रमजान अली ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इस बुढ़ापे में यह मुसीबत भी सिर पर आ पड़ेगी. इस जिंदगी ने उन्हें दिया ही क्या था, सिवा दुखों के. बचपन में ही अब्बा मर गए. अम्मी ने मेहनतमजदूरी कर के, दूसरों के कपड़े सिल कर, बरतन मांज कर जैसेतैसे पाला और मैट्रिक पास करा दिया.
उन दिनों इतनी पढ़ाई कर के रोजगार मिल जाता था. रमजान अली भी चुंगी महकमे में लग गए. उन की शादी होने के बाद अम्मी भी मर गईं.
एक साल के बाद बेटी पैदा हुई. वे थोड़ी सी आमदनी में गुजारा करते रहे. ईमानदार आदमी थे, इसलिए हाथ तंग ही रहा. न कभी अच्छा खा सके, न पहन सके. जिंदगी एक बोझ थी, जिसे वे ढो रहे थे.
रमजान अली की बेटी अकबरी 10 साल की ही थी कि उन की बीवी चल बसी. उन्होंने दूसरी शादी नहीं की, क्योंकि वे डरते थे कि सौतेली मां बेटी को तंग न करे.
न जाने क्याक्या जतन कर के वे अकबरी को पालते रहे. इस सब में उन की कमर टेढ़ी हो गई. बालों पर बुढ़ापे की बर्फ गिरने लगी. दांत टूट गए. धुंधलाई हुई आंखों पर चश्मा लग गया. वे छड़ी के सहारे चलने लगे.
अकबरी 20 साल की हो गई थी. रमजान अली की रातों की नींद हराम हो गई थी. रिश्ते की तलाश में दौड़तेदौड़ते उन के जूतों के तले घिस गए.
आमतौर पर या तो लड़के ऐबी और निकम्मे मिलते थे या उन के घरों का माहौल जाहिल था. जो कुछ ढंग के थे, उन्हें पैसे वाले झटक लेते थे.
आखिरकार काफी दौड़भाग के बाद एक रिश्ता मिला. लड़का किसी वकील का मुंशी था.
रमजान अली ने बेटी की शादी कर दी और बिलकुल ही कंगाल हो गए. रिटायर होने में एक साल बाकी था. कर्ज का बोझ दबा रहा.
बेटी को विदा कर के सोचा था, ‘चलो, इस फर्ज से तो निबट गए. दिल में एक ही तमन्ना थी कि रिटायर होने के बाद हज को जाऊंगा, पर यहां तो रोटियों के भी लाले हैं.’
बेटी की शादी तो एक तरह का जुआ होती है. कोई नहीं कह सकता कि अंजाम क्या होगा.
अकबरी बड़ी दुखी थी, क्योंकि उसे बड़ी जालिम सास मिली थी. वह अकबरी को दिनभर कोल्हू के बैल की तरह कामकाज में पेले रखती. चलो, उसे भी झेल लिया जाता, पर मुसीबत तो यह थी कि 2 साल बीतने पर भी उस की गोद हरी नहीं हुई थी और इस का इलजाम भी उसी पर था.
सास ‘बांझ’ होने का ताना देने लगी थी. जाहिल लोग भला क्या जानें कि ‘बांझ’ तो मर्द भी हो सकता है.
एक दिन अकबरी रोती हुई आई और अब्बा से कहा, ‘‘मेरी सास मेरे शौहर की दूसरी शादी की बात कर रही हैं… कहती हैं कि मैं बांझ हूं.’’
रमजान अली पर बिजली सी गिर पड़ी, आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वे बेटी की ससुराल गए.
उन्होंने उस की सास के सामने हाथ जोड़े और गिड़गिड़ाए, ‘‘ऐसा मत करो. मेरी बेटी कहीं की न रहेगी. मैं उस का इलाज कराऊंगा… हम पर तरस खाओ.’’
सास चीख कर बोली, ‘‘घर में फल देने वाला पेड़ ही लगाते हैं. तुम ने एक बांझ को मेरे बेटे के पल्ले बांध कर हमें धोखा दिया है. मैं दूसरी बहू लाऊंगी और तुम्हारी बेटी को तलाक दिलवाऊंगी.’’
दामाद चुप रहा, क्योंकि मां उस पर छाई हुई थी. मां का हुक्म मानना हर बेटे का फर्ज है. बीवियां तो जितनी चाहो मिल जाती हैं, मां नहीं मिलती. मां के कहने पर शादी की और उस के कहने पर तलाक भी दे देगा.
तलाक देना कोई ऐसा मुश्किल काम तो है नहीं. बस, 3 बार जबान हिलानी पड़ती है. बांझ भला किस काम की? आखिर वह मर्द था, उसे हक था एक को तलाक दे कर दूसरी लाने का.
