Hindi Story: आईना – सुरुचि सुकेश से क्यों नाराज थी

Hindi Story: मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो ?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है. Hindi Story

Hindi Family Story: आज मैं रिटायर हो रही हूं

Hindi Family Story: कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: पुरवई – मनोहर की कौन सी बात लोगों को चुभ गई

Family Story In Hindi: ‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसीक्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है. Family Story In Hindi

Story In Hindi: बाढ़ – क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

Story In Hindi: बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी. Story In Hindi

Story In Hindi: गलीचा – रमेश की तीखी आलोचना करने वाली नगीना को क्या मिला जवाब

Story In Hindi: संगीता और नगीना का परिचय एक यात्रा के दौरान हुआ था. उस से पहले वे कभी नहीं मिली थीं. एक ही दफ्तर में काम करने के कारण उन दोनों के पति ही एकदूसरे के घर आतेजाते थे. इसीलिए वे दोनों एकदूसरे की पत्नियों से भी परिचित हो गए थे, लेकिन दोनों की पत्नियों का मिलन पहली बार इस यात्रा में ही हुआ था.

हुआ यों कि संगीता के पति दीपक ने दफ्तर से 15 दिन की छुट्टी ली. दीपक के साथ काम करने वालों ने सहज ही पूछलिया, ‘‘क्या बात है, दीपक, इतनी लंबी छुट्टी ले कर कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’’

दीपक ने सचाई बता दी, ‘‘हां, हमारा विचार राजस्थान के कुछ ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा करने का है. पत्नी कई दिनों से घूमनेके लिए चलने का आग्रह कर रही थी, इसीलिए मैं ने इस बार 15 दिन की यात्रा का कार्यक्रम बना डाला.’’

सभी ने दीपक के इस निश्चय की सराहना करते हुए कहा, ‘‘हो आओ. घूमनेफिरने से ताजगी आती है. आदमी को साल दो साल में घर से निकलना ही चाहिए. इस से मन की उदासी दूर हो जाती है.’’

तभी नगीना के पति रमेश ने दीपक से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे साथ और कोई भी जा रहा है?’’

‘‘नहीं, बस, श्रीमतीजी और मैं ही जा रहे हैं. बच्चे भी साथ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि इस से उन की पढ़ाई में हर्ज होगा. वे अपने दादादादी के पास रहेंगे.’’

‘‘यह तो तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया.’’

‘‘हां, मगर उन के बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के साथ रहने से मन लगा रहता है.’’

‘‘भई, मेरी पत्नी भी कहीं चलने के लिए जोर डाल रही है, पर सोचता हूं…’’

‘‘इस में सोचने की क्या बात है? अगर राजस्थान में घूमने की इच्छा हो तो हमारे साथ चलो.’’

‘‘तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’

‘‘हमें क्या असुविधा होगी, भई, हनीमून मनाने थोड़े ही जा रहे हैं.’’

दफ्तर के सभी लोग ठठा कर हंस पड़े. सभी ने रमेश से आग्रह किया, ‘‘जाओ,भई, ऐसा मौका मत छोड़ो. सफर में एक से दो भले. पर्यटन में अपनों का साथ होना बहुत अच्छा रहता है.’’

रमेश को यह सलाह जंच गई. उस ने उसी समय छुट्टी की अरजी दे डाली. बड़े बाबू ने अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए उस की छुट्टी की भी स्वीकृति दे दी. इसीलिए दोनों दंपतियों का साथ हो गया.

रेलवे स्टेशन पर दोनों जोड़ों का जब मिलन हुआ तो संगीता ने नगीना से कहा, ‘‘देखिए, एक ही शहर में रहते हुए भी हम अभी तक नहीं मिल पाईं?’’

नगीना ने मोहक मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘अब हम लोग खूब मिला करेंगी, पिछली सारी कसर पूरी कर लेंगी.’’

इस यात्रा में संगीता औैर नगीना का बराबर साथ रहा. रेल और मोटर में तो उन का साथ रहता ही था. वे लोग जहां ठहरते थे, वहां भी कमरे पासपास ही होते थे. एक बार तो एक ही कमरे में दोनों जोड़ों को रात बितानी पड़ी. लिहाजा, इस सफर में नगीना और संगीता को एकदूसरे को देखनेसमझने के खूब मौके मिले.

इस अवधि में संगीता ने यह जाना कि रमेश पत्नी का खूब खयाल रखता है. वह दिनरात उस की सुखसुविधा के लिए चिंतित रहता है. वह नगीना की पसंद की चीजें नजर आते ही ले आता है. आग्रह करकर के खिलातापिलाता. पत्नी को जरा सा उदास देखते ही वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता, ‘‘क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द तो नहीं हो रहा है? क्या हाथपैर ही दर्द कर रहे हैं?’’

नगीना के मुंह से अगर कभी यह निकल जाता कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है तो रमेश भागदौड़ मचा देता. पत्नी के सिर पर कभी बाम मलता तो कभी हाथपैर ही दबाने लगता. जरूरत होती तो डाक्टर को भी बुला लाता.

नगीना मना करती रह जाती, ‘‘घबराने की कोईर् बात नहीं. साधारण बुखार है.’’

मगर रमेश घबरा जाता. नगीना जब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती थी, तब तक वह बेहद परेशान रहता. जब नगीना हंसहंस कर बातें करने लगती तब कहीं उस की जान में जान आती.

पत्नी को यों खिलीखिली सी रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता.सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस अवधि में वह अपनी पत्नी पर न तो कभी झल्लाता, न ही नाराज होता. कई बार नगीना ने उस की इच्छा के खिलाफ भी काम किया. फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा.

रमेश के इस व्यवहार से संगीता बड़ी प्रभावित हुई. उसे नगीना से ईर्ष्या होने लगी. वह मन ही मन अपने पति दीपक और रमेश में तुलना करने लगती.

जिन बातों की ओर संगीता का पहले कभी ध्यान नहीं जाता था उस ओर भी उस का ध्यान जाने लगा था. एक टीस सी उस के मन में उठने लगी थी, ‘एक मेरा पति है और एक नगीना का. दोनों में कितना अंतरहै. दीपक तो मेरा कभी खयाल ही नहीं रखता. 15 वर्ष से अधिक अवधि बीत गई हमारे विवाह को, फिर भी कोई जानकारी ही नहीं है.

‘दीपक तो बस अपनेआप में ही डूबा रहता है. हां, कुछ कह दूं तो भले ही ध्यान दे दे. मगर मेरे मन की बात जानने की उसे स्वयं कभी इच्छा ही नहीं होती. मन की बात छिपाना ही उसे नहीं आता. जो मन में आता है, वह फौरन जीभ पर ले आता है. उस का चेहरा ही बहुत कुछ कह देता है. कठोर से कठोर बात भी उस के मुंह से निकल जाती है. ऐसे क्षणों में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहताकि किसी को बुरा लगेगा या भला? वह तो बस अपने मन की बात कह के हलके हो जाते हैं. कोई मरे या जिए उस की बला से.

‘दीपक की सेवा करकर के भले ही कोई मर जाए, फिर भी प्रशंसा के दो बोल उस के मुंह से शायद ही निकलते हैं. बीमारी तक में उसे खयाल नहीं रहता कि मेरी कुछ मदद कर दे. जाने किस दुनिया में रहता है वह. उस के जीवन से कोई और भी जुड़ा हुआ है, इस का उसे ध्यान ही नहीं रहता. पत्नी का उसके लिए जैसे कोई महत्त्व ही नहीं है. न जाने किस मिट्टी का बना है वह. अच्छा बनेगा तो इतना अच्छा कि उस से अच्छा कोई और हो ही न शायद. बुरा बनेगा तो इतना बुरा कि वैरी से भी बढ़ कर. सचमुच बहुत ही विचित्र प्राणी है दीपक.’

संगीता के मन के ये उद्गार एक दिन नगीना के सामने प्रकट हो गए. उस दिन दोनों के पति यात्रा से वापस लौटने के लिए आरक्षण कराने गए थे. वे दोनों बैठी इधर- उधर की बातें कर रही थीं. तभी नगीना ने अपने पति की आलोचना शुरू कर दी. बच्चों के लिए खरीदे गए कपड़ों को ले कर पतिपत्नी में शायद खटक चुकी थी.

