दूसरा विवाह- भाग 2: क्या सोनाक्षी से विशाल प्यार करता था?

अकसर औरतों को कपड़ेगहनों का शौक होता है. अलमारी अटी पड़ी होती है कपड़ों से उन की, लेकिन लीना की अलमारी किताबों से अटी पड़ी है. एक भूख है उसे पढ़ने की. एक दिन भी न पढे़, तो खालीखाली सा लगता है उसे, और विशाल के साथ भी ऐसा ही है. कितना भी बिजी क्यों न हो अपनी लाइफ में, रोज थोड़ाबहुत पढ़ना नहीं भूलता वह. रहा ही नहीं जाता बिना पढ़े उसे. जिंदगी सार्थक लगती है उसे पढ़ने से, वरना तो इंसान के जीवन में भागमभाग लगी ही रहती है.

लेकिन लीना दोनों के बीच कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहती थी. इसलिए ‘घर में बहुत काम है,’ का बहाना कर जाने से मना कर दिया. लेकिन विशाल तो जिद पर अड़ गया कि उसे भी उन के साथ बुकफेयर चलना ही पड़ेगा. हार कर लीना को उन के साथ जाना पड़ा.

बुकफेयर में जहां लीना और विशाल किताबें देखने में व्यस्त थे, वहीं सोनाक्षी बस आतेजाते लोगों को निहारने और मोबाइल में व्यस्त दिख रही थी. उस के चेहरे से लग रहा था उसे यहां आ कर जरा भी अच्छा नहीं लगा. वह तो कहीं घूमने या फिल्म देखने की सोच रही थी, मगर विशाल उसे यहां खींच लाया.  इशारों से कहा भी उस ने कि चलो अब यहां से, बोर हो रही हूं, तो विशाल ने भी इशारों से कहा कि ‘अभी रुकेगा वह यहां, चाहे तो वह जा सकती है घर.

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क्या करती वह, एक तरफ बैठ गई और अपना मोबाइल चलाने लगी. गुस्सा भी आ रहा था उसे कि यहां आई ही क्यों? घर में ही रहती इस से अच्छा. भले ही सोनाक्षी और विशाल एकदूसरे को 2 सालों से जानते थे, पर उन की एक भी आदत ऐसी नहीं थी जो आपस में मेल खाती हो. इसलिए अकसर दोनों में अपनेअपने मत को ले कर टकराव होता. और फिर हारने को दोनों में से कोई तैयार नहीं होता.

वहीं, विशाल को लीना का साथ इसलिए भी अच्छा लगता था क्योंकि दोनों की बहुत सी आदतें मिलतीजुलती थीं. बातविचारों में भी वह बहुत शालीन थी. उस से बातें कर विशाल को मानसिक स्फूर्ति मिलती थी. जिस तरह से वह बोलती थी न, लगता जैसे उस की बातों से शहद टपक रहा हो. उस के रूप, रस और गंध में विशाल ऐसे खो जाता कि उसे कुछ होश ही नहीं रहता था. जब सोनाक्षी टोकती, उसे तब होश आता कि कहां है वह और किसी सोच मे डूबा था.

लीना को भी विशाल से बातें करना अच्छा लगता था. पता नहीं क्यों, पर उसे देखते ही लीना के चेहरे पर मुसकान तैर जाती. उन की दोस्ती तो किताबों से शुरू हुई थी. अकसर दोनों एकदूसरे को अपनीअपनी किताबें लेतेदेते रहते थे. पढ़ना दोनों को बहुत अच्छा लगता था. लेकिन वहीं सोनाक्षी किताबों से कोसों दूर भागती. जब विशाल कहता कि किताबें पढ़ कर देखो कभी, ज्ञान का खजाना छिपा है उन में. तब मुंह बनाती सोनाक्षी कहती कि नहीं, उसे इन किताबोंउताबों में कोई दिलचस्पी नहीं है.  उसे तो, बस, विशाल में दिलचस्पी है. और उस की बात पर विशाल मुसकरा पड़ता था.

सोनाक्षी का किताबों से दूरदूर तक कोई नातारिश्ता नहीं था. आश्चर्य होता उसे कि कैसे कोई इतनी मोटीमोटी किताबें हफ्तेदस  दिन में खत्म कर सकता है? वह तो सालों तक भी एक किताब खत्म नहीं कर पाएगी.

उसे तो फिल्में देखना, घूमना, होटलों में भोजन करना पसंद है. जिंदगी में मौजमस्ती होती रहे, बस, और कुछ नहीं चाहिए उसे. इसलिए तो कभीकभी विशाल के साथ भी वह बोर होने लगती थी क्योंकि उस के साथ होते हुए भी वह किताबों में खोया रहता था. गुस्से में कह भी देती, ‘किताबों से ही क्यों नहीं बातें करते? उसे ही अपना दोस्त बना लो न.’ तो हंसते हुए विशाल कहता कि वह तो अभी कुछ साल पहले उस की दोस्त बनी है. लेकिन ये किताबें तो बचपन से उस की साथी हैं, जो आजीवन उस की दोस्त रहेंगी.’

लेकिन, अब एक और दोस्त मिल गई है उसे लीना के रूप में. बिलकुल उस की तरह ही सोच रखने वाली. जब भी दोनों बातें करने लगते, सोनाक्षी तुनक कर वहां से उठ कर चल देती और कहती कि उन की बातों का मुद्दा सिर्फ किताबें और पढ़ाई ही क्यों होता है, कुछ और क्यों नहीं होता? और उस की बात पर दोनों हंस पड़ते.

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‘‘हंसो मत यार, सही कह रही हूं. और कोई बात नहीं सू झती क्या तुम दोनों को? जब देखो किताबें, देशदुनिया और राजनीति पर बातें करते रहते हो. अरे भई, कुछ इंट्रैस्ंिटग बातें भी कर लिया करो कभी. मैं तो स्कूलकालेज की ही किताबें पढ़पढ़ कर इतनी ऊब चुकी थी कि सोचती कब पीछा छूटे इन से और मैं चैन की सांस लूं,’’ हंसती हुई सोनाक्षी अपने बचपन की बातें याद कर कहती, ‘‘तुम्हें पता है विशाल, बचपन में मेरा स्कूल से भागने का रिकौर्ड था.

‘‘घर से मेरा स्कूल कुछ दूरी पर ही था. पापा मु झे स्कूल छोड़ कर जैसे ही जाते, मैं पीछेपीछे घर पहुंच जाती. यह रोज का किस्सा बन गया था. परेशान थे मांपापा मु झे ले कर. डर लगता उन्हें कि कहीं रास्ते में कोई गाड़ी ठोकर न मार दे मु झे या कोई उठा कर ही ले भागा, तो फिर क्या करेंगे वे. और स्कूल से भागना क्या अच्छी बात है? इसलिए एक बार पापा ने टीचर को ही डांट पिला दी कि बच्चा उन के स्कूल से भाग जाता है, क्या उन्हें पता नहीं चलता? अगर बच्चे को कुछ हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा फिर?

‘‘फिर क्या था, टीचर ने उस रोज मु झे रस्सी से बांध दिया ताकि मैं स्कूल से भाग न सकूं. लेकिन मैं ने रोनाचिल्लाना इतना मचाया कि उन्हें मु झे खोलना ही पड़ा. लेकिन प्रिंसिपल ने भी कह दिया कि स्कूल में अब मेरे लिए कोई जगह नहीं है. ऐसे बच्चे को वह अपने स्कूल में नहीं पढ़ा सकते. बहुत खुश थी मैं कि स्कूल और किताबों से मेरा पाला छूटा. लेकिन पापा ने जो मार मारी न उस रोज, आह, आज भी कांप उठती हूं याद कर के.

‘‘उस दिन के बाद से मैं स्कूल से कभी नहीं भागी, लेकिन किताबों के प्रति मेरी नफरत बरकरार रही. वह तो पापा के डर के कारण इंजीनियरिंग की पढ़ाई करनी पड़ी, वरना तो पढ़ाई मु झे सजा से कोई कम नहीं लगती है आज भी,’’ सोनाक्षी बोली.

‘‘कैसी बातें कहती हो तुम सोनाक्षी?’’ पढ़ना क्या सजा होता है? अरे, किताबों में तो ज्ञान का भंडार छिपा है. मैं तो किताब पढ़ने के अलावा और कुछ सोच ही नहीं सकता. सोने से पहले रोज जब तक थोड़ा पढ़ न लूं, नींद नहीं आती’’ विशाल की बात पर लीना ने भी सहमति जताई और कहा कि उसे भी बिना पढे़ नींद नहीं आती. काम से फुरसत मिलते ही वह किताब ले कर बैठ जाती है. मजा आता है उसे पढ़ने में.

ए क सुर में दोनों को बोलते देख सोनाक्षी हंस पड़ी और एक लंबी

सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘हूं, मु झे लगता है तुम दोनों की जोड़ी खूब जमेगी, क्योंकि एकजैसे जो हो तुम दोनों.’’

उस की बातों पर दोनों एकदूसरे को देखने लगे और आंखों ही आंखों में जो बातें हुईं, ये तो उन्हें ही पता था. कहते हैं, आंखें दिल के  झरोखे सी होती हैं.  झरोखे बंद भी हो सकते हैं, पर होंठों की कोर एक ऐसा सूचक है जो कभी चुकता नहीं.

विशाल अपलक अब भी लीना को वैसे ही निहार रहा था. कुछ क्षणों की वह तंद्रा लीना को मानो उस कमरे से दूर अलग कहीं ले गई थी जहां होंठों के कोरों का कसाव, बिना तनिक कांपे भी, जैसे अनजाने कुछ नरम पड़ गया था. मुंह के आसपास की असंख्य शिराओं का अदृश्य तनाव कुछ ढीला हो गया था और जीवन का अदम्य लचीलापन जैसे फिर उभर कर एक स्निग्ध लहर बन गया था. ऐसा पहले भी कई बार हुआ जब किताबें लेतेदेते दोनों का हाथ आपस में स्पर्श कर जाता तो उन की आंखें बातें करने लगती थीं.

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सोनाक्षी ने उसे  झक झोरा तो पाया कि वह कहीं खो गया था. लेकिन लक्ष्य किया उस ने कि उस के चेहरे के हावभाव को कोई पढ़ नहीं पाया. नास्तिकों की भीड़ में जैसे कोई भक्त अनदेखे क्षणभर आंख बंद कर अपने आराध्य का ध्यान कर लेता है, वैसे ही विशाल कहीं पर भी हो या किसी के साथ हो, अपनी लीना को मन की आंखों से देख ही लेता था.

