुझे कहने के लिए?’’
भैया बोले, ‘‘हां…तू क्या सोचती है, तेरा भाई इतना निष्ठुर है कि अपनी प्यारी बहन को भूल जाए और अकेला जा कर शादी कर आए. अंजु को मैं ने ही कहा था कि वह तुझे जरूरजरूर किसी भी हालत में आने को कहे.’’
मैं बोली, ‘‘पर मुझे अंजु ने यह तो नहीं कहा था कि उसे आप ने बोला है मुझे आने के लिए.’’
भैया बोले, ‘‘उसे मैं ने ही मना किया था कि मेरा नाम नहीं ले क्योंकि मैं तुझे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. तेरे आने से मुझे तसल्ली है. तू मुझ से एक वादा कर, अब तुझे कोई कुछ भी कहे तू अपने भाई को छोड़ कर नहीं जाएगी.’’
मैं ने कहा, ‘‘ठीक है भैया, अब तो आप की खातिर सब सह लूंगी.’’
भैया बोले, ‘‘अखिल कहां हैं…मुझे उन से मिला तो सही.’’
भैया को मैं ने अखिल से मिलवाया तो भैया हाथ जोड़ कर अखिल से बोले, ‘‘अखिल, आप ने अच्छा किया जो मेरी बहन को आज के दिन ले आए. मैं आप का आभारी हूं. आप को शायद मैं अच्छी तरह अटेंड न कर पाऊं पर प्लीज, आप कहीं मत जाना, चाहे परिवार का कोई कुछ भी कहे.’’
अखिल बोले, ‘‘भाई साहब, आज तो हम आए ही आप की खातिर हैं, जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे.’’
भैया बोले, ‘‘अखिल, मैं अभी आता हूं. आप लोग यहीं रुकें.’’
फिर मैं व अखिल एकांत में कुरसी पर बैठ गए. मैं अखिल को अपने घर के बारे में, अपनी बचपन में की गई शरारतों के बारे में बताने लगी.
हमारे यहां रस्म है कि दोपहर में दूल्हे की एक आरती उस की बड़ी बहन करती है. वह रस्म जब होने जा रही थी तो मैं व अखिल चुपचाप कुरसी पर बैठे उसे देख रहे थे. मेरे पापा ने उस रस्म के लिए मेरी छोटी बहन शालिनी को आवाज लगाई तो शैलेंद्र भैया बोले, ‘‘पापा, बीना के यहां होते शालिनी कैसे आरती करेगी? क्या कभी शादीशुदा बहन के होते छोटी बहन आरती करती है? आरती तो बीना ही करेगी,’’ ऐसा कह कर भैया ने मुझे आवाज दी, ‘‘बीनू, यहां आओ, तुम्हें कसम है.’’