द चिकन स्टोरी- भाग 2: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

अभी मेरी सांस में सांस वापस आई भी नहीं थी कि अंदर से अंकलजी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी. ‘‘यह राक्षस फिर आ गया इस घर में.’’ अब तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. मु?ो लगा, अंकलजी को शायद पता चल गया. मैं तो उठ कर भागने ही वाला था कि अंदर से एक थैली उड़ती हुई आई और बाहर आंगन में आ कर गिरी. उस में से ढेर सारा प्याज निकल कर चारों तरफ फैल गया.

‘‘तु?ो कितनी बार मना किया है लहसुनप्याज खाने को, सुनता क्यों नहीं,’’ अंकलजी आग्नेय नेत्रों से उपकार को घूरते हुए बोले. अंकलजी को देख कर मु?ो घिग्गी बंध गई, लगा कि आज हम दोनों भस्म हुए ही हुए.

उपकार मुंह नीचे किए चुपचाप बैठा था. मु?ो काटो तो खून नहीं. और अंकलजी बड़बड़ाते हुए घर से बाहर चले गए.

मैं ने तुरंत टेबल के नीचे से डब्बा निकाला और बाहर की तरफ जाने लगा.

‘‘यह डब्बा तो छोड़ता जा, कल ले जाना,’’ उपकार की दबीदबी सी आवाज आई.

‘‘इतना सुनने के बाद तु?ो अभी भी चिकन खाना है,’’ मैं हैरत में डूबा हुआ उपकार को देख रहा था.

जवाब में उपकार ने मेरे हाथ से डब्बा ले लिया. उसी समय अंकलजी वापस आए और मैं उन को नमस्ते कर के घर से निकल गया.

पूरे एक हफ्ते तक मैं ने उपकार के घर की तरफ रुख न किया. पूरे एक साल तक मैं ने चिकन को हाथ भी नहीं लगाया. घर वाले हैरान थे कि मु?ो क्या हो गया. कहां मैं इतने शौक से चिकन खाता था और कहां मैं चिकन की तरफ देखता भी नहीं.

मैं अकसर उपकार को सम?ाता कि एक ब्राह्मण के लिए मांसाहार उचित नहीं है. साथ ही, उस को अपने पिताजी की भावनाओं का सम्मान करते हुए लहसुनप्याज भी नहीं खानी चाहिए. लेकिन, उस पर कोई असर हो तब न. उलटे, उस को तो मेरे घर का चिकन इतना अच्छा लगा कि कभी भी मेरे घर आ जाता और मां से चिकन बनवाने की फरमाइश कर बैठता. छोटी बहन नयना तो चिकन बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती थी.

मां कहती थी, ऐसा स्वादिष्ठ चिकन पूरे महल्ले में कोई नहीं बनाता था. पता नहीं मां ऐसा, बस, अपनी बेटी के मोह में कहती थी या सचमुच नयना सब से अच्छा चिकन बनाती थी. हमें तो महल्ले की किसी कन्या के हाथ का बना चिकन खाने का मौका मिला नहीं था, इसलिए नयना का बनाया चिकन ही हमारे लिए सब से अच्छा था.

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यों ही समय कटता चला गया और फिर हमारी ग्रेजुएशन पूरी हो गई. उपकार ने पूरी यूनिवर्सिटी में टौप किया था. मैं भी उस के साथ पढ़पढ़ कर ठीकठाक नंबर से पास हो गया था. उपकार ने तो अपने ही कालेज में एमएससी में ऐडमिशन ले लिया था जबकि मु?ो दिल्ली में एक एक्सपोर्ट कंपनी में नौकरी मिल गई. महीने में एक बार ही मैं घर आ पाता. उपकार मु?ा से मिलने आ जाता और फिर चिकन खा कर ही जाता.

देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उपकार को अपने ही कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई. बधाई देने के लिए मैं उस के घर गया, तो उस ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. मु?ो लगा जैसे वह मु?ा से कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा था.

‘‘क्या बात है, कुछ कहना चाह रहे हो?’’ मैं ने उस से पूछ ही लिया.

‘‘हां, नहीं… कुछ नहीं.’’ मेरे पूछने पर वह थोड़ा हड़बड़ा गया.

‘‘कालेज में सब ठीक तो है?’’ मु?ो लगा शायद उसे नई नौकरी में एडजस्ट करने में कोई दिक्कत हो रही हो.

‘‘कालेज में तो सब ठीक है, असल में, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं, पर डरता हूं कि पता नहीं तुम क्या सोचो,’’ उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई.

‘‘अरे, तो बोल न. अगर कुछ चाहिए तो बता. बस, मु?ा से चिकन लाने को मत बोलना,’’ मैं बोल कर जोर से हंस दिया.

‘‘मैं चिकन नहीं, चिकन वाली को इस घर में लाना चाहता हूं,’’ उपकार ने धीमी सी आवाज में कहा.

‘‘मतलब?’’ मैं सच में कुछ नहीं सम?ा था.

‘‘मैं नयना से शादी करना चाहता हूं, अगर तुम को कोई आपत्ति न हो.’’ आखिर उस ने हिम्मत कर के बोल ही दिया.

‘‘नयना, अपनी नयना.’’ मु?ो उपकार की बात सुन कर एक ?ाटका सा लगा, लेकिन अगले ही पल मु?ो लगा नयना के लिए उपकार से अच्छा लड़का और कहां मिलेगा.

‘‘हां, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं,’’ उपकार ने नजरें नीची किए हुए कहा.

‘‘सच कहूं तो मु?ो तो बहुत खुशी होगी अगर नयना को इतना अच्छा घरपरिवार मिल जाए,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा लेकिन अगले ही पल मेरी आंखों के आगे अंकलजी यानी उपकार के पिताजी का चेहरा घूम गया.

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‘‘लेकिन तुम्हारे पिताजी? वे तो लहसुनप्याज को भी घर में नहीं आने देते, भला एक मांसाहारी, गैरब्राह्मण लड़की को अपनी बहू बनाने के लिए कैसे तैयार होंगे,’’ मैं ने अपनी शंका उपकार के सामने रखी.

‘‘उन की चिंता तुम मत करो. उन को मैं किसी तरह मना ही लूंगा. मु?ो पहले तुम्हारी अनुमति की आवश्यकता थी,’’ उपकार ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘मेरी अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं है. नयना और तुम दोनों सम?ादार हो. मु?ो पूरा विश्वास है तुम दोनों की आपस में खूब बनेगी,’’ मैं एक बड़े भाई की तरह ज्ञान दे रहा था.

फिर घर आ कर मैं ने पहले मां व पिताजी से नयना और उपकार के बारे में बात की. मां तो बहुत प्रसन्न थीं, पिताजी यद्यपि थोड़े सशंकित थे कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार नयना को कैसे अपनी बहू बनाने के लिए तैयार होगा. लेकिन मैं ने उन को विश्वास दिलाया कि शादी उपकार के पिताजी की सहमति के बाद ही होगी.

फिर एक दिन उपकार ने मौका देख कर अपने पिताजी से नयना के बारे में बात की. जब उस ने बताया कि लड़की ब्राह्मण नहीं है तो वे थोड़े निराश हो गए. जानते तो थे ही कि उपकार जातपांत में विश्वास नहीं रखता, इसलिए उन्होंने भी अपने मन को सम?ा लिया.

लेकिन अगले ही पल उन का सवाल था, ‘‘लड़की मांसाहारी तो नहीं है?’’

अब उपकार ठहरा आज के जमाने का महाराजा हरिश्चंद्र, बता दिया सच. सुनते ही पिताजी हत्थे से उखड़ गए.

‘‘लड़की ब्राह्मण नहीं है, मैं यह तो स्वीकार कर सकता हूं, लेकिन एक मांसाहारी लड़की को मैं अपनी बहू स्वीकार नहीं कर सकता,’’ पिताजी अपने रौद्र रूप में आ गए थे.

‘‘आप एक बार उस से मिल तो लीजिए. वह एक बहुत अच्छी लड़की है,’’ उपकार ने पिताजी को मनाने की कोशिश की.

‘‘चाहे वह कितनी भी अच्छी हो और कितनी भी सुंदर हो, मैं तुम्हें उस से शादी की अनुमति नहीं दे सकता,’’ पिताजी ने उपकार से साफसाफ बोल दिया.

‘‘लेकिन मैं उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करूंगा,’’ अब उपकार को भी थोड़ा गुस्सा आने लगा था.

‘‘ठीक है, तो जाओ और कर लो उस से शादी. लेकिन उस से पहले तुम्हें मु?ो और इस घर को त्यागना होगा,’’  उपकार के पिताजी ने हाथ उठा कर उपकार को आगे कुछ भी बोलने से रोक दिया और उठ कर अपने कमरे में चले गए.