लेकिन फिर भी लीना विशाल को सिर्फ एक अच्छा दोस्त सम झती थी. उस के दिल में कुछ भी नहीं था उसे ले कर. वह तो आज भी अपने दिल में सूरज को बसाए हुए थी, जो अब इस दुनिया में नहीं है. 4 वर्षों पहले लीना और सूरज विवाह बंधन में बंधे थे. हंसतेमुसकराते शादी के 2 साल कैसे गुजर गए, उन्हें पता ही नहीं चला. लेकिन एक दिन सूरज की मौत की खबर ने लीना को तोड़ कर रख दिया. एक तसल्ली थी कि उस का सूरज देश के लिए शहीद हुआ है. गर्व था उसे अपने पति पर.

सूरज फौज में था. अपनी बेटी को विधवा के रूप में देख कर लीना की मां ने तो खटिया ही पकड़ ली और उस के पापा गुमसुम से हो गए. लेकिन वे चाहते थे कि उन के जीतेजी बेटी का घर फिर से बस जाए क्योंकि जिंदगी इतनी छोटी भी नहीं होती कि बगैर किसी सहारे के जिया जा सके और वे कब तक बेटी के साथ रह पाएंगे. आज न कल, वे भी अपनी आंखें मूंद ही लेंगे, फिर क्या होगा लीना का?

सूरज के मांपापा भी बहू को बंधन में बांध कर नहीं रखना चाहते थे और अब जब बेटा ही नहीं रहा उन का, फिर बहू को वे किस अधिकार से अपने पास रख सकते थे? लेकिन लीना दूसरे विवाह को हरगिज तैयार न थी क्योंकि सूरज अब भी उस का प्यार था, उस का पति था. लीना वह स्थान किसी और को नहीं देना चाहती थी. उस के लिए तो अब यही घर उस का अपना घर था और सूरज के मांपापा उस की जिम्मेदारी.

याद है उसे, जब भी सूरज का खत या फोन आता, एक बात तो वह जरूरत कहता था, ‘लीना, मेरे मांपापा अब तुम्हारी जिम्मेदारी हैं, उन का ध्यान रखना’ और लीना कहती, ‘हां, वह इस जिम्मेदारी को अच्छे से निभाएगी, चिंता न करें.’ ऐसे में कैसे वह अपने वचन से पलट सकती थी? इसलिए उस ने कभी फिर दूसरा विवाह न करने का फैसला कर लिया.

सूरज के जाने के बाद वह बखूबी  अपनी जिम्मेदारी निभा रही है.  लेकिन सूरज की कमी उसे खलती रहती है. इसलिए तो उस ने अपनेआप को किताबों में  झोंक दिया था. वैसे, सूरज के मांपापा भी यही चाहते थे कि लीना दूसरा विवाह कर ले अब. कई बार कहा भी उन्होंने. कई रिश्ते भी आए.  पर लीना का एक ही जवाब था कि वह दूसरा विवाह नहीं करेगी.

उस दिन सोनाक्षी को अच्छे से तैयार होते देख लीना कहने लगी, ‘‘कब तक यों ही सजसंवर कर विशाल को रि झाती रहोगी ननद रानी? क्यों नहीं कह देतीं उस से अपने मन की बात? एकदूसरे को अच्छी तरह सम झने लगे हो तुम दोनों, तो अब क्या सोचविचार करना? कहीं ऐसा न हो, मांपापा तुम्हारी शादी कहीं और तय कर दें और फिर तुम कुछ न कर पाओ.’’

भाभी की बात सोनाक्षी को भी सही लगी कि अगर विशाल आगे नहीं बढ़ रहा है, तो क्यों नहीं वही आगे बढ़ कर अपने प्यार का इजहार कर देती है. लेकिन कैसे वह अपने प्यार का इजहार करे, सम झ नहीं आ रहा था.

‘‘अब इस में सोचनासम झना क्या है सोनू? देखो, अगले हफ्ते ही विशाल का जन्मदिन है, तो इस से अच्छा मौका और क्या होगा.’’ लीना की यह बात सोनाक्षी को जंच गई और मन ही मन उस ने इजहारे प्यार का फैसला कर लिया. सोच लिया उस ने कि कैसे वह विशाल के सामने अपने प्यार कर इजहार करेगी.

सोनाक्षी ने तो पहली ही नजर में विशाल को अपना दिल दे दिया था. लेकिन विशाल ने आज तक नहीं जताया उसे कि वह उस से प्यार करता है. लेकिन उस की बातों, हावभाव और सोनाक्षी को ले कर उस की बेचैनी को देख, उसे यही लगता है कि वह भी उस से प्यार करता है. वैसे भी, जरूरी तो नहीं कि हर बात कह कर ही जताई जाए. मेरे लिए तो इतना ही काफी है कि मु झ से मिले बिना वह एक दिन भी नहीं रह पाता है. तभी तो कोई न कोई बहाना बना कर सीधे मेरे घर आ पहुंचता है. अपने मन में यह सोच सोनाक्षी मुसकरा पड़ी थी.

सोनाक्षी को यह नहीं पता कि विशाल उस से नहीं, बल्कि उस की विधवा भाभी लीना से प्यार करता है और उस की खातिर ही वह उस के घर बहाने बना कर आता रहता है. यह कब, कैसे और कहां हुआ. नहीं पता उसे. लेकिन जैसेजैसे उस ने लीना को जाना, उस के प्रति वह आकर्षित होता चला गया. इसलिए सोनाक्षी से मिलने के बहाने ही वह उस के घर चला आता था. भले ही वह सोनाक्षी से बातें करता था पर उस का दिल और दिमाग तो लीना के पास ही होता था.

लॉकडाउन: आखिर अर्जुन की बुआ अपनी बनावटी बातों से क्यों दिल दुखाती थी

‘‘दिनेश, तुम बिलकुल चिंता मत करो, अर्जुन मेरा भी तो बेटा है. पिंकी, बबलू तो उस के पीछे ही लगे रहते हैं. घर में ही तो रह रहा है. यह मत सोचो कि लौकडाउन में उस का यहां रहना मेरे लिए कोई परेशानी की बात होगी. मेरे लिए तो जैसे पिंकी, बबलू हैं वैसा अर्जुन. उस से बात करवाऊं?’’

किचन में बरतन धोते हुए अर्जुन के कानों में बुआ अंजू के शब्द पड़े तो उस का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. अब बुआ पापा से बात कराने के लिए उसे फोन न दे दें. नहीं करनी है उसे अपने पापा से बात.

पर बुआ ने फोन होल्ड पर रखा था. उसे पकड़ाते हुए बोलीं, ‘‘लो बेटा, अपने पापा से बात कर लो. उस के बाद थोड़ा आराम कर लेना.’’

अर्जुन समझ गया कि यह सब पापा को सुनाने के लिए कहा गया है. उस ने हाथ पोंछ कर फोन बहुत बेदिली से पकड़ा. पापा उस का हालचाल ले रहे थे, उस ने बस हांहूं में जवाब दे कर फोन रख दिया. वह बरतन धो कर चुपचाप बालकनी में रखी कुरसी पर बैठ गया.

आज मुंबई में लौकडाउन की वजह से फंसे हुए उसे 2 महीने हो रहे थे. वह यहां वाशी में होस्टल में रह कर इंजीनियरिंग के बाद एक कोर्स कर रहा था. अचानक कोरोना के प्रकोप के चलते होस्टल बंद हो गया और सारे स्टूडैंट्स अपनेअपने घर जाने लगे.

वह सहारनपुर से आया हुआ था. उस ने अपने पिता दिनेश को कहा कि वह भी घर आ रहा है. ट्रेन या कोई भी फ्लाइट मिलने पर वह फौरन आना चाहता है.

दिनेश ने कहा, ‘नहींनहीं… आने की कोई जरूरत नहीं है. यह तो कुछ दिनों की ही बात है. क्यों आओगे फिर जाओगे? वहीं अंजू बुआ के यहां चले जाओ.’

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उस ने कहा था, ‘नहीं पापा, कुछ दिनों की बात नहीं है, मेरे सभी साथी फ्लाइट पकड़ कर घर चले गए हैं. मैं भी मुंबई से फौरन निकलना चाहता हूं.’

‘नहीं, बुआ के पास चले जाओ. क्यों आनेजाने में फालतू खर्च करना. वह भी तो अपना घर है.’

उस ने अपनी मम्मी रीना से बात की, ‘मम्मी, पापा मेरी बात क्यों नहीं समझ रहे? लौकडाउन लंबा चलेगा. यह 2 दिनों की बात नहीं है, मुझे घर आना है.’

‘हां, बेटा, मैं भी यही चाहती हूं कि तुम अपने घर ही आ जाओ. ऐसे समय मेरी आंखों के आगे रहो. पर तुम्हारे पापा बिलकुल सुन ही नहीं रहे.’

‘और आप भी जानती हैं बुआ को. बस मीठी बोली बोल कर सामने वाले को बेवकूफ बनाती हैं. जब भी उन से मिलने गया, इतना दिखावटी है उन के यहां सब. मुझे नहीं रहना उन के यहां. मम्मी, कुछ करो न.’

जिद्दी पति के सामने रीना की एक न चली. सब बंद होता गया और अर्जुन को अंजू के घर ही आना पड़ा. बात 1-2 दिनों की थी नहीं. यह किसी को भी नहीं पता था कि कब हालात सामान्य होंगे.

अंजू, उस के पति विनय और दोनों बच्चों ने उस का स्वागत दिल खोल कर किया. अर्जुन स्वभाव से सरल था इसलिए शांत सा रहता. कुछ दिन तो उसे कोई दिक्कत नहीं हुई, पर जब अंजू की कामवाली भी छुट्टी पर चली गई तो अब घर के कामधाम कौन संभाले, इस का बंटवारा होने लगा.

अंजू ने पूछा, ‘पहले यह बताओ कि बरतन कौन धोएगा?’

20 साल की पिंकी ने कहा, ‘मैं तो बिलकुल भी नहीं. मेरे हाथ खराब हो जाएंगे.’

15 साल के बबलू ने कहा, ‘मेरी तो औनलाइन क्लासेज हो सकती हैं और आप के सिंक भरभर के बरतन धोने में तो आप की कामवाली ही रो देती है. सौरी मम्मी, यह तो अपने बस का नहीं.’

विनय ने सफाई दी, ‘बरतन धोने में तो मेरी कमर भी चली जाएगी.’

अंजू ने सब को घूरते हुए कहा, ‘तुम सब रहने दो, बस बहाने बना रहे हो. मैं तुम लोगों से कहूंगी ही नहीं. मेरा अर्जुन धो लेगा. यही मेरा बेटा है. क्यों अर्जुन?’

अर्जुन ने इतना ही कहा, ‘ठीक है बुआ, धो लूंगा.’

अंजू ने फिर पूछा, ‘कुकिंग में हैल्प कौन करेगा?’

