बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

जब अंगरेज पहली बार भारत आए थे, तब वे यहां का गौरव देख कर दंग रह गए थे. चालाक अंगरेजों ने यह भी देखा था कि भारत के लोगों की धर्म में अटूट आस्था है. हर गांव में एक मंदिर और वह भी एकदम भव्य. उसी गांव के एक छोर पर उन्होंने मसजिद देखी और तब अंगरेजों को सम झते देर न लगी कि भारत में कई धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं.

अब हम आजाद हैं और बहुत तेजी से तरक्की भी कर रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या एक शहर में इतने ज्यादा मंदिर या मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च की जरूरत है या हम महज एक दिखावे के लिए या सिर्फ अपने अहंकार को पालने के लिए इन्हें बनाए जा रहे हैं?

सिर्फ एक धर्म के लोग ही ऐसा कर रहे हों, ऐसा नहीं है, बल्कि यह होड़ हर धर्म के लोगों में मची हुई है. शहर के किसी हिस्से में जब एक धर्मस्थल बन कर तैयार हो जाता है तो तुरंत ही उसी शहर के किसी दूसरे हिस्से में दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनना शुरू हो जाता है और दूसरा वाला पहले से भी बेहतर और भव्य होता है.

धर्मस्थल बनने के बाद कुछ दिन तो उस में बहुत सारी भीड़ आती है, फिर कुछ कम, फिर और कम और फिर बिलकुल सामान्य ढंग से लोग आतेजाते हैं.

मैं अगर अपने एक छोटे से कसबे ‘पलिया कला’ की बात करूं तो यहां पर ही 17 मंदिर, 12 मसजिद और एक गुरुद्वारा है. अभी तक यहां किसी चर्च को नहीं बनाया गया है.

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इन मंदिरों की देखरेख पुजारियों के हाथ में है. ऐसा भी नहीं कि सारे के सारे पुजारी मजे करते हैं, बल्कि कुछ मंदिरों के पुजारी तो गरीब हैं.

हिंदू धर्म कई भागों में बंटा हुआ है. मसलन, वैश्य खाटू श्याम मंदिर में जाते हैं तो कुछ नई पीढ़ी के लोग सांईं बाबा पर मेहरबान हो रहे हैं, इसलिए खाटू श्याम मंदिर और सांईं बाबा मंदिर के पंडों की जेब और तोंद रोज फूलती जा रही हैं.

चूंकि सांईं बाबा का मंदिर शहर से अलग जंगल की तरफ पड़ता है, इसलिए वहां पर जाने वाले लड़केलड़कियों के एक पंथ दो काज भी हो जाते हैं. वे सांईं के दर्शन तो करते ही हैं, साथ ही इश्क की पेंगें भी बढ़ा लेते हैं.

यहां पर दरगाहमंदिर नाम से एक हिंदू मंदिर भी है, जो एक सिंधी फकीर शाह बाबा के चेलों ने बनवाया है. यहां की मान्यता है कि जो भी आदमी या औरत कोई भी मन्नत मांगता है तो उसे लगातार 40 दिन आ कर मंदिर में  झाड़ूपोंछा करना पड़ता है, जिसे ‘चलिया’ करना’ कहते हैं.

लोगों की लाइन तो ‘चलिया करने’ के लिए लगी ही रहती है. अब भक्तों की मुराद पूरी हो या न हो, पर बाबाजी का उल्लू तो सीधा हो ही रहा है न.

पंचमुखी हनुमानजी के मंदिर में एक बाबा हैं, जो मुख्य पुजारी हैं. वे बड़ी सी लंबी दाढ़ी बढ़ा कर, गेरुए कपड़े पहन कर बड़े आकर्षक तो नजर आते हैं, पर असलियत में उन पर एक हत्या का केस चल रहा है. पर वे बजरंग बली की सेवा में आ गए तो सफेदपोश बन गए हैं.

शहर के हर कोने में बहुत सारे धर्मस्थल बनाने से अच्छा है कि हर छोटेबड़े शहर में हर धर्म का एक ही धर्मस्थल हो और उस शहर के सारे लोग एक ही जगह पूजापाठ, प्रार्थना, नमाज वगैरह कर सकें. हां, इस में उमड़ी हुई भीड़ को संभालना एक बड़ी बाधा हो सकती है, पर उस के लिए प्रशासन की मदद ली जा सकती है.

किस शहर में कितने धर्मों के कितनेकितने धर्मस्थल हों, यह वहां की आबादी के मुताबिक भी तय किया जा सकता है. जो धर्मस्थल बन चुके हैं, उन को वैसे ही रहने दिया जाए. पर नए बनाने या न बनाने के बारे में सरकार को एक बार जरूर सोचना चाहिए.

अर्थशास्त्र का एक नियम यह भी है कि ‘इस दुनिया में आबादी तो बढ़ेगी, पर जमीन उतनी ही रहेगी’. अब वे धर्मस्थल तो जहां बन गए वहां बन गए, चूंकि धर्मस्थलों से हर एक की आस्था जुड़ी होती है, इसलिए उन को किसी भी तरह से छेड़ना सिर्फ  झगड़े को ही जन्म देगा.

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आज हमारे देश की सब से बड़ी जरूरत है चिकित्सा और भूखे को भरपेट भोजन. हमारे देश में बहुत गरीबी है, पर भव्य धर्मस्थलों को बनाने के लिए बहुत सा पैसा इकट्ठा हो जाता है, शायद किसी गरीब की लड़की की शादी के लिए कोई भी पैसा न दे, पर धर्मस्थल बनाने के लिए हर कोई बढ़चढ़ कर सहयोग करता है.

नेता ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवा कर जनता के एक बड़े तबके को आकर्षित करने में तो कामयाब हो जाते हैं और अपना वोट बैंक पक्का कर लेते हैं, पर आम जनता को इस से कोई फायदा नहीं होता है.

हां, धर्मस्थलों के बनने से एक फायदा तो जरूर होता है और वह यह कि मुल्ला, पुजारियों और पादरी को नौकरी का सहारा जरूर मिल जाता है. सब से ज्यादा चंदा देने वाले सेठ की तख्ती भी लगा दी जाती है. सेठ का पैसा भी काम आ जाता है और उस की पब्लिसिटी भी हो जाती है.

