लैटर बौक्स: प्यार का खत

सीढ़ियों के नीचे लैटरबौक्स से अपनी डाक निकाल जैसे ही मैं मुड़ा, अचानक हड़बड़ा कर पीछे हट गया. मेरे बिलकुल पीछे एक नवयौवना अपने चकाचौंध करने वाले सौंदर्य के साथ खड़ी थी, जैसे चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अठखेलियां करने के लिए निकला हो. अचानक पीछे मुड़ने से मैं उस सौंदर्य की प्रतिमा से टकरातेटकराते बचा था, क्योंकि वह बिलकुल मेरे पीछे खड़ी थी. शायद वह भी अपनी डाक निकालने आई थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं ने आज पहली बार उसे देखा था. पता नहीं किस फ्लैट में रहती थी.

हड़बड़ा कर पीछे हटते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘सौरी, आप…’’

उस के चेहरे पर कोई शर्मिंदगी या आश्चर्य के भाव नहीं थे. बड़ी सहजता से मुसकराते हुए बोली, ‘‘इट्स ओके.’’

इस के बाद मैं सिमट कर उस की बगल से निकला, तो ऐसा लगा जैसे सुगंध की एक मधुर बयार मेरे शरीर से टकरा कर गुजर गई हो. बड़ी ही मदहोश कर देने वाली खुशबू थी. उस के शरीर की खुशबू को अपने नथुनों में भरता हुआ मैं सीढ़ी पर पहला कदम रखने वाला ही था कि उस की खनकती आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘सुनिए.’’

मैं पीछे मुड़ा. वह बोली, ‘‘आप 201 नंबर फ्लैट में रहते हैं?’’

‘‘हां,’’ मैं ने उस के चेहरे की सुंदरता में खोते हुए कहा, मेरे फ्लैट का नंबर जानना उस के लिए मुश्किल नहीं था. मैं ने अभीअभी इसी नंबर के डब्बे से डाक निकाली थी और वह मेरे पीछे खड़ी देख रही थी.

‘‘मैं 202 नंबर फ्लैट में रहती हूं.’’ वह अभी भी मुसकरा रही थी, जैसे उस के चेहरे पर सदाबहार मुसकान खिली रहती हो.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने हैरत से कहा, ‘‘कभी आप को देखा नहीं, जबकि हमारे फ्लैट तो आमनेसामने हैं?’’

‘‘मैं ने भी आप को नहीं देखा. मैं पुणे में रहती हूं, यहां दीदी के पास आई हूं.’’

‘‘तभी तो,’’ मेरे आश्चर्य का समाधान हो गया था, ‘‘ओके, मेरे यहां भी कभी आइएगा.’’ मैं ने उसे निमंत्रण दिया, फिर सीढि़यां चढ़ने लगा. वह भी मेरे पीछेपीछे आने लगी. मैं ने चलते हुए पूछा, ‘‘आप ने अपना लैटरबौक्स नहीं देखा?’’

‘‘मैं इस के लिए वहां नहीं रुकी थी. मैं तो यह देख रही थी कि मोबाइल,  कंप्यूटर और इंटरनैट के जमाने में आजकल पत्र कौन लिखता है? परंतु आप के पास तो बहुत सारे पत्र आते हैं?’’

‘‘हां, मैं कवि और लेखक हूं. मेरे पास पाठकों संपादकों के पत्रों के अलावा पत्र पत्रिकाएं आती रहती हैं.’’

‘‘अच्छा, तब तो आप दिलचस्प व्यक्ति होंगे,’’ उस की आवाज में किलकारी सी आ गई थी. मैं ने कुछ नहीं कहा. तब तक हम दूसरे फ्लोर पर पहुंच गए थे. अपने फ्लैट की घंटी बजाते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर में आप के पास आऊंगी, आप को एतराज तो नहीं?’’

मेरे अंदर खुशी की एक लहर दौड़ गई. इतनी सुंदर लड़की मुझ से मिलने के लिए मेरे घर आएगी, मुझे क्या एतराज हो सकता था. मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा, ‘‘ओह, श्योर, व्हाई नौट.’’

घर में घुसते ही मैं ने डाक देखनी शुरू कर दी. इस काम को मैं बाद के लिए नहीं छोड़ता था. तभी मेरी पत्नी नेहा ने पानी का गिलास ला कर मेज पर रख दिया. फिर मेरे सामने बैठ कर बोली, ‘‘चाय अभी बनाऊं, या बाद में?’’

‘‘रहने दो, अभी कोई मिलने के लिए आने वाला है.’’

नेहा ने कोई प्रश्न नहीं किया. वह जानती थी, मुझ से मिलने के लिए लेखक और पत्रकार आते ही रहते थे. परंतु कुछ देर बाद जब उस सुंदर लड़की ने मोहक मुसकान के साथ घर में प्रवेश किया तो नेहा अचंभित रह गई. आज के जमाने में युवावर्ग हिंदी साहित्य को न तो पढ़ता है, न पसंद करता है. युवतियां तो बिलकुल भी नहीं. फिर वह लड़की मेरे पास क्या करने आई थी, संभवतया नेहा यही सोच रही थी, परंतु उस ने खुले दिल से उस का स्वागत किया.

परिचय का आदानप्रदान हुआ. पता चला उस का नाम छवि था. सचमुच वह सौंदर्य की प्रतिमा थी. उस के चांद से दमकते चेहरे पर सौंदर्य जैसे हंसता सा लगता था. आंखें बड़ीबड़ी और चंचल थीं. होंठ कुदरती तौर पर लाल थे और उस के माथे पर बालों की एक छोटी सी लट जैसे उस की सुंदरता को काली निगाहों से बचाने के लिए स्वत: वहां लहरा रही थी.

नेहा के मन में स्त्रीजन्य ईर्ष्याभाव जाग्रत हुआ था. यह उस के चेहरे के भावों से स्पष्ट था. छवि भले ही इसे न भांप पाई हो, परंतु मैं नेहा का पति था. उस के स्वाभाविक गुणों का मुझे पता था. ईर्ष्याभाव होते हुए भी नेहा उस से हंसहंस कर बातें कर रही थी. फिर चाय बनाने के लिए चली गई.

तभी छवि ने कहा, ‘‘आप की पत्नी बहुत सुंदर और हंसमुख हैं.’’

‘‘आप से ज्यादा नही,’’ मैं ने खुले मन से उस की प्रशंसा की.

छवि के मुख पर एक शर्मीली मुसकान दौड़ गई. उस ने निगाहों को थोड़ा झुकाते हुए कहा, ‘‘आप मजाक कर रहे हैं.’’

‘‘नहीं, आप अपने मन से पूछ कर देख लीजिए. मेरी बात में एक अंश भी झूठ नहीं है,’’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘‘ओके, मैं मान लेती हूं,’’ उस ने निगाहें उठा कर कहा, ‘‘आप का कोई बेबी नहीं है?’’

‘‘नहीं, अभी तक नहीं,’’ मैं ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या शादी को ज्यादा दिन नहीं हुए?’’ वह बहुत व्यक्तिगत हो रही थी.

मैं ने एक बार किचन की तरफ देखा. नेहा चाय बनाने में व्यस्त थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, शादी को तो लगभग 5 साल हो गए हैं. परंतु हम अभी बच्चा नहीं चाहते.’’ यह कहतेकहते मेरी आवाज थोड़ी भारी हो गई.

छवि ने शायद मेरी आवाज का भारीपन महसूस किया. उस की आंखों में आश्चर्य के भाव प्रकट हो गए, फिर अचानक ही हंस पड़ी, ‘‘अच्छा, आप क्या लिखते हैं?’’ उस ने बहुत चालाकी से एक असहज करने वाले विषय को टाल दिया था.

साहित्य पर चर्चा चल रही थी. तभी नेहा चाय, बिस्कुट और नमकीन ले कर आ गई. चाय पीते हुए कई विषयों पर चर्चा चली. छवि  एक बुद्धिमान और जिज्ञासु लड़की थी. उस का सामान्यज्ञान भी काफी अच्छा था. जब खुल कर बातें हुईं तो नेहा के मन से छवि के प्रति पूर्वाग्रह समाप्त हो गया.

छवि अपनी गरमी की छुट्टियां मुंबई में बिताने वाली थी. उस की दीदी और जीजा, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे. दिनभर छवि घर पर रहती थी और टीवी देखती थी. कभीकभी आसपास घूमने चली जाती थी. छुट्टी के दिन अपनी दीदी और जीजा के साथ घूमने जाती थी.