लेडी डाक्टर को दिखाया. अकबरी में कोई कमी नहीं थी. रिपोर्ट रमजान अली के हाथ में थी, पर समाज तो औलाद पैदा करने की जिम्मेदारी औरत पर ही डालता है. डाक्टर कुछ भी कहा करें, बदनामी तो हर सूरत में रमजान की बेटी ही की थी.
वे इसी परेशानी में मारेमारे फिर रहे थे कि उन के दोस्त जलील मियां ने सलाह दी, ‘‘मस्तान शाह की दरगाह पर जा कर मजार पर चादर चढ़ाओ, बड़ीबड़ी मुरादें पूरी हो जाती हैं. जितनी भारी चादर होगी, उतनी ही जल्दी मुराद पूरी होगी.’’
रमजान अली उलझन में पड़ गए कि करें तो क्या करें? इन बातों को वे मानते तो न थे, मगर डूबने वाला तो तिनके का भी सहारा लेता है. बेटी की शादी ने उन की हालत एक भिखारी जैसी बना दी. हाथ बहुत तंग हो रहा था. ऐसी हालत में भारी चादर चढ़ाने के लिए पैसे कहां से लाते?
मस्तान शाह के मजार पर अब फूलों की चादर चढ़ाना बंद कर दिया गया था. कपड़े की चादरें ही कबूल की जाती थीं. शायद पीर साहब ने सपने में सज्जादे मियां से यह बात कही थी.
रमजान अली रकम उधार ले कर बाजार पहुंचे.
‘जितनी भारी चादर होगी, उतनी ही जल्दी मुराद पूरी होगी,’ उन्होंने मन ही मन कहा. अब वे इतने भोले भी न थे कि ‘भारी’ का मतलब भी न समझते.
रेशम की भारी चादर 8 सौ रुपए में मिली. रकम गिनते वक्त जैसे कलेजा निकला जा रहा था, मगर बेटी की जिंदगी का सवाल था. इस जुए की एक बाजी और लगा दी.
जुमेरात की शाम को वे चादर को थाली में रख कर दरगाह की तरफ चल पड़े. हरे रंग के मीनार का कलश दूर से दिखाई दे रहा था. दरगाह के पास ही सड़क के दोनों तरफ मिठाई की दुकानों के अलावा फूलों, चादरों और इत्र की दुकानें भी थीं, जिन पर ग्राहकों की भीड़ थी.
इन चीजों को लोग खरीद कर मजार पर चढ़ाते थे और वही चीजें पिछली गली से फिर इन दुकानों में जातीं, एक बार फिर बिकने के लिए. इस तरह मस्तान शाह भी खुश, मुजाविर भी खुश, दुकानदार भी खुश.
मर्द, औरतें, बूढ़े, जवान और बच्चे दरगाह के गेट की तरफ जा रहे थे.
जो पैसे वाले थे, उन की कीमती झिलमिलाती चादरें कव्वालों की गातीबजाती टोलियों के साथ ले जाई जा रही थीं, जिन पर गुलाबपाशी की जा रही थी.
दरगाह के आसपास लंगड़ेलूले, अपाहिज और हट्टेकट्टे भिखारियों का हुजूम था. जुमेरात के दिन और दिनों से ज्यादा ही भीड़ होती थी. एक मेला सा लगा रहता था. कव्वालों का गाना, औरतों और बच्चों का शोर, दुकानदारों और ग्राहकों का मोलतोल, यानी कानपड़ी आवाज न सुनाई देती.
गेट पर एक बक्से में 5 रुपए का नोट डालना पड़ा. यह ‘चिरागी’ के नाम पर देना पड़ता था.
अंदर खचाखच भीड़ थी. अगरबत्ती, लोबान, गुलाब के फूलों और पसीने की बू से हवा बोझिल थी.
मजार तक पहुंचतेपहुंचते 3 जगह 3 बक्सों में 5-5 के नोट और सिक्के डालने पड़े, क्योंकि इन जगहों पर मस्तान शाह बैठ कर हुक्का पीया करते थे.
उस दिन भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. इस की वजह यह थी कि सज्जादे साहब भी मजार पर हाजिर हुए थे. सुर्ख, सफेद रंगत वाले भारीभरकम आदमी थे.
10-20 लोग आगेपीछे चल रहे थे. लोग उन के हाथ चूमने के लिए एकदूसरे को धकेल कर आगे बढ़ने का जतन कर रहे थे.
इतनी बड़ी दरगाह के सज्जादे की एक नजर ही पड़ जाने से बेड़ा पार हो जाता था. उन की आंखों में लाललाल डोरे रातों को जागने से पड़े रहते थे.