सब चुप रहे. तब अंजू ने कहा, ‘मुझे तो तुम लोगों से उम्मीद ही नहीं. तुम लोगों पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है. ठीक है, मैं देख लूंगी. पिंकी तुम्हें साफसफाई करनी पड़ेगी और बबलू, सूखे कपड़े तुम ही तह करोगे. मेरा अर्जुन मेरी हैल्प करेगा. बस, मुझे तुम लोगों को कुछ कहना ही नहीं.’

लौकडाउन बढ़ता जा रहा था और इस के साथ ही अर्जुन मन ही मन टूटता भी जा रहा था. बुआ कहने को तो बहुत प्यार से पेश आतीं, पर वह उन की चालाकियों को समझ रहा था. पिंकी, बबलू उस के आगेपीछे घूमते. विनय उस के साथ बातें करते रहते. देखने में सब सामान्य लगता पर अर्जुन भी कोई बच्चा तो था नहीं, बुआ की मीठीमीठी बातों का मतलब इतने लंबे समय में अच्छी तरह समझ चुका था. उसे अपने पापा के लिए मन में बहुत नाराजगी थी. बेटे के आगे पिता ने पैसे को ज्यादा महत्त्व दिया था, बजाय इस के कि वह घर पहुंच जाए. उन्हें अपनी इस बहन का स्वभाव भी अच्छी तरह पता था.

पिता आर्थिक रूप से समृद्ध थे. ऐसा नहीं कि उस का इस समय जाने का खर्च वे सहन न कर पाते, पर बेकार की उन की सनक के कारण आज वह बुआ का एक ऐसा नौकर बन कर रह गया है, जो उन के किसी भी काम को मना नहीं कर पाता है. अब तो न कहीं जा ही सकता है.

घर से निकले लगभग 2 महीने हो गए थे. बाहर से आया सामान वही सैनिटाइज करता है. कोई उस सामान को तभी हाथ लगाता है जब वह साफ कर देता है. उस की लाइफ की ही कोई वैल्यू नहीं है.

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बुआ का कहना है कि वही अच्छी तरह से सैनिटाइज करता है बाकी सब तो लापरवाह हैं. बुआ के उस से काम करवाने के स्टाइल पर अब अर्जुन को मन ही मन हंसी भी आ जाती है.

अर्जुन को अपनी मम्मी पर भी बहुत गुस्सा आता है कि क्यों उन्होंने अपने मन की बात पापा के सामने नहीं रखी? क्यों वे अपनी बात पापा से मनवा नहीं पातीं?

मम्मी जब भी उस से फोन पर बात करती हैं,  बुआ आसपास ही रहती हैं, फिर वह व्हाट्सऐप पर उन्हें अपनी हालत बताता है और फिर बाद में चैट डिलीट कर देता है, क्योंकि पिंकी, बबलू, कभी भी उस का फोन छेड़ते रहते हैं.

कभीकभी उसे लगता है कि पिंकी, बबलू को भी कहीं उस का फोन चैक करते रहने की ट्रेनिंग तो नहीं दे डाली बुआ ने?

उस ने एक बार मना भी किया था कि मेरा फोन मत छेड़ो, पर उस के इतना कहते ही बच्चों ने शोर मचा दिया था कि भैया ने डांटा. उसे फौरन बात संभालनी पड़ी थी.

अर्जुन अपने से 3 साल छोटी बहन अंजलि के टच में लगातार रहता. वह एक बार मुंबई घूमने आई थी. उसे बुआ के घर 4-5 दिन रहना पड़ा था. वापस घर लौट कर उस ने सब के सामने कान पकड़े थे. कहा था, ‘मैं तो कभी बुआ के घर नहीं जाऊंगी. मीठा बोल कर काम में ही जोत कर रखती हैं. क्या बताऊं, बैठने ही नहीं देतीं. ‘‘मेरी बेटी, मेरी बेटी’’ कह कर कितना काम करवा लिया. पापा, आप की बहन है या कोई मीठी छुरी?’

इस नाम पर वह खूब हंसा था. जब से अर्जुन यहां फंसा है अंजलि उस से बुआ के हाल मीठी छुरी कह कर ही लेती है. वह उसे सब बताता है.

अंजलि भी भाई के लिए दुखी है. कहां उसे आदत है घर के काम करने की? कामचोर नहीं है अर्जुन, पर इतना भी समझ रहा है कि पिता और बुआ के बीच पिस गया है वह. पिता से तो वह अब कोई बात ही नहीं कर रहा है.

कभी वह भी देर से उठता है और इस बीच दिनेश का फोन आ जाए तो बुआ उन से ऐसे बात करती हैं कि जैसे वह इतना आराम कर रहा है और वे यही चाहती हैं कि बस वह यों ही उन के घर रहे. वह तो बाद में उसे अंजलि से पता चलता है जब पापा बताते हैं कि ‘देखो, क्या ठाठ से रख रही है मेरी बहन उसे. आजकल के बच्चे तो यों ही उस के पीछे पड़े रहते हैं,’ और वह यह सुन कर कुढ़ कर रह जाता है.

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एक दिन तो उसे शरारत सूझी. उस ने बबलू से कहा, ‘‘मेरा वीडियो बनाओगे जब मैं बरतन धोऊंगा?’’

बबलू ने पूछा, ‘‘क्यों भैया?’’

‘‘अपने दोस्तों को दिखाऊंगा. वे भी भेजते हैं मुझे ऐसे वीडियो.’’

बबलू ने यह बात मम्मी यानी उस की बुआ को बता दी, और फिर वीडियो तो बनना ही नहीं था.

यह लौकडाउन उसे बहुत भारी पड़ा है. उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि उस के पिता ने उस की बात नहीं मानी. उस की जमा हुई फीस खतरे में थी, इसलिए पापा ने उसे न बुला कर अपने कुछ पैसे बचा लिए. क्यों वे किसी की बात नहीं सुनते? कितना दर्द दिया है उन्होंने उसे. शरीर से भी थक चुका है वह और मन से भी. पता नहीं कितने दिन और ऐसे… अर्जुन की आंखों से आंसू बह कर गालों तक आ गए, मगर उस ने झट से आंसू पोंछ लिए क्योंकि बुआ आवाज जो लगा रही थीं.

कोरोना लव- भाग 1: शादी के बाद अमन और रचना के रिश्ते में क्या बदलाव आया?

अमन घर में पैर रखने ही जा रहा था कि रचना चीख पड़ी, ‘‘बाहर…बाहर जूता खोलो. अभी मैं ने पूरे घर में झाड़ूपोंछा लगाया है और तुम हो कि जूता पहन कर अंदर घुसे आ रहे हो.’’

‘‘अरे, तो क्या हो गया? रोज तो आता हूं,’’ झल्लाते हुए अमन जूता बाहर ही खोल कर जैसे ही अंदर आने लगा रचना ने फिर उसे टोका, ‘‘नहीं, बैठना नहीं, जाओ पहले बाथरूम और अच्छे से हाथमुंहपैर सब धो कर आओ. और हां, अपना मोबाइल भी सैनिटाइज करना मत भूलना. वरना यहांवहां कहीं भी रख दोगे और फिर पूरे घर में इन्फैक्शन फैलाओगे.’’

रचना की बात पर अमन ने उसे घूर कर देखा. ‘क्या है, घूर तो ऐसे रहे हैं जैसे खा ही जाएंगे. एक तो इस कोरोना की वजह से बाई नहीं आ रही है. सोसाइटी वालों की तरफ से सख्त मनाही है और ऊपर से इन की नवाबी देखो. जैसे मैं इन के बाप की नौकर हूं. यह नहीं होता जरा कि काम में मेरी थोड़ी हैल्प कर दें. नहीं, उलटे काम को और बड़ा कर रख देते हैं. कहीं जूता खोल कर रख देंगे, कहीं भीगा तौलिया फेंक आएंगे. कितनी बार कहा, हाथ धो कर फ्रिज या किचन का कोई सामान छुआ करो. लेकिन नहीं, समझ ही नहीं आता इन्हें. बेवकूफ कहीं के,’ अपने मन में ही भुनभुनाई रचना.

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‘‘हूं, बड़ी आई साफसफाई पर  लैक्चर देने वाली. समझती क्या है अपनेआप को? जैसे इस घर की मालकिन यही हो. हां, करूंगा, जैसा मेरा मन होगा करूंगा,’’ अमन भन्नाता हुआ अपने कमरे में घुस गया और दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘वैसे, गलती इन मर्दों की भी नहीं है. गलती है उन मांओं की जो बेटियों को तो सारी शिक्षा, संस्कार दे डालती हैं, पर अपने बेटों को कुछ नहीं सिखातीं, क्योंकि उन्हें तो कोई जरूरत ही नहीं है न सीखने की. बीवी तो मिल ही जाएगी बना कर खिलाने वाली,’’ अमन को भुनभुनाते देख वह चुप नहीं रह पाई और बोल दिया जो मन में आया.

बहुत गुस्सा आ रहा था उसे आज. कहा था अमन से, लौकडाउन की वजह से बाई कुछ दिन काम पर नहीं आएगी, तो वह उस की मदद कर दिया करे काम में, क्योंकि उसे और भी काम होते हैं. ऊपर से अभी औफिस का काम भी उसे घर से करना पड़ रहा है, तो समय नहीं मिल पाता है. लेकिन अमन ने ‘तुम्हारा काम है तुम जानो, मुझ से नहीं होगा’ कह कर बात वहीं खत्म कर दी. तो गुस्सा तो आएगा ही न? क्या वह अकेली रहती है इस घर में जो सारे कामों की जिम्मेदारी उस की ही है? आखिर वह भी तो नौकरी करती है बाहर जा कर. यह बात अमन क्यों नहीं समझता.

खाना खाते समय भी दोनों में घर के काम को ले कर बहस शुरू हो गई. रचना ने सिर्फ इतना कहा कि घर के कुछ सामान लाने थे. अगर वह ले आता तो अच्छा होता. वह गई थी दुकान राशन का सामान लाने, पर वहां बड़ी लंबी लाइन लगी थी इसलिए वापस चली आई.

‘‘तो वापस क्यों आ गईं? क्या जरा देर खड़ी रह कर सामान खरीद नहीं सकती थीं जो बारबार मुझे फोन कर के परेशान कर रही थीं? एक तो मुझे इस लौकडाउन में भी बैंक जाना पड़ रहा है, ऊपर से तुम चाहती हो कि मैं घर के कामों में भी तुम्हारी मदद कर दूं? नहीं हो सकता है,’’ चिढ़ते हुए अमन बोला.

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‘‘हां, पता है मुझे, तुम से तो कोई उम्मीद लगाना ही बेकार है. क्या करती मैं, धूप में खड़ीखड़ी पकती रहती? फोन इसलिए कर रही थी कि तुम औफिस से आते हुए घर के सामान लेते आना? लेकिन नहीं, तुम तो फोन भी नहीं उठा रहे थे मेरा. वैसे, एक बात बताओ, अभी तो बैंक में पब्लिक डीलिंग हो नहीं रही है, फिर करते क्या हो जो मेरा एक फोन नहीं उठा सकते या घर का कोई सामान खरीद कर नहीं ला सकते? बोलो न? घरबाहर के सारे कामों की जिम्मेदारी मेरी ही है क्या? तुम्हें कोई मतलब नहीं?’’

