दिनभर तहसील के चक्कर काटतेकाटते सुगनी की नसनस बोल गई थी. वह मजबूत कदकाठी की थी. उसे हैरानी होती थी कि दुबलापतला दुलाल चश्मे के शीशे पोंछतापोंछता दिनभर तहसील के चक्कर काट कर भी थकता नहीं, बल्कि तरोताजा नजर आता.
वैसे, यह ताजापन कुछ गांव वालों के काम कराने के एवज में दुलाल की जेब में आए नोटों की गरमी का नतीजा होता था. मगर सुगनी को तब और हैरानी होती, जब वह देखती कि गांव में कलक्टर जैसा रोब जमाने वाला लेखपाल बरामदे में टाट बिछा कर बस्ता खोले दुलाल से हंसहंस कर बातें करता. उस का कानूनगो कुरसी पर बैठा हुक्म मारता और जमीन पर बैठा लेखपाल उस की डांट पर ‘जी साहब’ कहता.
सुगनी को लगता कि यह कितना निरीह इनसान है. पर बाद में दुलाल ने उसे बताया था कि लेखपाल का लिखा राजपाल भी नहीं काट पाता.समय की मार खाई सुगनी को बाद में यह बात माननी पड़ी थी.
सालभर पहले पति की मौत के बाद सुगनी को पट्टे के खेत का कब्जा पाने के लिए चूल्हेचौके से निकल कर तहसीलकचहरी करनी पड़ी, वरना 22 साल की उम्र ऐसी नहीं होती कि देखनेसुनने में भली लगने वाली औरत को छलछंदों की इस दुनिया से रूबरू होने का शौक चर्राए.
अकेली गरीब विधवा समझ कर लोगों ने सुगनी पर लालच का चारा डालना चाहा, पर शिकारी से चौकस चिडि़या की तरह उसे जाल के ऊपर से उड़ जाना आता था.
सुगनी धौंकल सिंह के कहने में रहती तो खुश रहती, मगर उस ने तो बंशी के बाग के पास अकेले में हाथ पकड़ने वाले धौंकल सिंह के मुंह पर थप्पड़ मारते हुए कहा था, ‘जाओ ठाकुर, खैर मनाओ. आज इतने पर ही छोड़ दिया आगे से ऐसा कुछ सोचा भी तो सारी मर्दानगी काट कर फेंक दूंगी.’
सुगनी के हाथ में लहराती दरांती देख कर धौंकल सिंह की घिग्घी बंध गई थी. उस की ऊपरनीचे होती तोंद थरथरा रही थी कि सुगनी कहीं उसी पर न फट पड़े.
वे चले भी जाते और मामला ठंडा भी पड़ जाता, लेकिन पीछे से आते भरोसे ने इस बात को पूरे गांव में फैला दिया और बात चर्चा में आ गई.
बस, इसी की रंजिश में ठाकुर ने अपने चक के पड़ोस की सुगनी के पट्टे की जमीन पर ट्रैक्टर चलवा कर उसे अपने खेत में मिला लिया.
खेत जुतने वाले दिन सही माने में सुगनी को लगा कि वह विधवा हो गई है. पूरे गांव में एक से एक मूंछ वाला आदमी, मगर एक गरीब विधवा के लिए धौंकल सिंह से दुश्मनी कौन मोल ले?
सुगनी का मर्द मौजूद होता, तो क्या ऐसा हो पाता?
खैर, जो हुआ सो हुआ. जो सुगनी के वश में है, करेगी और ठाकुर के जूते को गरदन झांका कर नहीं पहनेगी.
दूसरे दिन वह तहसील गई. जिस लेखपाल ने पट्टा दिया है, अभी मर नहीं गया है. वही फिर नापेगा. आखिर इंसाफ भी कोई चीज है.
पति के साथ बिताए 3 साल के समय के सुनहरे सपनों की दुनिया में भटकी सुगनी जान ही न सकी, कब बबुराडीह की पुलिया आ गई, जहां से तांगा मिलता है.
सुगनी तांगे की ओर न जा कर पुलिया के एक ओर ठिठक गई. तांगे पर बैठे दुलाल ने आंखें मिचमिचा कर कहा, ‘‘भाभी, जल्दी आ जाओ, तांगा चलने वाला है.’’
सुगनी ने तांगे की ओर नजर डाली. सवारी के नाम पर दुलाल ही बैठा था.
तांगा चलने के साथ ही बातचीत चली. जब दुलाल को सुगनी के इरादे का पता चला, तो उस के मन में बताशे फूटने लगे. पर वह अंदरूनी खुशी छिपा कर बोला, ‘‘भाभी, है तो काम खतरे का, पर मैं तुम्हारी मदद करूंगा.
