आज का इंसान: भाग 3

‘‘ ‘नमस्ते सर,’ दोनों हाथ जोड़ कर उस ने मेरा अभिवादन किया. चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं जिस से शर्म का एहसास महसूस हो. मैं कभी अपनी पत्नी का मुंह देख रहा था और कभी उस का. गृहस्थी की दहलीज पार कर के जा चुका इंसान क्या इस लायक है कि उसे मैं अपने घर के अंदर आने दूं और पानी का घूंट भी पिलाऊं.

‘‘ ‘सुनयना यहां है क्या? घर पर है नहीं न…घर की चाबियां हों तो दे दीजिए… मैं ने फोन कर के उसे बता दिया था…मां को साथ लाया हूं…वह बाहर गाड़ी में हैं. कहां गई है वह? क्या मार्केट तक गई है?’

‘‘इतने ढेर सारे सवाल एकसाथ… उस के हावभाव तो इस तरह के थे मानो पिछले 3-4 महीने में कहीं कुछ हुआ ही नहीं है. पल भर को मेरा माथा ठनका. गिरीश के चेहरे का आत्मविश्वास और अधिकार से परिपूर्ण आवाज कहीं से भी यह नहीं दर्शा रही, जिस का उल्लेख सुनयना रोरो कर करती रही थी. उठ कर मैं बाहर चला आया. सचमुच गाड़ी में उस की बीमार मां थी.

‘‘ ‘वह तो अपने भाई के घर गई है और घर की चाबियां उस ने हमें दीं नहीं… आइए, अंदर आ जाइए.’

‘‘ ‘नहीं सर, मुझे तो मां को सीधे अस्पताल ले जाना है. कितनी लापरवाह है यह लड़की, जिम्मेदारी का जरा सा भी एहसास नहीं,’ भन्नाता हुआ गिरीश चला गया.

‘जिम्मेदारी का एहसास क्या सिर्फ सुनयना के लिए? तब यह एहसास कहां था जब वह अपने बच्चे का दर्द सह रही थी.’ मैं ने सोचा फिर सहसा लगा, नहीं, कहीं मैं ही तो बेवकूफ नहीं बन गया इस लड़की के हाथों. हम तो उसी नजर से गिरीश को देख रहे हैं न जिस नजर से सुनयना हमें देखना सिखा रही है. सच क्या है शायद हम पतिपत्नी आज भी नहीं जानते.

‘‘ ‘दिमाग हिल गया है मेरा,’ मेरी पत्नी ने अपना फैसला सुना दिया, ‘मुझे तो लग रहा है कि जो कहानी सुनयना हमें सुनाती रही है वह कोरी बकवास है. 4 महीने में उस ने हमें कोई भनक ही नहीं लगने दी और क्याक्या करती रही. क्या गारंटी है सच ही बोल रही है. आज के बाद इस लड़की से मेलजोल समाप्त. हम इस दलदल में न ही पड़ें तो अच्छा है.’

‘‘जिम्मेदारी का एहसास गिरीश को न होता तो क्या बीमार मां को ढो कर उस शहर से इस शहर में लाता. सुनयना के घर से कुछ लूटपाट कर ही ले जाना होता तो क्या उस के घर का ताला न तोड़ देता. आखिर वह मालिक था.

‘‘दूसरी सुबह मैं अस्पताल उस पते पर गया जहां गिरीश गया था. बीमार मां की बगल में चुपचाप बैठा था वह. हिम्मत कर के मैं ने इतना ही पूछा, ‘4 महीने हो गए गिरीश, तुम एक बार भी नहीं आए. सुनयना बीमार थी…तुम ने एक बार हम से भी बात नहीं की.’

‘‘ ‘आप भी तो यहां नहीं थे न. आप का भाई बीमार था, आप 4 महीने से अपने घर बरेली चले गए थे. मैं किस से बात करता और सुनयना बीमार है मुझे तो नहीं पता. मैं तो तब से बस, मां के साथ हूं, नौकरी भी नहीं बची मेरी. सुनयना मां को यहां लाने को मान जाती तो इतनी समस्या ही न होती. अब क्या मांबाप को मैं सड़क पर फेंक दूं या जिंदा ही जला आऊं श्मशान में. क्या करूं मैं…आप ही बताइए?

‘‘ ‘इस लड़की से शादी कर के मैं तो कहीं का नहीं रहा. 4 साल से भोग रहा हूं इसे. किसी तरह वह जीने दे मगर नहीं. न जीती है न जीने देती है.’

‘‘ ‘घर आ कर पत्नी को बताया तो वह भी अवाक्.’’

‘‘ ‘हमारा कौन सा भाई बीमार था बरेली में…हम 4 महीने से कहीं भी नहीं गए…यह कैसी बात सुना रहे हैं आप.’

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‘‘जमीन निकल गई मेरे पैरों के नीचे से. लगता है हम अच्छी तरह ठग लिए गए हैं. हमारे दुलार का अच्छा दुरुपयोग किया इस लड़की ने. अपने ही चरित्र की कालिख शायद सजासंवार कर अपने पति के मुंह पर पोतती रही. हो सकता है गर्भपात की दवा खा कर बच्चे को खुद ही मार डाला हो और हर रोज नई कहानी गढ़ कर एक आवरण भी डालती रही और हमारी हमदर्दी भी लेती रही. सुरक्षा कवच तो थे ही हम उस के लिए.

‘‘अपना हाथ खींच लिया हम दोनों ने और उस पर देखो, उस ने हम से बात भी करना जरूरी नहीं समझा. आफिस में भी बात कर के इतना नहीं पूछती कि हम दोनों उस से बात क्यों नहीं करते. गिरीश आया था और हम उस से मिले थे उस के बारे में जब पता चल गया तब से वह तो पूरी तरह अनजान हो गई हम से.’’

विजय सारी कथा सुना कर मौन हो गया और मैं सोचने लगा, वास्तव में इंसान जब बड़ा चालाक बन कर यह सोचता है कि उस ने सामने वाले को बेवकूफ बना लिया है तो वह कितने बड़े भुलावे में होता है. अपने ही घर का, अपनी ही गृहस्थी का तमाशा बना कर गिरीश और सुनयना ने भला विजय का क्या बिगाड़ लिया. अपना ही घर किस ने जलाया मैं भी समझ नहीं पाया.

गिरीश सच्चा है या सुनयना कौन जाने मगर यह एक अटूट सत्य है कि हमेशाहमेशा के लिए विजय का विश्वास उन दोनों पर से उठ गया. कभी सुनयना पर भरोसा नहीं किया जा सकता और कोई क्यों किसी पर भरोसा करे. हम समाज में हिलमिल कर इसीलिए रहते हैं न कि कोई हमारा बने और हम किसी के बनें. हम सामाजिक प्राणी हैं और हमें हर पल किसी दूसरे इंसान की जरूरत पड़ती है.

कभी किसी का सुखदुख हमारे चेतन को छू जाता है तो हम उस की पीड़ा कम करने का प्रयास करते हैं और करना ही चाहिए, क्योंकि यही एक इंसान होने का प्रमाण भी है. किसी की निस्वार्थ सेवा कर देना हमारे गले का फंदा तो नहीं बन जाना चाहिए न कि हमारी ही सांस घुट जाए. तकलीफ तो होगी ही न जब कोई हमारे सरल स्वभाव का इस्तेमाल अपनी जरूरत के अनुसार तोड़मोड़ कर करेगा.

खट्टी सी, खोखली मुसकान चली आई मेरे भी होंठों पर. विजय की पारखी आंखों में एक हारी हुई सी भावना नजर आ रही थी मुझे. पुन: पूछा उस ने, ‘‘है न कितना मुश्किल किसी को पहचान पाना आजकल? आज का इंसान वास्तव में क्या अभिनेता नहीं बनता जा रहा?’’

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आज का इंसान: भाग 2

‘‘खाली जेब मांबाप की सेवा कैसे करेगा? क्या उन्हें समझ में नहीं आता. 3 महीने होने को आए क्या नौकरी अभी तक बच रही होगी जो वह…

‘‘सुनयना का रोनाधोना चलता रहा और इसी बीच उस का अविकसित गर्भ चलता बना. पूरा दिन मेरी पत्नी उस के साथ अस्पताल में रही. इतना सब हो गया पर उस का पति नहीं आया. किंकर्तव्य- विमूढ़ होते जा रहे थे हम.