‘‘पब्लिक डीलिंग नहीं होती है तो क्या बैंक में काम नहीं होते हैं? और ज्यादा सवाल मत करो मुझ से. जो करना है, जैसे करना है, समझो खुद, समझी? खुद तो आराम से ‘वर्क फ्रौम होम’ कर रही हो. जब मरजी होती है, आराम कर लेती हो, दोस्तों से बातें कर लेती हो और दिखा रही हो कि कितना काम करती हो.’’

ये घर बहुत हसीन है- भाग 3: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

‘‘देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाए जाते हैं ऐसे खेत… और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.’’

कुछ देर बाद हलका कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटाएं हैं जो अकसर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती है. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापस चली जाती हैं.

सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे आ गए. घर सुंदर बल्बों और झूमरों से जगमग कर रहा था. वान्या का अंगअंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन में अंधेरे में कहीं गुम सी हो गई थी.

प्रेमा के खाना बना कर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी से महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ और फोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिका कर बैठ गई. आर्यन ने कांच के 2 गिलास लिए और पास रखे रैफ्रीजरेटर से ऐप्पल जूस निकाल कर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुंदरता में खो गई.

‘‘फूल तो ये हैं… कितने खूबसूरत,’’ कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होंठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

‘‘जूस में भी नशा होता क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?’’ वान्या के कान में फुसफुसाया.

‘‘नशा तो तुम्हारी आंखों में है.’’ कांपते लबों से इतना ही कह पाई वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.

रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुजर रही थी.

‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फोन के आते ही सबकुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंद कर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ की और वान्या से लिपट कर सो गया.

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अगले दिन भी वान्या अनमनी सी थी. तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी उसे अपनी. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिजनैस का काम निबटाते हुए बीचबीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फोन आया. अपने मम्मीपापा को उस ने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उन की स्नेह भरी आवाज सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की 2 प्लेटें लगा कर उस के पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ्यू’ की घोषणा हो गई है.

‘‘अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.’’ वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उस के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, ‘‘घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़ी ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथसाथ रहेंगे सारा दिन… मस्ती होगी हमारी तो.’’

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पी कर सोने चली गई. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ्यू, लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उस ने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आए करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गई हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग? अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मनमस्तिष्क में.’

अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल आए. ‘कल प्रेमा से सफाई करवाने के बहाने पूरे घर की छानबीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाए,’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गई.

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सजा- भाग 4: तरन्नुम ने असगर को क्यों सजा दी?

घंटी की आवाज सुनते ही हमउम्र जुड़वां 3 साल के नन्हे बच्चे, एक पमेरियन कुत्ता और नौकर चारों ही दरवाजे पर लपके. जाली के दरवाजे के अंदर से ही नौकर बोला, ‘‘आप कौन, कहां से तशरीफ ला रही हैं?’’

रीता ने कहा, ‘‘जा कर मालकिन से बोलो, बिन्नी दी ने भेजा है.’’

नौकर ने दरवाजा पूरा खोलते हुए कहा, ‘‘आइए, वे तो सुबह से आप का ही इंतजार कर रही हैं.’’

बैठक कक्ष सजाने वाले की नफासत की दाद दे रहा था जैसे हर चीज अपनी सही जगह पर थी. यहां तक कि खरगोश की तरह सफेद कुरतेपाजामे में उछलकूद मचाते बच्चे भी जैसे इस कमरे की सजावट का हिस्सा हों. उन्हें बैठे 5 मिनट ही बीते होंगे कि कमरे का परदा सरका, आने वाली को देख कर रीता झट से उठी, ‘‘हाय निकहत आपा, कितनी प्यारी दिख रही हैं आप इस फालसाई रंग में.’’

निकहत हंस दी, ‘‘आज ज्यादा ही सुंदर दिख रही हूं. गरज की मारी आ गई वरना तो बिन्नी के पास आ कर गुपचुप से चली जाती है, कभी भूले से भी यहां तशरीफ नहीं लाई.’’

‘‘क्यों बिन्नी के साथ ईद पर नहीं आई थी,’’ रीता ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘पर अभी तो ईद भी नहीं और नया साल भी नहीं. खैर इनायत है, गरज से ही सही, आई तो,’’ निकहत ने कहा, ‘‘और सुनाओ, कैसा चल रहा है तुम्हारा कामकाज.’’

‘‘वहां से आजकल छुट्टी ले रखी है. इन से मिलिए, ये हैं मेरी सहेली तरन्नुम, रामपुर से आई हैं. इन के शौहर यहां पर हैं. अपना मकान है लेकिन किराएदार खाली नहीं कर रहे हैं. शादी को 8-10 महीने होने को आए लेकिन अब तक मियां का साथ नहीं हो पाया. किराए पर ढंग का घर मिल नहीं रहा और होटल में रहते 5-7 दिन हो गए. बिन्नी दी से बात की तो उन्होंने आप के घर का ऊपरी हिस्सा खाली होने की बात कही. सुनते ही मैं तुरंत इन्हें खींचती आप के पास ले आई.’’

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‘‘रामपुर में किस के घर से हैं आप?’’ निकहत ने पूछा.

‘‘वहां बहुत बड़ी जमींदारी है मेरे अब्बू की. क्या आप भी वहीं से हैं?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो कभी वहां गई नहीं. पिछले साल मेरे शौहर गए थे अपने दोस्त की शादी में. मैं ने सोचा शायद आप उन्हें जानती होंगी.’’

‘‘किस के यहां गए थे? रामपुर में हमारे खानदानी घर ही ज्यादातर हैं.’’

‘‘अब नाम तो मुझे याद नहीं होगा, क्या लेंगी आप…चाय या ठंडा? वैसे अब थोड़ी देर में ही खाना लग रहा है. आप को हमारे साथ आज खाना जरूर खाना होगा. हमारे साहब तो दौरे पर गए हैं. बच्चों के साथ 5-6 दिन से खिचड़ी, दलिया खातेखाते मुंह का स्वाद ही खराब हो गया.

‘‘रीता को तो हैदराबादी बिरयानी पसंद है, साथ में मुर्गमुसल्लम भी. मैं जरा रसोई में खानेपीने का इंतजाम देख लूं. नौकर नया है वरना मुर्गे का भरता ही बना देगा. तब तक आप यह अलबम देखिए. रीता, अपनी पसंद का रेकार्ड लगा लो,’’ कहती हुई निकहत अंदर चली गई.

तरन्नुम ने अलबम खोला और उस की आंखें असगर से मिलतेजुलते एक आदमी पर अटक गईं. अगला पन्ना पलटा. निकहत के साथ असगर जैसा चेहरा. अलगअलग जगह, अलगअलग कपड़े. पर असगर से इतना कोई मिल सकता है वह सोच भी नहीं सकती थी. उस ने रीता को फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘ये हजरत कौन हैं?’’

‘‘क्यों, आंखों में चुभ गया है क्या?’’ रीता हंस दी, ‘‘संभल के, यह तो निकहत दीदी के पति हैं. है न व्यक्तित्व जोरदार, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. असल में इन के मांबाप जल्दी ही गुजर गए. निकहत अपने मांबाप की इकलौती बेटी थी तिस पर लंबीचौड़ी जमीनजायदाद, बस, समझो लाटरी ही लग गई इन साहब की. नौकरी भी निकहत के अब्बू ने दिलवाई थी.’’

तरन्नुम को अब न गजल सुनाई दे रही थी और न ही कमरे में बच्चों की खिलखिलाती हंसी का शोर, वह एकदम जमी बर्फ सी सर्द हो गई. दिल की धड़कन का एहसास ही बताता था कि सांस चल रही है.

निकहत ने जब खाने के लिए बुलाया तब वह जैसे किसी दूसरी दुनिया से लौट कर आई, ‘‘आप बेकार ही तकल्लुफ में पड़ गईं, हमें भूख नहीं थी,’’ उस ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ, आज का खाना हमारी भूख के नाम पर ही खा लीजिए. हमें तो आप की सोहबत में ही भूख लग आई है.’’

रोशनी सा दमकता चेहरा, उजली धूप सी मुसकान, तरन्नुम ठगी सी देखती रही. फिर बोली, ‘‘आप के पति कितने खुशकिस्मत हैं, इतनी सुंदर बीवी, तिस पर इतना बढि़या खाना.’’

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‘‘अरे आप तो बेकार ही कसीदे पढ़ रही हैं. अब इतने बरसों के बाद तो बीवी एक आदत बन जाती है, जिस में कुछ समझनेबूझने को बाकी ही नहीं रहता. पढ़ी किताब सी उबाऊ वरना क्या इतनेइतने दिन मर्द दौरे पर रहते हैं? बस, उन की तरफ से घर और बच्चे संभाल रहे हैं यही बहुत है,’’ निकहत ने तश्तरी में खाना परोसते हुए कहा.

‘‘कहां काम करते हैं कुरैशी साहब?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘कटलर हैमर में, उन का दफ्तर कनाट प्लेस में है. असगर पहले इतना दौरे पर नहीं रहते थे जितना कि पिछले एक बरस से रह रहे हैं.’’

‘‘असगर,’’ तरन्नुम ने दोहराया.

‘‘हां, मेरे शौहर, आप ने बाहर तख्ती पर अ. कुरैशी देखा था. अ. से असगर ही है. हमारे बच्चे हंसते हैं, अब्बू, ‘अ’ से अनार नहीं हम अपनी अध्यापिका को बताएंगे ‘अ’ से असगर,’’ फिर प्यार से बच्चे के सिर पर धौल लगाती बोली, ‘‘मुसकराओ मत, झटपट खाना खत्म करो फिर टीवी देखेंगे.’’

‘‘अरे, तरन्नुम तुम कुछ उठा नहीं रहीं,’’ रीता ने तरन्नुम को हिलाया.

‘‘हूं, खा तो रही हूं.’’

‘‘क्यों, खाना पसंद नहीं आया?’’ निकहत ने कहा, ‘‘सच तरन्नुम, मैं भी बहुत भुलक्कड़ हूं. बस, अपनी कहने की रौ में मुझे दूसरे का ध्यान ही नहीं रहता. खाना सुहा नहीं रहा तो कुछ फल और दही ले लो.’’

‘‘न दीदी, मुझे असल में भूख थी ही नहीं, वह तो खाना बढि़या बना है सो इतना खा गई.’’