संगीता कुछ देर तक तो सुनती रही, किंतु जब नगीना रमेश के व्यवहार की तीखी आलोचना करने लगी तो वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं, तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं लगते. इन 12-13 दिनों में मैं ने जो कुछ देखा है, उस के आधार पर तो मैं यही कह सकती हूं कि तुम्हें अच्छा पति मिला है. वह तुम्हारा बड़ा खयाल रखते हैं. तुम्हारी सुखसुविधा के लिए वह हमेशा चिंतित रहते हैं. आश्चर्य है कि तुम ऐसे आदर्श पति की बुराई कर रही हो.’’

नगीना ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, ‘‘काश, वह आदर्श पति होते?’’

संगीता ने साश्चर्य पूछा, ‘‘फिर आदर्श पति कैसा होता है?’’

नगीना ने बड़े दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘संगीता, तुम मेरे पति को सतही तौर पर ही जान पाई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो. हकीकत में वह ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर कैसे हैं?’’

‘‘जैसे दिखते हैं वैसे नहीं हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

नगीना ने फर्श पर बिछे गलीचे की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘वह इस गलीचे की तरह हैं.’’

संगीता का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाई?’’

फर्श पर बिछे हुए गलीचे के एक कोने को थोड़ा सा उठाती हुई नगीना बोली, ‘‘संगीता, गलीचे के नीचे छिपी हुई यह धूल, यह गंदगी, किसी को नजर नहीं आती. लोगों को तो बस यह खूबसूरत गलीचा ही नजर आता है. इसे ही अगर सचाई मानना हो तो मान लो. मगर मैं तो उस नंगे फर्श को अच्छा समझती हूं जहां ऐसा कोई धोखा नहीं है. संगीता, मुझे तुम से ईर्ष्या होती है. तुम्हें कितने अच्छे पति मिले हैं. अंदरबाहर से एक से.’’

संगीता मुंहबाए नगीना को देखती रह गई. उस से कुछ कहते ही नहीं बना. ंिकंतु दीपक के प्रति उसे जैसे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी. अपने सारे दोषों के बावजूद वह उसे बहुत अच्छा लगने लगा. संगीता के मन में उस के प्रति जैसे प्यार का ज्वार उमड़ पड़ा. Story In Hindi

Best Hindi Story: अपराधबोध – परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

Best Hindi Story: बड़ी मुश्किल से जज्ब किया था उन्होंने अपने मन के भावों को. अस्पताल में उन की पत्नी वर्षा जिंदगी और मौत से जूझ रही थी और घर में वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलस रहे थे.

और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बेटे को फोन मिलाया, ‘‘रवि, मैं अभी अस्पताल आ रहा हूं. मुझे एक बात बतानी है बेटे, सुन, मैं ने ही…’’

‘‘पापा, आप को मेरी कसम. आप अस्पताल नहीं आएंगे. घर में आराम करेंगे. मैं यहां सब संभाल लूंगा. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं पापा… ’’

फोन कट गया. सुबह से तीसरी बार बेटे ने कसम दे कर उन्हें अस्पताल आने से रोक दिया था. मानसिक तनाव था या फिर बुखार की हरारत, सहसा खड़ेखड़े चक्कर आ गया. वह आह भर कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े. पुराने लमहे, दर्द की छाया बन कर, आंखों के आगे छाने लगे.

वर्षा, उन की पत्नी…22 सालों का साथ…जाने कैसे उसी के प्राणों के दुश्मन बन बैठे  जिसे जिंदगी से बढ़ कर चाहा था. लंबी, गोरी, आकर्षक , आत्मनिर्भर वर्षा से कालिज में हुई पहली मुलाकात उम्र भर का साथ बन गई थी. दीवानगी की हद तक चाहा उसे. शादी की, जिंदगी के एक नए और खूबसूरत पहलू को शिद्दत से जीया. उस के दामन में खुशियां लुटाईं. वर्ष दर वर्ष आगे खिसकते रहे. समय के साथ दोनों अपनेअपने कामों में मशगूल हो गए.

वर्षा जहां नौकरी करती थी उसी कंपनी में नायक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव था. इधर कुछ समय से नायक, वर्षा में खासी दिलचस्पी लेने लगा था. दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और यही बात मधुकर को खटकने लगी. वह जितना भी चाहते कि उन के रिश्ते के प्रति उदार बनें, इस दोस्ती को स्वीकार कर लें पर हर बार उन की इस चाहत के बीच अहम और शक की दीवार खड़ी हो जाती.

कभीकभी मधुकरजी सोचते थे, काश, वर्षा इतनी खूबसूरत न होती. 42 साल की होने के बावजूद वह एक कमसिन, नाजुक काया की स्वामिनी थी. एक्टिव इतनी कि कालिज की कमसिन लड़कियां भी उस के सामने पानी भरें जबकि वह अब प्रौढ़ नजर आने लगे थे.

जाने कब और कैसे मन में उठे गतिरोध और ईर्ष्या के इन्हीं भावों ने उन के दिल में असुरक्षा और शक का बीज बो दिया. नतीजा सामने था. अपनी बीवी को खत्म करने की साजिश रची उन्होंने. एक बार फिर अपराधबोध ने उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया.

डा. कर्ण की आवाज उन के कानों में गूंज रही थी, ‘आप को शुगर की शिकायत तो नहीं, मधुकर?’

‘नहीं, मुझे ऐसी कोई तकलीफ नहीं. मगर डाक्टर साहब, आप ने ऐसा क्यों पूछा? कोई खास वजह?’ मधुकर ने जिज्ञासावश प्रश्न किया था.

‘दरअसल, इस दवा को देने से पहले मुझे मरीज से यह सवाल करना ही पड़ता है. शुगर के रोगी के लिए ये गोलियां जहर का काम करेंगी. इस की एक खुराक भी उस की मौत का सबब बन सकती है. हमें इस मामले में खास चौकसी बरतनी पड़ती है. वैसे आप निश्ंिचत हो कर इसे खाइए. आप को तुरंत राहत मिलेगी.’

2 दिन पहले बुखार व दूसरी तकलीफों के दौरान दी गई डा. कर्ण की इसी दवा को उन्होंने वर्षा की हत्या का शगल बनाया. वह जानते हैं कि वर्षा को बहुत अधिक शुगर रहता है और वह इस के लिए नियमित रूप से दवा भी लेती है. बस, इसी आधार पर उन के दिमाग ने एक खौफनाक योजना बना डाली.

कल रात भी नायक के मसले को ले कर उन के बीच तीखी बहस हुई थी. देर तक दोनों झगड़ते रहे, अंत हमेशा की तरह, वर्षा के आंसुओं और मधुकर के मौन धारण से हुआ. वर्षा दूसरे कमरे में सोने चली गई. जाते समय उस ने रामू को आवाज दी और चाय बनाने को कहा. फिर खुद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई. रामू चाय रख कर गया तो मधुकरजी चुपके से उस के कमरे में घुसे और चाय में दवा की 3-4 गोलियां मिला दीं.

अब नहीं बचेगी. आजाद हो जाऊंगा मैं. यह सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गए और बिस्तर पर लेट गए. इनसान जिसे हद से ज्यादा चाहता है, कभीकभी उसी से बेपनाह नफरत भी करने लगता है. यही हुआ था शायद मधुकरजी के साथ भी. वह सोच रहे थे…

…कितना कड़वा स्वभाव हो गया है, वर्षा का. जब देखो, झगड़ने को तैयार.

मैं कुछ नहीं, अब नायक ही सबकुछ हो गया है, उस के लिए. कहती है कि किस मनहूस घड़ी में मुझ से शादी कर ली. मेरा मुंह नहीं देखना चाहती. मुझे शक्की और झक्की कह कर पुकारती है. अब देखूंगा, कितनी जीभ चलती है इस की.

वह करवट बदल कर लेट गए थे. लेटेलेटे ही सोचा कि अब तक वह चाय पी चुकी होगी. खत्म हो जाएगी सारी चिकचिक. जीना हराम कर रखा था इस ने, जब भी नायक के साथ देखता हूं, मेरे सारे बदन में आग लग जाती है. यह बात वह अच्छी तरह समझती है, मगर अपनी हठ नहीं छोड़ेगी. काफी देर तक मन ही मन वर्षा को कोसते रहे वह, फिर मन के पंछी ने करवट ली. दिल में हूक सी उठी.

एकाएक कुछ खो जाने के एहसास से मन भीग गया.

क्या मैं ने ठीक किया? उसे इतनी बड़ी सजा दे डाली. क्या वह इस की हकदार थी? क्या अब मैं बिलकुल तनहा नहीं रह जाऊंगा? अब मेरा क्या होगा?

दिल में हलचल मच गई. अब पछतावे का तम उन के दिमाग को कुंद करने लगा. उस पर तेज बुखार की वजह से भी बेहोशी सी छा गई.

