एनकाउंटर स्पेशलिस्ट: 86 शिकार बने दया नायक के

गरीबी से भी नीचे की रेखा से उठ कर देश का टौप 10 एनकाउंटर स्पैशलिस्ट बन जाना मामूली बात नहीं थी, लेकिन दया नायक बने. जब वह एक के बाद एक एनकाउंटर कर रहे थे, मुंबई चैन की…

आम आदमी और पुलिस में एक फर्क यह है कि किसी पर गोली चलाने के लिए एक की मजबूरी होती है, दूसरे की खुन्नस या लालच. गोली चला कर एक बहादुर बन जाता है, दूसरा हत्यारा. ऐसे हत्यारों से निपटने के लिए पुलिस होती है. और अगर पुलिस वाला दया नायक जैसा हो तो कहने की क्या?

मुंबई की पुलिस दया नायक, जिन पर नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म ‘अब तक छप्पन’ बनी थी और पसंद भी की गई थी. वह व्यक्ति हैं जिन्होंने मुंबई के अंडरवर्ल्ड को हिला दिया था. उन्होंने 86 एनकाउंटर किए.
मारे गए सभी ऐसे दुर्दांत अपराधी और अंडरवर्ल्ड के लोग थे, जिन्होंने मुंबई की नींद हराम कर रखी थी. फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं और बड़े बिजनैसमैन से दाऊद और छोटा शकील के नाम पर रंगदारी वसूलने वाले और न देने पर उन्हें मौत के घाट उतार देने वाले. ऐसे में इंसपेक्टर दया नायक उन की मौत बन कर मैदान में उतरे.

लेकिन आगे बढ़ने से पहले बता दें, दया नायक यूं ही इतने बड़े एनकाउंटर स्पैशलिस्ट नहीं बन गए थे. वह बेहद गरीबी से उबर कर आए थे. कर्नाटक के उडुपी जिले के एनहोले गांव निवासी बड्डा और राधा की इस तीसरी संतान ने गरीबी को बहुत करीब से देखा और जिया.

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इसी के चलते उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया और मुंबई आ गए. कितनी ही रातें रेलवे स्टेशनों पर सो कर गुजारीं. जैतैसे काम भी मिला तो ढाबे पर, वह भी वेटर का. थोड़े पैसे अलग से मिल जाएं, इस के लिए दया ने लोगों के घरों की टोंटियां तक ठीक करने का काम किया.

फिर एक कैंटीन में नौकरी मिल गई. काम आता था, मन में ईमानदारी और काम की लगन थी सो बाद में वर्सोवा के एक होटल में 600 रुपए पर नौकरी मिल गई. टिप मिला कर 7 साढ़े सौ रुपए हो जाते थे, जिस में से दया आधा पैसा मां को भेज दिया करते थे क्योंकि तब तक पिता का निधन हो चुका था.

पैसों की तंगी की वजह से पढ़ाई बचपन में ही छूट गई थी. पैसे मिलने लगे तो दया ने एक बार फिर पढ़ने का मन बनाया. होटल में काम करतेकरते उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी. होटल मालिक सहृदय था. दया की मेहनत और लगन देख कर उस ने उन का दाखिला गोरेगांव के एक नाइट स्कूल में करा दिया. इसी तरह अपनी मेहनत के बल पर दया ने एसएससी पास की. वह पुलिस में जाना चाहते थे, इसलिए उसी की परीक्षा की तैयारी की. इस के लिए उन्होंने बतौर लाइब्रेरियन दादर की एक लाइब्रेरी में नौकरी भी की.

उन की मेहनत रंग लाई और 1995 में वे मुंबई में सबइंसपेक्टर बन गए. जुहू पुलिस स्टेशन के डिटेक्शन विभाग में उन्हें जौइनिंग मिली. यहीं दया का सामना अंडरवर्ल्ड डौन छोटा राजन के गुर्गों से हुआ. इस मुकाबले में छोटा राजन के गुर्गों को मौत का मुंह देखना पड़ा.

यहीं से दया नायक की किस्मत पलटी. उन के हौसले को देखते हुए पूर्व पुलिस उपायुक्त चौधरी सतपाल सिंह (अब बीजेपी सांसद) ने उन्हें क्राइम इंटेलीजेंस यूनिट में शामिल करवा दिया.

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उस वक्त मुंबई के धुरंधर एनकाउंटर स्पैशलिस्ट प्रदीप शर्मा की देखरेख में उन्होंने सीआईयू जौइन कर लिया. दया नायक ने 1996 में प्रदीप शर्मा के साथ मिल कर अंडरवर्ल्ड डौन बबलू शर्मा के 2 गुर्गों को ढेर कर दिया. दया के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनने की शुरुआत यहीं से हुई. उसी दौरान दया ने एलटीटीई के 3 सदस्यों को सरेआम मुठभेड़ में गोलियों से छलनी किया. ये तीनों गैंगस्टर अमर नाइक के लिए काम करते थे.

इस के बाद दया नायक ने सदिक कालिया, श्रीकांत मामा, रफीक डिब्बेवाला, परवेज सिद्दकी, विनोद भटकर और सुभाष समेत अंडरवर्ल्ड के दर्जनों गुंडों को मौत के घाट उतारा.
दया ने अपने गांव में एक शानदार स्कूल बनवाया जिस के उद््घाटन पर उन्होंने अमिताभ बच्चन जैसी कई जानीमानी हस्तियों को बुलवाया था.

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इस से उन पर अपने रसूख का गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगा. उन पर आय से अधिक संपत्ति का मामला भी दर्ज हुआ, जिस में वह निर्दोष साबित हुए. 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उन पर लगे सभी आरोप निरस्त कर दिए. 2012 में उन्हें फिर मुंबई पुलिस में शामिल कर लिया गया.

जौइनिंग के बाद दया नायक की पोस्ंटिंग नागपुर में की गई. पर वे वहां नहीं गए क्योंकि अंडरवर्ल्ड से उन के परिवार को खतरा था. इसी वजह से उन्हें 2015 में फिर निलंबित कर दिया गया.

2016 में दया नायक की पुलिस में फिर वापसी हुई और 2018 में उन्हें मुंबई के अंबोला पुलिस स्टेशन का इंस्पेक्टर बनाया गया. 2019 में दया नायक को एटीएस में ट्रांसफर कर दिया गया. फिलहाल दया नायक के खाते में 86 एनकाउंटर हैं. द्य

कभी हिम्मत नहीं हारी: डी रूपा

डी.रूपा वह चर्चित नाम है जिसे रूपा दिवाकर मौदगिल के नाम से भी जाना जाता है. देश की यह चर्चित
आईपीएस अफसर किसी परिचय की मोहताज नहीं, इन के चर्चे मीडिया में सुर्खियां बनते रहते हैं. बेबाक, निडर और साहसी आईपीएस डी. रूपा का सर्विस रिकौर्ड बड़ा शानदार रहा है, हालांकि इस के लिए उन को अभी तक 20 साल के कैरियर में 43 बार ट्रांसफर का दर्द झेलना पड़ा. लेकिन वह इसे अपनी नौकरी का हिस्सा मानती रहीं, कभी कोई शिकायत नहीं की.

वह जिस राज्य में रहीं, वहां का मुख्यमंत्री कभी चैन से नहीं सो पाया. क्योंकि डी. रूपा अपने काम के तरीकों से कब और कहां के भ्रष्टाचार का खुलासा कर दें या कोई ऐसी काररवाई कर दें कि राज्य में भूचाल आ जाए और वह मीडिया में छा जाए, कोई नहीं जान सकता.

डी. रूपा कभी गलत होते नहीं देख सकतीं, सच को सब के सामने लाने के लिए वह बिलकुल भी नहीं डरती, सामने वाला कितना भी ताकतवर और रसूख वाला हो, वह इस की बिलकुल परवाह नहीं करती.
देश की बागडोर असल मायनों में अफसरों के हाथ में होती है, यदि नौकरशाही दुरुस्त हो तो कानूनव्यवस्था चाकचौबंद रहती है. डी. रूपा जैसे ही अफसर हैं जो देश सेवा का जुनून लिए नौकरशाही की साख बचाए हुए हैं. अफसर चुपचाप शांति से अपनी सर्विस लाइफ जीते रहते हैं. विरले ही अफसर होते हैं जो सिस्टम और भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ आवाज उठाते हैं. डी. रूपा ऐसे ही अफसरों में से एक हैं. उन की दिलेरी के किस्से आज मिसाल के तौर पर पेश किए जा रहे हैं.

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सिस्टम से भी टकरा जाने वाली कर्नाटक कैडर की आईपीएस डी. रूपा पहली महिला आईपीएस अफसर तो थी ही, साथ ही राज्य के गृह सचिव पद को संभालने वाली भी पहली महिला थीं. डी. रूपा कर्नाटक के पश्चिमी घाट की तलहटी में बसे दावणगेरे कस्बे में पैदा हुई थीं, तब यह जिला नहीं हुआ करता था. तब यह एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था.

रूपा के पिता जे.एच. दिवाकर सरकारी टेलीकौम कंपनी बीएसएनएल में इंजीनियर थे. मां हेमावती पोस्ट औफिस में डाक अधीक्षक की पोस्ट पर थीं.

रूपा की एक छोटी बहन थी रोहिणी दिवाकर. रोहिणी 2008 बैच की आईआरएस अधिकारी हैं और संयुक्त आयकर आयुक्त के पद पर तैनात हैं.

डी. रूपा जब तीसरी कक्षा में थीं, तब क्लास टीचर ने बच्चों से कहा कि वे बडे़ हो कर क्या बनना चाहते हैं. आज मत बताओ, घर जाओ, अपने मातापिता से बात करो, फिर कल आ कर बताना.

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बनना चाहती थीं आईपीएस

डी. रूपा घर पहुंचीं. मां हेमावती से बात की कि उन को बड़े हो कर क्या बनना है तो उन की मां ने कहा कि डाक्टर बनो. रूपा को यह कुछ नहीं भाया तब उन्होंने पिता से बात की. उन्होंने कहा कि आईएएस या आईपीएस अफसर बनना.

पिता ने रूपा को इस बारे में भी बताया कि आईएएस बनने से डीसी सा डीएम बन जाते हैं और आईपीएस बनने से एसपी बन जाते हैं. यह लीडरशिप रोल रूपा को इतना भाया कि रूपा ने अगले दिन कक्षा में जा कर अपनी क्लास टीचर को अपने आईपीएस बनने की इच्छा बता दी.

रूपा ही अकेली ऐसी छात्रा थी, जिस ने पुलिस अधिकारी बनने की बात कही थी. यह सुन कर अध्यापिका ने सभी बच्चों को ताली बजाने को कहा. रूपा का जवाब सुन कर सभी खुश हुए. तब रूपा को लगा था कि इस में कुछ विशेषता है, बड़े हो कर आईएएस या आईपीएस बनना है.

इसी दौरान रूपा ने एनसीसी जौइन कर ली. गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में कैंप होता है. जब रूपा नौंवीं कक्षा में थी तब उस ने गणतंत्र दिवस पर अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस कैंप में भाग लिया था. यह मौका उन्हें तब मिला था, जब उन्होंने वहां तक पहुंचने के लिए 4-5 पड़ाव पार किए थे.

उस समय गणतंत्र दिवस के मौके पर देश की चर्चित महिला अफसर किरन बेदी आई थीं, उन्होंने वहां युवाओं को प्रेरित करने के लिए जो भाषण दिया, उस से रूपा काफी प्रेरित हुईं. उस समय प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए एक पत्रिका आती थी ‘कंप्टीशन सक्सेस रिव्यू’. यह पत्रिका किसी ने रूपा को पढ़ने के लिए दी.

