कोरोना: फौजी की तरह ड्युटी पर लगे “रोबोट” की मौत!

शिक्षक ज्ञान की ज्योति फैलाता है, उसका समाज में सबसे अहम महत्व होना चाहिए मगर, चाहे मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश हो या बिहार लगभग देश भर की तस्वीर यह है कि  प्रदेश सरकारों की हठधर्मिता के कारण “कोरोना ड्यूटी” करते हुए जाने कितने शिक्षक मौत का ग्रास बन रहे हैं, जिसकी तदाद दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है. आज भयावह समय में शिक्षक मानो एक सैनिक की तरह अपना फर्ज निभाते हुए कोरोनावायरस योद्धा बने हुए हैं. मगर सरकार अपनी भूमिका से मुंह छुपा रही है और शिक्षक कोरोना संक्रमण के कारण मर रहे हैं.

वस्तुत: सरकार के लिए शिक्षक महज एक “रोबोट” बना दिया  गया है. चाहे चुनाव हो, जनगणना हो या कोई भी सरकारी काम काज  या फिर आज का “कोरोना संक्रमण काल”, हर जगह   शिक्षक को तैनात किया जा रहा है और शिक्षक वर्ग की भलमनसाहत देखिए ! शिक्षक बिना ना नुकुर  किए सरकार के हर एक आदेश का पालन कर रहा है.

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लाख टके का सवाल सरकार से यह है कि क्या शिक्षक इंसान नहीं है क्या कोई वह यंत्र है रोबोट है कि उस पर कोरोना वायरस कोविड-19 का संक्रमण नहीं होगा? जब वह बिना सुरक्षा कवच के, दवाइयों के, सैनिटाइजर के गली गली ड्यूटी करेगा और घर आएगा तो क्या वह और उसका परिवार सुरक्षित रहेगा?

आज कोरोना संक्रमण के इस भयावह समय में शिक्षक शासन के आदेशानुसार, घर में लाक डाउन रहने की जगह अपना फर्ज निभा रहा है और पुलिस, चिकित्सक, नर्सिंग स्टाफ की भांति कोरोना संक्रमण से अपनी जान गंवा रहा है.

शिक्षक राजेश चटर्जी ने हमारे संवाददाता से बातचीत में बताया कि छत्तीसगढ़ सामान्य प्रशासन विभाग में प्रस्तुत किये आँकड़ो के अनुसार कोरोना के करण कुल मौत का कुल आंकड़ा 689 हो गया है जिसमें से अकेले शिक्षा विभाग में अब तक 370 शिक्षकों  ने जान गँवाई है. जो चिंता का सबब बना हुआ है. शिक्षकों का निर्धारित काम पाठशाला स्कूलों में बच्चों को शिक्षा देना है मगर सरकार की हठधर्मिता देखिए स्वास्थ्य विभाग की प्राथमिक जानकारी से भी अनजान है उसे कोरोना काल में गली-गली घूमने पर मजबूर किया गया है. शिक्षक की सुरक्षा और भविष्य की चिंता किसी को नहीं है.

सुरक्षा उपायों में लापरवाही

दरअसल,  छत्तीसगढ़ सरकार ने शिक्षकों की ,कोरना के इस समय में ड्यूटी चेक पोस्ट, वैक्सीनेशन, रेल्वे स्टेशन, क्वारेंटाइन सेंटर्स व टेस्टिंग जैसे संवेदनशील काम में लगा रही है और  ड्यूटी में लगने से शिक्षक लगातार संक्रमितों की चपेट में आ रहे है. और बीमार हो रहे है. बीमार शिक्षक को शासन से मदद भी नहीं मिल रही और वो खुद के खर्चे से अपना इलाज करवाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. और कोरोना महामारी के रोकथाम में शिक्षकोंको डयुटी पर  लगाना बदस्तूर जारी है. गौरतलब है कि कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए कोई सुरक्षात्मक उपाय किये बिना ही,जिला प्रशासन ने शिक्षकों की मनमाने डयूटी,कोरोना महामारी के रोकथाम एवं नियंत्रण में लगा दिया. विभाग के जिला एवं ब्लॉक के अधिकारी कोरोना संबंधित डयूटी से इंकार करने वाले शिक्षकों को,वेतन रोकने की धमकी दे कर मजबूर कर रहे हैं. परिणाम स्वरूप शिक्षकों की जान जा रही है, उनका परिवार बेसहारा हो रहा है और विभाग के उच्च अधिकारी आंखें मूंदे हुए हैं.

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सच्चाई यह है कि कोरोना संक्रमित हो रहे शिक्षकों के त्वरित इलाज का कोई प्रबंध सरकार नहीं कर रही है. संक्रमित शिक्षक त्वरित इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं.विभाग रोज नए फरमान जारी कर रहा है. जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि, शासन प्रशासन को निरीह शिक्षकों की जान की परवाह नहीं है.

छत्तीसगढ़ राज्य के 29 जिलों में शिक्षक कोरोना कार्य जैसे ग़ैर-शिक्षाकीय कार्य में शहीद हुए हैं.  समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाने  वाले शिक्षक,खुद अंधेरे में खो गया हैं रिपोर्ट लिखे जाने तलक  चार सौ के लगभग शिक्षकों की मौत हो गई है. आखिर शिक्षकों को मुँह में धकेलने का दोषी कौन है ?

यह कि शिक्षा विभाग में तृतीय श्रेणी के पदों में सहायक शिक्षक के पद रिक्त हैं ऐसे में राज्य सरकार  दिवंगत शिक्षक के परिवार के एक सदस्य को तत्काल अनुकंपा नियुक्ति देनी चाहिए.कोरोना महामारी के दृष्टिगत,दिवंगत शिक्षकों के परिवार के एक सदस्य  को सांत्वना स्वरूप अनुकंपा नियुक्ति मानवीय आधार पर शीघ्र दी जानी चाहिए.

पाखंड की गिरफ्त में पुलिस

उत्तर प्रदेश के मेरठ के नौचंदी पुलिस थाने के एसएचओ ने पौराणिक न्याय करने के लिए एक नई जुगत निकाली है. वे हर शिकायतकर्ता को खुद अशुद्ध मानते हैं और उसे गंगाजल से धोते हैं. गनीमत है कि गंगाजल का असर इतना ज्यादा माना जाता है कि कुछ बूंदों से ही पाप धुल सकते हैं, इसलिए उन की छिड़की बूंदों पर शिकायतकर्ता सिर झुका लेता है. जो समाचार छपा है उस में कहीं लिखा नहीं है कि गंगाजल के प्रतापकी वजह से वहां नौचंदी में अपराध कम हो गए हैं या अपराधी खुद ब खुद जेल में आ कर बंद हो गए हैं. वहां यह भी नहीं लिखा कि उस थाने में रिश्वतखोरी बंद हो गई है. पर यह पक्का है कि हरिद्वार की हर की पौड़ी पर जजमानों और पंडों को झगड़ते देखा जा सकता है और पंडों के बीच जजमान पकड़ने के लिए छीनाझपटी देखी जा सकती है तो इस थाने में गंगाजल के छींटों से कोई फर्क नहीं पड़ता होगा.

यह अफसोस की बात है कि कूढ़मगज पूजापाठी लोग राज के हर पायदान पर आ बैठे और आज जम कर पाखंड का बाजार जम रहा है. इस के सब से बड़े शिकार गरीब हैं जो समझ नहीं पा रहे कि क्या सच है और क्या बेईमानी. उन्हें बातों के सहारे हजारों साल गुलाम रखा गया है, पर पिछले 100-150 सालों में जो नई लहर आई थी, बराबरी की सोच की, वह बड़ी सफाई से तरहतरह के बांध बना कर कंट्रोल में की जा रही है.

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गरीबों को कांवड़ ढोने पर लगा दिया गया है. गरीबों के लिए उन के अपनी गली के किनारे पेड़ के नीचे बने पत्थर के देवता का मंदिर बना दिया गया है जहां वे ऊंचे सवर्णों की तरह पूजापाठ कर अपना कल्याण चाह सकते हैं.  उन की जो भी थोड़ीबहुत कमाई बढ़ी थी, उसे गंगाजल बहा कर ले जाने  लगा है.

इन गरीबों को बहका कर सत्ता पर तो कब्जा किया गया ही है, इन गरीबों को जाति, गोत्र, धर्म, गुरु के हिस्सों में बांट दिया गया है और हरेक को दूसरे का दुश्मन बना डाला गया है. रामायण के राम और रावण न कोई देशीविदेशी थे, न हिंदू और विधर्मी. फिर भी राम को ले कर सारे देश में होहल्ला किया जा सकता है और लाखोंकरोड़ों को बहकाया ही नहीं बहलाया भी जा सकता है. महाभारत के कृष्ण ने गीता का पाठ उस अर्जुन को दिया था जो अपने दादा, चचेरे भाइयों, गुरुओं, मामा, दोस्तों के साथ लड़ने को मना कर रहा था. कृष्ण ने बड़ी तरकीब से अर्जुन को मारपीट के लिए मना लिया और 17 दिन बाद सब खात्मा करा दिया, दुर्योधन को भी, अर्जुन का भी.

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गंगाजल छिड़कना इसी तरह के लाखों कामों में से एक है. यह रावण की हत्या या गीता के पाठ की तरह है जो शिकायतकर्ता को कहता है कि तुम्हारी गति तो पहले से ही तय है. पुलिस स्टेशन में तो सिर्फ हवनपूजन सा बेकार का काम होगा, न अपराधी पकड़ा जाएगा, न हक दिलवाया जाएगा. रामायण, महाभारत, पौराणिक कहानियों की तरह असली पौबारह तो उस नौचंदी के थाने में भी वशिष्ठों, विश्वामित्रों और दुर्वासाओं की होगी. भक्त तो पापी है, पापी रहेगा.

समुद्र का खारा होना, धरती के लिए अभिशाप नहीं वरदान है!

कभी आपने सोचा कि अगर समुद्र का पानी खारा नहीं होता तो क्या होता? जी हां, यह मजाक नहीं है, अगर समुद्र का पानी खारा न होता तो शायद धरती में इंसान का अस्तित्व ही न होता. समुद्र का खारापन मानव के लिए अभिशाप नहीं बल्कि किसी वरदान से कम नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर समुद्र का जलस्तर बढ़ जाता है और उसका पानी सूखी जमीन पर फैल जाता है, तो जहां जहां ये पानी फैलता है, वह जमीन रेगिस्तान बन जाती है.  लेकिन खारे पानी के इस ज्ञात नुकसान के मुकाबले हमें फायदे बहुत ज्यादा हैं. समुद्र का खारापन इंसान के लिए बहुत महत्वपूर्ण व उपयोगी है. गौरतलब है कि समुद्र के पानी के खारा होने का मुख्य कारण, ठोस सोडियम क्लोराइड है. हालांकि समुद्र के खारे पानी में पोटेशियम और मैग्नीशियम के क्लोराइड व विभिन्न रासायनिक तत्व भी करीब करीब हर जगह पाए जाते हैं.