‘‘मेरी यही तो मजबूरी है, गरीब पर होते जुल्म देख नहीं पाता हूं. बाकी, भाभी क्या कहूं, मुल्क ही भ्रष्ट हो गया है. अहलकार ठाकुर के पैसे के गुलाम जरूर हैं, पर तुम्हारा देवर भी कम नहीं है. ऊपर शिकायत करने की एक धौंस से इन के होश फाख्ता कर देता हूं, पर फिर भी जमाने की हवा देख कर कुछ न कुछ खर्च करना ही पड़ता है.
‘‘ऊपर तक खाते हैं, ये भी क्या करें? हां, यह जरूरी है. औरों के 10 का काम तुम्हारे एक रुपए से चलेगा, नहीं तो मैं गरदन पर सवार हो जाऊंगा और काम करवा कर ही चैन लूंगा.’’
सुगनी को लगा, डूबते को सहारा मिल गया है.
सुगनी बोली, ‘‘मैं इन चक्करों से अनजान हूं. तुम मदद कर दोगे, तो मेरी शान रह जाएगी. बात जमीन की नहीं है, यह तुम्हारे भैया की इज्जत की बात है.
‘‘मेरे पास हजार 5 सौ रुपए हैं, जहां कहोगे, खर्च कर दूंगी. अब तुम्हीं चाहे तारो, चाहे बारो.’’
दुलाल ने कहा, ‘‘अब जब तुम से कह दिया है, तो सम?ो कि इज्जत दांव पर लगा दी है. अव्वल तो तुम्हारा पैसा खर्च नहीं होने दूंगा और खर्च हुआ भी, तो इतना तो बहुत है.’’
उस दिन जब दुलाल सुगनी की बात लेखपाल से कराने गया, तो कैंटीन की चकाचकी और दुलाल की जानपहचान से सुगनी हैरत में आ गई. नाश्ते की मेज पर बैठे दुलाल की दुआसलाम वाले ?ाका?ाक कपड़ों वाले 2 बाबू जैसे लोग तो उस के साथ ही बैठ गए.
दुलाल के साथ सब ने नाश्ता किया, चाय पी और पैसे देने के लिए जब दुलाल ने सौ का नोट निकाला, तो वह उसे परोपकार के लिए निछावर होने वाला लगा.
उस ने सोचा, ‘आज तो उसी के काम के सिलसिले में चायनाश्ता हुआ है, खर्चा दुलाल क्यों ?ोले? यह तो सरासर गलत है. फिर जिन्हें दुलाल ‘बाबूबाबू’ कह रहा है, यह भी तहसील के कारिंदे होंगे और क्या पता, किस घाट पर इन पंडों की जरूरत पड़ जाए. पैसे उसे ही देने चाहिए.’
सौ के नोट में बाकी बचे रुपए पानपुडि़या की भेंट चढ़ने के बाद सुगनी को अपना पेट खालीखाली लगने लगा था. मगर पेट की टूटन के बावजूद वह खुश थी. लेखपाल ने भरोसा दिया था कि आज उसे जरूरी काम से तहसीलदार के पास ही रहना है, कल मामले पर नजर डाल दी जाएगी.
दूसरे दिन कानूनगो की मीटिंग थी. काम नहीं चला, मगर 10-20 रुपए खर्च हो ही गए.
तीसरे दिन छुट्टी थी. चौथे दिन बस्ता खुला, तो बोहनी के नाम पर कुछ देना ही था. 20 का नोट हालांकि हैसियत से कम था, पर दुलाल के रसूख के चलते लेखपाल ने उसे माथे से लगा कर कहा, ‘‘अब सब से थोड़े ही कहसुन कर मिलता है.’’
पता चला, खेत तो सुगनी के मर्द के नाम है, मगर नक्शा मालखाने में है. वहां पड़ते तो 2 सौ हैं, मगर सौ रुपए में काम चल जाएगा.
सुगनी को जमीन हिलती सी नजर आई, मगर उस ने कलेजा कड़ा कर के नोट दुलाल के जरीए लेखपाल के हवाले किया.
शाम को लौटते समय वह दुलाल से बोली, ‘‘तुम्हें कब तक काम हो जाने की उम्मीद है?’’
‘‘जल्दी से जल्दी. सरकारी काम में कभीकभार देर हो भी जाती है, पर तुम्हारे मामले में ऐसा नहीं हो पाएगा. मैं जो हूं, इन अहलकारों के सीने पर सवार होने के लिए,’’ दुलाल ने सीना ठोंक कर कहा.
अगले दिन तहसील में हड़ताल थी. संगठन से गद्दारी कोई अच्छी बात है? हां, घर पर यह काम हो सकता है. वहां 5 सौ रुपए ले कर पैमाइश की दरख्वास्त लिखवा दी गई, जिसे पास कराना दुलाल का काम था.