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उस पत्रिका में यूपीएससी में टौप किए लोगों के इंटरव्यू और सौल्व्ड पेपर्स आते थे. उस पत्रिका को पढ़ कर रूपा ने जाना कि कैसे उसे इस क्षेत्र में कैरियर बनाना है. उस समय कर्नाटक में इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेजों की भरमार थी.

इंजीनियर और डाक्टर बनने की हवा चल रही थी. कोई पुलिस सेवा में जाने की सोचता तक नहीं था. इस संबंध में अधिक जानकारी भी नहीं मिल पाती थी.

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इस के बावजूद रूपा ने पुलिस सेवा को अपना कैरियर बनाने की ठानी. उन्होंने साइकोलौजी और सोशियोलौजी में यूपीएससी पास करने की ठान ली. उन की जलती हुई महत्त्वाकांक्षा में ईंधन का काम किया टीवी धारावाहिक ‘उड़ान’ ने, जोकि देश की दूसरी महिला पुलिस अधिकारी कंचन चौधरी के जीवन से पे्ररित था. दूरदर्शन पर प्रसारित इस धारावाहिक में पुलिस अधिकारी को एक दोस्त और जनता के रक्षक के रूप में दिखाया गया था. दूरदर्शन देख देख कर ही रूपा ने हिंदी बोलना सीखा.
रूपा ने 10वीं में स्टेट लेवल पर 23वीं रैंक हासिल की. रूपा ने आर्ट से आगे बढ़ने का फैसला किया. उन्होंने कर्नाटक के कुवेंपु विश्वविद्यालय से प्रथम रैंक में स्वर्ण पदक हासिल करने के साथ बीए की पढ़ाई पूरी की. इस के बाद बेंगलुरु विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान से एमए किया. इस में उन की तीसरी रैंक थी.

एमए करने के बाद रूपा ने नेट (हृश्वञ्ज) की परीक्षा पास की. उन्होंने जेआरएफ निकाला और साथ ही आईपीएस की तैयारी करती रहीं. उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में 43वीं रैंक हासिल की.
इस शानदार रैंक पर वह चाहतीं तो आईएएस चुन सकती थीं लेकिन उन्होंने आईपीएस को चुना. हैदराबाद में सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी से प्रशिक्षण लिया, जहां उन को अपने बैच में 5वां स्थान मिला. उन्हें कर्नाटक कैडर आवंटित किया गया.

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डी. रूपा शार्पशूटर थीं. ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने कई पदक भी जीते. इस के अलावा वह भरतनाट्यम की कुशल डांसर थीं. रूपा ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा ली थी. कन्नड़ फिल्म बेलाताड़ा भीमन्ना के लिए एक गीत भी अपनी आवाज में गाया था. इस फिल्म ने रविचंद्रन ने मुख्य भूमिका निभाई थी. रूपा तेज दिमाग के साथ खूबसूरती भी थीं. ब्यूटी विद ब्रेन के कारण रूपा ने 2 बार ‘मिस दावणगेरे’ का खिताब जीता था.

2000 बैच की आईपीएस अफसर रूपा ने 2002 में उडुपी से सहायक एसपी के रूप में अपना कैरियर शुरू किया. 2003 में रूपा ने 1998 बैच के आईएएस अधिकारी मौनिश मौदगिल से विवाह किया. पंजाब के रहने वाले मौनिश ने आईआईटी बौंबे से अपनी बीटेक इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पूरी की.

मौनिश ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा पास की और ओडिशा कैडर में आईएएस अफसर बने.
रूपा और मौनिश दोनों पहली बार मसूरी में फाउंडेशन ट्रेनिंग में मिले और शादी करने का फैसला किया. उन को एक बेटी अनघा और एक बेटा रौशिल है.

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पहली नियुक्ति बनी चुनौती

रूपा की एसपी के रूप में सब से पहली पोस्टिंग 2004 में कर्नाटक के धारवाड़ जिले में हुई. पोस्टिंग हुए एक महीने का समय ही बीता था कि उन को एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई, वह जिम्मेदारी थी मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती को गिरफ्तार करने की. मामला कर्नाटक के हुबली से जुड़ा था, जहां 15 अगस्त, 1994 को ईदगाह पर तिरंगा फहराने के मामले में उमा भारती के खिलाफ वारंट जारी हुआ था. आरोप था कि उन की इस पहल से सांप्रदायिक सौहार्द खतरे में पड़ा था.

10 साल पुराने इस मामले में कोर्ट ने उमा भारती के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया था. इस वारंट को तामील कराने के लिए डी. रूपा धारवाड़ से निकलीं. लेकिन जब तक वह पहुंचती, उमा भारती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.

उमा भारती को गिरफ्तार कर के उन को कोर्ट मे पेश किया गया. इसी प्रकरण से पहली बार डी. रूपा चर्चा में आई थीं. रूपा धारवाड़ के बाद गडग, बीदर और यादगीर जिले में भी एसपी पद पर तैनात रहीं. 2008 में गडग में बतौर एसपी तैनाती के दौरान उन्होंने एक पूर्व मंत्री यावगल को गिरफ्तार किया था.

उन्होंने अपने ही अधीनस्थ डीएसपी मासूति को अपने और पूर्वमंत्री के बीच सौदा कराने की कोशिश के लिए निलंबित कर दिया था. कुछ महीनों के भीतर ही रूपा को स्थानांतरित कर दिया गया. इस मामले को 5 सालों तक खींचा गया. इस के लिए विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लाया गया लेकिन रूपा कानूनी तौर पर सही थीं, इसलिए उन पर कोई काररवाई नहीं हुई.

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गुलबर्गा से अलग कर के बनाया गया था नया जिला यादगीर. नया जिला होने से कोई सशस्त्र बल नहीं था, ला ऐंड और्डर बनाए रखने की बड़ी मुश्किलें थीं. उस पर किसी तरह काम कर के रूपा ने जिले में पूर्णतया शांति बनाए रखी. एसपी के पद पर होते हुए भी वहां उन के रहने के लिए कोई आवास नहीं था.
किराए पर भी कोई आवास नहीं मिला. यादगीर में ही रूपा के पति मौनिश को अतिरिक्त चार्ज मिला हुआ था. उन्हें एक आवास आवंटित किया गया था. रूपा पति को मिले आवास में ही जा कर रहने लगीं.
वहां रूपा को कुछ कष्ट सहने पड़े. पास में ही एक गांव में स्कूल था. उस स्कूल से रूपा की बेटी अनिघा ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई शुरू की. वहां बच्चों को स्कूल में जमीन पर बैठ कर पढ़ना होता था.

कुछ लोग यह सोचते हैं कि आईपीएस की जिंदगी बड़ी सुखद होती है, आलीशन घर होते हैं, एसी चैंबर होते हैं, पैसा होता है, नौकरचाकर होते हैं, मगर चुनौतियां कुछ इस तरह की भी हो सकती हैं, जो रूपा के सामने आईं.

यादगीर के बाद 2013 में रूपा बेंगलुरु में डिप्टी कमिश्नर औफ पुलिस (सिटी आर्म्ड रिजर्व) के पद पर तैनात हुईं. वहां रूपा ने देखा कुछ राजनेता, विधायक और सांसद अनाधिकृत रूप से अतिरिक्त गनमैन रखे हुए थे. यह देख कर रूपा ने एक लिस्ट बनाई और 82 राजनेताआें से 290 गनमैन वापस ले लिए.
तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के पास कानवाय के लिए विभाग के 8 नए एसयूवी वाहन थे, किसी ने वापस नहीं लिए. वह रूपा ने वापस ले लिए. इस काररवाई के बाद रूपा का ट्रांसफर कर दिया गया.

नौकरशाही पर लगाम लगाने और उन को सबक सिखाने के लिए राजनेता ट्रांसफर को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं. यही वजह है कि नौकरशाही ट्रांसफर के डर से और कंफर्ट जोन में रहने के लिए शांत रहती है. लेकिन रूपा शांत रहने वाले अफसरों में से नहीं थीं. कुछ भी गलत होते देख कर वह चुप नहीं बैठती थीं.

डी. रूपा को लगातार 2 साल 2016 और 2017 में राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया. जुलाई 2017 में रूपा को डीआईजी जेल के पद पर तैनात किया गया. रूपा का पहला जेल निरीक्षण एक घंटे का था. उन्होंने जेल में कैदियों से बात की तो वह उन को अंदर से रुला गई. कैदियों की कहानियों, जेल में बिताए वर्ष, उन की आंखों के पछतावे ने रूपा को रुला दिया. कुछ कैदी तो 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद भी पैरोल पर नहीं गए थे.

जेलों का देखा हाल

डीआईजी रूपा ने सब से पहले जरूरतमंद कैदियों को मुफ्त कानूनी सहायता दी और बेकरी का प्रशिक्षण भी दिलाया. तुमकुरू जेल में भी उन्होंने 21 महिला कैदियों के लिए बेकरी प्रशिक्षण इकाई खोली.
10 जुलाई, 2017 को डीआईजी डी. रूपा ने परप्पना अग्रहारा जेल का दौरा किया. उसी जेल में एआईडीएमके की अध्यक्ष जयललिता की सहयोगी वी.के. शशिकला भी बंद थी. शशिकला को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद जेल में बंद किया गया था. शशिकला उस समय मजबूत सीएम कैंडिडेट थी और पावर में थी.

शशिकला को जेल में वीआईपी सुविधा मिल रही थी. शशिकला को उन की बैरक से अटैच एक किचन दिया गया था, जिस में उन के लिए विशेष तौर पर खास खाना बनाया जाता था. डी. रूपा ने शासन को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में जेल प्रशासन पर आरोप लगाया कि इन सुविधाओं के लिए शशिकला द्वारा उन को 2 करोड़ रुपए दिए गए थे.

इस के अलावा उन्होंने और भी अवैध गतिविधियां होते देखीं. उन के मुताबिक 25 कैदियों का ड्रग टेस्ट कराया तो उन में से 18 का टेस्ट पौजिटिव आया. फेक स्टांप पेपर केस में दोषी पाए गए अब्दुल करीम तेलगी, जिस को भर्ती के वक्त व्हीलचेयर चलाने के लिए एक व्यक्ति दिया गया था, वह असल में 4 लोगों से मालिश करवा रहा था.

डी. रूपा ने डीजीपी (जेल) के. सत्यनारायण राव पर अपने काम में बाधा डालने का भी आरोप लगाया. आरोपों के बदले पुलिस महकमे की ओर से रूपा को शो कौज नोटिस भेजा गया.

साथ ही रूपा पर 20 करोड़ रुपए का मानहानि का मुकदमा दायर किया गया. 17 जुलाई, 2017 को रूपा का स्थानांतरण डीआईजी जेल से आईजी (ट्रैफिक रोड ऐंड सेफ्टी) पद पर कर दिया गया.

डी. रूपा इजरायल के विदेश मंत्रालय द्वारा दोनों देशों के बीच संबंधों को बढ़ावा देने के लिए ‘डिस्कवर इजरायल प्रतिनिधिमंडल’ का हिस्सा बनने के लिए चुनी गईं.

2020 में डी. रूपा कर्नाटक की प्रथम महिला गृह सचिव (कारागार, अपराध और सहायक सेवाएं) बनीं. रूपा सोशल मीडिया पर काफी ऐक्टिव रहती हैं खासतौर पर माइक्रो ब्लौगिंग साइट ट्विटर पर. वह रोज के रोज अपने से जुड़ी हर बात को ट्विटर पर शेयर करती हैं.