यहीं आ कर उपकार अपने को बड़ा असहाय पा रहा था. वह जानता था कि उस के पिताजी ने उस को किस तरह पाला है. मां के देहांत के बाद जब सभी रिश्तेदार उन से दूसरी शादी के लिए कह रहे थे, उन्होंने कहा था कि वे अपना सारा जीवन उपकार के लिए बिता देंगे. उन्होंने कभी भी उपकार को किसी चीज की कमी नहीं होने दी, कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया. लेकिन आज जब उपकार को पसंद की जीवनसाथी का साथ चाहिए था, तो उस के पिताजी किसी भी तरह तैयार नहीं थे.

उपकार ने एकदो बार फिर पिताजी को मनाने की कोशिश की, लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.  बड़ी मुश्किल थी. उधर उपकार, इधर नयना – दोनों दुखी और निराश थे.

‘‘यार, कोई रास्ता तो बताओ पिताजी को मनाने का. वे तो मेरी बात सुनने को ही तैयार नहीं हैं,’’ एक दिन उपकार मु?ा से मिला और बोला.

‘‘यार, मैं ने कहीं पढ़ा था अगर लड़की के पिता को मनाना हो तो एक काले कपड़े पर मिट्टी का पुतला रख कर उस पर लाल धागा बांध कर लालमिर्च और नारियल चढ़ाने से मनोकामना पूरी होती है, लेकिन मु?ो यह नहीं पता कि इस से लड़के के पिता भी मानेंगे या नहीं,’’ मैं ने उस को एक टोटके के बारे में बताया.

‘‘यार, तुम को मजाक सू?ा रही है. यहां मैं टैंशन लेले कर गंजा न हो जाऊं,’’ उपकार ने मु?ो घूरते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा. अब तुम न मानो तो तुम्हारी मरजी,’’ मैं ने सुरेश के मशहूर गोलगप्पे मुंह में डालते हुए कहा

खुशी के आंसू- भाग 1: आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

लेखिका- डा. विभा रंजन  

आनंद आजकल छाया के बदले ब्यवहार से बहुत परेशान था. छाया आजकल उस से दूरी बना रही थी, जो आनंद के लिए असह्य हो रहा था. दोनों की प्रगाढ़ता के बारे में स्कूल के सभी लोगों को भी मालूम था. वे दोनों 5 वर्षों से साथ थे. छाया और आनंद एक ही स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे. वहीं जानपहचान हुई और दोनों ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला कर लिया था.

दोनों की प्रेमकहानी को छाया के पिता का आशीर्वाद मिल चुका था. वे दोनों शादी के बंधन में बंधने वाले थे कि छाया के पिता को कैंसर जैसी भंयकर बीमारी से मृत्यु हो गई थी. विवाह एक वर्ष के लिए टल गया था. छाया की छोटी बहन ज्योति थी जो पिता की बीमारी के कारण बीए की परीक्षा नहीं दे पाई थी. छाया उसे आगे पढ़ाना चाहती थी. छाया के कहने पर आनंद उसे पढ़ाने उस के घर जाया करता था.

आजकल वह ज्योति के ब्यवहार में बदलाव देख रहा था. उसे महसूस होने लगा था कि ज्योति उस की तरफ आकर्षित हो रही है. उस ने जब से यह बात छाया को बताई तब से छाया उस से ही दूरी बनाने लगी. अब वह न पहले की तरह आनंद से मिलतीजुलती है और न बात करती है.

आनंद को समझ नहीं आ रहा था आखिर छाया  ने अचानक उस से बातचीत क्यों बंद कर दी. कहीं वह ज्योति की प्यार वाली बात में उस की गलती तो नहीं मान रही. नहींनहीं, वह अच्छी तरह जानती है मैं उस से कितना चाहता हूं. आखिर कुछ तो पता चले उस की बेरुखी का कारण क्या है?

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आज 3 दिन हो गए एक स्कूल में रह कर भी हम न मिल पाए न उस ने मेरी एक भी कौल का जवाब दिया. आनंद छाया की गतिविधियों पर अपनी नज़र  जमाए हुए था. वह स्कूल आया जरूर, पर अंदर दाखिल नहीं हुआ. बस, छाया को स्कूल में दाखिल होते देखता रहा.

छुट्टी के समय छाया जैसे ही गेट से बाहर निकलने वाली थी, आनंद ने अपनी बाइक उस के सामने खड़ी कर दी और बोला, “पीछे बैठो, मैं कोई तमाशा नहीं चाहता.”

छाया ने उस की वाणी में कठोरता महसूस की, वह डर गई. वह चुपचाप बाइक पर बैठ गई. बाइक तेजी से सड़क पर दौड़ने लगी. थोड़ी देर बाल आनंद ने बाइक को एक छोटे से पार्क के पास रोक दिया. पार्क में और भी जोड़े बैठे थे. आनंद ने छाया का हाथ पकड़ा और छाया के साथ एक बैंच पर बैठ गया.

दो पल दोनों खामोश बैठे रहे, फिर आनंद ने कहा,  “छाया,  मैं ने तुम्हें कितनी कौल कीं, तुम ने न फोन उठाया, न मुझे कौल ही किया. आखिर क्या बात है, क्यों मुझ से दूर रह कर मुझे परेशान कर रही हो? मेरी क्या गलती है, मुझे बताओ? मैं ने ऐसा  क्या कर दिया?”

“आनंद, तुम्हारी कोई गलती नहीं है.”

“तब फिर, इस बेरुखी का मतलब?”

“मैं खुद बहुत परेशान हूं,” छाया ने भीगे स्वर में कहा.

“तुम्हारी ऐसी कौन सी परेशानी है जो मुझे पता नहीं? मैं तुम्हारा साथी हूं, सुखदुख का भागीदार हूं. मुझे बताओ, हम मिल कर हर समस्या का हल निकाल लेंगे.”

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छाया एकटक आनंद को देखे जा रही थी.

“ऐसे क्यों देख रही हो, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है? तुम जानती हो,मैं झूठ नहीं बोलता, बताओ क्या बात है?” आनंद ने कहा,-

अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का- भाग 3: जब प्रभा को अपनी बेटी की असलियत पता चली!

‘‘मां, क्या हुआ, पापा ठीक हैं न?’’ लेकिन जब उसे प्रभा की सिसकियों की आवाज आई तो वह समझ गई कि कुछ बात जरूर है. घबरा कर वह बोली, ‘‘मां, मां, आप रो क्यों रही हैं, कहिए न क्या हुआ?’’ अपने ससुर के बारे में सब जान कर कहने लगी, ‘‘मां, आ…आ…आप घबराइए मत, कुछ नहीं होगा पापा को. मैं कुछ करती हूं.’’ उस ने तुरंत अपनी दोस्त शोना को फोन लगाया और सारी बातों से उसे अवगत कराते हुए कहा कि तुरंत वह पापा को अस्पताल ले कर जाए, जैसे भी हो.

अपर्णा की जिस दोस्त को प्रभा देखना तक नहीं चाहती थी और उसे बंगालनबंगालन कह कर बुलाती थी, आज उसी की बदौलत भरत की जान बच पाई, वरना पता नहीं क्या हो जाता. डाक्टर का कहना था कि मेजर अटैक था. अगर थोड़ी और देर हो जाती मरीज को लाने में, तो वे इन्हें नहीं बचा पाते.

तब तक अपर्णा और मानव आ चुके थे. फिर कुछ देर बाद रंजो भी आ गई. बेटेबहू को देख कर बिलखबिलख कर रो पड़ी प्रभा और कहने लगी, आज अगर शोना न होती, तो शायद तुम्हारे पापा जिंदा न होते.’’

अपर्णा के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. उस ने अपनी सास को ढांढ़स बंधाया और अपनी दोस्त को तहेदिल से धन्यवाद दिया कि उस की वजह से उस के ससुर की जान बच पाई. अपनी भाभी को मां के करीब देख कर रंजो भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मां, मैं तो मर ही जाती अगर पापा को कुछ हो जाता. कितनी खराब हूं मैं जो आप की कौल नहीं देख पाई. वह तो सुबह आप की मिस्डकौल देख कर वापस आप को फोन लगाया तो पता चला, वरना यहां तो कोई कुछ बताता भी नहीं है.’’ यह कह कर अपर्णा की तरफ घूरने लगी रंजो.

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तभी उस का 7 साल का बेटा बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप झूठ क्यों बोल रही हो? नानी, मम्मी झूठ बोल रही हैं. जब आप का फोन आया था, हम टीवी पर ‘बाहुबली’ फिल्म देख रहे थे. मम्मी यह कह कर फोन नहीं उठा रही थीं कि पता नहीं कौन मर गया जो मां इतनी रात को हमें परेशान कर रही हैं. पापा ने कहा भी उठा लो, पर मां ने फोन नहीं उठाया और फिल्म देखती रहीं.’’ यह सुन कर तो सब हैरान हो गए.

सचाई खुलने से रंजो की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा, जैसे उसे करंट लग गया हो. अपने बेटे को एक थप्पड़ लगाते हुए बोली, ‘‘पागल कहीं का, कुछ भी बकवास करता रहता है.’’ फिर हकलाते हुए कहने लगी, ‘‘अरे, वह तो कि…सी और का फोन आ रहा था, मैं ने उस के लिए कहा था,’’ दांत निपोरते हुए आगे बोली, ‘‘देखो न मां, कुछ भी बोलता है, बच्चा है न इसलिए.’’

