हकीकत: महामारी पर भारी अंधविश्वास की दुकानदारी

दूसरी लहर में कोरोना कंट्रोल से बाहर होता दिखा. शहर के अस्पतालों में बिस्तर और औक्सीजन की कमी थी. मरीज दरदर भटक रहे थे. गांवों में तो इलाज की सुविधा ही नहीं दिखी. कहींकहीं पर तो पेड़ के नीचे कोरोना मरीजों का इलाज किया गया. नीमहकीम ग्लूकोज चढ़ा कर मरीजों का इलाज कर रहे थे.
राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, कोटा, उदयपुर से सटे जिलों में नए मरीजों में रिकौर्ड बढ़ोतरी हुई.

डाक्टरी महकमे के मुताबिक, तकरीबन 45 फीसदी तक नए मरीज गांवदेहात के इलाकों से आए. बाड़मेर, चूरू, धौलपुर, राजसमंद, प्रतापगढ़ जैसे जिलों में भी रोज के औसतन 600 केस आए, जबकि यहां पर दूरदराज के इलाकों में तो सैंपलिंग ही नहीं हो रही थी.

लोग भी कोरोना के नाम पर इतने डरे हुए दिखे कि खुद जांच ही नहीं कराई. वजह, यहां आईसीयू, बिस्तर और रेमडेसिविर दवा तो दूर मरीजों के इलाज के लिए कोविड सैंटर भी नहीं थे. इलाज के लिए लोगों को 100 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालयों तक जाना पड़ा.

जिला मुख्यालय के अस्पतालों में भी जगह नहीं बची थी. तहसील और उपखंड मुख्यालय के अस्पतालों में भी बिस्तर खाली नहीं दिखे. ऐसे में नीमहकीम पनप आए, जो घरों के बाहर नीम के पेड़ों के नीचे बिस्तर बिछा कर लोगों का इलाज कर रहे थे.

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पाली जिले के जैतारण इलाके में इसी तरह का मामला देखने को मिला, जहां पर कोरोना के संदिग्ध मरीजों का ग्लूकोज चढ़ा कर इलाज हो रहा था. बांगड़ अस्पताल में 280 बिस्तर बनाए गए. उन्हीं मरीजों को भरती किया जा रहा था, जिन का औक्सीजन सैचुरेशन 85 से नीचे था.

भरतपुर के बयाना इलाके में मरीजों को भरती करने की कोई सुविधा नहीं थी. सीटी स्कैन भी 10 गुना दाम पर हो रहा था. लोग जांच कराने के बजाय लक्षणों के आधार पर दवा ले रहे थे. वैर सीएचसी से 2 किलोमीटर दूर सटे 5,000 आबादी वाले नगला गोठरा इलाके में 70 फीसदी लोगों को खांसीजुकाम और बुखार था. मैडिकल टीम आई, पर किसी ने जांच नहीं कराई.

भोपुर, सहजनपुर, गाजीपुर समेत कई गांव थे, जहां हर घर में बुखार से पीडि़त लोग थे. सहजनपुर के शेर सिंह ने बताया कि एसडीएम ने मैडिकल टीम भेजी थी, पर लोग टैस्ट कराने को तैयार नहीं हुए. वे खुद ही दवा ले रहे थे.

जयपुर के मनोहरपुर में संक्रमितों के इलाज का माकूल इंतजाम नहीं दिखा.  50 किलोमीटर दूर जयपुर और  60 किलोमीटर दूर कोटपुतली में कोविड सैंटर बने थे. किशनगढ़रेनवाल में खारड़ा इलाके के 35 साला नौजवान को पहले सर्दीजुकाम हुआ, बाद में उस की मौत  हो गई.

बाड़मेर के चौहटन विधानसभा क्षेत्र में चौहटन, सेवा, धनाऊ व बाखासर में सीएचसी और पूरे इलाके में 14 से ज्यादा पीएचसी हैं. इन में सैंपलिंग तो हो रही थी, लेकिन कोविड सैंटर ही नहीं बने थे. मरीजों को बाड़मेर रैफर किया जा रहा था. गुड़ामालानी में कोविड सैंटर नहीं था. मरीजों को 100 किलोमीटर दूर बाड़मेर जाना पड़ रहा था.

औनलाइन महामृत्युंजय जाप

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले जोधपुर के 5 गांवों भावी, बिजासनी, जेतिवास, पिचीयाक और जेलवा में कोरोना की दूसरी लहर में महज 8 दिन में 36 मौतें हो चुकी थीं, वहीं पाली सांसद पीपी चौधरी के पैतृक गांव भावी में दिनभर हवनपूजन हो रहा था. औनलाइन महामृत्युंजय जाप का सीधा प्रसारण घरों में दिखाया जा रहा था.

कोरोना की दूसरी लहर में घरघर में मातम दिखा. श्मशान में एक चिता ठंडी नहीं होती, उस से पहले ही दूसरी अर्थी आ जाती थी.

यह दर्दनाक मंजर अकेले भावी गांव का नहीं, बल्कि जोधपुर जिले के  झाक, पीपाड़, बिलाड़ा, रणसीगांव, खेजड़ला, चिरडाणी, औसियां, भोपालगढ़ और दूसरे कई गांवों का भी था.

वैक्सीन पर नहीं भरोसा

पाली और बांसवाड़ा जिले के आदिवासी गांवों में वैक्सीन को ले कर अफवाहें फैल रही थीं. अफवाहों के चलते ही कम उम्र के लोग वैक्सीन लगवाने से बच रहे थे या उन्हें घर वाले ही वैक्सीन नहीं लगवाने दे रहे थे.

गोडवाड़ क्षेत्र के आदिवासी इलाके की 13 ग्राम पंचायतों में महज 15 लोगों ने ही वैक्सीन लगवाई थी. वागड़ के आदिवासी क्षेत्र में महज 54 फीसदी वैक्सीनेशन हुआ था. बाली के आदिवासियों ने टीके लगवाने से किनारा कर लिया था.

इस इलाके में यह अफवाह घरघर फैली थी कि वैक्सीन लगवाने से बच्चे पैदा करने की ताकत खत्म हो जाएगी. एक महीने में मौत भी हो सकती है. यही वजह थी कि डाक्टरी महकमे की ओर से बारबार वैक्सीनेशन कैंप लगाने के बाद भी टीका लगवाने कोई नहीं आ रहा था.

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सब से बड़ी बात यह दिखी कि यह अफवाह स्वयंभू आदिवासी नेताओं ने अलगअलग जगह पर बड़ी सभाओं के जरीए सरेआम फैलाई थी. एक मामले में तो पुलिस ने सभासदों के खिलाफ भीड़ जुटाने का मुकदमा तो दर्ज किया, लेकिन अफवाह फैलाने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं की.

चौंकाने वाला सच तो यह रहा कि आदिवासी क्षेत्र की 13 ग्राम पंचायतों  में टीकाकरण कराने वाले लोगों की संख्या एक दहाई तक ही रही, जिन में सरकारी कार्मिक या फ्रंटलाइन वर्कर्स ही  शामिल थे.

बाली पंचायत समिति की प्रधान पानरी बाई 58 साल की हैं. वे सिर्फ साक्षर हैं. अपने घर में जब उन्होंने कोरोना से तड़पते हुए दोहिते को देखा, तो सब से पहले डाक्टर ने उन के घर पहुंच कर औक्सीमीटर से औक्सीजन लैवल नापा. लैवल 70 तक आने के बाद दोहिते की सांसें उखड़ गईं.

इस के बाद पानरी बाई ने अपने पति और पूर्व प्रधान सामताराम गरासिया के साथ मिल कर यह तय किया कि गांव में अब ऐसी मौतों को रोकने की कोशिश की जाएगी. उन्होंने कोरोना से निबटने के लिए औक्सीमीटर मंगवाया.

टैलीविजन पर प्रोनिंग यानी औक्सीजन बढ़ाने का तरीका सीखा और दिन में 3 बार अपने घर में ही बने बगीचे में परिवार समेत गांव के लोगों को प्रोनिंग सिखाई.

नामर्दगी की वैक्सीन

बांसवाड़ा के कुशलगढ़ ब्लौक में एक और नया संकट खड़ा होता दिखा, जहां से वागड़ में कोरोना की ऐंट्री हुई थी. यहां पहले कोरोना का कहर था और बाद में वैक्सीनेशन को ले कर चल रही तमाम अफवाहों से डाक्टरी महकमा परेशान होता दिखा.

एक औरत ने बताया कि यहां ऐसी बात उड़ रही है कि पैंटशर्ट वालों का टीका अलग और गांवों में टीका अलग लग रहा है. यह टीका अगर जवान को लगा, तो बच्चे पैदा नहीं होंगे और बुजुर्गों को लगा, तो वे जल्दी मर जाएंगे.

कुशलगढ़ कसबे में हालात ज्यादा खतरनाक दिखे. वहां 2,776 लोग संक्रमित हो चुके थे, जबकि 36 लोगों की मौत हो चुकी थी. पहली लहर में 395 संक्रमण के मामले सामने आए थे, अब अफवाहों ने हालात को और बिगाड़ दिया था. कुशलगढ़ ब्लौक में महज  54 फीसदी ही वैक्सीनेशन हुआ.

सबलपुरा में वैक्सीनेशन के लिए गई टीम को गांव वालों ने भगा दिया. कुशलगढ़ के बीसीएमओ डाक्टर राजेंद्र उज्जैनिया ने माना कि यहां अंधविश्वास बहुत है, इसलिए टीकाकरण कम है.

पुरखों की पूजा

भंवरदा पंचायत के एक गांव में कई लोग एकसाथ पूजापाठ करते हुए देखे गए. जब इन से बातचीत की गई, तो बुजुर्ग सरदार सरपोटा ने बताया कि गांवगांव में कोरोना का डर है. दूसरे इलाकों की तरह हमारे गांव में यह आपदा नहीं आए, इसलिए पुरखों की पूजाअर्चना कर परिवार की हिफाजत की कामना कर रहे हैं.

गांव के हेमला सरपोटा बताते हैं कि कोरोना में सावधानी तो रख रहे हैं, लेकिन अब ऊपर वाला ही बचा सकता है.

राजस्थान के गांवदेहात के इलाकों में कोरोना को ले कर जागरूकता सही तरीके से नहीं पहुंच पा रही थी. यही वजह थी कि यहां के लोगों को पता ही नहीं था कि कोरोना कितना खतरनाक है. लक्षण दिखने पर लोग इलाज कराने भोपों के पास चले गए. खुद जयपुर जिले के गांवों में मैडिकल सेवाएं वैंटिलेटर पर थीं. सिस्टम खुद बीमार नजर आ रहा था.

क्वारंटीन सैंटर या जेल

कोरोना की दूसरी लहर में प्रतापगढ़ जिले के धरियावद उपखंड में ग्राम पंचायत और गांवों के साथ ढाणियों के भी हाल बुरे दिखे. यहां पर तकरीबन हर घर में खांसीबुखार के मरीज मौजूद थे, लेकिन इस से भी बुरा यह था कि गांव वालों को यह नहीं पता था कि कोरोना क्या है और यह कितना खतरनाक है.

यहां के सीधेसादे लोग तो बीमार होने पर यह कहते हैं कि उन्हें काली चढ़ी है या फिर माता का प्रकोप आया है और देवरे पामणे (देवीदेवता नाराज हो कर शरीर में मेहमान) हो गए हैं. इलाज के लिए डाक्टरों के पास नहीं, बल्कि भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास चले  जाते हैं.

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देवरे (मंदिर) पर भोपे कोरोना के इलाज का दावा करते दिखे. यहां की राख और भभूति कोरोना की दवा बन गई. वहीं डाक्टर और हैल्थ वर्कर्स के नाम से तो यहां के लोगों को डर लगता है. कहते हैं कि अगर डाक्टर के पास गए, तो वे जेल यानी क्वारंटीन सैंटर भेज देंगे.

इतना ही नहीं, इलाके में कुछ कारोबारियों की अस्पताल में कोरोना से इलाज के दौरान मौत हो गई, तो यहां के लोगों को लगने लगा कि अगर जांच में कोरोना निकला और अस्पताल में भरती हुए, तो उन की मौत तय है.