‘‘ ‘क्या तुम दोनों में सब ठीक चल रहा है? कैसा इंसान है वह जिसे न अपने बच्चे की परवाह है न पत्नी की.’ एक दिन मैं ने पूछ लिया.

‘‘हैरानपरेशान थे हम. 2-3 दिन सुनयना हमारे ही घर पर रही. उस के बाद अपने घर चली गई. यह कहानी क्या कहानी है हम समझ पाते इस से पहले एक दिन सुनयना ने हमें बताया कि वह हम से इतने दिन तक झूठ बोलती रही. दरअसल, उस का पति किसी और लड़की के साथ भाग गया है और उस के मातापिता भी इस कुकर्म में उस के साथ हैं.

‘‘हम पतिपत्नी तो जैसे आसमान से नीचे गिरे. सुनयना के अनुसार उस के मायके वाले अब पुलिस केस बनाने की सोच रहे हैं. जिस लड़की के साथ गिरीश भागा है वे भी पूरा जोर लगा रहे हैं कि गिरीश पकड़ा जाए और उसे सजा हो. हक्केबक्के रह गए हम. हैरानी हुई इस लड़की पर. बाहरबाहर क्या होता रहा इस के साथ और भीतर यह हमें क्या कहानी सुनाती रही.

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‘‘सुनयना का कहना है कि वह शर्म के मारे हमें सच नहीं बता पाई.

‘‘  ‘अब तुम क्या करोगी…ऐसा आदमी जो तुम्हें बीच रास्ते में छोड़ कर चला गया, क्या उसे साथ रखना चाहोगी?’

‘‘ ‘महिला सेल में भी मेरे भाई ने रिपोर्ट दर्ज करवा रखी है. बस, मेरा ही इंतजार है. जैसे ही केस रजिस्टर हो जाएगा वह और उस के मातापिता 7 साल के लिए अंदर हो जाएंगे. वकील भी कर लिया है हम ने.’

‘‘ ‘परेशान हो गए थे हम.

‘‘ ‘तुम नौकरी करोगी या अदालतों और वकीलों के पास धक्के खाओगी. रुपयापैसा है क्या तुम्हारे पास?’

‘‘ ‘रुपयापैसा तो पहले ही गिरीश निकाल ले गए. लौकर भी खाली कर चुके हैं. मेरे नाम तो बस 1 लाख रुपए हैं.’

‘‘मैं सोचने लगा कि अच्छा हुआ जो बच्चा चल बसा. ऐसे पिता की संतान का क्या भविष्य हो सकता था. यह अकेली लड़की बच्चे को पालती या नौकरी करती.

‘‘ ‘गिरीश को सजा हो जाएगी तो उस के बाद क्या क रोगी. क्या तलाक ले कर दूसरी शादी करोगी? भविष्य के बारे में क्या सोचा है?’

‘‘ ‘मेरी बूआ कनाडा में रहती हैं, उन्होंने बुला भेजा है. मैं ने पासपोर्ट के लिए प्रार्थनापत्र भी दे दिया है.’

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‘‘मेरी पत्नी अवाक् थीं. यह लड़की पिछले 3-4 महीने से क्याक्या कर रही है हमें तो कुछ भी खबर नहीं. सेवा, देखभाल करने को हम दोनों और वह सब छिपाती रही मुझ से और मेरी पत्नी से भी. इतना बड़ा दिल और गुर्दा इस लड़की का जो अपने टूटे घर का सारा संताप पी गई.

‘‘मुझे कुछ ठीक नहीं लगा था. इस लड़की के बारे में. ऐसा लग रहा है कि सच हम आज भी नहीं जानते हैं. यह लड़की हमें आज भी सब सच ही बता रही होगी विश्वास नहीं हो रहा मुझे. वास्तव में सच क्या होगा कौन जाने.

‘‘बड़बड़ा रही थीं मेरी पत्नी कि कोई बखेड़ा तो हमारे गले नहीं पड़ जाएगा? कहीं यह लड़की हमें इस्तेमाल ही तो नहीं करती रही इतने दिन. इस से सतर्क हो जाना चाहते थे हम. एक दिन पूछने लगी, ‘आप ही बताइए न, मैं क्या करूं. गिरीश अब पछता रहे हैं. वापस आना चाहते हैं. उन्हें सजा दिलाऊं या माफ कर दूं.’

‘‘ ‘इस तरह की लड़ाई में जीत तो बेटा किसी की नहीं होती. लड़ने के लिए ताकत और रुपयापैसा तुम्हारे पास है नहीं. मांबाप भी जिंदा नहीं हैं जो बिठा कर खिलाएंगे. भाईभाभी कब तक साथ देंगे? और अगर इस लड़ाई में तुम जीत भी गईं तो भी हाथ कुछ नहीं आने वाला.’

‘‘ ‘गिरीश को स्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता.’

‘‘ ‘मत करो स्वीकार. कौन कह रहा है कि तुम उसे स्वीकार करो पर लड़ने से भी मुंह मोड़ लो. उस के हाल पर छोड़ दो उसे. दूसरी शादी कर के घर बसाना आसान नहीं है. डाल से टूट चुकी हो तुम…अब कैसे संभलना है यह तुम्हें सोचना है. अदालतों में तो अच्छाखासा तमाशा होगा, अगर सुलहसफाई से अलग हो जाओ तो…’

‘‘ ‘मगर वह तो तलाक देने को नहीं मान रहा न. वह साथ रहना चाहता है और अब मैं साथ रहना नहीं चाहती. धमकी दे रहा है मुझे. घर की एक चाबी तो उस के पास भी है न, अगर मेरे पीछे से आ कर सारा सामान भी ले गया तो मैं क्या कर लूंगी.’

‘‘ ‘इस महल्ले के सभी लोग जानते हैं कि वह तुम्हारा पति है. कोई क्यों रोकेगा उसे, ऐसा है तो तुम घर के ताले ही बदल डालो फिर कैसे आएगा.’

‘‘ताले बदलवा लिए सुनयना ने. 2 छुट्टियां आईं और सुनयना अपने भाई के घर चली गई. रात 8 बजे के करीब अपने दरवाजे पर गिरीश को देख हम हैरान रह गए. एक चरित्रहीन…अपनी पत्नी को बीच रास्ते छोड़ देने वाला इंसान मेरे दरवाजे पर खड़ा था.

आज का इंसान: भाग 1

‘‘किसी के भी चरित्र के बारे में सहीसही अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल काम है. चेहरे पर एक और चेहरा लगाए आजकल हर इंसान बहुरूपिया नजर आता है. अंदर कुछ बाहर कुछ. इंसान को पहचान पाना आसान नहीं है.’’

विजय के इन शब्दों पर मैं हैरान रह गया था. विजय को इंसान की पहचान नहीं हो पा रही यही वाक्य मैं समझ नहीं पाया था. विजय तो कहता था कि चाल देख कर मैं इंसान का चरित्र पहचान सकता हूं. सिर्फ 10 मिनट किसी से बात करूं तो सामने वाले का आरपार सब समझ लूं. नजर देख कर किसी की नियत भांप जाने वाला इंसान यह कैसे कहने लगा कि उस से इंसान की पहचान नहीं हो पा रही.

मुझे तो यह सुन कर अच्छा नहीं लगा था कि हमारा पारखी हार मान कर बैठने वाला है वरना कहीं नई जगह जाते. नया रिश्ता बनता या नए संबंध बनाने होते तो हम विजय को साथ ले जाते थे. इंसान की बड़ी परख जो है विजय को और वास्तव में इंसान वैसा ही निकलता भी था जैसा विजय बताता था.

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‘‘आज का इंसान बहुत बड़ा अभिनेता होता जा रहा है, हर पल अभिनय करना ही जिस का चरित्र हो उस का वास्तविक रूप नजर आएगा भी कैसे. अपने सहज रूप में कोई है कहां. एक ही व्यक्ति तुम से मिलेगा तो राम लगेगा, मुझ से मिलेगा तो श्याम बन कर मिलेगा. मतलब होगा तो तुम्हारे पैरों के नीचे बिछ जाएगा, मतलब निकल जाएगा तो तुम्हारे पास से यों निकल जाएगा जैसे जानता ही नहीं. एक ही इंसान के चरित्र के इतने ज्यादा पहलू तो कैसे पहचाने कोई, और कैसे अपने दायित्व का निर्वाह करे कोई?’’