आज समाज में बहुत सी ऐसी भयावह समस्याएं हैं, जिन के लिए गंभीरता से कोशिश करनी होगी, जैसे कैंसर की बीमारी तेजी से फैल रही है. हमें कैंसर की रोकथाम के लिए बेहतर से बेहतर अस्पताल चाहिए, ज्यादा से ज्यादा डाक्टर चाहिए.

इसी तरह अच्छे और सस्ते स्कूलों की कमी है. ऐसे अनाथालयों की भी बेहद कमी है, जो बिना किसी फायदे के अनाथों की सेवा कर सकें. ज्यादा धार्मिक स्थल अपने साथ ज्यादा पाखंड लाते हैं. इन पाखंडों और अंधविश्वासों से बचने का तरीका है कि इन की तादाद सीमित की जाए.

देश में उद्योगों को लगाने के लिए जमीन नहीं मिलती. लोग अपने घरों में कारखाने लगाते हैं और उन पर छापामारी होती रहती है. खुदरा बिक्री करने वालों को दुकानें नहीं मिलतीं और वे पटरियों, सड़कों, खुले मैदानों, बागों, यहां तक कि नालों पर दुकानें लगाते हैं, जहां सरकारी आदमी वसूली करने आते हैं, पर मंदिरों को हर थोड़ी दूर पर जगह मिल रही है.

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मंदिरों में नौकरियां पंडों को मिलती हैं या फूलप्रसाद वगैरह बेचने वालों को. कारखानों और दुकानों में सैकड़ों को नौकरियां मिल सकती हैं, पर उन के लिए पैसों की कमी है.

भारत में जिस तरह से आज धार्मिक नफरत फैल रही है, उस पर लगाम लगाने का भी यह एक अच्छा तरीका है, क्योंकि धार्मिक स्थल जितने कम होंगे, आपसी  झगड़े उतने ही कम होंगे.

ऐसे मुद्दे पर निदा फाजली का एक शेर याद आता है:

घर से मसजिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

रेप की बढ़ती घटनाएं और धर्म में उलझे लोग

बिहार के भोजपुर इलाके के संदेश थाना क्षेत्र में इनसानियत को शर्मसार करने वाली एक घटना घटी. 65 साल के एक बुजुर्ग ने 7 साला बच्ची के साथ मंदिर में रेप किया. एक नौजवान ने उस का वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया. वह बुजुर्ग घर के ओसारे में खेल रही बच्ची को टौफी का लालच दे कर मंदिर के एक कमरे में ले गया और उस के साथ रेप किया.

संदेश के थाना प्रभारी सुदेह कुमार के मुताबिक, आरोपी और वीडियो बनाने वाले को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इधर हाल के दिनों में रेप की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ी हैं. सजा और कानून की बातें अपनी जगह पर हैं और इस तरह की घटनाएं अपनी जगह पर. मंदिर में तो लोग मन्नत मानते हैं, तरहतरह की उम्मीद रखते हैं और जब इन मंदिरों में देवीदेवताओं के सामने किसी बच्ची के साथ इस तरह का कुकर्म हो और ये कुछ नहीं कर पाएं तो इन पर यकीन करने वाले लोगों पर भी सवालिया निशान लग जाता है.

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आज तो धर्म का खूब महिमा मंडन किया जा रहा है और गांवगांव में मंदिर बनाने, अखंड कीर्तन, यज्ञ, हवन और तरहतरह के पूजापाठ में लोग लीन हैं और इस तरह की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है. हम किस तरह का समाज और देश बनाना चाहते हैं, इस पर भी इस देश के नागरिकों को सोचने और सम झने की जरूरत है. कौन करते हैं रेप 94 फीसदी रेप सगेसंबंधी, रिश्तेदार, पारिवारिक दोस्त और पड़ोसी द्वारा किए जाते हैं. ऐसी लिस्ट में पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बल के वे लोग भी शामिल हैं, जिन के ऊपर सुरक्षा की गारंटी है. 3 सांसदों और 48 विधायकों ने कबूल किया है कि उन के ऊपर औरतों के साथ हिंसा करने के आरोप हैं, जिस में रेप भी शामिल है.

इतना ही नहीं, बलात्कारियों का दूसरे समुदाय, जाति, धर्म के नाम पर बदले की भावना से दलित और अल्पसंख्यक औरतों के साथ सामूहिक रेप की भी घटनाएं घटती रहती हैं. इस तरह के हालात पैदा हो गए हैं कि घर और घर के बाहर कहीं भी लड़कियां और औरतें महफूज नहीं हैं. दुधमुंही बच्ची से ले कर 80 साल की औरतें तक रेप की शिकार हो रही हैं. झारखंड राज्य साइंस फौर सोसाइटी के राज्य सचिव देवनंदन शर्मा आनंद ने रेप की घटनाओं पर कहा कि देश के नागरिकों में वैज्ञानिक सोच और नजरिया पैदा करने का टारगेट संविधान के पन्नों में ही सिमट कर रह गया और समाज की हालत लगातार बदतर होती चली गई.

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धर्म के धंधेबाजों ने लोगों में मौजूद डर व असुरक्षा का फायदा उठाते हुए आस्था व विश्वास की भावनाओं का जम कर दोहन किया. नतीजतन, आज बाबा के आश्रमों समेत मंदिरों और मदरसों से रेप की खबरें सामने आ रही हैं. देश में स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी, तकनीकी शिक्षण संस्थान, कलकारखाने व अस्पताल की भले ही कमी हो, पर रोज नए मंदिरों, धार्मिक स्थलों के बनने में कहीं कोई कमी नहीं है. राजनीतिक व चुनावी फायदे के लिए नेता इसे संरक्षण देते हैं. इस से जमीन के कब्जे व कमाई का रास्ता खुल जाता है.

इस के अलावा अंधभक्त बाबा की कृपा, लोकपरलोक सुधारने, पुण्य हासिल कर के स्वर्ग तक पहुंचने का रास्ता तय करने के लिए घर की बहूबेटियों को आश्रम पहुंचाने में कोई संकोच नहीं करते. मंदिरों को दान में भारी चढ़ावा देते हैं. नतीजतन, लोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, बदहाली, बेरोजगारी की पीड़ा झेलने को मजबूर हैं, पर मंदिरों, धार्मिक स्थलों का फायदा मुट्ठीभर लोग ही उठाते हैं. हालत यह है कि उपग्रहों के प्रक्षेपण व ऐसे ही तकनीकी मामलों में भी धार्मिक कर्मकांड कर ऊपर वाले की कृपा की व्यवस्था कर ली जाती है.

