लेखक- प्रो. अलखदेव प्रसाद अचल

सूरज बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी मन लगाता था, पर जिस महल्ले में वह रह रहा था, वहां का माहौल काफी खराब था. ज्यादातर बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं जाते थे. जो जाते भी थे वे या तो मिड डे मील के चक्कर में जाते थे या फिर मुफ्त में मिलने वाली स्कूल पोशाक के लालच में.

महल्ले के लोग यही सम झते थे कि पढ़नेलिखने का काम बाबुओं का है. वैसे भी पढ़नेलिखने से कुछ नहीं होता. किस्मत में जो होता है वही होता है. यही सोच उस तबके के लोगों को तरक्की की सीढ़ी पर ऊपर बढ़ने नहीं दे रही थी.

उन लोगों के बीच सूरज हकीकत में सूरज की तरह चमकता दिखाई दे रहा था. वह गांव के लड़कों के साथ खेलकूद करने के बजाय पढ़ाई करता और उस के बाद जो समय बचता, उस में अपने मांबाप के साथ दूसरे जरूरी कामों में लगा रहता था. यह देख कर गांव के बच्चे उस पर तरहतरह की फब्तियां भी कसते रहते थे, पर सूरज इस की परवाह नहीं करता था.

सूरज का बाप रामदहिन जिन मालिकों के यहां मजदूरी करता था, उसे मालिक यही नसीहत देता, ‘तुम बेकार ही अपने बेटे पर पैसे बरबाद कर रहे हो. अगर तुम्हारे साथ वह भी कमाता, तो तुम्हारी आमदनी दोगुनी हो जाती और घर में ज्यादा खुशहाली आ जाती.’

पर रामदहिन अपने मालिक की बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देता था. उसे लगता कि हम लोग तो जिंदगीभर अंगूठाछाप ही रह गए. चलो, जब बेटा अच्छा निकला है, तो उसे पढ़ा ही देते हैं.

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