‘‘क्या हुआ? किसी ने कुछ चालाकी की है क्या तुम्हारे साथ?’’

‘‘मुझ से चालाकी कर के कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा. भविष्य के लिए उस ने अपना ही रास्ता बंद कर लिया है. सवाल चालाकी का नहीं बल्कि यह है कि दूसरी बार जरूरत पड़ेगी तो मेरे पास किस मुंह से आएगा जबकि मेरे जैसा इंसान अपनी जेब से पैसे खर्च कर के भी सामने वाले की मदद करने को तैयार रहता है. बदले में मैं किसी से क्या चाहता हूं…कोई प्यार से बात कर ले या नजर आने पर हाथ भर हिला दे बस. क्या मुसकरा भर देना भी बहुत महंगा होता है जो किसी का हाथ ही तंग पड़ जाए?’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘सुनयना की. मेरे साथ आफिस में है. 4-5 महीने पहले ही दिल्ली से ट्रांसफर हो कर आई थी. उस का घर भी मेरे घर के पास ही है. नयानया घर बसा है यही सोच कर हम पतिपत्नी देखभाल करते रहे. उस का पति भी जब मिलता बड़े प्यार से मिलता. एक सुबह आया और कहने लगा कि उस की मां बीमार है इसलिए उसे कुछ दिन छुट्टी ले कर घर जाना पड़ेगा, पीछे से सुनयना अकेली होगी, हम जरा खयाल रखें. हम ने कहा कोई बात नहीं. अकेली जान है हम ही खिलापिला दिया करेंगे.

‘‘मेरी श्रीमती ने तो उसे बच्ची ही मान लिया. 10-15 दिन बीते तो पता चला सुनयना का पांव भारी है. श्रीमती लेडी डाक्टर के पास भी ले गईं. हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई. नाश्ते का सामान भी हमारे ही घर से जाने लगा. अकेली लड़की कहीं भूखी ही न सो जाए… रात को रोटी भी हम ही खिलाते. महीना भर बीत गया, उस का पति वापस नहीं आया.

‘‘ ‘अब इस के पति को आ जाना चाहिए. उधर मां बीमार है इधर पत्नी भी अस्वस्थ रहने लगी है. इन्हें चाहिए पूरा परिवार एकसाथ रहे. ऐसी कौन सी कंपनी है जो 2-2 महीने की छुट्टी देती है…क्या इस के पति को नौकरी नहीं करनी है जो अपनी मां के पास ही जा कर बैठ गया है.’

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‘‘मेरी पत्नी ने जरा सा संशय जताया. पत्नी के मां बनने की खबर पर भी जो इंसान उसे देखने तक नहीं आया वह कैसा इंसान है? इस परदेस में उस ने इसे हमारे सहारे अकेले छोड़ रखा है यही सोच कर मैं भी कभीकभी पूछ लिया करता, ‘सुनयना, गिरीश का फोन तो आता रहता है न. भई, एक बार आ कर तुम से मिल तो जाता. उसे जरा भी तुम्हारी चिंता नहीं है… और उस की नौकरी का क्या हुआ?’

‘‘2 महीने बीततेबीतते लेडी डाक्टर ने अल्ट्रासाउंड कर बच्चे की जांच करने को कहा. श्रीमती 3-4 घंटे उस के साथ बंधी रहीं. पता चला बच्चा ठीक से बढ़ नहीं रहा. 10 दिन बाद दोबारा देखेंगे तब तक उस का बोरियाबिस्तर सब हमारे घर आ गया. सुनयना का रोनाधोना चालू हुआ जिस पर उस के पति पर हमें और भी क्रोध आता. क्या उसे अपनी पत्नी की चिंता ही नहीं. मैं सुनयना से उस के पति का फोन नंबर मांगता तो वह कहती, उस की घरेलू समस्या है, हमें बीच में नहीं पड़ना चाहिए. वास्तव में सुनयना के सासससुर यहां आ कर उन के साथ रहना ही नहीं चाहते जिस वजह से बेटा पत्नी को छोड़ उन की सेवा में व्यस्त है.

समझौता: क्या देवर की शादी में गई शिखा

Serial Story- समझौता: भाग 2

भाईभाई में, भाईबहनों में कहासुनी कहां नहीं होती. लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं होता कि संबंध समाप्त कर लिए जाएं. मेरे साथ यही हुआ, जानेअनजाने मैं पंकज से ही नहीं, अपने  परिवार के अन्य सदस्यों से भी दूर होता चला गया.

सही माने में देखा जाए तो संपन्नता व कामयाबी के जिस शिखर पर बैठ कर मैं व मेरी पत्नी गर्व महसूस कर रहे थे, उस की जमीन मेरे लिए पंकज ने ही तैयार की थी. उस के पूर्ण सहयोग व प्रोत्साहन के बिना अपनी पत्नी के साथ मैं इस अजनबी शहर में आने व अल्प पूंजी से नए सिरे से व्यवसाय शुरू करने की बात सोच भी नहीं सकता था. उस का आभार मानने के बदले मैं ने उस रिश्ते को दफन कर दिया. मेरी उन्नति में मेरी ससुराल वालों का 1 प्रतिशत भी योगदान नहीं था, किंतु धीरेधीरे वही मेरे नजदीक होते गए. दोष शिखा का नहीं, मेरा था. मैं ही अपने निकटतम रिश्तों के प्रति ईमानदार नहीं रहा. जब मैं ने ही उन के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाया तो मेरी पत्नी शिखा भला उन रिश्तों की कद्र क्यों करती?

समाज में साथ रहने वाले मित्र, पड़ोसी, परिचित सब हमारे हिसाब से नहीं चलते. हम में मतभेद भी होते हैं. एकदूसरे से नाखुश भी होते हैं, आगेपीछे एकदूसरे की आलोचना भी करते हैं, लेकिन फिर भी संबंधों का निर्वाह करते हैं. उन के दुखसुख में शामिल होते हैं. फिर अपनों के प्रति हम इतने कठोर क्यों हो जाते हैं? उन की जराजरा सी त्रुटियों को बढ़ाचढ़ा कर क्यों देखते हैं? कुछ बातों को नजरअंदाज क्यों नहीं कर पाते? तिल का ताड़ क्यों बना देते हैं?

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मैं सोचने लगा, पंकज मेरा सगा भाई है. यदि जानेअनजाने उस ने कुछ गलत किया या कहा भी है तो आपस में मिलबैठ कर मतभेद मिटाने का प्रयास भी तो कर सकते थे. गलतफहमियों को दूर करने के बदले हम रिश्तों को समाप्त करने के लिए कमर कस लें, यह तो समझदारी नहीं है. असलियत तो यह है कि कुछ शातिर लोगों ने दोस्ती का ढोंग रचाते हुए हमें एकदूसरे के विरुद्ध भड़काया, हमारे बीच की खाई को गहरा किया. हमारी नासमझी की वजह से वे अपनी कोशिश में कामयाब भी रहे, क्योंकि हम ने अपनों की तुलना में गैरों पर विश्वास किया.

मैं ने निर्णय कर लिया कि अपने फैसले मैं खुद लूंगा. पंकज की शादी में शिखा जाए या न जाए, किंतु मैं समय पर पहुंच कर भाई का फर्ज निभाऊंगा. उस की सगाई में भी शिखा की वजह से ही मैं तब पहुंचा, जब प्रोग्राम समाप्त हो चुका था.

सगाई वाले दिन मैं जल्दी ही दुकान बंद कर के घर आ गया था, लेकिन शिखा ने कलह शुरू कर दिया था. वह पंकज के प्रति शिकायतों का पुराना पुलिंदा खोल कर बैठ गई थी. उस ने मेरा मूड इतना खराब कर दिया था कि जाने का उत्साह ही ठंडा पड़ गया. मैं बिस्तर पर पड़ापड़ा सो गया था. जब नींद खुली तो रात के 10 बज रहे थे. मन अंदर से कहीं कचोट रहा था कि तेरे सगे भाई की सगाई है और तू यहां घर में पड़ा है. फिर मैं बिना कुछ विचार किए, देर से ही सही, पंकज के घर चला गया था.