जैसा कि हम जानते हैं कि गर्म हवाएं हल्की होती हैं और ठंडी हवाएं भारी. इस कारण ठंडी के मुकाबले गर्म हवा का घनत्व कम होता है. जब समुद्र की सतह में किसी जगह गर्म होकर हवा ऊपर उठती है, तो उस स्थान विशेष की लवणता में यानी उसमें मौजूद नमक में और आसपास की दूसरी जगहों की लवणता में फर्क आ जाता है. इस कारण वाष्प के जरिये समुद्र से उठे जल को गति मिलती है. यह पानी उस दिशा में आगे बढ़ता है, जहां की हवा ठंडी होती है. इसे यूं समझिये कि बंगाल की खाड़ी से उठी ऐसी ही गर्म हवाएं अपने साथ संघनित बादल लेकर इसी वजह से उत्तर भारत की तरफ चल पड़ती हैं क्योंकि यहां की हवाएं ठंडी होती हैं. इसे ही हम ‘मानसून का आगमन कहते हैं.’ मतलब यह कि समुद्र के खारेपन के कारण ही मानसून बनता है, बारिश होती है और बारिश है तो जीवन है.

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क्योंकि इसी बारिश से, जो कि खारे पानी का नतीजा है-मौसम हैं, कुदरत है, कुदरत में रंगों की विविधता है,और इसी के चलते पृथ्वी में जलवायु की विविधता है. जैसा कि हम जानते हैं कि ठंडा जल, गर्म जल की तुलना में अधिक घनत्व वाला होता है. इस कारण गर्म जल की धाराएं ठंडे क्षेत्रों की ओर बहती है और ठंडा जल उष्ण और कम उष्ण प्रदेशों की तरफ बहता है यानी समुद्री धाराओं के बहाव का  मुख्य कारण भी समुद्र के पानी का खारा होना ही है. कल्पना करिये पूरे समुद्र में मीठा पानी होता तो क्या होता? समुद्र में जल धाराएं न होतीं. इसका नतीजा यह होता कि ठंडे प्रदेश बहुत ठंडे रहते और गर्म प्रदेश बहुत अधिक गर्म. क्या तब पृथ्वी पर जीवन इतना ही सहज होता? एक और बात जान लीजिये धरती की असीम जैव विविधता का सबसे बड़ा कारण समुद्र के पानी का खारा होना है.

यह तो हुई समुद्र के खारे पानी की बात. अब जरा एक क्षण को सोचिये की समुद्र ही न होते तो क्या होता? क्या समुद्रों के बिना धरती में जीवन संभव है? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में गहरे तक जाएं तो खुद ब खुद पता चल जाएगा कि धरती के 70 प्रतिशत भू-भाग पर फैली 97 प्रतिशत विशाल समुद्री जलराशि का हमारे जीवन में कितना महत्व है. महासागरों में 10 लाख से अधिक विविध जीव प्रजातियों का बसेरा है. समुद्र की यही जैव समृद्धता ही धरती में जीवन का आधार है. यदि धरती में समुद्र के रूप में पानी की इतनी विशाल जलराशि न होती, तो दुनिया दहकता अंगारा बन जाती और जीवन नष्ट हो जाता. दरअसल यह समुद्र की अपार जलराशि ही है, जो सूर्य से आने वाली ऊष्मा का एक बड़ा हिस्सा अपने भीतर जज्ब कर लेती है. समुद्र के अन्दर मौजूद ज्वालामुखी इस जज्ब की हुई ऊष्मा का ही एक रूप हैं, जिनसे अब जापान बिजली बनाने लगा है. इस तरह ज्वालामुखी अब विनाश के कारण नहीं बल्कि स्वच्छ भू-तापीय ऊर्जा के विशालतम भंडार बनने जा रहे हैं.

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भविष्य में हम भी इनसे बिजली बनायेंगे. समुद्र के भीतर मौजूद विशाल ईधन भंडारों के बारे में हम जानते ही हैं. समुद्र न हों तो सूर्य से आने वाली ऊष्मा के कारण पृथ्वी का वायुमंडल बेहद गर्म हो जाय. महासागरों में मौजूद विविध जैविकी में कार्बन को अवशोषित करने की अपार क्षमता होती है. इस क्षमता के कारण ही पर्यावरण को तापमान को संतुलित रखने की सबसे सक्षम प्राकृतिक प्रणाली माना जाता है. तमाम तरह के ईंधन जलाकर हम जीवन के लिए जिन घातक गैसों का प्रतिशत वायुमंडल में बढ़ाते हैं, समुद्र उसे घटाते हैं. इस तरह देखा जाए तो समुद्र से बड़ा और महत्वपूर्ण प्रदूषण नियंत्रक इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है. यदि आज पृथ्वी पर जीवन है, तो इसमें समुद्र की बहुत बड़ी भूमिका है.

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कोरोना अवसाद और हमारी समझदारी

छत्तीसगढ़ सहित संपूर्ण देश में कोराना कोविड-19 से हालात बदतर होते दिखाई दे रहे हैं. छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक कोरोना मरीज ने अवसाद में  आकर के आत्महत्या कर ली. इसी तरह एक युवती ने भी आर्थिक हालातों को देखते हुए  कोरोनावायरस पाज़िटिव होने के बाद आत्महत्या कर ली.

कोरोना के भयावह  हालात  की खबरें टीवी, सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदाराना रवैये के साथ  दिखाई जा रही है. जबकि इस सशक्त माध्यम का उपयोग लोगों को साहस बंधाने और जागरूक करने के लिए किया जा सकता है.

दरअसल, आत्महत्या की जो घटनाएं सामने आ रही है, उसका कारण है लोग अवसाद ग्रस्त हो ऐसे कदम उठा रहे हैं. जो समाज के लिए चिंता का सबब  है.

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इस समय में हमें किस तरह अवसाद से बचना हैऔर बचाना है और लोगों को अवसाद से निकालना है….  इस गंभीर मसले पर, इस रिपोर्ट में हम चर्चा कर रहे हैं.

कोरोना काल के इस संक्रमण कारी समय में देखा जा रहा है कि समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है. लॉकडाउन को ही लीजिए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की पाबंदियां कोरोना- 2 के इस समय काल में लगाई गई हैं वैसी पिछली दफा नहीं थी. चिकित्सालय और सरकारी व्यवस्था भी धीरे धीरे तार तार होते दिखाई दे रहे हैं.

ऐसी परिस्थितियों में जब आज अमानवीयता का दौर है. हर एक जागरूक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने आसपास सकारात्मक उर्जा का संचार करें और लोगों के लिए सहायक बन कर उदाहरण बन जाए.

यह घटना एक सबक है

छत्तीसगढ़ के इस्पात नगरी कहे जाने वाले भिलाई के एक अस्पताल में भर्ती कोरोना के एक मरीज ने अस्पताल की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली.

घटना भिलाई स्थित जामुल थाना क्षेत्र के अंतर्गत एक अस्पताल में घटित हुई. 14 अप्रैल 2021की बीती रात   अस्पताल के  कोविड मरीज ने “बीमारी” से तंग आकर आत्मघाती कदम उठा लिया. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची और मामले की विवेचना कर रही है  जामुल पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि आत्महत्या करने वाला  शख्स जामुल के एक अस्पताल में 11 अप्रैल से भर्ती था.उसकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और इलाज चल रहा था. मृतक का नाम ईश्वर विश्वकर्मा है और वह धमधा नगर का रहने वाला है. उसने  अपने वार्ड की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस ने बताया कि अस्पताल प्रबंधन से घटना की सूचना मिली. इसके बाद अस्पताल पहुंचकर मर्ग कायम कर स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टर से पूछताछ जारी है.

जैसा कि हम जानते हैं ऐसे गंभीर आत्मघात  के मामलों में भी पुलिस की अपनी एक सीमा है. पुलिस औपचारिकता निभाते हुए मामले  की फाइल को आगे  बंद कर देगी. मगर विवेक शील समाज में यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि आखिर ईश्वर विश्वकर्मा ने आत्महत्या क्यों की क्या ऐसे कारण थे जो उसे आत्म घाट का कदम उठाना पड़ा और ऐसा क्या हो आगामी समय में कोई कोरोना पेशेंट आत्महत्या न करें. समाज और सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है कि हम संवेदनशील हो और अपने आसपास सकारात्मक कार्य अवश्य करें, हो सकता है आप के इस कदम से किसी को संबल मिले और जीने का हौसला भी.

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मीडिया की ताकत को दिशा !

कोरोना कोविड19 के इस समय काल में देश का राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो अथवा प्रिंट मीडिया ऐसा प्रतीत होता है कि अपने दायित्व से पीछे हट गया है. अथवा वह भूल चुका है कि उसकी ताकत आखिर कहां है.

जिस तरह आज राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया में इस समय खबरें दिखाई जा रहे हैं… और हर पल बार-बार भयावह रूप में दिखाई जा रही है. जिसके कारण लोगों में एक भय का वातावरण निर्मित होता चला जा रहा है. मीडिया का यह परम कर्तव्य है कि खराब से खराब समय में भी अच्छाई को सामने लाते हुए उसे विस्तार से दिखाएं ताकि लोगों में जनचेतना जागता का वातावरण बने. हिंदी और तेलुगु कि कवि डॉक्टर टी. महादेव राव के मुताबिक पूर्व में मीडिया का ऐसा रुख नहीं था, आज मीडिया जिस तरह अपनी ताकत को भूल कर रास्ते से भटक गई है वह समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है. आज मीडिया को चाहिए कि वह लोगों में यह जागरूकता पैदा करें कि हम किस तरह इस महामारी से बच सकते हैं, इसकी जगह लोगों को मौत के आंकड़े और श्मशान घाट के भयावह हालत दिखाकर अखिर मीडिया कैसी भूमिका निभा रहा है.

चिकित्सक डॉक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक महामारी के इस समय में हम जितना हो सके बेहतर से बेहतर काम करें और लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भर दें यही हमारा प्रथम दायित्व होना चाहिए.

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Lockdown Returns: आखिर पिछले बुरे अनुभव से सरकार कुछ सीख क्यों नहीं रहीं?