रुपए खर्च होते, तो काम भी होता. मगर दुलाल ने सुगनी को 2-4 दिन की मुहलत देने को कह कर और काम निबटाए. सुगनी के पूछने पर बताया, वह काम उन्हीं रुपयों में लेखपाल के जिम्मे कर दिया था, कल देखेंगे.
अब सुगनी न रह सकी. उसे दुलाल पर भरोसा था, लेकिन लेखपाल उसे हीलाहवाला करता दिखा. नतीजतन, वह अगले दिन तहसील गई. रास्ते में उस ने देखा कि दुलाल की नजर में उस के लिए सराहना के भाव हैं.
वह कुछ कहना चाहता है, पर संकोच उसे चुप किए है. वह मन ही मन भीग गई. दुलाल के घर में भी कोई दीया जलाने वाला नहीं है. कहीं यही भाव उस के मन में भी तो नहीं है.
दुलाल का चेहरा देख कर उसे लगा, उस का सोचना कतई गलत भी नहीं है. पर सुगनी ने अपने चेहरे पर कोमलता को जगह नहीं दी. उस के चेहरे पर सख्ती ही उस की ताकत है. पर मन में कहीं न कहीं बदलाव हो रहा था. अपनेपन में यह दुख कब तक टिक पाएगा?
तहसील में दुलाल और लेखपाल मिले, तो लेखपाल के चेहरे पर रूखापन था. आज वह किसी मोटे आसामी की जुगाड़ में था. दुलाल ने उस के कान में कुछ कहा, तो वह झाझला उठा.
दुलाल ने चिरौरी की, तो बड़ी मुश्किल से पास के खोखे तक जाने को तैयार हुआ.
सुगनी को बड़ा दुख हुआ कि उस के चलते बेचारा दुलाल खिड़की खा रहा है और काम बिगड़ने के डर से बोल भी नहीं रहा है.
खोखे पर पान खाने के बाद गुमटी के पीछे बतियाते इन दोनों को देख कर सुगनी का मन हुआ, वह भी सुने कि दुलाल उस के लिए क्याक्या चिरौरी करता है. सामने जाना ठीक नहीं रहेगा, यह सोच कर वह खोखे के दूसरी ओर खड़ी हो गई.
सुगनी की मौजूदगी से बेखबर लेखपाल कह रहा था, ‘‘यह हम से नहीं होगा. माल मारो तुम और बदनामी हम उठाएं. या तो उस के रुपए लौटा दो या मुझे दे दो, तो काम हो जाएगा, वरना आइंदा मुफ्तखोरी करने मेरे पास न आना.’’
सुगनी दिनभर की दौड़ की हारीथकी थी, किंतु इतनी टूटन उसे तब तक नहीं आई थी. जिस पर भरोसा किया, जिस के लिए जाने क्याक्या सोचा, वह ऐसा निकलेगा, कौन जानता था. वह वहीं बैठ गई. लेखपाल अपने काम में लगा रहा.
इधरउधर घूम कर दुलाल ने सुगनी से कहा, ‘‘ठीक है भाभी, बात हो गई है. तुम फिक्र न करो. मैं गरदन दबा कर काम करा लूंगा. मेरे पास अकेले में गिड़गिड़ाने लगा, तब मैं ने 2 दिन की मुहलत और दे दी है.’’
शांत बैठी सुगनी का निराश चेहरा एकबारगी सुर्ख हो गया. वह बोली, ‘‘तुम ने समय रहते अपनी असलियत खोल दी. मैं तो तुम्हारे ऊपर इतना भरोसा किए थी कि अपने मर्द की खिलाई कसम पूरी करने वाली थी.
‘‘मरतेमरते उस ने कहा था, ‘सुगनी, जिंदगी में तुम्हें कोई सुख न दे सका, मगर असहाय किए जा रहा हूं. तुम्हारी हालत देख कर मेरा मरना बिगड़ रहा है. वचन दो कि कोई भरोसे लायक आदमी मिले, तो घर बसा लोगी?’’’
सुगनी बोलतेबोलते रुक गई. इतनी खूबसूरत सुगनी के मन में क्या था, दुलाल जान ही न सका था. उस ने कागज के चंद टुकड़ों के लिए सुगनी के भरोसे को ठेस पहुंचा कर अपने घर में खुद आगे लगा ली थी. वह सुगनी की ओर दयनीय नजर से देखने लगा.
सुगनी ने उसे देख कर कहा, ‘‘और तुम मुझे वही भरोसे के आदमी लगे थे.’’
‘‘क्या यह सच है?’’ दुलाल सुगनी के सामने हाथ फैला कर जमीन पर बैठ गया.
‘‘नहीं, अब नहीं है, कुछ देर पहले तक था.
‘‘अब मैं अपनी जंग खुद लड़ूंगी और अपने मर्द के भरोसे को टूटने नहीं दूंगी,’’ कह कर सुगनी एक ओर चल दी.
दुलाल की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए.