
रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.
‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’
‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’
‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’
‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’
‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.
देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.
‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’
‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’
‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.
‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’
‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’
‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों
इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’
‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’
‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’
‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.
‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.
जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें.
कहते हैं इंसान को जब किसी से प्यार होता है तो जिंदगी बदल जाती है. खयालों का मौसम आबाद हो जाता है और दिल का साम्राज्य कोई लुटेरा लूट कर ले जाता है.
प्यार के सुनहरे धागों से जकड़ा इंसान कुछ भी करने की हालत में नहीं होता सिवाए अपने दिलबर की यादों में गुम रहने के. कुछ ऐसा ही होने लगा था मेरे साथ भी. हालांकि मैं सिर्फ अपने एहसासों के बारे में जानती थी.
इत्सिंग क्या सोचता है इस बारे में मुझे जानकारी नहीं थी. इत्सिंग से परिचय हुए ज्यादा दिन भी तो नहीं हुए थे. 3 माह कोई लंबा वक्त नहीं होता.
मैं कैसे भूल सकती हूं 2009 के उस दिसंबर महीने को जब दिल्ली की ठंड ने मुझे रजाई में दुबके रहने को विवश किया हुआ था. कभी बिस्तर पर, कभी रजाई के अंदर तो कभी बाहर अपने लैपटौप पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना मेरा मनपसंद काम था.
हाल ही में मैं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से चाइनीज लैंग्वेज में ग्रैजुएशन कंप्लीट किया था.
आप सोचेंगे मैं ने चाइनीज भाषा ही क्यों चुनी? दरअसल, यह दुनिया की सब से कठिन भाषा मानी जाती है और इसी वजह से यह पिक्टोग्राफिक भाषा मुझे काफी रोचक लगी. इसलिए मैं ने इसे चुना. मैं कुछ चीनी लोगों से बातचीत कर इस भाषा में महारत हासिल करना चाहती थी ताकि मुझे इस के आधार पर कोई अच्छी नौकरी मिल सके.
मैं ने इंटरनैट पर लोगों से संपर्क साधने का प्रयास किया तो मेरे आगे इत्सिंग का प्रोफाइल खुला. वह बीजिंग की किसी माइन कंपनी में नौकरी करता था और खाली समय में इंटरनैट सर्फिंग किया करता.
मैं ने उस के बारे में पढ़ना शुरू किया तो कई रोचक बातें पता चलीं. वह काफी शर्मीला इंसान था. उसे लौंग ड्राइव पर जाना और पेड़पौधों से बातें करना पसंद था. उस की हौबी पैंटिंग और सर्फिंग थी. वह जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहता था जो दुनिया में हमेशा के लिए रह जाए. यह सब पढ़ कर मुझे उस से बात करने की इच्छा जगी. वैसे भी मुझे चाइनीस लैंग्वेज के अभ्यास के लिए उस की जरूरत थी.
काफी सोचविचार कर मैं ने उस से बातचीत की शुरुआत करते हुए लिखा, “हैलो इत्सिंग.”
हैलो का जवाब हैलो में दे कर वह गायब हो गया. मुझे कुछकुछ अजीब सा लगा लेकिन मैं ने उस का पीछा नहीं छोड़ा और फिर से लिखा,” कैन आई टौक टू यू?”
उस का एक शब्द का जवाब आया, “यस”
“आई लाइक्ड योर प्रोफाइल,” कह कर मैं ने बात आगे बढ़ाई.
“थैंक्स,” कह कर वह फिर खामोश हो गया.
उस ने मुझ से मेरा परिचय भी नहीं पूछा. फिर भी मैं ने उसे अपना नाम बताते हुए लिखा,” माय सैल्फ रिद्धिमा फ्रौम दिल्ली. आई हैव डन माई ग्रैजुएशन इन चाइनीज लैंग्वेज. आई नीड योर हैल्प टू इंप्रूव इट. विल यू प्लीज टीच मी चाइनीज लैंग्वेज?”
इस का जवाब भी इत्सिंग ने बहुत संक्षेप में दिया,” ओके बट व्हाई मी? यू कैन टौक टू ऐनी अदर पीपल आलसो.”
“बिकौज आई लाइक योर थिंकिंग. यू आर वेरी डिफरैंट. प्लीज हैल्प मी.”
“ओके,” कह कर वह खामोश हो गया पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. उस से बातें करना जारी रखा. धीरेधीरे वह भी मुझ से बातें करने लगा. शुरुआत में काफी दिन हम चाइनीज लैंग्वेज में नहीं बल्कि इंग्लिश में ही चैटिंग करते रहे. बाद में उस ने मुझे चाइनीज सिखानी भी शुरू की. पहले हम ईमेल के द्वारा संवाद स्थापित करते थे. पर अब तक व्हाट्सएप आ गया था सो हम व्हाट्सएप पर चैटिंग करने लगे.
व्हाट्सएप पर बातें करतेकरते हम एकदूसरे के बारे में काफी कुछ जाननेसमझने लगे. मुझे इत्सिंग का सीधासाधा स्वभाव और ईमानदार रवैया बहुत पसंद आ रहा था. उस की सोच बिलकुल मेरे जैसी थी. वह भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. शोशेबाजी से से दूर रहता और महिलाओं का सम्मान करता. उसे भी मेरी तरह फ्लर्टिंग और बटरिंग पसंद नहीं थी.
आज हमें बातें करतेकरते 3-4 महीने से ज्यादा समय गुजर चुका था. इतने कम समय में ही मुझे उस की आदत सी हो गई थी. वह मेरी भाषा नहीं जानता था पर मुझे बहुत अच्छी तरह समझने लगा था. उस की बातों से लगता जैसे वह भी मुझे पसंद करने लगा है. मैं इस बारे में अभी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी. पर मेरा दिल उसे अपनाने की वकालत कर चुका था. मैं उस के खयालों में खोई रहने लगी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करूं या नहीं.
एक दिन मेरी एक सहेली मुझ से मिलने आई. उस वक्त मैं इत्सिंग के बारे में ही सोच रही थी. सहेली के पूछने पर मैं ने उसे सब कुछ सचसच बता दिया.
वह चौंक पड़ी,”तुझे चाइनीज लड़के से प्यार हो गया? जानती भी है कितनी मुश्किलें आएंगी? इंडियन लड़की और चाइनीज लड़का…. पता है न उन का कल्चर कितना अलग होता है? रहने का तरीका, खानापीना, वेशभूषा सब अलग.”
“तो क्या हुआ? मैं उन का कल्चर स्वीकार कर लूंगी.”
“और तुम्हारे बच्चे? वे क्या कहलाएंगे इंडियन या चाइनीज?”
“वे इंसान कहलाएंगे और हम उन्हें इंडियन कल्चर के साथसाथ चाइनीज कल्चर भी सिखाएंगे.”
मेरा विश्वास देख कर मेरी सहेली भी मुसकरा पड़ी और बोली,” यदि ऐसा है तो एक बार उस से दिल की बात कह कर देख.”
मुझे सहेली की बात उचित लगी. अगले ही दिन मैं ने इत्सिंग को एक मैसेज भेजा जिस का मजमून कुछ इस प्रकार था,”इत्सिंग क्यों न हम एक ऐसा प्यारा सा घर बनाएं जिस में खेलने वाले बच्चे थोड़े इंडियन हों तो थोड़े चाइनीज.”
“यह क्या कह रही हैं आप रिद्धिमा? यह घर कहां होगा इंडिया में या चाइना में?” इत्सिंग ने भोलेपन से पूछा तो मैं हंस पड़ी,”घर कहीं भी हो पर होगा हम दोनों का. बच्चे भी हम दोनों के ही होंगे. हम उन्हें दोनों कल्चर सिखाएंगे. कितना अच्छा लगेगा न इत्सिंग.”
मेरी बात सुन कर वह अचकचा गया था. उसे बात समझ में आ गई थी पर फिर भी क्लियर करना चाहता था.
“मतलब क्या है तुम्हारा? आई मीन क्या सचमुच?”
“हां इत्सिंग, सचमुच मैं तुम से प्यार करने लगी हूं. आई लव यू.”
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आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.
पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’
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‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.
‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’
‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.
पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.
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कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.
मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.
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बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.
तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.
इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,
इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए.
जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,
भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,
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भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर,
पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो,
आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.
अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.
रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’
बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.
‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.
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कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.
बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.
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बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.
‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’
‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’
‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.
मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए. परंतु मैं जानती थी, निश्चितरूप से वह प्रेम पूर्णरूप से किसी एक को ही करती है. दूसरे से महज दोस्ती है. वह नहीं जानती कि वह किसे चाहती है, परंतु निश्चित ही किसी एक का ही पलड़ा भारी होगा. वह किस का है, मुझे यही देखना था.
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रात में बिट्टी पढ़तेपढ़ते सो गई तो उसे चादर ओढ़ा कर मैं भी बगल के बिस्तर पर लेट गई. योगेश 2 दिनों से बाहर गए हुए थे. बिट्टी उन की भी बेटी थी, लेकिन मैं जानती थी, यदि वे यहां होते, तो भी बिट्टी के भविष्य से ज्यादा अपने व्यापार को ले कर ही चिंतित होते. कभीकभी मैं समझ नहीं पाती कि उन्हें बेटी या पत्नी से ज्यादा काम क्यों प्यारा है. बिस्तर पर लेट कर रोजाना की तरह मैं ने कुछ पढ़ना चाहा, परंतु एक भी शब्द पल्ले न पड़ा. घूमफिर कर दिमाग पीछे की तरफ दौड़ने लगता. मैं हर बार उसे खींच कर बाहर लाती और वह हर बार बेशर्मों की तरह मुझे अतीत की तरफ खींच लेता. अपने अतीत के अध्याय को तो मैं जाने कब का बंद कर चुकी थी, परंतु बिट्टी के मासूम चेहरे को देखते हुए मैं अपने को अतीत में जाने से न रोक सकी…
जब मैं भी बिट्टी की उम्र की थी, तब मुझे भी यह रोग हो गया था. हां, तब वह रोग ही था. विशेषरूप से हमारे परिवार में तो प्रेम कैंसर से कम खतरनाक नहीं था. तब न तो मेरी मां इतनी सहिष्णु थीं, जो मेरा फैसला मेरे हक में सुना देतीं, न ही पिता इतने उदासीन थे कि मेरी पसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही होता. तब घर की देहरी पर ज्यादा देर खड़ा होना बूआ या दादी की नजरों में बहुत बड़ा गुनाह मान लिया जाता था. किसी लड़के से बात करना तो दूर, किसी लड़की के घर भी भाई को ले कर जाना पड़ता, चाहे भाई छोटा ही क्यों न हो. हजारों बंदिशें थीं, परंतु जवानी कहां किसी के बांधे बंधी है. मेरा अल्हड़ मन आखिर प्रेम से पीडि़त हो ही गया. मैं बड़ी मां के घर गई हुई थी. सुमंत से वहीं मुलाकात हुई थी और मेरा मन प्रेम की पुकार कर बैठा. परंतु बचपन से मिले संस्कारों ने मेरे होंठों का साथ नहीं दिया. सुमंत के प्रणय निवेदन को मां और परिवार के अन्य लोगों ने निष्ठुरता से ठुकरा दिया.
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फिर 1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो था तो छोटा सा व्यापारी, पर जिस का ध्येय भविष्य में बड़ा आदमी बनने का था. इस के लिए मेरे पति ने व्यापार में हर रास्ता अपनाया. मेरी गोद में बिट्टी को डाल कर वे आश्वस्त हो दिनरात व्यापार की उन्नति के सपने देखते. प्रेम से पराजित मेरा तप्त हृदय पति के प्यार और समर्पण का भूखा था. उन के निस्वार्थ स्पर्श से शायद मैं पहले प्रेम को भूल कर उन की सच्ची सहचरी बनती, पर व्यापार के बीच मेरा बोलना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. मुझे याद नहीं, व्यापारिक पार्टी के अलावा वे मुझे कभी कहीं अपने साथ ले गए हों.
लेकिन घर और बिट्टी के बारे में सारे फैसले मेरे होते. उन्हें इस के लिए अवकाश ही न था. बिट्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी से मेरे अतीत की पुस्तक फड़फड़ाती रही. अतीत का अध्याय सारी रात चलता रहा, क्योंकि उस के समाप्त होने तक पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था… दूसरे दिन से मैं बिट्टी के विषय में चौकन्नी हो गई. प्रभाकर का फोन आते ही मैं सतर्क हो जाती. बिट्टी का उस से बात करने का ढंग व चहकना देखती. घंटी की आवाज सुनते ही उस का भागना देखती.
एक दिन सुरेश ने कहा, ‘चाचीजी, देखिएगा, एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा में आ कर रहूंगा, मां का एक बड़ा सपना पूरा होगा. मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, बहुत आगे,’ उस के ये वाक्य मेरे लिए नए नहीं थे, परंतु अब मैं उन्हें भी तोलने लगी.
प्रभाकर से बिट्टी की मुलाकात उस के एक मित्र की शादी में हुई थी. उस दिन पहली बार बिट्टी जिद कर के मुझ से साड़ी बंधवा कर गईर् थी और बालों में वेणी लगाई थी. उस दिन सुरेश साक्षात्कार देने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था. बिट्टी अपनी एक मित्र के साथ थी और उसी के साथ वापस भी आना था. मैं सोच रही थी कि सुरेश होता तो उसे भेज कर बिट्टी को बुलवा सकती थी. उस के आने में काफी देर हो गई थी. मैं बेहद घबरा गई. फोन मिलाया तो घंटी बजती रही, किसी ने उठाया ही नहीं.
लेकिन शीघ्र ही फोन आ गया था कि बिट्टी रात को वहीं रुक जाएगी. दूसरे दिन जब बिट्टी लौटी तो उदास सी थी. मैं ने सोचा, सहेली से बिछुड़ने का दर्द होगा. 2 दिन वह शांत रही, फिर मुझे बताया, ‘मां, वहां मुझे प्रभाकर मिला था.’
‘वह कौन है?’ मैं ने प्रश्न किया. ‘मीता के भाई का दोस्त, फोटो खींच रहा था, मेरे भी बहुत सारे फोटो खींचे.’
‘क्यों?’ ‘मां, वह कहता था कि मैं उसे अच्छी लग रही हूं.’
‘तुम ने उसे पास आने का अवसर दिया होगा?’ मैं ने उसे गहराई से देखा. ‘नहीं, हम लोग डांस कर रहे थे, तभी बीच में वह आया और मुझे ऐसा कह कर चला गया.’
मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.
फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.
धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.
सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.
बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.
‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.
जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.
सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’
प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.
मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था.
—जगदीश प्रसाद शर्मा ‘देशप्रेमी’
29 दिसंबर, 2021 की रात को देहरादून के थाना नेहरू कालोनी के थानाप्रभारी प्रदीप चौहान इलाके में गश्त लगा रहे थे. तभी उन्हें वायरलेस से पुलिस कंट्रोल रूम द्वारा डिफेंस कालोनी से सटे फ्रैंड्स एनक्लेव में एक महिला के आत्महत्या करने की सूचना मिली.
सूचना मिलते ही थानाप्रभारी थाने से सिपाही देवेंद्र और विजय को साथ ले कर फ्रैंड्स कालोनी जाने के लिए निकल पड़े.
इस की जानकारी चौहान ने सीओ अनिल जोशी और एसपी (सिटी) सरिता डोवाल व एसएसपी जन्मेजय खंडूरी को भी दे दी थी. साथ ही चौहान ने डिफेंस कालोनी पुलिस चौकीप्रभारी चिंतामणि मैठाणी को भी घटनास्थल पर जल्दी पहुंचने को कह दिया.
मात्र 10 मिनट में ही थानाप्रभारी घटनास्थल पर पहुंच गए. वहां जमा भीड़ को हटा कर पुलिस सूचना में बताए गए मकान के भीतर पहुंची तो वहां करीब 32 वर्षीया एक महिला बिछावन पर मृत पड़ी थी. उस का गला धारदार हथियार से रेता हुआ था.
उस शव के पास ही एक चाकू और कपड़े इस्तरी करने की आइरन का तार पड़ा हुआ था. शव के पास ही करीब एक साल का बच्चा लेटा था. जबकि उसी कमरे के कोने में एक 7 वर्षीय लड़की डरीसहमी सी खड़ी थी.
मौके की जांचपड़ताल के बाद थानाप्रभारी ने पाया कि शायद महिला की गला काट कर हत्या की गई है.वहां मौजूद आसपास के लोगों से पूछताछ करने पर मृतका का नाम श्वेता श्रीवास्तव मालूम हुआ. उस का पति सौरभ श्रीवास्तव घर पर नहीं मिला. पड़ोसियों ने बताया कि वे इस मकान में काफी समय से रह रहे थे. घटना के बाद सौरभ श्रीवास्तव अपनी स्कूटी ले कर कहीं चला गया था.
शव और घटना की जानकारी जुटाए जाने के दरम्यान सीओ अनिल जोशी और एसपी (सिटी) सरिता डोवाल भी वहां पहुंच गईं. पुलिस ने श्वेता की मौत की सूचना उन की बेटी के मोबाइल से उस के मायके वालों को दे दी.
फिर मौके की काररवाई पूरी कर शव पोस्टमार्टम के लिए दून अस्पताल भेज दिया. बच्चों को पड़ोसियों ने संभाल लिया. श्वेता की मौत की खबर पा कर उस के पिता अजय कुमार श्रीवास्तव भागेभागे कुशीनगर से देहरादून आ गए.
अगले दिन ही अजय कुमार ने थाने पहुंच कर थानाप्रभारी से अपनी बेटी श्वेता के संबंध में जानकारी ली. पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार श्वेता की गला काट कर हत्या हुई थी. थानाप्रभारी ने जब उन से किसी पर शक करने के बारे में पूछा तो अजय ने साफ कह दिया कि उन की बेटी का हत्यारा कोई और नहीं बल्कि उन का दामाद सौरभ श्रीवास्तव ही है.
उस के बाद अजय श्रीवास्तव ने अपने दामाद सौरभ श्रीवास्तव के खिलाफ अपनी बेटी श्वेता की हत्या करने की तहरीर थानाप्रभारी को दे दी. अजय कुमार की तहरीर पर सौरभ श्रीवास्तव के खिलाफ श्वेता श्रीवास्तव की हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया.
इस हत्याकांड की जांच डिफेंस कालोनी चौकीप्रभारी चिंतामणि मैठाणी को सौंपी गई थी. हत्या का आरोपी सौरभ फरार हो गया था. उस की तलाश के लिए मुखबिर लगा दिए गए थे.
अजय श्रीवास्तव ने स्थानीय लोगों की मदद से श्वेता के शव का अंतिम संस्कार देहरादून के ही श्मशान घाट में कर दिया था.
उस के 3 दिन बाद नेहरू कालोनी पुलिस को श्वेता की पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिल गई थी. रिपोर्ट में श्वेता की मौत का कारण गला काटना बताया गया था. उस के बाद तो पुलिस के सामने सौरभ को गिरफ्तार करना बड़ी चुनौती बन गई थी.
उस की खोजबीन और पकड़ के लिए एसएसपी जन्मेजय खंडूरी ने एसओजी टीम को भी लगा दिया. नए सिरे से पुलिस की 2 टीमों का गठन किया गया था.
बात 31 जनवरी, 2022 की है. शाम का अंधेरा घिर चुका था. एसओजी टीम को मुखबिर के द्वारा एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिली. उस सूचना के आधार पर एसओजी टीम थानाप्रभारी प्रदीप चौहान के साथ डिफेंस कालोनी की एक सुनसान जगह पर पहुंच गई.
वहां पर सड़क के किनारे एक बड़े पत्थर पर एक युवक खोयाखोया सा बैठा था. मुखबिर के इशारे पर पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया. हिरासत में लेते ही वह युवक बोला, ‘‘अरे, मुझे क्यों पकड़ रहे हो? मैं ने क्या किया है?’’
‘‘तुम से कुछ पूछताछ करनी है, इसलिए चुपचाप थाने चलो,’’ थानाप्रभारी ने कहा.
‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ थाने पहुंचने पर थानाप्रभारी ने उस से पूछा. वह युवक चुप रहा.
‘‘जल्दी बताओ,’ उस के कुछ नहीं बोलने पर थानाप्रभारी ने डपट दिया.
‘‘जी…जी, सौरभ श्रीवास्तव.’’
‘‘पिता का नाम?’’
‘‘शंभूलाल श्रीवास्तव.’’
‘‘पूरा पता बताओ,’’ चौहान बोले.
‘‘कुशीनगर जिले का रहने वाला हूं. देहरादून में फ्रैंड्स एनक्लेव में रहता हूं.’’
‘‘इसे तुम पहचानते हो?’’ यह कहते हुए चौहान ने अपने मोबाइल की एक तसवीर उस के सामने कर दी. तसवीर देख कर सौरभ चुप लगा गया.
‘‘जवाब दो, हां या नहीं?’’
‘‘जी, पहचानता हूं. यह मेरी पत्नी श्वेता है.’’
‘‘वह अभी कहां है?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम?’’ सौरभ बोला.
‘‘नहीं मालूम मतलब? कई दिनों से तुम कहां थे?’’
‘‘कंपनी के काम के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था,’’ सौरभ ने बताया. उन दिनों में पत्नी और परिवार की तुम ने कोई खोजखबर क्यों नहीं ली?’’ उन्होंने पूछा.
‘‘जी, मेरा मोबाइल दिल्ली जाते समय खो गया था.’’
‘‘इसे देखो,’’ चौहान ने दूसरी तसवीर उस के सामने कर दी. तसवीर देख कर उस के मुंह से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी. सर्दी में भी उस के चेहरे पर पसीना आ गया था. उस ने सिर झुका लिया और फफकफफक कर रोने लगा.
दरअसल, वह तसवीर भी उस की पत्नी श्वेता की ही थी, लेकिन तसवीर में वह मृत थी. सौरभ को रोता देख कर एक पुलिसकर्मी ने पानी का गिलास ला कर उस के सामने रख दिया. सौरभ एक सांस में पूरा पानी गटागट पी लिया.
सौरभ थाने में अपनी पत्नी की लाश के फोटो देख कर हिल गया था. उस से श्वेता की हत्या की बाबत विस्तार से पूछताछ होने लगी. वह एक माह तक खुद को बचातेबचाते शरीर और दिमाग से काफी थक गया था. टूट चुके सौरभ ने पुलिस को पत्नी की हत्या के बारे में जो कुछ बताया, वह इस प्रकार था—
उत्तर प्रदेश में जिला कुशीनगर के पिटेरवा कस्बे के रहने वाले अजय कुमार श्रीवास्तव ने अपनी बेटी श्वेता श्रीवास्तव की शादी साल 2014 में हरिद्वार निवासी सौरभ श्रीवास्तव के साथ की थी.
श्वेता 6 माह ससुराल में रहने के बाद अपने पति के साथ देहरादून आ गई थी. ग्रैजुएट सौरभ को सरकारी नौकरी भले ही नहीं मिली थी, लेकिन वह सीएसडी कंपनी में मार्केटिंग के काम से संतुष्ट था.
उस की इतनी कमाई हो जाती थी कि वह पत्नी के शौक पूरे कर सके. उस की पसंद के कपड़े दिलवा सके. साथसाथ घूमनेफिरने जा जा सके, रेस्टोरेंट में डिनर कर सके, या फिर कीमती सामानों में एंड्रायड फोन या ज्वैलरी आदि की खरीदारी करने में नानुकुर नहीं करे. सौरभ की कोशिश रहती थी कि वह पत्नी की ख्वाहिश हरसंभव पूरी करता रहे.
दोनों की जिंदगी हंसीखुशी से गुजरने लगी थी. समय का पहिया भी अपनी गति से घूम रहा था. खुशहाल जीवन बिताते हुए श्वेता 2 बच्चों की मां बन गई थी. पहली संतान बेटी और उस के बाद बेटे के जन्म के बाद सौरभ ने पत्नी से परिवार पूरा होने की बात कही थी. पत्नी ने भी संतोष जताया था.
इसी के साथ सौरभ अपने छोटे से परिवार को हमेशा खुश रखने की कोशिश में रहने लगा था. अपने बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए सौरभ और मेहनत करने लगा था, ताकि पत्नी की कोई फरमाइश अधूरी न रह जाए.
यह कहा जा सकता है कि सौरभ और श्वेता के दांपत्य जीवन की गाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ रही थी. इस में खलल तब पड़ गई, जब 2 साल पहले कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ा और लौकडाउन से अचानक कई विकट परिस्थितियां पैदा हो गईं.
सौरभ का कामधंधा भी प्रभावित हो गया. आमदनी धीरेधीरे कम होने लगी. इस के विपरीत श्वेता ने घरेलू खर्च, अपनी फरमाइशों और शौक में कोई कमी नहीं आने दी.
शुरुआत में तो कुछ महीने तक सौरभ जमापूंजी काम में लाता रहा, किंतु जैसेजैसे लौकडाउन की तारीखें बढ़ती चली गईं, वैसेवैसे उस की हालत बिगड़ने लगी. नौबत कर्ज ले कर घर खर्च पूरे करने की आ गई.
कुछ महीने बाद लौकडाउन में ढील मिली, लेकिन उस का काम पहले की तरह रफ्तार नहीं पकड़ पाया. इस के विपरीत श्वेता के फरमाइशों की लिस्ट बढ़ती रही. एक दिन सौरभ के काम से घर लौटते ही उस ने टोका, ‘‘तुम्हें कुछ याद है?’’
‘‘क्या याद नहीं है? मैं कुछ समझा नहीं.’’ सौरभ बोला.
‘‘मैं जानती हूं, तुम जानबूझ कर अनजान बन रहे हो,’’ श्वेता ने मुंह बना कर कहा, ‘‘तुम्हें सच में कुछ नहीं पता या कोई और बात है?’’
‘‘अरे, साफसाफ बोलो न, बात क्या है?’’ सौरभ ने पूछा.
इसी बीच उस की बेटी आ कर बोल पड़ी, ‘‘पापापापा, आज मम्मी का बर्थडे है. आप ने सुबह हैप्पी बर्थडे भी नहीं बोला.’’
‘‘अच्छा तो यह बात है. लो, अभी बोल देता हूं,’’ यह कहते हुए सौरभ ने ‘हैप्पी बर्थडे श्वेता डार्लिंग,’ बोल दिया.
‘‘केवल विश करने से नहीं होगा. बर्थडे गिफ्ट लाओ,’’ श्वेता बोली.
‘‘तुम कैसी बात करती हो, तुम्हें मालूम है, इन दिनों मेरा काम पहले की तरह नहीं चल रहा है,’’ सौरभ उदास लहजे में बोला.
‘‘तो मैं क्या करूं?’’ श्वेता ने कहा.
‘‘देखो, मुझे समझने की कोशिश करो. ऐसा तो पहली बार हुआ है, जब मैं तुम्हें बर्थडे गिफ्ट नहीं दे पा रहा हूं. पिछली बार तुम्हारी पसंद का मोबाइल फोन दिया था,’’ सौरभ बोला.
‘‘उस फोन पर तो बेटी का कब्जा हो गया है. उसी से पढ़ाई करती है.’’
‘‘अच्छा चलो, बर्थडे गिफ्ट उधार रहा मुझ पर.’’ सौरभ ने समझाया.
‘‘चलो मैं मान गई, लेकिन कम से कम आज कहीं डिनर पर तो ले चलो,’’ श्वेता बोली.
‘‘फिर वही बात श्वेता, अभी मैं एकएक पैसा जोड़ रहा हूं और तुम खर्च बढ़ाने की बात कर रही हो,’’ सौरभ तुनकते हुए बोला.
‘‘कितना खर्च बढ़ जाएगा? देखो, आज मैं ने घर में कुछ पकाया भी नहीं है. महीनों से घर में पड़ेपड़े बोर होने लगी हूं,’’ श्वेता ने कहा.
‘‘बाहर जाने में कई दिक्कतें हैं. वैसे भी रेस्टोरेंट में बैठ कर खाने पर रोक है.’’
‘‘तब कुछ औनलाइन ही मंगवा लो.’’ श्वेता के बोलते ही दूसरे कमरे से बेटी बोल पड़ी, ‘‘पापापापा, पिज्जा मंगवाना. मैं चीज वाला और्डर सेलेक्ट करूंगी. उस में कोल्डड्रिंक्स फ्री मिलेगा. …और मम्मी, चौकलेट वाला केक भी मंगवाना.’’
सौरभ और श्वेता के बीच बहस जैसी बातचीत औनलाइन और्डर पर आ कर थम गई. उस रोज सौरभ को 1150 रुपए का एक्सट्रा खर्च आ गया. श्वेता का बर्थडे घर पर ही मना लिया गया, किंतु सौरभ इस चिंता में पड़ गया कि वह स्कूटी की किस्त कैसे दे पाएगा.