अचानक आधी रात के समय शोरशराबा सुन कर वह जग पड़े. बाहर निकले तो देखा, बेटा रवि, वर्षा को लाद कर कार में बिठा रहा है.

रामू ने बताया, ‘‘साहब, मालकिन की तबीयत बहुत बिगड़ गई है.’’

उन का दिल धक् से रह गया. वह चौकस हो उठे, ‘‘मैं भी चलूंगा.’’

उन्होंने बेटे को रोकना चाहा पर बेटे ने यह कहते हुए कार स्टार्ट कर दी, ‘‘नहीं, पापा. आप का शरीर तप रहा है. आप आराम करें. मैं हूं ना.’’

मधुकर पत्थर के बेजान बुत से खड़े रह गए. जैसे किसी ने उन के शरीर से प्राण निकाल लिए हों. क्या अब यही अकेलापन, यही तनहाई जीवन भर टीस बन कर उन के दिल को बेधती रहेगी?

‘‘बाबूजी, चाय ले आऊं क्या?’’ रामू ने आवाज दी तो मधुकर जैसे तंद्रा से जागे.

‘‘नहीं रे, दिल नहीं है. एक काम कर रामू, बिस्तर पर सहारा ले कर बैठते हुए वह बोले, जरा मेरे लिए एक आटोरिकशा ले आ. मुझे अस्पताल जाना ही होगा.’’

‘‘यह पाप मैं नहीं करूंगा मालिक. छोटे मालिक भी बोल कर गए हैं. 4 दिन से आप की तबीयत कितनी खराब चल रही है. वह सब संभाल लेंगे. आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं.’’

मधुकरजी को गुस्सा आया रामू पर. सोचा, खुद ही चला जाऊं. मगर डगमगाते कदमों से ज्यादा आगे नहीं जा सके. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. फिर क्या हुआ, उन्हें याद नहीं. होश आया तो खुद को बिस्तर पर पाया. सामने डाक्टर खड़ा था और रामू उन से कह रहा था :

‘‘मालिक पिछले 2 घंटे से बेहोशी में जाने क्याक्या बड़बड़ा रहे थे. कभी कहते थे, मैं हत्यारा हूं, तो कभी मालकिन का नाम ले कर कहते थे, वापस लौट आ, तुझे मेरी कसम…’’

मधुकरजी को महसूस हुआ जैसे उन का सिर दर्द से फटा जा रहा है. उन्होंने चुपचाप आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों के आगे वर्षा का चेहरा घूम गया. जैसे वह कह रही हो कि क्या सोचते हो, मुझे मार कर तुम चैन से जी सकोगे? नहीं मधुकर, यह तुम्हारा भ्रम है. मैं भटकूंगी तो तुम्हें भी चैन नहीं लेने दूंगी. पलपल तड़पाऊंगी…यह कहतेकहते वर्षा का चेहरा विकराल हो गया. वह चीख उठे, ‘‘नहीं…’’

सामने रामू खड़ा था, बोला, ‘‘क्या हुआ, मालिक?’’

‘‘कुछ नहीं, वर्षा नहीं बचेगी, रामू. मैं ने उसे मार दिया…’’ वह होंठों से बुदबुदाए.

‘‘मालिक, मैं अभी ठंडे पानी की पट्टी लाता हूं. आप की तबीयत ठीक नहीं.’’

रामू दौड़ कर ठंडा पानी ले आया और माथे पर ठंडी पट्टी रखने लगा.

मधुकरजी सोचने लगे कि ये मैं ने क्या किया? वर्षा ही तो मेरी दोस्त, बीवी, हमसफर, सलाहकार…सबकुछ थी. मेरा दर्द समझती थी. पिछले साल मैं बीमार पड़ा था तो कैसे रातदिन जाग कर सेवा की थी. परसों भी, जरा सी तबीयत बिगड़ी तो एकदम से घबरा गई थी वह, जबरदस्ती मुझे डाक्टर के पास ले गई.

मैं ने बेवजह उस पर शक किया. दफ्तर में चार लोग मिल कर काम करेंगे तो उन में दोस्ती तो होगी ही. इस में गलत क्या है? इस के लिए रोजरोज मैं उसे टीज करता था. तभी तो वह झल्ला उठती थी. हमारे बीच झगड़े की वजह मेरा गलत नजरिया ही था. काश, गया वक्त वापस लौट आता तो मैं उसे खुद से जुदा न करता. अब शायद कभी जीवन में सुकून न पा सकूं. यह सब सोच कर मधुकरजी और भी परेशान हो उठे.

‘‘रामू, फोन दे इधर…’’ और रामू के हाथ से झट फोन ले कर उन्होंने सीधे अस्पताल का नंबर मिलाया. वह इंगेज था. फिर डाक्टर के मोबाइल पर बात करनी चाही मगर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था.

क्या करूं? मैं जब तक किसी को हकीकत न बता दूं, मुझे शांति नहीं मिलेगी. डाक्टर को जानकारी मिल जाए कि उसे वह दवा दी गई है तो शायद वह बेहतर इलाज कर सकेंगे. यह सोच कर उन्होंने फिर से बेटे को फोन लगाया.

‘‘पापा, ममा को ले कर टेंशन न करें. यहां मैं हूं. आप अपनी तबीयत का खयाल रखें…’’

‘‘होश आया उसे?’’

‘‘हां, बस आधेएक घंटे में…हैलो डाक्टर, एक मिनट प्लीज…’’

‘‘हैलो….हैलो बेटे, मैं एक बात बताना चाहता हूं…जरा डाक्टर साहब को फोन दो…’’

‘‘…डाक्टर साहब, जरा देखिए, यह तीसरे नंबर की दवा…’’

रवि उन से बात करतेकरते अचानक डाक्टर से बातें करने में मशगूल हो गया और फोन कट गया.

वह सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘दवा खा लीजिए, मालिक,’’ रामू दवा ले कर आया.

‘‘जहन्नुम में जाए ये दवा…’’ गोली फेंकते हुए मधुकरजी उठे और वर्षा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

अंदर खड़े हो कर देखने लगे. वर्षा का बिस्तर…मेज पर रखी तसवीर… अलमारी…कपड़े…सबकुछ छू कर वह वर्षा को महसूस करना चाहते थे. अचानक ईयररिंग हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा. वह उठाने के लिए झुके तो चक्कर सा आ गया. वह वहीं आंख बंद कर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद मुश्किल से आंखें खोलीं. यह क्या? चाय का वही नया वाला ग्लास नीचे रखा था जिस में वह चुपके से आ कर गोली डाल गए थे. ग्लास में चाय अब भी ज्यों की त्यों भरी पड़ी थी.

तब तक रामू आ गया, ‘‘…ये चाय…’’ वह असमंजस से रामू की तरफ देख रहे थे.

‘‘ये चाय, हां…वह दूध में मक्खी पड़ गई थी. इसीलिए मालकिन ने पी नहीं. जब तक मैं दूसरा ग्लास चाय बना कर लाया, वह सो चुकी थीं.’’

मधुकरजी चुपचाप रामू को देखते रहे. अचानक ही दिमाग में चल रही सारी उथलपुथल को विराम लग गया. एक मक्खी ने उन के सीने का सारा बोझ उतार दिया था…यानी, मैं दोषी नहीं. यह सोच कर वह खुश हो उठे.

तभी मोबाइल बज उठा, ‘‘पापा, मैं ममा को ले कर आधे घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘‘वर्षा ठीक हो गई?’’

‘‘हां, पापा, अब बेहतर हैं. हार्ट अटैक का झटका था, पर हलका सा. डाक्टर ने काबू कर लिया है. बस, दवा नियम से खानी होगी.’’

ओह, मेरी वर्षा…कितना खुश हूं मैं…तुम्हारा लौट कर आना, आज कितना भला लग रहा है.

मधुकर मुसकराते हुए शांति से सोफे पर बैठ कर पत्नी और बेटे का इंतजार करने लगे. अब उन्हें किसी को कुछ बताने की चिंता नहीं थी. Best Hindi Story

Story In Hindi: प्रतिक्रिया – असीम ने कौनसा सवाल पूछा था

Story In Hindi: उस बेढंगे से आदमी का चेहरा मुझे आज भी याद है. वह शायद मेरे भाषण की समाप्ति की प्रतीक्षा ही कर रहा था. वक्ताओं की सूची में उस का कहीं नाम न था, किंतु मेरे तुरंत बाद उस ने बिना संयोजक की अनुमति के ही माइक संभाल लिया और धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया.