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आधुनिक ज्ञानविज्ञान के विकास के बावजूद धर्म के धंधेबाजों की अंधेरगर्दी जारी है. लुटेरी ताकतों, नेताओं की मदद और संरक्षण उन्हें हासिल होता है. इन्हीं नेताओं, अफसरों पर देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी है, पर मौजूदा हालात देश को कहां ले जाएंगे, इसे सम झना मुश्किल नहीं है. द्य सुलग रहा है तनबदन जो छोड़ा था राह में निभाने के लिए आ, मु झ को मेरी खामियां बताने के लिए आ. थोड़ाबहुत जो प्यार था मेरे लिए दिल में, गर थी जरा नफरत तो जताने के लिए आ. अब घुट रहा है दम मेरा चैन ओ सुकून से, देने खुराक ए गम तू सताने के लिए आ. सुलग रहा है तनबदन तनहाई की तपिश में, बस मिल के फिर से भूल जाने के लिए आ. थोड़ाबहुत लिहाज कर उलफत का मेरी तू, इक बार अपना चेहरा दिखाने के लिए आ. -पुखराज सोलंकी

पर्यावरण पर भारी धर्म की दुकानदारी

पास जा कर देखने पर महसूस हुआ कि उस पीपल के पेड़ के तने पर सैकड़ों की तादाद में बड़ीबड़ी कीलें ठुकी हुई थीं. जाहिर था कि हर बार किसी की मौत होने पर नई कील ठोंकी जा रही थी और परंपरा के नाम पर पीपल के तने को छलनी किया जा रहा था.

मैं ने जब वहां मौजूद कुछ बुजुर्गों से इस बारे में जानने की कोशिश की तो उन में से किसी के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था.

80 साल के एक गांव के संबंधी ने बताया कि पंडितजी बताते हैं कि किसी के मरने के बाद उस की आत्मा पीपल के पेड़ में निवास करती है, इसलिए इन अस्थियों को पेड़ पर लटकाया जाता है.

दरअसल, इस तरह की परंपराओं का पालन कराने में हर धर्म व संप्रदाय के वे दुकानदार जिम्मेदार हैं, जिन की दुकानदारी इन से चलती है. पीपल और बरगद के पेड़ पर भूतप्रेत का निवास बताने वाले पंडेपुजारी वट सावित्री अमावस्या पर औरतों से इन्हीं पेड़ों की पूजा कराने की कह कर दानदक्षिणा बटोर कर अपनी जेब भरते नजर आते हैं.

समाज में ठीक न होने वाली बड़ी बीमारियों की तरह फैले इन रीतिरिवाजों को कराने से धर्मगुरुओं की रोजीरोटी चलती है. लोगों को कर्म करने का ज्ञान देने वाले तथाकथित उपदेशक खुद ही गद्दी पर बैठ कर बिना कर्म किए मलाई खाते हैं.

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इस तरह के तमाम उपदेशक और पंडेपुजारी अब दलितों और पिछड़ों में अमरबेल की तरह पनप रहे हैं. इन का काम लोगों को धर्म का डर दिखा कर जनता से पैसा ऐंठना रह गया है.

अंधविश्वास की जड़ें इनसानों से निकल कर अब पेड़पौधों को बरबाद करने तक पहुंच चुकी हैं. ‘पेड़ लगाओ जीवन बचाओ’ के नारे को अंधविश्वास ने  झूठा साबित कर दिया है. कुछ ढोंगी ओ झा व भगत पेड़ के दुश्मन बन गए हैं.

हैरानी की बात तो यह है कि पढ़ेलिखे लोग भी पेड़ों को बचाने के बजाय काटने पर तुले हैं. पेड़ों को ले  कर समाज में आज भी कई तरह की गलतफहमियां फैली हुई हैं. दरवाजे पर अशोक के पेड़ लगाना अपशकुन माना जाता है, पीपल का पेड़ अगर दरवाजे पर है तो सम िझए, आप के दरवाजे पर भूत का साया है.

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के किसान रामनारायण सिंह ने एक पंडित के कहने पर अपने घर के सामने लगे नारियल के पेड़ को कटवा दिया, क्योंकि पंडित के मुताबिक इस से उन के वंश पर बुरा असर पड़ रहा था.

रामनारायण सिंह के कोई औलाद न होने के चलते पंडित ने उन्हें बताया था कि जिस घर में नारियल के पेड़ होते हैं, वहां वंश की बेल रुक जाती है.

ऐसे ही तथाकथित पंडेपुजारी के  झांसे में आ कर एक शिक्षक ने अपने घर के पिछवाड़े में लगा कटहल का हराभरा पेड़ कटवा दिया, जबकि गुरुजी पास के एक स्कूल में बच्चों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाते हैं.

गांव वालों में भी यह गलतफहमी फैली हुई है कि दरवाजे पर नारियल, नीम, कटहल, गूलर, बरगद, पीपल का पेड़ नहीं लगाना चाहिए. इस से घर पर बुरा साया पड़ जाता है और परिवार को हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, लेकिन उस के पास इसे साबित करने का कोई सुबूत नहीं है.

पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे डाक्टरी पेशे से जुड़े नीरज श्रीवास्तव इस बारे में कहते हैं कि पेड़पौधे कहीं से भी नुकसानदायक नहीं हैं. पर्यावरण

और मानव जाति के लिए तो पौधे हमेशा वरदान साबित हुए हैं. लेकिन कुछ लोग अंधविश्वास के जरीए लोगों के दिमाग को भटका कर पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.

धार्मिक अंधभक्ति

हमारे धर्मग्रंथों और तथाकथित धर्मगुरुओं ने लोगों के मन में पापपुण्य को ले कर ऐसी बातें भर दी हैं कि चाहे जितने पाप करो, पर अगर नदियों में डुबकी लगा कर देवीदेवताओं की पूजा और पंडितों को दान करोगे, तो सीधे स्वर्ग पहुंच जाओगे.

स्वर्ग जाने की कामना में भक्त नदियों के जल को प्रदूषित करने के साथसाथ पेड़पौधों को रौंद कर अपनेआप को धन्य सम झ रहे हैं.

महाशिवरात्रि पर बेलपत्र, शमि यानी सफेद कीकर की पत्तियों, गेहूं की बालें, चने की घेंटी, धतूरा चढ़ा कर हम पुण्य कमाने के चक्कर में टनों चीजें बरबाद तो कर ही रहे हैं, साथ ही पर्व के बाद कचरा बनती यही चीजें नदियों, तालाबों में बहा कर धड़ल्ले से हम पर्यावरण को भी गंदा कर रहे हैं.