14 नवंबर, 2020 को ट््विटर पर उन्होंने ट्वीट किया, ‘कुछ लोग पटाखों पर प्रतिबंध लगाने पर आपत्ति क्यों जताते हैं.’ इस ट्वीट के बाद ‘ट्रूइंडोलौजी’ नाम के यूजर से उन की बहस हो गई. डी. रूपा का मत था कि पटाखे दीवाली से जुडे़ रीतिरिवाजों का हिस्सा नहीं रहे और 15वीं शताब्दी में आतिशबाजी का जन्म हुआ. इसलिए इस बैन को सकारात्मक रूप से लेना चाहिए. हालांकि ट्विटर पर सनातन धर्म से जुड़े सही तथ्यों को रखने का दावा करने वाले ट्विटर यूजर ट्रूइंडोलौजी ने इस का विरोध किया. इस यूजर ने शास्त्रों का उदाहरण देते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि कई हजार सालों से आतिशबाजी दीवाली पर्व का हिस्सा रही है.

दोनों के बीच बहस इस हद तक पहुंच गई कि ट्विटर ने ट्रूइंडोलौजी एकाउंट को सस्पेंड कर दिया. आरोप लगा कि डी. रूपा ने अपनी पावर का गलत इस्तेमाल कर के विरोधी यूजर का एकाउंट सस्पेंड कराया है, जबकि ऐसा नहीं था. यूजर के एकाउंट को वापस लाने के लिए हैशटैग चलने लगा. इस बहस में फिल्म एक्ट्रैस कंगना रनौत ने भी डी. रूपा को काफी कुछ कहा.

619 करोड़ रुपए के ‘बेंगलुरु सेफ सिटी प्रोजेक्ट’ के तहत पूरे बेंगलुरु शहर में सीसीटीवी कैमरे लगने थे, जिन के टेंडर निकाले गए थे. इसी टेंडर प्रक्रिया में गृह सचिव रूपा ने अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (प्रशासन) हेमंत निंबालकर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे. डी. रूपा को टेंडर प्रक्रिया में गंभीर अनियमितताएं मिली थीं.

भिड़ गईं सीनियर से

इस पर हेमंत निंबालकर ने 7 दिसंबर, 2020 को प्रमुख सचिव को भेजी गई रिपोर्ट में कहा कि किसी ने खुद को गृह सचिव बता कर इस योजना के बारे में गोपनीय सूचना हासिल करने की कोशिश की थी. इस पर रूपा ने बतौर गृह सचिव कहा, ‘मैं शिकायत करती हूं कि किसी अन्य व्यक्ति की ओर से अपने आप को गृह सचिव के रूप में पेश करने की बात झूठी और व्यक्तिगत दुर्भावना से प्रेरित है.’

प्रोजेक्ट को ले कर 2 वरिष्ठ अधिकारियों के बीच में ठन गई तो कर्नाटक सरकार ने बेंगलुरु के पुलिस कमिश्नर कमल पंत को इस प्रक्रिया में अवैध दखल की जांच करने का आदेश दिया. दोनों के बीच बढ़े विवाद के बाद सरकार ने दोनों का तबादला कर दिया.

31 दिसंबर, 2020 को डी. रूपा को गृह सचिव के पद से हटा कर कर्नाटक राज्य हस्तशिल्प विकास निगम के प्रबंध निदेशक के पद पर भेज दिया गया. एक जनवरी, 2021 को उन्होंने अपना पदभार ग्रहण कर लिया.

यह थी देश की महिला आईपीएस अफसर डी. रूपा की कहानी, जो आज के युवाओं को प्रेरणा देने वाली है कि किस तरह एक छोटी सी जगह से निकल कर अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपने सपने को पूरा किया जाता है, हकीकत में अपने सपने को कैसे जिया जाता है.

परिस्थितियां कैसी भी हों, इंसान को साहस से काम लेना चाहिए, उन का डट कर मुकाबला करना चाहिए. डी. रूपा पूरे कैरियर में बड़ी ईमानदारी से अपने कार्यों को करती आईं, कभी अपने तबादलों से नहीं डरीं. बल्कि इन तबादलों को अपनी नौकरी का एक हिस्सा मानती रहीं.

20 साल के कैरियर में दोगुने से ज्यादा तबादले हुए लेकिन उन के माथे पर कभी शिकन नहीं आई. आज हमारे देश को ऐसे ही कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार पुलिस अधिकारियों की जरूरत है जो अपने सेवा भाव से देश और समाज का भला कर सकें.

पेड़ से अमृत धारा गिरने का अंधविश्वास

आज 21वीं शताब्दी में भी अंधविश्वास किस तरह पैर पसारता चला जा रहा है. इसका एक ज्वलंत उदाहरण छत्तीसगढ़ के जिला कवर्धा के ग्राम धमकी में आप देख सकते हैं. जहां एक अर्जुन के पेड़ से जब पानी का स्रोत फूट पड़ा तो लोग पूजा अर्चना करने लगे और निकल रहे पानी को अमृत धारा मानकर पी रहे हैं.

ग्राम धमकी में अजीबो-गरीब मामला सामने आया है. कौहा अर्जुन वृक्ष का नाम सुनकर भले ही मुंह कड़वाहट से भर जाता हो, लेकिन यहां एक कौहा पेड़ लोगों को अंधविश्वास के युग में ले आया है क्योंकि आम लोग इस पानी को तमाम मर्जो की दवा मान रहे हैं.

स्थानीय लोग मासूमियत के साथ कह रहे हैं कि यह पानी पीने से स्वास्थ्य गत फायदा मिलेगा.दर असल, पानी का स्वाद नारियल पानी जैसा और रंग हल्का मटमैला है. और जन चर्चा में आने के कारण यह अफवाह फैल गई है कि यह लाभ ही लाभ देगा. मगर यह भोले-भाले लोग नहीं जानते कि पेड़ से पानी की धार फूटना एक सामान्य घटना है.

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कवर्धा विकासखंड अंतर्गत ग्राम धमकी में एक पुराने कौहा पेड़ से पानी की धार निकल रही है, जिसे कुछ ग्रामीण दैवीय चमत्कार मान कर ग्रहण कर रहे हैं. भले ही मेडिकल विज्ञान में रोगों को दूर करने के नित नए प्रयोग किए जा रहे हो आधुनिक चिकित्सा से इलाज किया जा रहा हो, लेकिन शिक्षा और जागरूकता के आज के समय में लोग जड़ी-बूटियों के साथ रोगों को दूर करने का दावा करते हैं.

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दरअसल, अशिक्षा और अपवाह बाजी के कारण अनेक झूठ हमारे समाज में अपना गहराई स्थान बना चुके हैं. जिसकी वजह से ऐसी घटनाओं का प्रचार होने लगता है.

ग्रामीण अंचल में एक कहावत है कि अगर दवा विश्वास के साथ ली जाए तो हर बीमारी ठीक हो जाती है. यही कारण है कि इन दिनों ग्राम धमकी पहुंच मुख्य मार्ग किनारे स्थित कौहा पेड़ से पानी की धार निकलने से ग्रामीणों में अंधविश्वास उछाल मार रहा है. ग्रामीण जन इसे एक “दैवीय चमत्कार” मानकर बोतलों में भर कर घर ले जा रहे हैं और उस पानी को पीकर अपने आप को रोग मुक्त होने का भ्रम पाल रहे हैं.

शुरू हो गया पूजा पाठ और अंधविश्वास

पेड़ से निकल रहे पानी को लोग चमत्कार मान रहे हैं. जबकि यह एक सामान्य घटना है,. इसके पूर्व भी अनेक जगहों पर पेड़ से पानी निकलने की घटना हुई है जिसे वैज्ञानिक और चिकित्सा शास्त्री विश्लेषण करके यह बता चुके हैं कि यह एक बहुत साधारण बात है.

मगर अंधविश्वास के मारे बड़ी मात्रा में निकल रहे इस सफेद द्रव्य को चखकर इसका स्वाद मीठा होना बता रहे हैं और यह मानते हैं कि इससे अनेक बीमारियां दूर हो जाती है. हमारे संवाददाता ने एक वन अधिकारी से बात की तो उन्होंने बताया वनस्पति विज्ञान की यह सामान्य घटना है जंगल में जब पानी नहीं मिलता तो कई बार जानकार वन अधिकारी, कर्मचारी पेड़ से पानी निकालकर प्यास बुझाते हैं.

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मगर लोग इस पदार्थ को लेकर तरह-तरह के कयास लगा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग इसे चमत्कार मान “पूजा-अर्चना” कर रहे हैं. वहीं इस पानी को बोतल में भर कर अपने घर भी ले जा रहे हैं. यहां यह भी महत्वपूर्ण जानकारी आपको बता दें कि पेड़ से पानी निकलने की बात जैसे-जैसे ही आस-पास के गांव में फैली,यहां लोग जुटने लगे और पानी बोतल में भरकर घर ले जाने का सिलसिला लगातार चल रहा है. कुछ लोग इस पेड़ की अगरबत्ती जला कर पूजा अर्चना भी कर रहे हैं यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि अभी तक शासन प्रशासन की ओर से लोगों को जागरूक करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. जो यह बताता है कि हमारा शासन प्रशासन किस तरह लोगों को अंधविश्वास में डूबने उतरने के लिए छोड़कर कुंभकरण जैसी निंद्रा में है.

दरकार है अंधविश्वास भगाने की

वस्तुतः ऐसी घटनाएं हमारे देश में आमतौर पर घटित होती रहती हैं. और अशिक्षा, अंधविश्वास के कारण लोग इस के फेर में पड़कर अपना समय बर्बाद करते हैं और स्वास्थ्य भी.

छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध चिकित्सक और अंधविश्वास के खिलाफ लंबे समय से जागरूकता प्रसारित करने वाले डॉ .दिनेश मिश्र के मुताबिक बरसात और ठंड के मौसम में पेड़ों से इस प्रकार पानी निकलना एक सामान्य सी प्रक्रिया है ,यह कोई चमत्कार नहीं है .पेड़ों में जमीन से पानी ऊपर खींचने के लिए एक विशिष्ट उत्तक होता हैं ,जिन्हें जाइलम कहते हैं जाइलम का काम ही अपनी कोशिकाओं के माध्यम से जमीन से पानी खींच कर उस पानी को अपनी नलिकाओं से पूरे पेड़ के विभिन्न अंगों में पहुंचाना है इसके लिए विशिष्ट रचनाएं होती है जिससे पानी ऊपर चढ़कर पेड़ के सभी भागों अंग तक पहुंचता है,जल की आपूर्ति करता है बरसात और ठंड के मौसम में जब जमीन में पानी की मात्रा अच्छी ,व भूजल का दबाव अधिक रहता है.

उन्होंने जानकारी दी है कि वायुमण्डल में आर्द्रता होती है, तब पेड़ की जड़ों से जो पानी खींचा जाता है वह पेड़ के किसी भी हिस्से से जो कमजोर हो, अथवा तने में मौजूद छिद्रों से से पानी के रूप में निकलता है और यह कई बार एक पतली सी धारा से लेकर अधिक मोटे प्रवाह के रूप में भी कई स्थानों से भी निकलते हुए देखा गया है ,कभी-कभी यह जल स्वच्छ भी रहता है और कभी-कभी पेड़ के भीतरी अंगों उसमे उपस्थित जीवद्रव्य, कुछ बैक्टेरिया, और मेटाबोलिज्म के कारण उत्पन्न गैसों व अशुद्धियों से रंग में कुछ परिवर्तन हो सकता है. जो मटमैला, तो कभी दूधिया दिखाई पड़ता है है .