वैसे, ज्यादातर गांव वाले अपनेअपने घरों को छोड़ कर खेतों में परिवारों से अलग रहने लगे. हालांकि, एक अच्छी बात यह हो रही थी कि लक्षण दिखने पर यहां लोग 7 से 8 दिन तक खुद को क्वारंटीन रखते थे. ऐसे में संक्रमण आगे नहीं फैल रहा था. तकरीबन हर गांव  में इस तरह सैल्फ क्वारंटीन होने का चलन दिखा.

धरियावद में तकरीबन 30 से ज्यादा ऐसे गांव थे, जहां कोरोना जैसे लक्षण लोगों में देखे जा सकते थे. हैरत की बात यह थी कि यहां पर पारेल, नलवा, वलीसीमा के कुछ गांव को छोड़ कर हैल्थ डिपार्टमैंट की ओर से कोरोना के सैंपल ही नहीं लिए गए.

वलीसीमा के सरपंच विष्णु मीणा और पूर्व सरपंच पूरणलाल मीणा बताते हैं कि तकरीबन 3 महीने पहले आखिरी बार 35 लोगों के सैंपल लिए गए थे, जबकि एक महीने में 10 लोगों की मौत हो चुकी थी.

भरम से बड़ा कोरोना

सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम सिंह  झाला ने बताया कि गांव के लोगों की यह सोच है कि बीमार होने पर अगर डाक्टर के पास गए तो सीधे क्वारंटीन सैंटर या फिर अस्पताल भेज दिए जाएंगे. वहां पर सिर्फ मौत मिलती है, क्योंकि जो भी अस्पताल गया, वह जिंदा नहीं लौटा.

टीचर गौतमलाल मीणा बताते हैं कि कुछ गांव वालों को यह गलतफहमी है कि कोरोना का टीका लगाने के बाद भी कोरोना होता है. गांव के कुछ फ्रंटलाइन वर्कर को जो टीके लगाए, वे अच्छे वाले थे. हमें बुरे वाले लगाएंगे.

हर 15 से 20 घरों के बीच एक देवरा है, लेकिन 10,000 की आबादी के बीच बमुश्किल एक अस्पताल, एक या  दो डाक्टर मिल पाते हैं. खांसीबुखार होने पर डाक्टर कोरोना जांच की सलाह  देते हैं. यहीं से गांव वाले डर जाते हैं  और मजबूरी में भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास चले जाते हैं. इस चक्कर में कई लोगों की जानें भी चली गईं.

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कोरोना का भूत

दूसरी लहर में उदयपुर जिले में वल्लभनगर उपखंड के गांवों में कोरोना पूरी तरह पैर पसार चुका था. हर गांव में तीनचौथाई आबादी में खांसीबुखार के मरीज दिखे. अगर कोरोना के 100 सैंपल करवाए जाते, तो इन में से 80 पौजिटिव मिल जाते, लेकिन हैल्थ डिपार्टमैंट और प्रशासन के रिकौर्ड में सच से बिलकुल उलट तसवीर दिखी, क्योंकि सैंपल लेने का काम केवल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तक ही सिमट कर रह गया था.

यहां के हर गांव में देवरे और देवीदेवताओं के स्थान पर लोग कोरोना को भूत सम झ कर  झाड़फूंक के लिए पहुंच गए थे. इन देवरों पर अकसर शनिवार और रविवार को छोटेबड़े मेले लग ही जाते थे.

यहां दिनभर में हर देवरे पर तकरीबन 100 से 250 के बीच लोग आते दिखे. गांवदेहात में लोग कोरोना को भूत मानते हैं और भूत उतरवाने के लिए ये लोग डाक्टर के पास जाने के बजाय भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास पहुंच जाते हैं.
अगर कोई मास्क में यहां आता है, तो भोपे  झाड़फूंक करने के बाद यह कह कर मास्क उतरवा देते हैं कि तुम्हारे ऊपर से कोरोना का भूत हम ने भगा दिया है. घर जाओ और आराम करो.

गांव में जा कर सैंपल लेने की बात सिर्फ कागजों में दौड़ती दिखी. महकमे के मुताबिक, ग्राम पंचायत खरसाण में  6, नवणिया में 8, मैनार में 6 लोगों की कोरोना से मौत हुई थी, जबकि सचाई यह थी कि पिछले 30 दिन यानी  21 अप्रैल से 21 मई तक इन ग्रामीण इलाकों में 45 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी.

मौत के आंकड़ों पर पहरा

जयपुर की दूदू, फागी, चाकसू, बगरू, सांभर, शाहपुरा, कोटपुतली तहसील के गांवों में जमीनी हकीकत देखी तो रूह कंपाने वाली सचाई सामने आई. गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं वैंटिलेटर पर और मरीज लाचार नजर आए.

कोरोना की दूसरी लहर में यहां मौतों की तादाद में इजाफा हो गया. हैरत की बात यह थी कि मौतों के लिए सरकार महामारी को जिम्मेदार नहीं बताती दिखी. जब स्वास्थ्य महकमे के अफसरों से जानकारी चाही, तो उन्होंने फोन काट दिया.

अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौतों के आंकड़ों पर सरकारी पहरा किस कदर लगा था. 20 दिन में ही फागी में 30, कोटपुतली में 75 और बस्सी में
50 लोग दम तोड़ चुके थे.

गांवों के लोगों से बातचीत की, तो हरसूली के रामकिशन ने बताया कि गांव में तकरीबन हर घर में लोग बीमार हैं. पिछले 7 दिनों में ही 10 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. उपजिला अस्पताल दूदू से महज 3 किलोमीटर दूर खुडियाला के सरपंच गणेश डाबला ने बताया कि इलाके में 13 मौतें हो चुकी हैं.

इसी तरह फागी इलाके में पिछले कुछ दिनों के अंतराल में 30 मौतें हो चुकी हैं. कोटपुतली के मनीष ने बताया कि इलाके में 75 मौतें हो चुकी हैं. बस्सी इलाके में भी एक महीने के भीतर 50 से ज्यादा मौतें प्रशासनिक दावों की पोल खोल रही हैं.

दूदू उपजिला अस्पताल के डाक्टर सुरेश मीणा ने बताया कि अस्पताल में वैंटिलेटर नहीं हैं. हालांकि 4 औक्सीजन सलैंडर हैं. पड़ताल में सामने आया कि इन की सुविधा मरीजों को नहीं मिल रही, बल्कि उन्हें 70 किलोमीटर दूर जयपुर के लिए रैफर कर दिया जाता है. बदइंतजामी का आलम यह है कि 3 घंटे तक मरीज सुनीता हाथ में एक्सरे को ले कर दर्द से कराहती रही, लेकिन संभालने वाला कोई नहीं था.

यही हालत कोटपुतली अस्पताल की थी. आसपास के 35 से ज्यादा गांवों के मरीजों को वहां वैंटिलेटर की सुविधा नहीं मिल रही थी और जरूरत पड़ने पर मरीजों को जयपुर या दिल्ली का रुख करना पड़ रहा था.

लटकाए जूतेचप्पल

हर साल अकाल  झेलने वाले आसींद और बदनौर इलाके के हालात डरावने हो गए थे. आसींद के दांतड़ा बांध गांव में 30 दिन में कोरोना से 62 मौतें हो गई थीं. लोग दहशत में हैं. गांव में कोरोना से मौतें होने से लोगों में गुस्सा दिखा, क्योंकि कोई पुख्ता इंतजाम नहीं थे.

खौफजदा गांव वालों ने घरों के बाहर जूतेचप्पल लटका दिए. इस गांव में तकरीबन 400 घर हैं. सभी घरों में यही हालात दिखे. इस बारे में गांव वालों का कहना था कि इस से हमारे परिवार और गांव को किसी की नजर नहीं लगेगी. कोरोना से भी बचे रहेंगे. यहां घरों के बाहर काली मटकी और टायर बांधते हुए तो देखा गया था, लेकिन कोरोना के खौफ के चलते जूते और चप्पलें पहली बार लटकी दिख रही थीं.

गांव में कोरोना का खौफ इतना ज्यादा था कि जिस घर में संदिग्ध मरीज था, वहां लोगों ने दरवाजे से बल्लियों का क्रौस का निशान बना रखा था, ताकि गांव वालों को पता चल जाए कि यहां से दूरी बना कर रखनी है.

लोगों ने बताया कि हमारे यहां इतनी मौतें हुईं, लेकिन प्रशासन ने बिलकुल ध्यान नहीं दिया. शुरुआत में टीम आई और 80 लोगों के सैंपल लिए. इस में से 8 पौजिटिव निकल गए. इस के बाद दोबारा टीम गांव में नहीं आई. अस्पताल भी बंद है.

समाजसेवी नरेंद्र गुर्जर कहते हैं कि दांतड़ा बांध गांव में 1,700 वोटर और 300 घर हैं. यहां इलाज के कोई साधन नहीं हैं. नजदीक में कोई बड़ा अस्पताल भी नहीं है. शुरुआत में दवा किट भी  पूरी नहीं दी गई. अब कोई टीम भी  नहीं आ रही है. लोग बहुत डरे हुए हैं, इसलिए जूतेचप्पलें लटका रहे हैं.

 झोलाछाप डाक्टरों का राज

कोरोना की दूसरी लहर में  झोलाछाप डाक्टर गांवों में दुकानें खोल कर बैठ गए थे. वे छोटे बच्चों से ले कर गंभीर बुजुर्ग मरीजों को इलाज की जगह मौत बांट रहे थे. फागलवा गांव में एक  झोलाछाप डाक्टर क्लिनिक खोल कर बैठा था. वह कोविड मरीजों को बिना जांच के ही दवा दे कर ड्रिप लगाता दिखा.

खांसीजुकाम के मरीजों से ये लोग कोविड जांच करवाने के बजाय यह कह रहे थे कि कोई कोविडफोविड नहीं है. हम से दवा ले जाओ. 2 दिन में सही हो जाओगे.
सेवदा गांव में एक क्लिनिक के बाहर मरीजों की भारी भीड़ जुटी हुई थी. वहीं, इस के पास नर्सिंग होम में भी महिला मरीजों की भीड़ जुटी हुई थी.

सब से बड़ी बात यह थी कि ये  झोलाछाप डाक्टर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के ठीक सामने अपने क्लिनिक और नर्सिंग होम खोल कर बैठे दिखे. ये मरीजों की जान के साथ बेखौफ हो कर खिलवाड़ कर रहे थे. कोरोना के दौर में इन लोगों ने कई सामान्य मरीजों को क्रिटिकल हालात में पहुंचा दिया था.

चूरू जिले की रतनगढ़ तहसील के पडि़हारा गांव में एक  झोलाछाप डाक्टर कई कोविड मरीजों को इलाज के नाम पर कई दिनों से दवाएं देने के साथ ही ड्रिप चढ़ा रहा था. इस से कई मरीज गंभीर हालात में पहुंच गए. कुछ मरीज तो आईसीयू और वैंटिलेटर पर चले गए.

गांव की सीएचसी में डाक्टर तो हैं. पर गांव वालों ने  झोलाछाप डाक्टरों की कलक्टर सांवरमल वर्मा और सीएमएचओ डाक्टर मनोज शर्मा से शिकायत की, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई.

कटेवा गांव में 5  झोलाछाप डाक्टर मैडिकल स्टोर की आड़ में मरीजों को देख रहे थे. घिरणियां बड़ा के रहने वाले बाबूलाल बैरवा अपने 13 साल के बेटे नीतीश कुमार को कटेवा के लाइफ केयर मैडिकल ऐंड नर्सिंग होम में इलाज के लिए ले कर आए थे. उन के बेटे को किडनी में संक्रमण था.  झोलाछाप डाक्टर ने नीतीश को दुकान के बाहर ही ड्रिप लगा दी और उस के मातापिता को उस के पास बैठा दिया.

अब कह रहे हैं कि कोरोना की तीसरी लहर भी आएगी. अगर तब तक सरकार ने तैयारी पूरी नहीं की, तो देशभर में क्या हाल होगा, इस का आसानी  से अंदाजा लगाया जा सकता है.