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दशहरे पर सोना लूटने के नाम पर शमि के पत्तों की लूटखसोट की जाती है, तो कभी आंवला नवमी पर औरतों द्वारा पूजन के नाम पर उस के तने पर लपेटे जाने वाले धागे से आंवले के पेड़ को नुकसान पहुंचाया जाता है.

धार्मिक कर्मकांड की दुकान सजा बैठे धर्म के स्वयंभू ठेकेदार सवा लाख शिवलिंग बनाने के नाम पर भक्तों से लाखों रुपए का चढ़ावा वसूलते हैं और फिर कार्यक्रम के बाद बड़ेबड़े ट्रकों में भर कर यही चीजें नदियों में छोड़ दी जाती हैं.

खास बात यह है कि बेसिरपैर की धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वास के नाम पर पर्यावरण को भी निशाना बनाया जा रहा है.

अंधविश्वास की जड़ें गांवदेहात के इलाकों के साथसाथ शहरी इलाकों में भी काफी गहराई तक अपना पैर पसारे हुए हैं. यह काम पंडेपुजारियों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है.

धर्म के दुकानदार भक्तों को बताते हैं कि सावन महीने के सोमवार को 1008 बेलपत्र चढ़ाने से भगवान शिव खुश हो जाते हैं और भक्तगण बेल के पेड़ की बड़ीबड़ी डालियों को बेरहमी से काट लाते हैं.

ऐसा नहीं है कि लोग धर्म के प्रति आस्थावान हैं, बल्कि वे धर्म के डर के चलते यह ढोंग करते हैं. आज जहां देश के कई इलाकों में पीने के पानी का संकट है, वहीं दुर्गा उत्सव और गणेशोत्सव के नाम पर ज्यादा तादाद में प्रतिमाएं रखने की होड़ और प्लास्टर औफ पैरिस से बनी मूर्तियों के जल स्रोतों में विसर्जन की परंपरा आज पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी?है.

प्रथाएं और भी हैं

मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड के तमाम गांवदेहातों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है कि लड़केलड़कियों की शादी में मंडप के नीचे आम के पेड़ की लकड़ी से बने खाम यानी मंडप का उपयोग किया जाता है. मान्यता और रीतिरिवाज के अनुसार खाम के चारों ओर फेरे लेने का रिवाज है.

आज गांवदेहात में आम के पेड़ों का कत्लेआम कर के खाम के लिए लकड़ी काटी जाती है. मंडप बनाने के लिए आम और जामुन के पत्तों और डालियों का इस्तेमाल कर के उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता है.

अंधविश्वास के नाम पर पेड़पौधों पर होने वाली यह बर्बरता चिंता की बात है. ऐसी परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत गांव वालों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं है.

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विज्ञान के आविष्कारों ने भले ही जिंदगी के हर क्षेत्र में अपनी दस्तक से तरक्की की इबारत लिख दी हो, पर हम अपने अंदर वैज्ञानिक सोच पैदा करने में नाकाम रहे हैं. धार्मिक कथापुराणों में लिखी गई अप्रमाणिक बातें आज भी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही हैं.

आज भी धार्मिक आस्था के नाम पर देवीदेवताओं को चढ़ाने वाली चीजों का उपयोग न केवल पेड़पौधों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि पर्यावरण के संतुलन को भी प्रभावित कर रहा है. पेड़पौधे हमें छांव, फल, फूल देते हैं, पर हम पेड़ लगाने के बजाय उन का खात्मा करने पर तुले हुए हैं.

विज्ञान भी इस बात को सच साबित कर चुका है कि नीम, बरगद और पीपल वायुमंडल में औक्सिजन देते हैं. नीम का पेड़ कीटाणुनाशक है. जिस दरवाजे पर नीम का पेड़ है, वहां की हवा बिलकुल शुद्ध और जीवाणुमुक्त रहती है. इस से आसपास के लोगों को शुद्ध हवा के साथ संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा भी मिल जाती है.

विज्ञान के इस युग में हम भले ही अंतरिक्ष को मुट्ठी में करने और चांद से ले कर मंगलग्रह तक घर बसाने की सोच रहे हों, लेकिन इस तरक्की के बावजूद हम दिमागी रूप से अब तक तरक्की नहीं कर पाए हैं और अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों का साथ आज भी नहीं छोड़ पा रहे हैं.

अब तो अंधविश्वास के चलते पेड़पौधों और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है. जैसेजैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, वैसेवैसे अंधविश्वास पर हमारा विश्वास और भी मजबूत होता जा रहा है.

उम्मीद की किरण

मध्य प्रदेश की पिछली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गांवगांव में करोड़ों रुपए वृक्षारोपण के नाम पर स्वाहा कर दिए, लेकिन कोई पौधा पेड़ की शक्ल नहीं ले पाया.

तमाम विरोधाभासों व अंधविश्वासों के बावजूद भी समाज में कुछ लोग ऐसे भी मौजूद हैं, जो न केवल अंधविश्वासों को तोड़ रहे हैं, बल्कि पर्यावरण की चिंता कर पेड़ लगाने का काम कर रहे हैं.

नरसिंहपुर जिले की गाडरवारा तहसील की ‘कदम’ संस्था ने पिछले 15 सालों में हजारों पौधों को पेड़ बना कर खड़ा कर दिया है. जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगांठ वगैरह अवसरों पर उत्सव मना कर ये पेड़ लगाए जा रहे हैं.

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इसी तरह साईंखेड़ा कसबे की ‘कल्पतरू’ संस्था ने पिछले 2 साल में 1,000 से ज्यादा पेड़ लगा कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में लोगों को जागरूक करने का काम किया है. सालीचैका रेलवे स्टेशन की ‘वृक्षमित्र’ संस्था भी प्रकृति को हरियाली की चुनरी ओढ़ाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रही है. मौजूदा समय में इस तरह की कोशिशों की ही जरूरत है, जो धर्म की दुकानदारी को खत्म कर लोगों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत कर सकें.

अंधविश्वास: भक्ति या हुड़दंग

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

11 नवंबर, 2019 को लखनऊ से तकरीबन 110 किलोमीटर दूर सीतापुर रोड पर सीतापुर जिले के हरगांव नामक कसबे में एक वाकिआ देखने को मिला. यह मौका था कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन पहले ‘दीपदान महोत्सव’ का, जो वहां के सूर्य कुंड तीर्थ में दीप जला कर मनाया जाता है.

