नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 रूप्ये का नोट बैन क्या किया, रातोंरात देश में साम्यवाद आ गया है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सारे धनी-गरीब, ईमानदार-बेईमान, मंत्री-संत्री सब लाइन में खड़े हो गए हैं.
प्रधानमंत्री की घोषणा के कम से कम अगले ही दिन सत्तापक्ष के समर्थकों ने कुछ इसी तरह का प्रचार किया. कहा भारतीय समाज में क्या अद्भुत समानता आ गयी है. अमीर-गरीब की खाई पट गयी. सब एक ही कतार में लग गए हैं.
लेकिन एक फर्क भी देखा गया. वह यह कि कुछ को जगराता कर कम से कम दो दिनों तक लगातार कतार में खड़ा होने के बाद कुछ ही पैसे हाथ लगे तो कोई रात-रात भर जग कर अपने लाखों-करोड़ों को ठिकाना लगाने की सोच में लगा रहा. हालांकि दोनों ही जीवन संग्राम के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. लेकिन एक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए जग रहा था तो दूसरा सहूलियत बरकरार रखने की जुगत में जगा था.
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद रोज कमाने-खानेवाले गाहेबगाहे यही पूछते रहे कि अच्छा, मोदीजी ने नोट रद्द करके वाकई अच्छा किया? क्या वाकई देश में साम्यवाद आ गया है? दलालतंत्र खत्म हो पाएगा? क्या इससे महंगाई कम होगी? देश से काला धन पूरी तरह खत्म हो जाएगा? यह और बात है कि इन सवालों का जवाब तो अभी तक धुरंधर राजनीतिज्ञों या अर्थशास्त्र के जानकारों के पास भी नहीं है.
बहरहाल, 15 दिन बीत चुके हैं और इसके बाद भी स्थिति कुछ खास नहीं बदली. हर रोज सुबह लोग पौकेट में हाथ डाल कर देख लेते हैं कि कितना पैसा जेब में है. जो बचा है, उससे कितने दिनों का गुजारा हो सकेगा! दो हजार का नोट लिये हुए बहुत सारे लोग बाजार में दर-दर की ठोकर खा रहे हैं. अभी जिस दिन नरेंद्र मोदी ने नोट बैन की घोषणा की, दूसरे दिन मुहल्ले के सब्जीवाले से लेकर किराना, लौंड्री, दूधवाले, मछली वाले ने अभयदान देते हुए कहा था, चिंता की कोई बात नहीं. पैसे कहां भागे जा रहे हैं. लेकिन दो-चार दिन जाते-न-जाते स्थिति इतनी भ्रामक बन कर सामने आयी कि इनलोगों ने भी एकदम से मुंह फेर लिया. उधार तो क्या, छुट्टे तक के लाले पड़ गए.
डेबिट, क्रेडिट, ई-वालेट, ई-पॉकेट, पेटीएम अभी तक हमारे देश में सबके बस की बात नहीं रही है. जाहिर है उथल-पुथल मचना ही था. लगभग युद्ध जैसे हालात बन गए – कभी सामना मुहल्ले का मोदी यानि किराना या परचूनवाला से होता तो कभी प्रधानमंत्री मोदी के चाटुकारों से छायायुद्ध में भिड़ना होता.
पुराने नोट खपाने की जुगत
प्रधानमंत्री के घोषणा के बाद पूरे देश में जो वस्तुस्थिति बनी वह कुछ इस तरह की थी. जिनके पास भी अतिरिक्त मात्रा में पुराने नोट थे वे सबके सब उन्हें खपाने या ठिकाने लगाने की जुगत में लग गए. इसी क्रम में कोलकाता के बड़ा बाजार से लेकर बहू बाजार ही नहीं; देश भर के झवेरी बाजार में कारोबार सारी रात चला. ज्वेलरी दूकानों में पुराने नोट के बदले सोने-हीरे जेवर, बिस्किट, बार की खरीद-फरोख्त होती रही. हालांकि भारत के हर छोटे-बड़े शहरों का हाल एक-सा ही रहा. काले पैसे के लेन-देन में सोना आसमान छू बैठा. यही नहीं, विदेशी मुद्रा का बाजार भी ‘रुक्का‘ के जरिए गरमा गया. रुक्का यानि कागज के टुकड़े में सांकेतिक भाषा में एक नंबर लिख कर मोटे कमीशन के बल पर रुपए की तस्करी परवान चढ़ी. जानकार बताते हैं कि यह मामला दरअसल, सोये पड़े कंपनी के आयकर फाइल में रकम डाल कर उस रकम को दूसरे रास्ते से निकाल लेना है. कारोबारी दुनिया में यह तिकड़म पुराना है. अब इसका इस्तेमाल नोट बदलने के लिए हो रहा है.