‘‘अच्छा अब खाना खत्म कर लो फिर तुम्हें ऊपर वाला हिस्सा दिखाते हैं, जिस में तुम्हें रहना है. तुम्हारे यहां आ कर रहने से मेरा भी अकेलापन खत्म हो जाएगा.’’

‘‘पर किराए पर देने से पहले आप को अपने शौहर से नहीं पूछना होगा,’’ तरन्नुम ने कहा.

‘‘वैसे कानूनन यह कोठी मेरी मिल्कियत है. पहले हमेशा ही उन से पूछ कर किराएदार रखे हैं. इस बार तुम आ रही हो तो बजाय 2 आदमियों के बीच बातचीत हो इस बार तरीका बदला जाए,’’ निकहत शरारत से हंस दी, ‘‘यानी मकान मालकिन और किराएदारनी तथा मध्यस्थ भी इस बार मैं औरत ही रख रही हूं. राजन कपूर की जगह बिन्नी कपूर वकील की हैसियत से हमारे बीच का अनुबंध बनाएंगी, क्यों?’’

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रीता जोर से हंस दी, ‘‘रहने दो निकहत दीदी, बिन्नी दी ने शादी के बाद वकालत की छुट्टी कर दी.’’

‘‘इस से क्या हुआ,’’ निकहत हंसी, ‘‘उन्होंने विश्वविद्यालय की डिगरी तो वापस नहीं कर दी है. जो काम कभी न हुआ तो वह आज हो सकता है. क्यों तरन्नुम, तुम्हारी क्या राय है? मैं आज शाम तक कागजात तैयार करवा कर होटल भेज देती हूं. तुम अपनी प्रति रख लेना, मेरी दस्तखत कर के वापस भेज देना. रही किराए के अग्रिम की बात, उस की कोई जल्दी नहीं है, जब रहोगी तब दे देना. आदमी की जबान की भी कोई कीमत होती है.’’

रीता तरन्नुम को तीसरे पहर होटल छोड़ती हुई निकल गई.

द चिकन स्टोरी- भाग 1: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

‘‘अरे यार, यह उपकार तो बड़ा छिपारुस्तम निकला, पूरी यूनिवर्सिटी में टौप मार दिया,’’ इकबाल ने अपनी आंखें बड़ी करते हुए कहा.

‘‘हमें तो लग रहा था वंदना या रुचि ही क्लास में टौप करेंगी. इस ने तो क्लास ही नहीं, पूरी यूनिवर्सिटी को पछाड़ दिया,’’ विनोद ने अपनी राय दी.

‘‘तुम्हारा तो वह सब से अच्छा दोस्त है, वह टौप और तुम मुश्किल से बस, पास हुए हो,’’ अजहर ने मेरी तरफ देखते हुए यह कहा तो सब हंसने लगे और मैं खिसिया कर रह गया.

दोस्त अगर फेल हो जाए तो दुख होता है, लेकिन अगर दोस्त टौप कर जाए, तो ज्यादा दुख होता है. यह डायलौग भले ही अभिनेता व निर्माता आमिर खान की फिल्म ‘थ्री ईडियट्स’ में आया हो लेकिन अपना हाल भी कुछ ऐसा ही था.

उपकार बहुत कम बोलने वाला लड़का था और क्लास में उस की बातचीत ज्यादातर मु?ा से ही होती थी.  अपनी क्लास में वंदना, रुचि, नेहा, जेबा और निधि जैसी एक से बढ़ कर एक इंटैलिजैंट लड़कियां थीं तो शंकर और अतीक भी किसी से कम नहीं थे. फिर भी उपकार इन सब को पीछे छोड़ कर न सिर्फ क्लास, बल्कि पूरी यूनिवर्सिटी में टौप आया था.

‘‘बधाई हो भाई, अब चुपचाप पार्टी दे दो,’’ अगले दिन मैं ने उपकार को देखा तो उस को गले लगा लिया और आगे कहा, ‘‘तुम ने मेरा नाम रोशन कर दिया.’’ मैं ने बनावट के साथ कहा तो सब हंसने लगे.

उपकार से मेरी दोस्ती कालेज के पहले ही दिन हो गई थी. मेरी तरह वह भी कम बोलने वाला था. इस के अलावा उस का घर मेरे घर के पास ही था. हम दोनों रोजाना कालेज साथ ही जाते थे. उपकार की माताजी का देहांत कई बरस पहले हो गया था. उस के पिताजी सरकारी औफिसर थे, सेवानिवृत्ति के बाद वे गांव में रह रहे थे. शहर में उन का एक घर था जहां उपकार अकेला रहता था.

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‘‘यार, कुछ टिप्स हमें भी दे दो,’’ एक दिन कालेज जाते समय मैं ने उपकार से कहा और ठहाका लगते हुए आगे बोला, ‘‘क्लास में सब हमें देख कर हंसते हैं कि एक ऊपर से टौपर है और एक नीचे से.’’

‘‘अरे, मैं कुछ अनोखा थोड़ी पढ़ता हूं. मैं भी वही सब पढ़ता हूं जो सब पढ़ते हैं,’’ उपकार ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे यार, मैं तुम्हारी टौप पोजीशन नहीं छीन लूंगा. मेरा लैवल मैं जानता हूं और तुम भी,’’ मैं ने जोर से हंसते हुए कहा. मैं मन ही मन सम?ा रहा था, यह अपना सीक्रेट नहीं बताना चाहता.

‘‘अच्छा, तुम खुद आ कर देख लेना. आज शाम को घर आ जाओ साथ मिल कर पढ़ते हैं,’’ उस ने मु?ो अपने घर आने की दावत दी तो मैं तुरंत तैयार हो गया.

शाम को मैं उस के घर पहुंचा. वह मेज पर किताबें फैलाए बैठा था और बड़े से रजिस्टर में कुछ लिख रहा था.

‘‘आओ बैठो. देखो, मैं कैसे प्रैक्टिस करता हूं. मैं हर सवाल को 5-7 बार अच्छी तरह पढ़ लेता हूं और फिर उस को लिख कर देखता हूं. इस से मेरी प्रैक्टिस अच्छी रहती है और लिखने की वजह से मु?ो जवाब भी अच्छे से याद रहता है,’’ उपकार ने मु?ो सम?ाते हुए कहा.

‘‘बस,’’  मु?ो तो तरीका कुछ खास नहीं लगा.

‘‘चलो अच्छा, हम दोनों यह सवाल साथसाथ पढ़ते हैं, फिर इस का जवाब लिख कर देखेंगे,’’ उपकार ने मु?ो कैमिस्ट्री का एक सवाल देते हुए कहा.

मैं ने सवाल एक बार पढ़ा. दूसरी बार पढ़ने पर मु?ो तो लगा कि मु?ो सब याद हो गया लेकिन उपकार ने सवाल को 4-5 बार पढ़ा. फिर हम ने अपनेअपने रजिस्टर पर उस का जवाब लिखा और एकदूसरे के जवाब की जांच की. वाकई में उपकार ने पूरा जवाब एकदम सही लिखा था जबकि मैं ने कई चीजें छोड़ दी थीं.

‘‘देखा तुम ने. बारबार पढ़ने और लिखने से मेरी अच्छी प्रैक्टिस हो जाती है,’’ उपकार ने कहा.

मु?ो उस की बात सम?ा में आ गई. फिर तो मैं रोज ही उस के घर जाने लगा और हम साथसाथ ही पढ़ाई करते.

‘‘सुनो, तुम्हारे घर कभी चिकन नहीं बनता क्या?’’ उस दिन उपकार ने पढ़ाई करतेकरते अचानक मु?ा से पूछा.

‘‘बनता है. क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे, तो कभी ला कर खिला न,’’ उस ने बोला तो मेरे हाथ से रजिस्टर गिरतेगिरते बचा.

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‘‘मजाक कर रहे हो न?’’ मैं ने संभल कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘इस में मजाक जैसा क्या है. किसी दिन ले कर आओ, तो साथ खाते हैं,’’ उपकार ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया.

‘‘अच्छा, तुम चाहते हो कि मैं एक उच्च कोटि के ब्राह्मण के घर चिकन ले कर आऊं ताकि तुम्हारे पिताजी मेरा कचूमर बना दें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘और तुम यह नौनवेज कब से खाने लगे?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘मैं तो स्कूलटाइम से ही खाता आ रहा हूं,’’ उपकार ने जवाब दिया.

‘‘और क्या, तुम्हारे पिताजी को पता है तुम्हारी इस उपलब्धि के बारे में,’’ मैं ने उस पर व्यंग्य कसा.

‘‘अरे, पिताजी यहां रहते कहां हैं. महीने में एकदो बार आते हैं. उन को पता कैसे चलेगा. और मैं कौन सा रोजरोज खाता हूं,’’ अपने रजिस्टर में लिखतेलिखते उपकार बोला.

‘‘नहीं भाई, नहीं. मैं यह रिस्क नहीं ले सकता. अगर अंकलजी को पता चल गया, मैं यहां चिकन लाया था, तो मेरा यहां आना तो बंद हो ही जाएगा, मेरे बापू मेरी धुलाई करेंगे सो अलग,’’ मैं ने हाथ खड़े कर दिए.

‘‘अरे, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा, यार. मैं हर बार किसी होटल पर ही खाता हूं, लेकिन घर के चिकन की बात ही कुछ और होगी. तू, बस, अगली बार ले कर आ.’’

वह किसी भी तरह मान ही नहीं रहा था. अब मैं भी था तो एक टीनेजर ही, आ गया उस की बातों में परिणाम की चिंता किए बगैर.

कुछ दिनों बाद घर पर चिकन बना, तो मैं ने थोड़ा सा चिकन एक डब्बे में डाला और शाम को पहुंच गया उपकार के घर. मेरे हाथ में डब्बा देख कर वह सम?ा गया कि उस में क्या है. खुशी से उस की आंखें चमक उठीं.

‘‘यार, खुश कर दिया तू ने तो. आज तो मजा आ जाएगा. पढ़ाई कर के खाते हैं.’’ उपकार की बातों से उस की खुशी छलक रही थी.

दोनों बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक गांव से उपकार के पिताजी आ गए. उन को देखते ही मेरी घिग्गी बंध गई, आंखों के सामने अंधेरा छा गया और जबान तालू से जा चिपकी. एक क्षण के लिए तो उपकार भी घबरा गया लेकिन फिर सामान्य सा बन कर बैठा रहा. घबराहट के मारे मैं अंकलजी को नमस्ते भी नहीं कर पाया.

‘‘कैसे हो बेटा, पढ़ाई हो रही है. बहुत अच्छे,’’ अंकलजी ने मु?ा से कहा, तो मेरी हालत और खराब हो गई.

उपकार ने मु?ो सामान्य रहने का इशारा किया.

