समस्या: लोन, ईएमआई और टैक्स भरने में छूट मिले

डाक्टर अर्जिनबी यूसुफ शेख

देशभर के कारोबारी आज कोविड 19 के चलते लगे लौकडाउन से बुरी तरह त्रस्त हैं. बाजार बंद हैं. लिहाजा, सामान या तो दुकान और गोदाम में सड़ रहा है या फिर आ नहीं रहा है और न ही जा रहा है, पर खर्च वहीं के वहीं हैं. कहींकहीं कारोबारी कुछ छुटपुट होहल्ला कर रहे हैं, पर उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

महाराष्ट्र के अकोला जिले में कोरोना के बाद के हालात देखें. वहां कारोबारियों ने जगहजगह मोरचे निकाले. ‘लोग मरेंगे कोरोना से, हम तो वैसे ही मर जाएंगे’ के नारे लगाए.

कुलमिला कर कोरोना के चलते अब लौकडाउन सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा है… कोढ़ पर खाज यह है कि कोरोना मरीज रोजाना बढ़ते ही जा रहे हैं. उन की दैनिक इन्क्वायरी, देखभाल और दवा की कमी जनता में चिंता की बात बनी हुई है. साथ ही, रोजगार और कारोबार कोरोना की चपेट में होने से आजीविका चला पाना मुश्किल हो गया है.

‘अशोक फैशंस’ के रोहित भोजवानी का कहना है, ‘‘पिछले एकडेढ़ साल से उपजी कोरोना महामारी में बड़े कारोबारी अपनेआप को संभाले हुए हैं, लेकिन छोटेमोटे कारोबारी बड़ी बदहाली से गुजर रहे हैं.

‘‘ऐसे कारोबारी वे हैं, जिन्हें अपनी दुकान का किराया देना होता है, लोन और ईएमआई भी देनी होती है, बिजली  के बिल भरने होते हैं, अपने कामगारों को भी संभालना होता है और अपने  घर को भी चलाना होता है.

‘‘सरकार या प्रशासन की ओर से ऐसे कारोबारियों के लिए न तो कोई नीति है और न ही कोई सुविधा. कोरोना में लगे लौकडाउन से यह सीजन भी कारोबारियों के हाथ से निकल चुका है.’’

आलोक खंडेलवाल काफी सालों से एक बुक स्टौल चला रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘‘कोरोना का इलाज है, पर इस की दहशत इतनी फैल चुकी है कि ‘कोरोना पौजिटिव है’ सुनते ही मरीज आधा मर जाता है. दूसरी ओर कारोबारी, मजदूर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या?

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‘‘सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं कि कोई खाए या भूखा सोए, बल्कि उसे तो केवल अपने टैक्स से मतलब है, जो कारोबारियों को हर हाल में भरना ही भरना है. न कारोबारियों के लिए कोई सुविधा है, न ही कोई छूट.

‘‘वैक्सीनेशन के लिए औनलाइन रजिस्ट्रेशन और उस की फीस मध्यमवर्गीय जनता के लिए चिंता की बात बनी हुई है, तो गरीब जनता कहां जाए और क्या करे?

‘‘कारोबारी तबका स्वाभिमान से जीता आया है, पर कोरोना की इस विकट घड़ी में भरे जाने वाले टैक्स से उसे राहत दी जानी चाहिए.’’

पशु खाद्य विक्रेता अजय बजाज से जब पूछा गया कि इस लौकडाउन को वे कितना उचित मानते हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘लौकडाउन समय की जरूरत है. अगर यह नहीं होता, तो हो सकता है कि मरने वालों की तादाद और ज्यादा बढ़ जाती. पौजिटिव केस ज्यादा बढ़ जाने से उन्हें संभाल पाना मुश्किल होता.

‘‘हां, यह जरूर है कि लौकडाउन से छोटेमोटे कारोबारियों का जीना मुहाल हो चुका है. उन की मदद के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है. कारोबारियों को अपना बो झ खुद ढोना पड़ रहा है.

‘‘कुछ कारोबारी मजबूरी के चलते बैकडोर से अपने कारोबार चला रहे हैं. कुछ सजा के डर से घरों में बैठे हैं, पर वे मानसिक तनाव के शिकार होते जा रहे हैं. आमदनी के रास्ते बंद हैं, पर खर्च चलाना अनिवार्य होने से वे मानसिक रूप से तनाव के बो झ तले दबते जा रहे हैं.

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‘‘इस मुश्किल घड़ी में जनता नियमों का पालन करे, सावधानी बरते तो हम कोरोना को जल्दी ही मात दे सकते हैं. बिगड़ते हालात संभल सकते हैं. होना यह चाहिए कि छोटेमोटे कारोबारियों को लोन, ईएमआई, टैक्स, बिजली के बिल भरने में जरूर कुछ सुविधा या छूट दी जाए.’’

लगातार लौकडाउनों के बावजूद सरकार ने टैक्सों में कोई छूट नहीं दी है और आगे देगी, इस की बात भी नहीं की जा रही है.

दुविधा: जब बेईमानों का साथ देना पड़े!

लेखक- धीरज कुमार

बिहार में डेहरी औन सोन के रहने वाले मदन कुमार एक राष्ट्रीय अखबार के लिए ब्लौक लैवल के प्रैस रिपोर्टर का काम करते हैं. वे पत्रकारिता को समाजसेवा ही मानते हैं.

बेखौफ हो कर वे अपने लेखन से समाज को बदलना चाहते हैं, लेकिन उन के स्थानीय प्रभारी से यह दबाव रहता है कि खबर उन्हीं लोगों की दी जाए, जिन से उन्हें इश्तिहार मिलते हैं. जो इश्तिहार नहीं दे पाते हैं, उन की खबर बिलकुल नहीं दी जाए, भले ही खबर कितनी भी खास क्यों न हो.

मदन कुमार के प्रभारी उन लोगों के बारे में अकसर लिखते रहते हैं, जिन से उन्हें दान के तौर पर कुछ मिलता रहता है. भले ही वे लोग दलाली और भ्रष्टाचार कर के पैसा कमा रहे हैं. अपने ब्लौक के भ्रष्टाचारियों और दलालों की खबरों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. उन के बारे में गुणगान पढ़ कर मन दुखी हो जाता है. कभीकभी तो उन के प्रभारी कुछ लोगों से मुंह खोल कर पैट्रोल खर्च, आनेजाने के खर्चे के नाम पर पैसे लेते रहते हैं.

वहीं मदन कुमार द्वारा काफी मेहनत और खोजबीन कर के लाई गई खबरों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, न ही छापा जाता है या बहुत छोटा कर दिया जाता है, क्योंकि उन संस्थाओं से प्रभारी महोदय को नाराजगी पहले से रहती है या कोई ‘दान’ नहीं मिला होता है, इसलिए वे कुछ दिनों से अपने प्रभारी से बहुत नाराज हैं.

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वे अकसर कहते हैं कि अब पत्रकारिता छोड़ कर दूसरा काम करना ठीक रहेगा और इस के लिए वे कोशिश भी कर रहे हैं. उन्हें इस प्रकार की दलाली पत्रकारिता से नफरत होती जा रही है.

मदन कुमार का कहना है, ‘‘अगर बेईमानी से ही कमाना है तो फिर पत्रकारिता में आने की क्या जरूरत है? बेईमानी के लिए बहुत सारे रास्ते खुले हुए हैं. और फिर मुंह खोल कर किसी से पैट्रोल और आनेजाने के खर्चे के नाम  पर पैसे मांग कर अपना ही कद छोटा करते हैं.

‘‘आम लोग इस तरह के बरताव से सभी रिपोर्टरों को एक ही तराजू पर तौलते हैं, इसीलिए आज स्थानीय पत्रकारों को कोई तवज्जुह नहीं देता है. लोग उन्हें बिकाऊ और दो टके का सम झते हैं, जबकि पत्रकारिता देश का चौथा स्तंभ माना जाता है.

‘‘इस तरह के बेईमानों के साथ काम करने पर मन को ठेस पहुंचती है. ईमानदारी से काम करने वाले के दिल को यह सब कचोटता है, खासकर तब जब आप का बड़ा अधिकारी ही बेईमान हो. आप उस का खुल कर विरोध भी नहीं कर सकते हैं. विरोध करने का मतलब है, अपनी नौकरी को जोखिम में डालना.’’

औरंगाबाद के रहने वाले नीरज कुमार सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. सरकारी विद्यालय में बच्चों को मिड डे मील के लिए सरकार द्वारा चावल और पैसे दिए जाते हैं. उन के विद्यालय के प्रधानाध्यापक मिड डे मील के चावल और पैसे की हेराफेरी करते रहते हैं.

जब कभी बच्चों की लिस्ट बनानी हो, तो उसे नीरज कुमार ही तैयार करते हैं. वे जानते हैं कि गलत रिपोर्ट बना रहे हैं, फिर भी वे उस गलत रिपोर्ट का विरोध नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें हर हाल में प्रधानाध्यापक की बात माननी पड़ती है.

एक बार प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को इस बारे में शिकायत की थी. तब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी का कहना था, ‘आप अपने काम से मतलब रखिए. दूसरों के काम में अड़ंगा मत डालिए. आप सिर्फ अपने फर्ज को पूरा कीजिए.’

बाद में नीरज कुमार को पता चला कि इस हेराफेरी में प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को भी कमीशन के रूप में पैसा मिलता है. उन का कमीशन फिक्स है, इसलिए वे ऐसे शिक्षकों को हेराफेरी करने से रोकते नहीं हैं, बल्कि सपोर्ट करते हैं. इस सब में नाजायज कमाई करने का एक नैटवर्क बना हुआ है.

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तब से नीरज कुमार अपने विद्यालय के गरीब बच्चों के निवाला की हेराफेरी करने वाले अपने प्रधानाचार्य का विरोध नहीं करते हैं. उन का कहना है, ‘‘मैं सिर्फ अपने फर्ज को पूरा करता हूं. यह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, इसलिए मैं इस के बारे में चुप रहता हूं.

‘‘मैं सिर्फ पढ़ानेलिखाने पर ध्यान देता हूं. मैं आर्थिक मामलों में कुछ भी दखलअंदाजी नहीं करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करने का मतलब है अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना यानी अपना ही नुकसान करना.

‘‘वैसे भी आप शिकायत करने किस के पास जाएंगे? जिन के पास भी जाएंगे यानी आप ऊपर के अधिकारी के पास जाएंगे तो उस की कमाई भी उस हेराफेरी से होती है, इसलिए वैसे लोग उस हेराफेरी को रोकने से तो रहे. बदले में आप का नुकसान भी कर सकते हैं. आप का ट्रांसफर करा देंगे.

