लड़कपन से ही मैं कुछ ज्यादा लापरवाह रहा हूं, इसीलिए मेरी किताब की जगह किताब नहीं मिलती थी और न कपड़ों की जगह कपड़े ही. आते ही इधरउधर फेंक देता और ढूंढ़ते वक्त शामत आती मां की.

मां रोज कहती, ‘‘पप्पू के बापू, इस के दहेज में चाहे अठन्नी भी न मिले, मगर बहू ऐसी ला देना, जो इसे मेमना बना कर खाट से बांध दे.’’

पिताजी हंस कर कहते, ‘‘क्यों परेशान होती हो पप्पू की मां, अभी बच्चा ही तो है.’’

बाद में मैं बड़ा भी हो गया, मगर मेरी आदतें वही ‘पप्पू’ वाली ही रहीं, तो पिताजी के कान खड़े हुए. लोग वर ढूंढ़ने के लिए खाक छाना करते हैं, लेकिन उन्होंने मेरे लिए बीवी खोजने में 4 जोड़ी जूतियां घिस डालीं.

एक दिन उन्होंने खूंटी पर पगड़ी टांगते हुए कहा था, ‘‘लो पप्पू की मां, तुम्हारी मुराद पूरी हुई.’’

‘‘छोरी कैसी है पप्पू के बापू?’’

‘‘है तो थोड़ी काली, लेकिन रंग तो 2 ही होते हैं. अच्छी सेहतमंद भी है, पर सफाई से उसे बहुत प्यार है... और हर सलीका जानती है. इसी बात पर रीझ कर मैं ‘हां’ कह आया. तुम भी देखोगी तो निहाल हो जाओगी,’’ बापू बागबाग हुए जा रहे थे.

उस लड़की का खयाल कर के ही मेरे होश उड़ गए. लेकिन शादी का जो चाव होता है, उसी पागलनपन में घोड़ी पर चढ़ बैठा. भांवरे शुरू हुए ही थे कि गड्डमड्ड हुई. दुलहन ने मुझे कुहनी मार कर कहा, ‘‘सीधे बैठो जी, यों झुक कर बैठना जरा अच्छा नहीं लगता.’’

इस बात पर बापू ने मां की तरफ देख कर मूंछों पर ताव दिया था और मां ने इस तरह हंस कर सिर हिलाया था मानो कह रही हो कि मान गए जी, आप की पसंद को. पप्पू के लिए ऐसी ही बहू चाहिए थी. मैं तो खुश था कि चलो, अब मां की हर तकलीफ यह संभाल लेगी.

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