और तो और, पुराने नोट में अग्रिम वेतन चुकाने के भी मामले सामने आए हैं. लोहे की आलमारी बनाने वाले एक निजी कारखाने का मालिक के यहां काम करनेवाला संजय पात्र का वेतन महीना खत्म होने से पहले ही हवा हो जाया करता था. लेकिन कारखाने के मालिक ने नौ तारीख को अपने सभी कर्मचारियों को अग्रिम वेतन देकर पुराना नोट खपाया. वह भी तीन-तीन महीने का अग्रिम वेतन भी दे दिया गया.
बड़ाबाजार में साड़ी की दूकान में कार्यरत विनय बिहारी गुप्ता के भी भाग खुल गए. लगभग 20 सालों से विनय बिहारी इस दूकान में काम कर रहे हैं. कभी ऐसा सौभाग्य नहीं हुआ. विनय बिहारी का एक बैंक एकाउंट तो है, लेकिन कभी-कभार ही बचत के पैसे एकाउंट में जमा होते. पगार नगदी मिलती रही है. महीने का अंत ज्यादातर पैसों की किल्लत से होता है. ऐसे में बचत किस चिडि़या का नाम है – विनय बिहारी को पता नहीं. लेकिन दूकान मालिक ने मार्च तक का पगार और साथ में 40 हजार का नकदी बोनस की घंटी गले में बांध दी. इतनी बड़ी रकम देख कर विनय बिहारी खुद को रोक न पाए. जहां नकदी का अकाल है वहां पैसों की बरसात को नजरअंदाज भला कैसे कर पाते. वे कहते हैं इतनी नकदी देख कर ख्याल यही आया कि अभी तो रख लेते हैं, बाद की बाद में देख लेंगे.
ऐसा नहीं है कि संजय पात्र या विनय बिहारी गुप्ता इस मेहरबानी के पीछे छिपी असलियत से वाकिफ नहीं हैं. वे जानते हैं कि पुराने नोटों की खपत इसी तरह की जा रही है. संजय पात्र के कारखाने के मालिक ने साफ लफ्जों में बता भी दिया कि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो कारखाना ठप्प हो जाएगा. संजय को समझ है कि अगर वह मना कर देता है तो क्या पता आनेवाले दिनों में रोजगार का संकट पैदा हो जाए!
चाटर्ड एकाउंटेंट पिंकी दवे का कहना है कि अगर इस तरह से वेतन, बोनस या अन्य मद में अग्रिम के तौर पर पुराने नोट खपाए जा रहे हैं तो निसंदेह कारोबारियों ने अपनी तिजोरी में 500/ 1000 के नोटों की नकदी मौजूदगी को कम करने के मकसद से यह जुगत लगाया है. यह काला धन को सफेद करने की यह भी प्रक्रिया है. इन मदों में दिए गए पैसों का हिसाब आयकर विभाग की नाराजगी का कारण नहीं बनेगा. निजी दूकानदार या कारखाने की बात तो जाने दें. नकदी संकट के समय केंद्र सरकार ने भी ग्रुप सी और ग्रुप डी के कर्मचारियों को नवंबर महीने के वेतन से अग्रिम दस हजार नकदी ले लेने की छूट दे दी. खबर है कि अन्य कई राज्यों के सरकारी कर्मचारियों ने भी ऐसी ही सहूलिहत की मांग की. बहरहाल, काले धन को सफेद बनाने के इस तरीके को इन दिनों अपनाया जा रहा है.