उस के बाद सौरभ ने खुद को कंपनी के काम में झोंक दिया. काफी मुश्किलों के बाद जरूरी खर्च पूरे करने लगा, लेकिन कर्ज चुका पाने में असमर्थ बना रहा. कभी घर की परेशानी तो कभी काम में आने वाली रुकावटों से जूझता रहा. परिवार की देखभाल की जिम्मेदारी का निर्वाह करतेकरते वह थक सा गया था.
हालांकि वह जितना परेशान अपने काम को ले कर नहीं रहता था, उस से कहीं अधिक श्वेता की बातों को ले कर तनाव में रहता था.
श्वेता की फरमाइशें तो जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कई बार तो अपनी मांगों के लिए बच्चों की तरह जिद पकड़ लेती थी. इस बीच कोरोना का दूसरा फेज भी आया. उस झटके ने उसे और भी झकझोर कर रख दिया. पत्नी की फिजूलखर्ची से वह तंग आ गया था. इस की वजह से वह मकान मालिक को 3 महीने का किराया नहीं दे पाया था, जिस से वह काफी तनाव में रहने लगा था. इस के बाद भी श्वेता ने अपने खर्च कम नहीं किए थे. वह उस से रोज अपने खर्च के लिए पैसे मांगती रहती थी.
इसी दौरान सौरभ की छोटी बहन की शादी 10 फरवरी, 2022 को होनी तय हो गई थी. जब सौरभ ने श्वेता को शादी में चलने के लिए कहा तो वह इस बात पर अड़ गई थी कि वह शादी में तभी जाएगी, जब वह उसे रानीहार खरीद कर देगा.इस पर सौरभ ने उसे काफी समझाया कि शादी में पहले के जो जेवर हैं उन्हीं को पहन ले, लेकिन उस की जिद थी कि नया रानीहार ही चाहिए.
सौरभ की समस्या यह थी कि उसे शादी के लिए और भी दूसरे खर्च करने थे. सभी को नए कपड़े दिलवाने थे. बेटी को अच्छा फ्रौक और सैंडल खरीदने थे. जबकि पत्नी रानीहार की जिद पर अड़ी रही.
29 दिसंबर, 2021 की रात को श्वेता उस से रानीहार दिलाने के लिए बुरी तरह से झगड़ पड़ी. तब तक सौरभ का दिमाग काम करने की स्थिति में नहीं बचा था. पत्नी के व्यवहार से उसे काफी गुस्सा आ गया. बेटी दूसरे कमरे में सो रही थी. तूतूमैंमैं काफी बढ़ गई.
बात बढ़ने पर सौरभ ने पत्नी को गुस्से में उठा कर उसे बिछावन पर पटक दिया. उस के बाद पहले बच्चे की बैल्ट, फिर आइरन के तार से ही उस का गला कस दिया. दम घुटने से श्वेता तड़प उठी. तब सौरभ तुरंत किचन से चाकू लाया और पत्नी का गला रेत डाला. उस की मौत के बाद वह बच्चों को उसी हालत में छोड़ कर स्कूटी से चला गया था.
श्वेता की हत्या के बाद वह देहरादून के ही अलगअलग स्थानों पर छिपता रहा. उस ने पुलिस पर नजर बनाए रखी. जब विधानसभा की ओर से डिफेंस कालोनी की ओर आ रहा था, तब काफी थके होने के कारण सुस्ताने के लिए सड़क किनारे एक बड़े पत्थर पर ओट ले कर बैठ गया था. तभी पुलिस ने मुखबिर की सूचना पर उसे गिरफ्तार कर लिया.
पुलिस ने सौरभ श्रीवास्तव के बयान दर्ज कर के अगले दिन उस का मैडिकल करवाया. उसी दिन उसे अदालत में पेश कर दिया, जहां से वह जेल भेज दिया गया. सौरभ द्वारा श्वेता की हत्या में प्रयुक्त चाकू व आइरन की तार, बेल्ट आदि पहले से ही बरामद हो चुकी थी. कथा लिखे जाने तक सौरभ श्रीवास्तव देहरादून जेल में बंद था. दोनों बच्चों को अजय श्रीवास्तव अपने साथ कुशीनगर ले गए थे.
—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित
प्रशांत को जब अपने मित्र आशीष की बेटी सुधा के साथ हुए हादसे के बारे में पता चला तो एकाएक उसे अपनी भाभी की याद आ गई. जिस तरह शहर में ठीकठाक नौकरी करने वाले मित्र के दामाद ने सुधा को छोड़ दिया था, उसी तरह डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद प्रशांत के ताऊ के बेटे ईश्वर ने भी अपनी पत्नी को छोड़ दिया था. अंतर सिर्फ इतना था कि ईश्वर ने विदाई के तुरंत बाद पत्नी को छोड़ा था, जबकि सुधा को एक बच्चा होने के बाद छोड़ा गया था.
आशीष के दामाद ने उन की भोलीभाली बेटी सुधा को बहलाफुसला कर उस से तलाक के कागजों पर दस्तखत भी करा लिए थे. सुधा के साथ जो हुआ था, वह दुखी करने और चिंता में डालने वाला था, लेकिन इस में राहत देने वाली बात यह थी कि सुधा की सास ने उस का पक्ष ले कर अदालत में बेटे के खिलाफ गुजारेभत्ते का मुकदमा दायर कर दिया था.
अदालत में तारीख पर तारीख पड़ रही थी. हर तारीख पर उस का बेटा आता, लेकिन वह मां से मुंह छिपाता फिरता. कोर्टरूम में वह अपने वकील के पीछे खड़ा होता था.
लगातार तारीखें पड़ते रहने से न्याय मिलने में देर हो रही थी. एक तारीख पर पुकार होने पर सुधा की सास सीधे कानून के कठघरे में जा कर खड़ी हो गई. दोनों ओर के वकील कुछ कहतेसुनते उस के पहले ही उस ने कहा, ‘‘हुजूर, आदेश दें, मैं कुछ कहूं, इस मामले में मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’
अचानक घटी इस घटना से न्याय की कुरसी पर बैठे न्यायाधीश ने कठघरे में खड़ी औरत को चश्मे से ऊपर से ताकते हुए पूछा, ‘‘आप कौन?’’
वकील की आड़ में मुंह छिपाए खडे़ बेटे की ओर इशारा कर के सुधा की सास ने कहा, ‘‘हुजूर मैं इस कुपुत्र की मां हूं.’’
‘‘ठीक है, समय आने पर आप को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा. तब आप को जो कहना हो, कहिएगा.’’ जज ने कहा.
‘‘हुजूर, मुझे जो कहना है, वह मैं आज ही कहूंगी, आप की अदालत में यह क्या हो रहा है.’’ बहू की ओर इशारा करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप इस की ओर देखिए, डेढ़ साल हो गए. इस गरीब बेसहारा औरत को आप की ड्योढ़ी के धक्के खाते हुए. यह अपने मासूम बच्चे को ले कर आप की ड्योढ़ी पर न्याय की आस लिए आती है और निराश हो कर लौट जाती है. दूसरों की छोडि़ए साहब, आप तो न्याय की कुरसी पर बैठे हैं, आप को भी इस निरीह औरत पर दया नहीं आती.’’
न्याय देने वाले न्यायाधीश, अदालत में मौजूद कर्मचारी, वकील और वहां खडे़ अन्य लोग अवाक सुधा की सास का मुंह ताकते रह गए. लेकिन सुधा की सास को जो कहना था. उस ने कह दिया था.