भले अभी साल 2020 जैसी स्थितियां न पैदा हुई हों, सड़कों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में भले अभी पिछले साल जैसी अफरा तफरी न दिख रही हो. लेकिन प्रवासी मजदूरों को न सिर्फ लाॅकडाउन की दोबारा से लगने की शंका ने परेशान कर रखा है बल्कि मुंबई और दिल्ली से देश के दूसरे हिस्सों की तरफ जाने वाली ट्रेनों में देखें तो तमाम कोविड प्रोटोकाॅल को तोड़ते हुए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है. पिछले एक हफ्ते के अंदर गुड़गांव, दिल्ली, गाजियाबाद से ही करीब 20 हजार से ज्यादा मजदूर फिर से लाॅकडाउन लग जाने की आशंका के चलते अपने गांवों की तरफ कूच कर गये हैं. मुंबई, पुणे, लुधियाना और भोपाल से भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का फिर से पलायन शुरु हो गया है. माना जा रहा है कि अभी तक यानी 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच मंुबई से बाहर करीब 3200 लोग गये हैं, जो कोरोना के पहले से सामान्य दिनों से कम, लेकिन कोरोना के बाद के दिनों से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. इससे साफ पता चल रहा है कि मुंबई से पलायन शुरु हो गया है. सूरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में आशंकाएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं.

सवाल है जब पिछले साल का बेहद हृदयविदारक अनुभव सरकार के पास है तो फिर उस रोशनी में कोई सबक क्यों सीख रही? इस बार भी वैसी ही स्थितियां क्यों बनायी जा रही हैं? क्यों आगे आकर प्रधानमंत्री स्पष्टता के साथ यह नहीं कह रहे कि लाॅकडाउन नहीं लगेगा, चाहे प्रतिबंध और कितने ही कड़े क्यों न करने पड़ंे? लोगों को लगता है कि अब लाॅकडाउन लगना मुश्किल है, लेकिन जब महाराष्ट्र और दिल्ली के खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि स्थितियां बिगड़ी तो इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं, तो फिर लोगों में दहशत क्यों न पैदा हो? जिस तरह पिछले साल लाॅकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हुई थी, उसको देखते हुए क्यों न प्रवासी मजदूर डरें ?

पिछले साल इन दिनों लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर तपती धूप व गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांवों की तरफ भागे जा रहे थे, इनके हृदयविदारक पलायन की ये तस्वीरें अभी भी जहन से निकली नहीं हैं. पिछले साल मजदूरों ने लाॅकडाउन में क्या क्या नहीं झेला. ट्रेन की पटरियों में ही थककर सो जाने की निराशा से लेकर गाजर मूली की तरह कट जाने की हृदयविदारक हादसों का वह हिस्सा बनीं. हालांकि लग रहा था जिस तरह उन्होंने यह सब भुगता है, शायद कई सालों तक वापस शहर न आएं, लेकिन मजदूरों के पास इस तरह की सुविधा नहीं होती. यही वजह है कि दिसम्बर 2020 व जनवरी 2021 में शहरों में एक बार फिर से प्रवासी मजदूर लौटने लगे या इसके लिए विवश हो गये. लेकिन इतना जल्दी उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगा है. एक बार फिर से वे पलायन के लिए विवश हो रहे हैं.

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प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को हर हाल में रोकना होगा. अगर हम ऐसा नहीं कर पाये किसी भी वजह से तो चकनाचूर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सालों के लिए मुश्किल हो जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार लगातार छह सप्ताह से कोविड-19 संक्रमण व मौतों में ग्लोबल वृद्धि हो रही है, पिछले 11 दिनों में पहले के मुकाबले 11 से 12 फीसदी मौतों में इजाफा हुआ है. नये कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन से विश्व का कोई क्षेत्र नहीं बचा, जो इसकी चपेट में न आ गया हो. पहली लहर में जो कई देश इससे आंशिक रूप से बचे हुए थे, अब वहां भी इसका प्रकोप जबरदस्त रूप से बढ़ गया है, मसलन थाईलैंड और न्यूजीलैंड. भारत में भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के डाटा के अनुसार संक्रमण के एक्टिव केस लगभग 13 लाख हो गये हैं और कुछ दिनों से तो रोजाना ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं.

जिन देशों में टीकाकरण ने कुछ गति पकड़ी है, उनमें भी संक्रमण, अस्पतालों में भर्ती होने और मौतों का ग्राफ निरंतर ऊपर जा रहा है, इसलिए उन देशों में स्थितियां और चिंताजनक हैं जिनमें टीकाकरण अभी दूर का स्वप्न है. कोविड-19 संक्रमितों से अस्पताल इतने भर गये हैं कि अन्य रोगियों को जगह नहीं मिल पा रही है. साथ ही हिंदुस्तान में कई प्रांतों दुर्भाग्य से जो कि गैर भाजपा शासित हैं, वैक्सीन किल्लत झेल रहे हैं. हालांकि सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं. लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे तक सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनके यहां महज दो दिन के लिए वैक्सीन बची है और नया कोटा 15 के बाद जारी होगा.

हालांकि सरकार ने इस बीच न सिर्फ कोरोना वैक्सीनों के फिलहाल निर्यात पर रोक लगा दी है बल्कि कई ऐसी दूसरी सहायक दवाईयों पर भी निर्यात पर प्रतिबंध लग रहा है, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे कोरोना से इलाज में सहायक हैं. हालांकि भारत में टीकाकरण शुरुआत के पहले 85 दिनों में 10 करोड़ लोगों को कोविड-19 के टीके लगाये गये हैं. लेकिन अभी भी 80 फीसदी भारतीयों को टीके की जद में लाने के लिए अगले साल जुलाई, अगस्त तक यह कवायद बिना रोक टोक के जारी रखनी पड़ेगी. हालांकि हमारे यहां कोरोना वैक्सीनों को लेकर चिंता की बात यह भी है कि टीकाकरण के बाद भी लोग न केवल संक्रमित हुए हैं बल्कि मर भी रहे हैं.

31 मार्च को नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट फोलोइंग इम्यूनाइजेश्न) कमेटी के समक्ष दिए गये प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उस समय तक टीकाकरण के बाद 180 मौतें हुईं, जिनमें से तीन-चैथाई मौतें शॉट लेने के तीन दिन के भीतर हुईं. बहरहाल, इस बढ़ती लहर को रोकने के लिए तीन टी (टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट), सावधानी (मास्क, देह से दूरी व नियमित हाथ धोने) और टीकाकरण के अतिरिक्त जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, उनमें धारा 144 (सार्वजनिक स्थलों पर चार या उससे अधिक व्यक्तियों का एकत्र न होना), नाईट कर्फ्यू सप्ताहांत पर लॉकडाउन, विवाह व मय्यतों में निर्धारित संख्या में लोगों की उपस्थिति, स्कूल व कॉलेजों को बंद करना आदि शामिल हैं. लेकिन खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का बयान है कि नाईट कफर््यू से कोरोनावायरस नियंत्रित नहीं होता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ‘कोरोना कफर््यू’ का नाम दे रहे हैं ताकि लोग कोरोना से डरें व लापरवाह होना बंद करें (यह खैर अलग बहस है कि यही बात चुनावी रैलियों व रोड शो पर लागू नहीं है).

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महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे का कहना है कि राज्य का स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए दो या तीन सप्ताह का ‘पूर्ण लॉकडाउन’ बहुत आवश्यक है. जबकि डब्लूएचओ की प्रवक्ता डा. मार्गरेट हैरिस का कहना है कि कोविड-19 के नये वैरिएंटस और देशों व लोगों के लॉकडाउन से जल्द निकल आने की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हो रही है. दरअसल, नाईट कफर््यू व लॉकडाउन का भय ही प्रवासी मजदूरों को फिर से पलायन करने के लिए मजबूर कर रहा है. नया कोरोनावायरस महामारी को बेहतर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर और मंत्रियों से लेकर आम नागरिक तक कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करने से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

लेकिन सरकारें लोगों के मूवमेंट पर पाबंदी लगाकर इसे रोकना चाहती हैं, जोकि संभव नहीं है जैसा कि पिछले साल के असफल अनुभव से जाहिर है. अतार्किक पाबंदियों से कोविड तो नियंत्रित होता नहीं है, उल्टे गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाते हैं, खासकर गरीब व मध्यवर्ग के लिए. लॉकडाउन के पाखंड तो प्रवासी मजदूरों के लिए जुल्म हैं, क्रूर हैं. कार्यस्थलों के बंद हो जाने से गरीब प्रवासी मजदूरों का शहरों में रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है, खासकर इसलिए कि उनकी आय के स्रोत बंद हो जाते हैं और जिन ढाबों पर वह भोजन करते हैं उनके बंद होने से वह दाल-रोटी के लिए भी तरसने लगते हैं.

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फसल बर्बाद करते आवारा जानवर

प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ का मेन किरदार हलकू नीलगायों द्वारा खेत को चर कर बरबाद कर देने के चलते खेतीकिसानी का काम छोड़ कर मजदूर बन जाने का फैसला ले लेता है. यही हालात एक बार फिर किसानों के सामने आ चुके हैं. दलहनी व तिलहनी फसलों की कौन कहे, अब तो गेहूं और धान के खेतों की भी बाड़बंदी करानी पड़ रही है.

अगर किसी किसान को एक एकड़ खेत की बाड़बंदी करानी पड़ती है, तो इस पर कम से कम 40,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत आ रही है.

राजस्थान के अकेले टोंक जिले में  80 फीसदी से ज्यादा ऐसे खेतों की बाड़बंदी की गई है, जिन में कोई फसल बोई गई है. इस से आम किसानों पर आई इस नई महामुसीबत का आप अंदाजा लगा सकते हैं, जो पिछले 8-10 सालों से किसानों पर आई हुई है.

जंगल महकमे के एक सर्वे के मुताबिक, अकेले टोंक जिले में 5,000 से ज्यादा नीलगाय हैं. इन्होंने तकरीबन 450 गांवों में किसानों को परेशान कर रखा है. इन में से भी 100 गांव ऐसे हैं, जहां नीलगाय हर साल सब से ज्यादा नुकसान करती हैं.

हर साल नीलगायों से रबी व खरीफ सीजन में सालाना 15 करोड़ रुपए के नुकसान का अंदाजा है. ये 6,000 हैक्टेयर इलाके में फसल प्रभावित करती हैं. हालांकि सालाना नुकसान और प्रभावित क्षेत्र को ले कर विभाग की ओर से कभी पूरी तरह से सर्वे नहीं हुआ है. किसान फसल को बचाने के लिए खेतों की तार की बाड़ और परदे लगाने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं, इस के बावजूद राहत नहीं मिल रही है.