आसपास के गांवों से सैकड़ों की तादाद में लोग वहां पहुंचे हुए थे और दीपदान कर रहे थे. वहीं पर शिव के मंदिर के ही पास एक मंच भी बनाया गया था. यहां तक तो सब अच्छा लग रहा था, पर हद तो तब हो गई, जब 2-3 किशोर लड़के राधाकृष्ण के वेश में आए और एक लड़का मोर के पंख लगा कर आ गया. वह लड़का एक अलग अंदाज में अपने पंखों को फैला रहा था और सब लोग उस के साथ सैल्फी लेने के लिए टूट पड़ रहे थे.

राधाकृष्ण और मोर बने लड़के मंच पर पहुंच गए और नाचना शुरू कर दिया. जनता तो जैसे इसी के लिए इंतजार में ही थी. तमाम नौजवान उन के वीडियो बनाते रहे, क्योंकि लोगों को उस समय धर्म से मतलब न हो कर उन लड़कों के नाच में ज्यादा मजा आ रहा था. जनता खुश हो कर पैसे लुटा रही थी और इस का मजा वहां की आयोजक समिति के लोग, जो मंदिर के पंडे ही थे, उठा रहे थे, जबकि इस पैसे का एक बड़ा हिस्सा इन लोक कलाकारों और नर्तकों को दिया जाना चाहिए था, पर ऐसा होता नहीं दिखा, पैसे पर तो हक पंडे-पुजारियों का ही होता दिख रहा था. नतीजतन, लोगों के लिए वह एक डांस पार्टी जैसा कार्यक्रम हो गया था.

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उन्हीं लोगों में एक लड़का शिव के रूप में भी वहां पर आया था. अपने रौद्र रूप के चलते वह भी लोगों के कौतूहल और सैल्फी का केंद्र नजर आ रहा था और उस ने भी नाचनागाना शुरू किया. लोगों ने आस्था के नाम पर पैसे भी चढ़ाए.

माइक पर बोलता आदमी इस डांस को झांकी बोल रहा था, पर इस नाच में कलाकारों का अच्छा मेकअप था, उन के कपड़े अच्छे थे, उन की अच्छी भाव-भंगिमा थी, पर धार्मिकता कहीं नहीं थी. शायद सारी जनता इसे बस इस मनोरंजन का साधन मान कर देख रही थी और जी भर कर पैसा लुटा रही थी.

इस दीपदान नामक महोत्सव में ही थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने का खेल चल रहा था, जिस में एक लड़का अपनी जान की बाजी लगा कर अपनी रोजीरोटी जुटाने की कोशिश कर रहा था.

कितना फर्क था एक ही जगह के 2 कार्यक्रमों और उन के पैसे कमाने के तरीके में.

इसी तरह का नजारा कांवड़ यात्रा में देखने को मिलता है. कुछ समय पहले सच्चे कांवड़ श्रद्धालु चुपचाप कांवड़ ले कर चलते जाते थे, फिर धीरेधीरे वे अपने साथ डीजे वगैरह ले जाने लगे और फिर इस तरह की झांकियां आने लगीं. झांकी वाले ये लड़के पूरे रास्ते डांस करते हुए जाते हैं. इन में न कोई श्रद्धा होती है और न ही कोई भक्ति, बल्कि जो हरकतें कांवडि़ए करते हैं, वे नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं लगती हैं. पर धार्मिक लोगों को धर्म और आस्था से बढ़ कर तो इन लोगों के डांस में मजा आता है और जितना ज्यादा मजा, उतना ज्यादा चढ़ावा. जितना ज्यादा चढ़ावा आता है, अगले साल कांवडि़यों की तादाद में उतना इजाफा होता जाता है. आज की कांवड़ यात्रा भक्ति कम और हुड़दंग व दिखावा ज्यादा हो गई है.

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हुड़दंगी कांवडि़ए न ही ट्रैफिक की परवाह करते हैं, न ही किसी नियम और कायदेकानून की. कांवड़ के बहाने उन के अंदर जो हिंसा छिपी होती है, वह इस दौरान खूब बाहर आती है. हालांकि, इन में बड़ी उम्र के कुछ सुलझे हुए कांवडि़ए भी होते हैं, जो इन को काबू में करने की कोशिश करते हैं, पर वे नाकाम ही रहते हैं.

आम जनता को लूटने का यह दोतरफा तरीका है. एक तो उसे कामधाम से हटा कर धर्म में लगाया कि उस की आमदनी कम हो जाए. दूसरा यह कि उस की जेब में जो भी रुपएपैसे हैं, वे नाचगाने, सैरसपाटे, चाटपकौड़ी और भगवान की भक्ति के नाम पर लूट लेना. इस माहौल में गरीबी कैसे  दूर होगी और नगर पार्षद व पंच से ले कर प्रधानमंत्री व अदालतें तक इसी का गुणगान कर रही हैं.

जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

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भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है. असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला.

मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.

तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है. यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.

जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे. यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.

लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.

यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं. पिछले 100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

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सतर्क रहना युवती का पहला काम

शराब बलात्कारों का दरवाजा खोलती है, क्योंकि शराब के नशे में न तो लड़कियों को सुध रहती है कि उन के साथ क्या हो रहा है न बलात्कारियों को. देशी एयरलाइनों में काम करने वाली एअरहोस्टेसें अपनेआप में खासी मजबूत होती हैं और यात्रियों से डील करतेकरते उन्हें दिलफेंक लोगों को झिड़कना आता है. उन की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वे छुईमुई नहीं होतीं और उन के मसल्स मजबूत होते हैं.

ऐसे में कोई एअरहोस्टेस पुलिस में शिकायत करे कि उस के साथ बलात्कार हुआ तो यह काफी जोरजबरदस्ती और शराब के साथ नशीली दवा के कारण ही हुआ होगा. हैदराबाद में रहने वाली इस युवती की शिकायत है कि वह कुछ ड्रिंक्स लेने अपने सहयोगी के साथ गई थी और फिर उस के साथ उस के घर चली गई. वहां सहयोगी और 2 अन्य ने उसे बेहोश कर के उस के साथ बलात्कार किया.

इस दौरान उस का मंगेतर और पिता लगातार फोन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे और जब सुबह उस के होश आने पर उस ने फोन उठाया और पिता व मंगेतर से बात की तो पुलिस कंप्लेंट फाइल की.