प्रभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहने लगी, ‘‘इस का मतलब तुम उस वक्त जागी हुई थी और तुम्हारा फोन भी तुम्हारे आसपास ही था? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इतनी रात को तुम्हारी मां किसी कारणवश ही तुम्हें फोन कर रही होगी? अच्छा सिला दिया तू ने मेरे प्यार और विश्वास का, बेटा. आज मेरा सुहाग उजड़ गया होता, अगर यह शोना न होती. जिस बहू के प्यार को मैं ढकोसला और बनावटी समझती रही, आज पता चल गया कि वह, असल में, प्यार ही था. मैं तो आज भी इस भ्रम में ही जीती रहती अगर तुम्हारा बेटा सचाई न बताता तो.’’

अपने हाथों से सोने का अंडा देने वाली मुरगी निकलते देख कहने लगी रंजो, ‘‘ना, नहीं मां, आप गलत समझ रही हैं.’’

‘‘समझ रही थी, पर अब मेरी आंखों पर से परदा हट चुका है. सही कहते थे तुम्हारे पापा कि तुम मेरी ममता का सिर्फ फायदा उठा रही हो, कोई मोह नहीं है तुम्हारे दिल में मेरे लिए,’’ कह कर प्रभा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया और अपर्णा से बोली, ‘‘चलो बहू, देखें तुम्हारे पापा को कुछ चाहिए तो नहीं?’’ रंजो, ‘‘मां, मां’’ कहती रही. पर पलट कर एक बार भी नहीं देखा प्रभा ने, मोह टूट चुका था उस का.

मेरी एक परिचिता के बेटे का विवाह होने वाला था. शादी का जो कार्ड पसंद किया गया, वह काफी महंगा था. उन्होंने ज्यादा कार्ड न छपवा कर एक तरकीब आजमाई, जिस में उन्हें पूरी सफलता मिली. पति व बेटे के बौस और कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण लोगों को तो कार्ड दे दिए, बाकी जिस के घर भी गईं, कार्ड पर उन्हीं के सामने नाम लिखने से पहले बोलतीं, ‘‘बस, क्या बताऊं, कैसे गलती हो गई, कार्ड्स कम हो गए.’’

सुनने वाला फौरन बोलता, ‘‘अरे, हमें कार्ड की जरूरत नहीं, हम आ जाएंगे.’’

परिचिता पूछतीं, ‘‘सच, आप आ जाओगे? फिर आप को कार्ड रहने दूं?’’

सामने वाला कहता है, ‘‘हां, हां, हम ऐसे ही आ जाएंगे.’’

सामने वाला भी अपने को उन का खास समझता कि वे ऐसी बात शेयर कर रही हैं. परिचिता ने सब को एक खाली कार्ड दिखाते हुए निबटा दिया.

मैं उन के साथ 2 घरों में कार्ड देने गई थी, इसलिए इस कलाकारी की प्रत्यक्षदर्शी हूं. खैर, कार्ड मुझे भी नहीं मिला. मैं ने बाद में उन्हें छेड़ा, ‘‘जब सब को दिखा देना, तो आखिर में कार्ड मुझे चाहिए.’’  इस पर

वे खुल कर हंसीं, बोलीं, ‘‘नहीं मिलेगा, बहुत खर्चे हैं शादी के. चलो, कार्ड के तो

पैसे बचाए.’’

मेरी मौसी ने एक दिलचस्प किस्सा बताया. वे रोडवेज की बस से बनारस जा रही थीं. उन की दूसरी तरफ की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा आ कर बैठ गईं. कंडक्टर भला आदमी था, उस ने बूढ़ी अम्मा से टिकट के लिए पैसे भी नहीं लिए.

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बस चल पड़ी. थोड़ी देर में कंडक्टर ने देखा कि अम्मा कुछ परेशान सी हैं. उस ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, इलाहाबाद आ जाए तो बता देना.’’

कंडक्टर ने हां बोला और चला गया. लेकिन बाद में वह भी भूल गया, तब तक बस इलाहाबाद से आगे निकल गई थी.

कंडक्टर को अच्छा न लगा, उस ने बस वापस मुड़वाई. इलाहाबाद आया तो सोती हुई को जगाते हुए वह बोला, ‘‘अम्मा, इलाहाबाद आ गया.’’

‘‘अच्छा बेटा, चलो, अपनी दवाई खा लेती हूं.’’

‘‘अरे अम्मा, यहां उतरना नहीं है क्या,’’ कंडक्टर बोला.

‘‘मुझे तो बनारस जाना है. बेटी ने कहा था कि इलाहाबाद आने पर दवाई खा लेना,’’ अम्मा बोलीं.

सवारियों का हंसहंस कर बुरा हाल हो गया और कंडक्टर की शक्ल देखने लायक थी.

सच्चा प्यार- भाग 3: जब उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

Writer- Girija Zinna

ललित ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, ‘‘उर्मी, मैं बातों को घुमाना नहीं चाहता हूं. मैं तुम से प्यार करता हूं. अगर तुम्हें भी मंजूर है, तो मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर मुझे सच में झटका लगा. मुझे जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि ललित इस तरह मुझ से पूछेगा.

मैं ने ललित के बारे में बहुत सोचा. मुझे तब तक मालूम हो चुका कि मेरे पास जो पैसे हैं वे मेरी शादी के लिए बहुत कम हैं और फिर मेरी मां को भी अपनाने वाला दूल्हा मिलना लगभग नामुमकिन ही था. इस बारे में मेरे दिल ने नहीं दिमाग ने निर्णय लिया और मैं ने ललित को अपनी मंजूरी दे दी.

उस के बाद हर हफ्ते हम रविवार को हमारे घर के सामने वाले पार्क में मिलते. इसी बीच यकायक ललित 3 दिन की छुट्टी पर चला गया.

ललित चौथे दिन कालेज आया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. शाम को हम दोनों पार्क में जा कर बैठ गए. मुझे मालूम था कि ललित मुझ से कुछ कहना चाह रहा, मगर कह नहीं पा रहा.

फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्मी… मैं ने खुद ही तुम से प्यार का इजहार किया था और अब मैं ही इस रिश्ते से पीछे हट रहा हूं. तुम्हें मालूम है कि मेरी एक बहन है. वह किसी लड़के से प्यार करती है और उस लड़के की एक बिन ब्याही बहन है. उन लोगों ने साफ कह दिया कि अगर मैं उन की लड़की से शादी करूं तो ही वे मेरी बहन को अपनाएंगे. मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा.’’

मैं 1 मिनट के लिए चुप रही. फिर कहा, ‘‘फैसला ले ही लिया तो अब किस बात का डर… शादी मुबारक हो ललित,’’ और फिर घर चली आई.

1 महीने में ललित और उस की बहन की शादी धूमधाम से हो गई. अब ललित कालेज की नौकरी छोड़ कर अपनी ससुराल की कंपनी में काम करने लगा.

अब मनोहर से मेरी शादी हुए 1 महीना हो गया है. मेरी ससुराल वालों ने मेरे पति को मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी ताकि मेरी मां को भी हमारा सहारा मिल सके. इस नई जिंदगी से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरे पति एक अच्छे इनसान हैं. मुझे किसी भी बात को ले कर परेशान नहीं करते हैं. मेरी बहुत इज्जत करते हैं. औरतों को पूरा सम्मान देते हैं. उन का यह स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा.

‘‘उर्मी जल्दी से तैयार हो जाओ. हमारी शादी के बाद तुम पहली बार मेरे दफ्तर की पार्टी में चल रही हो. आज की पार्टी खास है, क्योंकि हमारे मालिक के बेटे दिल्ली से मुंबई आ रहे हैं. तुम उन से भी मिलोगी.’’

जब हम पार्टी में पहुंचे तो कई लोग आ चुके थे. मेरे पति ने मुझे सब से मिलवाया. इतने में किसी ने कहा चेयरमैन साहब आ गए. उन्हें देख कर एक क्षण के लिए मेरी सांस रुक गई. चेयरमैन कोई और नहीं शेखर ही था.

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तभी सभी को नमस्कार कहते हुए शेखर मुझे देख कर 1 मिनट के लिए चौंक गया.

मेरे पति ने उस से कहा, ‘‘मेरी बीवी है सर.’’

शेखर ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुबारक हो… शादी कब हुई?’’

मेरे पति उस के सवालों के जवाब देते रहे और फिर वह चला गया.

कुछ देर बाद शेखर के पी.ए. ने आ कर कहा, ‘‘मैडम, चेयरमैन साहब आप को बुला रहे हैं अकेले.’’ मैं ने चुपके से अपने पति के चेहरे को देखा. पति ने भी सिर हिला कर मुझे जाने का इशारा किया.

शेखर एक बड़ी मेज के सामने बैठा था. मैं उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

शेखर ने मुझे देख कर कहा, ‘‘आओ उर्मी, प्लीज बैठो.’’