‘‘आप को दूसरे मामले में फंसा कर नुकसान पहुंचाना चाहेंगे. अगर आप को शांति से नौकरी करनी है, तो अपना मुंह बंद रखना ही होगा.’’

इस तरह की बातों से यह साफ है कि जब बेईमानों के साथ काम करना पड़े या साथ देना पड़े, तो यह जरूरी है कि हम उन से अपनेआप को अलगथलग रखें. हमें जो काम और जिम्मेदारी दी गई है, उस को बखूबी निभाएं.

बेईमान सहकर्मी के बारे में जहांतहां शिकायत करना भी ठीक नहीं है. इस  से आप की उस से दुश्मनी बढ़ने लगती है. शिकायत से कोई फायदा नहीं  होता है. आप के बनेबनाए काम भी बिगड़ जाते हैं, इस से खुद का ही नुकसान होता है. आप दूसरों को सुधारने के फेर में खुद का ही नुकसान कर लेते हैं.

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अगर आप अपनी भलाई चाहते हैं, तो ज्यादा रोकटोक न करें. उन की बेईमानी की कमाई में किसी तरह का अड़ंगा न डालें.

मुमकिन हो, तो उन्हें किसी दूसरे तरीके से बताने की कोशिश करें. अगर वे आप के इशारे को सम झ जाते हैं, तो उचित है वरना अपने काम से मतलब रखें, क्योंकि उन का सीधा विरोध करने पर दुश्मनी महंगी पड़ सकती है.

कोरोना में शादी ब्याह: इंसान से इंसान दूर, सामाजिकता हुई चूर चूर

बचपन में जब मैं गांव की शादी में जाता था, तब 2 लोगों पर मेरी नजरें जमी रहती थीं. पहला आदमी वह, जो मिठाइयों की कोठरी या कमरा संभालता था और दूसरा नाई समाज का वह आदमी, जिस के पास शादीब्याह वालों का वह नया चमचमाता संदूक होता था, जिस में शादी से जुड़ा खास और कीमती सामान होता था.

जिस आदमी पर मिठाई संभालने की जिम्मेदारी होती थी, मु झे उस से अनचाही जलन होती थी कि यह ऐसा क्या चौधरी बन गया, जो इस की इजाजत के बिना कोई बच्चा भी कमरे से 2 लड्डू नहीं ला सकता है.

दरअसल, गांवदेहात में शादी के घर में मिठाई की जिम्मेदारी उस आदमी को दी जाती थी, जो खुद साफसुथरा रहता हो, ईमानदार हो और जिस के हाथ में बरकत हो. ऐसे ही लोगों की सावधानी से बिना किसी फ्रिज के ऐसी मिठाइयां भी कईकई दिनों तक चल जाती थीं, जिन का जल्दी खराब होने का खतरा बना रहता था.

बताता चलूं कि तब के शादीब्याह में चीनी की बोरी के इस्तेमाल से लोगों की हैसियत पता चलती थी. जिन के घर शादी में मिठाई के लिए जितनी ज्यादा बोरियां खुलेंगी, वह उतना ही पैसे और रुतबे वाला. तब घराती और बराती को भी मीठा खाने से मतलब होता था.

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जहां तक संदूक वाले नाई समाज के आदमी की बात है, तो वह शादी वाले दिन सब से अहम माना जाता था. घर की औरतें जो सामान जैसे गहने, कपड़े और दूसरी चीजें उस संदूक में रखती थीं, उन्हें किस रस्म के दौरान कब और किसे देना है, यह वह आदमी बखूबी जानता था.

एक और बात तो बताना भूल ही गया. मुझे शादी के बाद की एक रस्म बहुत रिझाती थी, जिस में घर आई नई दुलहन के साथ उस का दूल्हा संटी मारने वाला खेल खेलता था. रस्में तो और भी बहुत होती थीं, पर इस रस्म का मजा अलग ही था.

हालांकि यह रस्म दूल्हादुलहन के संटी (शहतूत की पतली टहनी) मारने के खेल से शुरू होती थी, पर बाद में देवर को भी अपनी भाभी के साथ यह खेल खेलने दिया जाता था. बाकी लोग खड़े हो कर मजे लेते थे.

कहींकहीं आज भी इस रस्म को बस निभाने के लिए खेला जाता है, क्योंकि न तो शहरों में शहतूत के पेड़ मिलेंगे और न ही लोगों के पास इतना समय है कि वे शादी निबटने के बाद ऐसे खेलों का मजा ले सकें.

अब तो संदूक संभालने के लिए भी नाई समाज का सहारा नहीं लिया जाता है और न ही नातेरिश्तेदारों के पास इतना समय है कि वे किसी के घर की मिठाइयों का ब्योरा रखें. अब तो खानेपीने का काम हलवाई को ठेके पर दे दिया जाता है. दुकान से ही डब्बों में पैक हो कर मिठाइयां आ जाती हैं और संदूक ले जाने का रिवाज पुराना और बेतुका हो गया है.

पिछले डेढ़ साल में जब से कोरोना ने पूरी दुनिया पर अपना पंजा जमाया है, तब से शादीब्याह भी न के बराबर हुए हैं. अगर हुए भी हैं, तो ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ के चलते लोगों की सीमित संख्या ने मजा किरकिरा कर दिया है.

भारत में तो बहुत से लोग इसे आपदा में अवसर मान कर सही ठहरा रहे हैं कि कम लोगों को शादी में ले जाने से बेवजह की फुजूलखर्ची नहीं होगी और बीमारी के समय लोग भी महफूज रहेंगे. पर इस का दूसरा पहलू यह भी है कि कोरोना काल में शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़ों के अरमान अधूरे रह गए हैं, जो ऐसे मौके को यादगार बनाना चाहते थे.

भारत में शादीब्याह उत्सव से कम नहीं होता है. परिवार, नातेरिश्तेदार, दोस्तयार का मिलनाजुलना होता है, हंसीमजाक होता है, खानापीना होता है, साथ ही समाज में अपना दायरा बढ़ाने का मौका होता है, जो अब नहीं हो पा रहा है. आपसी रिश्तों में मेलमिलाप तो क्या, सामाजिक दूरी बन रही है.

कोरोना काल में दिल्ली में हुई एक शादी का जिक्र छेड़ते हैं. पीरागढ़ी चौक के नजदीक एक राजसी बैंक्वैट हाल के फर्स्ट फ्लोर में इंतजाम था. हाल में घुसते ही बड़े दरवाजे से पहले जहां कभी खूबसूरत लड़कियां गुलाबजल छिड़क कर लोगों का स्वागत करती थीं, वहां एक थाल में मास्क रखे हुए थे और दूसरे थाल में हैंड सैनेटाइजर की बोतलें.

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भीतर नाममात्र के लोग इधर से उधर टहल रहे थे. दोनों पक्षों के बड़े ही नजदीकी रिश्तेदार या फिर यारदोस्त जमा हुए थे. पंडित का सारा ध्यान इसी बात पर था कि जल्दी से शादी निबटाए और दानदक्षिणा बटोर कर निकल ले.

शादियां तो देशभर में हुई थीं और बहुत सी तो अखबारों की सुर्खियां भी बनी थीं. कहीं दूल्हे की पेट से हुई भाभी बरात में नहीं जा पाई, तो कहीं दुलहन की खास सहेली को शादी में जाने की इजाजत नहीं मिली. 20 लोगों के ब्याह में किसे साथ ले जाएं और किसे हाथ जोड़ कर मना करें, यह सब से बड़ी दुविधा थी.

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में रहने वाले एक एडवोकेट दीपक भार्गव के एकलौते बेटे हेमंत भार्गव की शादी 2 मई को तय की गई थी. दीपक भार्गव ने

30 अप्रैल को रोका और सगाई रस्म के लिए मयूर विहार में एक बैंक्वैट हाल बुक किया था और शादी के लिए मोतीनगर में इंतजाम कराया था, पर जैसा सोचा वह हो नहीं पाया.

दीपक भार्गव ने बताया, ‘‘दोबारा लौकडाउन लगने से हमारी मुश्किलें बढ़ गई थीं. लोगों का 30 अप्रैल के बाद दोबारा 2 मई को आना प्रैक्टिकल नहीं लग रहा था. लिहाजा, हम ने फैसला लिया कि 2 तारीख को मोतीनगर में ही तीनों रस्में पूरी कर लेंगे, क्योंकि वहां 350 लोगों का इंतजाम किया गया था.

‘‘पर, शादी से तकरीबन 5 दिन पहले मोतीनगर के बैंक्वैट हाल वालों का फोन आया कि वहां शादी नहीं हो सकती है, क्योंकि पूरे स्टाफ को कोरोना हो गया है. इस तरह हमारा दोनों जगह दिया गया एडवांस फंस गया.

‘‘अब मुसीबत यह थी कि नया इंतजाम क्या करें, क्योंकि अब तो ज्यादा लोग भी बुलाने की इजाजत नहीं थी. फिर हम ने आननफानन में घर के पास एक बैंक्वैट हाल बुक किया, जहां मुश्किल से 50 लोग शादी में शामिल हुए.

‘‘वैसे कई बार यह भी खयाल आया कि शादी आगे सरका देते हैं, पर चूंकि अब मेरी पत्नी इस दुनिया में नहीं हैं और मेरी माताजी भी बीमारी की वजह से घर के काम नहीं कर सकती हैं, इसलिए  घर पर एक महिला सदस्य की बहुत जरूरत थी.

‘‘सच कहूं तो यह नाम की शादी थी. मेरे आसपड़ोस के लोग नहीं आ पाए. उन के लिए शादी से पहले घर के आगे ही एक स्पैशल पार्टी रखी और अपने सर्कल के लोगों को फिर कभी किसी मौके पर पार्टी दूंगा.’’

पूर्वी दिल्ली में रहने वाले एक जानकार ने बताया, ‘‘पिछले लौकडाउन में हमारे पड़ोस में एक लड़के की शादी हुई, तो पड़ोसी ने न तो ढंग से किसी को न्योता दिया और न ही कायदे की पार्टी दी, जबकि उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. वैसे, किसी दूसरे के घर अगर कोई समारोह होता, तो वे खानेपीने में सब से आगे रहते थे.