हाथ से लिखने की आदत न छोड़ें

आज हम कलमदवात से दूर होते जा रहे हैं. सब लोगों के हाथ में स्मार्ट फोन आ गया है तो सारा काम उसी पर हो रहा है. पढ़ाईलिखाई भी, हिसाबकिताब भी, प्रेम संदेश भी और फोटो का लेना और भेजना भी. मगर इस सब के बीच जो चीज खोती जा रही है, वह है हाथ से लिखना. अगर हम हाथ से लिखना बंद कर देंगे तो कुछ सालों में कलम पकड़ना भी हमें मुश्किल लगने लगेगा. जरूरत पड़ने पर कागज पर आड़ेतिरछे शब्द लिखेंगे.

70 साल के बुजुर्ग हरीशजी ने उस दिन  3 चैक खराब किए. उन का एटीएम कार्ड कहीं खो गया था. उस दिन अचानक पैसे की जरूरत पड़ी तो उन के बेटे ने कहा चैक साइन कर दो, मैं बैंक से पैसे निकलवा लाता हूं, मगर वे अपना ही साइन ठीक से नहीं कर पा रहे थे. बारबार तिरछा साइन हो रहा था. इतने दिनों बाद कलम हाथ में पकड़ी तो लिखते समय हाथ कांपने लगे. 2 चैक फाड़ कर फेंकने पड़े. तीसरे चैक पर कहीं ठीक से साइन कर पाए.

उस दिन से हरीशजी और उन की पत्नी रोज अपने दस्तखत बनाने की प्रैक्टिस करते हैं. कभीकभी पुरानी डायरी खोल कर एकाध पेज कुछ लिखते भी हैं. 10 साल पहले तक औफिस में हरीशजी कैसे तेजी से कलम चलाते थे, मगर रिटायर होने के बाद हाथ से कलम छूटी तो लिखने की प्रैक्टिस भी छूटने लगी.

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बूढ़े लोग पहले खूब चिट्ठीपत्री लिखा करते थे. दोस्तोंरिश्तेदारों का हाल चिट्ठियां लिखलिख कर लिया करते थे, मगर अब वे भी नौजवान पीढ़ी की तरह ह्वाट्सएप करने लगे हैं. ह्वाट्सएप पर फोटो और वीडियो भेजने की भी सुविधा है. कुछ ज्यादा लंबा लिखना हो तो लैपटाप से ईमेल भेजने लगे हैं. पेन किसी अलमारी के कोने में पड़ा धूल खाता रहता है.

घर की औरतें पहले सारा हिसाबकिताब डायरी में लिखती थीं. धोबी वाले का हिसाब, दूध वाले का, सब्जी वाले को कितना दियालिया सब रसोई की अलमारी में पड़ी छोटी सी डायरी में लिखा रहता था, मगर अब डायरीकलम की जगह उन के हाथ में भी स्मार्ट फोन है, जिस में सारा हिसाबकिताब रहता है. कलम की जरूरत ही नहीं पड़ती.

तमाम दफ्तरों में कंप्यूटर लग गए हैं. अब वहां बाबुओं को बड़ेबड़े रजिस्टर नहीं संभालने पड़ते हैं, उन पर कोई एंट्री नहीं करनी पड़ती, बल्कि सारा काम कंप्यूटर पर होता है. कंप्यूटर पर फाइलें बनती हैं और प्रिंट निकाल कर हार्ड कौपी तैयार कर ली जाती है और वही अलमारियों में भर दी जाती है.

बीते तकरीबन 2 साल से कोरोना महामारी के चलते स्कूलकालेज बंद हैं. बच्चों की सारी पढ़ाई औनलाइन हो रही है. इम्तिहान औनलाइन हो रहे हैं. इस से बच्चों की लिखने की आदत खत्म होती जा रही है. जो बच्चे पहले क्लास में अपनी कौपी पर तेजी से कलम चलाते हुए टीचर की छोटी से छोटी बात लिख लेते थे, अब कलम उठाते उन के हाथ कांपते हैं. अब लिखने के बजाय दसों उंगलियों से टाइपिंग करते हैं जो औनलाइन क्लास के लिए जरूरी है. अगर यही हाल अगले कुछ साल और रहा तो बच्चे कौपी पर कलम से लिखना ही भूल जाएंगे.

कभी अपनी दादीनानी की पुरानी संदूकची खोलिए. उन के पुराने खत देखिए, जो उन के मातापिता या रिश्तेदारों ने उन्हें लिखे थे. उन की पुरानी डायरी खंगालिए, आप पाएंगे कि कैसे उन कागजों पर मोतियों की तरह सारी बातें उकेरी गई हैं. कितनी सुंदर लिखावट, हर अक्षर बराबरबराबर, जैसे किसी माला में एकजैसे सैकड़ों मोती पिरो दिए गए हों. आज ऐसी सुंदर लिखावट कम ही दिखती है.

पहले स्कूलों में कक्षा 6 तक बच्चे सुलेख लिखते थे. इस के लिए एक अलग पीरियड होता था. सुलेख की किताबें छापी जाती थीं, जिन में पहली लाइन के नीचे 3 खाली लाइन खिंची  होती थीं और जिन में ऊपर की लिखावट की हूबहू नकल उतरवा कर बच्चों की लिखाई को सुधारा जाता था.  अब ऐसी सुलेख वाली किताबें बच्चों को नहीं दी जाती हैं. अब तो पहली कक्षा का बच्चा भी डिजिटल क्लास कर रहा है. जिस उम्र में बच्चों की उंगलियां कलम पकड़ने का सलीका सीखती थीं, उस उम्र में वह टाइपिंग कर रहा है. अब लिखावट सुधारने की तरफ न तो बच्चे ध्यान देते हैं और न ही अध्यापक, जबकि हकीकत यह है कि भविष्य में कामयाब होने के लिए लिखावट का अच्छा होना बहुत जरूरी है.

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यह बात बिलकुल सही है कि आज के डिजिटल जमाने में आप की लिखावट का बहुत ज्यादा असर आप के भविष्य पर नही पड़ता है, मगर यह बात उन लोगों के लिए सही है जो लोग अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के नौकरी कर रहे हैं. वे बच्चे जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं उन की लिखावट अच्छी न होने पर उन के रिजल्ट पर काफी बुरा असर पड़ता है. आखिर कभी तो उन को क्लास रूम में बैठ कर भी लैक्चर अटेंड करने होंगे, लिखित इम्तिहान देने ही होंगे. नौकरी के लिए जाएंगे तो वहां भी लिखित इम्तिहान होगा, जिस में तय समय के अंदर पेपर पूरा करना होगा. अगर लिखने की आदत ही न रही तो कैसे पेपर पूरा करेंगे?

कहा जाता है कि आप की लिखावट से ही पता चलता है कि आप पढ़ने में कैसे हैं. काफी अच्छी तरह से पढ़ने के बावजूद सिर्फ लिखावट के चलते नंबर कम आ सकते हैं, इसलिए लिखने की आदत बनाए रखना कैरियर के लिए जरूरी है.

कुछ नौजवान बहुत क्रिएटिव होते हैं. जवानी में कहानियां, कविताएं, गीतगजल खूब कहे और लिखे जाते हैं. पहले नौजवानों में डायरी लिखने का बड़ा शौक था. हर जवान लड़कालड़की के पास एक डायरी जरूर होती थी, जिस में वे छिपछिप  अपने दिल की बातें लिखा करते थे. प्रेमीप्रेमिका के प्रेमपत्र भी इन्हीं डायरियों में छिपा कर रखे जाते थे. ये लंबेलंबे प्रेमपत्र होते थे और सुंदर लिखावट में लिखे गए होते थे कि पहली ही नजर में पढ़ने वाला दीवाना हो जाए. वह भी बिना किसी गलती और कांटछांट के. मगर आज किसी नौजवान से कह दें कि आधा पेज का पत्र लिख दो तो तमाम गलतियां, काटछांट, ओवरराइटिंग से भरा पत्र ही होगा.

अब जवान लोग ह्वाट्सएप या ईमेल से अपने प्रेम का इजहार करते हैं. यहां गलतियों को तुरंत डिलीट किया जा सकता है. पर अगर गुलाबी पन्ने पर दिल की बात अपने हाथों से लिख कर अपने प्रिय तक पहुंचाई जाए तो क्या वह उसे सालों अपनी किताबों में छिपा कर सहेज कर नहीं रखेगा? हो सकता है आप का भेजा गया गुलाबी पैगाम वह जिंदगीभर संभाल कर रखे.

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लिखने का अभ्यास न छूटे यह बहुत जरूरी है वरना आने वाली पीढ़ियां कई सदियों के अभ्यास से सीखी गई लिखने की कला को भूल जाएंगे. आज से ही सुलेख का अभ्यास करें. किसी अखबार या किसी पत्रिका में से देख कर लिखने की आदत डालें. इस से कलम पर उंगलियों की पकड़ बुढ़ापे तक कमजोर नहीं होगी. लिखते समय शब्दों पर ध्यान दें और जो शब्द सुंदर नहीं बन रहे हैं, उन को ठीक तरीके से बनाने की प्रैक्टिस करें. आप जितना अधिक लिखेंगे उतना ही आप के लेखन में सुधार आएगा.

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दिल्ली में गर्मी ने तोड़ा 90 साल का रिकॉर्ड

गर्मी ने इस बार सबको जला कर रख दिया है. देश की राजधानी दिल्ली तप रही है. जल रही है दिल्ली-NCR की धरती… इस बार गर्मी का ऐसा तांडव है कि दिल्ली की सड़कें दोपहर को सुनसान होने लगी हैं जहां हलचल हुआ करती थी. इतना ही नहीं कोरोना तो दूर लोग गर्मी के कारण शाम को भी निकलने से कतराने लगे हैं. शाम 5 बजे तक भी कोई पार्क में नहीं दिखता. लोग 6 बजे के बाद घर से बाहर निकलने से पहले सोचने लगे हैं. कोरोना तो है लेकिन अब गर्मी ने भी बुरा हाल कर दिया है.

पारा 44-45 डिग्री सेल्सियस दर्ज हो रहा है.. जो सामान्य से 6-7 डिग्री से ज्यादा है..90 साल बाद दिल्ली में एक जुलाई सबसे अधिक गर्म दिन रहा. लू के थपेड़ों से बुरा हाल है दिल्ली वालों का..  इस उमस भरी गर्मी से परेशान हैं लोग. दिल्ली में सुबह सात बजे से ही धूप की चुभन महसूस होने लगी है. सुबह सात बजे तक इतनी तेज धूप हो जाती है कि लगता है जैसे सुबह के 10 बज रहे हों. दोपहर तक तो मानो सूर्य देवता अपना रौद्र रूप धारण कर लेते हैं. सूरज सर पर इस कदर चढ़ जाता है जैसे कि बस अब ये जला कर ही मानेगा. यही वजह है कि लोग दिल्ली में बाहर निकलने से परहेज करने लगे हैं. दिल्ली का दिल कहा जाने वाला कनॉट प्लेस और इंडिया गेट जो लोगों से गुलजार रहा करती है.. इन दिनों सुनसान है.

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ऐसा लगता है जैसे आसमान से हो रही आग बरस रही हो इस बीच लोग लू और इस चुभन भरी गर्मी से बचने के लिए  तरह तरह के जतन कर रहे हैं. कोई सड़क किनारे निंबू पानी पीकर गर्मी के कहर को कम करने की कोशिश कर रहा है तो कोई आइसक्रीम खाकर शरीर की तपन से निजात पाने की कोशिश कर रहा है….बाहर निकले लोगों का एक मिनट भी धूप में खड़ा रहना मुसीबत से कम नहीं है..इसलिए सिर्फ वो ही लोग निकल रहे हैं जिनका कुछ काम है पेट के मारे हैं. गर्मी और गर्म हवाओं की वजह से ऑटो ड्राइवर भी छाव का सहारा ढूंढने लगे हैं.. उन्हें सवारी भी नसीब नहीं हो रही है लेकिन क्या करें मजबूर हैं  सूरज ढलने के बाद भी शाम के समय लोगों को उमस की वजह से राहत नहीं मिल रही है क्योंकि शाम को भी गर्म हवाओं का ही झोंका मिलता है.

मौसम विभाग ने क्या कहा ?

