एक जमाना था, जब कृषि का अर्थव्यवस्था में बोलबाला हुआ करता था. लोगों के लिए खेती ही जिंदगी चलाने का जरीया और जीवन जीने का तरीका दोनों होती थी. कृषि व्यवस्था का विकास अपनेआप में एक प्रगतिशील घटना थी. लेकिन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद धीरेधीरे कृषि की अहमियत कम होती गई और उस की जगह नए उद्योगधंधों ने ले ली.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यूरोप का आधुनिकीकरण जब तीसरी दुनिया के देशों में पहुंचा, तो उन की अर्थव्यवस्था जो उस समय कृषि आधारित थी, के लिए कहर साबित हुआ. गुलामी के कारण इन देशों का पूरा उत्पादन यूरोप के विकसित कारखानों की भूख मिटाने वाला कच्चा माल बन कर रह गया.

भारत की हालत भी अन्य गुलाम देशों से कोई खास अलग नहीं रही. उसे 200 सालों तक अपने कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा कच्चे माल के रूप में इंगलैंड के उद्योगधंधों के लिए निर्यात करना पड़ा. अंगरेजों ने न केवल भारत को लूटा, बल्कि भारतीयों की जरूरतों को भी नजरअंदाज किया, जिस के कारण कई बार भुखमरी तक की नौबत आ गई. हालात का अंदाजा चंपारण में किसानों से जबरदस्ती नील की खेती कराने से लगाया जा सकता है.

जब साल 1947 में अंगरेजों से भारत को आजादी मिली, तो खेती की हालत खराब थी. यहां के उद्योगधंधों का भी ठीक से विकास नहीं हुआ था. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कृषि व्यवस्था और उद्योगधंधों में सुधार लाने की कोशिशों का दावा किया गया, पर हकीकत में इन सब कोशिशों से भी कृषि की हालत में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला. वहीं दूसरी तरफ भूसुधार आंदोलनों की असफलता के कारण अंगरेजों के समय में होने वाले किसान आंदोलन आजादी के बाद भी देश के तमाम हिस्सों में उठते रहे हैं. इस की झलक तेलंगाना के महान किसान विद्रोह से ले कर आज के किसान आंदोलनों में देखी जा सकती है.

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