मैं उस के सामने बैठ गई.

शेखर ने कहा, ‘‘मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं. मैं सीधे मुद्दे पर आ जाऊंगा… मैं हमारी पुरानी दोस्ती को फिर से शुरू करना चाहता हूं बिलकुल पहले जैसे. मैं तुम्हारे पति का दिल्ली में तबादला कर दूंगा. अगर तुम चाहती हो तो तुम्हें दिल्ली के किसी कालेज में लैक्चरर की नौकरी दिला दूंगा.’’

वह ऐसे बोलता रहा जैसे मैं ने उस की बात मान ली. मगर मैं उस वक्त कुछ नहीं कह सकी. चुपचाप लौट कर पति के सामने आ कर बैठ गई. कुछ भी नहीं बोली. टैक्सी से लौटते समय भी कुछ नहीं पूछा उन्होंने.

घर लौटने के बाद मेरे पति ने मुझ से कुछ भी नहीं पूछा. मगर मैं ने उन से सारी बातें कहने का फैसला कर लिया. पति ने मेरी सारी बातें चुपचाप सुनीं. मैं ने उन से कुछ नहीं छिपाया.

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मेरी आंखों से आंसू आने लगे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘उर्मी, तुम ने कुछ गलत नहीं किया. हम सब के अतीत में कुछ न कुछ हुआ होगा. अतीत के पन्नों को दोबारा खोल कर देखना बेकार की बात है. कभीकभी न चाहते हुए भी हमारा अतीत हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तो हमें उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए. हमेशा आगे की सोच रखनी चाहिए. शेखर की बातों को छोड़ो. उस का रुपया बोल रहा है… हम कभी उस का मुकाबला नहीं कर सकते… मैं कल ही अपना इस्तीफा दे दूंगा. दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगा. तुम चिंता करना छोड़ो और सो जाओ. हर कदम मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ और फिर मुझे बांहों में भर लिया. उन की बांहों में मुझे फील हुआ कि मैं महफूज हूं. इस के अलावा और क्या चाहिए एक पत्नी को?

गृहप्रवेश- भाग 3: किसने उज्जवल और अमोदिनी के साथ विश्वासघात किया?

4-5 महीने की भागदौड़ और कुछ दोस्तों की सहायता से मु झे एक प्राइवेट कालेज में परमानैंट नौकरी मिल गई थी. स्नेह और सारा का स्कूल 3 बजे समाप्त हो जाता था. बसस्टैंड से मोहिनी दोनों बच्चों को अपने घर ले जाती. उज्जवल चाहता था कि स्नेह मोहिनी को अपना ले हालांकि मोहिनी और स्नेह दोनों ही इस प्रबंध से नाखुश थे. शाम को कालेज से लौटते हुए मैं स्नेह को अपने साथ ले आती थी.

परिवर्तन इस बार भी सभी के जीवन में आया था. अपनी पीड़ा को पीछे छोड़ कर मैं स्वावलंबी हो रही थी. मोहिनी को अब 2 बच्चों को संभालना पड़ रहा था, जो उस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. दीपक की कंपनी ने उस का स्थानांतरण स्पेन कर दिया था. और उज्जवल, उस के ऊपर तो अब 3 घरों की जिम्मेदारी आ गई थी.

स्नेह और मोहिनी के अतिरिक्त, इकलौता बेटा होने के कारण उस के ऊपर अपनी मां की जिम्मेदारी भी थी. पति की मृत्यु के बाद उज्जवल की मां मेरठ में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहती थीं. लेकिन छुट्टियों में उन का इंदौर आनाजाना लगा रहता था. उज्जवल के इस निर्णय से वे भी खुश नहीं थीं. वैसे, इस के पीछे का कारण मेरे प्रति कोई लगाव नहीं, बल्कि वर्षों पुराना रोग कि ‘क्या कहेंगे लोग’ था.

लेकिन इस सब में सब से अधिक नुकसान दोनों बच्चों का हुआ था. उन की तो पूरी दुनिया बदल गई थी. उन की बालसुलभ जिज्ञासा को उत्तर ही नहीं मिल रहा था. जहां सारा को उज्जवल का उस के घर रहना पसंद नहीं था, वहीं स्नेह को मोहिनी के घर जाना.

मैं स्नेह की उधेड़बुन सम झ रही थी. धीरेधीरे मैं ने उसे परिस्थिति से अवगत कराना शुरू किया. अपने पिता से अलगाव उस के लिए सरल नहीं था. लेकिन मेरा बेटा मु झ से भी अधिक सम झदार था. वह घटनाओं को देखने के साथसाथ सम झने लगा और उन का आकलन भी करने लगा था. अब इस विषय पर हमारे बीच खुल कर बातें होने लगी थीं.

प्रेम मात्र शरीर का समर्पण नहीं है, बल्कि भावनाओं के समंदर में निस्वार्थ भाव से खुद को समर्पण करने का नाम भी है. प्रेम में एक साथी की कमी को दूसरा साथी पूर्ण करता है. प्रेम शक्ति का स्रोत है और मोह व दुर्बलता का सागर. प्रेम स्वतंत्रता का भाव है जबकि मोह उल झनों से भरा हुआ बंदिश का स्वरूप. प्रेम कुछ मांगता नहीं है और मोह मांगना छोड़ता नहीं है. प्रेम का कोई अस्तित्व मिल नहीं सकता जबकि मोह का कोई अस्तित्व होता ही नहीं.

मोहिनी उज्जवल से मोहित थी. लेकिन अभावग्रस्त सम्मोहन के साथ जीने के लिए समर्पित नहीं थी. उस की गलती भी नहीं थी. वह एक धनी परिवार की बेटी थी. विवाह के पश्चात भी उस का जीवन सुखसुविधाओं से पूर्ण रहा था. दीपक की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी. मोहिनी ने उज्जवल से भी यह ही अपेक्षा की थी. एक प्रेमी के रूप में सुदर्शन उज्जवल उस के हृदय के सिंहासन पर बैठ गया था, लेकिन जब उसी प्रेमी की कमजोर पौकेट का उसे पता चला, प्रेम भाप बन कर उड़ने लगा.

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उज्जवल की हालत भी इस से भिन्न नहीं थी. प्रेयसी के नखरे उठाने का आनंद उस की जेब पर भारी पड़ रहा था. अब वह सम झ रहा था जिस मुसकान और जिंदादिल व्यक्तित्व से वह अपनी प्रेमिका के हृदय पर शासन कर पाया था, उस के पीछे का कारण उस की पत्नी का समर्पण था. मैं ने जिस चतुराई से घर को संभाल रखा था, उसी ने उज्जवल को एक तनावरहित जीवन प्रदान किया था. समय के साथ उन दोनों का मोहभंग होना शुरू हो गया था. उन की लड़ाइयां बढ़ गई थीं.

मैं ने कालेज के नजदीक एक घर किराए पर ले लिया और स्नेह को किसी अप्रिय परिस्थति से बचाने के लिए उस का उज्जवल के घर जाना बंद करा दिया था.

मैं ने यों तो पुराने जीवन की कड़वी यादों को उस मकान के साथ ही त्याग दिया था लेकिन अब भी कुछ शेष था. इसलिए, मेरा शरीर तो इस घर में आ गया, लेकिन मेरा मन पुरानी चौखट पर खड़ा इंतजार कर रहा था.

‘‘आप सो गईं मम्मी?’’

कुछ पता ही नहीं चला यादों की गाड़ी पर सवार हो कर कितनी दूर निकाल आई थी. स्नेह पुकारता नहीं, तो कुछ देर यों ही यादों की सैर करती रहती.

‘‘नहीं बेटा, बस आंखें बंद कर कुछ सोच रही थी. क्या हुआ,  तुम तो बाहर खेल रहे थे?’’

‘‘बाहर पापा खड़े हैं.’’

‘‘पापा?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम अपने कमरे में टौयज लगाओ, मैं पापा से मिल कर आती हूं.’’

एक साल, 2 महीने 5 दिन और 4 घंटे बाद उज्जवल मेरे सामने बैठ कर अपनी गलती की माफी मांग रहा था. उस की प्रेमिका अपने रिश्ते को एक और मौका देने अपने पति के पास स्पेन चली गई थी. पराजित प्रेमी अपनी त्यक्त पत्नी के पास वापस चला आया, इस आशा के साथ कि वह इसे अपना अच्छा समय सम झ उस की बांहों में समा जाएगी. भटकना पुरुष का स्वभाव है और प्रतीक्षा स्त्री की नियति. समाज भी सोचता है कि परित्यक्ता पत्नी को फिर से पति का सान्निध्य प्राप्त हो जाए, तो उस के लिए इस से बड़ी खुशी और क्या होगी.

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‘‘अमोदिनी.’’

‘‘हां.’’

‘‘मु झे माफ कर दो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे अपराध के लिए.’’

‘‘तुम जानते हो कि तुम्हारा अपराध क्या है?’’

‘‘मैं मोहिनी के जाल में फंस गया था.’’