हां, इतना जरूर है कि आयकर सवाल कर ही सकता है कि पेशगी के तौर पर कर्मचारियों को पैसे आखिर क्यूं दिए गए? जवाब में बीमारी, पढ़ाई और ब्याह जैसे कर्मचारियों की निजी जरूरत का बहाना बनाया जा सकता है. लेकिन बहुत बड़ी संख्या में कर्मचारियों की आड़ ली गयी तो इसे साबित करना कठिन हो सकता है. वैसे अपने हिसाब-किताब को साफ-सुथरा करने के लिए कारोबारियों के पास अभी मार्च 2017 तक का समय है.
वहीं इस पूरे प्रकरण के बारे में कोलकाता के एक छुटभइए नेता का कहना है कि जो पैसे बनाना जानते हैं, वे पैसे बचा लेना भी बखूबी जानते हैं. बेकार टेंशन पालने की जरूरत ही क्या है! जाहिर है बेटी बचाओ नारे के बीच कहना ही पड़ेगा कि बेटी बचे या न बचे, करोड़ों-अरबों बनाने की चाह आसानी से तो नहीं मरती.
धन: काला और सफेद
इस पूरे प्रकरण में बांग्ला कथाकार शीर्षेंदु मुखर्जी की सोच जरा हट कर है. इनका कहना है कि असल में, देखा जाए तो रुपए-पैसे का न तो कोई चरित्र होता है और न ही रंग. जिसके हाथों में है, वही उसका मालिक बन जाता है. इसी तरह इसका कोई रंग भी नहीं होता. किसी के हाथ में हो तो काला तो किसीके हाथ में सफेद! एक रुपया को ही ले लें. यह एक रुपया दिन भर में कितने हाथों में घूमता है. इस एक रुपया में क्या कुछ खरीदने और बेचने की क्षमता रखता है. देख लिया जाए. एक बच्चा दूकान में जाकर एक रुपया की टॉफी खरीदता है. दूकानदार इस एक रुपया से चाय पीता है. चायवाला इसी एक रुपया से बीड़ी खरीद कर पीता है. इस तरह यह एक रुपया पूरे दिन जाने कितनों के हाथों घूमता है और दिन भर में कम से कम 30-40 रुपए की खरीदारी-बिक्री कर लेता है. अगले दिन भी कम से कम और भी 30-40 रुपए की खरीदारी-बिक्री हो जाती होगी. लेकिन बावजूद इसके एक पूरा दिन खत्म हो जाने के बाद भी उसकी कीमत एक रुपया ही रहती है. यानि कह सकते हैं यह एक रुपया रमता जोगी है. किसी से, कहीं भी जुड़ता नहीं है. पर होता है बंधनमुक्त. घुमक्कड़ और यायावर ही बन रहता है. इस पर काई कभी नहीं जमती. यह रुपया सफेद होता है.
आगे वे कहते हैं कि कभी-कभार कुछ रुपया किसीके चक्कर में पड़ कर गायब भी हो जाता है. या किसी छोटी-बड़ी तिजोरी में धुनी रमा कर बैठ जाता है. जब निकलता है, तब चोरी-छिपे निकलता है. अंधेरे में, चोर दरवाजे से, नकाबपोश बनकर. कभी निवेश के लिए तो कभी खरीद-बिक्री के लिए. जाहिर है तब यह शक के दायरे में आ जाता है. यह काले पैसे के रूप में जाना जाता है. लेकिन 8 नवंबर की रात आठ बजे ऐसे धन के अज्ञातवास पर चोट पड़ी. वैसे इनका अज्ञातवास खत्म हुआ या नहीं – यह पुख्ता तौर पर अभी कहा नहीं जा सकता.
बहरहाल, साफ है अब तक इसी काले और सफेद – दोनों के अस्तित्व के बल पर ही बाजार का लेन-देन चल रहा था. कुछ का तो मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था में काले धन का अवदान कुछ कम नहीं. इसीलिए समानांतर रूप से एक को काला और दूसरे को सफेद करार देना बहुत कठिन है. माना तो यह भी जाता है कि जिनके पास काला धन है वे और कुछ नहीं तो उन्हें नष्ट कर दें; यह बात सरकार के हक में जाती है और ऐसा इसलिए कि सरकार को उस रकम का बोझ वहन नहीं करना पड़ेगा.