माहिर रामराय चौधरी बताते हैं कि एक नीलगाय की औसत उम्र 7 साल होती है. अपनी तेज रफ्तार और कई फुट लंबी छलांग लगाने वाली नीलगाय आसानी से काबू में नहीं आती है. वहीं गांव वालों ने बताया कि खेतों में तारबंदी में करंट छोड़ने के बाद भी यह पशु अपनी पूंछ को तार पर फेर कर खतरा भांपने में सक्षम हैं.

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गांव तामडि़या में कई किसानों ने गेहूं, सौंफ, जीरा, सरसों व दूसरी फसल वाले खेतों में नीलगाय से बचाव के लिए चारों ओर सफेद रंग की पट्टी लगा रखी है. इस के बावजूद फसल का बचाव नहीं हो पाता है. किसानों को रातभर जागना पड़ता है.

किसान रामप्रसाद ने 2 बीघा खेत के चारों ओर तारबंदी कराई है. 6 फुट ऊंचाई तक की जालियां लगाई गई हैं. इस के बावजूद नीलगाय खेतों में घुस ही जाती हैं. तार लगे होने के बाद भी रामप्रसाद को रात में भी रखवाली करनी पड़ती है.

गौरतलब है कि कुछ साल पहले नीलगाय से फसल खराब होती थी तो कीमत लगा कर मुआवजा देने का नियम था. पर कुछ सालों में कोई रकम नहीं मिली है.

मंदसौर के रेवासदेवड़ा, सीतामऊ के ऐरा, मल्हारगढ़ के बूड़ा, टकराव, चिल्लौद पिपलिया, खड़पाल्या, गरोठ के बर्डियापूना, बर्डियाराठौर, बुगलिया, भालोट, साबाखेड़ा समेत कई गांवों के लोग नीलगाय से बहुत ज्यादा परेशान हैं.

गौभक्ति की देन

यह समस्या काफी हद तक वर्तमान शासकों की गौभक्ति की देन है, जिस के चलते गोवंश की खरीदफरोख्त पर सरकारी आदेश द्वारा रोक लगा दी गई है. पहले किसान परिवारों को अनुपयोगी हो गए गौवंश की बिक्री से कुछ आमदनी हो जाती थी, पर यह न हो पाने के चलते उसे अब अपने ही पशुओं के लिए चारापानी का इंतजाम करना भारी पड़ रहा है.

इस की एक वजह यह भी है कि गेहूं व धान की कटाई कंबाइन मशीनों से होने के चलते गेहूं व धान के फसल अवशेषों का ज्यादातर भाग बरबाद हो जाता है और जो बचता भी है, उसे किसान या तो जला देते हैं या फिर उसे रोटावेटर चलवा कर मिट्टी में मिलवा देते हैं. इस से जहां गेहूं व धान की फसल से खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर पशुओं के चारे की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है.

खेती के पूरी तरह से यंत्र आधारित हो जाने के चलते भी गौवंश अनुपयोगी हो गए हैं. पहले खेती की जुताई, बोआई, सिंचाई से ले कर मड़ाई व खाद्यान्न के परिवहन तक में बैलों का इस्तेमाल होता था. किसान परिवारों में गाय द्वारा बछड़े को जन्म दिए जाने को फायदेमंद माना जाता था, पर अब मामला पूरी तरह से उलट चुका है.

किसान परिवारों की गाय अगर बछिया को जन्म देती है, तब तो किसान दूध के लालच में उस का पालनपोषण करता है. अगर गाय बछड़े को जन्म देती है, तो जब तक गाय दूध देती है तब तक तो किसान उसे घर में रखते हैं, पर जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है, तो वे बछड़ों को खुला छोड़ देते हैं.

ऐसे ही बछड़े आगे चल कर आवारा पशुओं के ?ांड में शामिल हो कर किसानों की खेती को चरते हैं और फसल को तहसनहस कर रहे होते हैं.

किसान रामदेव गूजर बताते हैं, ‘‘मैं एक किसान हूं और खेती करता हूं. तकरीबन 15-20 साल पहले तक खेती मु?ो और मेरे परिवार को खिलाती थी, मगर आज खेती मु?ो और मेरे परिवार को खा रही है. मैं और मेरा परिवार खेती और पशुपालन के चलते कर्ज और फिर कर्ज के तले दबता जा रहा है, क्योंकि सरकार की नीतियां अब किसानों के खिलाफ बनती जा रही हैं.’’

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नीलगाय की प्रजाति

यह शोध का विषय है कि जिन नीलगायों की बातें हम अपनी पुरानी पीढ़ी से सुनते आए हैं और जिन के बारे में कथाकार प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ा है, वे नीलगाय (वनरोज) इतनी बड़ी संख्या में कहां से आ गई हैं? इन की आबादी इस कदर बढ़ गई है कि इन से खेती की हिफाजत कर पाना बेहद मुश्किल काम बन चुका है. बिना सरकारी इजाजत के इन्हें मारना भी जुर्म है. इस के लिए 4 पन्ने का एक लंबा शासनादेश जारी है.

यह जानवर वनरोज हिरन या बकरी की प्रजाति का है, जो आजकल खेती को खूब बरबाद कर रहा है. गांवदेहात की भाषा में इसे नीलगाय या जंगली गाय कहा जाता है.

पिछले तकरीबन 20 सालों से इन की तादाद बहुत ज्यादा बढ़ गई है. इन से खेती को बचाना मुश्किल हो गया है. दरअसल, यह जानवर ?ांड में रहता है और रात में अचानक धावा बोल कर फसलों को चरने के साथ ही उसे बरबाद कर देता है. दलहनी फसलों जैसे अरहर, उड़द, मूंग, व मटर वगैरह.

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सरकारी भाषा में इसे वनरोज कहा जाता है और इसे मारने के लिए एसडीएम से इजाजत लेने पड़ती है. मारने के बाद ग्राम प्रधान व कम से कम

5 लोगों के सामने इसे जमीन में गड्ढा खोद कर दफनाए जाने की व्यवस्था शासनादेश में दी गई है.

कोरोना: तंत्र मंत्र और हवन का ढोंग

सच तो यह है कि भारत भूमि की हवा कुछ ऐसी है कि यहां हर चीज में ढोंग शुरू हो जाता है. कोरोना कोविड 19 की दूसरी लहर के साथ राजधानी रायपुर में  हो रहा तंत्र मंत्र पूजन हवन यह बताता है कि जब राजधानी का यह हालो- हवाल है तो गांव कस्बे में कैसे अशिक्षा और अंधविश्वास की चपेट में लोगों को ठगा जा रहा है.

कोरोना कोविड-19 की हवा क्या चली अंधविश्वास की लहर दौड़ पड़ी है. जो बताती है कि किस तरह हमारे यहां आज भी अनपढ़ तो अनपढ़ पढ़े लिखे लोग भी तंत्र मंत्र हवन, पूजा के फंदे में फंसे हुए हैं.

दरअसल, अंधविश्वास के इस मनोविज्ञान को हम बहुत समझदारी और होशियारी से ही जान समझ सकते हैं. अन्यथा इनका संजाल कुछ ऐसा है कि कोई बच नहीं सकता.

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यही कारण है कि जब कोरोना कोविड-19 की दूसरी लहर उठी है तो मानो हवन पूजा तंत्र मंत्र करने वालों की दुकानदारी अपने सबाब पर  है. क्योंकि हमारे यहां शिक्षित वर्ग  भी अंधविश्वास के फेर में फंस  रूपए पैसे खूब लूटाता है. इसी का लाभ उठाते हुए गेरुआ वस्त्र धारी और काले वस्त्र धारी तंत्र और मंत्र की झूठी कहानियां गढ़ कर लोगों के जेब खाली कर रहे हैं.

विगत दिनों छत्तीसगढ़ के रायपुर में संपूर्ण विश्व से कोरोना महामारी का नाश करने के लिए एक बड़े धार्मिक संगठन परिवार के सदस्यों ने  अपने-अपने घर में यज्ञ करके आहुति दी.महामृत्युजंय मंत्र और सूर्य मंत्र के उच्चारण से आहुति देकर सभी जाति, धर्म, पंथ के लोगों के लिए प्रार्थना की. पीले कपड़े पहनने वाला यह धार्मिक परिवार कहता है कि विश्वव्यापी हवन, यज्ञ अभियान के तहत छत्तीसगढ़ के 30 हजार से अधिक परिवारों में हवन का आयोजन किया गया. अंधविश्वास यह की इसके परिणाम स्वरूप कोरोना कोविड-19 काबू में आ जाएगा. कुल मिलाकर  कोरोना काबू में आए या ना आए मगर धार्मिक दुकान चलाने वालों का धंधा आज भी बड़ा चोखा चल रहा है.

मंत्र तंत्र का चोखा धंधा

केंद्र सरकार, राज्य सरकार और प्रशासनिक अमला कोरोना संक्रमण से लड़ने की बहुतेरी कोशिशें कर रही हैं. फिर भी  दोबारा कोरोना वायरस बड़ी तेजी से फैल रहा है. इसलिए अब धार्मिक गतिविधियां की भी मानो बाढ़ आ गई है . पंडे पुजारी कहते है कि  हमारे मंत्र हवन से प्रदेशवासियों को कोरोना से राहत मिलेगी.

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स्वामी राघेश्वरा नंद के मुताबिक कोरोना के लिए हम लगातार हवन कर रहे है. पुराणों के अनुसार भी किसी गंभीर बीमारी में जाप करना लाभदायक  है. इसलिए हमने तय किया कि जाप किया जाए. जाप में महामृत्युंजय मंत्र, मूल रामायण का पाठ, बगलामुखी का मंत्र और नवग्रहों के मंत्र का जाप किया जा रहा है.

उन्होंने बताया कि भगवान शिव के मंत्रों का उच्चारण कर हवन किया जाता है. 9 पंडितों ने मिलकर प्रतिदिन 11 हजार जाप करने का लक्ष्य रखा है. इस जप का समापन रामनवमी के दिन किया जाएगा. इससे पहले भी रायपुर में कोरोना भगाने के लिए हवन और पूजा अर्चना किया जा चुका है.

छत्तीसगढ़ में यह रिपोर्ट लिखते वक्त कोरोना के 5 हजार 250 नए कोरोना पॉजिटिव मरीज़ सामने आए हैं. इस संक्रमण से 32 लोगों की मौत हुई है. हालांकि 2 हजार 918 मरीज़ स्वस्थ होने के बाद डिस्चार्ज किए गए हैं. रायपुर में 1 हजार 213 कोरोना मरीज मिले थे और 14 लोगों की जान गई है.  दरअसल,कुछ लोगों  को अपने धंधे से मतलब है और यह धंधा ऐसा है जो पुरातन काल से चला रहा है और हमारे यहां वोटों की राजनीति के कारण कोई इन पर अंकुश लगाने वाला भी नहीं है. ऐसे में आज जबकि सारी दुनिया कोरोना से त्रस्त है कथित  साधु संत को मौका मिल गया है जमकर रुपए बनाने का.