जॉन लिंडले की पुस्तक फ़्लोरा इंडिका में इस प्रकार से जल,व दूधिया स्त्राव का वर्णन है.वही डॉ रेड्डी की किताब वानिकी में इस प्रकार के स्त्राव का वर्णन आता है यह तने के वात रन्ध्र (स्टोमेटा) से निकलता है और कभी कभी तने के जख्मी हिस्से से भी स्त्रावित होता है.

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जिंदगी का सफर: भारत की पहली महिला कुली संध्या मरावी

लेखक- कपूर चंद   

अधिकांश लोग औरत को अकसर कमजोर समझते हैं, लेकिन उन्हें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि औरत कमजोर नहीं होती. वह अगर किसी काम को करने की ठान ले तो उस के लिए कुछ भी असंभव या मुश्किल नहीं होता. बल्कि वह उस काम को भी कर सकती है जिस पर पुरुष समाज अपना वर्चस्व समझता है.

जबलपुर के एक छोटे से गांव कुंडम की रहने वाली कल्याणी संध्या मरावी इस का जीताजागता उदाहरण है. वह कटनी रेलवे स्टेशन पर ऐसा काम करती हैं, जिसे देख कर लोग भी हैरान रह जाते हैं. 30 साल की संध्या वहां पर कुली के रूप में काम करती हैं.

संध्या ने यह काम खुशी से नहीं किया बल्कि उन के घर के ऐसे हालात हो गए जिस की वजह से उसे यह करने के लिए मजबूर होना पड़ा. दरअसल 22 अक्तूबर, 2016 को संध्या के पति भोलाराम मरावी की मृत्यु हो गई. वह लंबे समय से बीमार थे. पति की मौत के बाद संध्या पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. घर में पति के अलावा कोई भी कमाने वाला नहीं था.

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पति जबलपुर के ही कटनी रेलवे स्टेशन पर कुली थे. उन की कमाई से मां, पत्नी और 3 बच्चों का पेट भरता था. पति की मौत के बाद संध्या की समझ में यह नहीं आ रहा था कि अब परिवार का खर्च कैसे चलेगा. अपनी बूढ़ी सास के अलावा तीनों बच्चों को कैसे पालेगी. यही सोचसोच कर वह परेशान हो रही थीं.

उन्होंने यह तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह परिवार को भूखों नहीं मरने देगी. काफी सोचनेविचारने के बाद उस ने तय कर लिया वह पति के काम को ही शुरू करेगी. वह कटनी रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर के पास पहुंची और उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया.

स्टेशन मास्टर ने संध्या से यही कहा कि वह उस की इतनी मदद कर सकते हैं कि उस के पति का कुली का लाइसैंस उस के नाम ट्रांसफर करा देंगे. तो क्या वह कुली के रूप में यहां काम कर सकती है? संध्या तो पहले ही इस के लिए मन बना कर आई थीं, इसलिए तुरंत हां कर दी और दूसरी बात यह थी कि इस काम को करने के अलावा उन के सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था.

संध्या ने अपने परिवार का बोझ कम करने के लिए यात्रियों का लगेज उठाना शुरू किया तो उस के सामने कई तरह की परेशानियां आईं. उन्हें कुली के काम करने का कोई अनुभव नहीं था फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. स्टेशन पर 45 पुरुष कुलियों के बीच वह अकेली महिला कुली थीं.

शुरुआत में यात्री भी उसे अपना लगेज देने में झिझकते थे. उन्हें इस बात का डर रहता था कि कहीं यह महिला उस का लगेज गिरा कर कोई बड़ा नुकसान न कर दे. क्योंकि अधिकांश पुरुष महिला को असहाय और कमजोर ही समझते हैं. लेकिन संध्या ने जिम्मेदारी के साथ अपने काम को अंजाम देना शुरू किया.

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वह यात्रियों के लगेज को सिर और कंधे पर रख कर जब चलती थीं तो तमाम लोग उसे आश्चर्य से देखते. संध्या ने किसी की भी कोई परवाह नहीं की क्योंकि अपने परिवार के बोझ के आगे उन्हें यात्रियों का वह बोझ हल्का लगता था.

संध्या कुंडम गांव में रहती हैं. वह वहां से 45 किलोमीटर का सफर तय कर के पहले जबलपुर रेलवे स्टेशन पहुंचती हैं और इस के बाद 90 किलोमीटर दूर कटनी पहुंचती हैं. इस तरह रोजाना 270 किलोमीटर का सफर तय करके वह अपने परिवार के लिए रोजीरोटी मुहैया करा रही हैं. वर्ष 2017 से कुली का काम कर रही संध्या का सपना है कि वह अपने तीनों बच्चों को खूब पढ़ालिखा कर कामयाब इंसान बनाए.

रोजाना 270 किलोमीटर का सफर तय करने की वजह से उन का काफी समय बर्वाद हो जाता है, जिस से वह अपने बच्चों को समय नहीं दे पाती हैं. संध्या चाहती हैं कि उन का तबादला उन के घर के समीप यानी जबलपुर कर दिया जाए तो उन की परेशानी कुछ कम हो सकती है.

अनीता प्रभा: हौसलों की उड़ान

लेखक-  पुष्कर

कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों… कवि दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां प्रभात शर्मा पर सटीक बैठती हैं. इन पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए अनीता प्रभा ने अपने दृढ़ आत्मविश्वास, अटूट लगन और अथक परिश्रम से असंभव को भी संभव कर दिखाया.

मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले के एक छोटे से कस्बे के पारंपरिक परिवार में जन्मी अनीता प्रभा जिंदगी में कुछ खास करना चाहती थीं. लेकिन पारिवारिक बंदिशों के चलते 10वीं के बाद उन की पढ़ाई बंद हुई तो वह भाई के पास ग्वालियर चली गईं और वहां से 12वीं पास की. इस के बाद मात्र 17 साल की उम्र में उन की शादी 10 साल बड़े लड़के से कर दी गई.

ससुराल के हालात कुछ अच्छे नहीं थे. अनीता ने ससुराल में जिद कर के ग्रैजुएशन करना शुरू कर दिया. लेकिन वक्त यहां भी आड़े आ गया. फाइनल ईयर के एग्जाम से पहले उन के पति का एक्सीडेंट हो गया, जिस की वजह से अनीता एग्जाम नहीं दे पाईं. फाइनल ईयर के एग्जाम उन्होंने अगले साल क्लियर किए. 4 साल में ग्रैजुएशन करने का नुकसान यह हुआ कि अनीता प्रोबेशनरी बैंक आफिसर की पोस्ट के लिए रिजेक्ट कर दी गईं.

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घर की आर्थिक हालत दयनीय देख अनीता प्रभा ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया और ब्यूटीपार्लर में काम करना शुरू कर दिया. इस से आर्थिक मदद तो होने लगी परंतु जिंदगी का सफर इतना आसान कहां था. अनीता प्रभा और उन के पति की उम्र में ही नहीं, सोच में भी अंतर था. यही वजह थी कि दोनों में टकराव शुरू हो गया.

अनीता प्रभा ने घरेलू हालात से निपटते हुए 2013 में विवादों से घिरे व्यापमं की फौरेस्ट गार्ड की परीक्षा दी. यह परीक्षा उन्होंने 4 घंटे में 14 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर के दी थी. उन की मेहनत रंग लाई और दिसंबर 2013 में उन्हें बालाघाट में पोस्टिंग मिल गई.

लेकिन अनीता यहीं नहीं रुकीं. उन्होंने अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए व्यापमं के सबइंस्पेक्टर पोस्ट के लिए परीक्षा दी. लेकिन इस के फिजिकल टेस्ट में सफल नहीं हो सकीं. उन्होंने हिम्मत न हारते हुए दूसरी बार प्रयास किया और 2 महीने पहले ओवरी ट्यूमर का औपरेशन कराने के बावजूद फिजिकल टेस्ट पास कर के सबइंस्पेक्टर बन गईं.

उन्होंने बतौर सूबेदार जिला रिजर्व पुलिस लाइन में जौइन किया. इस की ट्रेनिंग के लिए वह सागर चली गईं. इसी दौरान उन के तलाक का केस भी कोर्ट में चला गया था. दूसरी तरफ व्यापमं की तैयारी करते हुए अनीता प्रभा ने मध्य प्रदेश स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा दी. उस के रिजल्ट का इंतजार न कर के अनीता सागर के लिए रवाना हो गईं.

ट्रेनिंग के दौरान ही एमपीपीएससी के रिजल्ट आए. जिस में अनीता महिला वर्ग में 17वें नंबर पर थीं. यह एक महत्त्वाकांक्षी लड़की की अभूतपूर्व जीत थी. वह डीएसपी रैंक के लिए चयनित हो गई थीं. इस जीत का उत्सव मनाते हुए अनीता प्रभा ट्रेनिंग छोड़ कर वापस लौट आईं और अपने डीएसपी पद के जौइनिंग और्डर का इंतजार करने लगीं.

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किसी फिल्म सरीखी लगने वाली यह कहानी एक ऐसी लड़की की है, जिस ने बाल विवाह का दंश झेला. समाज और परिवार की रुढि़वादी परंपराओं को सहा लेकिन अपने हौसले को पस्त नहीं होने दिया और न ही अपने सपने को मरने दिया. उस ने कांटों भरी डगर पर चल कर अपना लक्ष्य हासिल कर लिया.

लेकिन राह यहीं खत्म नहीं हुई. अनीता प्रभा का सपना और ऊंचा मुकाम हासिल करना था यानी डिप्टी कलेक्टर के पद तक पहुंचना, जिस के लिए वह प्रयासरत भी हैं. जो भी हो, इतना संघर्ष कर के मात्र 25 वर्ष की आयु में राजपत्रित पद पर पहुंचना एक अभूतपूर्व सफलता है, जो युवाओं के लिए प्रेरणास्पद भी है और अनुकरणीय भी.

जब पढ़ाई के लिए लड़कियां मां-बाप को छोड़ें!

आंध्र प्रदेश के एक गांव आदिविकोट्टूरू में लोगों ने खेत में एक लावारिस लाश को देखा. पता चला कि वह कोई भिखारी था. चूंकि हर जगह कोरोना का डर फैला हुआ है, लिहाजा लोग उस भिखारी की लाश के पास जाने से हिचक रहे थे.

ऐसे में श्रीकाकुलम जिले के कासीबुग्गा में तैनात महिला सबइंस्पैक्टर के. श्रीषा ने उस लाश को कंधा दिया और 2 किलोमीटर तक पैदल ले जाने के बाद उस का अंतिम संस्कार कराया.

इस से पहले 26 जनवरी को भारत की पहली महिला फाइटर पायलट भावना कांत वायु सेना की झांकी के साथ परेड में नजर आई थीं, जबकि फ्लाइट लैफ्टिनैंट स्वाति फ्लाईपास्ट में शामिल हुई थीं.

देशभर में न जाने कितनी लड़कियां अपनेअपने फील्ड में नाम कमा रही हैं. इस में उन की वह पढ़ाई काम आती है, जो उन में गजब का जोश भर देती है. पर एक कड़वा सच यह भी है कि आज भी बहुत से मां-बाप अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए उस लिहाज से आजादी नहीं देते हैं, जितनी बेटों को दी जाती है.

2017 का राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग भी चिंता जाहिर करता है कि 15-18 आयु वर्ग में तकरीबन 39.4 फीसदी किशोरियां किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नहीं जा रही हैं. इस की सबसे बड़ी सामाजिक बाधा यह है कि गांव हों या शहर, आज भी लड़कियों को बोझ समझा जाता है, जिनकी पढ़ाई पर क्यों खर्च किया जाए?