शीर्षेंदु कहते हैं कि मोदीजी ने अच्छा किया या बुरा – पता नहीं. हां, इतना जरूर कहना चाहूंगा कि जरा तैयारी के साथ मोदीजी आते तो अच्छा होता. हालांकि इसे कोई बहुत बड़ी गलती तो नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन जनता को बड़ी तकलीफ हुई. उस जनता को जिसके एक बड़े हिस्से के पास झक्क सफेद पैसे हैं, इतने सफेद कि लगता है वे पैसे एनिमिया के शिकार हों. लेकिन जिनके पास काला धन है, उनके वे पैसे जाने कब छद्मवेश में जमीन, सोने के बिस्किट या शेयरों में निवेश किए जा चुके हैं. ऐसे में लगता है इस पूरे प्रकरण में आम जनता को नाहक परेशानी हुई.
पानी ही फिर गया
एक चालू किस्म की शायरी है, जरा उस पर गौर फरमाइएं –
मेरे जनाजे के पीछे सारा जमाना निकला,पर वह न निकली जिसके लिए जनाजा निकला.
जी हां, इन दिनों देश में स्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुई है. जुगत और दलालतंत्र ने देश से काला धन के नाश की मोदी की मंशा (!) पर पानी फेर दिया. देश में मौजूद कालाधन खत्म करने के लिए मोदीजी ने पुराने 500/1000 रु. के नोटों पर बैन लगाया था. लेकिन मजेदार बात यह है कि घोषणा के अगले ही दिन दलालतंत्र पूरे देश भर में सक्रिय हो गया. 8 नवंबर की रात को प्रधानमंत्री की घोषणा से घबराए लोग सड़क पर निकल आए. हरेक एटीएम के सामने भीड़ लग गयी. वहीं बाजार-मुहल्ले के अवसरवादी तत्व मोटा कमीशन की शर्त पर दलाल, मनी ऑपरेटर, मनी मैनेजर में तब्दील हो गए. फोन की घंटियां बजनी शुरू हो गयी – कितना है? इतना. काम हो जाएगा? हो जाएगा. पर कमीशन लगेगा. कितना कमीशन? 10-30 लाख की रकम पर 20-35 प्रतिशत कमीशन.
इन कुछ दिनों में कोलकाता में एशिया के बड़े थोक बाजार बड़ाबाजार में दूकानदार कहने को तो मक्खी मार रहे हैं, लेकिन पिछले दरवाजे से ‘कट मनी‘ का कारोबार अच्छा चल रहा है. इस काम में कारोबारी से लेकर ठेकेदार, प्रमोटर, मजदूर ठेकेदार और बिल्डर लग गए. इनके रेट कार्ड तक रातोंरात तैयार हो गए. रेट कार्ड के हिसाब से दस लाख से कम की रकम पर 20 प्रतिशत, 10-19 लाख की रकम पर 25 प्रतिशत, 20-29 लाख पर 30 प्रतिशत और 30 लाख से अधिक की रकम पर 35 प्रतिशत का कट मनी यानि कमीशन. दलालतंत्र 30 लाख से अधिक रकम पर हाथ लगाने से पीछे हट रहा है. इतना ही नहीं, बताया जाता है तय टाइम फ्रेम के तहत काम निपटाया जा रहा है और उसी हिसाब से भी कमीशन लिया व दिया जा रहा है. साथ कुछ और शर्ते भी हैं.
दरअसल, ऊपरी तौर पर देखा जाए तो कारोबार में सब कुछ कानूनी नजर आता है, लेकिन पर्दे के पीछे दूसरों से लिया गया 500/ 1000 का नोटोंवाली रकम दबे पांव कारोबार में शामिल होता है. इस भरोसे के साथ कि पुराने नोट देनेवाले को अगले महीने वह रकम नए नोटों के रूप में वापस मिल जाएगी. लेकिन 25-30 प्रतिशत की ‘कट मनी‘ के बाद. इस तरीके से 10-20 लाख आराम से बदले जा सकते हैं. पर 30 लाख की रकम में थोड़ी परेशानी पेश आएगी. लेकिन सक्रिय दलालतंत्र इतना भी ‘मैनेज‘ कर ले सकता है. पर इससे ज्यादा के लिए दलालतंत्र बमुश्किल ही तैयार हो रहा है.