उस ने आगे कहा, ‘‘हुजूर, इस कुपुत्र ने मेरे खून का अपमान किया है. इस के इस कृत्य से मैं बहुत शर्मिंदा हूं. हुजूर, अगर मैं ने कुछ गलत कह दिया हो तो गंवार समझ कर माफ कर दीजिएगा. मूर्ख औरत हूं, पर इतना निवेदन जरूर करूंगी कि इस गरीब औरत पर दया कीजिए और जल्दी से इसे न्याय दे दीजिए, वरना कानून और न्याय से मेरा भरोसा उठ जाएगा.’’
सुधा की सास को गौर से ताकते हुए जज साहब ने कहा, ‘‘आप तो इस लड़के की मां हैं, फिर भी बेटे का पक्ष लेने के बजाए बहू का पक्ष ले रही हैं. आप क्या चाहती हैं इसे गुजारे के लिए कितनी रकम देना उचित होगा?’’
‘‘इस लड़की की उम्र मात्र 24 साल है. इस का बेटा ठीक से पढ़लिख कर जब तक नौकरी करने लायक न हो जाए, तब तक के लिए इस के खर्चे की व्यवस्था करा दीजिए.’’
जज साहब कोई निर्णय लेते. लड़के के वकील ने एक बार फिर तारीख लेने की कोशिश की. पर जज ने उसी दिन सुनवाई पूरी कर फैसले की तारीख दे दी. कोर्ट का फैसला आता, उस के पहले ही आशीष सुधा की सास को समझाबुझा कर विदा कराने के लिए उस की ससुराल जा पहुंचा. मदद के लिए वह अपने मित्र प्रशांत को भी साथ ले गया था कि शायद उसी के कहने से सुधा की सास मान जाए.
उन के घर पहुंचने पर सुधा की सास ने उन का हालचाल पूछ कर कहा, ‘‘आप लोग किसलिए आए हैं, मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मुझे पता है कि आप लोग सुधा को ले जाने आए हैं. मुझे इस बात का अफसोस है कि मेरे समधी और समधिन को मेरे ऊपर भरोसा नहीं है. शायद इसीलिए बिटिया को ले जाने के लिए दोनों इतना परेशान हैं.’’
‘‘ऐसी बात नहीं हैं समधिन जी. आप के उपकार के बोझ से मैं और ज्यादा नहीं दबना चाहता. आप ने जो भलमनसाहत दिखाई है वह एक मिसाल है. इस के लिए मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’ आशीष ने कहा.
सुधा की सास कुछ कहती. उस के पहले ही प्रशांत ने कहा, ‘‘दरअसल यह नहीं चाहते कि इन की वजह से मांबेटे में दुश्मनी हो. इन की बेटी ने तलाक के कागजों पर दस्तखत कर दिए हैं. उस हिसाब से देखा जाए तो अब उसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. सुधा इन की एकलौती बेटी है.’’
‘‘मैं सब समझती हूं. मेरे पास जो जमीन है उस में से आधी जमीन मैं सुधा के नाम कर दूंगी. जब तक मैं जिंदा हूं, अपने उस नालायक आवारा बेटे को इस घर में कदम नहीं रखने दूंगी. सुधा अगर आप लोगों के साथ जाना चाहती है तो मैं मना भी नहीं करूंगी.’’ इस के बाद उस ने सुधा की ओर मुंह कर के कहा, ‘‘बताओ सुधा, तुम क्या चाहती हो.’’
‘‘चाचाजी, आप ही बताइए, मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली अपनी इन सास को छोड़ कर मैं आप लोगों के साथ कैसे चल सकती हूं.’’ सुधा ने कहा.
सुधा के इस जवाब से प्रशांत और आशीष असमंजस में पड़ गए. प्रशांत ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली सास को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिए कैसे कह सकता हूं.’’
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—मुकेश तिवारी/पंकज द्विवेदी
गुरुवार 10 फरवरी, 2022 का दिन ढल चुका था. शाम के यही कोई 6 बजे का वक्त था. मध्य प्रदेश के जिला भिंड के सिटी कोतवाली स्थित थाने के ड्यूटी अफसर थाने पहुंचे ही थे कि एक युवक बदहवास हालत में थाना परिसर में दाखिल हुआ. उस के बाल बिखरे हुए थे. कपड़ों पर भी खून के ताजा दाग लगे हुए थे.
पहरा ड्यूटी पर मुस्तैदी के साथ तैनात संतरी ने उसे रोकने की भरसक कोशिश की, लेकिन वह सीधे ड्यूटी अफसर के सामने जा खड़ा हुआ और फिर हाथ जोड़ कर नमस्कार कर अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘सर, मेरा नाम रितेश शाक्य है. मैं भिंड जिला अस्पताल में वार्डबौय के पद पर नौकरी करता हूं और गांधीनगर में अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रहता हूं.
कुछ देर पहले मैं ने स्टाफ नर्स के पद पर काम करने वाली अपनी प्रेमिका नेहा की गोली मार कर हत्या कर दी है. उस की लाश नवीन आईसीयू वार्ड के स्टोर रूम में पड़ी हुई है. सर, क्योंकि मैं ने अपनी प्रेमिका की हत्या कर के बड़ा अपराध किया है, अत: मुझे गिरफ्तार कर लीजिए.
युवक की बातें सुन कर ड्यूटी पर तैनात सुरजीत तोमर सन्न रह गए. वह आंखें फाड़े उस युवक को देखने लगे कि कहीं यह नशेड़ी या सनकी तो नहीं है जो इस तरह की बात कर रहा है.
हालांकि थाने में आ कर कोई इस तरह का मजाक करने का साहस तो नहीं कर सकता, इसलिए जब उन्होंने उस युवक को गौर से देखा तो मासूम सा दिखने वाला वह युवक काफी संजीदा लगा. इस का मतलब साफ था कि वह जो कुछ कह रहा है, सच है.
तोमर ने इस बात की जानकारी कार्यवाहक थानाप्रभारी सुरजीत यादव को दी तो उन्होंने तुरंत उस युवक को हिरासत में लेने के निर्देश दिए. तोमर ने तुरंत युवक को हिरासत में ले लिया. थानाप्रभारी उस समय क्षेत्र में थे. सूचना पा कर वह तुरंत थाने पहुंच गए.
सुरजीत यादव ने आरोपी रितेश से पूछताछ करने के बाद अस्पताल परिसर में स्थित पुलिस चौकी पर तैनात कांस्टेबल नागेंद्र राजावत से बात की तो उन्होंने भी घटना की पुष्टि कर दी.
साथ ही यह भी बताया कि घटना के विरोध में अस्पताल की नर्सें और अन्य कर्मचारी अस्पताल में धरने पर बैठ गए हैं. धरने को ले कर लोगों में काफी आक्रोश है.
थानाप्रभारी ने यह जानकारी एसपी शैलेंद्र सिंह को दी. इस के बाद एसपी के आदेश पर जिले के कई थानों की पुलिस जिला अस्पताल पहुंच गई. पुलिस ने सब से पहले अस्पताल के स्टोर रूम में पहुंच कर स्टाफ नर्स नेहा की लाश अपने कब्जे में ली. वह वहां खून से लथपथ पड़ी थी.
उस की कनपटी के बाईं ओर गोली मारी गई थी. वह सलवारसूट के ऊपर सफेद रंग का एप्रिन पहने हुए थी, जो खून से भीगा हुआ था.
घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण करने के बाद वहां मौजूद नर्सों से पूछताछ करने पर यह मालूम हुआ कि मृतका आज ड्यूटी खत्म होने के बाद छुट्टी की एप्लीकेशन दे कर एक सप्ताह के लिए अपने मातापिता के पास अपना जन्मदिन मनाने के लिए मंडला जाने वाली थी. इस से पहले कि नेहा अवकाश पर मंडला के लिए रवाना हो पाती, यह घटना घट गई.
नेहा का जन्मदिन 14 फरवरी, 2022 को उस के गृहनगर मंडला में धूमधाम से मनाया जाने वाला था. स्टाफ नर्स की हत्या के बाद दिए जा रहे धरने से स्वास्थ्य सेवा लड़खड़ा जाने और वहां से तनावपूर्ण हालात के बारे में सूचना पा कर एसपी शैलेंद्र सिंह चौहान एसपी (सिटी) आनंद राय, एसडीएम उदय सिंह सिकरवार फोरैंसिक टीम के साथ घटनास्थल पर आ गए थे.
फोरैंसिक टीम ने घटनास्थल से सबूत जुटाए. फोरैंसिक टीम का काम खत्म होते ही एसपी ने सीएमओ डा. अजीत मिश्रा, सिविल सर्जन डा. अनिल गोयल सहित जिला स्वास्थ्य अधिकारी डा. देवेश शर्मा की मौजूदगी में घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण तो किया ही, साथ ही जिला अस्पताल में कार्यरत स्टाफ से पूछताछ कर नेहा के अतीत के बारे में जानकारी एकत्र की.
इस से पता चला कि जिला अस्पताल में वार्डबौय के पद पर कार्यरत रितेश नेहा से प्रेम करता था और उस से मिलने उस के धर्मपुरी स्थित कमरे पर भी आताजाता रहता था. लेकिन आज उन दोनों के बीच ऐसा क्या हुआ, किसी को पता नहीं था.
इस के बाद पुलिस ने नेहा के शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया और उस के परिजनों को भी इस घटनाक्रम से अवगत कराते हुए शीघ्र भिंड आने के लिए कहा.
वहीं इस हत्याकांड की विवेचना का दायित्व सीएसपी आनंद राय को सौंप दिया. इस से पहले जिला अस्पताल पुलिस चौकी में तैनात कांस्टेबल नागेंद्र राजावत की तहरीर पर भादंवि की धारा 302 तथा आर्म्स एक्ट 25, 27, 54, 59 के अंतर्गत मामला दर्ज कर लिया.
जिला अस्पताल की नर्स नेहा चंदेला की हत्या के विरोध में नर्सों का दूसरे दिन भी धरना जारी रहा. इस से जिला अस्पताल के अंदर वार्डों में स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह लड़खड़ा गई थी. तमाम लोग अपने मरीज की वक्त पर देखभाल न होने की वजह से मरीज को बिना छुट्टी के ही बेहतर उपचार के लिए वहां से ग्वालियर ले कर रवाना हो गए.
हड़ताली नर्सों को समझाने के लिए एसडीएम उदय सिंह सिकरवार, सीएमओ डा. अजीत मिश्रा, सिविल सर्जन डा. अनिल गोयल ने काफी जतन किया, लेकिन जब वे इस में सफल नहीं हुए तो उन्हें थकहार कर नर्सेज एसोसिएशन की प्रांतीय अध्यक्ष रेखा पवार को ग्वालियर वाहन भेज कर बुलाना पड़ा, जिस के बाद उन की समझाइश पर आक्रोशित नर्सें शाम 4 बजे काम पर लौटने के लिए राजी हुईं.
हालांकि इस से पहले जिला अस्पताल के द्वार पर ताला जड़े रहने से उपचार के अभाव में नयापुरा निवासी फिरोज खान की बेगम नाजिया की मृत्यु हो गई थी.
रोज की तरह 10 फरवरी, 2022 को भी नेहा चंदेला अपनी ड्यूटी पर पहुंच कर अपने कामकाज में जुट गई थी. शाम के कोई 5 बजे के करीब उस के मोबाइल फोन की घंटी बजी तो उसे हैरानी हुई कि ड्यूटी समाप्त होने को है इस वक्त कौन फोन कर रहा है.
लेकिन जब मोबाइल फोन की स्क्रीन पर चिरपरिचित नंबर देखा तो वह चौंकी भी और परेशान भी हुई कि रितेश कैसा बेशरम शख्स है जो उस के मना करने के बावजूद भी हाथ धो कर पीछे पड़ गया है.
फोन रिसीव न करना शिष्टाचारवश उसे उचित नहीं लगा, क्योंकि वह इस बात को भलीभांति जानती थी कि रितेश तब तक काल करता रहेगा, जब तक कि वह उस की काल रिसीव नहीं कर लेगी.
लिहाजा नेहा ने मन मार कर रितेश का फोन रिसीव कर लिया तो रितेश ने उस से अनुरोध किया, ‘‘आज शाम छुट्टी खत्म करने के बाद मंडला जाने से पहले प्लीज एक मर्तबा तुम मुझ से अकेले में मुलाकात कर लो. इस के बाद मुझे कभी भी तुम से बात करने का मौका नहीं मिलेगा.’’
नेहा असमंजस में पड़ गई कि क्या करे क्या न करे. रितेश शाक्य नेहा का बौयफ्रैंड था. वह भी उसी अस्पताल में वार्डबौय था.
6 दिसंबर को नेहा की सगाई गौरव पटेल के साथ तय हो जाने के बाद उस ने रितेश से न सिर्फ बातचीत करनी बंद कर दी थी, बल्कि मेलमुलाकात करनी भी लगभग बंद कर दी थी. नेहा ने रितेश से साफतौर पर कह दिया था कि मेरी सगाई हो जाने के बाद मैं अब तुम से किसी भी तरह का रिश्ता नहीं रखना चाहती.
नेहा का रिश्ता तय होने से खार खाए बैठे रितेश ने नेहा से मोबाइल पर गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि आज मिलने के बाद आइंदा वह न तो कभी फोन करेगा और न कभी मिलने की कोशिश करेगा, यह उस का वायदा है.
जिस दिन से नेहा ने रितेश से बात करनी और अकेले में मेलमुलाकात का सिलसिला बंद किया था, उसी दिन से रितेश काफी तनाव में रहने लगा था. रितेश के अनुरोध पर नेहा ने ड्यूटी खत्म होने के बाद स्टोररूम में सिर्फ अंतिम बार बात करने के लिए इस शर्त के साथ अनुमति दे दी थी कि वह अपनी बात मनवाने के लिए किसी तरह की हठ नहीं करेगा.
ड्यूटी समाप्त होने से कुछ समय पहले शाम 5 बज कर 10 मिनट पर रितेश कमर में देशी पिस्टल लगा कर स्टोररूम में दाखिल हुआ. रितेश को देख कर नेहा ने रूखी आवाज में कहा, ‘‘जो भी बात करनी है जल्दी करो, मुझे छुट्टी का एप्लीकेशन दे कर मंडला के लिए निकलना भी है.’’
वार्डबौय रितेश को इतनी तो समझ थी ही कि जिस नम्रता के साथ अपनी प्रेमिका से अंतिम बार मिलने के बहाने स्टोररूम में दाखिल हुआ है, उसी का आश्रय ले कर वह अपनी बात मनवाने के लिए नेहा पर दबाव बनाने का प्रयास करेगा.