वह बहुत उम्दा बोल रहा था और श्रोता उस के भाषण से प्रभावित भी लग रहे थे. एकाएक ही उस ने कड़ा रुख अपना लिया. वह कह रहा था, ‘‘मेरी बात कान खोल कर सुन लो. जब तक देश में ये राक्षस मौजूद हैं, हिंदी यहां कभी फलफूल नहीं सकती. ये लोग अपने को हिंदी के सेवक और प्रचारक बताते हैं. लंबेलंबे भाषण देते हैं. दूसरों को उपदेश देते हैं और स्वयं…मैं इन लोगों से पूछना चाहूंगा कि इन में से ऐसे कितने हिंदीसेवी हैं, जिन के बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते.’’

उस का संकेत व्यक्तिगत रूप से मेरी ओर नहीं था. मुझे तो इस से पूर्व वह कभी मिला भी नहीं था. मगर तब लगा यही था कि उस ने यह तमाचा मेरे ही गाल पर जड़ा है.

मैं कई दिनों तक उधेड़बुन में रहा. फिर मैं ने अपना निर्णय घर में और मित्रों के बीच सुना दिया था. यह बात नहीं कि मुझे तब किसी ने टोका या समझाया नहीं था. सभी ने एक ही बात कही थी, ‘‘आप गलती कर रहे हैं. इस तरह भावुकता में आ कर बच्चे का भविष्य तबाह करना कहां की अक्लमंदी है?’’

किंतु मैं तो भावनाओं की बाढ़ में बह ही चुका था. असीम के स्कूल जा कर मैं ने उस का तबादला प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया. हिंदी माध्यम स्कूल में उसे आसानी से प्रवेश मिल गया. स्कूल बदलते हुए उस ने मामूली सी आपत्ति उठाई थी. वह शायद थोड़ा सा रोया भी था, किंतु मेरे आदर्शवादी भाषण और पुचकार के आगे उस ने शीघ्र ही घुटने टेक दिए और एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वह कंधे पर बस्ता लटका कर नए स्कूल जाने लगा.

मैं उसे बाद में भी समझाता रहा कि यह नया स्कूल मामूली नहीं है. यह सरकारी स्कूल है जहां अंगरेजी स्कूलों के अनुपात में अध्यापकों को तीनगुना वेतन मिलता है. सभी अध्यापक योग्य और प्रशिक्षित हैं. इन्हीं स्कूलों में पढ़े हुए कितने ही विद्यार्थी बाद में ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं. तुम भी मन लगा कर मेहनत करो और बड़े आदमी बनो.

किंतु असीम बुझाबुझा सा रहने लगा था. अब वह स्कूल जाते समय न स्कूल की वरदी की परवा करता और न पहले की तरह जूते चमकाता. पहले साल वह काफी अच्छे अंक ले कर पास हुआ. किंतु अगले वर्ष न जाने क्या हुआ, वह मध्य स्तर के विद्यार्थियों में गिना जाने लगा. स्कूल में उस का कोई मित्र न था. अब वह किसी खेल या नाटक आदि में भी भाग न लेता. मैं कुछ समझाता तो वह चुपचाप बैठा जमीन की ओर देखता रहता. एक दिन सोचा कि स्कूल जा कर पता किया जाए. किंतु स्कूल की दशा देख कर दिल धक से रह गया. अनुशासन नाम की वहां कोई चीज ही न थी. अध्यापक गप्पें हांकने या अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. अध्यापिकाएं स्वेटर बुन रही थीं और आपस में दुखसुख की बातें कर रही थीं. बच्चे शोर मचा रहे थे, मारपीट कर रहे थे या डेस्कों पर तबला बजाते हुए फिल्मी गाने गा रहे थे. असीम कक्षा में एक कोने में गुमसुम बैठा था. वह न पढ़लिख रहा था और न अन्य बच्चों की किसी गतिविधि में ही शामिल था.

मैं प्रिंसिपल साहब के कमरे में गया. चाहा कि उन से स्कूल की दशा के बारे में बातचीत करूं, किंतु मेरे कुछ कहने से पूर्व ही वह अखबार को एक ओर पटक कर मुझ पर झपट पड़े और बोले, ‘‘मैं पत्र लिख कर आप को बुलाने ही वाला था. आप अपने लड़के की बिलकुल परवा नहीं कर रहे हैं. मेरे स्कूल में तो ऐसा नहीं चलेगा. बहुत मुश्किल होगा इस तरह तो. घर पर इस का मार्गदर्शन कीजिए या पढ़ाने के लिए घर पर किसी अध्यापक की व्यवस्था कीजिए, वरना…’’

असीम को इस स्कूल से निकाल कर पुन: पहले वाले स्कूल में दाखिल कराना संभव नहीं था. वहां न तो उसे प्रवेश मिल सकता था और न वह अब इस योग्य ही रह गया था कि वहां के स्तर पर अपने को चला सके. मैं ने इस विषय में उस के लिए ट्यूशन का प्रबंध कर दिया. किंतु उस का तो अब सभी विषयों में बुरा हाल था.

उस ने मरखप कर हाईस्कूल पास कर लिया. इंटर में भी उस के कुछ अच्छे अंक नहीं रहे. उसी तरह उस ने बी.ए. में रेंगना शुरू कर दिया. मैं ने उस से पूछा कि यदि वह पढ़ना नहीं चाहता तो कोई हाथ का काम सीखने की कोशिश करे. मगर उस ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया.

वैसे भी वह अब मुझ से कम ही बात करता था. उस का शरीर सूख सा गया था. दाढ़ी बढ़ा ली थी. हर रोज वह कंधे पर थैला लटका कर न जाने किधर चल देता और कभीकभी शाम को भी लौट कर घर न आता.

उस के पुराने साथी कामधंधे पर लग गए थे. उन में से कुछ अफसर भी चुन लिए गए थे, किंतु असीम कितनी ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने के बावजूद किसी साधारण पद के लिए भी नहीं चुना गया था.

एक दिन वह सुबह का नाश्ता ले कर और हर रोज की तरह कंधे पर थैला लटका कर घर से निकलने ही लगा था कि मैं ने रोक कर पूछा, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’

वह चुपचाप मेरी ओर देखता रहा, तो मैं ने पूछा, ‘‘तुम क्या समझते हो, यह सब ठीक कर रहे हो?’’ इस बार उस ने नजर उठा कर मेरी ओर देखा और सधे हुए लहजे में बोला, ‘‘आप ने जो मेरे साथ किया, क्या वह ठीक था?’’

‘‘मैं ने क्या किया?’’

‘‘अपने खोखले आदर्शों की बलिवेदी पर मुझे चढ़ा दिया, यह अच्छा किया आप ने?’’

मैं उसे कोई उत्तर न दे सका. यह भी नहीं समझा सका कि ये आदर्श खोखले नहीं हैं. खोखली है यह व्यवस्था जिस की चक्की के पाट कमजोर नहीं हैं और इन पाटों के बीच कुछ लोग नहीं, युग भी पिस कर रह जाते हैं.

जब वह चला गया तो मैं ने गौर किया कि मेरे अपने बेटे का चेहरा उस दिन मंच पर भाषण देने वाले बेढंगे से आदमी के चेहरे से कितना मेल खाने लगा है. Story In Hindi

Story In Hindi: कैसी है सीमा – गांव से किसका पत्र आया था

Story In Hindi: ‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’ Story In Hindi

Hindi Story: हीरोइन – महरी की चिंता उसे क्यों थी

Hindi Story: पहले तो सरकारी मकान की दिक्कत और दूसरे, घर पर कामकाज करने वालों की किल्लत. घर के बाकी सब काम तो जैसेतैसे हो जाते थे किंतु बरतन साफ करना, झाड़ ूपोंछा करना ऐसे काम थे जिन्हें सुन कर ही पत्नी का तापमान सामान्य से ऊपर पहुंच जाता था. पूरे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था. दिन भर पत्नी मुझ पर, बच्चों पर और खुद पर भी झल्लाती रहती थी. बच्चों के दोचार थप्पड़ भी लग जाना स्वाभाविक ही था. इसलिए लगभग 5 वर्ष पूर्व जब मैं लखनऊ स्थानांतरित हो कर आया था तो इस आशंका से भयंकर रूप से त्रस्त था.