उज्जवल की बात सुन कर मैं जोर से हंस पड़ी थी. वह अचंभित हो कर मु झे देखने लगा.

‘‘इस पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए कितना सरल है स्त्री को दोषी कह देना. कदम दोनों के भटकते हैं, मन दोनों का चंचल होता है, लेकिन चरित्रहीन स्त्री हो जाती है. स्त्री को अपराधी बना तुम खुद फिर से पवित्र हो जाते हो. मोहिनी ने तुम्हें नहीं, तुम दोनों ने एकदूसरे को छला है. प्रेम तुम दोनों का अपराध नहीं है, विश्वासघात है.’’

‘‘दीपक और मोहिनी अपने रिश्ते को एक और मौका दे रहे हैं.’’

‘‘उन के रिश्ते में रिश्ता कहने लायक कुछ शेष होगा.’’

‘‘तुम अब भी मु झ से नाराज हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, मैं तो तुम्हारी आभारी हूं. मेरे स्वाभिमान पर, मेरे विश्वास पर मारे गए तुम्हारे एक थप्पड़ ने मेरा परिचय मेरी त्रुटियों से करा दिया. आज मैं यह सम झ पाई हूं कि किसी भी प्रेम और रिश्ते से ऊपर होता है मनुष्य का खुद के प्रति सम्मान और प्रेम. इसीलिए हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए. समय और रिश्ता बदलते देर नहीं लगती. स्त्री के लिए विधा का उपार्जन और धन का संचय आवश्यक है. एक खूबसूरत सपने में रहना अच्छा लगता है. लेकिन इतना ध्यान रहे कि सपना टूट भी सकता है. मूसलाधार प्रलय से बचने के लिए हर स्त्री को एक रेनकोट तैयार रखना ही चाहिए.’’

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‘‘स्नेह के लिए ही मुझे माफ कर दो.’’

‘‘हर रिश्ता प्रेम और विश्वास पर टिका होता है. प्रेम तो मैं तुम से करती नहीं और विश्वास इस जीवन में कभी कर नहीं पाऊंगी. यदि स्नेह के लिए हम साथ होते भी हैं तो आगे चल कर यह रिश्ता कड़वाहट और छल को ही जन्म देगा. ऐसे विषैले माहौल में न हम खुश रह पाएंगे और न स्नेह.’’

‘‘अमोदिनी, काश कि मैं तुम्हारे योग्य हो पाता,’’ यह कह कर उस ने अपना सिर  झुका लिया.

‘‘कल सही समय पर कोर्ट पहुंच जाना,’’ मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.

आज मैं ने घर की चौखट लांघ गृहप्रवेश कर लिया था अपने घर में, जिस में उज्जवल की कोई जगह नहीं थी.

मिसफिट पर्सन- भाग 1: जब एक जवान लड़की ने थामा नरोत्तम का हाथ

‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

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नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

शाम को रिटायरिंग रूम में कौफी पीते अन्य कस्टम अधिकारी आज की घटना की चर्चा कर रहे थे. आव्रजन काउंटर पर अघोषित माल या तस्करी का सामान पकड़ा जाना नई बात नहीं थी. असल बात तो नरोत्तम जैसे असहयोगी या मिसफिट पर्सन नेचर वाले व्यक्ति की थी. ऐसा अधिकारी कभीकभार महकमे में आ ही जाता था.

‘‘यह नया पंछी शर्मा चंदा लेता नहीं है या इस को चंदा लेना नहीं आता?’’ सरदार गुरजीत सिंह, वरिष्ठ कस्टम अधिकारी ने पूछा.

‘‘लेता नहीं है. यह इतना भोंदू नजर नहीं आता कि चंदा कैसे लिया जाता है, न जानता हो,’’ वधवा ने कहा.

‘‘एक बात यह भी है कि लेनादेना सब के सामने नहीं हो सकता,’’ रस्तोगी की इस बात का सब ने अनुमोदन किया.

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‘‘एअरपोर्ट पर आने से पहले यह कहां था?’’

‘‘कंपनियों को चैक करने वाले स्टाफ में था.’’

‘‘वहां क्या परेशानी थी?’’

‘‘वहां भी ऐसा ही था.’’

‘‘इस का मतलब यह इस लाइन का नहीं है. कितने समय तक यहां टिक पाएगा?’’ गुरजीत सिंह के इस सवाल पर सब हंस पड़े.

ज्योत्सना अपनी सप्लायर मिसेज बख्शी के सामने बैठी थी.

‘‘आज माल कैसे फंस गया?’’

‘‘एक नया कस्टम अधिकारी था, उस ने माल चैक कर मालखाने में जमा करवा दिया.’’

‘‘बूढ़ा है या नौजवान?’’

‘‘कड़क जवान है. लगता है अभी कालेज से निकला है.’’

‘‘शादीशुदा है?’’

‘‘यह उस के माथे पर तो नहीं लिखा है? वैसे कुंआरा है या शादीशुदा, आप को क्या करना है?’’ एक आंख दबाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरा मतलब है जब उस ने तेरे रूप और जवानी का रोब नहीं खाया तो, या तो शादीशुदा है या…’’ मिसेज बख्शी ने भी उसी की तरह आंख दबाते हुए कहा.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी- भाग 2: क्यों सुकांत की बेटियां उन्हें छोड़कर चली गई

Writer- Dr. Neerja Srivastava

इस पर उन्नति बोली, ‘‘और क्या… कह रहे थे कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस रानी बन कर रहना… पलकों पर बैठा कर रखेंगे तू देखना,’’ और वह हंस दी थी.

‘‘दीदी तुम्हें मालूम है न कि मम्मीपापा अब रिटायर हो चुके हैं… हम लोगों के चक्कर में बेचारे मकान तक नहीं बनवा सके… बैंक से स्टूडैंट लोन तो है ही प्राइवेट लोन अलग से, विदेश की पढ़ाई उन्हें कितनी महंगी पड़ी पता है?’’

‘‘भाई, तू तो लड़का है. सीए बनते ही बढि़या कंपनी में लग जाना है. तू ठहरा तेज दिमाग… फिर धड़ाधड़ पैसे कमाएगा तू… थोड़ा ओवरटाइम भी कर लेना हमारे लिए… मुझे तो गृहस्थी संभालने दे… लाइफ ऐंजौय करनी है मुझे तो, वह अपने लंबे नाखूनों में लगी ताजा नेलपौलिश सुखाने लगी.’’

‘‘कमाल है दीदी पहले विदेश की महंगी प्रोफैशनल पढ़ाई पर खर्च करवाया, फिर फाइवस्टार में शादी की… दहेज न देने पर भी इतना खर्च हुआ जिस की गिनती नहीं. अब काम नहीं करेगी तो तुम्हारा लोन कैसे अदा होगा, सोचा है? माना काव्या दीदी का और मेरा लोन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं पर अपना लोन तो चुकता कर जो बैंक से तुम ने अपने नाम लिया है… काम क्यों नहीं करोगी? फिर प्रोफैशनल पढ़ाई क्यों की? इतना पैसा क्यों बरबाद करवाया जब तुम्हें केवल हाउसवाइफ ही बनना था?’’

‘‘तू तो करेगा न भाई काम?’’

‘‘तुम काम नहीं करोगी तो कुछ दिनों में ही प्यार हवा हो जाएगा रवि का.’’

‘‘तमीज से बात कर. रवि तेरे जीजू हैं.’’

‘‘तुम्हारी वजह से मैं ने डाक्टरी की पढ़ाई नहीं की जबकि मैं बचपन से ही डाक्टर बनना चाहता था. घर की स्थिति देख कर अपना इरादा ही बदल लिया. न… न… करतेकरते भी इतना खर्च करवा डाला… कर्ज में डूब गए हैं मम्मीपापा… शर्म नहीं आती तुम्हें? कब जीएंगे वे अपने लिए कभी सोचा है?’’

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‘‘तू है न उन का बेटा… करना सेवा सारी उम्र लायक बेटा बन कर.’’

‘‘वाह, बाकी हर चीज में बराबरी पर जिम्मेदारी में नहीं. वह तो शुक्र है मकान नहीं बना वरना बिकवा कर उस में से भी अपना शेयर लेती… छोड़ उन्नति दीदी तुम क्या समझोगी… जाओ खुश रहो,’’ सुरम्य बाकी का सारा उफान पी गया.

उधर काव्या ने भी लंदन में कमाल कर दिया. वहीं अपने एक दोस्त प्रतीक से ब्याह रचा लिया. 1 महीने के गर्भ से थी. पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भारत लौट आई. ससुराल वालों ने उसे स्वीकारा नहीं.

वे कट्टर रीतिरिवाजों वाले दक्षिण भारतीय मूल के थे. बड़ी जद्दोजहद के बाद राजी हुए पर घर में फिर भी नहीं रखा. लिहाजा प्रतीक और वह घर से अलग रहने पर मजबूर हो गए. दोनों में से किसी के अभी जौब में न होने की वजह से सारा खर्च सुकांत और निधि के कंधों पर ही आ गया.