खबरों के अनुसार मौसम विभाग के मुताबिक दिल्ली में बारिश की भी संभावना है…लेकिन मानसून के लिए लोगों को अभी इंतजार करना होगा..सीनियर साइंटिस्ट नरेश कुमार ने बताया कि लोगों को अभी मानसून के लिए कम से कम 1 हफ्ते तक लोगों को इंतजार करना पड़ेगा तब तक गर्मी की तपिश झेलनी पड़ेगी. तो वहीं भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के मौसम वैज्ञानिक डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव का कहना है कि  दिल्ली-एनसीआर में  2-3 जुलाई को हल्की बारिश की उम्मीद है, लेकिन यह मानसून की बारिश नहीं होगी. मानसून कब आएगा, इसके बारे में अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. फिलहाल 6 दिन तक मानसून की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है.

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गर्मी से बचने के उपाय…..

इस वक्त बेहतर यही हैं लोगों के लिए कि वो घर से बाहर बिल्कुल ना निकलें…कोई बहुत आवश्यक कार्य हो तभी निकलें इतना ही नहीं ज्यादा से ज्यदा ठंडे व  पेय पदार्थ का सेवन करें. लू से बचने के लिए निंबू पानी जरूर पीएं…साथ ही कच्चे आम का पना भी बहुत फायदा करता है. गलती से लू लग भी जाए तो प्याज का रस तुरंत पीए और उसे पीस कर अपने पैरों में लगाएं.

जब दूसरे आदमी से प्रेग्नेंट हो जाए शादीशुदा महिला

बंगला फिल्मों की जानीमानी हीरोइन और तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां जैन जल्द ही मां बन जाएंगी, लेकिन उन के पेट में पल रहे बच्चे का पिता कौन है, इस सवाल को ले कर गजब का सस्पैंस बना हुआ है.

महज 30 साल की नुसरत जहां देखने में अभी भी अधखिले गुलाब के फूल सरीखी दिखती हैं, लेकिन हैं वे बहुत बिंदास और बोल्ड जो इस बात की परवाह नहीं करती हैं कि कौन उन के बारे में क्या बक रहा है. अपने होने वाले बच्चे के बारे में आज नहीं तो कल जब भी बोलेंगी, तब एक और धमाका जरूर होगा.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चहेती नुसरत जहां ने राजनीति में साल 2019 के लोकसभा  चुनाव में मोदी लहर के बीच वह धमाका कर दिखाया था, जिस की उम्मीद खुद ममता बनर्जी को भी नहीं रही होगी. त्रिकोणीय मुकाबले में उन्होंने वशीरहाट सीट से भाजपा के सत्यानन बसु को साढ़े 3 लाख वोटों से करारी शिकस्त दे कर सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा था.

इस के चंद दिनों बाद ही नुसरत जहां ने दूसरा धमाका कोलकाता के जानेमाने रईस कारोबारी निखिल जैन से शादी कर के किया था. यह शादी शाही तरीके से ईसाई और हिंदू रीतिरिवाजों से तुर्की में हुई थी. बाद में कोलकाता में भी शादी का रिसैप्शन हुआ था जिस में फिल्म और राजनीति की कई दिग्गज हस्तियों ने इन दोनों को बधाई और आशीर्वाद दिया था.

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संसद पहुंच कर भी नुसरत जहां ने एक और धमाका किया जब वे मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन कर पहुंची थीं. इस पर मुसलिम कट्टरपंथियों ने उन के खिलाफ फतवे जारी कर दिए थे, क्योंकि इसलाम में सिंदूर और मंगलसूत्र जैसे सुहाग चिह्न हराम हैं.

शादी की पहली सालगिरह पर 19 जून, 2021 को निखिल और नुसरत दोनों ने सोशल मीडिया के जरीए एकदूसरे के लिए फिल्मों जैसा प्यार जताया था, जिस का लब्बोलुआब यह था कि दोनों एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते और आपस में बेइंतिहा मुहब्बत करते हैं.

लेकिन अफसोसजनक तरीके से शादी की दूसरी सालगिरह पर दोनों अलगअलग रहे थे और एक नया फसाद वजूद में आ चुका था. दो लफ्जों में कहें तो ब्रेकअप हो चुका था और बकौल निखिल नुसरत दिसंबर, 2020 को ही ससुराल वालों से लड़झगड़ कर अपने मांबाप के घर चली गई थी. यह लड़ाई और ब्रेकअप पैसों को ले कर थे. निखिल का कहना यह था कि नुसरत सारे पैसे और अहम व जरूरी कागजात अपने साथ ले गई थी, जबकि नुसरत का इलजाम यह था कि निखिल और उस के घर वाले पैसों के लालची हैं.

फिर बच्चा किस का

तंग आकर निखिल ने नुसरत के खिलाफ अदालत का रुख किया. इस के बाद नुसरत के पेट से होने की खबर सामने आई. खुद नुसरत ने अपने बढ़ते पेट की तसवीरें सोशल मीडिया पर शेयर की थीं.

इस पर तिलमिलाए निखिल ने दो टूक बयान दे डाला कि नुसरत के पेट में पल रहा बच्चा उन का नहीं है. इस के पहले तलाक के मसले पर यह बयान  दे कर नुसरत ने एक और धमाका कर दिया था कि तलाक की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि तुर्की में हुई शादी भारत में कानूनन जायज नहीं है.

इन बातों का फैसला अदालत करती रहेगी, लेकिन बच्चा किस का है, यह सस्पैंस अभी बना रहेगा. बाल की खाल निकालने वाला मीडिया कभी एक भाजपा नेता से तो कभी एक और बंगला कलाकार यश दास गुप्ता से नुसरत का संबंध जोड़ता रहता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि नुसरत बच्चे के पिता के बाबत कुछ नहीं बोल रही हैं. इतना जरूर वे इशारों में कह चुकी हैं कि उन की शादी शादी नहीं थी, बल्कि वे निखिल के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रह रही थीं.

इस बात के माने साफ हैं कि एक गैर शादीशुदा औरत अपनी मरजी से किसी के भी बच्चे की मां बनने का हक और आजादी रखती है और इस पर लोगों को बेवजह अपना सिर नहीं दुखाना चाहिए. लेकिन यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि जैसे भी की थी नुसरत ने निखिल से शादी तो की थी और एक साल ब्याहता की तरह ससुराल में रही भी थीं. बाद में खटपट हुई या किसी और से टांका भिड़ा तो उन्होंने ससुराल छोड़ दी.

बच्चा किस का है यह नुसरत ही जानती हैं, लेकिन इस बवंडर से उन की इमेज बिगड़ी है, इस में कोई शक नहीं और हिंदू व मुसलिम कट्टरपंथी खुश हो रहे हैं, इस में भी कोई शक नहीं. निराश वे नौजवान हुए हैं, जो इन दोनों की मिसाल देने लगे थे.

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फर्क क्या है

किसी शादीशुदा औरत के किसी और के बच्चे की मां बनने का यह पहला या आखिरी मामला नहीं था. समाज में नुसरत जैसी औरतों की कमी नहीं है जो कभी मजबूरी में तो कभी मरजी से किसी और के बच्चे की मां बनती हैं. कुछ मामले ढकेमुंदे रह जाते हैं, तो कई पकड़ में भी आ जाते हैं. जो पकड़ में आ जाते हैं उन में दुर्गति औरतों की ही होती है, क्योंकि शौहर कितना भी दरियादिल या चाहने वाला क्यों न हो, यह कभी बरदाश्त नहीं करता कि उस की बीवी किसी और से न केवल जिस्मानी ताल्लुक बनाए, बल्कि उस के बच्चे को जन्म भी दे.

नुसरत सरीखा ही एक मामला पिछले साल दिसंबर में बरेली से सामने आया था जिस में पति का आरोप यह था कि जब उस ने सुहागरात ही नहीं मनाई, तो बच्चा कहां से आ टपका.

प्रेमनगर की रहने वाली कमला (बदला नाम) की शादी नवंबर, 2017 में इज्जतनगर के एक नौजवान शरद (बदला नाम) से हुई थी. कमला के मुताबिक, शौहर और ससुराल वाले पहले दिन से ही उसे दहेज के लिए तंग करने लगे थे, जिस की शिकायत उस ने पुलिस में की थी. बाद में शरद के घर वालों ने उसे जायदाद से बेदखल कर दिया, तो वह उसे ले कर अलग किराए के मकान में रहने लगा.

लेकिन इस से कमला की दुश्वारियां कम नहीं हुईं, क्योंकि शरद शराब के नशे में उस से मारपीट करता था और उस के चालचलन पर भी शक करता था. इसी के चलते वह बच्चे को अपनी औलाद मानने तैयार नहीं था. कमला के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि अब वह क्या करे.

एक और मामले में तो पति ने पत्नी की हत्या ही कर दी. बीती 28 जून को फिरोजाबाद जिले के जाफरगंज के जगरूप निषाद ने नयागंज थाने में 18 जून को अपनी 26 साला बेटी ज्योति निषाद की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराइ थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही ज्योति मायके में रहने लगी थी.

ज्योति के पति राजेश निषाद को शक था कि वह किसी और से पेट से हो गई है जो सच भी लगता है, क्योंकि दोनों अलगअलग रह रहे थे. पुलिसिया छानबीन में ज्योति की लाश चित्रकूट के सती अनसुइया जंगल से बरामद हुई.

जगरूप के मुताबिक, राजेश ने ज्योति को चुपचाप बुलाया और उस की हत्या कर लाश जंगल में फेक दी. राजेश से पूछताछ में पुलिस को कोई खास कामयाबी अभी तक नहीं मिली थी. जाहिर है कि वह बीवी की बेवफाई की आग में जल रहा था और यह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था कि भले ही अलग रहे, लेकिन पेट में किसी और का बच्चा लिए घूमे.

ऐसा ही एक सच्चा किस्सा भोपाल का है जिस में पति लक्ष्मण सिंह (बदला नाम) इस बात से परेशान है कि बीवी पेट से हो आई है, जबकि हमबिस्तरी के दौरान वह हर बार कंडोम का इस्तेमाल करता था.

पेशे से ट्रक ड्राइवर लक्ष्मण को यकीन हो चला है कि जब वह बाहर जाता था तब बीवी ने जरूर किसी और से संबंध बनाए होंगे. पैसों की तंगी के चलते वह अभी बच्चा नहीं चाहता था, जबकि बीवी हर समय बच्चे की रट लगाए रहती थी.

अब मुमकिन है कि उस ने यह इच्छा किसी और से पूरी कर ली हो, इसलिए बारबार कहने पर भी बच्चा गिराने को तैयार तैयार नहीं हो रही है. हैरानपरेशान लक्ष्मण उस से छुटकारा पाना चाहता है.

क्या करें शौहर

बीबी पर शक आम बात है खासतौर से उस सूरत में जब वह खूबसूरत हो, हंसमुख हो और पति से ज्यादा अलग रहती हो. लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं कि ऐसे में उस के पेट में पल रहा बच्चा किसी और का ही होगा, लेकिन कुछ हालात में शक की गुंजाइश तो बनी ही रहती है.

ऐसी हालत में पतियों को चाहिए कि वे ठंडे दिमाग से काम लें. बच्चा खुद का है या किसी और का, इस टैंशन से बचने के लिए प्यार से पत्नी से बात करें. अगर जवाब या सफाई देने में वह आनाकानी करे तो शक दूर करने या उसे यकीन में बदलने के लिए डीएनए टैस्ट करवाएं, लेकिन यह आसान काम नहीं है. इस के लिए किसी बड़े वकील से मशवरा करना चाहिए.

अगर पत्नी सीधेसीधे मान ले कि बच्चा किसी और का ही है, तो सब से बेहतर रास्ता तलाक है. मारपीट या हत्या करने से पति की खुद की जिंदगी भी तबाह हो जाती है, जैसे राजेश की हुई. इस से पति को कुछ हासिल नहीं होता.

यह भी हकीकत है कि कोई भी शौहर पत्नी की यह बेवफाई बरदाश्त नहीं कर पाता और ऐसी हालत में उस की रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो जाता है और मारे गुस्से के वह जुर्म कर बैठता है, लेकिन इस से कानून को कोई सरोकार नहीं होता कि यह हत्या या हिंसा की यह मुकम्मल वजह थी कि चूंकि बीवी के पेट में किसी और का बच्चा था, इसलिए गुनाह माफ कर दिया जाए.

