मैं कुछ सम झ नहीं पाया. मु झे लगा कि वे वन्य पशु संरक्षण बिल के खिलाफ जा कर अपने बंगले में शेर बांधना चाहते हैं. मैं ने उन्हें याद दिलाना चाहा  झ्कि वन्य प्राणी संरक्षा बिल के चलते वे शेर नहीं पाल सकते. लेकिन नेताओं का क्या, कुछ भी कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के एक नेता ने तो अपने बंगले में मगरमच्छ पाल रखे थे. नेता हैं तो अपने आलीशान बंगले में शेर, हाथी, गैंडा, हिरन, कछुआ कुछ भी रख सकते हैं. मु झे उन की शेर मंगवाने की वजह सम झ में नहीं आ रही थी. नेता तो कुछ भी पाल सकते हैं. गुंडे तो पालते ही हैं.

‘‘वह कवि सम्मेलनों या ऐसे ही किसी साहित्यिकफाहित्यिक कार्यक्रम में गा कर पढ़ते हैं न, उस वाले शेर की बात कर रहा हूं. लगता है कि तुम कवि सम्मेलनों में नहीं जाते?’’ उन्होंने मेरी जानकारी पर तरस खाते हुए कहा.

मु झे उन की इस 180 डिगरी की छलांग पर हैरानी हुई. बातबात में संस्कृत के श्लोक पढ़ने वाला आज उर्दू के शेर की बात कर रहा है. दल बदल तो नहीं कर लिया? वैसे भी अच्छे दिनों का सपना देखतेदेखते दोपहर हो गई है.

‘‘कहीं से भी लाओ, जल्दी लाओ. लाते रहो. काम आते जाएंगे. मु झे भाषण देना है. अब मैं घिसेपिटे भाषण देने

के बजाय शेर के जरीए अपनी बात कहूंगा,’’ उन्होंने कहा.

मैं शेर का मतलब सम झ तो गया था, लेकिन भाषण और शेर का नाता नहीं जोड़ पाया. मैं ने कलैंडर देखा. बजट या उस का संशोधन भी नहीं आया, जो वित्त मंत्री जातेजाते परंपरा के मुताबिक कोई शेर पढ़ें और ये भी उस का शेर में ही जवाब दें.

अपना तो शेरोशायरी से नाता कभी का टूट चुका था. कालेज के दिनों में तो जरूर मौकेबेमौके शेर ठूंस दिया करता था. साथ में पढ़ने वाली किसी लड़की की भी शादी हो गई तो उदासी का शेर गुनगुना लेता था. किसी लड़की ने खुद बात कर ली तो दिनभर रोमांटिक शेर जबान पर खेलता रहता था.

शादी के बाद जिंदगी से रोमांटिसिज्म विदा हो जाता है और उस की जगह रियलिज्म ले लेता है. अब तो ‘मेक इन इंडिया’ का नशा उतरने के बाद शेर की याद भी डराती है. बस याद आता है तो ‘अप्लाई अप्लाई बट नो रिप्लाई’.

अखबारों में बढ़ती रोजगारी और जमीन चूमने को बेचैन जीडीपी खबरों के चलते कोई शेर कैसे कह सकता है. सुनने की ही ताकत नहीं रही. फिर भी मैं ने उन्हें यकीन दिलाया कि जल्द ही शेर ढूंढ़ लाऊंगा.

‘‘कैसा शेर चाहिए आप को? खुशी का चाहिए या गम का? स्पिरिचुअल या रिवौलूशनल?’’ मैं ने जानना चाहा.

सच ही तो है. उन्हें गुस्से का शेर चाहिए हो और मैं मजाक का शेर पकड़ा दूं. खुशी का शेर चाहिए और मैं गम का ले आऊं तो बेइज्जती मेरी पढ़ाईलिखाई की होगी. उन का क्या, उन की शैक्षणिक योग्यता का पता तो उन्हें खुद को नहीं है.

‘‘सिचुएशनल… मु झे सिचुएशनल शेर चाहिए. आज की मांग सिचुएशनल शेर की है. कल तक जो अपने थे, वे आज बेगाने हो गए,’’ उन्होंने हताशा से शायराना अंदाज में कहा.