‘‘मैं जरा पाठक साहब से मिल कर आता हूं,’’ अंकलजी ने उपकार से कहा और कपड़े बदलने अंदर कमरे में चले गए. मैं ने जल्दी से चिकन का डब्बा टेबल के नीचे छिपा दिया..

मेरी खातिर- भाग 2: झगड़ों से तंग आकर क्या फैसला लिया अनिका ने?

‘‘मम्मी की चमची,’’ कह पापा प्यार से उस का गाल थपथपा कर उठ गए.

उस दिन उस के जन्मदिन का जश्न मना कर सभी देर से घर लौटे थे. अनिका बेहद

खुश थी. वह 1-1 पल जी लेना चाहती थी.

‘‘मम्मा, आज मैं आप दोनों के बीच में सोऊंगी,’’ कहते हुए वह अपनी चादर और तकिया उन के कमरे में ले आई. वह अपनी जिंदगी में ऐसे पलों का ही तो इंतजार करती थी. उस की उम्र की अन्य लड़कियों का दिल नए मोबाइल, स्टाइलिश कपड़े और बौयफ्रैंड्स के लिए मचलता था, जबकि अनकि को खुशी के ऐसे क्षणों की ही तलाश रहती थी जब उस के मम्मीपापा के बीच तकरार न हो.

पापा हाथ में रिमोट लिए अधलेटे से टीवी पर न्यूज देख रहे थे. मम्मी रसोई में तीनों के लिए कौफी बना रही थी.

तभी फोन की घंटी बजने लगी. अमेरिका

से बूआ का वीडियोकौल थी. हमारे लिए दिन

का आखिरी पहर था, जबकि बूआ के लिए

दिन की शुरुआत थी उन्होंने अपनी प्यारी

भतीजी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के

लिए फोन किया था. बोली, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डार्लिंग,’’

मैं ने और पापा ने कुछ औपचारिक बातों के बाद फोन मम्मी की तरफ कर दिया.

‘‘हैलो कृष्णा दीदी,’’ कह कुछ देर बात कर मम्मी ने फोन रख दिया.

‘‘दीदी ने कानों में कितने सुंदर सौलिटेयर पहन रखे थे न, दीदी की बहुत मौज है.’’

‘‘दीदी पढ़ीलिखी, आधुनिक महिला है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है. खुद कमाती है और ऐश करती है.’’

जब भी बूआ यानी पापा की बड़ी बहन की बात आती थी पापा बहुत उत्साहित हो जाते थे. बहुत फक्र था उन्हें अपनी बहन पर.

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‘‘आप मुझे ताना मार रहे हैं.’’

‘‘ताना नहीं मार रहा, कह रहा हूं.’’

‘‘पर आप के बोलने का तरीका तो ऐसा

ही है. मैं ने भी तो अनिका और आप के लिए अपनी नौकरी छोड़ अपना कैरियर दांव पर

लगाया न.’’

‘‘तुम अपनी टुच्ची नौकरी की तुलना दीदी की बिजनैस ऐडमिनिस्ट्रेशन की जौब से कर रही हो?’’ कहां गंगू तेली, कहां राजा भोज.

मम्मी कालेज के समय से पहले एक स्कूल में और बाद में कालेज में हिंदी पढ़ाती थीं. वे पापा के इस व्यंग्य से तिलमिला गईं.

‘‘बहुत गर्व है न तुम्हें अपनी दीदी और खुद पर… हम लोगों ने आप को किसी धोखे में नहीं रखा था. बायोडेटा पर साफ लिखा था पोस्टग्रैजुएशन विद हिंदी मीडियम. हम लोग नहीं आए थे आप लोगों के घर रिश्ता मांगने… आप के पिताजी ही आए थे हमारे खानदान की आनबान देख कर हमारी चौखट पर नाक रगड़ने…’’

‘‘निकिता, जुबान को लगाम दो वरना…’’

‘‘पहली बार अनिका ने पापा का ऐसा रौद्र रूप देखा था. इस से पहले पापा ने मम्मी पर कभी हाथ नहीं उठाया था.’’

‘‘पापा, आप मम्मी पर हाथ नहीं उठा सकते हैं. आप भी बाज नहीं आएंगे… मम्मी का दिल दुखाना जरूरी था?’’

‘‘तू भी अपनी मम्मी का पक्ष लेगी. तेरी मम्मी ठीक तरह से 2 शब्द इंग्लिश के नहीं

बोल पाती.’’

‘‘पापा, आप मम्मी की एक ही कमी को कब तक भुनाते रहोगे, मम्मी में बहुत से ऐसे गुण भी हैं जो मेरी किसी फ्रैंड की मम्मी में नहीं हैं.’’

क्षणभर में अनिका की खुशी काफूर हो गई. वह भरी आंखों के साथ उलटे पैर अपने कमरे में लौट गई.

पापा ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था जबकि मम्मी ने सूरत के लोकल कालेज से एमए. शायद दोनों का बौद्धिक स्तर दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने देता था.

अनिका ने एक बात और समझी थी पापा के गुस्से के साथ मम्मी के नाम में प्रत्ययों की संख्या और सर्वनाम भी बदलते जाते थे. वैसे पापा अकसर मम्मी को निक्कु बुलाते थे. गुस्से के बढ़ने के साथसाथ मम्मी का नाम निक्की से होता हुआ निकिता, तुम से तू और उस में ‘इडियट’ और ‘डफर’ जैसे विशेषणों का समावेश भी हो जाता था. अपने बचपन के अनुभवों से पापा द्वारा मम्मी को पुकारे गए नाम से ही अनिका पापा का मूड भांप जाती थी.

इस साल मार्च महीने से ही सूरज ने अपनी प्रचंडता दिखानी शुरू कर दी थी. ऐग्जाम

की सरगर्मी ने मौसम की तपिश को और बढ़ा दिया था. वह भी दिनरात एक कर पूरे जोश के साथ अपनी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा में जुटी हुई थी. सुबह घर से निकलती, स्कूल कोचिंग पूरा करते हुए शाम

8 बजे तक पहुंच पाती. मम्मीपापा के साथ बिलकुल समय नहीं बिता पा रही थी. इतवार के दिन उस की नींद थोड़ी जल्दी खुल गई थी. वह सीधे हौल की तरफ गई तो नजर डाइनिंग टेबल पर रखे थर्मामीटर की तरफ गई.

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‘‘मम्मा यह थर्मामीटर क्यों निकला है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘तेरे पापा को कल से तेज बुखार है. पूरी रात खांसते रहे. मुझे जरा देर को भी नींद नहीं लग पाई.’’

‘‘एकदम से गला इतना कैसे खराब हो गया? डाक्टर को दिखाया?’’

एक और बेटे की मां- भाग 3: रूपा अपने बेटे से क्यों दूर रहना चाहती थी?

बच्चों के कमरे में एक फोल्ंिडग बिछा, उस पर बिस्तर लगा व उसे सुला कर वह किचन में आ गई. ढेर सारे काम पड़े थे. उन्हें निबटाते रात के 11 बज गए थे. अचानक उस बेसुध सो रहे बच्चे किशोर के पास का मोबाइल घनघनाया, तो उस ने दौड़ कर फोन उठाया. उधर अस्पताल से ही फोन था. कोई रुचिका नामक नर्स उस से पूछ रही थी, ‘‘मिस्टर राकेश ने किन्हीं मिस्टर नीरज का नाम बताया है. वे घर पर हैं?’’

‘‘वे मेरे पति हैं. मगर मेरे पति क्या कर लेंगे?’’

‘‘मिस्टर राकेश बोले हैं कि वे कल उन के कार्यालय में जा कर उन के एक साथी से मिल लें और रुपए ले आएं.’’

‘‘मैं कहीं नहीं जाने वाला,’’ नीरज भड़क कर बोले, ‘‘जानपहचान है नहीं और मैं कहांकहां भटकता फिरूंगा. बच्चे का मुंह क्या देख लिया, सभी हमारे पीछे पड़ गए. इस समय हाल यह है कि लौकडाउन है और बाहर पुलिस डंडे बरसा रही है. और इस समय कोई स्वस्थ आदमी भी अस्पताल जाएगा, तो वह कोरोनाग्रस्त हो जाए.’’

वह एकदम उल झन में पड़ गई. कैसी विषम स्थिति थी. और उन की बात भी सही थी. ‘‘अब जो होगा, कल ही सोचेंगे,’’ कहते हुए उस ने बत्ती बु झा दी.

सुबह किशोर जल्द ही जग गया था. उस ने किशोर से पूछा, ‘‘तुम अपने पापा के औफिस में उन के किन्हीं दोस्त को जानते हो?’’

‘‘हां, वह विनोद अंकल हैं न, उन का फोन नंबर भी है. एकदो बार उन का फोन भी आया था. मगर अभी किसलिए पूछ रही हैं?’’

‘‘ऐसा है किशोर बेटे, तुम्हारी मम्मी के इलाज और औपरेशन के लिए अस्पताल में ज्यादा पैसों की जरूरत आ पड़ी है. और तुम्हारे पापा ने इस के लिए उन के औफिस में बात करने को कहा है.’’

‘‘हां, हां, वे डायरैक्टर हैं न, वे जरूर पैसा दे देंगे,’’ इतना कह कर वह मोबाइल में उन का नंबर ढूंढ़ने लगा. फिर खोज कर बोला, ‘‘यह रहा उन का मोबाइल नंबर,’’ किशोर से फोन ले उस ने उन्हें फोन कर धीमे स्वर में सारी जानकारी दे दी.

‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. वैसे, मैं एक आदमी द्वारा आप के पास रुपए भिजवाता हूं.’’

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‘‘मगर, हम रुपयों का क्या करेंगे?’’ वह बोली, ‘‘अब तो बस मिट्टी को राख में बदलना है. आप ही उस का इंतजाम कर दें. मिस्टर राकेश अस्पताल में भरती हैं. और उन का बेटा अभी बहुत छोटा  है, मासूम है. उसे भेजना तो दूर, यह खबर बता भी नहीं सकती. अभी तो बात यह है कि डैड बौडी को श्मशान पर कैसे ले जाया जाएगा. संक्रामक रोग होने के कारण मेरे पति ने कहीं जाने से साफ मना कर दिया है.’’

‘‘बिलकुल ठीक किया. मैं भी नहीं जाने वाला. कौन बैठेबिठाए मुसीबत मोल लेगा. मैं देखता हूं, शायद कोई स्वयंसेवी संस्था यह काम संपन्न करा दे.’’

लगभग 12 बजे दिन में एक आदमी शोभा के घर आया और उन्हें 10,000 रुपए देते हुए बोला, ‘‘विनोद साहब ने भिजवाए हैं. शायद बच्चे की परवरिश में इस की आप को जरूरत पड़ सकती है. राकेश साहब कब घर लौटें, पता नहीं. उन्होंने एक एजेंसी के माध्यम से डैड बौडी की अंत्येष्टि करा दी है.’’