भागदौड़ कर के दारुलशफा (विधायक निवास) के चक्कर काट कर मुझे कालोनी में मकान मिल गया था. वह मेरे लिए कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था. किराए के मकानों की दशा से कौन परिचित नहीं है. खुशामद और सामर्थ्य से परे किराया और दिनप्रतिदिन की कहासुनी. तनाव का एक छोटा हिस्सा मकान मिलने से अवश्य कम हुआ था किंतु उस का अधिकांश भाग तब तक घर पर मंडराता रहा जब तक चौकाबासन करने वाली महरी की व्यवस्था नहीं हो गई.

वास्तव में पत्नी से अधिक महरी की चिंता मुझे थी. मैं ने लखनऊ आते ही पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी थी. आसपास के घरों में सुबहशाम आतीजाती महरीनुमा औरतों पर निगाह रखना शुरू कर दिया था. 1-2 महरियां दीख पड़ीं, लेकिन उन्होंने बात करते ही ‘खाली नहीं’ की तख्ती दिखा दी. एक सप्ताह बाद पत्नी का धैर्य तेज धूप में कच्ची दीवार सा चटखने लगा. 15 दिन बीततेबीतते उस के चेहरे पर तनाव भी परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था.

इतनी बड़ी कालोनी में मेरे ही विभाग के अनेक अधिकारी निवास करते थे. धीरेधीरे मैं ने सभी के सामने महरी की समस्या रखी. अंतत: कमला के बारे में मुझे पता चला किंतु सहयोगी अरविंदजी ने मुझे उस की चर्चा के साथ ही सचेत करते हुए कह दिया था, ‘‘भाई, कालोनी की हीरोइन है कमला, एकदम आधुनिका. बड़ी नखरेबाज. उस की हर किसी के साथ निभ पाना संभव नहीं है.’’

मैं ने पत्नी को आ कर सब बता दिया था और कमला को बुलाने का आग्रह किया था.

कमला आई थी तो उसे देख कर मैं भी पहले दिन ही चकित रह गया था. वह देखने में 30 के आसपास थी. सांवला रंग किंतु तीखे नाकनक्श, सलीके से संवरी हुई आकृति और साफसुथरे कपड़े, अंगूठी से घिरी 2 उंगलियां, कलाई में घड़ी और साधारण एड़ी वाली चप्पलें. उसे देख कर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह स्त्री घरों में बरतन मांजने और झाड़ ूपोंछे का काम करती थी.

प्रारंभिक वार्त्ता के बाद कमला ने कार्य प्रारंभ कर दिया था. बाद में पता चला था कि वह इत्तफाक ही था कि एक अधिकारी के स्थानांतरण के फलस्वरूप कमला अभी हाल में ही खाली हुई थी. वरना उस का नियम था कि वह एक ही समय में 5 से अधिक घरों में काम नहीं करती थी.

कमला का काम जहां एक ओर अति स्वच्छ व व्यवस्थित था वहीं दूसरी ओर उस में स्वयं एक सौम्यता व गंभीरता दीख पड़ती थी. घड़ी की सूइयों के साथ वह प्रात: सवा 8 बजे आती थी और 45 मिनट में सारे कार्यों से निवृत्त हो कर चली जाती थी. सायं ठीक सवा 5 बजे कमला घर में घुसती थी और पौने 6 बजे तक घर से निकल जाती थी. न तो वह अधिक बोलती थी और न ही उसे सुनने की कोई आदत थी.

जैसेजैसे समय बीतता गया, हम कमला के बारे में और अधिक जानते गए. उस का पति बीमा कार्यालय में चपरासी था. 3 बच्चे थे उन के. बड़ा लड़का और 2 लड़कियां. कमला को देख कर हम तो यही सोचते थे कि अभी बच्चे छोटे ही होंगे. किंतु मुझे उस दिन घोर आश्चर्य हुआ जब एक 16-17 वर्षीय लड़के ने घर आ कर पूछा था, ‘‘मां आई थीं?’’

‘‘किस की मां?’’ पत्नी ने सकपका कर पूछा था.

‘‘मेरी मां, कमलाजी.’’

‘‘कमला,’’ पत्नी हतप्रभ सी धीरे से मुसकरा दी. फिर सहजता धारण कर के बोली, ‘‘हमारे यहां तो सवा 5 बजे आती है. अभी तो देर है.’’

वह लड़का अभिवादन कर के लौट गया.

पता नहीं क्यों पत्नी के हृदय में एक कुलबुलाहट सी हुई. उस दिन कमला के आने पर पत्नी ने उस के लड़के के आने के बारे में बताते हुए बातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

‘‘जी, बीबीजी,’’ कमला ने बताया, ‘‘घर पर अचानक कुछ मेहमान आ गए थे. जल्दी में थे. इसलिए लड़का ढूंढ़ रहा था.’’

‘‘मगर तुम्हारा लड़का और इतना बड़ा?’’ पत्नी रोक न सकी अपनी जिज्ञासा को.

कमला ने शरम से मुंह नीचे कर लिया. पहली बार उस के चेहरे पर स्मित की लहरें उभर आईं.

‘‘तुम देखने में तो इतनी बड़ी उम्र की नहीं लगती हो?’’ पत्नी ने धीरे से बात बनाई थी.

कमला हंसने लगी. फिर दबे स्वर में बोली, ‘‘बीबीजी, कुछ तो शादी ही जल्दी हो गई थी. वैसे अब 33 की तो हो ही रही हूं.’’

कमला ने आगे बताया था कि उस के पिता बरेली में एक स्कूल में अध्यापक थे. घर में पढ़नेलिखने का वातावरण भी था. कमला की 2 बहनों ने इंटर पास किया था. उन की शादी हो गई थी. छोटा भाई बी.ए. कर के कचहरी में बाबू हो गया था.

कमला जब केवल 15 वर्ष की ही थी तो पड़ोस में रह रहे नवयुवक के प्रेमजाल में फंस कर वह उस के साथ लखनऊ चली आई थी. उस समय वह 9वीं की परीक्षा दे चुकी थी. नवयुवक यानी उस के पति के मामा ने उन्हें शरण दी थी तथा कचहरी में विवाह कराया था. उस का पति हाईस्कूल पास था. मामा ने ही सिफारिश कर के उस की बीमा दफ्तर में नौकरी लगवा दी थी.

कमला के पिता और घर के अन्य सदस्य उस घटना के बाद इतने अपमानित व क्षुब्ध थे कि उन्होंने कमला से सदा के लिए अपने संबंध विच्छेद कर लिए थे. उधर पति के घर वाले भी उतने ही नाराज थे किंतु धीरेधीरे उन से संबंध सुधर गए थे.

लगभग 1 वर्ष बाद पुत्र का जन्म हुआ था और बाद में 2 लड़कियों का. अब उन में से एक 15 साल की थी और दूसरी 9 साल की.

हमें लखनऊ में आए लगभग 3 साल बीत चुके थे. अब सब व्यवस्थित हो चला था. कमला से कभीकभार खुल कर बातें भी होने लगी थीं किंतु न तो उस के नित्यक्रम में कोई अंतर आया था और न ही उस में.

कमला की कुछ और भी विशिष्टताएं थीं. वह कभी हमारे घर पर कुछ खातीपीती नहीं थी. और तो और वह कभी चाय भी नहीं लेती थी. घर से खाने का कोई सामान स्वीकार न करना और न ही तीजत्योहार पर किसी अतिरिक्त पैसे, कपड़े या वस्तु की मांग करना. प्रारंभ में हमें लगा कि संभवत: महानगर की ऐसी ही प्रथा हो, किंतु बाद में यह भ्रांति भी दूर हो गई.

उस दिन के बाद कमला का लड़का भी कभी हमारे घर नहीं आया था. पता चला था कि वह हाईस्कूल की परीक्षा में 2 बार फेल हो चुका था. अब तीसरी बार परीक्षा दी थी.

कमला की लड़कियों का हमारे घर पर आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

एक दिन जब पत्नी ने कमला से उस की 2 दिन की अनुपस्थिति में किसी लड़की को काम पर भेजने को कहा था तो पहली बार कमला रोष व खीज भरे स्वर में बोली थी, ‘‘नहीं, बीबीजी, मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकती. जो काम मैं उन बच्चों के लिए करती हूं वह उन को करते नहीं देख सकती हूं.’’

उस वर्ष जब हाईस्कूल बोर्ड का परीक्षाफल आया और कमला का लड़का तीसरी बार अनुत्तीर्ण हुआ तो कमला क्षोभ व यंत्रणा से टूटी सी लगती थी. पत्नी के पूछने पर उस के नेत्र छलछला उठे. फिर सिसकियां ले कर रोने लगी. साथ ही भरभराए स्वर में कहने लगी, ‘‘बीबीजी, सिर्फ इन बच्चों के लिए यह काम करना शुरू किया था, जिस से वे अच्छी तरह रह सकें, अच्छा पहनेंखाएं और पढ़लिख कर लायक बन जाएं.’’