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मौत के बाद, सबसे बड़ा अंधविश्वास!

आज भी “मौत” के बाद अंधविश्वास से घिरे लोग चाहते हैं कि हमारे परिजन पुन: जिंदा हो जाएं. इसके लिए अनेक तरह का अंधा प्रयास किया जाता हैं. जोकि सीधे-सीधे अंधश्रद्धा में तब्दील हो जाता है.

इससे आज की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था, जागरूकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है. छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर के निकट ऐसी ही घटना घटी. जिसमें एक युवक की मौत के बाद घंटों उसके जीवित होने का अंधा प्रयास किया गया और निरंतर प्रार्थना चलती रही लोगों की समझाइश भी काम नहीं आई और यह प्रयास का ढोंग दूर-दूर तक चर्चा का सबब बन गया.

और एक दफा पुनः साबित हो गया कि अंधविश्वास और ढोंग में, हमारा समाज किस तरह अभी भी पूरी तरह शिकंजे में है.

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अंधविश्वास के साये में..

ऐसी ही कुछ घटनाएं हाल ही में छत्तीसगढ़ में घटित हुई हैं. जो चर्चा का मुद्दा बनी हुई है.

दरअसल, ऐसी घटनाएं कभी-कभी हमारे आसपास घटित होती हैं और लोगों का अंधविश्वास सर चढ़कर बोलने लगता है. मगर देखते ही देखते सच्चाई जब सामने आती है तो “सच “स्वीकार करना ही पड़ता है.

छत्तीसगढ़ की न्यायधानी कहे जाने वाले बिलासपुर से 30 किलोमीटर दूर स्थित तखतपुर शहर में मनियारी नदी में डूब एक युवक की मौत हो गई. उसके शव को पोस्टमार्टम के लिए स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाया गया वहां परिजन पहुंच गए और घंटो ” प्रार्थना” और दूसरे तरीके से युवक को फिर जीवित करने की कोशिश की जाने लगी.चिकित्सक और स्टाफ उन्हें समझाता रहा कि युवक की मौत हो चुकी है.

मगर परिजन उसे मानने को तैयार नहीं थे और लगातार कर्मकांड आदि करते रहे. बहुत समय बाद परिवार यह मानने को तैयार हुआ कि युवक की मौत हो चुकी है. प्रशासन के अधिकारियों को इसके लिए आकर कड़े शब्दों में समझाइश देनी पड़ी.

स्थानीय एक पुलिस अधिकारी ने हमारे संवाददाता को बताया कि दरअसल जैकब हंस अपने दो दोस्तों के साथ पंजाब राज्य के जालंधर से अपने श्वसुर की अंत्येष्टि में शामिल होने तखतपुर आया था. घटना दिनांक को दोपहर वह अपने रिश्तेदारों के साथ नहाने के लिए मनियारी नदी के एनीकट में गया. यहां तैरना आता है कहकर गहरे पानी में चला लगा. उसे समझाया गया, मना किया गया, लेकिन जैकब नदी में आगे निकलता चला गया.

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आगे पानी के भंवर में उसकी सांस फूल गई और वह डूबने लगा. उसके फेफड़ों में पानी प्रवेश कर गया . किनारे पहुचाते उसकी मौत हो गई. पुलिस को सूचना दी गई और शव को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया.वहां डाक्टरों ने जैकब हंस को मृत घोषित कर दिया. इसके बाद शुरू हुआ परिचितों द्वारा उसे जिंदा करने का अभियान जो पूरी तरह से ढोंग सिद्ध हुआ.

युवक की मृत्यु की खबर सुनकर परिजन अस्पताल पहुंचते रहे और सभी ने जैकब को मृत मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद परिजन, उसके कुछ दोस्त विभिन्न प्रकार के प्रयास और प्रयोग करते रहे. शव के सीने को दबाकर उसके जीवित होने की बात कहते रहे . इस दौरान कई बार डाक्टरों और पुलिस ने परिजनों को समझाया, लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं हुए. बाद में प्रशासनिक कड़ाई बरतने के पश्चात परिजनों को सद्बुद्धि आई और उन्होंने माना कि अब कुछ नहीं हो सकता.

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छत्तीसगढ़ः नक्सलियों का क्रूर चेहरा

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद एक नासूर बन चुका है. लगभग 50 वर्षों से नक्सलवाद की घटनाएं कुछ इस तरह घट रही हैं, नक्सलवादी कुछ इस तरह पैदा हो रहे हैं मानो छत्तीसगढ़ में कानून और शासन नाम की चीज ही नहीं है. अगर कानून और सरकार अपना काम ईमानदारी से कर रहे होते तो क्या नक्सलवाद सर उठा कर छत्तीसगढ़ में अपने क्रूर तेवर दिखा पाता? शायद कभी नहीं.

यही कारण है कि अविभाजित मध्यप्रदेश हो अथवा सन 2000 में बना छत्तीसगढ़. यहां नक्सलवाद अपने उफान पर रहा है, कोई भी सरकार आई और चली गई, नेता, मंत्री आए और चले जाते हैं मगर नक्सलवाद एक ऐसी त्रासदी बन चुकी है जो छत्तीसगढ़ की रग रग में समाई हुई है.

नित्य प्रतिदिन नक्सलवादी घटनाएं छत्तीसगढ़ के बस्तर में घटित हो रही हैं, आए दिन मुठभेड़ हो रही है जनहानि धन हानि नित्य जारी है. मगर नक्सलवाद के खात्मे की कोई बात नहीं हो रही है. लाख टके का सवाल यह है कि जब सरकार के पास इतने वृहद संसाधन हैं इसके बावजूद नक्सलवाद समाप्त क्यों नहीं हो रहा.

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सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जिस कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को खोया हो जिनमें विद्याचरण शुक्ल पूर्व केंद्रीय मंत्री, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, बस्तर टाइगर के नाम से विख्यात महेंद्र कर्मा थे. इसके बावजूद कांग्रेस सत्ता में आने के बावजूद अखिर नक्सलवाद को खत्म क्यों नहीं कर पा रही है.

जवानों की जान जा रही है!

छत्तीसगढ़ में नक्सली और जवानों की मुठभेड़ जारी है. जैसा कि हमेशा होता है कभी नक्सली मारे जाते हैं तो कभी हमारे जवान शहीद हो रहे हैं. मगर चिंता का सबब यह है कि हमारे जवानों की जान ज्यादा जा रही है.

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले में 23 मार्च नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर सुरक्षा बलों के एक बस को उड़ा दिया. इस घटना में चार जवान शहीद हो गए हैं जबकि 14 जवान घायल हुए हैं.

बस्तर क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी ने हमारे संवाददाता को बताया नारायणपुर जिले के धौड़ाई थाना क्षेत्र के अंतर्गत कन्हरगांव—कड़ेनार मार्ग पर नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर सुरक्षा बलों के बस को उड़ा है. घटना में वाहन चालक समेत चार जवान शहीद हो गए हैं तथा 14 अन्य जवान घायल हो गए हैं.

सुंदरराज ने बताया, -‘‘डीआरजी के जवान नक्सल विरोधी अभियान में रवाना हुए थे.अभियान के बाद जवान एक बस में से नारायणपुर जिला मुख्यालय वापस लौट रहे थे. रास्ते में कन्हरगांव—कड़ेनार मार्ग नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर दिया. घटना में चार जवान शहीद हो गए तथा 14 अन्य जवान घायल हो गए.’’

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पुलिस अधिकारी के मुताबिक घटना की जानकारी मिलने के बाद अतिरिक्त सुरक्षा बल को घटनास्थल के लिए रवाना किया गया तथा घायलों को वहां से निकाला गया। घायलों को बेहतर इलाज के लिए हेलीकॉप्टर से रायपुर भेजा जा रहा है उल्लेखनीय है कि बीते एक वर्ष के दौरान नक्सलियों ने डीआरजी के जवानों पर दूसरा बड़ा हमला किया है. इससे पहले 21 मार्च 2020 को नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमला कर दिया था. इस हमले में डीआरजी के 12 जवानों समेत 17 जवान शहीद हो गए थे.

राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र के जिलों में डीआरजी के जवान तैनात हैं. खास बात यह है कि डीआरजी के जवान स्थानीय युवक हैं और क्षेत्र के कोने-कोने से परिचित रहते हैं. मगर इसके बावजूद मुठभेड़ में जनहानि जारी आहे .

क्या नक्सलवाद का खात्मा हो पाएगा?

छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने नक्सलवाद में संभवत अपने सबसे बड़े नेताओं की हत्या देखी है. झीरम घाटी हत्याकांड भारतीय इतिहास में नक्सलवाद की भूमिका को लेकर एक “काला धब्बा” बन चुका है. जिसे शायद कभी नहीं भुलाया जा सकता.इस परिपेक्ष में कांग्रेस पार्टी की सरकार जब छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ हुई तो यह माना जा रहा था कि अब नक्सलियों का अंत समय आ गया है. क्योंकि जिस पार्टी ने अपने दर्जनों बड़े नेता नक्सलवाद की भेंट चढ़ा दिए जिन्हें क्रुर तरीके से नक्सलियों में मार डाला हो, ऐसी पार्टी सत्ता में आने के बाद नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने को विवश कर देगी.

ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि अब नक्सलियों का सफाया हो सकता है. मगर समय बीतता चला गया.आज लगभग कांग्रेस पार्टी का आधा कार्यकाल भी बीत चुका है मगर कहीं से भी नक्सलियों का अंत दिखाई नहीं देता. ऐसे में सवाल यही है कि क्या कांग्रेस पार्टी नक्सलियों को, उनके उन्मूलन को गंभीरता से नहीं ले रही है. क्या नक्सलवाद छत्तीसगढ़ की पहचान बनकर ही रह जाएगा. क्या इसी तरह मुठभेड़ में जनहानि होती रहेगी. प्रदेश और देश का हित इसी में है कि जितनी जल्द हो सके नक्सलवाद का खात्मा हो.

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दूसरी तरफ 23 मार्च को जब नारायणपुर जिला में जवान मारे गए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल असम में चुनाव प्रचार में व्यस्त थे. उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हमेशा की तरह एक दुखद घटना बताकर इतिश्री कर ली .