‘‘हमें सब से ज्यादा ताज्जुब तब हुआ, जब उसी घर में उन्हीं दिनों एक नई बहू और आ गई. बाद में पता चला कि उन का दूसरे लड़के का पहले से उस लड़की के साथ अफेयर चल रहा था, तो उन्होंने मौके का सही फायदा उठाया. न बैंडबाजा और न बरात, दुलहन चोखी  आ गई.

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‘‘कुछ दिन में किन्नर अपना नेग मांगने आए, तो उन्हें भी इस बात की कानोंकान खबर नहीं हुई कि इस घर में एक नहीं, बल्कि 2-2 बहुएं आई हैं. किन्नरों को एक शादी का नेग दे कर चलता कर दिया.’’

ऐसे ही एक पड़ोसी के यहां उन के दूर के जानकार के घर से एक दिन मिठाई आई, तो पता चला कि उन के बेटे की शादी हो गई है. वे लोग हैरान रह गए कि अभी तक तो कोई जिक्र नहीं किया, फिर कब लड़की देखी और कब रिश्ता पक्का किया… बाद में पता चला कि लड़की तो लड़के ने पहले ही पसंद कर रखी थी. इंटरकास्ट शादी थी.

दिल्ली के शास्त्री नगर में रहने वाले राकेश खंडेलवाल ने बताया, ‘‘त्रिनगर में मेरे एक कजिन के बेटे की शादी  7 दिसंबर, 2020 को होनी थी, जो सौफ्टवेयर इंजीनियर है. उन के बहुत अरमान थे कि एक ही बेटा है, इसलिए धूमधाम से शादी करेंगे. उन्होंने बैंक्वैट हाल और होटल बुक करा रखा था.

‘‘लेकिन तभी उन के एक दोस्त ने बताया कि कोरोना के चलते सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि अगर किसी शादी में 50 से ज्यादा लोग शामिल हुए, तो दूल्हे को अरैस्ट कर लिया जाएगा.

‘‘इस फरमान से मेरा कजिन बहुत डर गया. उस ने तय कर लिया कि 50 से 51 भी लोग नहीं होंगे, इसलिए उस ने हर घर से 1-1 आदमी का न्योता दिया. शादी के कपड़ों की खरीदारी भी ढंग से नहीं हो पाई. अशोक विहार की एक धर्मशाला में वर पक्ष की ओर से आयोजन किया गया, जिस में चाकभात, लेडीज संगीत का कार्यक्रम किया गया.

‘‘खैर, 20 आदमियों की बरात ले कर वे होटल सिटी पैलेस पहुंचे. कार्यक्रम में 50 के आसपास ही लोग थे, जो 2 गज की दूरी का भी पालन करते दिखे. डीजे की जो धमक होनी चाहिए थी, वह नहीं दिखी. पर शादी अच्छे से हुई.

‘‘मु झे निजी तौर पर लगता है कि अगर हर शादी इसी तरह से की जाए तो मजा आ जाए, क्योंकि यह टैंशन खत्म हो जाती है कि हम ने उन को नहीं बुलाया जो आते हैं, खाते हैं और उस के बाद भी शादी में कमियां निकाल जाते हैं.

‘‘हमारे देश में एक तबका ऐसा भी है, जो दिखावे के चलते शादीब्याह में कर्ज के बो झ तले दब जाता है. मेरे विचार से तो सरकार को एक ऐसा कानून बना देना चाहिए कि शादी में कम लोग ही हिस्सा लें. इस से गरीब बेवजह के कर्ज तले दबने से बच जाएगा.’’

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लेकिन शादीब्याह में ही तो लोग गिलेशिकवे भूल कर मजामस्ती करते हैं. बच्चे ऐसे रिश्तेदारों से मिलते हैं, जिन को उन्होंने कभी देखा ही नहीं होता है. वहीं तो पता चलता है कि कौन क्या कर रहा है, किस की बेटी ब्याहने लायक हो गई है, किस के बेटे की अच्छी नौकरी लग गई है. नेग और रस्मों का यह उत्सव कोरोना ने फीका कर दिया है.

शहरों ने गांव की शादी में मिठाई संभालने वाला ईमानदार शख्स छीन लिया, नाई समाज का संदूक वाहक कहीं गुम कर दिया, संटी खेलना भुलवा  दिया, पर कोरोना ने तो अपनों को अपनों से दूर कर दिया है. हमारी सामाजिकता  के उन उजले पहलुओं पर सवालिया निशान लगा दिया है, जो शादीब्याह में खट्टीमीठी यादें बनते हैं.

बस, जल्द ही दुनिया के इस काले सफे का अंत हो और दुनिया की रौनक लौट आए, दोगुनी ताकत से.

कोरोना की दूसरी लहर छोटे कारोबारियों पर टूटा कहर

लेखक- धीरज कुमार

देशभर में कोरोना वायरस की जब दूसरी लहर आई, तो छोटे कारोबारियों की दुकानें दोबारा बंद हो गईं. सरकार ने फलसब्जी, दवा और किराने की दुकानें तो कुछ तय समय के लिए खुली रखीं, लेकिन बाकी लोगों की दुकानों पर एक तरह से ताले लटक गए.

छोटेमोटे कारोबारियों के तकरीबन डेढ़ साल से कारोबार बंद पड़े हैं और उन की माली हालत चरमरा गई है. अब उन के घरों में खानेपीने की किल्लत भी होने लगी है. कुछ दुकानदारों ने तो अपनी दुकानें बंद होने के बाद अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए घूमघूम कर फल और सब्जी बेचना शुरू कर दिया है.

डेहरी औन सोन के रहने वाले विजय कुमार की रेडीमेड कपड़े की दुकान है. उन का कहना है, ‘‘बैंक से लोन ले कर रेडीमेड कपड़े की दुकान खोली थी. अभी 2 साल भी नहीं हुए थे. हर महीने बैंक को ईएमआई भी देनी पड़ती है. पिछले एक साल से दुकान में रखे हुए कपड़े पुराने पड़ रहे हैं.

‘‘इस तरह मेरी सारी पूंजी आंखों के सामने डूब रही है. सम झ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए. सरकार दवा, फलसब्जी और राशन की दुकानें खोलने की इजाजत तो दे देती है, लेकिन हमारे जैसे दुकानदारों के लिए सरकार कुछ नहीं सोच रही है.

‘‘हम जैसे छोटे कारोबारियों के लिए कोरोना की लहर के साथ हमारे ऊपर कहर बरपा है. बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं. उन की औनलाइन क्लास चल रही हैं. उन की पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही है, फिर भी स्कूल मैनेजमैंट फीस के लिए दबाव बना रहा है.

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‘‘जब आमदनी के सभी रास्ते बंद  हो गए हैं, तो अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे कहां से दे पाऊंगा? घर की माली हालत खराब होती जा रही है, इसीलिए बच्चों की पढ़ाई बंद करवा दी है.’’

सासाराम के रहने वाले 2 दोस्त सुनील और पंकज 4 साल पहले दिल्ली में रहा करते थे. दिल्ली छोड़ कर सासाराम में ठेले पर मोमोज बेचने शुरू किए थे. 2 साल में ही सासाराम में दुकान किराए पर ले ली थी और मोमोज बेचा करते थे.

शादीब्याह में भी उन्हें और्डर मिलने लगा था, लेकिन जब से कोरोना का कहर शुरू हुआ है, तब से उन की दुकान तकरीबन बंद हो चुकी है. ऊपर से दुकान का किराया चल रहा है. अब दुकान के मालिक पर निर्भर है कि वह कितने महीने का किराया लेगा.

लेकिन आने वाले समय में दुकान दोबारा शुरू हो पाएगी कि नहीं, ऐसी उन्हें उम्मीद नहीं लग रही है. घर की माली हालत खराब हो चुकी है. इस महामारी के दौरान दूसरा कोई काम नजर भी नहीं आ रहा है.

जैसेजैसे कोरोना के चलते लौकडाउन की तारीख बढ़ रही है, उन की परेशानी भी बढ़ती जा रही है. इन दोनों पर ही घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी थी. इनकम न होने से घरपरिवार के हालात दिनोंदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं.

डेहरी औन सोन के रहने वाले पंकज प्रसाद होटल कारोबारी हैं. उन का कहना है, ‘‘बाजार में दूरदराज के गांवों से आने वाले लोगों को खाना बना कर खिलाते थे. सुबह से ही उन की दुकान पर लिट्टीचोखा खाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, पर जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, तब से होटल पूरी तरह से  बंद है.’’

उसी होटल के बने खाने को पंकज प्रसाद का पूरा परिवार भी खाता था. होटल में कई लोगों को काम पर भी  रखा था. अब उन सब को अपनेअपने घर भेज दिया गया है, क्योंकि वे खुद ही बेरोजगारी का दंश  झेल रहे हैं.

बिहार के औरंगाबाद जिले में साइबर कैफे चलाने वाले नीरज कुमार का कहना है, ‘‘कैफे में दिनभर पढ़नेलिखने वाले लड़केलड़कियों की भीड़ लगी रहती थी. कुछ न कुछ फार्म वगैरह भरने के लिए लड़के और लड़कियां आते ही रहते थे, इसलिए मु झे अच्छी आमदनी हो जाती थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते कैफे बंद है.

‘‘जिन लड़केलड़कियों के घरों में फार्म भरने का इंतजाम नहीं है, वे अभी भी फोन करते हैं. लेकिन मु झे मजबूरी में बताना पड़ता है कि कैफे बंद है, सरकार ने खोलने की इजाजत नहीं दी है.

‘‘अभी हम लोग भी बेरोजगार हो गए हैं. काफी परेशानी हो रही है. ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय  में साइबर कैफे के सभी कंप्यूटर  बेचने पड़ेंगे.’’

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ऐसे छोटेमोटे कारोबारियों की तादाद बिहार के छोटेबड़े शहरों में काफी ज्यादा है. इन का दर्द कोई सुनने वाला नहीं है. इन की दुकानें कोरोना महामारी के चलते बंद हो गई हैं.

बीच में जब कुछ दिनों के लिए कोरोना वायरस से संक्रमितों की तादाद में कमी आई थी, तो लोगों को लगा था कि अब दोबारा जिंदगी पटरी पर लौटने लगी है. लेकिन यह बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चला. एक महीने के अंदर ही दोबारा दुकानें बंद कर दी गईं.

इस से कई कारोबारियों के हालात इतने खराब हो गए हैं कि वे अपनी परेशानियां किसी को बता भी नहीं पाते हैं. सरकार इन कारोबारियों को गरीब की श्रेणी में भी नहीं रखती है.