उन की बात में दम तो था. आजकल सामने वाले की खिल्ली उड़ाने के लिए शेरोशायरी का इस्तेमाल होने लगा है.

उन की फरमाइश पूरी करने के लिए मैं ने दोस्तों के घर जा कर शायरी की किताबें इकट्ठा कीं. सभी को हैरानी हो रही थी कि जो आदमी खर्चे कैसे कम करें, कम आमदनी में घर कैसे चलाएं, अखबार की रद्दी का सब से अच्छा भाव पाएं जैसे विषयों पर किताबें ढूंढ़ता रहता था, वह आज शेरोशायरी की किताबें मांग रहा है. उसे अब शायरी में फिर से कैसे दिलचस्पी हो आई. कहीं कोई ऐसावैसा चक्करवक्कर तो नहीं है.

लेकिन मैं ने सही बात नहीं बताई. मेरा ज्यादातर समय नौकरी ढूंढ़ने के साथसाथ शायरी की किताबें पढ़ने में जाने लगा. गालिब, मोमिन, अकबर इलाहाबादी से लगा कर साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, जां निसार, जावेद अख्तर, सरदार जाफरी, राहत इंदौरी, मुनव्वर राना तक को खंगाल डाला. कुछ शेर इस के लिए चुरा लिए तो कुछ उस के और 2 अलगअलग शेरों को जोड़ कर नया शेर बनाने की तिकड़म भी भिड़ाई.

सच कहूं तो खुद भी कुछ शेर लिख मारे. काफिया नहीं मिला तो क्या, भाषण देने वालों का शायरी से कोई मतलब नहीं होता. कभी सुना या देखा है नेता लोगों से मुशायरों में जाते हुए.

सब महाराष्ट्र के चलते हो रहा है, 2 हफ्ते बाद नेताजी ने मेरे चुने हुए सारे शेर खारिज कर दिए.

‘‘बयानों में शायरी का चलन वहीं से शुरू हुआ है. न वहां के नेता अपने अखबार में शेर पर शेर लिख कर सामने वाली पार्टी को ललकारते और न ही सामने वाले उस का जवाब शेर में देते. वह क्या, किसी ने कहा है कि मैं लहर हूं, लौट कर आऊंगा या ऐसा ही कुछ. अब तो इधर से एक शेर गया नहीं कि उधर से एक शेर दौड़ा चला आता है.

‘‘लगता है कि जिंदाबादमुरदाबाद के नारे घिस गए हैं जो शेर पर शेर चले आ रहे हैं. मेरे पास कोई शेर नहीं होता मौके पर. ऐसे में मैं खुद को पिछड़ा सम झने लगता हूं. तुम्हारी किताबों का एक भी शेर आज के हालात पर हो तो लगी शर्त.’’

वे बोले, ‘‘पढ़ाई के नाम पर फिल्में देखने या लड़कियों के साथ होटल में गुजारने के बजाय 2-4 शेर ही रट लेते, तो आज यह शर्मनाक नौबत नहीं आती. लगता है कि खुद ही शेर लिखना होगा.’’

मैं ने तो अपना काम कर दिया. रोज अखबार तो खरीदता ही था कि नौकरी का कोई इश्तिहार दिख जाए, लेकिन इस बार उन का कोई दहाड़ता शेर पढ़ने को मिल जाए, इस पर भी नजर दौड़ाने लगा हूं.

बहुत दिन हो गए, लेकिन उन का शेर मांद में ही रहा. उन्हें भी बिना शेर के चैन नहीं था. एक दिन मेरे घर आए और डांटने लगे कि मैं ने कोई नया शेर नहीं सु झाया. बड़ी देर तक वे हमारी दोस्ती का वास्ता देते रहे. मुसीबत के समय दोस्त ही काम आता है जैसी किताबी बातें करते रहे.

मैं सम झ गया कि अब मामला आईसीयू में ले जाने जितना गंभीर हो गया है. मैं उन्हें हाईवे के टोल नाके पर ले गया.

मैं ने उन से अदब से कहा, ‘‘कुछ पल गुजारिए टोल नाके पर, शेरों की बरात निकलेगी. इस रास्ते से दिनरात कई ट्रक गुजरते हैं. उन के पीछे देखते रहिए. नएनए शेर मिल जाएंगे.’’

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