बातचीत की शुरुआत में ऐसा हुआ भी. उस ने नेहा से एक बार फिर गुजारिश की कि वह उस का ज्यादा वक्त नहीं लेगा, सिर्फ 10 मिनट ही इत्मीनान के साथ बातचीत करेगा.
नेहा चूंकि जिला अस्पताल में ड्यूटी पर थी, इसलिए उसे किसी तरह का खतरा रितेश से महसूस नहीं हुआ. नेहा का सोचना था कि रितेश अंतिम बार उस से इत्मीनान के साथ बातचीत कर अपनी भड़ास निकाल लेगा तो उस की शादी करने वाली हठ खत्म हो जाएगी.
इस के बाद हमेशा के लिए उस का रितेश से पीछा छूट जाएगा. यही सब सोच कर उस ने रितेश को बातचीत करने के लिए अपनी सहमति दी थी.
उस वक्त उसे इस बात का कतई अंदेशा नहीं था कि आज रितेश के सिर पर हैवानियत सवार है. और वह उसे चिरनिद्रा में सुलाने की मंशा से आ रहा है. बातचीत का दौर शुरू करने से पहले जैसे ही रितेश ने कमर में लगा देसी पिस्टल निकाल कर मेज पर रखा तो नेहा को यह समझते जरा भी देर नहीं लगी कि उस ने रितेश को बातचीत के लिए बुला कर बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले ली है.
नेहा के साथ बातचीत का दौर शुरू होते ही रितेश ने नेहा से दोटूक शब्दों में कहा, ‘‘तुम सिर्फ मेरी हो, मेरी ही रहोगी. मैं हरगिज किसी भी सूरत में तुम्हारी शादी गौरव पटेल के साथ नहीं होने दूंगा. बोलो, मेरे से शादी करोगी या नहीं?’’
नेहा ने रितेश से कहा, ‘‘तुम पहले से ही शादीशुदा ही नहीं 2 बच्चों के बाप भी हो. इसलिए मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मेरे मांबाप ने जिस लड़के से मेरा रिश्ता तय किया है, मैं उसी के साथ शादी करूंगी.’’
इतना सुनते ही रितेश बुरी तरह बौखला गया. उस ने तत्काल मेज पर रखी देसी पिस्टल उठा कर उस की नाल का रुख नेहा की बाएं कनपटी की ओर कर के ट्रिगर दबा दिया. गोली लगते ही नेहा कुरसी पर बैठे ही बैठे चिरनिद्रा में डूब गई.
गोली चलने की आवाज सुनते ही अस्पताल का स्टाफ स्टोर रूम की ओर गया तो नेहा को कुरसी पर लहूलुहान देख कर सभी के जैसे होश उड़ गए. वार्डबौय रितेश के हाथ में तमंचा देख कर उन्हें वाकया समझने में देर नहीं लगी.
रितेश सभी को धमकाते हुए अस्पताल से निकल कर सिटी कोतवाली थाने में चला गया और आत्मसमर्पण कर दिया. कार्यवाहक थानाप्रभारी सुरजीत यादव ने मृतका के मातापिता का पता ले कर उस के घर वालों को मंडला फोन कर के घटना की सूचना दे दी. सूचना पा कर नेहा का बड़ा भाई करीबी रिश्तेदारों को ले कर दूसरे दिन भिंड पहुंच गया.
पुलिस ने रितेश के पिता को भी थाने बुला कर पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि रितेश का नेहा नाम की नर्स से प्रेम प्रसंग चल रहा था, जिस की वजह से रितेश की अपनी पत्नी से भी अनबन चल रही थी. वह नेहा से शादी करना चाह रहा था, लेकिन उन्हें इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि वह उक्त नर्स की हत्या कर देगा.
पूछताछ के बाद रितेश के पिता को घर जाने की अनुमति दे दी गई. पोस्टमार्टम के बाद नेहा का शव उस के घर वाले अंतिम संस्कार के लिए मंडला ले आए. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार नेहा की मौत गोली लगने से हुई थी.
जांच में पुलिस को पता चला कि नेहा और रितेश के इश्क की नींव वर्ष 2018 में उस वक्त रखी गई, जब वह मंडला से भिंड जिला अस्पताल में बतौर स्टाफ नर्स की नौकरी करने आई थी.
उन दोनों की पहली मुलाकात अस्पताल परिसर में बनी चाय की गुमटी पर हुई थी. उस समय नेहा चाय पीने वहां आई थी, संयोग से तभी रितेश भी वहां पर चाय पीने आया हुआ था. चूंकि रितेश भी जिला अस्पताल में वार्डबौय के पद पर कार्यरत था.
दरअसल, वह नेहा से काफी सीनियर था इसलिए नौकरी के साथ शुरुआती दौर में नर्स के कार्य के गुर सिखाने में उस ने नेहा की काफी मदद की थी.नेहा उस के इस उपकार से काफी प्रभावित हुई थी. दोनों की जान पहचान होने के बाद उन के बीच मोबाइल पर बातचीत होनी शुरू हो गई. हालांकि रितेश की नौकरी 2009 में संविदा वार्डबौय के तौर पर भिंड के जिला अस्पताल में लगी थी.
लेकिन उसे इस बात की उम्मीद थी कि निकट भविष्य में वह स्थाई हो जाएगा. नेहा से मोबाइल पर होने वाली लंबी बातचीत से उस की दोस्ती गहरी होती गई और मित्रता कब इश्क में बदल गई पता नहीं चला.
कहते हैं कि इश्क अंधा होता है वह जातपात के भेद को नहीं मानता. नेहा और रितेश अलगअलग जाति के थे, इस के बावजूद भी रितेश ने तय कर रखा था कि वे ताउम्र साथ रहेंगे और दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें जुदा नहीं कर सकेगी.
नेहा से रोज मुलाकात कर के वह अपने भावी जीवन के सुनहरे सपने देखने लगा था. कहते हैं कि इश्क को कितना भी छिपाने का जतन किया जाए, वह छिपता नहीं है.
नेहा के साथ काम करने वाले स्टाफ से ले कर रितेश के घर वालों को पता चल गया था कि ड्यूटी खत्म होने के बाद रितेश नेहा को बाइक पर ले कर खुल्लमखुल्ला घूमताफिरता है.
रितेश नेहा के प्यार में इतना दीवाना हो गया था कि वह अपनी पत्नी प्रीति की भी उपेक्षा करने लगा था. इस बारे में प्रीति ने रितेश से बात की तो उस ने झिड़कते हुए साफतौर पर कह दिया था कि वह नेहा से सिर्फ प्यार ही नहीं करता है, बल्कि उसे अपने दिल की रानी बना चुका है. निकट भविष्य में वह उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाने वाला है.
पति का यह फैसला सुनने के बाद प्रीति भी परेशान रहने लगी कि आखिर वह पति को कैसे समझाए. इस बात को ले कर उन दोनों का आपस में झगड़ा भी रहता था.
रितेश से विस्तार से पूछताछ के बाद पुलिस ने उस की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त तमंचा भी बरामद कर लिया. इस के बाद उसे भिंड जिला अदालत में पेश किया, जहां से उसे जिला जेल भेज दिया गया.
रितेश ने नासमझी और मूर्खतापूर्ण कदम उठा कर न सिर्फ नेहा को असमय मौत की नींद सुला दिया, बल्कि अपने सुनहरे भविष्य पर भी कालिख पोत ली. रितेश के जेल जाने के बाद उस के दोनों मासूम बच्चों सहित पत्नी के भविष्य पर भी ग्रहण लग गया है.