पिछली बार जब कोरोना महामारी आई थी, तो सरकार ने गरीबों के लिए राशन देने का ऐलान किया था, लेकिन राशन पाने वालों में इन कारोबारियों का नाम नहीं रहता है, क्योंकि सरकार के लिए गरीबी के मापदंड अलग हैं.

सरकार के मुताबिक जो लोग गरीबी की श्रेणी में हैं, उन्हीं को इस तरह का लाभ दिया जाता है. बेरोजगारी से जू झ रहे ऐसे कारोबारियों के लिए सरकार के पास कोई सुनने और देखने वाला नहीं है. आम लोगों को भी ऐसे कारोबारियों  से कोई खास लेनादेना नहीं है. अगर दुकानें बंद हैं, तो उन के लिए औनलाइन खरीदारी का इंतजाम है.

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ऐसे हालात में आखिर उन कारोबारियों की मजबूरियों को कौन सुनेगा? सरकार के पास उन कारोबारियों के वर्तमान हालात को सुधारने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है, जबकि इन कारोबारियों द्वारा सरकार को टैक्स दिया जाता है. उस टैक्स से देश के निर्माण में योगदान होता है, इसलिए सवाल यह है कि क्या सरकार भी इन कारोबारियों की बेहतरी के लिए सोचेगी?

कोरोना काल में भुलाए जा रहे रिश्ते

लेखक- वीरेंद्र कुमार खत्री

कोरोना की दूसरी लहर इतनी ज्यादा खतरनाक साबित हुई कि इनसान तो मरे ही, साथ ही नजदीकी रिश्ते भी मरते दिखे. बिहार में कई ऐसी मौतें हुईं, जिन में मृतक के परिवार के लोगों ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

पटना समपतचक कछुआरा पंचायत की एक घटना है. कोरोना की भेंट चढ़े पिता की लाश के पास मां को छोड़ कर बेटा और बहू फरार हो गए. मुखिया प्रतिनिधि को इस की जानकारी हुई, तो उन्होंने एंबुलैंस बुलाई और लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

नालंदा स्थानीय बाजार के थाना मोड़ के पास चलतेचलते एक बुजुर्ग की मौत हो गई. बुजुर्ग की बेटी साथ में थी, पर वह वहां से भाग गई. लोगों ने इस की सूचना पुलिस को दी.

इसी तरह औरंगाबाद में पतिपत्नी की कोरोना ने जान ले ली. उन के बेटे व परिजनों ने लाश को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया. इस की जानकारी रैडक्रौस के चेयरमैन को मिली, तो उन्होंने अपने निजी खर्च से एंबुलैंस और  2 लोगों को तैयार कर लाश को श्मशान घाट भिजवाया व दाह संस्कार कराया.

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फुलवारीशरीफ थाना के जानीपुर नगवां डेर के रहने वाले 20 साल के एक नौजवान की मौत हो गई. मौत के बाद घर के एक कमरे में 12 घंटे तक उस की लाश पड़ी रही. कोरोना की आशंका को ले कर किसी ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

स्थानीय विधायक को सूचना दी गई, तो उन्होंने मृतक के घर पहुंच कर हालात की जानकारी ली. उन्होंने जिला प्रशासन को सूचना दे कर एंबुलैंस मंगा कर लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

औरंगाबाद के मदनपुर पानी टंकी निवासी एक आदमी की कोरोना से मौत के बाद परिजनों ने लाश लेने से इनकार कर दिया. पुलिस प्रशासन ने उस का अंतिम संस्कार कराया.

इस तरह के दर्जनों मामले कोरोना काल की दूसरी लहर में सामने आए जब अपने अपनों से ही कन्नी काटने लगे, जबकि हमारे यहां शुरू से गांवों में देखा गया है कि जीनामरना, शादीब्याह, हारीबीमारी समेत दूसरे कामों में लोग एकदूसरे के साथ खड़े रहते थे.

सामाजिक सरोकार ही भारत की मुख्य ताकत रही है. पर कोरोना ने रिश्तों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी है कि किसी की मौत के बाद कोई सगासंबंधी अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होना चाह रहा है. यहां तक कि कोरोना के सामने खून के रिश्ते छोटे पड़ते जा रहे हैं.

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लाशों को सड़कों, अस्पताल और श्मशान घाटों में छोड़ कर बिना अंतिम क्रिया के ही जा रहे हैं. ऐसे में पुलिस के पास सूचना पहुंच रही है, तो वह अंतिम संस्कार करवा रही है.

भारत में रिश्तों की सब से ज्यादा अहमियत मानी जाती है. पटना सीआईडी विभाग के इंस्पैक्टर अरुण कुमार, हसपुरा के समाजसेवी कौशल शर्मा, राज कुमार खत्री, हैडमास्टर कुलदीप चौधरी, दंत चिकित्सक डाक्टर विपिन कुमार का मानना है कि रिश्ते को सम झने और निभाने में भारत के लोगों का जवाब नहीं है, पर कोरोना काल में परिवार के रिश्तों के धागे कमजोर होते दिख रहे हैं.

पेश की गई मिसाल

बिहार के गया जिले के रानीगंज के तेतरिया गांव में एक 58 साल की औरत की मौत लंबी बीमारी के चलते उस के घर पर ही हो गई थी. मौत की खबर से गांव में सन्नाटा पसर गया. लोगों ने अपनेअपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए. कोई उस की अर्थी को कंधा देने को तैयार नहीं था.

ऐसे हालात में रानीगंज के मुसलिम नौजवानों ने अर्थी तैयार करते हुए  हिंदू रीतिरिवाज से उस औरत का दाह संस्कार कर आपसी भाईचारे की मिशाल पेश की.

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मौत के मुंह में पहुंचे लोग- भाग 3: मध्य प्रदेश की कहानी

अब पढि़ए मध्य प्रदेश की कहानी.

सूरत में ग्लूकोज, नमक और पानी से नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने के मास्टरमाइंड कौशल वोरा ने मध्य प्रदेश में भी इन इंजेक्शनों को बेच कर कोरोना मरीजों की जान से खिलवाड़ किया. कौशल ने मुंबई को सेंट्रल पौइंट बना कर दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, चेन्नई और मुंबई सहित पूरे देश में लाखों नकली इंजेक्शन सप्लाई किए थे.

कौशल से पूछताछ के आधार पर गुजरात पुलिस ने मध्य प्रदेश के इंदौर शहर से सुनील मिश्रा, कुलदीप सांवलिया और जबलपुर के सपन जैन को मई के दूसरे सप्ताह में गिरफ्तार किया. इन्होंने कौशल से हजारों इंजेक्शन खरीद कर मध्य प्रदेश में बेचे थे.

इन लोगों ने इंदौर के ही एक दवा विक्रेता को भी 17 हजार रुपए प्रति इंजेक्शन के हिसाब से 100 नकली इंजेक्शन बेच दिए थे. आम जरूरतमंद लोगों को 40 हजार रुपए तक में एक इंजेक्शन बेचा.

खास बात यह भी रही कि गिरफ्तार दलाल कुलदीप सांवलिया ने कोरोना से पीडि़त अपनी मां को भी यही नकली इंजेक्शन लगवा दिए थे. दरअसल, उसे यह पता ही नहीं था कि ये इंजेक्शन नकली हैं.

इंदौर में पुलिस की जांचपड़ताल में पता चला कि कौशल वोरा के बनाए नकली इंजेक्शनों को लगाने के बाद कुछ कोरोना मरीजों की मौत भी हो गई थी. इस के बाद पुलिस ने कौशल वोरा, उस के पार्टनर पुनीत शाह और इंदौर के सुनील मिश्रा के खिलाफ गैरइरादतन हत्या की धाराएं भी जोड़ दीं.

बाद में इंदौर की विजय नगर पुलिस ने नकली इंजेक्शन बेचने के मामले में दवा बाजार के 3 दलालों आशीष ठाकुर, चीकू शर्मा और सुनील लोधी को मध्य प्रदेश के देवास से गिरफ्तार किया.

पुलिस की पूछताछ में सामने आया कि आरोपी सुनील मिश्रा मूलरूप से मध्य प्रदेश के रीवा का रहने वाला है. उस ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा का प्री एग्जाम पास कर लिया था, लेकिन सन 2012 में वह मेंस क्लीयर नहीं कर सका. इस के बाद उस ने खंडवा रोड पर खुद का मार्केट खोला. उस के पिता मध्य प्रदेश टूरिज्म में मैनेजर थे.

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बाद में सुनील ग्लव्ज, मास्क व सैनेटाइजर की दलाली करने लगा था. एक साल पहले कारोबार के सिलसिले में उस का परिचय सूरत के कौशल वोरा और पुनीत शाह से हुआ था. इस के बाद ये आपस में व्यापार करने लगे. कोरोना की दूसरी लहर में जब रेमडेसिविर इंजेक्शन की किल्लत हुई, तो सुनील ने पैसा कमाने के मकसद से कुछ लोगों से इस इंजेक्शन के लिए संपर्क किया.

कौशल व पुनीत से बात हुई, तो उन्होंने सुनील को सूरत बुलाया और अपने ठाठबाट, लग्जरी कारों और महंगे होटलों में ठहरने के जलवे दिखाए. उन्होंने उसे ये इंजेक्शन दिलाने की हामी भर ली. बाद में उसे मुंबई बुला कर पहली बार में 700 इंजेक्शन दिए. सुनील ने ये इंजेक्शन इंदौर ला कर दवा बाजार के दलाल कुलदीप सांवलिया, चीकू, सुनील लोधी आदि के जरिए बेच दिए.

सुनील से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने नकली इंजेक्शन मामले में मई के पहले पखवाड़े में सागर के यूथ कांग्रेस के जिला उपाध्यक्ष प्रशांत पाराशर और सांवेर के होम्योपैथी डाक्टर सरवर खान को भी गिरफ्तार कर लिया. इंदौर के दवा बाजार के एक व्यापारी गोविंद गुप्ता को भी इस मामले में आरोपी बनाया गया.

कांग्रेस नेता प्रशांत ने सुनील से 65 से ज्यादा इंजेक्शन खरीदे थे. यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास ने कोरोना संकट काल में एसओएस हेल्पलाइन शुरू की थी. इस में प्रशांत को भोपाल का कोऔर्डिनेटर बनाया था. प्रशांत ने कोरोना पीडि़तों की मदद के लिए एक अभियान शुरू किया था. इसी अभियान के तहत उस ने सुनील से खरीदे नकली इंजेक्शन लोगों को बेचे थे. प्रशांत को ये इंजेक्शन नकली होने का पता नहीं था.