सुपरकॉप स्पेशल: जांबाज आशुतोष पांडेय

अगर पुलिस फोर्स में आशुतोष पांडेय जैसे दिलेर, ईमानदार और होश में रह कर काम करने वाले अधिकारी हों तो अपराधियों को सबक सिखाना मुश्किल नहीं है. अपने दम पर ही आशुतोष सुपरकौप बने. उन्होंने ऐसेऐसे कारनामे किए कि…

आशुतोष पांडेय साल 2012 में जब लखनऊ के डीआईजी, एसएसपी बने थे तब उन्होंने पुलिसकर्मियों को मुखबिर तंत्र इस्तेमाल करने का सब से अच्छा तरीका सिखाया था. मोबाइल नंबर पर शिकायत दर्ज कराने का हाइटेक सिस्टम भी उन्होंने ही लौंच किया था.

आशुतोष सादी वर्दी में घूमते थे और शहर में खोखा लगा कर पानबीड़ी बेचने वाले पनवाड़ी से ले कर रेहड़ी पटरी लगाने वालों, फल व चाय वालों से मिल कर इस निर्देश के साथ उन्हें अपना मोबाइल नंबर लिखा विजिटिंग कार्ड थमा देते थे कि कहीं कोई गड़बड़ दिखे तो उन्हें सीधे फोन करें.

बस कुछ ही दिनों में आशुतोष पांडेय के ऐसे हजारों मुखबिरों का नेटवर्क तैयार हो गया. परिणाम यह हुआ कि थानेदार की लोकेशन पता करने के लिए वह संबंधित थाना क्षेत्र के किसी भी पानवाले को फोन कर लेते थे. इस से कई सचझूठ सामने आ जाते थे.

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2016 में जब आशुतोष पांडेय कानपुर जोन के आईजी थे तो उन्होंने कानपुर पुलिस की छवि सुधारने के लिए भी सोशल मीडिया को माध्यम बना कर जनता के लिए एक फोन नंबर जारी किया, जिसे एक नंबर भरोसे का नाम दिया गया. यह नंबर खूब चर्चित हुआ और लोग आईजी आशुतोष पांडेय से सीधे जुड़ने लगे.

कानपुर आईजी के पद पर रहते हुए पांडेय ने हर वारदात को हर पहलू से समझने के लिए कानपुर के एक थाने में तैनात एसओ सहित वहां के सभी दरोगाओं की कार्यशैली देखने के लिए उन की बैठक ली. वहां पीडि़तों को भी बुलाया गया था. थानेदारों और पीडि़तों से आमनेसामने बात की गई तो पता चला कई थानेदारों ने जांच के नाम पर लीपापोती की थी. कई ने तो पीडि़तों को भटकाने की कोशिश की थी. कई ऐसे भी थे जिन की जांच सही दिशा में जा रही थी.

यह सब देख कर उन्होंने एफआईआर दर्ज करने से ले कर विवेचना तक में दरोगा और थानेदारों के खेल पर शिकंजा कसने के आदेश दिए. दरअसल पुलिस विभाग में किसी अधिकारी की संवेदनशीलता उस की कार्यशैली को दर्शाती है. फिलहाल आशुतोष पांडेय उत्तर प्रदेश पुलिस के अपर महानिदेशक अभियोजन महानिदेशालय हैं.

हर कार्य दिवस की सुबह ठीक 10 बजे से अपने कक्ष में लगे कंप्यूटर के एक खास आइसीजेएस पोर्टल पर विभाग के प्रौसीक्यूटर्स की निगरानी में जुट जाते हैं. इस से गुमनामी में रहने वाला यूपी पुलिस का अभियोजन विभाग यूपी को देश में ई प्रौसीक्यूशन पोर्टल का उपयोग करने के लिए पहले नंबर पर आ खड़ा हुआ है.

बिहार के भोजपुर जिले में आरा के रहने वाले शिवानंद पांडेय के बड़े बेटे आशुतोष को बतौर सुपर कौप के रूप में पहचान दिलाई मुजफ्फरनगर जिले ने, जहां वे ढाई साल तक एसएसपी के पद पर तैनात रहे.

1998 में आशुतोष पांडेय की मुजफ्फरनगर जिले में एसएसपी के रूप में पहली नियुक्ति हुई. इस से पहले यहां केवल एसपी का पद था. दरअसल, प्रदेश सरकार ने आशुतोष पांडेय की मेहनत, लगन, ईमानदारी और कुछ नया करने की ललक को देखते हुए उन्हें एक खास मकसद से मुजफ्फरनगर में एसएसपी का पद सृजित कर भेजा था. साथ ही अपराधग्रस्त मुजफ्फरनगर से अपराध खत्म करने के लिए कुछ विशेष अधिकार भी दिए थे.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जिला मुजफ्फरनगर किसान बहुल और जाट बहुल है. यहां की शहरी और ग्रामीण जितनी आबादी जाटों की है, कमोबेश उतनी ही आबादी मुसलिमों की भी है.

1990 से 2000 के दशक की बात करें तो मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में अपराध में अव्वल था. अपहरण, फिरौती और हत्याओं में सब से आगे. ज्यादातर पुलिस वाले बड़े अपराधियों और रसूखदार लोगों की जीहुजूरी करते थे. कोई भी पुलिस कप्तान जिले में 6 महीने से ज्यादा नहीं टिक पाता था.

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12 दिसंबर, 1998 को जब आशुतोष ने बतौर एसएसपी मुजफ्फरनगर में जौइंन किया उसी दिन बदमाशों ने पैट्रोल पंप की एक बड़ी लूट, एक राहजनी और एक व्यक्ति का अपहरण किया.

अभी 2-3 दिन ही बीते थे कि मुजफ्फरनगर के थाना गंगोह के रहने वाले कुख्यात बदमाश बलकार सिंह ने सहारनपुर के एक बड़े उद्योगपति के 8 वर्षीय बेटे का अपहरण कर लिया और उस की धरपकड़ और बच्चे की बरामदगी की जिम्मेदारी आशुतोष पांडेय पर आई.

आशुतोष खुद अपराधी बलकार सिंह के गांव पहुंचे. उन्होंने उस के करीबी लोगों को पकड़ कर पूछताछ की, लेकिन किसी ने मुंह नहीं खोला.

इसी दौरान अपहृत बच्चे के परिजनों ने बिचौलियों के माध्यम से अपहर्त्ताओं से बातचीत की और फिरौती की रकम ले कर एक व्यक्ति को बच्चे को छुड़ाने के लिए बलकार गिरोह के पास भेज दिया.

बलकार गिरोह ने फिरौती की रकम भी ले ली और बच्चे को भी नहीं छोड़ा. साथ ही फिरौती ले कर गए बच्चे के रिश्तेदार को भी बंधक बना लिया. अब उन्होंने बच्चे के साथ रिश्तेदार को छोड़ने के लिए भी फिरौती की रकम मांगनी शुरू कर दी.

इस वारदात के बाद मुजफ्फरनगर और सहारनपुर की पुलिस ने गन्ने के खेतों, जंगलों, गांवों की खूब कौंबिंग की, लेकिन सब बेनतीजा. अपहृत के परिजनों ने इस बार ठोस माध्यम तलाश कर बच्चे और अपने रिश्तेदार को फिरौती की रकम दे कर छुड़ा लिया. इस से पूरे प्रदेश में दोनों जिलों की पुलिस की बहुत किरकिरी हुई.

काफी माथापच्ची के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में आया कि गन्ना इस इलाके में सिर्फ किसानों की ही नहीं, अपराध और अपराधियों के लिए भी रीढ़ का काम करता है.

मुजफ्फरनगर में 90 फीसदी से ज्यादा जमीन पर गन्ने की खेती होती है. इसी खेती से यहां का किसान, आढ़ती और व्यापारी सब समृद्ध हैं. हर गांव में 100-50 ट्रैक्टर और ट्यूबवैल हैं.

समृद्धि हमेशा अपराध को जन्म देती है. मुजफ्फरनगर इलाके में अपराधी पैदा होते हैं मूछों की लड़ाई और इलाके में अपनी हनक पैदा करने के कारण. लेकिन बाद में अपराध के जरिए पैसा कमा कर खुद को जिंदा रखना उन की मजबूरी बन जाता है.

इसी के चलते मुजफ्फरनगर में हर अपराधी और उस के गैंग ने बड़े किसानों, आढ़तियों और उद्योगपतियों को निशाना बना कर उन का अपहरण करने और बदले में फिरौती वसूलने का धंधा शुरू किया.

अपहर्त्ता कईकई दिन तक अपने शिकार को गन्ने के खेतों में छिपा कर रखते और इन खेतों व ट्यूबवैलों के मालिक किसान परिवार उन्हें खाने से ले कर दूसरी तरह का प्रश्रय देते.

उन दिनों मोबाइल फोन न के बराबर प्रचलन में थे. दूसरे इलेक्ट्रौनिक माध्यम भी नहीं थे, जिन के जरिए अपराधी अपहृत के परिजनों से संपर्क करते.

अपराधियों का एकमात्र माध्यम या तो लैंडलाइन फोन थे या फिर हाथ से लिखे पत्र, जिन्हें अपने शिकार के परिजनों तक पहुंचा कर वह फिरौती की मांग करते थे.

मुजफ्फरनगर के सामाजिक तानेबाने का अध्ययन करने के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में यह बात भी आ गई कि इस इलाके में पंचायत व्यवस्था काफी मजबूत है. पंचायतों का असर इतना गहरा है कि जो मामले अदालतों तक जाने चाहिए, उन्हें पंचायत की मोहर लगा कर सुलझा दिया जाता था.

आशुतोष पांडेय ने ठान लिया कि वे मुजफ्फरनगर से असफल कप्तान का ठप्पा लगवा कर नहीं जाएंगे, बल्कि पंचायत और प्रभावशाली लोगों में पैठ बना कर बैठे अपराधियों का नेटवर्क तोड़ कर जाएंगे.

अपराध और अपराधियों की मनोवृत्ति तथा सामाजिक तानेबाने का विश्लेषण कर के आशुतोष पांडेय ने नए सिरे से जिला पुलिस के पुनर्गठन की शुरुआत की.

उन्होंने ऐसे पुलिसकर्मियों का पता लगाया, जिन का आचरण संदिग्ध था, मूलरूप से इसी इलाके के रहने वाले थे और जिन की अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से घनिष्ठता थी. जो गोपनीय सूचनाओं को लीक करते थे.

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उन्होंने सब से पहले सिपाही से ले कर दरोगा स्तर के ऐसे ही पुलिस वालों की सूची तैयार की. इस के बाद उन्होंने ऐसे पुलिस वालों को या तो जिले से बाहर ट्रांसफर कर दिया या फिर उन की नियुक्ति गैरजरूरी पदों पर कर दी.