काव्या ने तो पढ़ाई छोड़ ही दी थी पर प्रतीक ने अपना एमबीए पूरा कर लिया. बाद में उसे जौब भी मिल गई.

उधर उन्नति की ससुराल की असलियत सामने आने  लगी. आए दिन सास तकाजा करतीं, ताने देतीं, ‘‘बहू, तुम्हारी हर महीने की इनकम कहां है. हम ने रवि को तुम से शादी की इजाजत इसलिए दी थी कि दोनों मिल कर घरपरिवार का स्तर बढ़ाने में मदद करोगे… वैसे ही लंबाचौड़ा परिवार है हमारा… बहू तुम से न घर का काम संभाला जाता है न बाहर का… देखती हूं रवि भी कितने दिन तुम्हारी आरती उतारता है,’’ भन्नाई हुई सास रेवती महीने बाद ही अपने असली रूप में आ गई थी.

रवि जब अपने दोस्तों की प्रोफैशनल वर्किंग पत्नियों को देखता तो उन्नति को ले कर अपमानित सा महसूस करता. रोजरोज दोस्तों की महंगी पार्टियों से उसे हाथ खींचना पड़ता. उन्नति को न ढंग का कुछ पकाना आता न कुछ सलीके से करनेसीखने में ही दिलचस्पी लेती. सजनेसंवरने में वक्त बरबाद करती.

फिर वही हुआ जो सुरम्य ने कहा था. खर्चे से रवि परेशान था, क्योंकि अपनी बहनों की ससुराल और रिश्तेदारी निभाने के लिए वही एक जरीया था. उस पर छोटे भाई आकाश की पढ़ाई भी उस के सिर थी.

बहनों की ससुराल वालों ने उस की पुश्तैनी प्रौपर्टी बिकवा कर उस में से हिस्सा लेने के बाद भी मुंह बंद नहीं किया. आए दिन फरमाइशें होती रहतीं, जिन से घर के सभी सदस्य चिड़ेचिड़े से रहते.

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तब उन्नति को समझ आया कि बहनों की शादी के बाद प्रौपर्टी और पैसों में ही नहीं घर की जिम्मेदारियों में भी अपनी कुछ हिस्सेदारी समझनी चाहिए. उन्नति को मम्मीपापा और सुरम्य की बहुत याद आई.

आंखें सजल हो उठीं कि कितनी मुश्किल हुई होगी उन्हें. इतने कम पैसों में वे कैसे घर चलाते थे? हमारी जरूरतें, शौक पूरे करते रहे वे… अपना तो उन से सब कुछ करवा लिया हम ने पर उन की जरूरतों को कभी न समझा. सिर्फ नाम के लिए महंगी पढ़ाई कर ली. अपनी मस्ती और स्वार्थ के चलते न काम किया न अपना लोन ही चुकाया. वह आत्मग्लानि से भर उठी.

प्रतिबद्धता- भाग 3: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

Writer- VInita Rahurikar

मां का स्नेह भरा स्पर्श पाते ही पलक के अंतर्मन में जमा दुख पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा. अरुणाजी ने उसे जी भर कर रोने दिया. वे जानती थीं कि रोने से जब मन में जमा दुख हलका हो जाएगा, तभी पलक कुछ बता पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ और केशों पर हाथ फेरती रहीं. जब पलक का मन हलका हुआ, तब उस ने अपनी व्यथा बताई. पीयूष की गलती कांटा बन कर उस के दिल में चुभ रही थी और अब वह यह दर्द बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

अरुणाजी पलक के सिर पर हाथ फेरती स्तब्ध सी बैठी रहीं. वे तो सोच रही थीं कि नई जगह में आपस में अभी पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित नहीं हुआ है, तो छोटीमोटी तकरार हुई होगी, जिस के कारण दोनों दुखी होंगे. कुछ दिन में दोनों अपनेआप सामान्य हो जाएंगे. यही सोच कर आज तक उन्होंने पलक से जोर दे कर कुछ नहीं पूछा था. लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा है. पलक के दिल में लगा कांटा निकालना मुश्किल होगा. समय के साथसाथ जब रिश्ते परिपक्व हो जाते हैं, तो उन में प्रगाढ़ता आ जाती है. दोनों के बीच विश्वास की नींव मजबूत हो जाती है, तब अतीत की गलतियों की आंधी रिश्ते को, विश्वास को डिगा नहीं पाती. लेकिन यहां रिश्ता अभी उतना परिपक्व नहीं हो पाया था. पीयूष ने अपने रिश्ते और पलक पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. उसे थोड़ा धीरज रखना चाहिए था.

अरुणाजी समझ रही थीं कि इस समय पलक को कुछ भी समझाना व्यर्थ है. पलक का घाव अभी ताजा है. अपने दर्द में डूबी वह अभी अरुणाजी की बात समझ नहीं पाएगी. इसलिए उन्होंने 2 दिन सब्र किया.

मां से अपनी व्यथा कह कर पलक को अब काफी हलका लग रहा था. 2 दिन बाद वह रात में गैलरी में खड़ी थी, तब अरुणाजी उस के पास जा कर खड़ी हुईं.

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‘‘तुझे दुख होना स्वाभाविक है पलक, क्योंकि तू पीयूष से प्यार करती है और उसे केवल अपने से जोड़ कर देखती है. इसलिए सच सुन कर तू हिल गई और तेरा भरोसा टूट गया.

‘‘पीयूष ने जो कुछ किया वह भावनाओं और उत्तेजना के क्षणिक आवेग में बह कर किया. उस संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है. बरसात में जब पानी अधिक बरसता है तो कई नाले बन जाते हैं, जो नदी से भी अधिक आवेग के साथ बहते हैं, उफनते हैं, लेकिन बरसात खत्म होते ही वे सूख जाते हैं. उन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है. परंतु नदी शाश्वत होती है. वह बरसात के पहले भी होती है और बरसात खत्म होने के बाद भी उस का अस्तित्व कायम रहता है. वासना और सच्चे प्यार में यही अंतर है.

‘‘वासना बरसाती नाले के समान होती है, जो भावनाओं के ज्वार में उफनने लगती है और ज्वार के ठंडा होते ही उस का चिह्न भी जीवन में कहीं बाकी नहीं रहता. लेकिन सच्चा प्यार नदी की तरह शाश्वत होता है वह कभी नहीं सूखता. सूखे की प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस प्रकार नदी अपनेआप को सूखने नहीं देती, मिटने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार सच्चा प्यार भी जीवन से मिटता नहीं है. जीवन भर उस की धारा दिलों में बहती रहती है. तेरे प्रति पीयूष का प्यार उसी नदी के समान है,’’ अरुणाजी ने समझाया.

‘‘लेकिन मां मैं कैसे…’’ पलक कह नहीं पाई कि पीयूष के जिन हाथों ने कभी किसी और लड़की को छुआ है, अब पलक उन्हें अपने शरीर पर कैसे सहे? लेकिन अरुणाजी एक मां ही नहीं एक परिपक्व और सुलझी हुई स्त्री भी थीं. वे पलक के दुख के हर पहलू को समझ रही थीं.

‘‘प्रेम एवं प्रतिबद्धता एकदूसरे से जुड़े हुए जरूर हैं, पर किसी संबंध में पड़ने के पहले उस व्यक्ति का किसी के साथ क्या रिश्ता रहा है, कोई माने नहीं रखता. यदि कोई व्यक्ति पूर्णरूप से किसी के प्रति प्रतिबद्ध हो गया हो, तो उस के लिए पिछले सारे अनुभव शून्य के समान होते हैं. अब पीयूष पूरी तरह से तेरे प्रति समर्पित है, इसलिए बरसों पहले उस ने एक रात क्या गलती की थी, यह बात आज कोई माने नहीं रखती. माने रखती है यह बात कि तुझ से जुड़ने के बाद वह तेरे प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहे बस,’’ अरुणाजी ने समझाया तो पलक सोच में पड़ गई. सचमुच साल भर में उसे कभी नहीं लगा कि पीयूष के प्यार में कोई खोट या छल है. वह तो एकदम निर्मलनिश्छल झरने की तरह है.

‘‘पर मां उस का सच मेरी सहनशीलता से बाहर है. मेरी नजर में अचानक ही पीयूष की मूर्ति खंडित हो गई है. मैं प्रेम की टूटी हुई मूर्ति के साथ कैसे रहूं? पीयूष ने

मुझे धोखा दिया है,’’ पलक आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘उस के झूठ पर तुझे एतराज नहीं था. तब तू खुश थी. लेकिन उस की ईमानदारी

को तू धोखा कह रही है. अगर धोखा ही देना होता तो वह उम्र भर यह बात तुझ से

छिपा कर रखता. जरा सोच, वह तुझे हृदय की गहराइयों से प्यार करता है. तुझे पूरे सम्मान से रखता है. तुझे अपने जीवन के सारे अधिकार दे दिए हैं उस ने, पर आज तू एक तुच्छ बात के लिए उस के सारे अच्छे गुणों को नकार रही है.