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क्या करें पत्नियां

अगर वाकई पेट में पति का नहीं किसी और का बच्चा है, तो इस सच को पति को बता देना चाहिए. वह माफ कर देगा, इस बात की उम्मीद न के बराबर है, क्योंकि यह है तो उस के साथ धोखा ही. इस गलती को छिपाने के लिए दहेज मांगने का इलजाम नहीं लगाना चाहिए. इस से शौहर दूसरे के बच्चे को अपना नहीं लेगा.

अगर पति को महज शक हो तो पहले इसे प्यार से दूर करना चाहिए. उसे भरोसा दिलाना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि वह चालचलन पर शक करते हुए कोई गुनाह कर रहा है. हां, समझाने पर भी बात न बने तो अलग हो जाने या तलाक लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता.

न केवल शादी के शुरुआती दिनों में, बल्कि बाद में भी मायके में कम से कम रहना चाहिए और गैर मर्दों तो दूर जीजा और देवर जैसे नजदीकी रिश्तों में भी संभल कर रहना चाहिए, जिस से शौहर को शक करने का मौका ही न मिले.

गैर मर्द से अगर संबंध बनाना मजबूरी हो जाए या कोई जबरदस्ती कर जाए तो तुरंत प्रैग्नैंसी टैस्ट करना चाहिए. इस के लिए पेट से हो आने वाली स्ट्रिप का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर जांच में टैस्ट पौजिटिव आए तो बिना देर किए बच्चा गिरवा लेना चाहिए.

यह काम शहर की किसी भी माहिर लेडी डाक्टर से मिल कर आसानी से और जल्दी भी हो जाता है. पति को इस बात की भनक भी नहीं लगने देनी चाहिए.

और अगर प्यार या किसी दूसरी वजह के चलते दूसरे मर्द के बच्चे की मां बनना ही हो, तो सब से पहले पति से अलग हो जाना ही बेहतर होता है, जिस से न उस का खून जले और न खुद डर डर कर जीना पड़े.

नुसरत जहां की बात और है. वह जिस तबके की है और जिस माहौल में है, उस में ये बातें आईगई हो जाती हैं, क्योंकि ऐसी नामी औरतें पैसों या या सामाजिक हिफाजत वगैरह के लिए किसी की मुहताज नहीं रहतीं.

समस्या: लोन, ईएमआई और टैक्स भरने में छूट मिले

डाक्टर अर्जिनबी यूसुफ शेख

देशभर के कारोबारी आज कोविड 19 के चलते लगे लौकडाउन से बुरी तरह त्रस्त हैं. बाजार बंद हैं. लिहाजा, सामान या तो दुकान और गोदाम में सड़ रहा है या फिर आ नहीं रहा है और न ही जा रहा है, पर खर्च वहीं के वहीं हैं. कहींकहीं कारोबारी कुछ छुटपुट होहल्ला कर रहे हैं, पर उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

महाराष्ट्र के अकोला जिले में कोरोना के बाद के हालात देखें. वहां कारोबारियों ने जगहजगह मोरचे निकाले. ‘लोग मरेंगे कोरोना से, हम तो वैसे ही मर जाएंगे’ के नारे लगाए.

कुलमिला कर कोरोना के चलते अब लौकडाउन सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा है… कोढ़ पर खाज यह है कि कोरोना मरीज रोजाना बढ़ते ही जा रहे हैं. उन की दैनिक इन्क्वायरी, देखभाल और दवा की कमी जनता में चिंता की बात बनी हुई है. साथ ही, रोजगार और कारोबार कोरोना की चपेट में होने से आजीविका चला पाना मुश्किल हो गया है.

‘अशोक फैशंस’ के रोहित भोजवानी का कहना है, ‘‘पिछले एकडेढ़ साल से उपजी कोरोना महामारी में बड़े कारोबारी अपनेआप को संभाले हुए हैं, लेकिन छोटेमोटे कारोबारी बड़ी बदहाली से गुजर रहे हैं.

‘‘ऐसे कारोबारी वे हैं, जिन्हें अपनी दुकान का किराया देना होता है, लोन और ईएमआई भी देनी होती है, बिजली  के बिल भरने होते हैं, अपने कामगारों को भी संभालना होता है और अपने  घर को भी चलाना होता है.

‘‘सरकार या प्रशासन की ओर से ऐसे कारोबारियों के लिए न तो कोई नीति है और न ही कोई सुविधा. कोरोना में लगे लौकडाउन से यह सीजन भी कारोबारियों के हाथ से निकल चुका है.’’

आलोक खंडेलवाल काफी सालों से एक बुक स्टौल चला रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘‘कोरोना का इलाज है, पर इस की दहशत इतनी फैल चुकी है कि ‘कोरोना पौजिटिव है’ सुनते ही मरीज आधा मर जाता है. दूसरी ओर कारोबारी, मजदूर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या?

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‘‘सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं कि कोई खाए या भूखा सोए, बल्कि उसे तो केवल अपने टैक्स से मतलब है, जो कारोबारियों को हर हाल में भरना ही भरना है. न कारोबारियों के लिए कोई सुविधा है, न ही कोई छूट.

‘‘वैक्सीनेशन के लिए औनलाइन रजिस्ट्रेशन और उस की फीस मध्यमवर्गीय जनता के लिए चिंता की बात बनी हुई है, तो गरीब जनता कहां जाए और क्या करे?

‘‘कारोबारी तबका स्वाभिमान से जीता आया है, पर कोरोना की इस विकट घड़ी में भरे जाने वाले टैक्स से उसे राहत दी जानी चाहिए.’’

पशु खाद्य विक्रेता अजय बजाज से जब पूछा गया कि इस लौकडाउन को वे कितना उचित मानते हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘लौकडाउन समय की जरूरत है. अगर यह नहीं होता, तो हो सकता है कि मरने वालों की तादाद और ज्यादा बढ़ जाती. पौजिटिव केस ज्यादा बढ़ जाने से उन्हें संभाल पाना मुश्किल होता.

‘‘हां, यह जरूर है कि लौकडाउन से छोटेमोटे कारोबारियों का जीना मुहाल हो चुका है. उन की मदद के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है. कारोबारियों को अपना बो झ खुद ढोना पड़ रहा है.

‘‘कुछ कारोबारी मजबूरी के चलते बैकडोर से अपने कारोबार चला रहे हैं. कुछ सजा के डर से घरों में बैठे हैं, पर वे मानसिक तनाव के शिकार होते जा रहे हैं. आमदनी के रास्ते बंद हैं, पर खर्च चलाना अनिवार्य होने से वे मानसिक रूप से तनाव के बो झ तले दबते जा रहे हैं.

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‘‘इस मुश्किल घड़ी में जनता नियमों का पालन करे, सावधानी बरते तो हम कोरोना को जल्दी ही मात दे सकते हैं. बिगड़ते हालात संभल सकते हैं. होना यह चाहिए कि छोटेमोटे कारोबारियों को लोन, ईएमआई, टैक्स, बिजली के बिल भरने में जरूर कुछ सुविधा या छूट दी जाए.’’

लगातार लौकडाउनों के बावजूद सरकार ने टैक्सों में कोई छूट नहीं दी है और आगे देगी, इस की बात भी नहीं की जा रही है.

दुविधा: जब बेईमानों का साथ देना पड़े!

लेखक- धीरज कुमार

बिहार में डेहरी औन सोन के रहने वाले मदन कुमार एक राष्ट्रीय अखबार के लिए ब्लौक लैवल के प्रैस रिपोर्टर का काम करते हैं. वे पत्रकारिता को समाजसेवा ही मानते हैं.

बेखौफ हो कर वे अपने लेखन से समाज को बदलना चाहते हैं, लेकिन उन के स्थानीय प्रभारी से यह दबाव रहता है कि खबर उन्हीं लोगों की दी जाए, जिन से उन्हें इश्तिहार मिलते हैं. जो इश्तिहार नहीं दे पाते हैं, उन की खबर बिलकुल नहीं दी जाए, भले ही खबर कितनी भी खास क्यों न हो.

मदन कुमार के प्रभारी उन लोगों के बारे में अकसर लिखते रहते हैं, जिन से उन्हें दान के तौर पर कुछ मिलता रहता है. भले ही वे लोग दलाली और भ्रष्टाचार कर के पैसा कमा रहे हैं. अपने ब्लौक के भ्रष्टाचारियों और दलालों की खबरों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. उन के बारे में गुणगान पढ़ कर मन दुखी हो जाता है. कभीकभी तो उन के प्रभारी कुछ लोगों से मुंह खोल कर पैट्रोल खर्च, आनेजाने के खर्चे के नाम पर पैसे लेते रहते हैं.

वहीं मदन कुमार द्वारा काफी मेहनत और खोजबीन कर के लाई गई खबरों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, न ही छापा जाता है या बहुत छोटा कर दिया जाता है, क्योंकि उन संस्थाओं से प्रभारी महोदय को नाराजगी पहले से रहती है या कोई ‘दान’ नहीं मिला होता है, इसलिए वे कुछ दिनों से अपने प्रभारी से बहुत नाराज हैं.

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वे अकसर कहते हैं कि अब पत्रकारिता छोड़ कर दूसरा काम करना ठीक रहेगा और इस के लिए वे कोशिश भी कर रहे हैं. उन्हें इस प्रकार की दलाली पत्रकारिता से नफरत होती जा रही है.

मदन कुमार का कहना है, ‘‘अगर बेईमानी से ही कमाना है तो फिर पत्रकारिता में आने की क्या जरूरत है? बेईमानी के लिए बहुत सारे रास्ते खुले हुए हैं. और फिर मुंह खोल कर किसी से पैट्रोल और आनेजाने के खर्चे के नाम  पर पैसे मांग कर अपना ही कद छोटा करते हैं.

‘‘आम लोग इस तरह के बरताव से सभी रिपोर्टरों को एक ही तराजू पर तौलते हैं, इसीलिए आज स्थानीय पत्रकारों को कोई तवज्जुह नहीं देता है. लोग उन्हें बिकाऊ और दो टके का सम झते हैं, जबकि पत्रकारिता देश का चौथा स्तंभ माना जाता है.

‘‘इस तरह के बेईमानों के साथ काम करने पर मन को ठेस पहुंचती है. ईमानदारी से काम करने वाले के दिल को यह सब कचोटता है, खासकर तब जब आप का बड़ा अधिकारी ही बेईमान हो. आप उस का खुल कर विरोध भी नहीं कर सकते हैं. विरोध करने का मतलब है, अपनी नौकरी को जोखिम में डालना.’’

औरंगाबाद के रहने वाले नीरज कुमार सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. सरकारी विद्यालय में बच्चों को मिड डे मील के लिए सरकार द्वारा चावल और पैसे दिए जाते हैं. उन के विद्यालय के प्रधानाध्यापक मिड डे मील के चावल और पैसे की हेराफेरी करते रहते हैं.

जब कभी बच्चों की लिस्ट बनानी हो, तो उसे नीरज कुमार ही तैयार करते हैं. वे जानते हैं कि गलत रिपोर्ट बना रहे हैं, फिर भी वे उस गलत रिपोर्ट का विरोध नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें हर हाल में प्रधानाध्यापक की बात माननी पड़ती है.

एक बार प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को इस बारे में शिकायत की थी. तब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी का कहना था, ‘आप अपने काम से मतलब रखिए. दूसरों के काम में अड़ंगा मत डालिए. आप सिर्फ अपने फर्ज को पूरा कीजिए.’

बाद में नीरज कुमार को पता चला कि इस हेराफेरी में प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को भी कमीशन के रूप में पैसा मिलता है. उन का कमीशन फिक्स है, इसलिए वे ऐसे शिक्षकों को हेराफेरी करने से रोकते नहीं हैं, बल्कि सपोर्ट करते हैं. इस सब में नाजायज कमाई करने का एक नैटवर्क बना हुआ है.