लोगों का कहना था कि वे रातभर इबादत करते हैं, इसीलिए दिनभर सोया करते हैं. जब भी वे बाहर आते, रेशम के कपड़े पहने होते. गले में सोने की चेन और उंगलियों में जगमगाती हीरे की अंगूठियां उन की शान बढ़ाती थीं.
सुना है कि एक पार्टी उन्हें विधानसभा की सीट के लिए खड़ा करने वाली है. चेहरे पर बड़ीबड़ी मूंछें देख कर किस की हिम्मत थी, जो उन से आंख से आंख मिला कर बात करता?
सुना है कि वे करामाती भी हैं. एक बार एक कव्वाल का गला पड़ गया था, सज्जादे साहब ने उस के मुंह में थूक कर उस का गला ठीक कर दिया था.
सज्जादे साहब की हाजिरी के बाद भीड़ कम हुई, तो रमजान अली मजार की तरफ चले. बाहर कव्वाली हो रही थी. मजार के चारों तरफ मुजाविर मोर के परों के पंखे हिला रहे थे. लोबान का धुआं भरा हुआ था. लोग मिठाइयां और चादरें चढ़ा रहे थे. उन में बहुत से ऐसे थे, जिन के अपने तन पर फटे कपड़े थे.
पलभर के लिए रमजान अली ने सोचा, ‘हम लोग जिंदा लोगों को भूखा मारते हैं और उन के तन पर से कपड़े भी उतार लेते हैं और मरने वालों के लिए शानदार इमारतें बनवाते हैं, कब्रों को चादरें ओढ़ाते हैं और मिठाई चढ़ाते हैं.’
मजार पर औरतें और लड़कियां मर्दों से कहीं ज्यादा थीं. मुजाविर बारबार ‘या मस्तान’ का नारा लगा रहे थे.
न जाने क्यों, रमजान अली चादर लिए खड़े सोचते रहे, फिर वे चौंक पड़े. पहले उन्हें ऐसा लगा, जैसे बड़ा मुजाविर, जो चादरें और मिठाइयां लोगों से ले कर मजार पर चढ़ा रहा था, उन की तरफ देख रहा हो. मगर उस की लाललाल आंखें उस दुबलीपतली सी प्यारी सूरत वाली लड़की पर गड़ी थीं, जो उन के पीछे शरमाई सी खड़ी थी.
उन्होंने देखा, उस की आंखों में गहरा दुख था. वह बहुत गरीब थी. कपड़े फटे हुए थे. कुरता तो इतना फटा था कि उस का बदन भी जगहजगह से झांक रहा था.
वह लड़की बदन को फटे हुए दुपट्टे से ढकने की कोशिश कर रही थी. मुजाविर की निगाहों के तीर उसे घायल किए जा रहे थे.
रमजान अली ने उस लड़की से पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है?’’
‘‘मुराद मांगने आई हूं बाबा,’’ वह बोली.
उन्होंने फिर पूछा, ‘‘क्या दुख है बेटी?’’
वह बोली, ‘‘2 साल पहले मेरी शादी हुई थी. अभी तक गोद हरी नहीं हुई… मियां कहता है कि मैं बांझ हूं. तलाक देने की बात कर रहा है. घर से भी निकाल दिया है…
‘‘सुना है, चादर चढ़ाने से दुख दूर हो जाते हैं. तन पर तो फटे कपड़े हैं, चादर कहां से लाऊं? बड़ा मुजाविर कहता है कि सज्जादे साहब जुमेरात की रात को दुखियारियों को अपने हजूरे में बुला कर खास दुआ करते हैं.
‘‘इस तरह चादर चढ़ाए बिना भी मुराद पूरी हो जाती है. पर तुम तो चादर लाए हो, इसे चढ़ा कर मुराद पा लो.’’
रमजान अली ने फिर मुजाविर की आंखों की तरफ देखा, जो अभी भी उस लड़की के फटे कुरते में से झांकते गोरे बदन पर गड़ी थीं.
वे गुस्से से कांप उठे और उन्होंने आगे बढ़ कर अपनी चादर उस लड़की के बदन पर चढ़ा दी. मुजाविर और लड़की उन्हें इस तरह आंखें फाड़ कर देखने लगे, जैसे वे पागल हों.
फिर उन्होंने लड़की का हाथ पकड़ा और उसे दरगाह से बाहर ला कर कहा, ‘घर जा… बेटी, तेरा वहां आना ठीक नहीं है.’’
वह बोली, ‘‘यह चादर तुम ने…’’
उन्होंने उस की बात काट दी, ‘‘हां बेटी… आज मैं ने चादर भी चढ़ा दी और हज भी कर लिया.’’
उन्होंने जेब से अकबरी की डाक्टरी रिपोर्ट निकाली और सचाई व इंसाफ की लड़ाई लड़ने और जालिम को धूल चटाने के लिए वकील के घर की ओर चल पड़े.