‘‘जरा सोच, यदि उस ने जीवन में कोई गलती नहीं की होती, लेकिन तुझे प्यार करता, तेरी भावनाओं का सम्मान करता, तुझे तेरे अधिकार देता, तब तू ज्यादा खुश रहती या

अब ज्यादा खुश है? जीवन में अहम बात किसी की गलती नहीं, अहम बात है उस

का प्यार मिलना. पीयूष अपना एक कण अनजाने में कभी किसी को बांट चुका है,

इस के लिए तू उसे खंडित कह रही है.

एक कण के लिए पूरे को ठुकरा कर अपनी और पीयूष की जिंदगी बरबाद मत करो.

वह वर्तमान समय में पूरे समर्पण से बस तुझे ही चाहता है. एक छोटी सी घटना पर

उम्र भर के लिए किसी के प्यार और रिश्तों को तोड़ देना अक्लमंदी नहीं है,’’ अरुणाजी ने पलक के कंधे पर हाथ रख कर उसे समझाया.

पलक की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. आंखों  के सामने पीयूष का साल भर का प्यार, उस का सामंजस्य, उस की निश्छलता तैर रही थी.

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उस से कोई गलती हो जाने पर वह कभी बुरा नहीं मानता था, उस की जिद पर कभी नाराज नहीं होता था. उस की छोटी से छोटी खुशी का भी कितना ध्यान रखता था. सचमुच मां ठीक कहती हैं. जीवन में बस किसी का सच्चा प्यार और प्रतिबद्धता ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं. आज से वह भी पीयूष के प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहेगी.

‘‘तेरे चले जाने के बाद पीयूष ने खानापीना छोड़ दिया है. कल तेरे पिताजी उस से मिलने गए थे. वह वर्षों का बीमार लग रहा था. उस की वजह से तुझे जो दुख पहुंचा है उस का पश्चात्ताप है उसे. उसी की सजा दे रहा है वह अपनेआप को. तेरी पीड़ा का एहसास तुझ से भी अधिक उसे है. तेरा दर्द वह तुझ से ज्यादा महसूस कर रहा है. इसीलिए तड़प रहा है. अब भी कहेगी कि उस ने तुझे धोखा दिया है?’’ अरुणाजी ने पूछा तो पलक बिलख पड़ी.

‘‘मैं अभी इसी समय पीयूष के पास जाऊंगी मां, उस से माफी मांगूंगी.’’

‘‘कहीं जाने की जरूरत नहीं है. यहीं है पीयूष. मैं उसे भेजती हूं,’’ कह कर अरुणाजी चली गईं.

2 मिनट में ही पीयूष गैलरी में आ कर खड़ा हो गया. पलक कुछ कहना चाह रही थी पर गला रुंध गया. वह पीयूष के सीने से लग कर फफक पड़ी. उस के आंसुओं ने गलतियों के सारे चिह्न धो दिए. दोनों के दिलों और आंखों में सच्चे प्यार की निर्मल और शाश्वत नदी बह रही थी, एकदूसरे के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ.

पश्चाताप- भाग 2: क्या सास की मौत के बाद जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

“ज्यादा मुंह न खुलवाओ देवरजी. खाने का खयाल रखा तो उस से ज्यादा पाया भी है. मां जो भी चीज मंगवाती थी, पहले कुसुम के हाथ में रख देती थी. कुसुम कभी पूरा गटक जाती तो कभी थोड़ाबहुत मेरे बच्चों को देती. फिर यह क्यों भूलते हो कि तुम्हारी बेटी प्रिया को मां ने ही पाला है. कुसुम कितने आराम से प्रिया को मां के पास छोड़ कर औफिस चली जाया करती थी जबकि मेरे समय में मां नौकरी करती थीं. अपने दोनों बेटों को मैं ने खुद पाला है. मां ने जरा भी मदद नहीं की थी मेरी.”

“पर दीदी आप के बच्चे जब छोटे थे तब यदि मां नौकरी करती थीं तो इस में मेरा क्या दोष? मेरी बच्ची को मां ने पाला, मैं मानती हूं. मगर ऐसा करने में मां को खुशी मिलती थी. बस इतनी सी बात है. इन बातों का जायदाद से क्या संबंध?”

“देख कुसुम, तू हमेशा बहुत चलाक बनती फिरती है. भोली सी सूरत के पीछे कितना शातिर दिमाग पाया है यह मैं भलीभांति जानती हूं.”

“चुप करो मधु. चलो मेरे साथ. इस तरह झगड़ने का कोई मतलब नहीं. चलो.”

बड़ा भाई बीवी को खींच कर ऊपर ले गया. उस के दोनों बेटे भी मां की इस हरकत पर हतप्रभ थे. वे भी चुपचाप अपनेअपने कमरों में जा कर पढ़ने लगे. कुसुम की आंखें डबडबा आईं. पति ने उसे सहारा दिया और अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया. मधु की बातों ने उन दोनों को गहरा संताप दिया था. कुसुम अपनी जेठानी के व्यवहार से हतप्रभ थी.

कुछ दिन इसी तरह बीत गए. अब बड़ी बहू मधु ने कुसुम से बातचीत करनी बंद कर दी. वह केवल व्यंग किया करती. कुसुम कभी जवाब देती तो कभी खामोश रह जाती. तीनों बच्चे भी सहमेसहमे से रहते. दोनों परिवारों में तनाव बढ़ता ही गया. वक्त यों ही गुजरता रहा. जायदाद के बंटवारे का मसला अधर में लटका रहा.

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एक दिन मधु का छोटा बेटा ट्यूशन के बाद पहले की तरह अपनी चाची कुसुम के पास चला गया. कुसुम ने पकौड़ियां बनाई थीं. वह प्यार से बच्चे को चाय और पकौड़े खिलाने लगी. तब तक मधु औफिस से वापस लौटी तो बेटे को कुसुम के पास बैठा देख कर उस के बदन में आग लग गई.

आपे से बाहर होती हुई वह चिल्लाई,”खबरदार जो मेरे बच्चे को कुछ खिलाया. पता नहीं कैसा मंतर पढ़ती है. पहले मांजी को अपना शागिर्द बना लिया था. अब मेरे बच्चे के पीछे पड़ी हो…”

सुन कर कुमुद भी बौखला गई. वह गरज कर बोली,” दीदी, ऐसे बेतुके इलजाम तो मुझ पर लगाना मत. यदि मांजी मुझ से प्यार करती थीं तो इस का मतलब यह नहीं कि मैं ने कुछ खिला कर शागिर्द बना लिया था. वे मेरे व्यवहार पर मरती थीं. समझीं आप.”

“हांहां… छोटी सब समझती हूं. तू ने तो अपनी चासनी जैसी बोली और बलखाती अदाओं से मेरे पति को भी काबू में कर रखा है. एक शब्द नहीं सुनते तेरे विरुद्ध. तू ने बहुत अच्छी तरह उन को अपने जाल में फंसाया है.”

“दीदी, यह क्या कह रही हो तुम? मैं उन्हें भैया मानती हूं. इतनी गंदी सोच रखती हो मेरे लिए? ओह… मैं जिंदा क्यों हूं? ऐसा इलजाम कैसे लगा सकती हो तुम? कहते हुए कुसुम लङखड़ा कर गिरने लगी. उस का सिर किचन के स्लैब से टकराया और वह नीचे गिर कर बेहोश हो गई.

मधु का छोटा बेटा घबरा गया. जल्दी से उस ने पापा को फोन किया. कुसुम को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. डाक्टर ने उसे आईसीयू में ऐडमिट कर लिया. अच्छी तरह जांचपड़ताल करने के बाद डाक्टर ने बताया कि एक तो बीपी अचानक बढ़ जाने से दिमाग में खून का दबाव बढ़ गया, उस पर सिर में अंदरूनी चोटें भी आई हैं. इस वजह से कुसुम कोमा में चली गई है.

“पर अचानक कुसुम का बीपी हाई कैसे हो गया? उसे तो कभी ऐसी कोई शिकायत नहीं रही….” कुसुम के पति ने पूछा तो मधु ने सफाई दी,”क्या पता? वह तो मैं नीचे गोलू को लेने गई थी, तभी अचानक कुसुम गिर पड़ी.”

मधु के पति ने टेढ़ी नजरों से बीवी की तरफ देखा फिर डाक्टर से बात करने लगे. इधर कुसुम के पति के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. उसे समझ नहीं आ रहा था की बीवी की देखभाल करे या बिटिया की. कैसे संभलेंगे सारे काम? कैसे चलेगा अब घर? इधर कुसुम की तबीयत को ले कर चिंता तो थी ही.

तब देवर के करीब आती हुई मधु बोली,”भाई साहब, आप चिंता न करो. मैं हूं कुसुम के पास. जब तक कुसुम ठीक नहीं हो जाती मैं अस्पताल में ही हूं. कुसुम मेरी बहन जैसी है. मैं पूरा खयाल रखूंगी उस का.”

“जी भाभी जैसा आप कहें.”