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तब से नीरज कुमार अपने विद्यालय के गरीब बच्चों के निवाला की हेराफेरी करने वाले अपने प्रधानाचार्य का विरोध नहीं करते हैं. उन का कहना है, ‘‘मैं सिर्फ अपने फर्ज को पूरा करता हूं. यह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, इसलिए मैं इस के बारे में चुप रहता हूं.

‘‘मैं सिर्फ पढ़ानेलिखाने पर ध्यान देता हूं. मैं आर्थिक मामलों में कुछ भी दखलअंदाजी नहीं करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करने का मतलब है अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना यानी अपना ही नुकसान करना.

‘‘वैसे भी आप शिकायत करने किस के पास जाएंगे? जिन के पास भी जाएंगे यानी आप ऊपर के अधिकारी के पास जाएंगे तो उस की कमाई भी उस हेराफेरी से होती है, इसलिए वैसे लोग उस हेराफेरी को रोकने से तो रहे. बदले में आप का नुकसान भी कर सकते हैं. आप का ट्रांसफर करा देंगे.

‘‘आप को दूसरे मामले में फंसा कर नुकसान पहुंचाना चाहेंगे. अगर आप को शांति से नौकरी करनी है, तो अपना मुंह बंद रखना ही होगा.’’

इस तरह की बातों से यह साफ है कि जब बेईमानों के साथ काम करना पड़े या साथ देना पड़े, तो यह जरूरी है कि हम उन से अपनेआप को अलगथलग रखें. हमें जो काम और जिम्मेदारी दी गई है, उस को बखूबी निभाएं.

बेईमान सहकर्मी के बारे में जहांतहां शिकायत करना भी ठीक नहीं है. इस  से आप की उस से दुश्मनी बढ़ने लगती है. शिकायत से कोई फायदा नहीं  होता है. आप के बनेबनाए काम भी बिगड़ जाते हैं, इस से खुद का ही नुकसान होता है. आप दूसरों को सुधारने के फेर में खुद का ही नुकसान कर लेते हैं.

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अगर आप अपनी भलाई चाहते हैं, तो ज्यादा रोकटोक न करें. उन की बेईमानी की कमाई में किसी तरह का अड़ंगा न डालें.

मुमकिन हो, तो उन्हें किसी दूसरे तरीके से बताने की कोशिश करें. अगर वे आप के इशारे को सम झ जाते हैं, तो उचित है वरना अपने काम से मतलब रखें, क्योंकि उन का सीधा विरोध करने पर दुश्मनी महंगी पड़ सकती है.

कोरोना में शादी ब्याह: इंसान से इंसान दूर, सामाजिकता हुई चूर चूर

बचपन में जब मैं गांव की शादी में जाता था, तब 2 लोगों पर मेरी नजरें जमी रहती थीं. पहला आदमी वह, जो मिठाइयों की कोठरी या कमरा संभालता था और दूसरा नाई समाज का वह आदमी, जिस के पास शादीब्याह वालों का वह नया चमचमाता संदूक होता था, जिस में शादी से जुड़ा खास और कीमती सामान होता था.

जिस आदमी पर मिठाई संभालने की जिम्मेदारी होती थी, मु झे उस से अनचाही जलन होती थी कि यह ऐसा क्या चौधरी बन गया, जो इस की इजाजत के बिना कोई बच्चा भी कमरे से 2 लड्डू नहीं ला सकता है.

दरअसल, गांवदेहात में शादी के घर में मिठाई की जिम्मेदारी उस आदमी को दी जाती थी, जो खुद साफसुथरा रहता हो, ईमानदार हो और जिस के हाथ में बरकत हो. ऐसे ही लोगों की सावधानी से बिना किसी फ्रिज के ऐसी मिठाइयां भी कईकई दिनों तक चल जाती थीं, जिन का जल्दी खराब होने का खतरा बना रहता था.

बताता चलूं कि तब के शादीब्याह में चीनी की बोरी के इस्तेमाल से लोगों की हैसियत पता चलती थी. जिन के घर शादी में मिठाई के लिए जितनी ज्यादा बोरियां खुलेंगी, वह उतना ही पैसे और रुतबे वाला. तब घराती और बराती को भी मीठा खाने से मतलब होता था.

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जहां तक संदूक वाले नाई समाज के आदमी की बात है, तो वह शादी वाले दिन सब से अहम माना जाता था. घर की औरतें जो सामान जैसे गहने, कपड़े और दूसरी चीजें उस संदूक में रखती थीं, उन्हें किस रस्म के दौरान कब और किसे देना है, यह वह आदमी बखूबी जानता था.

एक और बात तो बताना भूल ही गया. मुझे शादी के बाद की एक रस्म बहुत रिझाती थी, जिस में घर आई नई दुलहन के साथ उस का दूल्हा संटी मारने वाला खेल खेलता था. रस्में तो और भी बहुत होती थीं, पर इस रस्म का मजा अलग ही था.

हालांकि यह रस्म दूल्हादुलहन के संटी (शहतूत की पतली टहनी) मारने के खेल से शुरू होती थी, पर बाद में देवर को भी अपनी भाभी के साथ यह खेल खेलने दिया जाता था. बाकी लोग खड़े हो कर मजे लेते थे.

कहींकहीं आज भी इस रस्म को बस निभाने के लिए खेला जाता है, क्योंकि न तो शहरों में शहतूत के पेड़ मिलेंगे और न ही लोगों के पास इतना समय है कि वे शादी निबटने के बाद ऐसे खेलों का मजा ले सकें.

अब तो संदूक संभालने के लिए भी नाई समाज का सहारा नहीं लिया जाता है और न ही नातेरिश्तेदारों के पास इतना समय है कि वे किसी के घर की मिठाइयों का ब्योरा रखें. अब तो खानेपीने का काम हलवाई को ठेके पर दे दिया जाता है. दुकान से ही डब्बों में पैक हो कर मिठाइयां आ जाती हैं और संदूक ले जाने का रिवाज पुराना और बेतुका हो गया है.

पिछले डेढ़ साल में जब से कोरोना ने पूरी दुनिया पर अपना पंजा जमाया है, तब से शादीब्याह भी न के बराबर हुए हैं. अगर हुए भी हैं, तो ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ के चलते लोगों की सीमित संख्या ने मजा किरकिरा कर दिया है.

भारत में तो बहुत से लोग इसे आपदा में अवसर मान कर सही ठहरा रहे हैं कि कम लोगों को शादी में ले जाने से बेवजह की फुजूलखर्ची नहीं होगी और बीमारी के समय लोग भी महफूज रहेंगे. पर इस का दूसरा पहलू यह भी है कि कोरोना काल में शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़ों के अरमान अधूरे रह गए हैं, जो ऐसे मौके को यादगार बनाना चाहते थे.

भारत में शादीब्याह उत्सव से कम नहीं होता है. परिवार, नातेरिश्तेदार, दोस्तयार का मिलनाजुलना होता है, हंसीमजाक होता है, खानापीना होता है, साथ ही समाज में अपना दायरा बढ़ाने का मौका होता है, जो अब नहीं हो पा रहा है. आपसी रिश्तों में मेलमिलाप तो क्या, सामाजिक दूरी बन रही है.

कोरोना काल में दिल्ली में हुई एक शादी का जिक्र छेड़ते हैं. पीरागढ़ी चौक के नजदीक एक राजसी बैंक्वैट हाल के फर्स्ट फ्लोर में इंतजाम था. हाल में घुसते ही बड़े दरवाजे से पहले जहां कभी खूबसूरत लड़कियां गुलाबजल छिड़क कर लोगों का स्वागत करती थीं, वहां एक थाल में मास्क रखे हुए थे और दूसरे थाल में हैंड सैनेटाइजर की बोतलें.

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भीतर नाममात्र के लोग इधर से उधर टहल रहे थे. दोनों पक्षों के बड़े ही नजदीकी रिश्तेदार या फिर यारदोस्त जमा हुए थे. पंडित का सारा ध्यान इसी बात पर था कि जल्दी से शादी निबटाए और दानदक्षिणा बटोर कर निकल ले.

शादियां तो देशभर में हुई थीं और बहुत सी तो अखबारों की सुर्खियां भी बनी थीं. कहीं दूल्हे की पेट से हुई भाभी बरात में नहीं जा पाई, तो कहीं दुलहन की खास सहेली को शादी में जाने की इजाजत नहीं मिली. 20 लोगों के ब्याह में किसे साथ ले जाएं और किसे हाथ जोड़ कर मना करें, यह सब से बड़ी दुविधा थी.

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में रहने वाले एक एडवोकेट दीपक भार्गव के एकलौते बेटे हेमंत भार्गव की शादी 2 मई को तय की गई थी. दीपक भार्गव ने

30 अप्रैल को रोका और सगाई रस्म के लिए मयूर विहार में एक बैंक्वैट हाल बुक किया था और शादी के लिए मोतीनगर में इंतजाम कराया था, पर जैसा सोचा वह हो नहीं पाया.

दीपक भार्गव ने बताया, ‘‘दोबारा लौकडाउन लगने से हमारी मुश्किलें बढ़ गई थीं. लोगों का 30 अप्रैल के बाद दोबारा 2 मई को आना प्रैक्टिकल नहीं लग रहा था. लिहाजा, हम ने फैसला लिया कि 2 तारीख को मोतीनगर में ही तीनों रस्में पूरी कर लेंगे, क्योंकि वहां 350 लोगों का इंतजाम किया गया था.

‘‘पर, शादी से तकरीबन 5 दिन पहले मोतीनगर के बैंक्वैट हाल वालों का फोन आया कि वहां शादी नहीं हो सकती है, क्योंकि पूरे स्टाफ को कोरोना हो गया है. इस तरह हमारा दोनों जगह दिया गया एडवांस फंस गया.

‘‘अब मुसीबत यह थी कि नया इंतजाम क्या करें, क्योंकि अब तो ज्यादा लोग भी बुलाने की इजाजत नहीं थी. फिर हम ने आननफानन में घर के पास एक बैंक्वैट हाल बुक किया, जहां मुश्किल से 50 लोग शादी में शामिल हुए.

‘‘वैसे कई बार यह भी खयाल आया कि शादी आगे सरका देते हैं, पर चूंकि अब मेरी पत्नी इस दुनिया में नहीं हैं और मेरी माताजी भी बीमारी की वजह से घर के काम नहीं कर सकती हैं, इसलिए  घर पर एक महिला सदस्य की बहुत जरूरत थी.

‘‘सच कहूं तो यह नाम की शादी थी. मेरे आसपड़ोस के लोग नहीं आ पाए. उन के लिए शादी से पहले घर के आगे ही एक स्पैशल पार्टी रखी और अपने सर्कल के लोगों को फिर कभी किसी मौके पर पार्टी दूंगा.’’

पूर्वी दिल्ली में रहने वाले एक जानकार ने बताया, ‘‘पिछले लौकडाउन में हमारे पड़ोस में एक लड़के की शादी हुई, तो पड़ोसी ने न तो ढंग से किसी को न्योता दिया और न ही कायदे की पार्टी दी, जबकि उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. वैसे, किसी दूसरे के घर अगर कोई समारोह होता, तो वे खानेपीने में सब से आगे रहते थे.

‘‘हमें सब से ज्यादा ताज्जुब तब हुआ, जब उसी घर में उन्हीं दिनों एक नई बहू और आ गई. बाद में पता चला कि उन का दूसरे लड़के का पहले से उस लड़की के साथ अफेयर चल रहा था, तो उन्होंने मौके का सही फायदा उठाया. न बैंडबाजा और न बरात, दुलहन चोखी  आ गई.

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‘‘कुछ दिन में किन्नर अपना नेग मांगने आए, तो उन्हें भी इस बात की कानोंकान खबर नहीं हुई कि इस घर में एक नहीं, बल्कि 2-2 बहुएं आई हैं. किन्नरों को एक शादी का नेग दे कर चलता कर दिया.’’

ऐसे ही एक पड़ोसी के यहां उन के दूर के जानकार के घर से एक दिन मिठाई आई, तो पता चला कि उन के बेटे की शादी हो गई है. वे लोग हैरान रह गए कि अभी तक तो कोई जिक्र नहीं किया, फिर कब लड़की देखी और कब रिश्ता पक्का किया… बाद में पता चला कि लड़की तो लड़के ने पहले ही पसंद कर रखी थी. इंटरकास्ट शादी थी.