मुझ से मिलने के बाद अब वह कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ने लगी. मुझ से कई सारी किताबें ले गई थी. दिन का काफी समय वह पढ़ने में बिताती, या मेरी पत्नी के साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातें करती. मैं स्वयं एक सरकारी दफ्तर में ग्रेड ‘बी’ अफसर था, इसलिए केवल छुट्टी के दिन छवि से खुल कर बात करने का मौका मिलता था. बाकी दिनों में हम सभी शाम की चाय अवश्य साथसाथ पीते थे.

छवि के चेहरे में अनोखा सम्मोहन था. ऐसा सम्मोहन, जो बरबस किसी को भी अपनी तरफ खींच लेता है. संभवतया हर स्त्री में यह गुण होता है, कुछ में कम, कुछ में ज्यादा, परंतु कुछ लड़कियां ऐसी होती हैं जो पुरुषों को चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचती हैं. छवि ऐसी ही लड़की थी. वह युवा थी, पता नहीं उस का कोई प्रेमी था या नहीं, परंतु उसे देख कर मेरा मन मचलने लगता था.

सामाजिक दृष्टि से यह गलत था. मैं एक शादीशुदा व्यक्ति था, परिवार के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां थीं और मैं सामाजिक बंधनों में बंधा हुआ था. परंतु मन किसी बंधन को नहीं मानता और हृदय किसी के लिए भी मचल सकता है. प्यार के  मामले में यह बच्चे के समान होता है, जो हर सुंदर लड़की और स्त्री को पाने की लालसा सदा मन में पालता रहता है.

मैं नेहा को देखता तो हृदय में अपराधबोध पैदा होता, परंतु जैसे ही छवि को देखता तो अपराधबोध गायब हो जाता और खुशी की एक ऐसी लहर तनमन में दौड़ जाती कि जी चाहता, यह लहर कभी खत्म न हो, शरीर के अंगअंग में ऐसी लहरें उठती ही रहें और मैं उन लहरों में डूब जाऊं.

छवि सामान्य ढंग से मेरे घर आती, हमारे साथ बैठ कर बातें करती, चाय पीती और चली जाती. कभी पुस्तकें मांग कर ले जाती और पढ़ कर वापस कर देती. उस ने मेरी भी कहानियां पढ़ी थीं, परंतु उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. मैं पूछता, तो बस इतना कहती, ‘ठीक हैं, अच्छी लगीं.’ बस, और कोई विश्ेष टिप्पणी नहीं.

उस की बातों से नहीं लगता था कि वह मेरे लेखन या व्यक्तित्व से प्रभावित थी. यदि वह मेरे किसी गुण की प्रशंसा करती तो मैं समझ सकता था कि उस के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान था, फिर मैं उस के हृदय में प्रवेश करने का कोई न कोई रास्ता तलाश कर ही लेता. मेरी सब से बड़ी कमजोरी थी कि मैं शादीशुदा था. सीधेसीधे बात करता तो वह मुझे छिछोरा या लंपट समझती. मुझे मन मार कर अपनी भावनाओं को दबा कर रखना पड़ रहा था.

मेरे मन में उस से अकेले में मिलने की लालसा बलवती होती जा रही थी, परंतु मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. इस तरह 15 दिन निकल गए. जैसजैसे उस के पुणे जाने के दिन कम हो रहे थे, वैसेवैसे मेरे मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

फिर एक दिन कुछ आश्चर्यजनक हुआ. मैं औफिस जाने के लिए सीढि़यों से उतर कर नीचे आया, तो देखा, नीचे छवि खड़ी थी. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप का इंतजार,’’ उस ने आंखों को मटकाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे हलका सा आश्चर्य हुआ. एक बार दिल भी धड़क कर रह गया. क्या उस के  दिल में मेरे लिए कुछ है? बता नहीं सकता था, क्योंकि लड़कियां अपनी भावनाओं को छिपाने में बहुत कुशल होती हैं.

‘‘हां, आप को औफिस के लिए देर तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं, बोलिए न.’’

‘‘मैं घर में सारा दिन पड़ेपड़े बोर हो जाती हूं. टीवी और किताबों से मन नहीं बहलता. कहीं घूमने जाने का मन है, क्या आप मेरे साथ कहीं घूमने चल सकते हैं?’’

उस का प्रस्ताव सुन कर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा, परंतु फिर हृदय पर जैसे किसी ने पत्थर रख दिया. मैं शादीशुदा था और नेहा को घर में छोड़ कर मैं उसे घुमाने कैसे ले जा सकता था. नेहा को साथ ले जाता, तो छवि को घुमाने का क्या लाभ? मैं ने असमंजसभरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा, ‘‘आप के दीदीजीजा तो रविवार को आप को घुमाने ले जाते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ जाना चाहती हूं.’’