आइए देखे, तरीका क्या है. इन दिनों काले धन को सफेद करने में करंट एकाउंट का इस्तेमाल हो रहा है. यहां यह जान लें कि ऐसे मामले में चालू खाता कई मर्ज का इलाज हो सकता है. शर्त केवल एक है और वह यह कि चालू खाता चालू हो. यानि सक्रिय हो. चालू खाते के माध्यम से लेनदेन होता रहा हो. अब जो दस्तावेज तैयार करना होगा वह ‘बैक डेट‘ में होने चाहिए. जाहिर है आजकल बैंकों में चालू खाता बहुत सक्रिय हो गया है.
कोलकाता के एक डेवलपर का कहना है कि ‘बैक डेटेड‘ दस्तावेजों में दिखाया जा रहा है कि निर्माण का काम जल्द से जल्द पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा मजदूर काम कर लगाए गए. इन मजदूरों को मेहनताना और पेशगी का भुगतान दिखा कर यह काम आसानी से हो रहा है. ज्यादातर मंझोले व बड़े कारोबारियों का लेनदेन चालू खाते से होता है. और लगभग हर रोज कुछ न कुछ लेनदेन होता ही है. इसी चालू खाते के जरिए दूसरों से लिये गए पुराने नोटों की बड़ी रकम बैंकिंग सिस्टम में पहुंच जाती है. लेकिन दस्तावेजों को ‘बैक डेट‘ दिखाना होगा. इसके बाद नियमानुसार नोट बदल कर ‘कट मनी‘ लेकर बाकी रकम असली मालिक के हाथों लेकर पहुंच जाती है.
कोलकाता के एक कर-सलाहकार ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि उपरोक्त तरीके से 5-10 लाख रुपए का काला धन हंसते-खेलते सफेद किया जा सकता है. ऐसे और भी कई तरीके हैं. कारोबारी यह भी दिखा सकता है कि उसके किसी क्लाइंट ने उससे कर्ज ले रखा था और अब वह रकम उसने वापस लौटाया है. कर्ज चुकता किए जाने से वह रकम आयी है. या फिर उधार में लिये गए माल के भुगतान के रूप में दिखाया जा सकता है. लेकिन इन मामलों में भी बैकडेटेड‘ दस्तावेज दिखाने होंगे.
500 और 1000 रूप्ये के पुराने नोटों की एक तय रकम दलालों को 10-30 दिनों की मोहलत में सौंपा जा रहा है. ठीक समय पर समय या समय से पहले पुराना चोंगा बदल कर नए नोट की वापसी होगी. पर पूरी रकम नहीं. कमीशन की रकम ‘कट‘ करने के बाद बाकी रकम लौटा दी जाएगी. यह सब जुबानी कौल पर हो रहा है. वैसे भी बड़ाबाजार का कारोबार जुबानी कौल कर ही चलता है. मोटी रकम अयकर में ‘झोंकने‘ या दो सौ प्रतिशत जुर्माने का शॉक झेलने के बजाए बगैर भाग-दौड़ की परेशानी मोले, बगैर बैंक अधिकारियों की हुज्जत किए पुराने नोट के बदले नए नोट मिल जाते हैं तो ‘कट मनी‘ को बर्दास्त करना ‘नॉट ए बिग डील‘!
अब इसका पुख्ता हिसाब कैसे लगेगा कि कहां कितनों ने अपनी-अपनी छिटपुट जुगत और दलालतंत्र के जरिए काले पैसों को सफेद किया. ऐसे में लगता है कि जहां से चले थे, इतनी सारी हुज्जत के बाद फिर से देश वहीं आकर रुक गया. एक वृत पूरा हुआ. हासिल कुछ खास नहीं हुआ.