इसके अलावा जब कोई लड़की पढ़ने की जिद ठान लेती है तो समाज के तानों से उसे भेदा जाता है. तभी तो बहुत से मां-बाप अपनी लड़कियों को 10वीं या 12वीं तक की पढ़ाई कराते हैं और उसके बाद शादी करा देते हैं.

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बहुत कम ऐसी लड़कियां होती हैं जो ऐसी तमाम बाधाएं पार कर के अपने मां-बाप को छोड़ कर पढ़ाई के लिए घर से बाहर निकलती हैं. अगर वह लड़की एकलौती है तो घर पर मां-बाप अकेले कैसे रहेंगे, यह सवाल भी उसके सामने होता है और साथ ही उसे खुद को भी अनजान जगह पर महफूज रखने की चुनौती का सामना करना होता है.

हरियाणा के महम जिले के निंदाना गांव की रितु राठी तनेजा का ही किस्सा लें. आज रितु एक कामयाब पायलट और एक नामचीन यूट्यूबर हैं, पर साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस माहौल और समाज में पैदा हुई हैं वहां कई बार लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मां के पेट में मार दिया जाता है.

रितु राठी तनेजा ने बताया कि वे बचपन से बहुत पढ़ना चाहती थीं और इस के लिए बहुत मेहनत भी करती थीं. मांबाप उन के बहुत लाड़ लड़ाते थे और अपनी बेटी को खूब पढ़ाना चाहते थे, पर बाकी रिश्तेदार परिवार पर शादी का दबाव बनाने लगे, जबकि रितु स्कूल के दिनों से ही पायलट बनना चाहती थीं.

लिहाजा, उन्होंने अपने परिवार वालों से कहा कि जितना खर्च वे उन की शादी में करेंगे उतना पैसा उन्हें अमेरिका भेजने में खर्च कर दें. मां-बाप की रजामंदी के बाद रितु ने अमेरिका में पायलट की ट्रेनिंग के लिए अप्लाई किया और उन का सलैक्शन हो गया.

अमेरिका में डेढ़ साल रहने और ट्रेनिंग करने के बाद रितु भारत लौट आईं, लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिली. इस बीच रितु की मां की ब्रेन हेमरेज से मौत हो गई. धीरे-धीरे परिवार कर्ज में डूब गया.

इस सब के बावजूद रितु ने हार नहीं मानी और एक छोटी नौकरी शुरू की. इसी बीच एक दिन उन के पास एक एयरलाइंस की चिट्ठी आई, जिस में उन को कोपायलट की नौकरी औफर की थी. इस नौकरी के 4 साल में रितु की मेहनत रंग लाई और वे कैप्टन बन गईं.

रितु राठी तनेजा की जिंदगी से पता चलता है कि किसी लड़की का अपने सपने पूरे करना बिलकुल भी आसान नहीं है. अपने मांबाप से पढ़ाई के लिए हां करवाने के बाद भी रितु को समाज के ताने सुनने पड़े. मांबाप ने भी कम पीड़ा नहीं सही. बेटी को खर्चा कर के देश के बाहर भेजा. ये दिन उन के लिए भी इम्तिहान ही थे.

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सवाल उठता है कि जब बेटी पढ़ाई के लिए अपने मां-बाप को छोड़ती है तो उस परिवार के सामने किस तरह की समस्याएं खड़ी हो सकती हैं और उन का हल क्या है? अगर लड़की एकलौती है तो यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है.

लड़की का दूसरी जगह पढ़ने जाने का मतलब है अपने परिवार से कई साल दूर रहना. ऐसी जगह ज्यादातर लड़कियां या तो उस संस्थान में ही होस्टल में रहती हैं, जहां से पढ़ाई कर रही होती हैं. पर ऐसा नहीं होता है तो वे किराए पर बतौर पेइंगगैस्ट रहना महफूज और सस्ता समझती हैं.

अगर थोड़ा पीछे जाएंगे तो इस समस्या की गंभीरता समझ में आ जाएगी. साल 1996-97 की बात है. हरियाणा के कुरुक्षेत्र की कविता (बदला हुआ नाम) वहीं के दयानंद महिला कालेज से अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर चुकी थीं. वे आगे सोशल वर्क में पोस्ट ग्रेजुएशन करना चाहती थीं, लिहाजा उन्होंने इस के लिए कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से एंट्रेंस एग्जाम दिया और पास भी हो गईं. उन का दाखिला कुरुक्षेत्र से 40-50 किलोमीटर दूर यमुनानगर के खालसा कालेज में हो गया.

क्लासें शुरू हुईं. कविता ने पहले कुछ दिन तो कुरुक्षेत्र से यमुनानगर आना-जाना शुरू किया, पर इस सबमें उनका बहुत समय बर्बाद हो जाता था.

कविता ने बताया, “इस के बाद मेरे मम्मीपापा ने मेरे लिए होस्टल देखना शुरू कर दिया. लेकिन जब होस्टल नहीं मिला तो किराए पर कमरा लेने की सोची. मैं इस से पहले कभी अकेली नहीं रही थी. घर पर सभी अपनीअपनी राय देने लगे, क्योंकि उस समय यह बहुत नई और अचरज की बात थी कि कोई लड़की पढ़ाई के लिए अकेली कमरा ले कर घर से दूर रहे.

“घर के बड़ों ने इस का विरोध किया. यहां तक ताना दिया गया कि ‘जितना तेरे मम्मीपापा ने तेरी पढ़ाई पर खर्चा किया है, उतने में तो तेरी शादी हो जाती’. पर मेरे मम्मी-पापा खासकर मम्मी ने साफ कह दिया कि तू सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, बाकी हम संभाल लेंगे.

“मां ने यह बात कह तो दी थी, पर वे भी मेरी तरह अंदर से डरी हुई थीं. एक अकेली लड़की का पढ़ाई के लिए अपने परिवार से दूर रहना वाकई एक मुश्किल टास्क था. फिर भी हिम्मत कर के मेरी मां ने मेरा कमरा सैट किया और रसोई के लिए जरूरत का सामान जुटाया. मेरे अकेलेपन को वहां बनी मेरी नई सहेलियों ने दूर किया. उन में से बहुत सी तो अपने परिवार के साथ रहती थीं.

“इस बात से मुझे बहुत बल मिला और अपना काम खुद करने की आदत डाली, क्योंकि पहले तो सारे काम मां ही कर देती थीं. लेकिन अब अकेले रहने से मुझ में आत्मविश्वास बढ़ा था और मैं अपनी पढ़ाई जारी रख पाई.”

कमोबेश आज भी यह समस्या ज्यादा बदली नहीं है. लोग अपनी बेटियों को पढ़ाने की बात तो करते हैं, पर उन का अकेले दूसरे शहर में पढ़ने जाना किसी मांबाप के आसान फैसला नहीं होता है. लेकिन हर बच्चे के लिए पढ़ाई बहुत जरूरी है और इससे उनमें आत्मविश्वास आता है. यह बात, के. श्रीषा, भावना कांत, स्वाति जैसी लड़कियों ने सच साबित कर दी है, इसलिए उन्हें पढ़ने के लिए बढ़ावा दें, फिर चाहे उन्हें अपने मां-बाप को ही क्यों न कुछ समय के लिए छोड़ना पड़े.

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सरकारी अस्पताल: गरीबों की उम्मीद की कब्रगाह

सरकारी अस्पताल का मतलब है सरकार द्वारा बनवाया गया ऐसा अस्पताल जहां तकरीबन मुफ्त में ऐसे गरीब लोगों का इलाज भी हो जाए, जो बड़े और महंगे प्राइवेट अस्पताल में जाने की सपने में भी नहीं सोच सकते हैं. ऐसे सरकारी अस्पताल हर राज्य के हर बड़े शहर में बनाए जाते हैं, ताकि आसपास के गरीब लोगों को कम समय में ही इलाज की सुविधा मिल सके.

हरियाणा के फरीदाबाद शहर में बादशाह खान अस्पताल ऐसा ही सरकारी अस्पताल है. साल 2020 के आखिर में मुख्यमंत्री मनोहर लाल के आदेश पर इस अस्पताल का नाम बदल कर हमारे देश के प्रधानमंत्री रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर कर दिया गया है.

यह फरीदाबाद का एकलौता 200 बिस्तर का सरकारी अस्पताल है, जिस में रोजाना हजारों की तादाद में मरीज इलाज कराने के लिए आते हैं. पर क्या नाम बदलने से इस अस्पताल की हालत में कोई बदलाव हुआ है या सिर्फ वोट की राजनीति के चलते ही ऐसा हुआ है? वजह, यह अस्पताल कुछ ऐसी खबरों के लिए भी सुर्खियों में रहा है, जो इनसानियत को शर्मसार कर देती हैं.

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साल 2019 की बात है. महीना था अगस्त का. फरीदाबाद के इसी बीके अस्पताल में इलाज कराने आई 12 साल की एक बच्ची के साथ अस्पताल के एक मुलाजिम ने कथिततौर पर छेड़छाड़ कर दी थी.

पुलिस के मुताबिक, 12 साल की उस बच्ची को कुछ दिन पहले चोट लग गई थी. वह अपनी मां के साथ अस्पताल में पट्टी कराने आई थी. पट्टी करने के दौरान आरोपी ने बच्ची के साथ गलत हरकत की. बच्ची ने अपनी मां को बता दिया. बच्ची की मां ने अस्पताल में हंगामा करना शुरू कर दिया. सूचना मिलने पर महिला थाना पुलिस ने आरोपी मुलाजिम, जो कंपाउंडर था, को हिरासत में ले लिया.

इतना ही नहीं, एक बार तो यह अस्पताल इस खबर की भी सुर्खियां बना था कि जब किसी के बच्चा पैदा होता है तो वहां का स्टाफ बच्चे के पिता या दूसरे परिवार वालों से ‘बधाई’ के पैसे नहीं ले लेता, तब तक जच्चाबच्चा को आपरेशन थिएटर से वार्ड में नहीं भेजा जाता है. एक तरह की वसूली या जबरदस्ती की जाती है.

बीके अस्पताल में भ्रष्टाचार भी हद तक है. एक हालिया खबर की बानगी देखिए. फरीदाबाद के एसजीएम नगर के नवीन की मां की कुछ महीने पहले इलाज के दौरान मौत हो गई थी. यह इलाज चिमनीबाई धर्मशाला के पास प्राची अस्पताल में कराया गया था.

नवीन ने प्राची अस्पताल के डाक्टर सुरेश पर इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाते हुए सिविल सर्जन को लिखित में शिकायत दी. सिविल सर्जन ने इस मामले की जांच का जिम्मा बीके अस्पताल के एनीथिसिया महकमे के एचडीओ डाक्टर नवदीप सिंघल को सौंप दिया.

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आरोप है कि इस मामले की जांच के दौरान डाक्टर सुरेश और डाक्टर नवदीप सिंघल पीड़ित नवीन पर शिकायत वापस लेने के लिए दबाव डाल रहे थे. यह भी आरोप है कि मामले को रफादफा करने के लिए वे दोनों नवीन को 5 लाख रुपए देने की बात भी कह रहे थे. लेकिन नवीन ने इस की शिकायत विजिलैंस महकमे में कर दी.

विजिलैंस महकमे में डीएसपी कैलाश चंद ने बताया कि जैसे ही शिकायत करने वाले नवीन को डाक्टर नवदीप सिंघल और डाक्टर सुरेश ने रुपए दिए, तभी विजिलैंस महकमे की टीम ने उन्हें रंगेहाथ पकड़ लिया.