भोपाल की नर्स निकली बेहद शातिर

भोपाल में इस दौरान एक रोचक किस्सा सामने आया. जे.के. अस्पताल की नर्स शालिनी वर्मा कोरोना मरीजों के लिए मंगाए गए रेमडेसिविर इंजेक्शन छिपा कर रख लेती थी और मरीज को सादा पानी का इंजेक्शन लगा देती थी.

नर्स शालिनी चुराए गए ये इंजेक्शन इसी अस्पताल में काम करने वाले अपने प्रेमी नर्सिंग कर्मचारी झलकन सिंह मीणा को महंगे दाम पर बेचने के लिए दे देती थी. पुलिस ने इस मामले में झलकन को गिरफ्तार कर लिया था. उस की प्रेमिका नर्स की तलाश की जा रही थी. पता चलने पर अस्पताल प्रबंधन ने दोनों कर्मचारियों को हटा दिया.

मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में अप्रैल के चौथे सप्ताह में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में पुलिस ने निजी अस्पतालों के 2 डाक्टरों नीरज साहू व जितेंद्र ठाकुर सहित 5 लोगों को गिरफ्तार किया था. पूछताछ में पता चला कि ये लोग अस्पताल से चुरा कर इंजेक्शन महंगे दामों पर बेचते थे.

बाद में गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार सूरत के कौशल वोरा और इंदौर के सुनील मिश्रा से पूछताछ में पता चला कि इन्होंने जबलपुर के सिटी हौस्पिटल में भी नकली इंजेक्शन सप्लाई किए थे. इस का खुलासा होने के बाद जबलपुर की ओमती थाना पुलिस ने सिटी हौस्पिटल के संचालक सरबजीत सिंह मोखा, दवा सप्लायर सपन जैन और अन्य लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया.

पुलिस में मुकदमा दर्ज होने का पता चलने पर अस्पताल संचालक मोखा खुद को कोरोना पौजिटिव बताते हुए 10 मई को अपने ही अस्पताल में भरती हो गया. इस पर पुलिस ने अस्पताल में पहरा लगा दिया. पुलिस ने दूसरे ही दिन मोखा की कोरोना जांच कराई. जांच रिपोर्ट निगेटिव आने पर मोखा को 11 मई को गिरफ्तार कर लिया गया.

उस के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत काररवाई की गई. मोखा विश्व हिंदू परिषद के नर्मदा डिवीजन का जिलाध्यक्ष था. यह मामला सामने आने के बाद उसे पद से हटा दिया गया.

दूसरे दिन अदालत ने उसे जेल भेज दिया. मोखा ने दवा सप्लायर सपन जैन के माध्यम से सुनील मिश्रा से करीब 500 इंजेक्शन मंगाए थे. नकली इंजेक्शनों का मामला सामने आने के बाद सिटी हौस्पिटल को सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम से बाहर कर दिया गया. पुलिस ने 17 मई की रात सरबजीत सिंह मोखा की पत्नी जसमीत कौर और मोखा के सिटी अस्पताल की मैनेजर सौम्या खत्री को भी गिरफ्तार कर लिया.

मोखा के बेटे हरकरण सिंह की तलाश की जा रही थी. उस के अस्पताल में नकली रेमडिसिविर इंजेक्शन लगाने से 15 से ज्यादा लोगों की मौत होने की शिकायतें पुलिस को मिलीं.

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लखनऊ अस्पताल में हुआ इंजेक्शनों का गड़बड़ घोटाला

लखनऊ सहित पूरे उत्तर प्रदेश में भी यही हाल सामने आया. अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में पुलिस ने रेमडेसिविर इंजेक्शनों की कालाबाजारी में 2 डाक्टरों सहित 4 लोगों को गिरफ्तार किया. इन से पूछताछ के आधार पर एक नर्सिंग छात्र सहित 4 लोगों को पकड़ा गया और 91 नकली इंजेक्शन बरामद किए.

इन के अलावा 4 दूसरे लोगों को गिरफ्तार कर 191 इंजेक्शन बरामद किए गए. इन गिरफ्तारियों से पता चला कि लखनऊ के किंग जार्ज मैडिकल कालेज का स्टाफ भी इंजेक्शनों के गड़बड़ घोटाले में शामिल था. बाद में भी कई लोग गिरफ्तार किए गए.

मौत के मुंह में पहुंचे लोग- भाग 2: सूरत में हुआ बड़ा भंडाफोड़

सौजन्य- मनोहर कहानियां

अब गुजरात की कहानी पढि़ए. देश भर में साडि़यों के लिए मशहूर शहर सूरत में ग्लूकोज, नमक और पानी से लाखों की तादाद में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बना कर देश भर में महंगे दामों पर बेचे गए. मई की पहली तारीख को अहमदाबाद पुलिस की क्राइम ब्रांच ने सूरत के ओलपाड़ इलाके में एक फार्महाउस पर छापा मार कर नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री का भंडाफोड़ किया था.

इस फैक्ट्री से 60 हजार नकली इंजेक्शन की शीशियां, 30 हजार स्टिकर और शीशी सील करने वाली मशीन बरामद कर 7 लोगों कौशल वोरा और पुनीत शाह तथा इन के साथियों को गिरफ्तार किया था.

इस गिरोह का नेटवर्क पूरे देश में था. गिरोह के लोग कोरोना काल में जरूरतमंदों को ये नकली इंजेक्शन ढाई हजार रुपए से ले कर 20 हजार रुपए तक में बेचते थे.

इस से पहले गुजरात की मोरबी पुलिस ने मोरबी कृष्णा चैंबर में ओम एंटिक जोन नामक औफिस में छापा मार कर 2 लोगों राहुल कोटेचा और रविराज लुवाणा को गिरफ्तार किया था. इन से 41 नकली इंजेक्शन और 2 लाख रुपए से ज्यादा नकद रकम बरामद हुई. इन्होंने बताया कि ये नकली इंजेक्शन अहमदाबाद के रहने वाले आसिफ से लाए थे. इस के बाद अहमदाबाद के जुहापुरा से मोहम्मद आसिफ और रमीज कादरी को पकड़ा गया.

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इन से 1170 नकली इंजेक्शन और 17 लाख रुपए से ज्यादा नकदी बरामद हुई. इन लोगों ने पुलिस को बताया कि वे सूरत के रहने वाले कौशल वोरा से ये इंजेक्शन लाए थे. इसी सूचना के आधार पर सूरत के ओलपाड़ में फार्महाउस पर छापा मारा गया, जहां नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री चल रही थी.

नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्री का मास्टरमाइंड कौशल वोरा था. पुनीत वोरा उस का पार्टनर था. कौशल से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने अडाजण के उस के एजेंट जयदेव सिंह झाला को गिरफ्तार किया. झाला के पास से भी नकली इंजेक्शन बरामद हुए. गोल्ड लोन का काम करने वाला झाला करीब साल भर पहले कौशल के संपर्क में आया था. बाद में दोनों में दोस्ती हो गई.

सूरत का डाक्टर ही निकला जालसाज

सूरत पुलिस ने 3 मई, 2021 को भेस्तान के साईंदीप अस्पताल के एडमिन डा. सैयद अर्सलन, विशाल उगले और सुभाष यादव को गिरफ्तार किया. ये लोग 18 से 20 हजार रुपए में एक रेमडेसिविर इंजेक्शन बेच रहे थे जबकि इंजेक्शन की प्रिंटेड कीमत केवल 1250 रुपए थी.

डा. सैयद कोरोना मरीज की जान बचाने के लिए जरूरी होने की बात कह कर रेमडेसिविर इंजेक्शन खरीदने को मजबूर करता था. इंजेक्शन मंगवा कर भी वह चालाकी करता और मरीज को आधी डोज ही लगाता. यानी एक इंजेक्शन 2 मरीजों को लगाता था. किसीकिसी मरीज को तो वह इंजेक्शन लगाने का दिखावा ही करता था.

डा. सैयद अपने अस्पताल से डिस्चार्ज हो चुके मरीजों के नाम पर सिविल अस्पताल से ये इंजेक्शन मंगवाता था और बाद में विशाल तथा सुभाष की मदद से इन की कालाबाजारी करता था.

कोरोना मरीजों की जान बचाने के लिए जरूरी टौसिलिजुमैब इंजेक्शन के नाम पर भी लोगों ने खूब पैसे कमाए. सूरत पुलिस ने मई के दूसरे सप्ताह में इस इंजेक्शन की कालाबाजारी करने के आरोप में अठवागेट के ट्राईस्टार अस्पताल में काम करने वाली नर्स हेतल रसिक कथीरिया, उस के पिता रसिक कथीरिया और डाटा एंट्री औपरेटर बृजेश मेहता को गिरफ्तार किया. ये लोग 40 हजार रुपए का इंजेक्शन करीब पौने 3 लाख रुपए में बेचते थे.

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इसी तरह अहमदाबाद पुलिस ने अप्रैल महीने के आखिर में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा, जो रेमडेसिविर के नाम पर सौ रुपए की कीमत का ट्रेटासाइकल इंजेक्शन नकली स्टिकर लगा कर बेचता था. पुलिस ने इस गिरोह के 7 लोगों हितेश, दिशांत विवेक, नितेश जोशी, शक्ति सिंह, सनप्रीत और राज वोरा को गिरफ्तार किया. ये लोग अहमदाबाद के एक फाइवस्टार होटल हयात में बैठ कर ठगी का यह धंधा कर रहे थे.

इन के पास से ट्रेटासाइकल इंजेक्शन के डब्बे और रायपुर की एक कंपनी के नाम से रेमडेसिविर इंजेक्शन के नकली स्टिकर बरामद हुए. इस गिरोह ने अपने परिचितों और दोस्तों के संपर्क से गुजरात के अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, वडोदरा, जामनगर और वापी जैसे बड़े शहरों में हजारों की तादाद में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन 4 से 10 हजार रुपए में बेचे थे.

जयपुर का अस्पताल निकला 2 कदम आगे

अब जयपुर की कहानी. राजस्थान की राजधानी जयपुर में पुलिस ने अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में 6 लोगों को गिरफ्तार किया. इन से पूछताछ के बाद एक निजी अस्पताल के फार्मासिस्ट और एक दवा डिस्ट्रीब्यूटर सहित तीन लोगों को और पकड़ा गया. पता चला कि इन में फार्मासिस्ट शाहरुख कोरोना पौजिटिव होने के बावजूद अस्पताल में काम कर रहा था. जयपुर के 2 निजी अस्पतालों पर भी पुलिस ने काररवाई की.