कुछ पल शांत रही कमला. फिर बताने लगी, ‘‘बाबूजी, हमारे पूरे खानदान में यह काम किसी ने नहीं किया था, लेकिन मैं ने सिर्फ बच्चों की खातिर यह धंधा अपनाया था.’’

साड़ी का पल्लू निकाल कर कमला ने आंसू पोंछे. फिर आगे बोली, ‘‘मेरा आदमी मुझ से इस धंधे के पीछे बड़ा नाराज हुआ. दुखी भी हुआ. घर के गुजारे लायक उस को पैसा मिलता था. उस के साथ के चपरासी ऐसे ही रह रहे हैं, लेकिन मैं ने जिद कर के यह काम किया. जानती थी कि उस की आमदनी में काम तो चल जाएगा. लेकिन मैं बच्चों को पढ़ालिखा नहीं सकूंगी. उन्हें ठीक तरह नहीं रख पाऊंगी.

‘‘मैं ने मुन्ना को बड़े चाव से पढ़ाना चाहा था, लेकिन वह पढ़ता ही नहीं है. उस के पापा तो पिछले साल ही पढ़ाई बंद करा रहे थे. उसे कपड़े की दुकान पर लगवा भी दिया था, लेकिन मैं ने जिद कर के वह काम छुड़वाया और पढ़ने भेजा.

‘‘आज सुबह जब नतीजा आया तो मुन्ना को तो डांटाडपटा ही मेरे आदमी ने, मुझे भी बुराभला कहा. फिर आज ही मुन्ना काम पर चला गया उस दुकान पर.’’

कहतेकहते कमला का स्वर बोझिल हो कर टूट सा गया.

‘‘कैसी दुकान है?’’ कुछ देर शांत रह कर कुछ न सूझते हुए पत्नी ने पूछ लिया.

‘‘कपड़े की, जनपथ में है.’’

‘‘कितना देंगे?’’

‘‘यही करीब 300-350 रुपए. मगर बीबीजी, मुझे पैसे का क्या करना है. मुन्ना पढ़ लेता तो जीवन की आस पूरी हो जाती. मेरा यों दरदर ठोकरें खाना सफल हो जाता,’’ कहते हुए कमला की आंखों में एक गीली परत सी जम गई.

कमला की व्यथा सुन कर मैं भी दुखित हो चला था. सचमुच एक विडंबना ही तो थी यह उस की.

उस घटना के बाद कमला दुखी व परेशान सी रहने लगी थी. ऐसा लगता था जैसे कोई दुख उस के हृदय को लगातार बरमे की तरह सालता था. मानो काले बादलों का साया उस के अंतरंग में घुटन सी पैदा कर रहा था. सब काम नियमित रूप से करते हुए भी कमला स्फूर्तिहीन व निस्पंद सी दीख पड़ती थी. कभीकभी यह आशंका होती थी कि कहीं वह काम करना ही न छोड़ दे. किंतु जब 6 माह बीत गए तो पत्नी आश्वस्त हो गई. कमला भी धीरेधीरे सामान्य हो चली थी.

एक दिन कमला ने एक सप्ताह के अवकाश के संबंध में पत्नी से कहा तो उस का आशंकित हो उठना स्वाभाविक था, ‘‘क्या कामवाम छोड़ने का विचार है?’’ अपने संदेह व आशंका को एक धीमी मुसकान से ढांपते हुए पत्नी ने पूछा था.

‘‘नहीं, बीबीजी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ कमला ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘मेरी लड़की की शादी है.’’

‘‘सचमुच?’’ पत्नी ने अचंभे से कमला को देखा.

‘‘हां, बीबीजी. 17 पूरे कर चली है. लड़का मिल गया है सो शादी पक्की कर डाली है.’’

‘‘ठीक ही तो किया तुम ने.’’

‘‘और करती भी क्या. उस को भी पढ़ाने की लाख कोशिश की, लेकिन 9वीं से आगे नहीं पढ़ सकी. मेरी ही तरह रही,’’ कह कर हंस दी वह, ‘‘मैं ने सोचा कि कुछ और न हो इस से पहले ही उस के हाथ पीले कर दूं और छुट्टी पा लूं.’’

कमला के आग्रह पर हम दोनों विवाह में सम्मिलित हुए थे. पत्नी एक बार पहले भी उस के घर जा चुकी थी. उस ने मुझे कमला के घर के रखरखाव के बारे में बताया था. टीवी, सोफा, खाने की मेजकुरसियां, ड्रेसिंग टेबल, सबकुछ उस के घर में था.

आज उस का घर देख कर मैं भी चकित रह गया था. शादी का स्तर भी मध्यवर्गीय परिवार जैसा ही था. कहीं कोई कमी नहीं दीख पड़ी. वह सब देख कर जाने क्यों मेरे हृदय में कहीं अंदर अतीव सुख व संतोष की भावना प्रवाहित हो गई थी.

लड़की के विवाह के बाद एक बार फिर हमें ऐसा लगा कि अब कमला अवश्य काम छोड़ देगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन पत्नी ने मुझे बताया कि कमला मुझ से कोई बात करना चाहती थी. सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ. अगले दिन मैं ने स्वयं कमला से पूछा था, ‘‘कमला, तुम्हें कुछ बात करनी थी?’’

‘‘जी, बाबूजी,’’ हाथ धो कर वह मेरे पास आ कर नीचे जमीन पर बैठ गई, ‘‘कुछ काम था.’’

‘‘बोलो?’’ आत्मीयता भरे स्वर में मैं ने इजाजत दी थी.

‘‘छोटी मुन्नी का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करा दीजिए.’’

‘‘किस क्लास में?’’

‘‘जी, उस ने कानवेंट से 5वीं पास की है. क्लास में दूसरे नंबर पर आई है. अब छठी में जाएगी. उस की अध्यापिका उस की बड़ी तारीफ कर रही थीं. कह रही थीं कि मैं उसे खूब पढ़ाऊं. मैं उसे किसी अच्छे अंगरेजी स्कूल या सेंट्रल स्कूल में डालना चाहती हूं. मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. इसलिए आप से ही विनती करने आई हूं.’’

मैं स्तंभित सा सुनता रहा.

‘‘क्यों नहीं. आज ही ले आओ उसे. मैं ले कर चला जाऊंगा. दाखिला भी करवा दूंगा,’’ मैं ने कमला को आश्वासन दिया.

कमला मेरे पैरों को छूने लगी, ‘‘मुझ पर बड़ा एहसान होगा आप का. यह लड़की पढ़ लेगी तो जीवनभर आप को याद करूंगी.’’

‘‘लेकिन तुम ने कभी बताया ही नहीं कि तुम्हारी लड़की कानवेंट में है और पढ़ने में इतनी अच्छी है.’’

‘‘बाबूजी, क्या बताती, मेरी तो आखिरी आशा है वह. कभी लगता है उस को दूसरों से ज्यादा मेरी ही नजर न लग जाए.’’

मैं सुन कर हंसने लगा. वातावरण की गंभीरता टूट चुकी थी. इसलिए मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘मगर तुम ने उसे दोनों बच्चों के बीच कैसे पाला?’’

‘‘बस, बाबूजी, शुरू से छोटी मुन्नी को एकदम अलग ही रखा दोनों बच्चों से. उस के लिए अध्यापक लगाए, पढ़ाने से ज्यादा उस को अलग रखने के लिए. वह जो मांगती है, उसे देती हूं,’’ कुछ क्षण रुक कर फिर धीमे से कहने लगी कमला, ‘‘उसे आज तक यह नहीं मालूम कि मैं क्या काम करती हूं. बाबूजी, हो सकता है कि वह जान कर अच्छे बच्चों में खुल कर घुलमिल न पाए.’’

कमला की आंखें डबडबा उठी थीं. मेरे दिल के तार भी जैसे झंकृत हो उठे थे.

कमला उठ कर अपने काम में लग गई.

तब से मैं भी यह मानता हूं कि कमला वास्तव में हीरोइन है. उस रूप में नहीं जिस में लोग उसे कहतेसमझते हैं बल्कि एक नए अर्थ में, एक नए संदर्भ में. Hindi Story

Story In Hindi: मेरा पिया घर आया – रवि के मन में नीरजा ने कैसे अपने प्रेम की अलख जगा दी?