बलात्कार के बारे में अकसर यह कह दिया जाता है कि उस में लड़की की सहमति होगी जो बाद में मुकर गई पर इस पर प्रतिप्रश्न यही है कि यदि उस ने पहले सहमति से अपने सुख के लिए संबंध बनाया तो वह आगे भी संबंध बनाएगी न कि शिकायतें करेगी. वह शिकायत तो तभी करेगी जब उस से जबरदस्ती करी जाए.

यह कुछ ऐसा ही है कि यदि दोनों में से एक दोस्त दूसरे की लंबे दिनों तक आर्थिक सहायता करता रहे पर एक दिन जब वह मना कर दे तो क्या सहायता मांगने वाले के पास देने वाले का पर्स चोरी करने का अधिकार है? हां, शराब के नशे में दोस्त दोस्त का पर्स साफ कर जाए तो संभव है पर यह भी अपराध ही है. पैसे का अपराध छोटा है, शारीरिक अपराध बड़ा है. एक घूंसा मारने पर लोग बदले में दूसरे पर गोली तक चला देते हैं. यह अपने अधिकारों का इस्तेमाल है.

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अपने बारे में सतर्क रहना हर युवती का पहला काम है. यदि उसे किसी से सैक्स संबंध बनाने पर एतराज नहीं है तो उसे खुली छूट है कि वह रात उस के घर जाए, उस के साथ नशा करे. पर यदि किसी कारण उसे किसी युवक दोस्त के साथ रहना पड़े तो शराब का रिस्क तो वह ले ही नहीं सकती. अपनी सुरक्षा पहले अपने हाथ में है. छुईमुई न बनें, पर बेमतलब रिस्क भी न लें. रात अंधेरे में आदमी भी जेब में पर्स और मोबाइल लिए चलने में घबराते हैं, यह न भूलें.

धर्म के नाम पर चंदे का धंधा

धार्मिक कहानियां हमेशा ही लोगों को कामचोर और भाग्यवादी बनाने की सीख देती हैं. सभी धर्मों की कहानियों में यह बताया जाता है कि अमुक देवीदेवता को पूजने या पैगंबर की इबादत करने से दुनिया की सारी दौलत पाई जा सकती है.

इन कहानियों का असर युवा पीढ़ी यानी नौजवानों पर सब से ज्यादा पड़ता है. यही वजह है कि हमारे देश के नौजवान कोई कामधंधा करने के बजाय गणेशोत्सव, होली, दुर्गा पूजा, राम नवमी, मोहर्रम, क्रिसमस वगैरह त्योहारों पर जीजान लुटा देते हैं. ऐसे नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को ही रोजगार मानने लगते हैं.

चंदा वसूली के इस धंधे में धर्म के ठेकेदारों का खास रोल रहता है और चंदे के धंधे के फलनेफूलने में नौजवान खादपानी देने का काम करते हैं. तथाकथित पंडेपुजारियों द्वारा दी गई जानकारी की बदौलत धार्मिक उन्माद में ये नौजवान अपना होश खो बैठते हैं.

धर्म के नाम पर चंदा वसूली के इस खेल में दबंगई भी दिखाई जाने लगी है. स्कूलकालेज के पढ़ने वाले छात्रों की टोली इस में अहम रोल निभाती है.

जनवरी, 2018 में जमशेदपुर के साकची के ग्रेजुएट कालेज में सरस्वती पूजा के नाम पर छात्र संगठन के लोगों ने चंदा न देने वाली छात्राओं के साथ मारपीट की थी. सितंबर, 2019 में भुवनेश्वर में गणेश पूजा के दौरान जबरन चंदा वसूली करने वाले 13 असामाजिक और उपद्रवी तत्त्वों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

दरअसल, त्योहारों के मौसम में चंदा वसूलने का धंधा खूब फलताफूलता है. हाटबाजारों की दुकानों, निजी संस्थानों और सरकारी दफ्तरों में भी इन की चंदा वसूली बेरोकटोक चलती रहती है.

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होली, गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा के दौरान तो ये असामाजिक तत्त्व खुलेआम सड़क पर बैरियर लगा कर आनेजाने वाली गाडि़यों को रोक कर चंदा वसूली करते हैं. चंदा न देने पर गाडि़यों की हवा निकालने के साथ वाहन मालिकों के साथ गलत बरताव किया जाता है.

धर्म के नाम पर इकट्ठा किए गए चंदे के खर्च और उस के बंटवारे को ले कर कई बार ये नौजवान आपस में ही उल झ कर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं.

10 अक्तूबर, 2019 को मध्य प्रदेश की गाडरवाला तहसील के गांव पिठवानी की घटना इस बात का जीताजागता सुबूत है. गांव में दुर्गा पूजा पर हर घर से चंदा इकट्ठा किया गया और दशहरे के बाद हुई मीटिंग में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर नौजवानों में  झगड़ा हो गया. देखते ही देखते  झगड़ा इतना बढ़ गया कि 3 नौजवानों ने एक नौजवान को इस कदर पीटा कि उस की मौत हो गई.

धर्म के बहाने पुण्य कमाने वाले वे तीनों नौजवान इस समय जेल की सलाखों के पीछे हैं.

धर्म के नाम पर मौजमस्ती

धार्मिक त्योहारों पर चंदे के दम पर होने वाले बेहूदा डांस, लोकगीत और आरकेस्ट्रा के कार्यक्रमों में नशे का सेवन कर यही नौजवान मौजमस्ती करते हैं.

अनंत चतुर्दशी और दशहरा पर्व पर निकाले जाने वाले चल समारोह और प्रतिमा विसर्जन कार्यक्रमों में धर्म की दुहाई देने वाले ये नौजवान डीजे के गानों की मस्ती में इस कदर डूबे रहते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता है.

12 सितंबर, 2019 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में  गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए गए नौजवानों में से 13 की मौत की कहानी तो यही बयां करती है. तालाब में डूबने से मौत की नींद सोए सभी लड़के 15 से 30 साल की उम्र के थे. अंधश्रद्धा और अंधभक्ति के रंग में रंगे ये नौजवान रात के 3 बजे 2 नावों पर सवार हो कर प्रतिमा विसर्जन के लिए तालाब के बीच में गए थे.