राजस्थान के सब से बड़े सरकारी कोविड अस्पताल आरयूएचएस जयपुर में हाउसफुल का बोर्ड लगा कर पीछे के रास्ते से मरीजों को बैड बेचे जाने का खुलासा मई की 8 तारीख को हुआ. भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने इस काले सच को उजागर कर 23 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए दलाल नर्सिंग कर्मचारी को गिरफ्तार कर लिया.

नर्सिंग कर्मचारी ने 2 डाक्टरों के जरिए आईसीयू बैड दिलाने के लिए एक महिला मरीज से 2 लाख रुपए मांगे थे. सौदा एक लाख 30 हजार रुपए में तय कर 93 हजार रुपए पहले लिए जा चुके थे. इस बीच, महिला मरीज की मौत हो गई. इस के बाद भी नर्सिंग कर्मचारी यह कह कर पैसे मांग रहा था कि पैसा ऊपर तक जाएगा.

मई के पहले पखवाड़े में ही जयपुर में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में, निजी अस्पतालों के 3 नर्सिंग कर्मचारियों को गिरफ्तार किया. प्रशासन ने इस अस्पताल को सील कर दिया.

जयपुर पुलिस ने 11 मार्च को कोरोना मरीजों से धोखाधड़ी करने वाले शातिर लपका लालचंद जैन उर्फ कान्हा को गिरफ्तार किया. वह महंगे होटलों में रुकता ओर मरीजों के परिजनों को बड़े अस्पताल में भरती करवाने, औक्सीजन बैड दिलवाने और अच्छा इलाज करवाने के नाम पर हजारों रुपए ठगता था. वह इतना शातिर था कि मरीजों के परिजनों से ही गाड़ी मंगवा कर उस में घूमता और उन्हीं के पैसों से महंगी शराब मंगा कर पीता था.

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एक मोटे अनुमान के अनुसार, पूरे देश में कोरोना की दूसरी लहर में मरीजों से धोखाधड़ी के मामलों में अप्रैल और मई के महीने में 5 हजार से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए. सांसों के इन सौदागरों में कोई नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बना कर बेच रहा था तो कोई इन की कालाबाजारी कर रहा था. कोई औक्सीजन सिलेंडर सहित जीवन रक्षक मैडिकल उपकरणों की कालाबाजारी कर रहा था. एंबुलेंस वाले मरीज को लाने ले जाने के अलावा शव ले जाने के नाम पर बीस गुना तक ज्यादा पैसा वसूल रहे थे.

दिल्ली पुलिस ने मई के पहले पखवाड़े तक ऐसे जालसाजों के 214 बैंक अकाउंट सीज करा दिए थे.

इस के अलावा करीब 900 मोबाइल नंबरों को ब्लौक करवाया गया था. जालसाजों ने मरीजों के जीवन से खिलवाड़ करने के साथ कम गुणवत्ता वाली पीपीई किट, सैनेटाइजर, मास्क और ग्लव्स भी बना कर बाजार में खपा दिए.

मां-बाप ने 10,000 रुपए में बेचा बच्चा

आज के वक्त में जो मां- बाप ऐसा करते हैं उन्हें कलयुगी मां-बाप कहना ही ठीक होगा. बच्चें तो मां- बाप की जान होते हैं… कौन ऐसे मां-बाप होंगे जो अपने बच्चों को पैसों के लिए बेच दें लेकिन ऐसा हुआ. दरअसल ये घटना एक- दो दिन पहले की ही है और ये घटना ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर की है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिस महिला ने बच्चे को खरीदा है उस  महिला को बच्चे को खरीदने और अवैध रूप से गोद लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. पुलिस के मुताबिक अब तक बच्चे के माता-पिता का कुछ पता नहीं चला है. खारवेल नगर थाने के प्रभारी इंस्पेक्टर अरुण कुमार स्वैन ने कहा कि पुलिस ने एक एनजीओ के बताने पर बच्चे को रेस्क्यू किया. उन्होंने आगे बताया कि जिस माता-पिता ने अपने बच्चे को बेचा है, वे कूड़ा बीनते हैं. वहीं बच्चे को खरीदने वाली महिला सुमेदिन बीबी भी कूड़ा बीनने का काम करती हैं और बच्चे के जन्म के बारे में वो पहले से ही जानती थी. वो संतानहीन थी, इसलिए उसने उस दंपती को बच्चे को बेचने को कहा. बच्चे के पिता ने 10,000 रुपए देने को कहा,और फिर उस बच्चे का सौदा किया गया.

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एनजीओ ने बताया कि शुरु में  पूछताछ के बाद उन्हें यह पता चला कि बच्चे के पिता ने अपने ड्रग्स और शराब की लत को पूरा करने के लिए ये सौदा किया और अपने बच्चे को मात्र 10,000 में बेच दिया. सोच कर रूह कांप जाए कि भला कौन अपने बच्चे के साथ ऐसा करता है.

आपको ये जानकर और भी हैरानी होगी कि वो बच्चा मात्र 10 दिन का ही था. भुवनेश्वर में पुलिस ने एक एनजीओ के सहयोग से एक बेचे गए नवजात बच्चे को रेस्क्यू किया है. साथ ही पुलिस ने 10 दिन के बच्चे को खरीदने के लिए 42 साल की एक कूड़ा बीनने वाली महिला को गिरफ्तार किया है. रेस्क्यू के बाद बच्चे को भुवनेश्वर के सुभद्रा महताब सेवा सदन भेजा गया. बच्चे को 14 जून को खरीदा गया था.बच्चे के बेचे जाने की जानकारी पुलिस को देने वाले  एनजीओ बेनुधर सेनापति ऑफ चाइल्डलाइन ने बताया कि माता-पिता अपने बच्चे को बेचना चाहते थे, क्योंकि उनके पास सड़क पर गुजर-बसर करने को पैसे नहीं थे, एनजीओ ने बताया कि शुरुआती पूछताछ के बाद उन्हें यह पता चला कि बच्चे के पिता ने अपने ड्रग्स और शराब की लत को पूरा करने के लिए ये सौदा किया.

हालांकि ओडिशा में बच्चों को बेचे जाने की  ये घटना कोई पहली बार नहीं है. खबरों के मुताबिक 1980 और 90 के दशक में गरीबी के कारण कई लोग बच्चों की देखभाल नहीं कर पाते थें तो वो अपने बच्चे को बेच देते थे. ये घटनाएं तब भी होती थीं और आज भी हो रही हैं. पश्चिम ओडिशा के कालाहांडी और बोलांगीर जिले बच्चों को बेचे जाने की घटनाओं से भरे पड़े हैं. एक घटना तो काफी फेमस हुई थी और उस घटना ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया था.

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सन् 1985 में 2 साल की एक आदिवासी लड़की को मात्र 40 रुपए में बेच दिया गया था और उस वक्त ये घटना राज्य की गरीबी को लेकर केंद्र  में चर्चा का विषय बन गया थी. हालांकि सिर्फ ओडिशा ही नहीं बल्कि ऐसे कई राज्य हैं जहां गरीबी के कारण या पैसे के लालच के कारण बच्चों को बेच दिया जाता है या तो लावारिस छोड़ दिया जाता है. अभी कुछ दिन पहले ही एक खबर आई थी एक कुछ ही दिन की बच्ची को उसकी कुंडली के साथ एक बक्से में बंद कर के नदी में छोड़ दिया था. वो बच्ची एक नाविक परिवार को मिली और अब वो उसे गोद लेने के लिए अदालत से गुहार लगा रहे हैं.

शायद आज एक बार फिर से गरीबी और साथ ही बच्चे को बेचने का विषय केंद्र में उठाना चाहिए और सरकार को इस पर कोई कड़ा रुख अपनाना चाहिए ताकि बच्चों का भविष्य खराब ना हो क्योंकि यहां पर ज्यादातर लड़कीयां ऐसी होती हैं जिन्हें लावारिस छोड़ देने पर उन्हें कोठे या विदेशों में बेच दिया जाता है. ये चिंता का विषय है आखिर क्या है उनका भविष्य ?

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सौजन्य- मनोहर कहानियां

पिछले साल कोरोना त्रासदी से सबक लेते हुए दुनिया के अधिकांश देशों ने इस बीमारी से भविष्य में निपटने के पुख्ता इंतजाम कर लिए थे. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबक लेने के बजाए विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को जिताने की योजनाएं बनाते रहे. इस से लोगों के मन में एक ही सवाल उठ रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर में बरती गई उन की उदासीनता उन की किसी योजना का हिस्सा तो नहीं है…

इस साल कोरोना की दूसरी लहर ने पूरे देश में कहर ढहाया. मरीजों को न दवाएं मिलीं न ही अस्पताल में बैड. चिकित्सा उपकरण भी नसीब नहीं हुए. इलाज नहीं मिलने से मरीज तड़प कर दम तोड़ते रहे. लाशों की कतारें लग गईं. कोरोना काल का यह संकट आजादी के बाद का सब से भयावह था.

21वीं सदी के इस सब से भयावह संकट काल में इस साल मार्चअप्रैल के महीने में जब देश में कोरोना वायरस अपना फन फैला रहा था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत सरकार 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सत्ता हासिल करने की कोशिशों में जुटी थी. मोदीजी का सब से बड़ा सपना पश्चिम बंगाल में भगवा झंडा फहराने का था. इस के लिए प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री अमित शाह और तमाम दूसरे प्रमुख नेता बंगाल में डेरा डाल कर रैलियां और चुनावी सभाएं कर रहे थे.

कोरोना का वायरस फलफूल रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस महामारी का भयानक रूप नजर नहीं आ रहा था. इस का नतीजा यह हुआ कि जिम्मेदार नौकरशाही भी लापरवाह हो गई. सरकारी और निजी अस्पतालों में मरीजों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. मरीजों की जान बचाने के संसाधन कम पड़ते गए. हालात यह हो गए कि अस्पतालों में मरीजों के लिए बैड ही नहीं मिल रहे थे. आईसीयू बैड, वेंटिलेटर और औक्सीजन तो दूर की बात थी. मरीज अस्पतालों के बाहर और फर्श पर भी दम तोड़ रहे थे.

मोदी सरकार इस भयावह दौर में राजनीति करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुनावी रैलियां तब रोकीं, जब बंगाल में चौथे चरण के मतदान हो रहे थे. केवल पांचवें चरण के मतदान बाकी थे. इस बीच पूरे देश में हालात बेकाबू हो चुके थे. विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से चिकित्सा संसाधनों की गुहार लगाते रहे, लेकिन केंद्र सरकार को यह सुनने की फुरसत ही नहीं थी.