भंडारा में दुखद हादसा

महाराष्ट्र के भंडारा जिले का एक दिल दहलाने वाला मामला ही लीजिए. इस साल की शुरुआत में 8 जनवरी, शुक्रवार की देर रात को वहां के एक सरकारी अस्‍पताल में आग लगने से एक वार्ड की सिक न्यूबौर्न केयर यूनिट में रखे गए 10 नवजात बच्‍चों की दर्दनाक मौत हो गई.

इस वार्ड में 17 नवजात बच्‍चों को रखा गया था. एक नर्स ने जब वार्ड से धुआं निकलते हुए देखा तो उसे इस हादसे के बारे में पता चला.

दरअसल, इस अस्‍पताल में आग रात के तकरीबन 2 बजे लगी थी. आग लगने की वजह शौर्ट सर्किट बताया गया. इस वार्ड में एक दिन से ले कर 3 महीने तक के बच्‍चों को रखा गया था. यह एक खास तरह का वार्ड होता है जिस में उन्‍हीं बच्‍चों को रखा जाता है जिन की हालत काफी नाजुक होती है और जन्‍म के समय जिन का वजन बहुत कम होता है.

मौके पर गए कई मीडिया हाउस वालों की रिपोर्ट से पता चला था कि बच्चों की उस यूनिट में आग लगने से धुआं भर गया था. जब फायर ब्रिगेड वाले और अस्पताल के मुलाजिम किसी तरह दरवाजा तोड़ कर अंदर गए तो उन्होंने पाया कि कुछ बच्चे बुरी तरह जल गए थे, जबकि कुछ बच्चे धुएं के चलते अपनी जान गंवा चुके थे.

इस हादसे पर देश के हर छोटेबड़े नेता ने अपना दुख जाहिर किया. प्रदेश सरकार ने अस्पताल प्रशासन की इस घोर लापरवाही के लिए उसे लताड़ लगाई तो विपक्ष ने सत्ता पक्ष को आड़े हाथ लिया. पीड़ित परिवारों को मुआवजे का मरहम लगाया गया, पर क्या कुछ लाख रुपए की रकम से उन मांबाप का दर्द किया जा सकता है, जिन्होंने अपने उन नवजातों को खोया है, जिन्होंने अपनी आंखें भी ढंग से नहीं खोली थीं?

दुख की बात तो यह है कि देश तकरीबन हर सरकारी अस्पताल में बदहाली का आलम एकजैसा है. कभी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से खबर आती है कि वहां के जिला अस्पताल में एक वार्डबौय किसी घायल मरीज के टांके लगा रहा था, तो कभी पश्चिम बंगाल के मालदा अस्पताल में 24 घंटों में 9 नवजात शिशुओं की मौत दिल दहला देती है. एक साल की उम्र से कम के इन नवजात शिशुओं की मौत की वजह तय समय से पहले जन्म, कम वजन और सांस लेने संबंधी समस्याएं थीं.

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मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक अजीब सा ही मामला सामने आया. जनहित याचिका दायर करने वाले एक आदमी के वकील ने वीडियो कौंफ्रैंसिंग के जरीए हाईकोर्ट में दलील रखी कि मध्य प्रदेश के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों खासकर बीड़ी कामगार और माइनिंग फील्ड के मजदूर कोरोना काल में खतरे में हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि वहां डाक्टरों की कमी के साथसाथ दूसरे संसाधनों की भी बेहद कमी है. अगर डाक्टर हैं भी उन की ड्यूटी एकसाथ 2 से ज्यादा अस्पतालों में लगा दी गई है. इन अस्पतालों में पीपीटी किट, मास्क और सैनेटाइजर मुहैया नहीं हैं.

इस दलील के बाद हाईकोर्ट ने हैरानी जाहिर की कि ऐसे अस्पतालों का संचालन महज चपरासियों के भरोसे कैसे चल सकता है.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली, भ्रष्टाचार और बदइंतजामी का ही नतीजा है कि आज छोटे कसबों में भी प्राइवेट अस्पताल खुल रहे हैं. गरीब लोग उन में जा भी रहे हैं, फिर चाहे उन्हें अपनी जमापूंजी ही को ही क्यों न स्वाहा करना पड़े.

दुष्कर्म बरक्स ब्लैकमेलिंग के खेल में जेल!

ब्लैकमेलिंग अर्थात भयादोहन के अपराध में अक्सर पुरुषों को ही पुलिस दबोचती है, मगर हमेशा ऐसा नहीं है, कुछ युवतियां भी इस खेल में माहिर खिलाड़ी होती हैं. मगर यह भी सच है कि भयादोहन करने वाला कोई भी हो. कानून के लंबे हाथों से बच नहीं सकता. कैसा ही शातिर खिलाड़ी हो, ऐसी गलतियां कर बैठता है कि सच सामने आ जाता है कि आखिर दोषी कौन है.

छत्तीसगढ़ के औद्योगिक जिला कोरबा में एक भयादोहन मामला में एक युवती आज इन्हीं तथ्यों और सच के कारण जेल की हवा खा रही है.आइए! देखते हैं कुछ ऐसी घटनाएं जिनसे यह सच्चाई और भी आईने की तरह साफ हो जाती है.

प्रथम घटना-

राजधानी रायपुर के एक विशाल कपड़ा शोरूम में साथ साथ काम कर रहे युवक युवतियों में से एक युवती ने दोस्ती के कुछ समय बाद पुरुष मित्र पर दुष्कर्म का आरोप लगाया अंततः जांच के पश्चात युवती दोषी पाई गई.

दूसरी घटना-

छत्तीसगढ़ के भाटापारा बलोदा बाजार जिला के खपराडीह में एक स्कूल में शिक्षिका ने पुरुष शिक्षक पर दुष्कर्म का मामला दर्ज कराया ब्लैक मेलिंग करने लगी और आखिरकार पुलिस के फंदे में आ गई.

महिलाओं पर जोरजुल्म: जड़ में धार्मिक पाखंड

वह ब्लैकमेलर गर्ल

छत्तीसगढ़ के कोरबा में एक युवती भयादोहन मामले में पुलिस की गिरफ्त में आ गई है.वह
दुष्कर्म मामले में फंसा देने की धमकी देकर ” युवक मित्र” को ब्लैकमेल करती रही. इस शातिर युवती को पुलिस ने गिरफ्तार किया है.

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प्रार्थी प्रेमकांत साहू उम्र 30 वर्ष निवासी खरमोरा, कोरबा के मुताबिक परिचय और दोस्ती और फिर अवैध संबंधों के बाद वह मुझे खुलकर पैसे मांग कर ब्लैकमेल करने लगी पहले तो मैंने दोस्ती के कारण पैसे दिए मगर जब मुझे लगा कि नहीं तो उसका व्यवसाय बन गया है मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूं मगर एक मित्र की सलाह पर थाना कोतवाली कोरबा रिपोर्ट दर्ज कराई. यह की करीब एक वर्ष पूर्व रमा (बदला हुआ नाम) दुष्कर्म मामले मे फंसा दूंगी कहकर ब्लैकमेल कर पैसा की मांग कर रही थी. इस बयान पर थाना कोतवाली कोरबा मे धारा 384,388 भादवि. का अपराध सबूत पाये जाने से अपराध पंजीबद्ध किया गया. महत्वपूर्ण तथ्य है कि कोतवाली महिला डेस्क ने मामले की बारीकी से जांच प्रारंभ की.

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गर्ल की चतुराई काम नहीं आई

दुष्कर्म मामले में हीरोइन कहे जाने वाली युवती पुलिस के अनुसार बहुत शातिर मांइड की है.विवेचना के दौरान पता चला कि प्रार्थी प्रेमकांत साहू का एक वर्ष पूर्व उसके गांव की ही रहने वाली युवती की सहेली रमा (बदला हुआ नाम) से जान पहचान हुई .जान-पहचान प्रेम संबंध में परिवर्तित हो गई. प्रार्थी और युवती के बीच आपसी सहमति से शारीरिक संबंध स्थापित हो गया. और कुछ समय बाद युवती द्वारा युवक को दुष्कर्म केस मे फंसाने की धमकी देकर डरा धमका कर रूपये पैसे की मांग शुरू हो गई. प्रार्थी डर कर युवती को लगभग 1.50 लाख रूपये एवं गूगल-पे के माध्यम से अलग अलग किस्तो मे 1.50 लाख रूपये कुल 3 लाख रूपये देता चला गया.

इसके बाद युवती के मन मे लालच बढ़ने लगा और युवक से डरा धमका कर ब्लैकमेल कर 25,000 रूपये प्रतिमाह मांग रही थी.इस पर युवक द्वारा कुछ माह डर कर युवती को पैसे दिया. परंतु फिर भी युवती द्वारा युवक को डरा धमकाकर बलात्कार केस में फंसाने एवं स्वयं को नुकसान पहुंचाने की बात कर प्रार्थी युवक को लगातार ब्लैकमेल कर पैसे की मांग की जा रही थी. युवक वर्तमान मे बेरोजगार है तथा पैसे की तंगी एवं मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या की भी कोशिश कर चूका है, थक हार कर सहायता के लिए पुलिस के पास आया. मामले की गंभीरता को देखते हुए थाना प्रभारी निरीक्षक दुर्गेश शर्मा के नेतृत्व मे पुलिस टीम गठित कर युवती को खरमोरा से गिरफ्तार किया गया. पैसे के लिये ब्लैकमेलिंग व उद्दापन से संबंधित वाइस रिकार्ड, जिसमे आरोपित युवती द्वारा बलात्कार के केस में फंसा देने व खुद को नुकसान पहुचा कर फंसा देने का डर दिखाकर बहुत ही अश्लील तरीके से बातचीत करते हुए गालीगलौच कर प्रार्थी से पैसे की मांग की जा रही है.

महिलाओं पर जोरजुल्म: जड़ में धार्मिक पाखंड

मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में एक छोटा सा गांव है मुहारी खुर्द. वहां नवरात्र शुरू होते ही गांव के लोगों ने चंदा इकट्ठा कर के दुर्गा की मूर्ति की स्थापना की थी. मूर्ति के विसर्जन के बाद 28 अक्तूबर, 2020 को गांव में कन्या भोज चल रहा था. आयोजक गांव की लड़कियों को खीर, पूरी, हलवा परोस रहे थे.

उस कन्या भोज में गांव के बृजेश पांडे की 17 साल की बेटी चांदनी भी आई थी. वह पंडाल में भोज के लिए बैठी ही थी कि  पंडित नाथूराम शास्त्री की नजर  उस पर पड़ गई. चांदनी को पंडाल में देख कर नाथूराम भड़क गया और उसे डांटते हुए बोला, “तू कैसे कन्या भोज के लिए आ गई? तुम तो समाज के नाम पर कलंक हो. तुम्हारे परिवार पर तो गौहत्या का पाप लगा है.”

पंडित नाथूराम की डांट से चांदनी घबरा गई और बिना भोजन किए अपने घर आ ग‌ई. रोरो कर उस का बुरा हाल था. उसे बारबार 4 महीने पुराना वह वाकिआ याद आ रहा था, जब उस के खेत में गाय का बछड़ा घुस आया था. खेलखेल में उस के भाई ने बछड़े के गले में एक रस्सी फंसा कर खूंटी से बांध दिया था. मगर रस्सी के फंदे में फंस कर उस बछड़े की मौत हो गई थी. जब गांव वालों को बछड़े की मौत की जानकारी लगी तो पूरे गांव ने उन्हें गौहत्या का दोषी मान लिया.