देवर ने सहमति दे दी मगर जब पति ने सुना तो उस ने शक की नजरों से मधु की तरफ देखा. वह जानता था कि मधु के दिमाग में क्या चल रहा होगा. इधर मधु किसी भी हाल में कुसुम के पास ही रुकना चाहती थी. वह दिखाना चाहती थी कि उसे कुसुम की कितनी फिक्र है. कहीं न कहीं वह पति के आरोपों से बचना चाहती थी कि कुसुम की इस हालत की जिम्मेदार वह है. वह बारबार डाक्टर के पास जा कर कुसुम की हालत की तहकीकात करने लगी.

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अंत में पति और देवर मधु को छोड़ कर चले गए. मधु रातभर सो नहीं सकी. इस चिंता में नहीं कि कुसुम का क्या होगा बल्कि इस चिंता में कि कहीं उसे इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार न समझ लिया जाए. वैसे हौस्पिटल का माहौल भी उसे बेचैन कर रहा था.

अगले दिन कुसुम की हालत स्थिर देख कर उसे वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. कुसुम के अलावा उस वार्ड में एक बुजुर्ग महिला थी जिसे दिल की बीमारी थी. महिला के पास उस का 18 साल का बेटा बैठा था. वार्ड में मौजूद महिला की तबियत बारबार बिगड़ रही थी. रात में इमरजैंसी वाले डाक्टर विजिट कर के गए थे. उस की हालत देख मधु सहम सी गई थी. अब उसे वाकई कुसुम की चिंता होने लगी थी.

2-3 दिन इसी तरह बीत गए. मधु कुसुम के पास ही रही. एक बार भी घर नहीं गई.

उस दिन रविवार था. मधु ने अपने बेटों से मिलने की इच्छा जाहिर की तो पति दोनों बेटों को उस के पास छोड़ गए. मधु ने प्यार से उन के माथे को सहलाया लाया और बोली,” सब ठीक तो चल रहा है बेटे? आप लोग रोज स्कूल तो जाते हो न? पापा कुछ बना कर देते हैं खाने को?”

‘हां मां, आप हमारी फिक्र मत करो. पापा हमें बहुत अच्छी तरह संभाल रहे हैं,” रूखे अंदाज में बड़े बेटे ने जवाब दिया तो मधु को थोड़ा अजीब सा लगा.

उसे लगा जैसे बच्चे उस के बगैर ठीक से रह नहीं पा रहे हैं और ऐसे में उस का मन बहलाने के लिए कह रहे हैं कि सब ठीक है.

मधु ने फिर से पुचकारते हुए कहा,”मेरे बच्चो, तुम्हारी चाची की तबीयत ठीक होते ही मैं घर आ जाऊंगी. अभी तो मेरे लिए चाची को देखना ज्यादा जरूरी है न. कितनी तकलीफ में है वह.”

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कोई सही रास्ता- भाग 2: स्वार्थी रज्जी क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई?

‘‘आप ने इसे कैसे पाला है? क्या जरा भी ईमानदारी नहीं रोपी इस में?’’

लगभग रोने जैसी हालत थी सुकेश की उस पल. मैं उसे समझाबुझा कर घर से बाहर ले गया था. उस का मन पढ़ना चाहता था, विचित्र मनोस्थिति हो गई थी.

‘‘मैं तो डिप्रैशन का शिकार होता जा रहा हूं, सोम. मैं समझ नहीं पा रहा हूं इस लड़की को. हंसताखेलता हमारा परिवार इस के आने से छिन्नभिन्न हो गया है. कैसी बातें सिखाई हैं आप ने इसे. आप इसे समझाबुझा कर जरा सी तो इंसानियत सिखाइए. आप इसे सुधारने की कोशिश कीजिए वरना ऐसा न हो कि एक दिन मैं इस की जान ले लूं या अपनी…’’

सांस मेरी भी तो घुटती रही है आज तक. मेरी बहन है रज्जी. जब अपने खून की वजह से मैं सदा हैरानपरेशान रहा हूं तो सुकेश तो अलग खून है. अलग परवरिश. उस के लिए तो रज्जी एक सजा के सिवा और क्या होगी. हर साल राखी बांध कर रज्जी बहन होने की रस्म अदा करती रही है मगर मैं आज तक समझ नहीं पाया कि जरूरत पड़ने पर मैं इस लड़की की कैसे रक्षा कर पाऊंगा और इस ने मेरे सुख की कितनी कामना की होगी.

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मेरी मां का वह मोह है जिस के चलते उन्हें रज्जी की बड़ी से बड़ी गलती भी कभी नजर नहीं आती. मेरे पिता मेरी मां को सही दिशा में लातेलाते हार गए और जिस पल उन्होंने अंतिम सांस ली थी उस पल मेरे कंधों पर इन दोनों की जिम्मेदारी डालतेडालते नजरों में एक असहाय भाव था, वही भाव जो सदा उन के होंठों पर भी रहा था कि पता नहीं कैसे तुम इन दोनों को सह पाओगे.

‘‘तू फिकर मत कर रज्जी, मैं मरी नहीं हूं अभी. सुकेश और उस के घर वालों को छठी का दूध न याद करा दिया तो मेरा नाम नहीं. रो मत बेटी.’’

स्तब्ध रह गया मैं. यह क्या कह रही हैं मां. रज्जी की भूलों पर परदा डाल कर सारा दोष सुकेश और उस के परिवार पर.

‘‘मेरी फूल जैसी बच्ची को रुला रहे हैं न वे लोग. उन की सात पुश्तों को न रुला दिया तो…’’

‘‘क्या करोगी तुम?’’ सहसा मैं ने सवाल किया.

चुप रह गई थीं मां. शायद इस धमकी के बाद उन्हें उम्मीद होगी कि मैं साथ चलने का आश्वासन दूंगा. मेरे सवाल की उन्हें आशा भी नहीं होगी.

‘‘और किस के पास जाओगी? क्या पुलिस में जा कर रिपोर्ट करोगी? क्या इलजाम लगाओगी सुकेश पर? यही कि वह अपनी पत्नी से ईमानदारी की आस रखता है. सच बोलने को कहता है और कहता है घर में राजनीति का खेल न खेले. रज्जी के सात खून भी माफ और सामने वाला सिर्फ इसलिए दोषी कि उस ने सांस जरा खुल कर ले ली थी या बात करते हुए उसे छींक आ गई थी.’’

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मुंह खुला का खुला रह गया रज्जी और मां का.

‘‘जिस भंवर में आज रज्जी है उस की तैयारी तो तुम बचपन से कर रही हो. पिताजी इसी दिन से डर कर सदा तुम्हें समझाते रहे कि इसे इस तरह न पालो कि इस का भविष्य ही अंधकारमय हो जाए. मां, यह घर तुम्हारा है, यहां तुम्हारा राजपाट चल सकता है. तुम रज्जी को गलतसही जो चाहे सिखाओ मगर वह घर तुम्हारा नहीं है जहां रज्जी को सारी उम्र रहना है. इंसान भूखा रह कर जी सकता है, आधी रोटी से भी पेट भर सकता है मगर हर पल झूठ नहीं पचा सकता.

‘‘राजनीति एक गंदा खेल है जिस में कोई भी शरीफ आदमी जाना नहीं चाहता क्योंकि वह चैन से जीना चाहता है. इसी तरह सुकेश और उस का परिवार सीधासादा, साफसुथरा जीवन जीना चाहता है जिसे रज्जी ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. जबजब गृहस्थी में दांवपेंच और झूठ का समावेश हुआ है तबतब घर उजड़ा है. रज्जी का घर बचाना चाहती हो तो इसे जलेबियां पकाना मत सिखाओ. गोलमोल बातें रिश्तों को सिर्फ उलझाती हैं.’’

मैं नहीं जानता कि मेरी बातों का असर था या अपना घर टूट जाने का डर, रज्जी स्वयं ही अपने घर वापस चली गई. रज्जी जैसा इंसान अपने अधिकार के प्रति बड़ा जागरूक होता है. पहले दरजे का स्वार्थी चरित्र जिस की नजर अपने अधिकार के साथसाथ दूसरे की चीज पर भी रहती है. सुकेश का फोन आया मेरे पास. पता चला रज्जी ने सब से माफी मांग ली है और भविष्य में कभी झूठ बोल कर घर में अशांति नहीं फैलाएगी, ऐसा वादा भी किया है. पता नहीं क्यों मुझे विश्वास नहीं हो रहा रज्जी पर. मेरी चाहत तो यही है कि मेरी बहन सदा सुखी रहे लेकिन भरोसा रत्ती भर भी नहीं है उस पर.

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कुछ दिन आराम से बीत गए. सब शांत था, सब सुखी थे लेकिन दबी आग एक दिन विकराल रूप में सामने चली आएगी, यह किसी ने नहीं सोचा होगा, परंतु मुझे कुछकुछ अंदेशा अवश्य हो रहा था. पता चला सुकेश ने डिप्रैशन में कुछ खा लिया है. पतिपत्नी में फिर से कोई तनाव था. जब तक हम अस्पताल पहुंचते बहुत देर हो चुकी थी. सुकेश बेजान कफन में लिपटा सामने था.

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