फिर आशुतोष पांडेय ने ऐसे पुलिसकर्मियों को चिह्नित करना शुरू किया जो न सिर्फ ड्यूटी के प्रति समर्पित थे बल्कि उन में बहादुरी का जज्बा और कुछ कर गुजरने की ललक थी.

सभी थाना स्तरों पर ऐसे पुलिसकर्मियों का एक स्पैशल स्क्वायड तैयार कराया. सभी थाना प्रभारियों से कहा गया कि वे इस स्क्वायड के पुलिसकर्मियों से नियमित काम न करवा कर उन्हें अपराधियों की सुरागरसी और स्पैशल टास्क पर लगाएं.  आशुतोष पांडेय ने राज्य सरकार से संपर्क कर उन्हें जिला पुलिस की जरूरतों से अवगत कराया.

राज्य सरकार ने जिला पुलिस को 26 मोटरसाइकिल, मोटोरोला के शक्तिशाली वायरलैस सैट और कुछ मोबाइल फोन उपलब्ध करा दिए. संसाधन मिलने के बाद आशुतोष ने अलगअलग कई और दस्तों का गठन किया. इन दस्तों को लेपर्ड दस्तों का नाम दिया गया.

अपराध के खिलाफ अपनी व्यूह रचना को अंजाम देने से पहले आशुतोष पांडेय मुजफ्फरनगर की जनता, कारोबारियों और उस तबके को विश्वास में लेना चाहते थे, जिन का मकसद शहर में अमनचैन कायम रखना था. उन्होंने समाज के इन सभी तबकों के जिम्मेदार लोगों से मिलनाजुलना शुरू किया.

उन्होंने इन सब लोगों को भरोसा दिलाया कि वह मुजफ्फरनगर में कानूनव्यवस्था कायम करने आए हैं. लेकिन यह काम उन के सहयोग के बिना नहीं हो सकता. उन्होंने तमाम लोगों को अपना मोबाइल फोन नंबर दे कर कहा कि कोई आपराधिक सूचना हो या कोई भी निजी परेशानी हो तो वे 24 घंटे में कभी भी निस्संकोच उन्हें फोन कर सकते हैं. वह सूचना मिलते ही काररवाई करेंगे.

अचानक पुलिस कप्तान के इस वादे पर भरोसा करना लोगों के लिए मुश्किल तो था. लेकिन आशुतोष पांडेय ने हार नहीं मानी, वह लगातार प्रयास करते रहे. आखिरकार उन के प्रयास रंग लाने लगे.

समाज और कानून व्यवस्था से सरोकार रखने वाले लोग आशुतोष पांडेय को फोन करने लगे. अपराधियों के बारे में सूचना देने लगे. यह जो नया सूचना तंत्र विकसित हो रहा था, उस में शहर के अमन पसंद लोग जिम्मेदारी उठा रहे थे.

आशुतोष पांडेय ने अपने सिटिजन सूचना तंत्र से मिली जानकारी लेपर्ड दस्तों को दे कर उन्हें दौड़ानाभगाना शुरू किया तो जल्द ही नतीजे भी सामने आने लगे. रंगदारी, अपहरण, लूट और डकैती करने वाले गिरोह पुलिस के चंगुल में फंसने शुरू हो गए.

मुजफ्फरनगर में जनवरी, 1999 से शुरू हुए पुलिस के औपरेशन क्लीन की सब से बड़ी खूबी यह थी कि आशुतोष पांडेय के हर मिशन की व्यूह रचना भी उन्हीं की होती थी और संचार तंत्र भी उन्हीं का होता था. पांडेय ने जो लेपर्ड दस्ते तैयार किए थे, बस उस सूचना के आधार पर उन का काम अपराधियों को दबोचने भर का होता था.

शक्तिशाली वायरलैस सैट और मोबाइल फोन से लैस 26 मोटरसाइकिलों पर सवार इन हथियारबंद लेपर्ड दस्तों ने मुजफ्फरनगर के चप्पेचप्पे तक अपनी पहुंच बना ली थी.

इन दस्तों में ज्यादातर लोग सादी वर्दी में होते थे, जो खामोशी के साथ किसी नुक्कड़ पर व्यस्त बाजार में, बस अड्डे पर, स्टेशन पर या चाय पान की दुकान पर साधारण वेशभूषा में आम आदमी की तरह मौजूद रहते थे.

साल 1999 की शुरुआत होतेहोते आशुतोष पांडेय का सूचना तंत्र इतना विकसित हो गया कि अचानक कोई वारदात होती, तत्काल उस की सूचना कप्तान आशुतोष के पास आ जाती. वह इलाके के लेपर्ड दस्ते और स्थानीय पुलिस को सूचना दे कर औपरेशन क्लीन के लिए भेजते. इस के बाद या तो मुठभेड़ होती, जिस में बदमाश मारे जाते या फिर बदमाश पुलिस की गिरफ्त में आ जाते.

पांडेय ने जिस मिशन की शुरुआत की थी, उस की सफलताओं का आगाज हो चुका था. एक के बाद एक गैंगस्टर और गैंग पकड़े जाने लगे. लगातार मुठभेड़ होने लगीं, जिन में कुख्यात अपराधी मारे जाने लगे.

अपराध और अपराधियों से त्रस्त आ चुकी मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा कायम होने लगा सूचना का जो तंत्र विकसित हुआ था, वह और तेजी से काम करने लगा.

नतीजा यह निकला कि 16 फरवरी, 1999 को जब आशुतोष पांडेय का मुजफ्फरनगर प्रभार संभाले हुए 66वां दिन था तो अचानक उन्हें भौंरा कला के एक किसान ने फोन पर सूचना दी कि कुख्यात अंतरराजीय अपराधी रविंदर उर्फ चीता भौंरा कलां में अमरपाल किसान के ट्यूबवैल में छिपा है.

आशुतोष पांडेय ने पीएसी और स्थानीय पुलिस के साथ मिल कर खुद उस इलाके की घेराबंदी की. दोनों तरफ से मुठभेड़ शुरू हो गई. मुठभेड़ करीब 5 घंटे तक चली. आसपास के हजारों लोगों ने दिनदहाड़े हुई वह मुठभेड़ देखी और आखिरकार जिले का टौप 10 बदमाश रविंदर मारा गया.

बैंक डकैती से ले कर अपहरण की वारदातों में वांछित इस बदमाश के मारे जाते ही इलाके में आशुतोष पांडेय जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे.

आशुतोष पांडेय ऐसे नहीं थे, जिन पर अपनी जयकार का नशा चढ़ता. मुजफ्फरनगर जिले को अपराधमुक्त करना चाहते थे. रविंदर उर्फ चीता को ठिकाने लगाते ही वह इलाके से निकल लिए, क्योंकि एक और खबर उन का इंतजार कर रही थी.

पांडेय को उन के सिटिजन सूचना तंत्र से जानकारी मिली थी कि बाबू नाम का एक बदमाश जिस पर करीब 1 लाख  का ईनाम है, सिविल लाइन में किसी व्यापारी से रंगदारी वसूलने के लिए आने वाला है.

आशुतोष पांडेय सीधे सिविल लाइन पहुंचे, यहां नई टीम को बुलाया गया. फिर पुलिस टीम को एकत्र कर के बताया कि सूचना क्या है और उस पर क्या ऐक्शन लेना है.

सूचना सही थी. बताए गए समय और जगह पर कुख्यात अपराधी बाबू पहुंचा. पुलिस ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और आत्मसमर्पण की चेतावनी दी. लिहाजा क्रौस फायरिंग शुरू हो गई. करीब 1 घंटे तक गोलीबारी हुई. घेरा तोड़ कर भागे बाबू को भी आखिरकार पुलिस ने धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब एक ही दिन में पुलिस ने एक साथ 2 बड़े अपराधियों का एनकाउंटर कर उन्हें धराशाई कर दिया था.

इस एनकाउंटर के बाद मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा वापस लौट आया. लोगों को लगने लगा कि आशुतोष पांडेय के रहते या तो बदमाश दिखाई नहीं देंगे. अगर दिखे तो उन के सिर्फ दो अंजाम होंगे या तो वे श्मशान में होंगे या सलाखों के पीछे.

आशुतोष पांडेय पर जिम्मेदारियां बहुत बड़ी थीं. क्योंकि यह सिर्फ शुरुआत थी इसे अंजाम तक पहुंचाना बेहद मुश्किल काम था. पांडेय सुबह 10 बजे तक अपने दफ्तर पहुंच जाते थे, जहां जनता से मुलाकात करते, शिकायतें सुनते.

उस के बाद कोई सूचना मिलने पर उन का काफिला अनजान मंजिल की तरफ निकल पड़ता. वे किसी गांव में किसानों के बीच बैठक लगाते या व्यापारियों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए बैठक करते.

आशुतोष पांडेय कईकई दिन तक अपनी पत्नी और दोनों बच्चों से नहीं मिल पाते थे. घर जाने की फुरसत नहीं होती थी इसलिए गाड़ी में ही हर वक्त 1-2 जोड़ी कपड़े रखते थे.

गाड़ी में हमेशा पानी की बोतलें, भुने हुए चने और गुड़ मौजूद रहता था. जरूरत पड़ने पर गुड़ और चने खा कर ऊपर से पानी पी लेते थे. थकान हो जाती थी तो गाड़ी में बैठ कर ही कुछ देर झपकी मार लेते थे.

आशुतोष पांडेय अकेले ऐसा नहीं करते थे. जिले के हर पुलिस कर्मचारी के लिए उन्होंने शहर के अपराधमुक्त होने तक ऐसी ही दिनचर्या अपनाने का वादा ले रखा था.

रविंदर उर्फ चीता और बाबू के एनकाउंटर के बाद आशुतोष पांडेय ही नहीं, पूरे जिले की पुलिस के हौसले बुलंदी पर थे. आईजी जोन से ले कर लखनऊ में उच्चस्तरीय अधिकारियों में भी आशुतोष पांडेय के काम की सराहना हो रही थी.