मानव का स्वभाव है कि अपनी गलती न मान कर दोष दूसरे के सिर पर मढ़ देता है, जैसे कि वह दोष मैं ने शिखा के सिर पर मढ़ दिया. ठीक है, शिखा ने मुझे रोकने का प्रयास अवश्य किया था किंतु मेरे पैरों में बेड़ी तो नहीं डाली थी. दोषी मैं ही था. वह तो दूसरे घर से आई थी. नए रिश्तों में एकदम से लगाव नहीं होता. मुझे ही कड़ी बन कर उस को अपने परिवार से जोड़ना चाहिए था, जैसे उस ने मुझे अपने परिवार से जोड़ लिया था.

शिखा की सिसकियों की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ. वह  बाहर वाले कमरे में थी. उसे मालूम नहीं था कि मैं नहा कर बाहर आ चुका हूं और फोन की पैरलेल लाइन पर मां व उस की पूरी बातें सुन चुका हूं. मैं सहजता से बाहर गया और उस से पूछा, ‘‘शिखा, रो क्यों रही हो?’’

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‘‘मुझे रुलाने का ठेका तो तुम्हारे घर वालों ने ले रखा है. अभी आप की मां का फोन आया था. आप को तो पता है न, मेरी भाभी ने आत्महत्या की थी. आप की मां ने आरोप लगाया है कि भाभी की हत्या की साजिश में मैं भी शामिल थी,’’ कह कर वह जोर से रोने लगी.

‘‘बस, यही आरोप लगाने के लिए उन्होंने फोन किया था?’’

‘‘उन के हिसाब से मैं ने रिश्तों को तोड़ा है. फिर भी वे चाहती हैं कि मैं पंकज की शादी में जाऊं. मैं इस शादी में हरगिज नहीं जाऊंगी, यह मेरा अंतिम फैसला है. तुम्हें भी वहां नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘सुनो, हम दोनों अपनाअपना फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं. मैं चाहते हुए भी तुम्हें पंकज के यहां चलने के लिए बाध्य नहीं करना चाहता. किंतु अपना निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूं. मुझे तुम्हारी सलाह नहीं चाहिए.’’

‘‘तो तुम जाओगे? पंकज तुम्हारे व मेरे लिए जगहजगह इतना जहर उगलता फिरता है, फिर भी जाओगे?’’

Serial Story- समझौता: भाग 3

‘‘उस ने कभी मुझ से या मेरे सामने ऐसा नहीं कहा. लोगों के कहने पर हमें पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए. लोगों के कहने की परवा मैं ने की होती तो तुम को कभी भी वह प्यार न दे पाता, जो मैं ने तुम्हें दिया है. अभी तुम मांजी द्वारा आरोप लगाए जाने की बात कर रही थीं. पर वह उन्होंने नहीं लगाया. लोगों ने उन्हें ऐसा बताया होगा. आज तक मैं ने भी इस बारे में तुम से कुछ पूछा या कहा नहीं. आज कह रहा हूं… तुम्हारे ही कुछ परिचितों व रिश्तेदारों ने मुझ से भी कहा कि शिखा बहुत तेजमिजाज लड़की है. अपनी भाभी को इस ने कभी चैन से नहीं जीने दिया. इस के जुल्मों से परेशान हो कर भाभी की मौत हुई थी. पता नहीं वह हत्या थी या आत्महत्या…लेकिन मैं ने उन लोगों की परवा नहीं की…’’

‘‘पर तुम ने उन की बातों पर विश्वास कर लिया? क्या तुम भी मुझे अपराधी समझते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें अपराधी नहीं समझता. न ही मैं ने उन लोगों की बातों पर विश्वास किया था. अगर विश्वास किया होता तो तुम से शादी न करता. तुम से बस एक सवाल करना चाहता हूं, लोग जब किसी के बारे में कुछ कहते हैं तो क्या हमें उस बात पर विश्वास कर लेना चाहिए.’’

‘‘मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह सब झूठ है. हम से जलने वालों ने यह अफवाह फैलाई थी. इसी वजह से मेरी शादी में कई बार रुकावटें आईं.’’

‘‘मैं ने भी उसे सच नहीं माना, बस तुम्हें यह एहसास कराना चाहता हूं कि जैसे ये सब बातें झूठी हैं, वैसे ही पंकज के खिलाफ हमें भड़काने वालों की बातें भी झूठी हो सकती हैं. उन्हें हम सत्य क्यों मान रहे हैं?’’

‘‘लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बातें झूठी हैं. खैर, लोगों ने सच कहा हो या झूठ, मैं तो नहीं जाऊंगी. एक बार भी उन्होंने मुझ से शादी में आने को नहीं कहा.’’

‘‘कैसे कहता, सगाई पर आने के लिए तुम से कितना आग्रह कर के गया था. यहां तक कि उस ने तुम से माफी भी मांगी थी. फिर भी तुम नहीं गईं. इतना घमंड अच्छा नहीं. उस की जगह मैं होता तो दोबारा बुलाने न आता.’’

‘‘सब नाटक था, लेकिन आज अचानक तुम्हें हो क्या गया है? आज तो पंकज की बड़ी तरफदारी की जा रही है?’’

तभी द्वार की घंटी बजी. पंकज आया था. उस ने शिखा से कहा, ‘‘भाभी, भैया से तो आप को साथ लाने को कह ही चुका हूं, आप से भी कह रहा हूं. आप आएंगी तो मुझे खुशी होगी. अब मैं चलता हूं, बहुत काम करने हैं.’’

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पंकज प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना लौट गया. मैं ने पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारी यह शिकायत भी दूर हो गई कि तुम से उस ने आने को नहीं कहा? अब क्या इरादा है?’’

‘‘इरादा क्या होना है, हमारे पड़ोसियों से तो एक सप्ताह पहले ही आने को कह गया था. मुझे एक दिन पहले न्योता देने आया है. असली बात तो यह है कि मेरा मन उन से इतना खट्टा हो गया है कि मैं जाना नहीं चाहती. मैं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारी मरजी,’’ कह कर मैं दुकान चला गया.

थोड़ी देर बाद ही शिखा का फोन आया, ‘‘सुनो, एक खुशखबरी है. मेरे भाई हिमांशु की शादी तय हो गई है.

10 दिन बाद ही शादी है. उस के बाद कई महीने तक शादियां नहीं होंगी. इसीलिए जल्दी शादी करने का निर्णय लिया है.’’

‘‘बधाई हो, कब जा रही हो?’’

‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मैं अकेली ही जाऊंगी. तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘तुम ने सही सोचा, तुम्हारे भाई की शादी है, तुम जाओ, मैं नहीं जाऊंगा.’’

‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें, कैसी बातें कर रहे हो? मेरे मांबाप की जगहंसाई कराने का इरादा है क्या? सब पूछेंगे, दामाद क्यों नहीं आया तो

क्या जवाब देंगे? लोग कई तरह की बातें बनाएंगे…’’

‘‘बातें तो लोगों ने तब भी बनाई होंगी, जब एक ही शहर में रहते हुए, सगी भाभी हो कर भी तुम देवर की सगाई में नहीं गईं…और अब शादी में भी नहीं जाओगी. जगहंसाई क्या यहां नहीं होगी या फिर इज्जत का ठेका तुम्हारे खानदान ने ही ले रखा है, हमारे खानदान की तो कोई इज्जत ही नहीं है?’’

‘‘मत करो तुलना दोनों खानदानों की. मेरे घर वाले तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. क्या तुम्हारे घर वाले मुझे वह इज्जत व प्यार दे पाए?’’

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‘‘हरेक को इज्जत व प्यार अपने व्यवहार से मिलता है.’’

‘‘तो क्या तुम्हारा अंतिम फैसला है कि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगे?’’

‘‘अंतिम ही समझो. यदि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगी तो मैं भला तुम्हारे भाई की शादी में क्यों जाऊंगा?’’