Story In Hindi: रवि अपनी भाभी कविता और उन की सहेली निशा की सारी दलीलों को नजरअंदाज करते हुए शादी न करने की जिद पर कायम रहा, ‘‘मानवी से जुड़ी यादों के कारण अब किसी लड़की की तरफ देखने का मेरा मन नहीं करता,’’ शादी न करने का मुख्य कारण दोहराते हुए रवि का गला भर आया था.

‘‘पर मानवी अब जिंदा नहीं है,’’ निशा ने उत्तेजित लहजे में उसे याद दिलाया, ‘‘जिंदगी में हुए किसी एक हादसे के कारण इंसान को अपनी जीवनधारा को रोक नहीं देना चाहिए.’’

‘‘मैं मानवी की यादों के सहारे सारा जीवन गुजारने का फैसला कर चुका हूं, निशा भाभी.’’

कविता ने एकाएक नियंत्रण खो दिया और गुस्से से भरी आवाज में अपनी सहेली से कहा, ‘‘निशा, इन जनाब के साथ मगज मारने से कोई फायदा नहीं. अच्छा ही है कि ये शादी करने से इनकार कर रहे हैं. इन जैसे जिद्दी और नासमझ इंसान के साथ शादी कर के कोई लड़की खुश रह भी नहीं सकती.’’

अब तक खामोश बैठी निशा की छोटी बहन नीरजा एकाएक भावुक लहजे में बोल पड़ी, ‘‘ऐसा मत कहो कविता दीदी. इन जैसे संवेदनशील इंसान की जीवनसंगिनी बन कर कोई भी लड़की खुद पर गर्व करेगी.’’

निशा और कविता को उस का शरमातेलजाते अंदाज में अपनी बात कहने का यह ढंग हैरान कर गया. रवि भी उस के चेहरे को उलझन भरे अंदाज में पढ़ने की कोशिश कर रहा था.

‘‘नीरजा, तुम तो मानवी से जुड़ी सारी कहानी अच्छी तरह जानती हो. अगर तुम्हारे लिए इस का रिश्ता आए, तो क्या तुम हां कह दोगी?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद कविता ने मजाकिया लहजे में नीरजा से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘मैं तो फौरन हां कह दूंगी,’’ नीरजा ने भावुक लहजे में ऐसा जवाब दिया तो तीनों को यह बात एकदम समझ आ गई कि वह रवि को मन ही मन प्यार करने लगी है.

कविता ने इस बार संजीदा हो कर अगला सवाल पूछा, ‘‘यह तो बता कि तू ने ऐसा क्या खास गुण देख लिया रवि में जो इसे अपना दिल दे बैठी?’’

नीरजा भावुक लहजे में बोली, ‘‘कुछ दिन पहले जब दीदी के बेटे मोहित की तबीयत खराब हुई, तो इन से उस की पीड़ा नहीं देखी गई थी. सब के रोकने के बावजूद ये ही उसे फौरन अस्पताल ले गए थे.’’

‘‘भाभी, आप या दीदी वक्तबेवक्त इन्हें कुछ भी काम बताओ, ये उसे करने में बिलकुल नानुकर नहीं करते. गुस्सा तो जैसे इन के स्वभाव में है ही नहीं. सब से हंस कर मिलते हैं. मैं ने इन्हें गरीब लोगों से भी हमेशा प्यार और इज्जत के साथ पेश आते देखा है. इन की तो जितनी तारीफ की जाए कम है.’’

रवि ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘ऐसी बातें सोचने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि मुझे तो कभी शादी ही नहीं करनी है.’’

‘‘इस मामले में मेरा अपने दिल पर कोई नियंत्रण नहीं रहा है,’’ नीरजा ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम पागल हो क्या? क्यों इन सब की हंसी का पात्र न रही हो?’’

‘‘आप जैसा संवेदनशील और नेकदिल जीवनसाथी मुझे ढूंढ़ने पर नहीं मिलेगा,’’ वह अपनी धुन में बोली, मानो उस ने रवि की बात सुनी ही न हो.

रवि को बिलकुल नहीं सूझा कि वह नीरजा से आगे क्या कहे. उसे यों बेबस देख निशा और कविता खुल कर मुसकराए जा रही थीं.

‘‘निशा, मुझे तो तेरी छोटी बहन को अपनी देवरानी बनाने में कोई एतराज नहीं…’’

‘‘भाभी, प्लीज. हम अभी आए,’’ ऐसा कह कर रवि ने नीरजा का हाथ पकड़ा और उसे उन के बीच से उठा कर बाहर लौन में ले आया.

‘‘तुम सब के सामने ऐसी पागलपन वाली बातें कर के अपना और मेरा मजाक मत उड़वाओ,’’ रवि नाराज नजर आ रहा था.

‘‘आप इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी मानवी के अलावा किसी और लड़की से प्रेम नहीं करते हो न?’’ नीरजा एकदम संजीदा हो गई.

‘नहीं.’’

‘‘तो मुझ से शादी कर लो.’’

‘‘तुम मेरी मजबूरी समझो, प्लीज. मैं मानवी को प्यार करता था, करता हूं और करता रहूंगा.’’

‘‘मुझे बिलकुल आप के जैसा ही जीवनसाथी चाहिए. अपनी मृत प्रेमिका के प्रति आप अगर इतने वफादार हो तो यकीनन मेरे प्यार के प्रति भी पूरी तरह से ईमानदार और वफादार रहोगे.’’

‘‘मैं मानवी से कभी बेवफाई नहीं करूंगा,’’ नाराजगी भरे अंदाज में उठ कर रवि अपने घर की तरफ चल पड़ा.

‘‘और मेरा दिल कह रहा है कि हमारी शादी जरूर हो कर रहेगी,’’ नीरजा की इस घोषणा का कोई जवाब देने के लिए रवि रुका नहीं था.

रवि का दिल जीतने की कोशिशें नीरजा ने उसी दिन से बड़े उत्साह के साथ शुरू कर दीं. पड़ोस में घर होने के कारण वह सुबहशाम खूब सजधज कर रवि से मिलने पहुंच जाती.

‘‘मैं कैसी लग रही हूं?’’ रवि के सामने आते ही वह उस से यह सवाल तब तक पूछती रहती जब तक वह उस की तारीफ नहीं कर देता.

अपने फोन के कैमरे से वह रवि के हर किसी के साथ खूब फोटो खींचती. उस का हर काम भागभाग कर खुद करती. उस के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के लिए वह अकसर रात का खाना उसी के घर खाने लगी थी.

वह अकसर, ‘अपने पिया की मैं तो बनी रे दुलहनिया…’ और ‘मेरा पिया घर आया…’ जैसे गाने मस्त अंदाज में गाती हुई दोनों घरों में घूमती नजर आती, तो रवि के अलावा सब खूब दिल खोल कर हंसते.

परेशान रवि हर किसी से फरियाद करता, ‘‘कोई इस पगली को समझाओ, प्लीज. यह अपनी भावनाओं पर काबू रखे, नहीं तो बाद में इसे दुख होगा.’’

‘‘उसे समझाना हमारे बस की बात नहीं. वह तो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, रवि,’’ हर किसी से कुछ ऐसा ही जवाब पा कर रवि की खीज निरंतर बढ़ती जाती थी.

आने वाले कुछ दिनों में नीरजा ने अपने उत्साहपूर्ण व्यवहार से रवि के पिता कैलाश, मां सावित्री और बड़े भाई राजीव के दिलों को भी जीत लिया. उन सब के मन में यह उम्मीद बंध  गई कि कभी शादी न करने के रवि के फैसले को शायद नीरजा बदलने में कामयाब हो जाएगी.

नीरजा की मां कांता ने विकास नाम के एक बिजनैसमैन के साथ नीरजा का रिश्ता पक्का करने का मन बना रखा था. जब नीरजा के रवि को दिल देने की खबर उन के कानों तक पहुंची, तो वे अपने पति रमेश के साथ अगले ही दिन मेरठ से दिल्ली आ गईं.

नीरजा को सामने बैठा कर उन्होंने सख्त लहजे में उसे समझाना शुरू किया, ‘‘शादी के बाद किसी भी लड़की की खुशियां सुनिश्चित करने में पैसा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. तुझे तो इस बात से खुश होना चाहिए कि इतने अमीर घर की बहू बनने का मौका मिल रहा है.’’

‘‘पर मैं रवि को पसंद करती हूं… उसे दिल की गहराइयों से प्यार करती हूं,’’ नीरजा ने रोंआसे स्वर में उन्हें अपने दिल की बात बता दी.

‘‘पैसा सबकुछ नहीं होता, कांता. हमें इस की पसंद नापसंद का भी खयाल रखना चाहिए,’’ रमेश ने अपनी बेटी का पक्ष लिया.