गणेशोत्सव के नाम पर की गई मस्ती और हुड़दंग में नाव का संतुलन बिगड़ गया और पुण्य कमाने गए लड़के अपनी जान से हाथ धो बैठे.

कुछ इसी तरह का एक और वाकिआ राजस्थान के धौलपुर में 8 अक्तूबर, 2019 को हुआ था. दशहरे के दिन आयोजकों की टोली के कुछ नौजवान दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के लिए चंबल नदी गए हुए थे. दोपहर 2 बजे नदी की तेज धार में प्रतिमा विसर्जन के बहाने मौजमस्ती कर रहे 2 नौजवान बह गए, जिन्हें बचाने की कोशिश में 8 दूसरे नौजवानों की भी मौत हो गई.

इसी दिन मध्य प्रदेश के देवास के सोनकच्छ थाना क्षेत्र के गांव खजूरिया में भी तालाब में प्रतिमा विसर्जन के दौरान नौजवानों की डूबने से मौत हो गई थी.

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इन घटनाओं में हुई मौतें तो यही साबित करती हैं कि पढ़नेलिखने या कामधंधा खोजने की उम्र में ये नौजवान धार्मिक कट्टरता में पड़ कर अपनी जिंदगी से ही हाथ धो

रहे हैं. देश के पढ़ेलिखे नौजवान कामधंधा न कर के किस कदर धार्मिक आयोजन की बागडोर संभालने में अपना भला सम झ रहे हैं.

दरअसल, देश में बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले कई सालों से नौजवानों को रोजगार के मौके नहीं मिल पा रहे हैं. लाखों की तादाद में नौजवान बेकार घूम रहे हैं. सरकार केवल नौजवानों को रोजगार देने का लौलीपौप दिखा कर उन के वोट बटोर लेती है और फिर नौजवानों को राष्ट्र प्रेम, धारा 370, मंदिरमसजिद, गौहत्या रोकने के मसलों में उल झा देती है.

यही वजह है कि नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को रोजगार मान कर 10-15 दिन मौजमस्ती से काट लेना चाहते हैं.

गांवदेहातों में यज्ञ, हवन, रामकथा, भागवत कथा, प्रवचन देने का चलन इतना बढ़ा है कि वहां हर महीने इस तरह के आयोजन होते रहते हैं. ऐसे आयोजनों में एक हफ्ते में 2 से 5 लाख रुपए का खर्चा आ ही जाता है.

भक्तों को काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहने का संदेश देने वाले ये उपदेशक और कथावाचक लाखों रुपयों के चढ़ावे की रकम और कपड़ेलत्ते ले कर अपना कल्याण करने में लगे रहते हैं.

हालात ये हैं कि गांवों में बच्चों को पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं. लोगों के इलाज की बुनियादी सहूलियतें नहीं हैं. रातदिन खेतों में काम करने वाले किसानमजदूरों की खूनपसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यक्रमों में खर्च हो जाता है.

धर्म के पुजारी पापपुण्य का डर दिखा कर कथा, प्रवचन और भंडारे के नाम से उन का पैसा ऐंठने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

पत्रकार बृजेंद्र सिंह कुशवाहा बताते हैं कि गांवदेहात में आएदिन ढोंगी संतमहात्मा यज्ञ और मंदिर बनाने के नाम पर लोगों से चंदा वसूली करने आते हैं. धर्म की महिमा बता कर चंदे की मोटी रकम लूटने वाले ये पाखंडी बाबा आलीशान गाडि़यों में घूम कर चंदे का कारोबार करते हैं.

कोई भी धर्म आदमी को कर्मवीर बनने की सीख नहीं देता. धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा लिखी गई धार्मिक कहानियों में यही बताया गया है कि देवीदेवताओं की कथापूजन करने से बिना हाथपैर चलाए सभी काम पूरे हो जाते हैं.

पंडेपुजारी, मौलवी और पादरियों ने भी लोगों को इस कदर धर्मांध बना दिया है कि लोग उन की बातों पर आंखें मूंद कर अमल करने में ही अपनी भलाई सम झते हैं, तभी तो लोग धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर चंदा देने में संकोच नहीं करते हैं.

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जनता के चुने गए प्रतिनिधि, जो बड़े पदों पर बैठे हैं, वे धर्म के ठेकेदारों को मौज करने की छूट दिए हुए हैं. हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें भी धार्मिक पाखंड में बराबर की भागीदार हैं. सरकारें भी यही चाहती हैं कि लोग इसी तरह धर्म के मसलों में उल झे रहें. ये धर्म की कहानियां इतनी बार इतने सारे लोगों के मुंह से कही जाती हैं कि ये ही सच लगने लगती हैं.

देश के बड़ेबड़े मठों, मंदिरों वगैरह में रखी गई दानपेटियों से निकली धनराशि और भगवान को चढ़ावे में भेंट किए बेशकीमती धातु के गहने चंदे का गुणगान करते नजर आते हैं. इन नौजवानों को यह बात सम झ में क्यों नहीं आती कि आज तक पूजापाठ कर के न तो किसी को नौकरी मिली है और न ही इस से किसी का पेट भरा है. जिंदगी में कुछ करगुजरने के लिए जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है.

मौजूदा दौर में जरूरत इस बात की है कि धर्म के आडंबरों में पैसा फूंकने के बजाय लोग बच्चों की पढ़ाईलिखाई में पैसा खर्च कर उन्हें इस काबिल बनाएं कि वे आजीविका के लिए नौकरी पा सकें या उन्नत तरीकों से खेतीकिसानी या दूसरे कामधंधे कर पैसों की बचत करना सीखें. धर्म के नाम पर दी गई चंदे की रकम से केवल धर्म के ठेकेदारों का ही भला होता है.

धर्म के दुकानदार तो बहुत हैं, पर कर्म के दुकानदारों का टोटा है. वे यदाकदा ही दिखते हैं, इसीलिए धर्म की जयजयकार होती है.

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जाति और धर्म से बाहर ना निकल सका एम्स

दिल्ली के औल इंडिया इंस्टीट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज ने हाल में डाक्टरों का डाटाबेस बनाने के लिए एक फार्म बंटवाया ताकि डाक्टरों के सही नाम, पते, फोन नंबर आदि जमा करे जा सकें. इस में धर्म और जाति के भी कालम थे और इस पर जम कर हंगामा खड़ा हो गया. प्रशासकीय विभाग ने इन कालमों को डालने का खेद जताया पर जो नुकसान होना था, वह हो चुका था.