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो?’’ कह कर शिखा ने फोन रख दिया. दूसरे दिन पंकज की शादी में शिखा को आया देख कर मांजी का चेहरा खुशी से खिल उठा था. पंकज भी बहुत खुश था.

मांजी ने स्नेह से शिखा की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम आ गई, मैं बहुत खुश हूं. मुझे तुम से यही उम्मीद थी.’’

‘‘आती कैसे नहीं, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. आप के आग्रह को कैसे टाल सकती थी?’’

मैं मन ही मन मुसकराया. शिखा किन परिस्थितियों के कारण यहां आई, यह तो बस मैं ही जानता था. उस के ये संवाद भले ही झूठे थे, पर अपने सफल अभिनय द्वारा उस ने मां को प्रसन्न कर दिया था. यह हमारे बीच हुए समझौते की एक सुखद सफलता थी.

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Serial Story- समझौता: भाग 1

जब मां का फोन आया, तब मैं बाथरूम से बाहर निकल रहा था. मेरे रिसीवर उठाने से पहले ही शिखा ने फोन पर वार्त्तालाप आरंभ कर दिया था.

मां उस से कह रही थीं, ‘‘शिखा, मैं ने तुम्हें एक सलाह देने के लिए फोन किया है. मैं जो कुछ कहने जा रही हूं, वह सिर्फ मेरी सलाह है, सास होने के नाते आदेश नहीं. उम्मीद है तुम उस पर विचार करोगी और हो सका तो मानोगी भी…’’

‘‘बोलिए, मांजी?’’

‘‘बेटी, तुम्हारे देवर पंकज की शादी है. वह कोई गैर नहीं, तुम्हारे पति का सगा भाई है. तुम दोनों के व्यापार अलग हैं, घर अलग हैं, कुछ भी तो साझा नहीं है. फिर भी तुम लोगों के बीच मधुर संबंध नहीं हैं बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि संबंध टूट चुके हैं. मैं तो समझती हूं कि अलगअलग रह कर संबंधों को निभाना ज्यादा आसान हो जाता है.

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‘‘वैसे उस की गलती क्या है…बस यही कि उस ने तुम दोनों को इस नए शहर में बुलाया, अपने साथ रखा और नए सिरे से व्यापार शुरू करने को प्रोत्साहित किया. हो सकता है, उस के साथ रहने में तुम्हें कुछ परेशानी हुई हो, एकदूसरे से कुछ शिकायतें भी हों, किंतु इन बातों से क्या रिश्ते समाप्त हो जाते हैं? उस की सगाई में तो तुम नहीं आई थीं, किंतु शादी में जरूर आना. बहू का फर्ज परिवार को जोड़ना होना चाहिए.’’

‘‘तो क्या मैं ने रिश्तों को तोड़ा है? पंकज ही सब जगह हमारी बुराई करते फिरते हैं. लोगों से यहां तक कहा है, ‘मेरा बस चले तो भाभी को गोली मार दूं. उस ने आते ही हम दोनों भाइयों के बीच दरार डाल दी.’ मांजी, दरार डालने वाली मैं कौन होती हूं? असल में पंकज के भाई ही उन से खुश नहीं हैं. मुझे तो अपने पति की पसंद के हिसाब से चलना पड़ेगा. वे कहेंगे तो आ जाऊंगी.’’

‘‘देखो, मैं यह तो नहीं कहती कि तुम ने रिश्ते को तोड़ा है, लेकिन जोड़ने का प्रयास भी नहीं किया. रही बात लोगों के कहने की, तो कुछ लोगों का काम ही यही होता है. वे इधरउधर की झूठी बातें कर के परिवार में, संबंधों में फूट डालते रहते हैं और झगड़ा करा कर मजा लूटते हैं. तुम्हारी गलती बस इतनी है कि तुम ने दूसरों की बातों पर विश्वास कर लिया.

‘‘देखो शिखा, मैं ने आज तक कभी तुम्हारे सामने चर्चा नहीं की है, किंतु आज कह रही हूं. तुम्हारी शादी के बाद कई लोगों ने हम से कहा, ‘आप कैसी लड़की को बहू बना कर ले आए.  इस ने अपनी भाभी को चैन से नहीं जीने दिया, बहुत सताया. अपनी भाभी की हत्या के सिलसिले में इस का नाम भी पुलिस में दर्ज था. कुंआरी लड़की है, शादी में दिक्कतें आएंगी, यही सोच कर रिश्वत खिला कर उस का नाम, घर वालों ने उस केस से निकलवाया है.’

‘‘अगर शादी से पहले हमें यह समाचार मिलता तो शायद हम सचाई जानने के लिए प्रयास भी करते, लेकिन तब तक तुम बहू बन कर हमारे घर आ चुकी थीं. कहने वालों को हम ने फटकार कर भगा दिया था. यह सब बता कर मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती, बल्कि कहना यह चाहती हूं कि आंखें बंद कर के लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. खैर, मैं ने तुम्हें शादी में आने की सलाह देने के लिए फोन किया है, मानना न मानना तुम्हारी मरजी पर निर्भर करता है,’’ इतना कह कर मां ने फोन काट दिया था.

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मां ने कई बार मुझे भी समझाने की कोशिश की थी, किंतु मैं ने उन की पूरी बात कभी नहीं सुनी. बल्कि,? उन पर यही दोषारोपण करता रहा कि वह मुझ से ज्यादा पंकज को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें मेरा ही दोष नजर आता है, पंकज का नहीं. इस पर वे हमेशा यहां से रोती हुई ही लौटी थीं.

लेकिन सचाई तो यह थी कि मैं खुद भी पंकज के खिलाफ था. हमेशा दूसरों की बातों पर विश्वास करता रहा. इस तरह हम दोनों भाइयों के बीच खाई चौड़ी होती चली गई. लेकिन फोन पर की गई मां की बातें सुन कर कुछ हद तक उन से सहमत ही हुआ.

मां यहां नहीं रहती थीं. शादी की वजह से ही पंकज के पास उस के घर आई हुई थीं. वे हम दोनों भाइयों के बीच अच्छे संबंध न होने की वजह से बहुत दुखी रहतीं इसीलिए यहां बहुत कम ही आतीं.

लोग सही कहते हैं, अधिकतर पति पारिवारिक रिश्तों को निभाने के मामले में पत्नी पर निर्भर हो जाते हैं. उस की नजरों से ही अपने रिश्तों का मूल्यांकन करने लगते हैं. शायद यही वजह है, पुरुष अपने मातापिता, भाईबहनों आदि से दूर होते जाते हैं और ससुराल वालों के नजदीक होते जाते हैं.

दूसरों शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने रक्त संबंधों के प्रति अधिक वफादार होती हैं. इसीलिए अपने मायके वालों से उन के संबंध मधुर बने रहते हैं. बल्कि कड़ी बन कर वे पतियों को भी अपने परिवार से जोड़ने का प्रयास करती रहती हैं. वैसे पुरुष का अपनी ससुराल से जुड़ना गलत नहीं है. गलत है तो यह कि पुरुष रिश्तों में संतुलन नहीं रख पाते, वे नए परिवार से तो जुड़ते हैं, किंतु धीरेधीरे अपने परिवार से दूर होते चले जाते हैं.

Women’s Day Special- फैसला: भाग 1

श्रुति का दिमाग फिर से परेशान था. ट्रेन में थी वह. अपने आप पर उसे गुस्सा आ रहा था, ‘तू क्यों जा रही है वहां’. उस का मन खिन्न हो गया. पूरे 15 वर्ष पहले सबकुछ होते हुए भी उसे अपना घर छोड़ना पड़ा था. दिवाकर के प्रति नफरत आज भी बनी हुई थी. नहीं चाहते हुए भी यादें उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

आज श्रुति उम्र के तीसरे पड़ाव की दहलीज पर है. जिंदगी में एक तरह से उस के पास सबकुछ था पर असल में उसे कुछ नहीं मिला. दिवाकर से उस ने अपनी मरजी से शादी की थी, मम्मीपापा ने भी कोई एतराज नहीं किया. उस में कोई कमी भी तो नहीं थी जो वे मना करते. बिना शर्तों के उस की शादी दिवाकर से हुई थी. वह अपने इस निर्णय से खुश थी.