‘‘तुम तो अपना मुंह बंद ही रखो जी,’’ कांता एकदम गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘तुम्हारे साथ पिछले 30 साल से मैं अपने मन को मार कर कैसे जी रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. कभी न मनचाहा पहना, न कहीं घूमीफिरी. बजट बना कर जीते हुए मेरी सारी जिंदगी बेकार हो गई.’’

रमेशजी ने आगे कुछ न बोलने में ही अपनी भलाई समझी. कांता ने उन से ध्यान हटाया और अपनी बेटी को गुस्से से घूरते हुए कहने लगीं, ‘‘अपने इस प्यार और पसंद के पागलपन को गोली मार और मुझे बता कि विकास के मुकाबले क्या है इस रवि के पास? 3 कमरों का फ्लैट, जिस में वह भैयाभाभी के साथ रहता है और खटारा सी पुरानी कार. अरे, रवि जितना सालभर में कमाता है, उतनी तो विकास की फैक्टरी एक महीने में उसे कमा कर देती है. तू जिंदगीभर ऐश करेगी उस के साथ.’’

नीरजा चिढ़ कर बोली, ‘‘मां, मेरी नजरों में विकास एक अहंकारी और रूखा इंसान है, जो अपनी तारीफ खुद कर के सब को बहुत बोर करता है.’’

‘‘उस काबिल लड़के में जबरदस्ती बेकार के नुक्स मत निकाल. देख, उन्हें सुंदर लड़की चाहिए और ऊपर से तेरी मौसी यह रिश्ता कराने के लिए खूब भागदौड़ कर रही है. तुझ में थोड़ी सी भी अक्ल है, तो फौरन विकास से शादी करने को हां कह दे.’’

‘‘शादी के मामले में किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ ऐसी चेतावनी दे कर नीरजा उन के सामने से हट गई.

कुछ देर तक अपनी बेटी को कोसने के बाद कांता ने नीरजा पर दबाव बढ़ाने के लिए विकास को फौरन अगले दिन सुबह मेरठ से दिल्ली आने का हुक्म फोन कर के सुना दिया.

सफल बिजनैसमैन विकास बड़बोला इंसान था, जिसे अपनी अमीरी पर बहुत घमंड था. उसे पूरा विश्वास था कि नीरजा उस के साथ शादी करने से कभी इनकार नहीं करेगी.

‘‘नीरजा को मैं सारी दुनिया घुमाऊंगा… मेरी मां शादी में इतने जेवर चढ़ाएंगी कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी… हनीमून मनाने के लिए मैं ने स्विट्जरलैंड जाने का मन बना रखा है…’’ हर वक्त ऐसी डींगें मार कर उस ने कांता के अलावा सब को परेशान कर रखा था.

रवि ने अगले ही दिन नीरजा से अकेले में कहा, ‘‘इस विकास के साथ शादी करने को तुम हां मत करना. वह बोर इंसान तुम्हें अपने ढंग से कभी जीने नहीं देगा.’’

‘‘मैं तो आप की हमसफर बनना चाहती हूं, पर आप हो कि हां…’’

‘‘वह बात मत शुरू करो, प्लीज. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ रवि ने उसे फौरन टोक दिया.

‘‘आप मेरी आंखों में देखो और बताओ कि वहां आप को अपने लिए गहरा प्यार दिखाई दे रहा है या नहीं,’’ नीरजा एकदम से रवि के बहुत करीब आ गई थी.

‘‘वह सब तो ठीक है, पर…’’

‘‘मानवी के साथ आप ने सच्चा प्यार किया, पर अब वह इस दुनिया में नहीं है. उस की यादों से जुड़े रह कर मेरे सच्चे प्रेम को अपने दिल में जगह न देने का फैसला करना कहां की समझदारी है,’’ नीरजा का गला एकदम से भर आया.

‘‘मैं मजबूर हूं.’’

‘‘तो मैं भी मजबूर हूं. अगर आप ने हां नहीं की, तो मैं परसों शाम को होने वाली अपनी जन्मदिन पार्टी में विकास के साथ शादी करने को हां जरूर कह दूंगी,’’ नीरजा ने अपना फैसला सुनाने के बाद भावुक अंदाज में उस का हाथ चूमा और अपने कमरे की तरफ चली गई.

उस शाम को विकास के वापस मेरठ लौटने से पहले नीरजा ने सब के सामने उस से कहा, ‘‘मैं शादी को ले कर अपनी पक्की हां या ना आप को 2 दिन के अंदर जरूर बता दूंगी.’’

नीरजा की इस घोषणा के बाद सभी रवि की तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे. उस के गुस्से से डर कर कोई कुछ कह तो नहीं रहा था, पर उन सब की खामोशी भी रवि के ऊपर नीरजा से शादी के लिए हां कहने को जबरदस्त दबाव बना रही थी.

नीरजा की आशा के विपरीत रवि ने शादी को ले कर कोई बात नहीं की. वह तो अपने घर से सुबह से देर रात तक के लिए 2 दिन ऐसा गायब रहा कि उन दोनों की अगली मुलाकात उस की जन्मदिन पार्टी में ही हुई.

पार्टी में शामिल होने के लिए जैसे ही रवि ने ड्राइंगरूम में कदम रखा, तो उस से बेहद खफा नजर आ रही नीरजा ने ऊंची आवाज में सब को संबोधित किया, ‘‘अपने मातापिता की खुशी की खातिर मैं ने विकास से शादी करने का फैसला…’’

रवि ने ऊंची आवाज में टोक कर उसे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया, ‘‘नीरजा, तुम उस घमंडी इंसान के साथ कभी खुश नहीं रह सकोगी.’’

‘‘तो आप क्यों परेशान हो रहे हैं,’’ गुस्सा करना भूल कर नीरजा एकदम से रोंआसी हो उठी.

कविता ने भी चुभते लहजे में अपने देवर को डांटा, ‘‘यह बिलकुल ठीक कह रही है. तुम्हारे प्रेम में पागल इस प्यारी सी… इस भोली सी…इस सुंदर सी लड़की के सुखदुख की तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम तो जिंदगीभर अपनी मृत महबूबा को नाराज न करने की फिक्र ही करते रहना.’’

‘‘अब बस भी करो, भाभी. आप सब लोगों के ताने सुनसुन कर मैं इतना तंग आ गया हूं कि मैं ने…मुझे नीरजा से शादी करना मंजूर है,’’ रवि की इस घोषणा को सुन नीरजा के अलावा वहां उपस्थित हर इंसान तालियां बजा उठा.

सब की नजरों का केंद्र बन गई नीरजा ने उदास लहजे में अपने मन की बात कही, ‘‘शादी के मामले में मुझे इन की दया या एहसान नहीं चाहिए. ऐसी शादी करने का क्या फायदा कि इन के सामने मैं रहूं, पर ये मानवी के विचारों में खोए रहें?’’

‘‘पहले तुम ही शादी करने को मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई थी, तो अब क्यों इनकार कर रही हो?’’ रवि ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मुझे लगता है कि मेरे साथ शादी करने का फैसला आप ने खुश हो कर नहीं किया है.’’

‘‘मेरे मन में क्या है, अब यह भी तुम बताओगी?’’

‘‘मुझे ही क्या, यह तो सब को पता है कि आप के दिलोदिमाग पर मानवी का कब्जा है.’’

‘‘तो तुम्हारे साथसाथ और सब भी कान खोल कर सुन लो कि मानवी ने ही मुझे तुम से शादी करने की इजाजत दी है,’’ रवि ने अपना पर्स खोल कर सब को दिखाया.

पर्स में अब तक मानवी का फोटो सभी ने लगा देखा था, पर इस वक्त वहां नीरजा की तसवीर लगी नजर आई.

एकाएक बेहद भावुक हो कर रवि नीरजा से बोला, ‘‘मानवी ने ही कल रात मुझे देर तक समझाया कि अब से तुम मेरे सुखदुख का खयाल रखोगी. कल रात के बाद से मैं आंखें बंद करता हूं, तो उस की जगह अब मुझे तुम नजर आती हो. मुझ से शादी न कर के क्या तुम मानवी को कष्ट पहुंचाना चाहोगी?’’

‘‘मैं भला ऐसा गलत काम क्यों करूंगी? हमारी शादी जरूर होगी,’’ नीरजा किसी छोटी बच्ची की तरह खुशी से तालियां बजाती उछली और फिर शरमाते हुए रवि की छाती से जा लगी. Short Story In Hindi

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