‘‘लेकिन, हम पैसे ले कर क्या करेंगे? हमारे पास इतना पैसा है कि एक बच्चे को खिलापिला सकें.’’

‘‘रख लीजिए मैडम. समयसंयोग कोई नहीं जानता,’’ वह बोला, ‘‘कब पैसे की जरूरत आ पड़े, कौन जानता है. फिर उन के पास है, तभी तो दे रहे हैं.’’

‘‘ओह, बेचारा बच्चा अपनी मां का अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया. यह प्रकृति का कैसा खेल है.’’

‘‘अच्छा है मैडम, कोरोना संक्रमित से जितनी दूर रहा जाए, उतना ही अच्छा. जाने वाला तो चला गया, मगर जो हैं, वे तो बचे रहें.’’

किशोर दोनों बच्चों के साथ हिलमिल गया था. मुन्ना उस के साथ कभी मोबाइल देखता, तो कभी लूडो या कैरम खेलता. 3 साल की श्वेता उस के पीछेपीछे डोलती फिरती थी. और किशोर भी उस का खयाल रखता था.

उसे कभीकभी किशोर पर तरस आता कि देखतेदेखते उस की दुनिया उजड़ गई. बिन मां के बच्चे की हालत क्या होती है, यह वह अनेक जगह देख चुकी है.

रात 10 बजे जब वह सभी को खिलापिला कर निश्ंिचत हो सोने की तैयारी कर रही थी कि अस्पताल से फिर फोन आया, तो पूरे उत्साह के साथ मोबाइल उठा कर किशोर बोला, ‘‘हां भाई, बोलो. मेरी मम्मी कैसी हैं? कब आ रही हैं वे?’’

‘‘घर में कोई बड़ा है, तो उस को फोन दो,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘उन से जरूरी बात करनी है.’’

किशोर अनमने भाव से फोन ले कर नीरज के पास गया और बोला, ‘‘अंकल, आप का फोन है.’’

‘‘कहिए, क्या बात है?’’ वे बोले, ‘‘राकेशजी कैसे हैं?’’

‘‘ही इज नो मोर. उन की आधे घंटे पहले डैथ हो चुकी है. मु झे आप को इन्फौर्मेशन देने को कहा गया, सो फोन कर रही हूं.’’

आगे की बात नीरज से सुनी नहीं गई और फोन रख दिया. फोन रख कर वे किचन की ओर बढ़ गए. वह किचन से हाथ पोंछते हुए बाहर निकल ही रही थी कि उस ने मुंह लटकाए नीरज को देखा, तो घबरा गई.

‘‘क्या हुआ, जो घबराए हुए हो?’’ हाथ पोंछते हुए उस ने पूछा, ‘‘फिर कोई बात…?’’

‘‘बैडरूम में चलो, वहीं बताता हूं,’’ कहते हुए वे बैडरूम में चले गए. वह उन के पीछे बैडरूम में आई, तो वे बोले, ‘‘बहुत बुरी खबर है. मिस्टर राकेश की भी डैथ हो गई.’’

‘‘क्या?’’ वह अवाक हो कर बोली, ‘‘उस नन्हे बच्चे पर यह कैसी विपदा आ पड़ी है. अब हम क्या करें?’’

‘‘करना क्या है, ऐसी घड़ी में कोई कुछ चाह कर भी नहीं कर सकता,’’ इतना कह कर वे विनोदजी को फोन लगाने लगे.

‘‘हां, कहिए, क्या हाल है,’’ विनोदजी बोले, ‘‘बच्चा परेशान तो नहीं कर रहा?’’

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‘‘बच्चे को तो हम बाद में देखेंगे ही, बल्कि देख ही रहे हैं,’’ वे उदास स्वर में बोले, ‘‘अभीअभी अस्पताल से खबर आई है कि मिस्टर राकेश भी चल बसे.’’

‘‘ओ माय गौड, यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब जो हो रहा है, वह हम भुगत ही रहे हैं. उन की डैडबौडी की आप एजेंसी के माध्यम से अंत्येष्टि करा ही देंगे. सवाल यह है कि इस बच्चे का क्या होगा?’’

‘‘यह बहुत बड़ा सवाल है, सर. फिलहाल तो वह बच्चा आप के घर में सुरक्षित माहौल में रह रहा है, यह बहुत बड़ी बात है.’’

‘‘सवाल यह है कि कब तक ऐसा चलेगा? बच्चा जब जानेगा कि उस के मांबाप इस दुनिया में नहीं हैं, तो उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी? अभी तो हमारे पास वह बच्चों के साथ है, तो अपना दुख भूले बैठा है. मैं उसे रख भी लूं, तो वह रहने को तैयार होगा… मेरी पत्नी को  उसे अपने साथ रखने में परेशानी नहीं होगी, बल्कि मैं उस के मनोभावों को सम झते हुए ही यह निर्णय ले पा रहा हूं.

‘‘मान लीजिए कि मेरे साथ ही कुछ ऐसी घटना घटी होती, तो मैं क्या करता. मेरे बच्चे कहां जाते. ऊपर वाले ने मु झे इस लायक सम झा कि मैं एक बच्चे की परवरिश करूं, तो यही सही. यह मेरे लिए चुनौती समान है. और यह चुनौती मु झ को स्वीकार है.’’

‘‘धन्यवाद मिस्टर नीरजजी, आप ने मेरे मन का बो झ हलका कर दिया. लौकडाउन खत्म होने दीजिए, तो मैं आप के पास आऊंगा और बच्चे को राजी करना मेरी जिम्मेदारी होगी.

‘‘मैं उसे बताऊंगा कि अब उस के मातापिता नहीं रहे. और आप लोग उस के अभिभावक हैं. उस की परवरिश और पढ़ाईलिखाई के खर्चों की चिंता नहीं करेंगे. यह हम सभी की जिम्मेदारी होगी, ताकि किसी पर बो झ न पड़े और वह बच्चा एक जिम्मेदार नागरिक बने.’’

नीरज की बातों से शोभा को परम शांति मिल रही थी. उसे लग रहा था कि उस का तनाव घटता जा रहा है और, वह एक और बेटे की मां बन गई है.

मेरा पति सिर्फ मेरा है- भाग 3: अनुषा ने अपने पति को टीना के चंगुल से कैसे निकाला?

रोती हुई अनुषा बाथरूम में जा कर मुंह धोने लगी तो सास ने दबी आवाज में कहा, ‘‘मैं समझती हूं तुम्हारा दर्द. देखो मैं एक बाबा को जानती हूं. बहुत पहुंचे हुए हैं. वे भभूत दे देंगे या कोई उपाय बता देंगे. सब ठीक हो जाएगा. तुम चलो कल मेरे साथ.’’

अनुषा को बाबाओं और पंडितों पर कोई विश्वास नहीं था. मगर सास समझाबुझा कर जबरन उसे बाबा के पास ले गई. शहर से दूर वीराने में उस बाबा का आश्रम काफी लंबाचौड़ा था. आंगन में भक्तों की भीड़ लगी थी. बाबा की आंखें अनुषा को नशीली लग रही थीं. उस पर बारबार बाबा का भक्तों पर झाड़ू फिराना फिर अजीब सी आवाजें निकालना… अनुषा को बहुत कोफ्त हो रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि टीना को उस की जिंदगी से दूर करने में भला बाबा की क्या भूमिका हो सकती है? इस के लिए तो उसे ही कुछ सोचना होगा. वह चुपचाप बैठ कर आगे का प्लान दिमाग में बनाने लगी.

कुछ समय में उस का नंबर आ गया. बाबा ने वासनाभरी नजरों से उस की तरफ देखा और फिर उस के हाथों को पकड़ कर पास बैठने का इशारा किया. अनुषा को यह छुअन बहुत घिनौनी लगी. वह मुंह बना कर बैठी रही. सास ने समस्या बताई. बाबा ने झाड़ू से उस की समस्या झाड़ देने का उपक्रम किया.

फिर बाबा ने उपाय बताते हुए कहा, ‘‘बच्ची, तुम्हें 18 दिन केवल एक वक्त खा कर रहना होगा और वह भी नमकीन नहीं बल्कि केवल मीठा. इस के साथ ही 18 दिन का गुप्त अनुष्ठान भी चलेगा. काली बाड़ी के पास वाले मंदिर में रोजाना 11 बजे मैं एक पूजा करवाऊंगा. इस में करीब क्व90 हजार का खर्च आएगा.’’

‘‘जी बाबाजी जैसा आप कहें,’’ सास ने हाथ जोड़ कर कहा.

अनुषा उस वक्त तो चुप रही, मगर घर आते ही बिफर पड़ी, ‘‘मांजी, मुझे ऐसे उलजलूल उपायों पर विश्वास नहीं. मैं कुछ नहीं करने वाली. अब मैं अपने कमरे में जा रही हूं ताकि कोई बेहतर उपाय ढूंढ़ सकूं.’’

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अनुषा का गुस्सा देख कर सास चुप रह गई. इधर अनुषा देर रात तक सोचती रही. वह इतनी जल्दी अपनी परिस्थितियों से हार मानने को तैयार नहीं थी. काफी सोचविचार करने पर उसे रास्ता नजर आ ही गया.

अनुषा ने पहले टीना के बारे में अच्छी तरह खोजखबर ली ताकि उस की कमजोर नस पकड़ सके. सारी जानकारी एकत्र की. जल्द ही उसे पता लग गया कि टीना का पति रैडीमेड कपड़ों का व्यापारी है और पास की मार्केट में उस की काफी बड़ी शौप भी है. बस फिर क्या था अनुषा ने अपनी योजना के हिसाब से चलना शुरू कर दिया.

सब से पहले एक ड्रैस खरीदने के बहाने वह उस दुकान में गई. दुकान का मालिक यानी टीना का पति विराज करीब 40 साल का एक सीधासाधा सा आदमी था. सिर पर बाल काफी कम थे. वैसे पर्सनैलिटी अच्छी थी. अनुषा ने बातों ही बातों में बता दिया कि वह भी विराज के शहर की है. फिर क्या था विराज उस पर अधिक ध्यान देने लगा.

अनुषा ने एक महंगा सूट खरीदा और घर चली आई. 2-3 दिन बाद वह फिर उसी दुकान में पहुंची और कुछ कपड़े लिए. विराज ने उस के लिए स्पैशल चाय मंगवाई तो अनुषा भी बैठ कर उस से ढेर सारी बातें करने लगी. धीरेधीरे उस ने यह भी बता दिया कि उस का पति भुवन टीना के औफिस में काम करता है. विराज टीना और भुवन के रिश्ते के बारे में पहले से जानता था. इसलिए अनुषा से और भी ज्यादा जुड़ाव महसूस करने लगा.