शादी के कुछ समय बाद एक दिन वह बोला, ‘श्रुति, मैं ने तुम्हारे लिए नौकरी ढूंढ़ ली है.’ श्रुति हैरान हो गई थी क्योंकि उस को नौकरी करना कभी भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर ने उस के चेहरे पर आतेजाते भावों की तरफ से अनजान बन कर अपनी बात को जारी रखा, ‘मैं ने एक विज्ञापन कंपनी में बात की है. तुम्हें तो बस नौकरी के लिए एक अरजी लिख कर उस पर अपने हस्ताक्षर कर के देने हैं, आगे मैं देख लूंगा. नौकरी तो तुम्हें शतप्रतिशत मिल जाएगी.’

उस ने दिवाकर को मना भी किया था, उसे समझाया भी था कि वह अच्छाखासा कमा लेता है और अपनी जरूरतें भी इतनी ही हैं. वह घर संभाल लेगी. उस का मन नौकरी करने का नहीं है पर दिवाकर के जरूरत से ज्यादा दबाव डालने पर उस ने नौकरी के लिए अरजी लिख कर दे दी. कुछ दिन बाद ही नियुक्तिपत्र आ गया.

नौकरी मिलने की खुशी उसे नहीं थी लेकिन दिवाकर को थी. वह बहुत ही खुश नजर आ रहा था. उस समय भी उस ने कोशिश की कि वह किसी तरह मान जाए. उस का मानना था कि इस से समय अच्छा व्यतीत हो जाएगा, कभी उकताहट नहीं होगी जबकि वह इस बात को अच्छे से जानता था कि उसे घर से कभी उकताहट नहीं होती है.

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दिवाकर ने उस को नौकरी दिलवा दी. शुरू में उस को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर को चकाचौंध भरी जिंदगी ज्यादा आकर्षित करती थी. दोनों के बीच उलटा था. अकसर औरतों को ऐशोआराम की जिंदगी ज्यादा पसंद होती है. लेकिन श्रुति सादा जीवन पसंद करती थी. वे दोनों मिल कर खूब अच्छा कमा लेते थे. 5-6 वर्षों में ही उन के पास सबकुछ हो गया था. श्रुति नौकरी छोड़ना चाहती थी. उसे अब बच्चे चाहिए थे. पर दिवाकर नौकरी नहीं छुड़वाना चाहता था. वह हमेशा दूसरों के जीवन को इंगित करता रहता था, ‘देखो, वह कैसे रहता है, उन के पास अपना खुद का घर है. बस, तुम 2-4 वर्ष और नौकरी कर लो. बाद में छोड़ देना.’

श्रुति का बौस उस के काम से बहुत खुश था. उस को प्रमोशन जल्दीजल्दी मिल गए. नहीं चाहते हुए भी दिवाकर के कहने पर उसे अपने बौस को खाने पर बुलाना पड़ा. जिस दिन बौस को आना था, उस से एक दिन पहले ही दिवाकर ने पूरा मैन्यू तैयार किया, अपने हाथों से डाइनिंग टेबल सजा दी, खाना बनाने में उस की पूरी मदद की जबकि वह बिलकुल भी खुश न थी.

श्रुति चाह कर भी दिवाकर को नहीं समझा सकी कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रखना चाहिए और जब वह अच्छाखासा कमा लेता है और उसे भी वाजिब प्रमोशन मिल ही रहे हैं तो उसे नौकरी में इतना मत घसीटो कि औफिस को और समय देना पड़े और वह इस से इतना उकता जाए कि उस की इजाजत के बिना छोड़ बैठे.

उस दिन जब बौस खाने पर आए तो दिवाकर ने खूब मेहमाननवाजी की. उस ने उन को बातोंबातों में बोल दिया कि यदि श्रुति को अतिरिक्त काम करना पड़ा तो उस को कभी एतराज नहीं होगा. दिवाकर की रुपयों की भूख बढ़ती जा रही थी. पूरा वेतन दिवाकर के हाथों में जाता था. वह अपने मनमुताबिक खर्च करता था. सारा हिसाब वही रखता था. फ्लैट की किस्त, इंश्योरैंस पौलिसी, गाडि़यों की किस्त, मैडिक्लेम सभी कुछ उस के अनुसार होता था. घर में करीबकरीब सभी सामान इकट्ठा कर लिया था. टीवी, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, कंप्यूटर, छोटेबड़े बिजली के सारे उपकरण, क्रौकरी आदि सबकुछ था. ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिस की जरूरत हो और वह पास नहीं हो.

नौकरी करतेकरते वह थक चुकी थी पर जब दिवाकर ने बौस के सामने औफिस के समय के बाद अतिरिक्त काम करने का प्रस्ताव रखा तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस का मन कर रहा था उसी समय नौकरी से इस्तीफा दे दे. वह उस को कैसे समझाए कि वह भागतेभागते थक चुकी है. अपनी गृहस्थी बढ़ाना चाहती है. मां बनना चाहती है. पर वह उस की भावनाओं को समझ कर भी नजरअंदाज कर रहा था. घर में क्लेश होने के डर से वह सबकुछ सहने को मजबूर थी. बहरहाल, बौस बहुत खुश हो कर गए.

पता नहीं उस दिन श्रुति का क्या मन किया कि वह 7 दिन की छुट्टी ले कर घर बैठ गई. दिवाकर बहुत नाराज हुआ क्योंकि 7 दिन का वेतन जो कट रहा था. श्रुति को इस बात की कोई चिंता नहीं थी. घर में रह कर घर का काम करने में उसे बहुत आनंद आ रहा था.

सप्ताह बाद वह फिर से अपने रुटीन में आ गई. दिवाकर बौस से मिलने के बाद अकसर उन से फोन पर बात करता रहता था जो उसे बिलकुल पसंद नहीं था. वह उस के बौस से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ था पर वह हालात की नजाकत को देख कर चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रही थी.

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Women’s Day Special- फैसला: भाग 2

एक बार बौस ने उसे अपने केबिन में बुलाया और कहा कि औफिस के किसी काम से वे दिल्ली जा रहे हैं, उसे उन के साथ चलना होगा. एक सप्ताह के वेतन के साथ उसे अतिरिक्त रुपया मिलेगा और दिल्ली में रहनाखाना कंपनी के खर्चे पर. लेकिन उस ने साफ शब्दों में इनकार कर दिया और बहाना बना दिया कि पति उसे इस बात की आज्ञा नहीं देंगे.

उस दिन जब वह घर पर आई तो देखा ड्राइंगरूम में एक नई अटैची रखी हुई थी, तभी दिवाकर उस के लिए चाय बना कर ले आया. चाय तो अकसर वह वैसे भी बना कर पिलाता था. उसे पता है कि थकान हो या गुस्सा, चाय पीते ही वह शांत हो जाती है. दोनों चाय पीने लगे.

श्रुति के मन में अटैची के बारे में  जानने की उत्सुकता हो रही थी,  अंदर ही अंदर दिल कुछ अच्छी खबर सुनने को लालायित था. उस ने अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए खुशी को छिपाते हुए पूछा, ‘हम दोनों कहीं बाहर घूमने जा रहे हैं क्या? कहां का प्रोगाम बनाया है?’

दिवाकर बोला, ‘हम नहीं, सिर्फ तुम.’

श्रुति हैरानी से उस की तरफ देखने लगी तो उस ने बौस के साथ हुई सारी बात बताई और कहा कि श्रुति, तुम्हें अपने बौस के साथ 7 दिन के लिए औफिस टूर पर दिल्ली जाना है. उसी के लिए वह अटैची लाया है. पता नहीं उस दिन ऐसा क्या हुआ कि वर्षों का दबा हुआ लावा निकल कर बाहर आ गया. श्रुति का तनमन जल उठा.