दिल्ली के शास्त्री नगर में रहने वाले राकेश खंडेलवाल ने बताया, ‘‘त्रिनगर में मेरे एक कजिन के बेटे की शादी  7 दिसंबर, 2020 को होनी थी, जो सौफ्टवेयर इंजीनियर है. उन के बहुत अरमान थे कि एक ही बेटा है, इसलिए धूमधाम से शादी करेंगे. उन्होंने बैंक्वैट हाल और होटल बुक करा रखा था.

‘‘लेकिन तभी उन के एक दोस्त ने बताया कि कोरोना के चलते सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि अगर किसी शादी में 50 से ज्यादा लोग शामिल हुए, तो दूल्हे को अरैस्ट कर लिया जाएगा.

‘‘इस फरमान से मेरा कजिन बहुत डर गया. उस ने तय कर लिया कि 50 से 51 भी लोग नहीं होंगे, इसलिए उस ने हर घर से 1-1 आदमी का न्योता दिया. शादी के कपड़ों की खरीदारी भी ढंग से नहीं हो पाई. अशोक विहार की एक धर्मशाला में वर पक्ष की ओर से आयोजन किया गया, जिस में चाकभात, लेडीज संगीत का कार्यक्रम किया गया.

‘‘खैर, 20 आदमियों की बरात ले कर वे होटल सिटी पैलेस पहुंचे. कार्यक्रम में 50 के आसपास ही लोग थे, जो 2 गज की दूरी का भी पालन करते दिखे. डीजे की जो धमक होनी चाहिए थी, वह नहीं दिखी. पर शादी अच्छे से हुई.

‘‘मु झे निजी तौर पर लगता है कि अगर हर शादी इसी तरह से की जाए तो मजा आ जाए, क्योंकि यह टैंशन खत्म हो जाती है कि हम ने उन को नहीं बुलाया जो आते हैं, खाते हैं और उस के बाद भी शादी में कमियां निकाल जाते हैं.

‘‘हमारे देश में एक तबका ऐसा भी है, जो दिखावे के चलते शादीब्याह में कर्ज के बो झ तले दब जाता है. मेरे विचार से तो सरकार को एक ऐसा कानून बना देना चाहिए कि शादी में कम लोग ही हिस्सा लें. इस से गरीब बेवजह के कर्ज तले दबने से बच जाएगा.’’

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लेकिन शादीब्याह में ही तो लोग गिलेशिकवे भूल कर मजामस्ती करते हैं. बच्चे ऐसे रिश्तेदारों से मिलते हैं, जिन को उन्होंने कभी देखा ही नहीं होता है. वहीं तो पता चलता है कि कौन क्या कर रहा है, किस की बेटी ब्याहने लायक हो गई है, किस के बेटे की अच्छी नौकरी लग गई है. नेग और रस्मों का यह उत्सव कोरोना ने फीका कर दिया है.

शहरों ने गांव की शादी में मिठाई संभालने वाला ईमानदार शख्स छीन लिया, नाई समाज का संदूक वाहक कहीं गुम कर दिया, संटी खेलना भुलवा  दिया, पर कोरोना ने तो अपनों को अपनों से दूर कर दिया है. हमारी सामाजिकता  के उन उजले पहलुओं पर सवालिया निशान लगा दिया है, जो शादीब्याह में खट्टीमीठी यादें बनते हैं.

बस, जल्द ही दुनिया के इस काले सफे का अंत हो और दुनिया की रौनक लौट आए, दोगुनी ताकत से.

कोरोना की दूसरी लहर छोटे कारोबारियों पर टूटा कहर

लेखक- धीरज कुमार

देशभर में कोरोना वायरस की जब दूसरी लहर आई, तो छोटे कारोबारियों की दुकानें दोबारा बंद हो गईं. सरकार ने फलसब्जी, दवा और किराने की दुकानें तो कुछ तय समय के लिए खुली रखीं, लेकिन बाकी लोगों की दुकानों पर एक तरह से ताले लटक गए.

छोटेमोटे कारोबारियों के तकरीबन डेढ़ साल से कारोबार बंद पड़े हैं और उन की माली हालत चरमरा गई है. अब उन के घरों में खानेपीने की किल्लत भी होने लगी है. कुछ दुकानदारों ने तो अपनी दुकानें बंद होने के बाद अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए घूमघूम कर फल और सब्जी बेचना शुरू कर दिया है.

डेहरी औन सोन के रहने वाले विजय कुमार की रेडीमेड कपड़े की दुकान है. उन का कहना है, ‘‘बैंक से लोन ले कर रेडीमेड कपड़े की दुकान खोली थी. अभी 2 साल भी नहीं हुए थे. हर महीने बैंक को ईएमआई भी देनी पड़ती है. पिछले एक साल से दुकान में रखे हुए कपड़े पुराने पड़ रहे हैं.

‘‘इस तरह मेरी सारी पूंजी आंखों के सामने डूब रही है. सम झ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए. सरकार दवा, फलसब्जी और राशन की दुकानें खोलने की इजाजत तो दे देती है, लेकिन हमारे जैसे दुकानदारों के लिए सरकार कुछ नहीं सोच रही है.

‘‘हम जैसे छोटे कारोबारियों के लिए कोरोना की लहर के साथ हमारे ऊपर कहर बरपा है. बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं. उन की औनलाइन क्लास चल रही हैं. उन की पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही है, फिर भी स्कूल मैनेजमैंट फीस के लिए दबाव बना रहा है.

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‘‘जब आमदनी के सभी रास्ते बंद  हो गए हैं, तो अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे कहां से दे पाऊंगा? घर की माली हालत खराब होती जा रही है, इसीलिए बच्चों की पढ़ाई बंद करवा दी है.’’

सासाराम के रहने वाले 2 दोस्त सुनील और पंकज 4 साल पहले दिल्ली में रहा करते थे. दिल्ली छोड़ कर सासाराम में ठेले पर मोमोज बेचने शुरू किए थे. 2 साल में ही सासाराम में दुकान किराए पर ले ली थी और मोमोज बेचा करते थे.

शादीब्याह में भी उन्हें और्डर मिलने लगा था, लेकिन जब से कोरोना का कहर शुरू हुआ है, तब से उन की दुकान तकरीबन बंद हो चुकी है. ऊपर से दुकान का किराया चल रहा है. अब दुकान के मालिक पर निर्भर है कि वह कितने महीने का किराया लेगा.

लेकिन आने वाले समय में दुकान दोबारा शुरू हो पाएगी कि नहीं, ऐसी उन्हें उम्मीद नहीं लग रही है. घर की माली हालत खराब हो चुकी है. इस महामारी के दौरान दूसरा कोई काम नजर भी नहीं आ रहा है.

जैसेजैसे कोरोना के चलते लौकडाउन की तारीख बढ़ रही है, उन की परेशानी भी बढ़ती जा रही है. इन दोनों पर ही घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी थी. इनकम न होने से घरपरिवार के हालात दिनोंदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं.

डेहरी औन सोन के रहने वाले पंकज प्रसाद होटल कारोबारी हैं. उन का कहना है, ‘‘बाजार में दूरदराज के गांवों से आने वाले लोगों को खाना बना कर खिलाते थे. सुबह से ही उन की दुकान पर लिट्टीचोखा खाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, पर जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, तब से होटल पूरी तरह से  बंद है.’’

उसी होटल के बने खाने को पंकज प्रसाद का पूरा परिवार भी खाता था. होटल में कई लोगों को काम पर भी  रखा था. अब उन सब को अपनेअपने घर भेज दिया गया है, क्योंकि वे खुद ही बेरोजगारी का दंश  झेल रहे हैं.

बिहार के औरंगाबाद जिले में साइबर कैफे चलाने वाले नीरज कुमार का कहना है, ‘‘कैफे में दिनभर पढ़नेलिखने वाले लड़केलड़कियों की भीड़ लगी रहती थी. कुछ न कुछ फार्म वगैरह भरने के लिए लड़के और लड़कियां आते ही रहते थे, इसलिए मु झे अच्छी आमदनी हो जाती थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते कैफे बंद है.

‘‘जिन लड़केलड़कियों के घरों में फार्म भरने का इंतजाम नहीं है, वे अभी भी फोन करते हैं. लेकिन मु झे मजबूरी में बताना पड़ता है कि कैफे बंद है, सरकार ने खोलने की इजाजत नहीं दी है.

‘‘अभी हम लोग भी बेरोजगार हो गए हैं. काफी परेशानी हो रही है. ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय  में साइबर कैफे के सभी कंप्यूटर  बेचने पड़ेंगे.’’

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ऐसे छोटेमोटे कारोबारियों की तादाद बिहार के छोटेबड़े शहरों में काफी ज्यादा है. इन का दर्द कोई सुनने वाला नहीं है. इन की दुकानें कोरोना महामारी के चलते बंद हो गई हैं.

बीच में जब कुछ दिनों के लिए कोरोना वायरस से संक्रमितों की तादाद में कमी आई थी, तो लोगों को लगा था कि अब दोबारा जिंदगी पटरी पर लौटने लगी है. लेकिन यह बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चला. एक महीने के अंदर ही दोबारा दुकानें बंद कर दी गईं.

इस से कई कारोबारियों के हालात इतने खराब हो गए हैं कि वे अपनी परेशानियां किसी को बता भी नहीं पाते हैं. सरकार इन कारोबारियों को गरीब की श्रेणी में भी नहीं रखती है.

पिछली बार जब कोरोना महामारी आई थी, तो सरकार ने गरीबों के लिए राशन देने का ऐलान किया था, लेकिन राशन पाने वालों में इन कारोबारियों का नाम नहीं रहता है, क्योंकि सरकार के लिए गरीबी के मापदंड अलग हैं.

सरकार के मुताबिक जो लोग गरीबी की श्रेणी में हैं, उन्हीं को इस तरह का लाभ दिया जाता है. बेरोजगारी से जू झ रहे ऐसे कारोबारियों के लिए सरकार के पास कोई सुनने और देखने वाला नहीं है. आम लोगों को भी ऐसे कारोबारियों  से कोई खास लेनादेना नहीं है. अगर दुकानें बंद हैं, तो उन के लिए औनलाइन खरीदारी का इंतजाम है.

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ऐसे हालात में आखिर उन कारोबारियों की मजबूरियों को कौन सुनेगा? सरकार के पास उन कारोबारियों के वर्तमान हालात को सुधारने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है, जबकि इन कारोबारियों द्वारा सरकार को टैक्स दिया जाता है. उस टैक्स से देश के निर्माण में योगदान होता है, इसलिए सवाल यह है कि क्या सरकार भी इन कारोबारियों की बेहतरी के लिए सोचेगी?

कोरोना काल में भुलाए जा रहे रिश्ते

लेखक- वीरेंद्र कुमार खत्री

कोरोना की दूसरी लहर इतनी ज्यादा खतरनाक साबित हुई कि इनसान तो मरे ही, साथ ही नजदीकी रिश्ते भी मरते दिखे. बिहार में कई ऐसी मौतें हुईं, जिन में मृतक के परिवार के लोगों ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

पटना समपतचक कछुआरा पंचायत की एक घटना है. कोरोना की भेंट चढ़े पिता की लाश के पास मां को छोड़ कर बेटा और बहू फरार हो गए. मुखिया प्रतिनिधि को इस की जानकारी हुई, तो उन्होंने एंबुलैंस बुलाई और लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

नालंदा स्थानीय बाजार के थाना मोड़ के पास चलतेचलते एक बुजुर्ग की मौत हो गई. बुजुर्ग की बेटी साथ में थी, पर वह वहां से भाग गई. लोगों ने इस की सूचना पुलिस को दी.

इसी तरह औरंगाबाद में पतिपत्नी की कोरोना ने जान ले ली. उन के बेटे व परिजनों ने लाश को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया. इस की जानकारी रैडक्रौस के चेयरमैन को मिली, तो उन्होंने अपने निजी खर्च से एंबुलैंस और  2 लोगों को तैयार कर लाश को श्मशान घाट भिजवाया व दाह संस्कार कराया.

