रमा चाची की उम्र 60 के करीब हो चुकी थी, पर उन के पूजापाठ में, गांव में जैसा उन की मां करती थीं, उस में शहर आने पर भी कोई फेरबदल नहीं हुआ था. जमाना तो बदला, लोगों के रीतिरिवाज भी बदले, पुरानी बातें छूटती चली गईं और नई बातें लोगों के दिलोदिमाग में जगह बनाती चली गईं. पर रमा चाची 5वीं पास होने और बीए पास बेटी की मां के बावजूद वहीं की वहीं रहीं. रमा चाची का असली नाम बहुत कम लोग ही जानते थे. उन से बड़ी उम्र के लोग भी उन्हें ‘चाची’ कह कर ही पुकारते थे.

चाची जब से इस शहर में इस घनी बस्ती के टेढ़ेसीधे 5-6 मंजिले मकान के 2 कमरे के घर में आई थीं, तभी से उन का पूजापाठ का सिलसिला शुरू हो गया था.

बीचबीच में भगवाधारी जुलूस निकलते थे. उन से रमा चाची को बहुत बल मिलता था कि देवीदेवताओं की पूजा करने से ही उन को पैसा मिले.

शुरूशुरू में रामेसर यादव चाचा ने इन ढकोसलों के लिए चाची को कई बार डांटाफटकारा था, पर बाद में वे भी इन्हीं के गुलाम हो गए. अब यह पता नहीं कि उन्हें किसी भगवाधारी ने समझाया या घर में झगड़ा न हो, इसलिए वे पूजापाठ में लग गए. वैसे, रामेसर एक नंबर के झगड़ालू थे. रमा चाची भी पड़ोसनों को अकसर गाली देती दिख जाती थीं.

चाची के घर में भी कमरों की दीवारों पर तमाम देवीदेवताओं के फ्रेम वाले फोटो और मूर्तियां लगी हुई थीं. एक कमरे में उन्होंने एक मंदिर भी बनाया हुआ था. अलगअलग देवीदेवताओं की पूजा करने का तरीका भी अलगअलग था. हर बार कोई पंडितनुमा जना आ कर उन्हें अलग से सिखा जाता. कितनी ही देवियों, हनुमान, शनि देवता भरे हुए थे. किस को किस चीज का भोग लगाया जाना चाहिए, यह बात चाची अच्छी तरह जानती थीं. हर पंडित आता और दक्षिणा ले जाता.

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