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दिवाकर द्वारा लाई गई अटैची को उस ने बालकनी से नीचे फेंक दिया और उस को दोटूक जवाब दे दिया कि वह बौस के साथ दिल्ली नहीं जाएगी. ऐसा कहने पर दिवाकर बहुत नाराज हुआ. उस ने कहा कि उस के द्वारा किए वादे का क्या होगा जो उस ने बौस से किया है और फिर वहां रहनेखाने का खर्चा भी तो कंपनी ही उठाएगी. सप्ताह का अतिरिक्त रुपया भी तो मिलेगा. उस दिन वह अपने होशोहवास खो बैठी, एकदम फूट पड़ी, ‘दिवाकर, तुम्हें क्या हो गया है, सारा वक्त तुम पैसापैसा क्यों करते रहते हो. अपने पास किस चीज की कमी है? अपना परिवार बढ़ाने की क्यों नहीं सोचते हो? मैं आज तक नहीं समझ पाई तुम्हारी ख्वाहिशें कब पूरी होंगी.’

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दिवाकर ऊंची आवाज में बोला था, ‘तुम जाओगी या नहीं?’

श्रुति के न करते ही उस ने उस के गाल पर जोर से थप्पड़ मारा. थप्पड़ की झन्नाहट आज भी उस के कानों में गूंज रही है. वह एकदम से चिल्लाया था, ‘तुम्हें जाना पडे़गा क्योंकि मैं ने तुम्हारे बौस को हां कर दी है.’

श्रुति उस दिन उस से भी तेज आवाज में चिल्लाई थी, ‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम ने मेरे से पूछ कर बोला था क्या?’

दिवाकर ने कहा, ‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं तुम्हारी इजाजत के बिना कुछ भी कर सकता हूं और पत्नी होने के नाते तुम्हें मेरा कहना मानना होगा.’

श्रुति उस को देखती रह गई. वह पछता रही थी कि ऐसा दिवाकर में उस ने क्या देखा जो उस के साथ सात फेरे लिए.

दिवाकर द्वारा जोर से थप्पड़ मारने पर उसे रोना नहीं आया बल्कि अपने पर अफसोस हो रहा था कि इस दरिंदे के साथ इतने वर्षों तक क्यों रही, बहुत पहले ही चले जाना चाहिए था. उस रात दिवाकर से ज्यादा सवालजवाब किए बिना वह एक बैग में जितने कपड़े आ सकते थे, रख कर हमेशा के लिए उस को छोड़ आई.

टे्रन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी  और पुरानी यादों का सिलसिला  जारी था. श्रुति कभी गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछ लेती और फिर विचार तंद्रा में खो जाती.

वह मम्मीपापा के पास आ तो गई पर अब क्या करेगी, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे. पापा ने समझाया था कि बेटा, वापस दिवाकर के पास चली जाओ पर उस ने साफ इनकार कर दिया था, ‘पापा, मैं उस के पास हरगिज नहीं जाऊंगी. दिवाकर को पत्नी की जरूरत नहीं है. उस को रुपया कमाने वाली मशीन चाहिए, जिस की अपनी कोई इच्छा न हो, कोई भावना न हो, अपने ढंग से जीने के माने जिस के लिए महत्त्व नहीं रखते हों, उस के साथ कोई कैसे रहे.

‘मैं इतने वर्षों से अपना पूरा वेतन उस के हाथों में रखती आई थी. अभी भी आते समय मैं ने रुपयों के बारे में उस से झगड़ा नहीं किया. अपनी खुद की मेहनत से कमाए हुए रुपए भी उस से नहीं मांगे. मैं तो सिर्फ घर चाहती थी जहां बच्चों की किलकारियां हों.

‘मैं अपने छोटेछोटे सपनों को सच होते देखना चाहती थी पर दिवाकर को इन सब से नफरत थी, वह सिर्फ पैसा चाहता था, उस के लिए शायद वह अपने को किसी हद तक गिरा भी सकता था. इतने वर्षों में मैं ने दिवाकर को जितना समझा उस आधार पर मैं कह सकती हूं कि वह धनलोलुप इंसान है. उस के लिए किसी की इच्छाएं कोई माने नहीं रखतीं. पापा, उस ने मेरे को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. हम दोनों की शादी को 10 वर्ष हो गए पर आज तक उस ने धन जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचा.

‘जब मैं औफिस से आती थी तो घर मुझे खाने को दौड़ता था. पूरा घर मुझे व्यवस्थित मिलता था, कभी कोई वस्तु अपनी जगह से हिलाई नहीं जाती थी. हिलाता भी तो कौन, घर में हम दोनों ही तो थे. हमारा घर सभी सुविधाओं से अटा पड़ा था पर हम दोनों में से किसी को भी उन का उपयोग करने का समय नहीं था और न ही मन. उस का तो मुझे नहीं पता पर मैं इन सुविधाओं से ऊब चुकी थी. मन करता था इन सब से दूर जा कर कहीं खुल कर सांस लूं, खुले आसमान को निहारूं, पक्षियों की आवाज सुन कर दिल को चैन दूं, वृक्षों के बीच जा कर उन से अपने दिल की बात कहूं. कहते हैं वृक्ष भी बोलते हैं पर वे चाहे मुझ से न बोलें पर मेरे दिल की बात तो सुन सकते हैं और आप से कहती हूं, मैं ही नहीं, दिवाकर भी कभी खुश नजर नहीं आता था. उस को कभी भी संतोष नहीं होता था, वह हमेशा जोड़ने की फिराक में रहता था.’

ट्रेन ने फिर से रफ्तार पकड़ ली. श्रुति को ध्यान आया जब वह मम्मीपापा के पास आ गई थी तो वे लोग कितने चिंतित हो गए थे कि अब क्या होगा. वह स्वयं परेशान थी, क्या करेगी. दिवाकर के साथ रह कर नौकरी करना उस की जरूरत नहीं थी, उस के दबाव में आ कर कर रही थी पर अब मजबूरी है. वह मम्मीपापा, भाभी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी.

ज्यादा भागदौड़ किए बिना उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई. स्कूल के पीछे ही उस के रहने की व्यवस्था थी. वह बहुत खुश थी. बच्चों का साथ था. 8वीं कक्षा तक का स्कूल था. दिनभर तो व्यस्त रहती थी परंतु रात के समय उस का अतीत उसे डसने लगता था. हमेशा यही विचार आता, काश, दिवाकर की सोच अच्छी होती तो उस के वैवाहिक जीवन में यह मोड़ न आता. हालांकि आज तक उस के और दिवाकर के बीच में तलाक नहीं हुआ है. दोनों में से किसी एक ने भी इस बारे में नहीं सोचा. पता नहीं, वह कैसा है पर उस की जिंदगी पटरी से उतर चुकी है.

आर्थिक दृष्टि से मजबूत है फिर भी जिंदगी में खालीपन है. आज उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. जिस मार्ग पर वह चाह कर भी नहीं चलना चाहती थी उसी पर चलना पड़ रहा है. थोड़ी समझदार होने के बाद से ही वह सोचा करती थी कि नौकरी कभी नहीं करूंगी. अपना प्यारा सा घर बसाऊंगी, जहां प्यार ही प्यार होगा पर वह जो चाहती थी उस को नहीं मिला. उस का घरपरिवार तो कभी बना ही नहीं.

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कल पापा के नाम तार आया था. दिवाकर की मां का देहांत हो गया. पता नहीं उन लोगों ने क्यों सूचित किया. इस से पहले दिवाकर के बड़े भाई का देहांत हुआ था तब तो सूचना नहीं आई थी. उस समय यदि इत्तला कर देते तो शायद वह चली जाती. और हो सकता था कि जिंदगी में नया मोड़ आ जाता पर अब उन लोगों को उस की याद आई है. उसे पापा ने फोन पर जब इस बारे में बताया था तो उस ने बोल दिया था, ‘तो क्या हुआ, दुनिया में हर दिन कितनी ही मौतें होती हैं. दिवाकर की मां की भी मौत हो गई तो क्या हुआ, मैं वहां जा कर क्या करूंगी.’

श्रुति के इस जवाब से उस के पापा बुरी तरह से नाराज हुए.