देश में इस बीच सांसों के सौदागरों की नई फौज खड़ी हो गई. कोरोना मरीजों के लिए जीवनरक्षक समझे जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शनों और औक्सीजन सिलेंडरों की कालाबाजारी शुरू हो गई. संकट के दौर में धंधेबाजों ने पैसा कमाने के नएनए तरीके खोज निकाले. मरीजों के परिजनों से जालसाजी और धोखाधड़ी होती रही. लोगों ने नकली इंजेक्शन बनाने की फैक्ट्रियां लगा लीं. कोरोना से बचाव के काम आने वाली पीपीई किट, सैनेटाइजर, मास्क और ग्लव्ज भी निम्न गुणवत्ता के आ गए.

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कोरोना मरीजों के लिए औक्सीजन मिलनी मुश्किल हो गई. देशभर में औक्सीजन वितरण का जिम्मा मोदी सरकार ने अपने हाथ में ले लिया. औक्सीजन बांटने में भी राजनीति की गई. भाजपाशासित राज्यों को जरूरत से ज्यादा औक्सीजन आवंटित की जाती रही और कांग्रेस व दूसरे दलों के शासन वाले राज्यों से भेदभाव किया जाता रहा. इस का नतीजा यह हुआ कि औक्सीजन का संकट पैदा होने से मरीजों की जानें जाती रहीं.

वैक्सीन पर चली राजनीति

वैक्सीन को लेकर अभी तक राजनीति चल रही है. 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए केंद्र सरकार ने इस साल की शुरुआत में राज्यों को टीका देने की हामी भर ली, लेकिन राज्यों को पर्याप्त टीका ही नहीं मिला. लोगों की जान बचाने के लिए 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को भी टीके लगाने का फैसला केंद्र सरकार ने ले लिया, लेकिन केंद्र सरकार ने इन टीकों के खर्च की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी.

हजारों करोड़ रुपए का बोझ बढ़ने से राज्य सरकारों की आर्थिक हालत पतली होने लगी है. खास बात यह रही कि देश की जनता से टैक्स के रूप में वसूले गए पैसों से वैक्सीनेशन हो रहा है और सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो लगी हुई है.

अफसोस की बात यह भी रही कि मोदीजी ने अपनी दोस्ती निभाने और अपना नाम चमकाने और वाहवाही लूटने के लिए भारत के लोगों के हिस्से की वैक्सीन दूसरे देशों को भेज दी. लेकिन जब देश में त्राहित्राहि होने लगी तो सरकार को दूसरे देशों से मदद लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. अब पूरे देश में टीके का टोटा हो रहा है. लोगों को समय पर टीका नहीं लगने से कोरोना का खतरा कम नहीं हो रहा है.

अभी कोरोना की तीसरी लहर की चेतावनी दी जा रही है. अगर तीसरी लहर आई, तो बच्चों पर इस का सब से ज्यादा असर होने की आशंका जताई जा रही है. इस बीच, मई के पहले सप्ताह से उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना सहित दूसरी नदियों के तटों पर सैकड़ों की संख्या में लाशें मिलने लगीं. इन लाशों को देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना से दम तोड़ने वालों की लाशें जमीन में दफन कर दी गई या नदियों में बहा दी गई.

पिछले साल कोरोना से पहली बार भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों का परिचय हुआ. कोरोना की इस पहली लहर को उस समय लौकडाउन कर के कुछ हद तक काबू कर लिया गया. हालांकि इस से देश की जनता के आर्थिक हालात बिगड़ गए.

ये हालात ठीक होते, इस से पहले ही कोरोना की दूसरी लहर आ गई. इस बीच, एक साल के दौरान मोदी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया. चिकित्सा संसाधन नहीं बढ़ाए गए. इस बार मोदी सरकार लापरवाह बनी रही. इस का नतीजा सब के सामने है.

इस से ज्यादा अफसोस की बात क्या होगी कि केंद्र सरकार का मंत्री सोशल मीडिया पर अपने रिश्तेदार के लिए किसी अस्पताल में बैड दिलाने की गुहार करता रहा. मंत्रियों और सांसदों के कहने पर भी अस्पतालों में मरीजों को बैड नहीं मिले. मोदी सरकार कोरोना पर काबू पाने के लिए अब कुएं खोदने की तैयारी कर रही है, लेकिन अब क्या फायदा, चिडि़या तो खेत चुग चुकी. क्योंकि देश में हजारोंलाखों लोग अपने परिजनों को खो चुके.

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कोरोना संकट के बीच, मई के महीने में ब्लैक फंगस के मामले एकाएक बढ़ गए. इस ने लोगों की चिंता और बढ़ा दी थी. महामारी के दौर में सामने आई केंद्र सरकार की लापरवाही को ले कर पूरी दुनिया में भारत की किरकिरी होने लगी थी. और तो और मोदी के कट्टर समर्थक भी विरोध में उतर आए थे.

लुटेरे हो गए सक्रिय

खतरा अभी टला नहीं था. लुटेरों के रूप में सामने आए सांसों के सौदागरों ने ऐसी लूटखसोट शुरू कर दी, जिन से लोग भी परेशान हो गए. दिल्ली से जयपुर तक और लखनऊ से अहमदाबाद तक, सभी जगह इन सौदागरों ने कोरोना मरीजों से ठगी के नएनए हथकंडे अपनाए थे.

दिल्ली में कोरोना के नाम पर सब से ज्यादा ठगी की वारदातें हुईं. देश का आम आदमी सोचता है कि दिल्ली में बड़ेबड़े और नामी अस्पताल हैं. इन में अच्छा इलाज होता होगा, लेकिन कोरोना काल में हालात बिलकुल उलट रहे. सरकारी अस्पतालों में तो सामान्य मरीजों को छोडि़ए, मंत्रियों और अफसरों को भी कोरोना मरीजों के लिए बैड नहीं मिले, अस्पतालों में सुविधाओं की बातें तो दूर रहीं.

अस्पताल वालों के अलावा ठगों और जालसाजों ने कोरोना से जूझ रहे मरीजों के परिवार वालों से पैसे ठगने के नए से नए तरीके निकाल लिए थे. मरीजों के लिए जरूरी उपकरणों की कालाबाजारी करने वालों ने लोगों को जम कर लूटा.

दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने अप्रैल के आखिरी सप्ताह में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने वाली एक फैक्ट्री पकड़ी. यह फैक्ट्री उत्तराखंड के कोटद्वार में चल रही थी. इसे सील कर दिया गया. इस मामले में एक महिला सहित 7 लोगों को गिरफ्तार किया गया. इन से बड़ी संख्या में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन की भरी और खाली शीशियां, पैकिंग मशीन, पैकिंग मटीरियल, स्कौर्पियो गाड़ी सहित दूसरे वाहन जब्त किए गए.

इस फैक्ट्री का पता भी मुश्किल से चला. कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रकोप के बीच अप्रैल में जब जीवन रक्षक दवा के तौर पर रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग पूरे देश में तेजी से बढ़ी, तो इस की कालाबाजारी की सूचनाएं पुलिस को मिलने लगी थीं.

क्राइम ब्रांच की टीम ने महरौली बदरपुर रोड पर स्थित संगम विहार से 23 अप्रैल को 2 लोगों मोहम्मद शोएब खान और मोहन कुमार झा को पकड़ा. इन के पास कुछ इंजेक्शन मिले. इन से पता चला कि बड़े शहरों में ये इंजेक्शन 40 से 50 हजार रुपए तक में बेचे जा रहे हैं.

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दिल्ली पुलिस ने की गिरफ्तारियां

इन से पूछताछ के आधार पर 25 अप्रैल को यमुना विहार से मनीष गोयल और पुष्कर चंदरकांत को पकड़ा गया. इन से पता चलने पर एक इवेंट मैनेजर साधना शर्मा को गिरफ्तार किया. इन तीनों से भी बड़ी संख्या में ये इंजेक्शन बरामद हुए. फिर 27 अप्रैल को हरिद्वार से वतन कुमार सैनी को पकड़ा. वतन बीफार्मा और एमबीए डिग्रीधारी है. उस के घर से पैकिंग मशीन, खाली शीशियां, पैकिंग मटीरियल आदि सामान मिला. वतन कुमार से पूछताछ के बाद रुड़की से आदित्य गौतम को गिरफ्तार किया गया.

कौमर्स ग्रैजुएट आदित्य गौतम फार्मेसी से जुड़ा काम करता है. उस ने हजारों की संख्या में बायोटिक इंजेक्शन की शीशियां खरीदीं. इन इंजेक्शनों की शीशियों पर कोटद्वार की फैक्ट्री में रेमडेसिविर के लेबल लगवाए.

पुलिस ने उस की निशानदेही पर एक मशीन, लेबल तैयार करने के काम लिया कंप्यूटर और नकली इंजेक्शन की शीशियां बरामद कीं. इन लोगों ने बाकायदा अपना नेटवर्क बना रखा था, जिस के जरिए ये जरूरतमंदों से मोटी रकम ले कर उन्हें नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन देते थे.

इसी तरह दिल्ली पुलिस ने औक्सीजन कंसंट्रेटर की कालाबाजारी का बड़ा मामला पकड़ा. दक्षिणी जिला पुलिस ने मई के पहले सप्ताह में लोधी कालोनी के सेंट्रल मार्केट में एक रेस्तरां बार ‘नेगे एंड जू बार’ में छापा मार कर 32 औक्सीजन कंसंट्रेटर के बौक्स बरामद किए. एक बौक्स में थर्मल स्कैनर और एन-95 मास्क मिले. पुलिस ने वहां से 4 लोगों रेस्तरां के मैनेजर हितेश के अलावा सतीश सेठी, विक्रांत और गौरव खन्ना को पकड़ा.

मगरमच्छों तक पहुंची पुलिस

इन से पूछताछ के आधार पर छतरपुर के मांडी गांव स्थित खुल्लर फार्महाउस में एक गोदाम पर छापा मारा. यहां से 398 औक्सीजन कंसंट्रेटर बरामद हुए. पूरे देश में कोरोना मारामारी के बीच पकड़े गए करीब 4 करोड़ रुपए कीमत के ये औक्सीजन कंसंट्रेटर कालाबाजारी से बेचे जा रहे थे.