अनुषा अब अकसर विराज की शौप पर जाने लगी और उस से देर तक बातें

करती. जल्द ही विराज से उस की दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि विराज ने उसे घर आने को भी आमंत्रित कर दिया.

अगले ही दिन अनुषा टीना की गैरमौजूदगी में विराज और टीना के घर पहुंच गई. विराज ने उस की काफी आवभगत की और दोनों ने दोस्त की तरह साथ समय व्यतीत किया. चलते समय अनुषा ने जानबूझ कर टीना के बैड पर कोने में अपना हेयर पिन रख दिया. रात में जब टीना ने वह हेयर पिन देखा तो बौखला गई और विराज से सवाल करने लगी. विराज ने किसी तरह बात को टाल दिया.

मगर 2 दिन बाद ही अनुषा फिर विराज के घर पहुंच गई. इस बार वह बाथरूम में अपना दुपट्टा लटका आई थी.

टीना ने जब लेडीज दुपट्टा बाथरूम में देखा तो आपे से बाहर हो गई और विराज पर उंगली उठाने लगी, ‘‘वह दुपट्टा किस का है विराज, बताओ किस के साथ रंगरलियां मना रहे थे तुम?’’

‘‘पागल मत बनो टीना. मैं तुम्हारी तरह किसी के साथ रंगरलियां नहीं मनाता,’’ विराज का गुस्सा भी फूट पड़ा.

‘‘तुम्हारी तरह? क्या कहना चाहते हो तुम? भूलो मत मेरे पिता के पैसों पर पल रहे हो. मुझे धोखा देने की बात सोचना भी मत.’’

‘‘देखा टीना मैं मानता हूं एक महिला से मेरी दोस्ती हुई है. अनुषा नाम है उस का. मगर वह घर पर सिर्फ चाय पीने आई थी. यकीन मानो हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम रंगरलियां मनाना कह सको.’’

अब टीना थोड़ी सावधान हो गई थी. उसे महसूस होने लगा था कि बदला लेने के लिए अनुषा उस के पति पर डोरे डाल रही है. टीना ने अब भुवन के घर आनाजाना कम कर दिया मगर उस के साथ वक्त बिताना नहीं छोड़ा.

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इधर अनुषा फिर से विराज के घर पहुंची. इस बार वह विराज के लिए खूबसूरत सा गिफ्ट ले कर आई थी. यह एक खूबसूरत कविताओं का संग्रह था. विराज को कविताओं का बहुत शौक था. 2-3 घंटे दोनों कविताओं पर चर्चा करते रहे. इस बीच योजनानुसार अनुषा ने अपनी इस्तेमाल की हुई एक सैनिटरी नैपकिन टीना के बाथरूम की डस्टबिन में डाल दी. फिर विराज से इजाजत ले कर घर लौट आई.

अनुषा को अंदेशा हो गया था कि आज रात या कल सुबह टीना कोई न कोई ड्रामा जरूर करेगी. हुआ भी यही. सुबहसुबह टीना अनुषा के घर आ धमकी.

वह बाहर से ही चिल्लाती आ रही थी, ‘‘मेरे पति पर डोरे डाले तो अच्छा नहीं होगा अनुषा. मेरा पति सिर्फ मेरा है.’’

हंसती हुई अनुषा किचन से बाहर निकली और बोल पड़ी, ‘‘मान लो मैं तुम्हारे पति पर डोरे डाल रही हूं… बताओ क्या करोगी तुम? मेरे पति पर डोरे डालोगी? वह तो तुम पहले ही कर चुकी हो. आगे बताओ और क्या करोगी?’’

अनुषा का सवाल सुन कर वह बिफर पड़ी. चीखती हुई बोली, ‘‘खबरदार अनुषा जो पति की तरफ आंख उठा कर भी मत देखा. वरना तुम्हारे पति को नौकरी से निकाल दूंगी.’’

‘‘तो निकाल दो न टीना. मैं भी यही चाहती हूं कि वह तुम्हारे चंगुल से आजाद हो जाए. हंसी आती है तुम पर… मेरे पति के साथ गलत रिश्ता रखने में तुम्हें कोई दिक्कत नहीं. मगर तुम्हारे पति की ओर कोई देख भी ले तो तुम्हें समस्या हो जाती है. कैसी औरत हो तुम जो औरत का दर्द ही नहीं समझ सकती? दर्द तुम नहीं सह सकती वह दूसरों को क्यों देती हो?’’

दूर खड़ा भुवन दोनों की बातें सुन रहा था. उस की आंखें खुल गई थीं. मन ही मन अनुषा

की तारीफ कर रहा था कि कितनी सचाई से उस ने गलत के खिलाफ आवाज उठाई थी.

अब तक टीना भी सब के आगे अपना मजाक बनता देख संभल चुकी थी. अनुषा की बातों का असर हुआ था या फिर खुद पर जब बीती तो उस जलन के एहसास ने टीना को सोचने पर विवश कर दिया. उस के पास कोई जवाब नहीं था.

घर लौटते समय वह फैसला कर चुकी

थी कि आज के बाद भुवन पर अपना कोई हक नहीं रखेगी.

इंतजार- भाग 3: क्यों सोमा ने अकेलापन का सहारा लिया?

महेंद्र पढ़ालिखा तो था ही, वह अब पूरे एरिया का इंस्पैक्टर बन गया था.

प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत एक घर के लिए सोमा का नाम निकल आया था. उस के लिए

एक लाख रुपए जमा करने थे. नाम उस का निकला था पैसे भी उसी के नाम पर जमा होने थे. लेकिन महेंद्र ने निसंकोच पलभर में पैसे उस के नाम पर दे दिए. अब उस का अपना मकान हो गया था.

मकान मिलते ही वे दोनों बस्ती से दूर इस कालोनी में आ कर रहने लगे थे.

सोमा को अपने जीवन में सूनापन लगता. जब उस से सब अपने पति या बच्चों की बात करतीं, तो उस के दिल में कसक सी उठती थी कि काश, उस का भी पति होता, परिवार और बच्चे हों. लेकिन महेंद्र ने उस से दूरी बना कर रखी थी. उस ने लालची निगाहों से कभी उस की ओर देखा भी नहीं था.

जबकि सोमा के सजनेसंवरने के शौक को देखते हुए महेंद्र बालों की क्लिप, नेलपौलिश, लिपस्टिक आदि लाता रहता था. कभी सूट तो कभी साड़ी भी ले आता था. एक दिन लाल साड़ी ले कर आया था, बोला, ‘सोमा, यह साड़ी पहन, तेरे पर लाल साड़ी खूब फबेगी.’

‘साड़ी तो तू सच में बड़ी सुंदर लाया है. लेकिन इसे भला पहनूंगी कहां, बता?’

‘हम दोनों इतवार को पिक्चर देखने चलेंगे, तब पहनना.’ वह शरमा गई थी.

दोनों के बीच पतिपत्नी का रिश्ता नहीं था, लेकिन दोनों साथसाथ एक ही घर में रहते थे.

वह कमरे में सोती तो महेंद्र बाहर बरामदे में. उस के अपने घर की खबर मिलते ही सूरज जाने कहां से प्रकट हो गया और पूरी कालोनी में महेंद्र की रखैल कह कर गालीगलौज करते हुए पति का हक जमाने लगा.

महेंद्र को बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी. सोमा अकेले ही सूरज का सामना करने के लिए काफी थी. उस की गालियों के सामने उस की एक नहीं चली थी और हार कर वह लौट गया था.

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कई बार रात के अंधेरे में वह करवटें बदलती रह जाती थी. समाज की ऊलजलूल बातें और लालची मर्दों की कामुक निगाहें, मानो वह कोई ऐसी मिठाई है, जिस का जो चाहे रसास्वादन कर सकता है.

महेंद्र के साथ रहने से वह अपने को सुरक्षित महसूस करती थी. बैंक में अकाउंट हो या कोई भी फौर्म, पति के नाम के कौलम को देखते ही उस के गले में कुछ अटकने लगता था.

वह महेंद्र की पहल का मन ही मन इंतजार करती रहती थी.

महेंद्र अपनी बात का पक्का निकला था, उस ने भी सोमा का मान रखा था.

दोनों साथ रहते, खाना खाते, घूमने जाते लेकिन आपस में एक दूरी बनी  हुई थी.

‘सोमा, कल काम की छुट्टी कर लेना.’

‘क्यों?’

‘कल आर्य कन्या स्कूल में आधार कार्ड के लिए फोटो खिंचवाने चलना है. फोटो खींची जाएगी, अच्छे से तैयार हो कर चलना.’

वह मुसकरा उठी थी.

अगले दिन उस ने महेंद्र की लाई हुई साड़ी पहनी, कानों में ?ामके पहने थे. उस ने माथे पर बिंदिया लगाई. फिर आज उस के हाथ मांग में सिंदूर सजाने को मचल रहे थे.

हां, नहीं, हां, नहीं, सोचते हुए उस ने अपनी मांग में सिंदूर सजा लिया था. हाथों में खनकती हुई लाल चूडि़यां, आज वह नवविवाहिता की तरह सज कर तैयार हुई थी. आईने में अपना अक्स देख वह खुद शरमा गई थी.

महेंद्र उस को देख कर अपनी पलकें ?ापकाना ही भूल गया था. वह बोला, ‘क्या सूरज की याद आ गई तुम्हें?

वह इतरा कर बोली, ‘चलो, फोटो निकलवाने चलना है कि नहीं?’

सोमा को इतना सजाधजा देख महेंद्र उस का मंतव्य नहीं सम?ा पा रहा था.

वह चुपचाप उस के साथ चल दिया था. वहां फौर्म भरते समय जब क्लर्क ने पति का नाम पूछा तो एक क्षण को  वह शरमाई, फिर मुसकराती हुई  तिरछी निगाहों से महेंद्र को देखते  हुए उस का हाथ पकड़ कर बोली  थी, ‘महेंद्र’.

महेंद्र के कानों में मानो घंटियां बज उठी थीं. इन्हीं शब्दों का तो वह कब से इंतजार कर रहा था. वह अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहा था कि सोमा ने उसे आज अपना पति कहा है.

रात में वह रोज की तरह अपने कमरे में जा कर लेट गया था. आज खुशी से उस का दिल बल्लियों उछल रहा था. लेकिन वह आज भी अपनी खुशी का इंतजार कर रहा था.

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आज नवविवाहिता के वेश में सजधज कर अपनी मधुयामिनी के लिए सोमा आ कर अपने प्रेमी की बांहों में सिमट गई थी.

अब उस के मन में समाज का कोई भय नहीं था कि महेंद्र जाट है और वह वाल्मीकि. अब वे केवल पतिपत्नी हैं. वह मुसकरा उठी थी.

महेंद्र की आवाज से वह वर्तमान में लौटी थी, ‘‘सोमा, दरवाजा तो खोलो, मैं कब से इंतजार कर रहा हूं.’’

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