Women’s Day Special- फैसला: भाग 3

अगले दिन ही मम्मीपापा और भैया उस के घर आ पहुंचे. उन के बहुत समझाने पर वह दिवाकर की मम्मी के तेरहवीं पर जाने को तैयार हुई थी. हालांकि उसे अपने सासससुर से कभी कोई शिकायत नहीं रही. वे लोग एक ही शहर में रहे थे. शुरू में साथ ही थे पर दिवाकर ने प्रौपर्टी बनाने के लिए अलग फ्लैट खरीदा था. मम्मीपापा आते रहते थे. धीरेधीरे उन को दिवाकर और श्रुति के बीच विचारों का जो मतभेद था उस का एहसास हो गया था. उन्होंने दिवाकर को समझाने की बहुत कोशिश की पर उस पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने उन दोनों के उन के हाल पर छोड़ दिया.

ट्रेन के रुकते ही उस की विचारतंद्रा भंग हुई. वह अपने मम्मीपापा और भैया के साथ स्टेशन से बाहर आ गई. अब उस शहर में पहुंचते ही उस को लग रहा था वह एकदम अनजान शहर में आ गई है जबकि यहां उस ने अपनी जिंदगी के पूरे 10 वर्ष बिताए थे. ससुराल के घर पहुंच कर घंटी बजाने पर जिस व्यक्ति ने दरवाजा खोला उसे देख कर वह घबरा गई. आधे काले, आधे सफेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखों पर चश्मा…उस ने ध्यान से देखा, पैरों में जूतों की जगह गंदी चप्पल. क्या यह वही दिवाकर है? वह ऐसा हो गया? उस को देख कर तो नहीं लगता कि वह कभी वैभवपूर्ण जिंदगी जी रहा था. उस का वैभवहीन व्यक्तित्व देख कर वह हैरान हो गई.

पीछे दिवाकर की बड़ी बहन सीमा दीदी खड़ी थीं. श्रुति ने उन के पैर छुए. वे उस को गले लगा कर बुरी तरह रोने लगीं पर उसे रोना नहीं आ रहा था. कुछ देर वे अपना मन हलका कर वहां से हटीं और उसे दिवाकर के पापा के पास ले गईं. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटी?’’

श्रुति ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं.’’

उसे वहां घुटन हो रही थी. मन ही मन डर था, दिवाकर का सामना कैसे कर पाएगी. उस की परछाईं से ही उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है. धीरेधीरे घर के सभी सदस्यों से मिलना हो रहा था.

उसे जेठानी दीदी कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं. उस का मन डर गया. कहीं इन लोगों ने उन को भी उन के पीहर तो नहीं भेज दिया.

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दिवाकर के भैया दिवाकर से 1 वर्ष ही बड़े थे लेकिन उन की शादी उस के बाद हुई थी. पर किस से पूछे. यहां तो सब लोग उसे ही पराया समझ रहे हैं. वैसे वह तो है भी पराई. वह स्वयं अपने को मेहमान भी मानने के लिए तैयार न थी. हालांकि दिवाकर के अतिरिक्त उसे किसी भी सदस्य से कोई शिकायत न थी. सामने नजर पड़ी तो देखा, दिवाकर सीढि़यों से नीचे उतर रहा था. शायद उस ने श्रुति को नहीं देखा था. उस का मन हुआ, वह वहां से हट जाए पर फिर सोचा, अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद ही सही, सामना तो होना ही है. अब जब यहां आ ही गई है, कब तक उस से बचती फिरेगी. उस ने उस को नजरअंदाज करने के लिए उस तरफ पीठ कर ली.

उसे लगा दिवाकर के कदम उस की तरफ आ रहे हैं लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, केवल एहसास से अनुभव किया. कुछ ही पलों में दिवाकर उस के सामने आ गया. उसे देख कर उस की आंखों में हैरानी और पश्चात्ताप के भाव नजर आ रहे थे. उस को शायद उम्मीद ही नहीं होगी कि वह आएगी. उस की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी. वह पूरी तरह से टूट चुका था.

अब तो अभिमान ही नहीं स्वाभिमान भी नहीं रहा था. उस की ऐसी दशा देख कर पलभर के लिए वह विचलित हो गई. पर एकाएक उस ने अपने को संभाल लिया. सोचने लगी, यह वही दिवाकर है जिस ने उसे हमेशा अपने ढंग से जीने को मजबूर किया. उस के व्यक्तित्व को अपनी इच्छाओं तले रौंदा, कभी जीवन जीने नहीं दिया. उस की गलती यही थी कि उस ने कभी इस से प्यार किया था, जिस की सजा भुगत रही है. पर शायद इस ने सिर्फ अपनेआप से प्यार किया. नहीं, मैं इस को कभी माफ नहीं कर सकती.

अचानक दिवाकर की आवाज से वह डर सी गई, ‘‘श्रुति, कैसी हो? चलो उधर चलते हैं.’’

नहीं चाहते हुए भी उस के कदम दिवाकर के पीछेपीछे चल दिए. वे दोनों मम्मी वाले कमरे में गए.

‘‘बैठ जाओ, श्रुति,’’ दिवाकर बोला,  ‘‘तुम वापस आ जाओ, मुझे अपने द्वारा किए गए व्यवहार का बहुत दुख है. हमें माफ कर दो.’’

पर उस का दिल तो पत्थर बन चुका था. वह कुछ नहीं बोली. उस की बातों पर उस ने कुछ भी रिऐक्ट नहीं किया. उस ने पूछा, ‘‘तुम कैसी हो, कैसे जीवननिर्वाह कर रही हो?’’

उस का मन तो किया, उस को कहे कि तुम होते कौन हो यह सब पूछने वाले पर चुप रह गई. उस ने उस से जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसा है, क्या करता है, कहां रह रहा है.

‘‘तुम्हारे जाने के सालभर बाद मैं यहां मम्मीपापा के साथ रहने आ गया था,’’  उस ने खुद ही बताया, ‘‘वह फ्लैट सामान सहित मैं ने बेच दिया. वहां से अपनी व्यक्तिगत जरूरत की वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारा महत्त्व समझ में आया. तुम्हारे बिना जिंदगी के माने कुछ नहीं रहे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम्हारे पास आ कर माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.’’

श्रुति के दिल ने कहा, ‘काश, दिवाकर उस समय तुम ऐसा कर पाते.’ श्रुति का मन दीदी के बारे में जानने को कर रहा था पर वह चुप रही. उसी समय सीमा दीदी आ गईं. दिवाकर के साथ अकेले में रहने में उसे घुटन सी हो रही थी. दीदी के आने पर राहत महसूस हुई.

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‘‘तुम दोनों को पापा बुला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा.

वे दोनों पापा के पास गए. पापा ने कहा, ‘‘दिवाकर कल रिंकू को लेने उस के होस्टल गया था. वह कल आएगी. आज उस की कोई परीक्षा थी. बहू, बड़ी बहू का देहांत हो चुका है. उस समय हम लोगों ने तुम्हें नहीं बताया, इस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं. अब दिवाकर की मां भी नहीं रहीं. इसलिए रिंकू की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं. आशा है तुम इनकार नहीं करोगी. दिवाकर के साथ रहने का या नहीं रहने का फैसला तुम्हारे पर ही छोड़ता हूं.’’

आज दिवाकर की मां की मृत्यु को हुए कई दिन बीत चुके थे. तेरहवीं का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया. रिंकू भी पहुंच गई थी. रात को ही रिंकू को अपने साथ ले कर श्रुति भारी मन से वापस आ गई. वह उस से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे कोई बच्चा डर के बाद मां की गोद से चिपक जाता है. दिवाकर श्रुति व रिंकू को छोड़ने आया था पर दोनों के बीच फासला बना रहा.

श्रुति सोच रही थी जो दिवाकर नहीं कर सका वह बेचारी जेठानी दीदी ने दुनिया से जा कर कर दिखाया. मेरी सूनी गोद भर दी. वह आ तो गई पर ससुर की वृद्धावस्था और दिवाकर के हालात ने उसे फैसला बदलने को मजबूर कर दिया. उस ने तय किया कि रिंकू को होस्टल से हटा कर उस के दादाजी व चाचा के पास रह कर पढ़ाएगी. इस छोटी सी बच्ची को अपनों से दूर रहने को मजबूर नहीं करेगी. अब अगर नौकरी करेगी तो उसी शहर में जहां बच्ची के अपने घर वाले हैं और चाची के रूप में वह उस की मां है.

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