पूछताछ में पता चला कि इस रेस्टोरेंट का मालिक नवनीत कालरा है. कालरा दिल्ली का प्रसिद्ध व्यवसाई है. पेज थ्री सोसायटी से जुड़े रहने वाले दलाल के कई फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों से अच्छे संबंध हैं. वह होटल खान चाचा, नेगे एंड जू बार, टाउनहाल रेस्ट्रो बार, मिस्टर चाऊ के अलावा दयाल आप्टिकल्स से जुड़ा हुआ है.

वह इन रेस्टोरेंट की आड़ में औक्सीजन कंसंट्रेटर की कालाबाजारी कर रहा था. गिरफ्तार आरोपियों से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने कालरा के खान मार्केट के मशहूर रेस्टोरेंट ‘खान चाचा’ से 96 कंसंट्रेटर और बरामद किए. पता चला कि कालरा ने ये कंसंट्रेटर लंदन में रहने वाले अपने दोस्त गगन दुग्गल की कंपनी मैट्रिक्स सेल्युलर के संपर्कों की मदद से यूरोप और चीन से मंगवाए थे. गिरफ्तार गौरव खन्ना गगन की कंपनी का सीईओ और चार्टर्ड अकाउंटेंट है.

कोरोना का कहर शुरू होने और मांग बढ़ने पर कालरा ने बड़ी संख्या में कंसंट्रेटर बेच भी दिए थे. पुलिस ने कालरा की तलाश में उस के ठिकानों पर छापे मारे, लेकिन सेंट्रल मार्केट में छापे की सूचना मिलने के बाद ही वह 2 लग्जरी गाडि़यों से परिवार के कुछ लोगों के साथ फरार हो गया.

पुलिस ने उस की तलाश में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी छापे मारे. कोई सुराग नहीं मिलने पर पुलिस ने कालरा के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी कर दिया.

पुलिस को आशंका थी कि कालरा विदेश भाग सकता है. इस बीच, कालरा ने गिरफ्तारी से बचने के लिए दिल्ली की एक अदालत में अग्रिम जमानत की अरजी लगा दी. यह अरजी खारिज हो गई. बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कालरा की गिरफ्तारी पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. बाद में कालरा को 17 मई, 2021 को दिल्ली पुलिस ने गुड़गांव से गिरफ्तार कर लिया.

विदेशी महिला भी हुई गिरफ्तार

दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने ही देश भर में औक्सीजन सिलेंडर के नाम पर लोगों से धोखाधड़ी करने वाले मेवाती गिरोह के इमरान को राजस्थान के भरतपुर जिले से गिरफ्तार किया

यूं तो दिल्ली पुलिस ने कोरोना काल में लोगों से दवाओं और इंजेक्शन के नाम पर धोखाधड़ी करने और कालाबाजारी के मामलों में सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया है. खास बात यह है कि इस में महामारी के इस दौर में अमानवीय बन कर मुनाफाखोरी करने में विदेशी भी पीछे नहीं रहे.

दिल्ली की शाहबाद डेयरी थाना पुलिस ने कैमरून की रहने वाली एक विदेशी महिला अश्विनगवा अशेलय अजेंबुह को गिरफ्तार किया. वह इंजेक्शन देने के पर दरजनों लोगों से लाखों रुपए की ठगी कर चुकी थी. पुलिस ने उस के दरजन भर बैंक खाते भी सीज करा दिए. दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने 16 मई, 2021 को 2 विदेशी जालसाज चीका बैनेट और जोनाथन को गिरफ्तार किया. इन में एक नाइजीरिया और दूसरा घाना का रहने वाला है. इन्होंने देश भर में करीब एक हजार लोगों से कोरोना की दवा और औक्सीजन के नाम पर 2 करोड़ रुपए की ठगी की थी. इन से 22 मोबाइल फोन, 165 सिमकार्ड, 5 लैपटौप और बड़ी मात्रा में डेबिट कार्ड बरामद हुए. इन के करीब 20 बैंक खाते भी मिले हैं.

दिल्ली पुलिस के सामने ऐसा ही एक और मामला भी आया, जिस में ठग ने देश भर में साइबर ठगी की यूनिवर्सिटी के नाम पर विख्यात झारखंड के जामताड़ा से ठगी की ट्रेनिंग ली थी.

कोरोना संकट में औक्सीजन सिलेंडर दिलाने के नाम पर ठगी करने वाले गिरोह के 4 बदमाशों को पुलिस ने गिरफ्तार किया. इन में यूपी के फर्रुखाबाद का रहने वाला रितिक, गुरुग्राम निवासी योगेश सिंह, मोहम्मद आरजू और रवीश शामिल थे. इन से 4 मोबाइल, 16 सिमकार्ड, एक लैपटौप, 2 बाइक, एक स्कूटर और कुछ दस्तावेज बरामद किए गए.

इस गिरोह ने देश भर के लोगों से औनलाइन ठगी की वारदात की. दिल्ली में संत नगर, करोलबाग निवासी एक शख्स ने इन के खिलाफ करोलबाग में मुकदमा दर्ज कराया था. इस में रवीश ने जामताड़ा से साइबर ठगी की ट्रेनिंग ली थी.

क्यों होती है ऐसी बेरहमी

लेखक-  डा. पुलकित शर्मा

हर किसी के मन में यह सोच घर कर चुकी है कि बच्चे अपने घरों में महफूज रहते हैं. चूंकि मांबाप उन के आदर्श होते हैं, इसलिए वे उन पर सब से ज्यादा यकीन करते हैं, पर यह भी कड़वी हकीकत है कि बहुत से मांबाप अपने बच्चों को निजी जायदाद समझ लेते हैं. वे मान लेते हैं कि बच्चा पैदा कर दिया है, तो वे किसी भी रूप में उस का इस्तेमाल कर सकते हैं.

हम कितनी ही खबरें सुनते हैं कि किसी मांबाप ने अपनी बेटी को किसी जानपहचान वाले या अजनबी को पैसों की खातिर बेच दिया. इतना ही नहीं, धर्म से जुड़े वाहियात अंधविश्वास के चलते बच्चों की बलि दे दी जाती है.

भारत के कुछ हिस्सों में तो जोगिनी या आदिवासी जैसी गलत प्रथाओं के नाम पर देवीदेवताओं को बच्चों को सौंप दिया जाता है. घर में बच्चों की पिटाई होना तो देश में जैसे एक आम बात हो गई है.

इस सिलसिले में मनोवैज्ञानिक डाक्टर पुलकित शर्मा ने बताया, ‘‘आजकल ऐसे केस बहुत आते हैं, जब मांबाप अपने बच्चों के बेवजह गुस्सा होने की बात कहते हैं. पर जब बच्चों से बात की जाती है, तो वे अकेले में अपने मांबाप पर भड़ास निकालते हैं.

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‘‘वे बताते हैं कि किस तरह घर पर उन के साथ बहुत ज्यादा गलत बरताव होता है. वे पूरी खुंदक निकालते हैं, गालियां देने तक से भी नहीं चूकते हैं.

‘‘जहां तक किसी मां के बेरहम होने की बात है, तो बहुत बार वह पिता से ज्यादा गुस्सैल हो सकती है. ठाणे वाले केस में हीना शेख को अपने बच्चे या पति से कोई मतलब नहीं है. उसे किसी  भी कीमत पर अपनी जिंदगी सुख से भरी देखनी है.

‘‘पति से पैसों की डिमांड बढ़वाने के लिए उस ने बच्चे को पीटने का वीडियो तक बना डाला. इस से पता चलता है कि उसे अपने सुख से मतलब है.

‘‘इतना ही नहीं, लोगों में सहने की ताकत भी कम होती जा रही है. पहले मांबाप अपने बच्चों को मारते थे, तो उन में दया का भाव भी बहुत ज्यादा होता था. लेकिन अब नई पीढ़ी में यह दया भाव कम होता जा रहा है.

‘‘मां भी इस से अछूती नहीं है. बच्चे ने जरा सा कुछ गलत किया नहीं कि हाथ उठा दिया जाता है. फिर यह धीरेधीरे आदत बन जाती है.

‘‘इस का नतीजा बहुत बार भयंकर होता है. बच्चे ढीठ हो जाते हैं. वे अपने मांबाप से नफरत करने लगते हैं. कभीकभार तो जुर्म के रास्ते पर चल  देते हैं.

‘‘ऐसे हालात से बचने के लिए खुद पर काबू रखना बहुत जरूरी है. बच्चे  की गलती पर उन्हें समझाएं या जरूरत पड़ने पर डांट दें, पर उन पर हाथ उठाने से बचें.’’

दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी की लैक्चरर डाक्टर जया शर्मा ने इस मुद्दे की परतें खोलते हुए बताया, ‘‘इस समस्या के कई सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू हैं.

‘‘भौतिकवाद के बढ़ते पंजे ने लोगों को रुपएपैसे के लालच में इतना जकड़ लिया है कि पैसे के आगे सारे रिश्ते फीके लगने लगते हैं. फिर आप किसी के लिए इतना ज्यादा नफरत का भाव रखने लगते हैं कि मांबच्चे का रिश्ता भी तारतार होते देर नहीं लगती है.

‘‘कई बार घर में अपना दबदबा बनाने के लिए भी बच्चों के साथ मारपिटाई के किस्से होते रहते हैं. अगर औरत पढ़ीलिखी नहीं है तो उस में कमतर होने का भाव जाग जाता है. खूबसूरत न होना भी उस में कुंठा भर देती है.

‘‘अगर बच्चा पढ़ाई को ले कर ज्यादा जागरूक रहता है तो कई बार मां को वह बात भी सहन नहीं होती है. इस का नतीजा बच्चे की पिटाई होता है.

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‘‘जहां तक सौतेलेपन का बरताव है, तो इस समस्या को एक उदाहरण से समझते हैं. एक आईएएस अफसर की पहली पत्नी की बेटी को उन की वर्तमान पत्नी देखना तक पसंद नहीं करती है. वह लड़की अपनी नानी के घर रहती है. उस की नई मां अपने पति से भी उसे मिलने नहीं देती है.

‘‘नफरत का आलम यह है कि जब नई मां के बेटी हुई और उस का नामकरण था तो पति महोदय को यह सख्त हिदायत दे दी गई थी कि उस के नाम में इंगलिश का ‘एन’ अक्षर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उस लड़की का नाम ‘एन’ से शुरू होता था.

‘‘यहां भी यह बात साबित होती है कि वह नई मां उस बच्ची को घर से इसलिए दूर रखना चाहती है, ताकि भविष्य में उस की पढ़ाईलिखाई, शादी के खर्चे वगैरह न उठाने पड़ें.’’

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