चांदनी के परिवार ने समाज से बाहर किए जाने के पंचायत के फैसले के बाद इलाहाबाद जा कर गंगा स्नान और पूजापाठ करा कर गांव के लोगों के लिए भंडारा भी किया था, लेकिन गांव का पंडित नाथूराम शास्त्री चांदनी के परिवार से जुर्माने के तौर पर 51,000 रुपए देने के लिए जोर डाल रहा था. परिवार की माली हालत ठीक नहीं होने की वजह से वे लोग जुर्माने की रकम अदा नहीं कर पाए. इस से दबंगों की पंचायत ने उन्हें समाज से बाहर निकाल दिया.

नवरात्र के भंडारे में अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों समेत जब चांदनी कन्या भोज के लिए पहुंची तो पंडित नाथूराम शास्त्री ने उसे समाज का कलंक कह कर बेइज्जत कर दिया.

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पंडित नाथूराम की इस बेरुखी से दुखी हो कर 17 साल की चांदनी जब घर आई तो घर के सभी लोग खेतखलिहान में थे. बेइज्जती का घूंट पी कर आई चांदनी ने खुद पर केरोसिन छिड़क कर आग लगा ली. आग की लपटों के बीच चीखतेबिलखते उस की मौत हो गई. इस की खबर जैसे ही पंडित नाथूराम को लगी, तो वह गांव से फरार हो गया.

दरअसल, देश में महिलाओं पर होने वाले इस तरह के जोरजुल्म की जड़ में धार्मिक कर्मकांड और पाखंड एक बहुत बड़ी वजह है. नवरात्र में कन्या पूजन कर देवी आराधना का ढोंग किया जाता है और मौका मिलते ही उन्हें हवस का शिकार बनाया जाता है.

धर्म के नाम पर महिलाओं पर होने वाले जोरजुल्म की यह घटना कोई नई बात नहीं है. 9 दिन चलने वाली दुर्गा पूजा के आयोजन में मूर्तियों की स्थापना में लाखों रुपए चंदा जमा कर के  धर्म और भक्ति का ढोंग किया जाता है और देवी दर्शन को निकली लड़कियों और महिलाओं के साथ समाज और धर्म के ठेकेदारों द्वारा बुरा बरताव किया जाता है. धर्म के इन ठेकेदारों को केवल 9 दिनों तक लड़कियों में देवी का रूप दिखाई देता है और साल के बाकी दिनों में उन्हें  बलात्कार और यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है.

महिलाओं में माहवारी के दौरान पंडेपुजारियों द्वारा उन्हें अछूत मान कर मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है और उन्हें तरहतरह के व्रतउपवास, कथापूजन में उलझा कर मोटी दानदक्षिणा मांगी जाती है.

और भी दकियानूसी परंपराएं

आज के वैज्ञानिक युग में भी गांवकसबों से ले कर शहरों तक में दकियानूसी परंपराएं समाज में कायम हैं, जिन के नाम पर ही धर्म की दुकानें चल रही हैं. अनजाने में ही अगर गायबिल्ली और गिलहरी की मौत किसी वजह से लोगों के घरों में हो जाती है, तो इसे पाप समझा जाता है और गांव के पंडेपुजारी इस दोष के निवारण के लिए भोजभंडारे के साथसाथ दानदक्षिणा भी ऐंठते हैं.

अपनेआप को गाय का रक्षक मानने वाले लोग आवारा घूमती गायों के लिए चारापानी का इंतजाम नहीं कर पाते हैं, लेकिन गाय की मौत पर हायतोबा मचा देते हैं और गाय की तस्करी करने वालों को मौब लिंचिंग का शिकार बना देते है.

गांव के पंडेपुजारियों द्वारा तथाकथित मांगलिक कामों में विधवा औरत को शामिल होने को अशुभ मानते हैं और धर्म का डर दिखा कर उन्हें दोबारा शादी करने से रोका जाता है.

धर्मग्रंथ भी कम नहीं

हमारे धर्मग्रंथों में महिलाओं से दोहरे बरताव के किस्से भरे पड़े हैं. एक तरफ कहा जाता है कि जहां नारी की पूजा की जाती है, वहां देवताओं का निवास होता है, तो दूसरी तरफ यही देवता नारी की देह का सुख लेने को लालायित रहते हैं. इंद्र द्वारा गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ छल कर के शारीरिक संबंध बनाने की कथा पुराणों में लिखी है. धर्म की सीख देने वाले ऋषिमुनि भी दो कदम आगे ही रहे हैं.

ऋषि पराशर ने मछुआरे की लड़की सत्यवती से नौका में संभोग कर अपनी वासना की आग बुझाई थी. इसी वजह से ‘महाभारत’ लिखने वाले वेद व्यास का जन्म हुआ था. ये वही वेद व्यास हैं, जिन्होंने अंबे, अंबालिका और उन की दासी के साथ शारीरिक संबंध बनाए, जिस से पांडु ,ध‌तराष्ट्र और विदुर जैसे पुत्र पैदा हुए.

धर्म महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहने की ही सीख देता है. किसी भी धर्मग्रंथ की कहानियों में उपदेश यही दिया जाता है कि पत्नी पति के जोरजुल्म को सहन कर भी पति को परमेश्वर मानती रहे. धर्मगुरुओं की भूमिका भी समाज को रास्ता दिखाने के बजाय अपने स्वार्थ की पूर्ति की ज्यादा रही है. धर्म का अनुसरण सब से ज्यादा महिलाएं ही करती आई हैं, इसी का फायदा हमारे धर्मगुरुओं ने उठा कर उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाया है.

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हमारे धर्मगुरु आज भी इस परंपरा को निभा रहे हैं. आसाराम, राम रहीम , रामपाल, नारायण सांईं, स्वामी चिन्मयानंद जैसे धर्म के ठेकेदार इस के जीतेजागते उदाहरण हैं.

हिंदू धर्म के साधुसंतों के अलावा चर्च के पादरी और मसजिदमजारों के मौलवी भी महिलाओं के यौन शोषण के मामलों में पुलिस के हत्थे चढ़ चुके हैं. चर्च महिलाओं व बच्चों के यौन शोषण के अड्डे बन गए हैं. कैथोलिक पादरियों द्वारा हजारों यौन उत्पीड़न के मामले सामने आ चुके हैं.

देह धंधे में फंसीं औरतें

बंगलादेश की एक गारमैंट फैक्टरी में 9,000 रुपए महीने पर नौकरी करने वाली तलाकशुदा औरत शबाना को उस के ही साथ काम करने वाले एक आदमी ने भारत में अच्छी नौकरी का लालच दिया.

उस आदमी पर भरोसा कर के शबाना बिना अपने मांबाप को बताए ही दलाल के जरीए मुंबई पहुंच गई, लेकिन वहां पर उस के साथ धोखा हुआ और उस आदमी ने उसे सिर्फ 50,000 रुपए में एक नेपाली औरत को बेच दिया, जो एक चकलाघर चलाती थी. फिर शबाना को न चाहते हुए भी देह धंधा करना पड़ा.

मुंबई से बैंगलुरु, फिर अलगअलग शहरों में देह धंधे के अड्डों से होती हुई अलगअलग लोगों के चंगुल में फंसने के बाद आखिर में शबाना का ठिकाना बना पुणे का रैडलाइट इलाका. वहीं से पुणे पुलिस ने शबाना को छुड़ाया और एक एनजीओ के सुपुर्द कर दिया.

इस संस्था के लोगों ने ही मुंबई में बंगलादेशी हाईकमीशन से जुड़े औफिस से बात की और शबाना के घर वालों का पताठिकाना मालूम किया. जांचपड़ताल के बाद शबाना को उस के देश भेजने की तैयारी की गई.

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शबाना की कहानी भी दूसरी हजारों ऐसी औरतों की तरह ही लगती है, जो अच्छी नौकरी की तलाश में भारत  आती हैं और एक अंधेरी जिंदगी में फंस जाती हैं.

लेकिन, शबाना की कहानी में एक मोड़ था. उस ने भारत से लौटने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साल 2017 में एक चिट्ठी लिखी थी, जिस में उस ने लिखा था, ‘भारत में अपने ग्राहकों से टिप में मिले कुछ पैसे मैं ने बचा रखे हैं, लेकिन उन में से ज्यादा 500 रुपए और 1,000 रुपए के पुराने नोट हैं, जो रद्द हो चुके हैं. बहुत ज्यादा तकलीफ और कलंक उठा कर कमाए गए मेरे कुछ हजार रुपयों को अगर मोदीजी बदलवा दें तो मैं उन की अहसानमंद रहूंगी.’

इस भावुक चिट्ठी का रुपाली शिभारकर ने हिंदी अनुवाद किया था. फिर इस चिट्ठी को शबाना की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तब की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट किया था.

इसी चिट्ठी में शबाना ने लिखा था कि बैंगलुरु में रैडलाइट इलाके में काम करते समय कोठे के मालिक हाथ में एक भी पैसा नहीं देते थे, लेकिन कुछ ग्राहक खुश हो कर टिप दे देते थे, वह उन्हें पेटीकोट के भीतर किसी तरह से छिपा कर रख लेती थी, लेकिन अब वे नोट चलन से बाहर हैं. मोदीजी अगर नोट बदलवा दें तो कुछ पैसे ले कर वह अपने घर जा सकेगी.

पर सब को मालूम है कि जिद्दी और गरूर वाली यह सरकार बेबस औरत की सुनने नहीं वाली.

पश्चिम बंगाल के 24 परगना की सायमा को इस की बिलकुल भनक नहीं थी कि जिस की मुहब्बत में वह अपने गांव से भाग कर मुंबई जा रही है, वही उस का सौदागर बन जाएगा.

सायमा को जिस्मफरोशी की मंडी में बेच दिया गया था. तब उस की उम्र महज 16 साल थी. जिस्मानी और दिमागी तौर पर कमजोर सायमा उन जुल्मों को याद कर के सिहर उठती है, जो उस ने बेचे जाने के बाद सहे थे.

सायमा ऐसी अकेली नहीं है. नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि पूरे भारत में मानव तस्करी की शिकार लड़कियों में से 42.67 फीसदी सिर्फ पश्चिम बंगाल की हैं.

देह धंधे के लिए तस्करी का शिकार हुई ज्यादातर पीडि़ताओं को वही सबकुछ झेलना पड़ता है, जो सायमा ने झेला. इन में से कुछ का अनुभव और भी बुरा है.

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सामाजिक कार्यकर्ता बैताली गांगुली कहती हैं कि कोलकाता न सिर्फ देह धंधे के लिए की जा रही मानव तस्करी का एक बड़ा केंद्र है, बल्कि यह बंगालदेश और नेपाल से तस्करी का शिकार हुई लड़कियों का ‘ट्रांजिट पौइंट’ भी है.

उन का आगे कहना है कि तस्करी का शिकार हुई ज्यादातर लड़कियों को या तो कोलकाता में एशिया की देह धंधे की सब से बड़ी मंडी ‘सोनागाछी’ में बेच दिया जाता है या फिर उन्हें उन बड़े शहरों में बेचा जाता है, जहां ‘डांस बार’ का धंधा जोरों पर चल रहा है.

पश्चिम बंगाल की सरकार और कुछ सामाजिक संगठनों ने ऐसी लड़कियों को मानव तस्करों के चंगुल से बचाने के लिए बड़ी मुहिम चलाई है.

इस में देश के अलगअलग ‘रैडलाइट’ इलाकों और डांस बारों से बहुत सी लड़कियों को बचाया भी गया है, मगर सामाजिक संस्थाओं के सामने इन लड़कियों के दोबारा बसाने की समस्या सब से बड़ी चुनौती के रूप में रही है, क्योंकि शोषण के बाद इन में मनोवैज्ञानिक अस्थिरता के लक्षण पैदा हो जाते हैं.