सारी शिक्षा, शैक्षणिक जानकारी, तकनीकी ज्ञान के बावजूद देश आज भी धर्म और जाति के इर्दगिर्द घूम रहा है. इस से इंकार नहीं किया जा सकता. धर्म और जाति हमारे सामाजिक के अभिन्न अंग हैं. सदियों पुरानी विभाजक रेखाएं आज भी उतनी ही गहरी हैं और स्कूलों में साथ पढ़ने, दफ्तरों में साथ काम करने वालों में साथ चलने के बावजूद लोग अपने धर्म और जाति को सिर पर कलगी की तरह पहने रहते हैं.

चुनावी मौसम में विश्लेषक सब से बड़ी बात यह नहीं कर रहे कि नरेंद्र मोदी को कौन क्यों वोट देगा बल्कि यह कर रहा है कि कौन सी जाति या धर्म के लोग किसे वोट देंगे. 2014 के चुनावों में अगर कुछ हिंदुओं ने जाति का सवाल भुला कर वोट दिया भी था तो अब यह सवाल फिर से उभर आया है. यह ऐसा फोड़ा है जो मंत्रों और पंडितजी की दवाओं के कारण बारबार उभर आता है.

इस देश में कहीं 20 जने इकट्ठे हो जाएं, वे अपनी जाति के लोगों को ढूंढ़ने लगते हैं और जैसे ही एक जाति के लोग मिलते हैं, अनजान भी रिश्तेदार बन जाते हैं. नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी और जीएसटी ने सारे व्यापारियों को कालाबाजारी, करचोर, बेइमान, समाज का गुनाहगार घोषित कर दिया और लाखों का व्यापार ठप्प कर दिया पर वे जाति एक पार्टी को ही वोट देंगे, ऐसा लगता है. भारतीय जनता पार्टी यदि मायावती, अखिलेश, लालू यादव से ज्यादा राहुल और ममता बनर्जी से डरी हुई है तो इसीलिए उन्हें चुनने में जाति का सवाल नहीं खड़ा होता.

आरक्षण से उम्मीद थी कि निचले तबकों के कुछ लाख लोग ऊंचों के बराबर हो जाएंगे और उन में सामाजिक भेदभाव कम होने लगेगा पर जमीनी हालत वहीं के वहीं हैं. वैवाहिक विज्ञापन चाहे समाचारपत्रों में छपे हों या वैबसाइटों में हों, जाति, गोत्र पूछे बिना आगे नहीं बढ़ते. आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर 90% से ज्यादा विवाह निर्धारित गोत्रों, जाति भी छोडि़ए, के हिसाब से होते होंगे.

ऐसे में प्रशासनिक अफसर जिन्हें हर समय पता रखना होता है कि किस डाक्टर को कब, कहां, क्या देना है. जाति न पूछें, ऐसा कैसे हो सकता है. जाति से देश का समाज हमेशा टुकड़ेटुकड़े रहा है और बेचारा संविधान भी उस से हार माने हुआ है.

औरतों का दुरुपयोग धर्म की देन

जिस तरह से सैक्सुअल हैरेसमेंट के आरोप देशभर में लगाजाने लगे हैं, उस से साफ है कि यहां सारी शिक्षा, सादगी, सतकर्मों के व्याख्यानों, पूजापाठ के ढकोसलों के बावजूद मर्द आज भी मर्द हैं और उन की निगाहों में लड़कियां और औरतें सिर्फ और सिर्फ उन के इशारों पर चलने वाली सैक्सी गुड़ियाएं हैं, और कुछ नहीं.

हर सुंदर, आकर्षक, बोल्ड, सफल युवती के साथ यह चैलेंज रहता है कि वह अपनी सफलता पर गर्व करे या नहीं, क्योंकि चाहेअनचाहे उसे तरहतरह के कंप्रोमाइज करने होते हैं. आज स्थिति यह है कि वह समझ नहीं पाती कि उस का सैक्स पार्टनर उस से वास्तव में प्रेम करता है या सिर्फ अपनी मर्दानगी और ओहदे का उपयोग कर रहा है. जिसे वह प्यार व समर्पण समझती है हो सकता है केवल नकली हो और पुरुष नाना पाटेकर या आलोक नाथ की तरह हो सकता है जो ऐक्टिंग में सहायता देने के बहाने सैक्सुअल टैस्टिंग कर रहा हो.

औरतों ने शरीर की कीमत सदियों से दी है. धर्म का पूरा ढांचा ही औरतों की टांगों के बीच पर टिका है और यह केवल हिंदू धर्म में ही नहीं है, लगभग हर धर्म में है कि औरतों को सैक्स गुलाम बनाने के कुछ स्पष्ट तो कुछ अस्पष्ट नियमकानून व रिवाज बनाए गए हैं.

हर धर्म कौमार्य के गुणगान गाता है पर पुरुष के नहीं केवल स्त्री के. विधवा विवाह ज्यादातर धर्मों में हिकारत से देखा जाता है. हिंदू धर्म तो इजाजत ही नहीं देता, इसलाम और क्रिश्चियनिटी में भी आसान नहीं रहा है. पुरुष को कभी भी अनब्याहियों की कमी नहीं रही है.

जो औरतें घर से बाहर निकल कर पिता, पति या खुद के कारणों से किसी तरह सफल हो पाई हैं उन्हें भी हर तरह की आफत सहनी पड़ी है और कई बार तो खुद उन के बेटों ने ही उन का दुरुपयोग किया है. पुरुष अपनी मरजी से किसी को भी जब चाहे छू ले, उठा ले, बिस्तर पर ले जाए पर बदनाम औरत होगी, पुरुष नहीं. औरतों के लिए तनुश्री दत्ता और कंगना राणावत की तरह शिकायत करना भी कठिन रहा है.

यह सामाजिक ढांचा कानून की देन नहीं है, धर्म की देन है. कठिनाई यह है कि जो ‘मीटू’ आंदोलन दुनियाभर में चल रहा है इस में भी धर्म को छूने की हिम्मत नहीं हो रही. मीडिया ट्रायल ही औरतों का अकेला अधिकार बना हुआ है और उसी के बल पर अदालतों का कुछ साथ मिल रहा है.

वास्तव में इन नियमों को लागू करने में धर्म का ही हाथ है और उसे औरतें छूने तक की हिम्मत नहीं कर पा रहीं. यह ‘मीटू’ आंदोलन फुस्स पटाखा साबित होगा पक्का है.

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