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फुलवारीशरीफ थाना के जानीपुर नगवां डेर के रहने वाले 20 साल के एक नौजवान की मौत हो गई. मौत के बाद घर के एक कमरे में 12 घंटे तक उस की लाश पड़ी रही. कोरोना की आशंका को ले कर किसी ने अंतिम संस्कार करने की पहल नहीं की.

स्थानीय विधायक को सूचना दी गई, तो उन्होंने मृतक के घर पहुंच कर हालात की जानकारी ली. उन्होंने जिला प्रशासन को सूचना दे कर एंबुलैंस मंगा कर लाश को अंतिम संस्कार के लिए भेजा.

औरंगाबाद के मदनपुर पानी टंकी निवासी एक आदमी की कोरोना से मौत के बाद परिजनों ने लाश लेने से इनकार कर दिया. पुलिस प्रशासन ने उस का अंतिम संस्कार कराया.

इस तरह के दर्जनों मामले कोरोना काल की दूसरी लहर में सामने आए जब अपने अपनों से ही कन्नी काटने लगे, जबकि हमारे यहां शुरू से गांवों में देखा गया है कि जीनामरना, शादीब्याह, हारीबीमारी समेत दूसरे कामों में लोग एकदूसरे के साथ खड़े रहते थे.

सामाजिक सरोकार ही भारत की मुख्य ताकत रही है. पर कोरोना ने रिश्तों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी है कि किसी की मौत के बाद कोई सगासंबंधी अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होना चाह रहा है. यहां तक कि कोरोना के सामने खून के रिश्ते छोटे पड़ते जा रहे हैं.

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लाशों को सड़कों, अस्पताल और श्मशान घाटों में छोड़ कर बिना अंतिम क्रिया के ही जा रहे हैं. ऐसे में पुलिस के पास सूचना पहुंच रही है, तो वह अंतिम संस्कार करवा रही है.

भारत में रिश्तों की सब से ज्यादा अहमियत मानी जाती है. पटना सीआईडी विभाग के इंस्पैक्टर अरुण कुमार, हसपुरा के समाजसेवी कौशल शर्मा, राज कुमार खत्री, हैडमास्टर कुलदीप चौधरी, दंत चिकित्सक डाक्टर विपिन कुमार का मानना है कि रिश्ते को सम झने और निभाने में भारत के लोगों का जवाब नहीं है, पर कोरोना काल में परिवार के रिश्तों के धागे कमजोर होते दिख रहे हैं.

पेश की गई मिसाल

बिहार के गया जिले के रानीगंज के तेतरिया गांव में एक 58 साल की औरत की मौत लंबी बीमारी के चलते उस के घर पर ही हो गई थी. मौत की खबर से गांव में सन्नाटा पसर गया. लोगों ने अपनेअपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए. कोई उस की अर्थी को कंधा देने को तैयार नहीं था.

ऐसे हालात में रानीगंज के मुसलिम नौजवानों ने अर्थी तैयार करते हुए  हिंदू रीतिरिवाज से उस औरत का दाह संस्कार कर आपसी भाईचारे की मिशाल पेश की.

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मौत के मुंह में पहुंचे लोग- भाग 3: मध्य प्रदेश की कहानी

अब पढि़ए मध्य प्रदेश की कहानी.

सूरत में ग्लूकोज, नमक और पानी से नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने के मास्टरमाइंड कौशल वोरा ने मध्य प्रदेश में भी इन इंजेक्शनों को बेच कर कोरोना मरीजों की जान से खिलवाड़ किया. कौशल ने मुंबई को सेंट्रल पौइंट बना कर दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, चेन्नई और मुंबई सहित पूरे देश में लाखों नकली इंजेक्शन सप्लाई किए थे.

कौशल से पूछताछ के आधार पर गुजरात पुलिस ने मध्य प्रदेश के इंदौर शहर से सुनील मिश्रा, कुलदीप सांवलिया और जबलपुर के सपन जैन को मई के दूसरे सप्ताह में गिरफ्तार किया. इन्होंने कौशल से हजारों इंजेक्शन खरीद कर मध्य प्रदेश में बेचे थे.

इन लोगों ने इंदौर के ही एक दवा विक्रेता को भी 17 हजार रुपए प्रति इंजेक्शन के हिसाब से 100 नकली इंजेक्शन बेच दिए थे. आम जरूरतमंद लोगों को 40 हजार रुपए तक में एक इंजेक्शन बेचा.

खास बात यह भी रही कि गिरफ्तार दलाल कुलदीप सांवलिया ने कोरोना से पीडि़त अपनी मां को भी यही नकली इंजेक्शन लगवा दिए थे. दरअसल, उसे यह पता ही नहीं था कि ये इंजेक्शन नकली हैं.

इंदौर में पुलिस की जांचपड़ताल में पता चला कि कौशल वोरा के बनाए नकली इंजेक्शनों को लगाने के बाद कुछ कोरोना मरीजों की मौत भी हो गई थी. इस के बाद पुलिस ने कौशल वोरा, उस के पार्टनर पुनीत शाह और इंदौर के सुनील मिश्रा के खिलाफ गैरइरादतन हत्या की धाराएं भी जोड़ दीं.

बाद में इंदौर की विजय नगर पुलिस ने नकली इंजेक्शन बेचने के मामले में दवा बाजार के 3 दलालों आशीष ठाकुर, चीकू शर्मा और सुनील लोधी को मध्य प्रदेश के देवास से गिरफ्तार किया.

पुलिस की पूछताछ में सामने आया कि आरोपी सुनील मिश्रा मूलरूप से मध्य प्रदेश के रीवा का रहने वाला है. उस ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा का प्री एग्जाम पास कर लिया था, लेकिन सन 2012 में वह मेंस क्लीयर नहीं कर सका. इस के बाद उस ने खंडवा रोड पर खुद का मार्केट खोला. उस के पिता मध्य प्रदेश टूरिज्म में मैनेजर थे.

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बाद में सुनील ग्लव्ज, मास्क व सैनेटाइजर की दलाली करने लगा था. एक साल पहले कारोबार के सिलसिले में उस का परिचय सूरत के कौशल वोरा और पुनीत शाह से हुआ था. इस के बाद ये आपस में व्यापार करने लगे. कोरोना की दूसरी लहर में जब रेमडेसिविर इंजेक्शन की किल्लत हुई, तो सुनील ने पैसा कमाने के मकसद से कुछ लोगों से इस इंजेक्शन के लिए संपर्क किया.

कौशल व पुनीत से बात हुई, तो उन्होंने सुनील को सूरत बुलाया और अपने ठाठबाट, लग्जरी कारों और महंगे होटलों में ठहरने के जलवे दिखाए. उन्होंने उसे ये इंजेक्शन दिलाने की हामी भर ली. बाद में उसे मुंबई बुला कर पहली बार में 700 इंजेक्शन दिए. सुनील ने ये इंजेक्शन इंदौर ला कर दवा बाजार के दलाल कुलदीप सांवलिया, चीकू, सुनील लोधी आदि के जरिए बेच दिए.

सुनील से पूछताछ के आधार पर पुलिस ने नकली इंजेक्शन मामले में मई के पहले पखवाड़े में सागर के यूथ कांग्रेस के जिला उपाध्यक्ष प्रशांत पाराशर और सांवेर के होम्योपैथी डाक्टर सरवर खान को भी गिरफ्तार कर लिया. इंदौर के दवा बाजार के एक व्यापारी गोविंद गुप्ता को भी इस मामले में आरोपी बनाया गया.

कांग्रेस नेता प्रशांत ने सुनील से 65 से ज्यादा इंजेक्शन खरीदे थे. यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास ने कोरोना संकट काल में एसओएस हेल्पलाइन शुरू की थी. इस में प्रशांत को भोपाल का कोऔर्डिनेटर बनाया था. प्रशांत ने कोरोना पीडि़तों की मदद के लिए एक अभियान शुरू किया था. इसी अभियान के तहत उस ने सुनील से खरीदे नकली इंजेक्शन लोगों को बेचे थे. प्रशांत को ये इंजेक्शन नकली होने का पता नहीं था.

भोपाल की नर्स निकली बेहद शातिर

भोपाल में इस दौरान एक रोचक किस्सा सामने आया. जे.के. अस्पताल की नर्स शालिनी वर्मा कोरोना मरीजों के लिए मंगाए गए रेमडेसिविर इंजेक्शन छिपा कर रख लेती थी और मरीज को सादा पानी का इंजेक्शन लगा देती थी.

नर्स शालिनी चुराए गए ये इंजेक्शन इसी अस्पताल में काम करने वाले अपने प्रेमी नर्सिंग कर्मचारी झलकन सिंह मीणा को महंगे दाम पर बेचने के लिए दे देती थी. पुलिस ने इस मामले में झलकन को गिरफ्तार कर लिया था. उस की प्रेमिका नर्स की तलाश की जा रही थी. पता चलने पर अस्पताल प्रबंधन ने दोनों कर्मचारियों को हटा दिया.

मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में अप्रैल के चौथे सप्ताह में रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी में पुलिस ने निजी अस्पतालों के 2 डाक्टरों नीरज साहू व जितेंद्र ठाकुर सहित 5 लोगों को गिरफ्तार किया था. पूछताछ में पता चला कि ये लोग अस्पताल से चुरा कर इंजेक्शन महंगे दामों पर बेचते थे.

बाद में गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार सूरत के कौशल वोरा और इंदौर के सुनील मिश्रा से पूछताछ में पता चला कि इन्होंने जबलपुर के सिटी हौस्पिटल में भी नकली इंजेक्शन सप्लाई किए थे. इस का खुलासा होने के बाद जबलपुर की ओमती थाना पुलिस ने सिटी हौस्पिटल के संचालक सरबजीत सिंह मोखा, दवा सप्लायर सपन जैन और अन्य लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया.

पुलिस में मुकदमा दर्ज होने का पता चलने पर अस्पताल संचालक मोखा खुद को कोरोना पौजिटिव बताते हुए 10 मई को अपने ही अस्पताल में भरती हो गया. इस पर पुलिस ने अस्पताल में पहरा लगा दिया. पुलिस ने दूसरे ही दिन मोखा की कोरोना जांच कराई. जांच रिपोर्ट निगेटिव आने पर मोखा को 11 मई को गिरफ्तार कर लिया गया.

उस के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत काररवाई की गई. मोखा विश्व हिंदू परिषद के नर्मदा डिवीजन का जिलाध्यक्ष था. यह मामला सामने आने के बाद उसे पद से हटा दिया गया.

दूसरे दिन अदालत ने उसे जेल भेज दिया. मोखा ने दवा सप्लायर सपन जैन के माध्यम से सुनील मिश्रा से करीब 500 इंजेक्शन मंगाए थे. नकली इंजेक्शनों का मामला सामने आने के बाद सिटी हौस्पिटल को सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम से बाहर कर दिया गया. पुलिस ने 17 मई की रात सरबजीत सिंह मोखा की पत्नी जसमीत कौर और मोखा के सिटी अस्पताल की मैनेजर सौम्या खत्री को भी गिरफ्तार कर लिया.

मोखा के बेटे हरकरण सिंह की तलाश की जा रही थी. उस के अस्पताल में नकली रेमडिसिविर इंजेक्शन लगाने से 15 से ज्यादा लोगों की मौत होने की शिकायतें पुलिस को मिलीं.

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लखनऊ अस्पताल में हुआ इंजेक्शनों का गड़बड़ घोटाला

लखनऊ सहित पूरे उत्तर प्रदेश में भी यही हाल सामने आया. अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में पुलिस ने रेमडेसिविर इंजेक्शनों की कालाबाजारी में 2 डाक्टरों सहित 4 लोगों को गिरफ्तार किया. इन से पूछताछ के आधार पर एक नर्सिंग छात्र सहित 4 लोगों को पकड़ा गया और 91 नकली इंजेक्शन बरामद किए.

इन के अलावा 4 दूसरे लोगों को गिरफ्तार कर 191 इंजेक्शन बरामद किए गए. इन गिरफ्तारियों से पता चला कि लखनऊ के किंग जार्ज मैडिकल कालेज का स्टाफ भी इंजेक्शनों के गड़बड़ घोटाले में शामिल था. बाद में भी कई लोग गिरफ्तार किए गए.

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