देह धंधे के लिए तस्करी का शिकार हुई ऐसी ही लड़कियों को ‘ट्रौमा’ यानी अवसाद से बाहर निकालने के लिए सामाजिक संगठनों ने म्यूजिक और डांस का सहारा लिया है.

‘समवेद’ नामक एक गैरसरकारी संगठन ने तस्करी का शिकार हुईं इन लड़कियों को उन के पुनर्वास केंद्रों पर ही जा कर म्यूजिक और डांस के जरीए जिंदगी को दोबारा जीने के लिए बढ़ावा देना शुरू किया है.

‘समवेद’ की सोहिनी चक्रवर्ती कहती हैं, ‘‘यह डांस और म्यूजिक इस तरह से पिरोया गया है, ताकि इन्हें मुक्ति का अहसास दिला सके. मुक्ति पिछली जिंदगी से, पिछले अनुभवों से और कड़वी यादों से.’’

सोहिनी चक्रवर्ती का कहना है कि जोरजुल्म ?ोलने के बाद इन बचाई गईं लड़कियों का बरताव बिलकुल बदल जाता है. ये न किसी से बात करना चाहती हैं, न घुलनामिलना. इन के अंदर चिड़चिड़ापन आ जाता है. डांस और म्यूजिक इन्हें सब से मुक्ति देने में मदद करता है.

नीतू, जो तस्करी का शिकार होने के बाद कोलकाता के एक पुनर्वास केंद्र में रह रही थी, ने बताया कि जब उसे रैडलाइट इलाके से बचाया गया था, तब वह बिलकुल टूटी हुई थी.

नीतू ने बताया, ‘‘मेरे साथ जोकुछ हुआ, उस के बाद मैं जीना नहीं चाहती थी. न किसी से मिलना चाहती थी, न अपने घर ही वापस लौटना चाहती थी. लगता था मानो जिंदगी अब खत्म हो गई है. मगर जब मैं ने डांस और म्यूजिक का सहारा लिया, तो सबकुछ बदलाबदला सा नजर आया. ऐसा लगा जैसे मु?ो मुक्ति मिल रही हो.’’

आज नीतू की तरह कोलकाता के पुनर्वास केंद्रों में रहने वाली कई ऐसी लड़कियां हैं, जो खुद म्यूजिक और डांस के जरीए इस अवसाद से उबर गई हैं.

अब नीतू बतौर प्रशिक्षक पुनर्वास केंद्रों में रह रही दूसरी लड़कियों को अपनी जिंदगी दोबारा जीने के लिए बढ़ावा देने का काम कर रही हैं.

देश के तकरीबन हर राज्य के किसी न किसी इलाके में देह धंधा अपने पैर पसारे हुए है, जहां लाखों औरतें दुनिया से कट कर बेबस जिंदगी जी रही हैं.

ऐसी बहुत ही कम औरतें होती हैं, जो अपनी मरजी से देह धंधे में आती हैं. ज्यादातर औरतें ऐसी ही होती हैं, जिन के सामने या तो कोई मजबूरी होती है या अनजाने ही इन्हें इन बदनाम बाजारों में बेच दिया जाता है.

दुनिया के तमाम दूसरे रिश्तों से दूर ये औरतें न किसी की मां होती हैं, न बहन, न बेटी और न पत्नी, इन्हें सिर्फ वेश्याओं के नाम से जाना जाता है. अपनी इज्जत को दांव पर लगा कर समाज के न जाने कितने रसूखदार लोगों की इज्जत बचाए रखने का काम करती हैं ये. लेकिन क्या आप जानते हैं कि तंग गलियों और स्टोररूमनुमा ऐसे कमरों में रहने वाली ये वेश्याएं, जहां सूरज भी अपनी किरणों को भेजने से गुरेज करता है, का भारत में बुरा हाल है.

महिला और बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में  30 लाख से ज्यादा औरतें देह धंधे से जुड़ी हैं, जिन में से तकरीबन 36 फीसदी औरतें ऐसी हैं, जो 18 साल की उम्र से पहले ही इस धंधे में शामिल हो गईं, जबकि ह्यूमन राइट्स ‘वाच’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2 करोड़ सैक्स वर्कर हैं, जो किसी न किसी रूप से इस धंधे में शामिल हैं.

देश के सब से बड़े रैडलाइट एरिया सोनागाछी, कोलकाता को माना जाता है. यहां तकरीबन 3 लाख औरतें देह धंधे से जुड़ी हैं. दूसरे नंबर पर मुंबई का कमाठीपुरा है, जहां तकरीबन 2 लाख से ज्यादा सैक्स वर्कर हैं. फिर दिल्ली का जीबी रोड, आगरा का कश्मीरी मार्केट, ग्वालियर का रेशमपुरा, पुणे का बुधवार पेठ है.

छोटे शहरों की बात करें, तो वाराणसी का मडुआडीह, मुजफ्फरपुर का चतुर्भुज स्थान, आंध्र प्रदेश के पेड्डापुरम व गुडिवडा, सहारनपुर का नक्कासा बाजार, इलाहाबाद का मीरगंज, नागपुर का गंगाजमुना और मेरठ का कबाड़ी बाजार भी इसी बात के लिए बदनाम है.

आंकडों के मुताबिक, देश में रोजाना तकरीबन 2,000 लाख रुपए का देह धंधा होता है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक स्टडी के मुताबिक, भारत में

68 फीसदी लड़कियों को रोजगार के झासे में फंसा कर वेश्यालयों तक पहुंचाया जाता है, जबकि 17 फीसदी लड़कियों को शादी का वादा कर के इस धंधे में धकेल दिया जाता है.

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क्या है कानून

भारत में वेश्यावृत्ति या देह धंधा अभी भी अनैतिक देह व्यापार कानून  के तहत आता है. हालांकि देश में समयसमय पर इस बात को ले कर बहसें चलती रही हैं कि क्यों न वेश्यावृत्ति को कानूनन वैध बना दिया जाए यानी यह कानून फुजूल का रहा, यह स्वीकार करने के बाद उस के फुजूल के होने की वजहों को जांचने के बजाय इस पूरे धंधे से दंड व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी ही समेट ले? राज्य व्यवस्था औरतों के हिंसक उत्पीड़न, शोषण और खरीदेबेचे जाने की पाशविक परंपरा को अपनी मूक असहाय सहमति दे.

‘भारतीय दंड विधान’ 1860 से ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक 1956’ तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्य व्यापार को नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं.

इस कानून के अनुसार, वेश्याएं अपने व्यापार का निजी तौर पर यह काम कर सकती हैं, लेकिन कानूनी तौर पर जनता में ग्राहकों की मांग नहीं कर सकती हैं. इस कानून का मकसद भारत में यौन कार्यों की विभिन्न वजहों का रोकना और धीरेधीरे वेश्यावृत्ति को खत्म करना है.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वेश्यावृत्ति गैरकानूनी है. अगर कोई शख्स किसी सार्वजनिक जगह पर बेहूदा या अश्लील हरकत करते पाया जाता है, तो भी उस के खिलाफ सजा का प्रावधान है.

अनैतिक आवागमन

‘रोकथाम’ अधिनियम

आईटीपीए 1986 वेश्यावृत्ति को रोकने के लिए बनाया गया है. इस कानून के मुताबिक, जो औरत किसी शख्स को जिस्मानी संबंध बनाने के लिए उकसाएगी, उस को दंड दिया जाएगा. इस के अलावा कालगर्ल्स अपने फोन नंबर को सार्वजनिक रूप से पब्लिश नहीं कर सकतीं, ऐसा करने पर उन को  6 महीने के कारावास व जुर्माने का प्रावधान है. किसी सार्वजनिक जगह के पास देह धंधा करने पर  सैक्स वर्कर को 3 महीने की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.

ग्राहक के लिए

एक ग्राहक अगर किसी वेश्या के साथ सार्वजनिक जगह के 200 गज के दायरे में संबंध बनाते पाया जाता है या उस पर यौन संबंधों में शामिल होने का आरोप लगता है, तो उसे 3 महीने के कारावास के साथ जुर्माना देना होगा. अगर सैक्स वर्कर 18 साल से कम उम्र की है, तो ग्राहक को 7 से 10 साल की सजा का प्रावधान है.

वेश्यालय चलाने पर

कोई शख्स अगर वेश्यालय चलाता है या किसी से चलवाता है या वेश्यालय चलाने में मदद करता है, तो उसे 3 साल का सश्रम कारावास व 2,000 रुपए का जुर्माना होगा. अगर वही शख्स दोबारा इस अपराध का दोषी पाया गया, तो उस को कम से कम 2 साल व ज्यादा से ज्यादा 5 साल का कठोर कारावास और 2,000 रुपए का जुर्माना देना होगा.

सेहत एक बड़ी समस्या

वेश्याओं की सेहत को ले कर हमेशा से ही बहस होती रही है. भारत में एचआईवी संक्रमण के बढ़ने की वजह इन्हें ही माना जाता है. हालांकि पिछले दशक में एचआईवी संक्रमित वेश्याओं की तादाद में गिरावट आई है.

इस कार्यक्रम के तहत 5,000 वेश्याओं को जागरूक किया गया है.  2 लोगों की टीम यहां की वेश्याओं को उन की बीमारियों के बारे में, कंडोम के इस्तेमाल के सही तरीके और इस के फायदे के बारे में बता रही है.

इस कार्यक्रम को साल 1992 में शुरू किया गया था, तब सिर्फ 27 फीसदी वेश्याएं कंडोम का इस्तेमाल करती थीं, लेकिन साल 2001 तक 86 फीसदी वेश्याएं कंडोम का इस्तेमाल करने लगीं. मुंबई व पुणे सहित देश के बाकी हिस्सों में चल रहे रैडलाइट एरिया में भी इस तरह के जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं.

भारत में वेश्यावृत्ति को कानूनी मंजूरी नहीं हासिल है, इसलिए इन्हें किसी भी तरह के खास हक भी नहीं दिए गए हैं. वेश्याओं के भी सिर्फ वही हक हैं, जो आम नागरिकों को मिलते हैं.

हालांकि अगर यहां वेश्यावृत्ति को कानूनी मंजूरी दी गई, तो वेश्याएं भी श्रमिक कानून के अंदर आ जाएंगी और उन्हें भी बाकी मजदूरों को मिलने वाले विशेषाधिकार मिल जाएंगे. समयसमय पर यहां वेश्यालयों को कानूनी मंजूरी देने की मांग उठती रहती है.

10 मार्च, 2016 को आल इंडिया नैटवर्क औफ सैक्स वर्कर्स ने एक संगठन बना कर देश के 16 राज्यों में एक कैंपेन चलाया था. इस कैंपेन में

90 सैक्स वर्कर्स शामिल थीं. वह इस बात की ओर सरकार और देश का ध्यान खींचना चाहती थीं कि उन्हें समाज में सिक्योरिटी नहीं मिलती है.

उन का यह भी कहना था कि समाज के बाकी लोग जिस तरह से कोई त्योहार या अवसर में शामिल होते हैं, हमें उस तरह से भी शामिल नहीं किया जाता. वे बाकी दूसरे कामों की ही तरह देह धंधा करती हैं, इसलिए उन्हें भी दूसरे कर्मचारियों की तरह पैंशन मिलनी चाहिए और यौन कार्य को भी सार्वभौमिक पैंशन योजना के तहत लाया जाना चाहिए.

हालांकि इन की किसी भी मांग को अभी तक पूरा नहीं किया गया है.

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