मेरा दिल फिर से धड़का, ‘‘परंतु नेहा साथ रहेगी?’’

‘‘छुट्टी के दिन नहीं,’’ उस ने निसंकोच कहा, ‘‘आप दफ्तर से एक दिन की छुट्टी ले लीजिए. फिर हम दोनों बाहर चलेंगे.’’

‘‘अच्छा, अपना मोबाइल नंबर दो. मैं दफ्तर जा कर फोन करूंगा.’’ उस ने अपना नंबर दिया और मैं खूबसूरत मंसूबे बांधता हुआ दफ्तर आया. मन में लड्डू फूट रहे थे. अपने केबिन में पहुंचते ही मैं ने छवि को फोन मिलाया. बड़े उत्साह से उस से मीठीमीठी बातें कीं, ताकि उस के मन का पता चल सके.. इस के बावजूद मैं अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया. छवि की बातों से भी ऐसा नहीं लगा कि उस के मन में मेरे लिए कोई ऐसीवैसी बात है.

हम ने बाहर घूमने की बात तय कर ली. परंतु फोन रखने पर मेरा उत्साह खत्म हो चुका था. शायद मेरे साथ बाहर जाने का छवि का कोई विशेष उद्देश्य नहीं था, वह केवल घूमना ही चाहती थी.

मैरीन ड्राइव के चौड़े फुटपाथ पर धीमेधीमे कदमों से टहलते हुए एक जगह हम रुक गए और धूप में चांदी जैसी चमकती हुई समुद्र की लहरों को निहारने लगे. मेरे मन में भी समुद्र जैसी लहरें उफान मार रही थीं. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पा रहा था. लहरों को ताकते हुए छवि ने पूछा, ‘‘क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं कि प्रथम दृष्टि में प्यार हो सकता है.’’

मैं ने आश्चर्ययुक्त भाव से उस के मुखड़े को देखा. उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव दृष्टिमान नहीं था जिस से उस के मनोभावों का पता चलता. मैं ने अपनी दृष्टि को आसमान की तरफ टिकाते हुए कहा, ‘‘हां, हो सकता है, परंतु…’’

अब उस ने मेरी ओर हैरत से देखा और पूछा, ‘‘परंतु क्या?’’

‘‘परंतु…यानी ऐसा प्रेम संभव तो होता है परंतु इस में स्थायित्व कितना होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों व्यक्ति कितने समय तक एकदूसरे के साथ रहते हैं.’’

छवि शायद मेरी बात का सही मतलब समझ गईर् थी. इसलिए आगे कुछ नहीं पूछा.

मैं ने छवि से कहीं बैठने के लिए कहा तो उस ने मना कर दिया. फिर हम टहलते हुए तारापुर एक्वेरियम तक गए. मैं ने उसे एक्वेरियम देखने के लिए कहा तो उस ने बताया कि वह देख चुकी थी. मुंबई देखने का उस का कोई इरादा भी नहीं था. उस ने बताया कि वह केवल मेरे साथ घूमना चाहती थी.

दोपहर तक हम लोग मैरीन ड्राइव में ही घूमते रहे… निरुद्देश्य. हम दोनों ने बहुत बातें की, परंतु मैं अपने मन की गांठ न खोल सका. उस की बातों से भी ऐसा कुछ

नहीं लगा कि उस के मन में मेरे प्रति कोई ऐसावैसा भाव है. मैं शादीशुदा था, इसलिए अपनी तरफ से कोईर् पहल नहीं करना चाहता था.

लगभग 2 बजे मैं ने उस से लंच करने के लिए कहा तो भी उस ने मना कर दिया. मुझे अजीब सा लगा, कैसी लड़की है, सुबह से मेरे साथ घूम रही है और खानेपीने का नाम तक न लिया. कब तक भूखी रहेगी. मैं उसे जबरदस्ती पास के एक रेस्तरां में ले गया और जबरदस्ती डोसा खिलाया. आधा डोसा मुझे ही खाना पड़ा.

रेस्तरां में बैठेबैठे मैं ने पहली बार महसूस किया कि वह कुछ उदास थी. क्यों थी, मैं ने नहीं पूछा. मैं चाहता था कि वह स्वयं बताए कि उस के मन में क्या घुमड़ रहा था.

रेस्तरां के बाहर आ कर मैं ने उस की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘अब?’’

‘‘कहीं चल कर बैठते हैं?’’ उस ने लापरवाही के भाव से कहा. आसपास कोई पार्क नहीं था. बस, समुद्र का किनारा था. मैं ने कहा, ‘‘जुहू चलें?’’

‘‘हां.’’

मैं ने टैक्सी की और जुहू पहुंच गए. बीच पर भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी, परंतु उस ने कहीं एकांत में चलने के लिए कहा. मुख्य बीच से दूर कुछ नारियल वाले अपना स्टौल लगाते हैं, जहां केवल प्रेमी जोड़े जा कर बैठते हैं. मैं ने एक ऐसा ही स्टौल चुना और एकएक नारियल ले कर आमनेसामने बैठ गए. यह इस बात का संकेत था कि हम दोनों के बीच प्रेम जैसा कोई भाव नहीं था. वरना हम अगलबगल बैठते और एक ही नारियल में एक ही स्ट्रौ से नारियल पानी सुड़कते.

‘‘आप कुछ उदास लग रही हैं?’’ नारियल पानी पीते हुए मैं ने पूछ ही लिया. मैं उस की मूक उदासी से खिन्न सा होने लगा था. उसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था और वही इस से खुश नहीं थी. मेरा मकसद अलग था. उस के साथ घूमना मेरे लिए खुशी की बात थी, परंतु उस की नाखुशी में, मेरी खुशी कहां?

उस ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘क्या मेरा आप के साथ घूमना सही है?’’

मैं अचकचा गया. यह कैसा प्रश्न था? मैं उसे जबरदस्ती अपने साथ नहीं लाया था. फिर उस ने ऐसा क्यों कहा? शायद वह मेरी परेशानी भांप गई. तुरंत बोली, ‘‘मेरा मतलब है, अगर आप की पत्नी को पता चल गया कि मैं ने आप के साथ पूरा दिन बिताया है, तो उन्हें कैसा लगेगा? क्या वे इसे गलत नहीं समझेंगी?’’

मैं ने एक लंबी सांस ली. क्या सुबह से वह इसी बात को ले कर परेशान हो रही थी? मैं ने उस की तरफ झुकते हुए कहा, ‘‘पहले तो अपने मन से यह बात निकाल दो कि हम कुछ गलत कर रहे हैं. दूसरी बात, अगर हमारे बीच ऐसावैसा कुछ होता है, तो भी गलत नहीं है, क्योंकि जिस प्रेम को लोग गलत कहते हैं, वह केवल एक सामाजिक मान्यता के अनुरूप गलत होता है, परंतु प्राकृतिक रूप से नहीं. यह तो कभी भी , कहीं भी और किसी से भी हो सकता है.’’

‘‘क्या एकसाथ 2 या अधिक व्यक्तियों से प्रेम किया जा सकता है?’’ उस ने असमंजस से पूछा.

‘‘हां, क्यों नहीं? बिलकुल कर सकते हैं, परंतु उन की डिगरी में फर्क हो सकता है,’’ मैं ने बिना किसी संदर्भ के कहा. मुझे पता भी नहीं था कि छवि के पूछने का क्या तात्पर्य था, किस से संबंधित था, स्वयं से या किसी और से.

‘‘क्या शादीशुदा व्यक्ति भी?’’

मेरा दिल धड़का. मैं ने उस की आंखों में झांका. वहां कुतूहल और जिज्ञासा थी. वह उत्सुकता से मेरी तरफ देख रही थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘बिलकुल.’’ मैं ने चाहा कि कह दूं, ‘मैं भी तो तुम्हें प्यार करता हूं, जबकि मैं शादीशुदा हूं,’ परंतु कह न पाया. उस की आंखें झुक गईं. क्या उसे पता था कि मैं उसे प्यार करने लगा था. लड़कियां लड़कों के मनोभावों को शीघ्र समझ जाती हैं, जबकि वे बहुत जल्दी अपने हृदय को दूसरे के समक्ष नहीं खोलतीं.

फिर एक लंबी चुप्पी…और फिर निरुद्देश्य टहलना, अर्थहीन बातें करना, लहरों के शोर में अपने मन की बात एकदूसरे को कहने का प्रयास करना, कुछ खुल कर न कहना…यह हमारे पहले दिन का प्राप्य था. इस में सुख केवल इतना था कि वह मेरे साथ थी, परंतु दुख इतना लंबा कि रात सैकड़ों मील लंबी लगती. कटती ही न थी. पत्नी की बांहों में भी मुझे कोई सुख नहीं मिलता, क्योंकि मस्तिष्क और हृदय में छवि दौड़ रही थी, जहां उस के कदमों की धमधम थी. उस के सौंदर्य की आभा से चकाचौंध हो कर मैं पत्नी के प्रेमसुख का लाभ उठाने में असमर्थ था. जब मन कहीं और होता है तो तन उपेक्षित हो जाता है.