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लेकिन आशुतोष इतने भर से संतुष्ट नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अगस्त, 1999 में मंसूरपुर इलाके में ईनामी बदमाश नरेंद्र औफ गंजा को मुठभेड़ में मार गिराया. चंद रोज बाद ही बड़ी रकम के इनामी बदमाश इतवारी को सिविल लाइन इलाके में ढेर कर दिया गया. 8 नवंबर, 1999 को उन्होंने खतौली के कुख्यात अपराधी सुरेंद्र को मुठभेड़ में धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर में जिस तरह से एक के बाद एक ताबड़तोड़ एनकाउंटर हो रहे थे, सक्रिय अपराधियों को सलाखों के पीछे भेजा जा रहा था. उस ने अपराधियों के बीच आशुतोष पांडेय के नाम का खौफ भर दिया था. उन्हें बड़ी कामयाबी तब मिली जब 27 अगस्त, 2000 को एक सूचना के आधार पर उन्होंने शामली के जंगलों में खड़े एक ट्रक को अपने कब्जे में लिया.

इस ट्रक में सवार 2 लोगों ने पुलिस पर फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस की तरफ से भी फायरिंग शुरू हो गई. फलस्वरूप दोनों बदमाश मारे गए. बाद में जिन की पहचान पंजाब के सुखबीर शेरी ओर दिल्ली के नरेंद्र नांगल के रूप में हुई.

पता चला कि ये दोनों आतंकवादी थे और दिल्ली में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान विस्फोट करना चाहते थे. ये दोनों 5 लोगों की हत्या में वांछित थे. जिस ट्रक में दोनों बैठे थे उसे उन्होंने सहारनपुर से लूटा था और ट्रक में 50 लाख  रुपए की सिगरेट भरी थी. पुलिस को उन के कब्जे से हथियार व गोलाबारूद भी मिला.

आशुतोष पांडेय द्वारा छेड़े गए मिशन के तहत बदमाश पकड़े भी जा रहे थे और मारे भी जा रहे थे. लेकिन पांडेय जानते थे कि मुजफ्फरनगर इलाके में अपराध की मूल जड़ गन्ना है. क्योंकि गन्ना बढ़ने के साथ उस की बिक्री से किसानों व क्रेशर मालिकों के पास पैसा आने लगता है.

बदमाश उसी पैसे को लूटने या फिरौती में लेने के लिए अपहरण की वारदातों को अंजाम देते हैं. कुल मिला कर इलाके के अपराधियों के लिए गन्ने की फसल मुनाफे का धंधा बन गई थी. आशुतोष पांडेय चाहते थे कि किसी भी तरह मुनाफे के इस धंधे को घाटे में बदल दिया जाए.

आशुतोष ने अब अपना सारा ध्यान अपहरण करने वाले गिरोह और बदमाशों पर केंद्रित कर दिया. उन्होंने पिछले 2-3 सालों में हुए अपहरणों की पुरानी वारदातों की 1-1 पुरानी फाइल को देखना शुरू किया.

अपहरण के इन मामलों में जो भी लोग संदिग्ध थे, जिन लोगों ने अपहर्त्ताओं को पनाह दी थी अथवा बिचौलिए का काम किया था, उन्होंने ऐसे तमाम लोगों की धरपकड़ शुरू करवा दी. रोज ऐसे 30-40 लोग पकड़े जाने लगे.

इस से अपराधियों के शरणदाता अचानक बदमाशों से कन्नी काटने लगे. जिस का नतीजा यह निकला कि मुजफ्फरनगर में अचानक साल 2000 में फिरौती के लिए अपहरण की वारदातों में भारी कमी आ गई.

लेकिन इस के बावजूद कुछ मुसलिम गैंग अभी तक अपहरण की वारदात छोड़ने को तैयार नहीं थे.

दिसंबर 2000 में चरथावल कस्बे के दुधाली गांव में बदमाशों ने भट्ठा मालिक जितेंद्र सिंह का अपहरण कर लिया और परिवार से मोटी फिरौती मांगी. शिकायत कप्तान आशुतोष पांडेय तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत मुखबिरों के नेटवर्क को सक्रिय किया. पता चला कि जितेंद्र सिंह का अपहरण शकील, अकरम और दिलशाद नाम के अपराधियों ने किया है. यह भी पता चल गया कि बदमाशों ने जितेंद्र सिंह को दुधाहेड़ी के जंगलों में रखा हुआ है.

उन्होंने खुद इस मामले की कमान संभाली और पूरे जंगल की घेराबंदी कर दी. दिनभर पुलिस और बदमाशों की मुठभेड़ चलती रही, जिस के फलस्वरूप शाम होतेहोते तीनों बदमाश मुठभेड़ में धराशाई हो गए और जितेंद्र सिंह को सकुशल मुक्त करा लिया गया.

1999 से ले कर साल 2000 तक मुजफ्फरनगर जिले में कई ऐसे अपहरण हुए, जिस में आशुतोष पांडेय की अगुवाई में पुलिस ने न सिर्फ अपहृत व्यक्ति को सकुशल मुक्त कराया. बल्कि अपहर्त्ताओं को या तो गिरफ्तार किया या फिर मुठभेड़ में धराशाई कर दिया. पांडेय ने ऐसे सभी मामलों में अपहर्त्ताओं को अपने खेतों, ट्यूबवैल और घरों में शरण देने वाले किसानों और उन के परिवार की महिलाओं तक को आरोपी बना कर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.

परिणाम यह निकला कि लोग अपराधियों को शरण देने से बचने लगे. कल तक अपहरण को मुनाफे का धंधा मानने वाले अपराधियों को अब वही धंधा घाटे का लगने लगा. यही वजह रही कि साल 2001 में मुजफ्फरनगर जिले में फिरौती के लिए अपहरण की एक भी वारदात नहीं हुई.

इस बीच जिले के सभी 28 थानों पर पांडेय की इतनी मजबूत पकड़ कायम हो चुकी थी कि अगर वहां कोई मामूली सी भी गड़बड़ या घटना होती तो इस की सूचना उन तक पहुंच जाती थी.

लोगों से मिली सूचनाओं के बूते पर उन्होंने जिले के करीब 525 ऐसे लोगों की सूची बनाई थी, जो या तो सफेदपोश थे या फिर किसी पंचायत अथवा राजनीतिक दल से जुड़े थे. इन सभी लोगों पर आशुतोष पांडेय ने अपनी टीम के लोगों को नजर रखने के लिए छोड़ा हुआ था.

ऐसे लोगों की अपराध में जरा सी भी भूमिका सामने आने पर आशुतोष पांडेय मीडिया के माध्यम से जनता के बीच उन के चरित्र का खुलासा करके उन्हें जेल भेजते थे. इसलिए तमाम सफेदपोश लोग भी आशुतोष पांडेय के खौफ से डरने लगे थे.

सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ की गई काररवाई में सब से चर्चित और उल्लेखनीय मामला समाजवादी पार्टी से विधान परिषद सदस्य कादिर राणा के भतीजे शाहनवाज राणा की गिरफ्तारी का था.

शाहनवाज राणा की शहर में तूती बोलती थी. किसी के साथ भी मारपीट कर देना किसी की गाड़ी को अपनी गाड़ी से टक्कर मार देना शाहनवाज राणा का शगल था. पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर प्रभाव रखने और धमक दिखाने के लिए शाहनवाज राणा ने एक अखबार भी निकाल रखा था. शाहनवाज राणा पर कोई हाथ नहीं डाल पाता था. शाहनवाज राणा पहले हत्या के एक मामले में गिरफ्तार हो चुका था लेकिन सबूत न होने की वजह से बाद में अदालत से रिहा हो गया था. इस से मुजफ्फरनगर में शाहनवाज की गुंडागर्दी और भी बढ़ गई थी. लेकिन आशुतोष पांडेय ने शाहनवाज को भी नहीं छोड़ा.

दरअसल, मुजफ्फरनगर के रमन स्टील के मालिक रमन कुमार ने आशुतोष पांडेय को फोन कर के बताया कि शाहनवाज राणा और उस के साथी उस की फैक्ट्री से लोहे के कबाड़ का ट्रक लूट रहे हैं.

सूचना मिलते ही आशुतोष पांडेय अपने स्पैशल दस्ते के साथ मौके पर पहुंचे और शाहनवाज राणा व उस के साथियों को पकड़ कर थाने ले आए.

शाहनवाज राजनीतिक पकड़ वाला व्यक्ति था. चाचा कादिर राणा प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का एमएलसी था. थाने पर एक खास समुदाय के समर्थकों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई.

आशुतोष पांडेय पर शाहनवाज को छोड़ने के लिए उच्चाधिकारियों से ले कर विपक्षी पार्टी के नेताओं का दबाव बढ़ने लगा.

लेकिन आशुतोष पांडेय उसूलों के पक्के थे. उन्होंने शाहनवाज को खुद मौके पर जा कर पकड़ा था. लिहाजा छोड़ने का सवाल ही नहीं था.

अगर दबाव में आ कर वह शाहनवाज को छोड़ देते तो न सिर्फ ढाई साल में की गई उन की मेहनत पर पानी फिर जाता बल्कि शाहनवाज राणा के हौसले और ज्यादा बुलंद हो जाते.

आशुतोष पांडेय ने तबादले और दंड की परवाह किए बिना शाहनवाज राणा के खिलाफ मामला दर्ज करवाया और उसे साथियों के साथ जेल भिजवा दिया.

मुजफ्फरनगर जिले में यह मामला एक आईपीएस अफसर के ईमानदार फैसले की नजीर बन गया और लोगों ने आशुतोष पांडेय की हिम्मत का लोहा मान लिया.

यही कारण रहा कि मुजफ्फरनगर में अपनी तैनाती के दौरान इकहरे शरीर के मालिक आशुतोष पांडेय हमेशा लौह पुलिस अफसर बन कर खड़े रहे.

मुजफ्फरनगर में ढाई साल के लंबे कार्यकाल के बाद आशुतोष पांडेय की नियुक्ति अलगअलग जगहों पर रही. हर जगह उन्होंने जो काम किए, वह सब से हट कर थे. पांडेय 2005 में वाराणसी और साल 2012 में लखनऊ के एसएसपी डीआईजी रहे.

सभी जगह आशुतोष पांडेय का नाम सुनते ही गैरकानूनी काम करने वाले लोग डरते थे. 2008 में आशुतोष पांडेय को प्रोन्नत कर उन्हें डीआईजी का पद सौंपा गया. इस के बाद उन्हें 18 मई, 2012 में प्रमोशन देते हुए आईजी बना दिया गया.

कानुपर के अलावा उन की नियुक्ति आगरा जोन में भी रही और 1 जनवरी, 2017 को वह यूपी के एडीजी बना दिए गए. अपहरण मामलों को सुलझाने के विशेषज्ञ, मुजफ्फरनगर में 100 से ज्यादा अपराधियों के एनकाउंटर में 30 एनकांउटर में खुद मोर्चा संभालने और कानपुर में बहुचर्चित ज्योति हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में अहम रोल निभाने वाले आशुतोष पांडेय को राष्ट्रपति मैडल मिल चुका है.

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