लेखिका- डा. नीरजा श्रीवास्तव
‘‘देख अपर्णा, इधर आ जल्दी.’’ ‘‘क्या है मम्मा?’’ अपर्णा वीडियो पौज कर मोबाइल हाथ में लिए चली आई थी.
‘‘वह देख, पार्थ नीचे खड़ा अपने गमलों को कितने प्यार से पानी दे रहा है. सादे कपड़ों में भी कितना हैंडसम दिखता है.’’
अपर्णा ने मां रागिनी को घूर कर देखा.
‘‘यह देख, कितना हराभरा कर दिया है उस ने यह बगीचा. अभी आए कुल 2 महीने ही तो हुए हैं इन लोगों को यहां,’’ वह फुसफुसा कर बताए जा रही थी.
‘‘मम्मा, आप तो पीछे ही पड़ जाते हो. बस, कोई लड़का दिख जाना चाहिए आप को. उस की खूबियां गिनाने लग जाती हो. बोल दिया न, मु?ो नहीं करनी शादीवादी, वह भी एक सरकारी नौकरी वाले से कतई नहीं. शगुन दी की शादी की थी न सरकारी डाक्टर से. बेचारी आज तक वहीं बनारस में अटकी अस्पताल, मंदिर और घाटों के दर्शन कर रही हैं.’’
‘‘तेरी प्रौब्लम क्या है. स्मार्ट है, हैंडसम है पार्थ, दिल्ली विश्वविद्यालय में बौटनी का लैक्चरर है. उस का अपना घर है. उस पर से अकेला लड़का है, एक बहन है, बस.’’
‘‘हां, एक बहन है, जिस की शादी हो चुकी है. बड़े भले लोग हैं. पिता डिग्री कालेज में इंग्लिश के प्रोफैसर थे, रिटायर हो चुके हैं. मां स्कूल टीचर थीं, रिटायर हो चुकीं. अपनी ही जाति के हैं...और कुछ? मम्मा कितनी बार बताओगे मु?ो यही बातें,’’ वह खीझी सी एक सांस में सब बोल कर ही ठहरी थी और रागिनी को खींच कर अंदर ले आई थी.
‘‘अभीअभी नौकरी लगी है उस की, रिश्तों की भरमार है उस के लिए, कमला बहनजी बता रही थीं. कोई रुका थोड़े ही रहेगा तेरे लिए,’’ रागिनी ने कहा.