मेरे हृदय में घनीभूत पीड़ा थी. छवि बिलकुल मेरे पास थी. फिर भी कितनी दूर. मैं अपने मन की बात भी उस से नहीं कह पा रहा था. उस ने भी तो नहीं कहा था कुछ? मेरे साथ वह केवल घूमने के लिए नहीं गई थी, कुछ तो उस के मन में था, जिसे वह कहना चाह कर भी नहीं कह पा रही थी. मैं उसे समझ नहीं पा रहा था.

अगले दिन न तो वह मेरे घर आई, न मेरे मोबाइल पर संपर्क किया. मैं बेचैन हो गया. क्या बात है, सोचसोच कर मैं परेशान हो रहा था, परंतु मैं ने भी उसे फोन करने का प्रयत्न नहीं किया.

मैं नेहा से दुखी नहीं था. वह एक सुंदर स्त्री ही नहीं, अच्छी पत्नी भी थी. सारे काम कुशलता से करती थी. कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं देती थी. थोड़ी नोकझोंक तो हर घर में होती थी. मनमुटाव हमारे बीच भी होता था, परंतु इस हद तक नहीं कि हम एकदूसरे को तलाक देने की बात सोचते.

छवि मेरे मन में ही नहीं, हृदय में भी बस चुकी थी, परंतु क्या उस के लिए मैं नेहा को छोड़ दूंगा? संभवतया ऐसा न हो. छवि के साथ मेरा प्यार अभी तक लगभग एकतरफा था. प्यार परवान नहीं चढ़ा था. परवान चढ़ता तो भी क्या मैं छवि के लिए नेहा को छोड़ देता? यह सोच कर मुझे तकलीफ होती है. अपने प्यार की सजा क्या मैं नेहा को दे सकता था. उस का जीवन बरबाद कर सकता था. इतनी हिम्मत नहीं थी.

फिर भी मैं छवि को अपने दिलोदिमाग से बाहर नहीं करना चाहता था.

औरतें पुरुषों की मनोस्थिति बहुत जल्दी भांप लेती हैं. जब से छवि मेरे हृदय में आ कर विराजमान हुई थी, मेरा व्यवहार असामान्य सा हो गया था. पढ़ने में मन न लगता, लिखने का तो सवाल ही नहीं उठता था. घर में ज्यादातर समय  मैं लेट कर गुजारता. ऐसी स्थिति में नेहा का मेरे ऊपर संदेह करना स्वाभाविक था.

उस ने पूछ लिया, ‘‘आजकल आप कुछ खिन्न से रहते हैं? क्या बात है, क्या औफिस में कोई परेशानी है?’’

मैं उसे अपने मन की स्थिति से कैसे अवगत कराता. बेजान सी मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘हां, आजकल औफिस में काम कुछ ज्यादा है, थक जाता हूं.’’

‘‘तो कुछ दिनों की छुट्टी ले लीजिए. कहीं बाहर घूम कर आते हैं.’’

‘‘यह तो और मुश्किल है. काम की अधिकता के कारण छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

‘‘तो फिर छुट्टी के दिन बाहर चलेंगे, खंडाला या लोनावाला.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ मैं ने उस वक्त यह कह कर नेहा को संतुष्ट कर दिया.

तीसरे दिन छवि आई. उदास और थकीथकी सी लग रही थी. मेरे औफिस से आने के तुरंत बाद आ गई थी वह, जैसे वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी. मैं उस का उदास चेहरा देख कर हैरान रह गया. मुझ से पहले नेहा ने पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ छवि, तुम बीमार थी क्या?’’

वह सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘हमें पता ही नहीं चला,’’ नेहा ने कहा, ‘‘बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’ वह चली गई तो मैं ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘आप ने बताया भी नहीं.’’

उस ने कुछ इस तरह मुझे देखा, जैसे कह रही हो, ‘मैं तो तुम्हारे सामने ही बीमार पड़ी थी, फिर देखा क्यों नहीं?’ फिर कहा, ‘‘क्या बताती, आप को स्वयं पता करना चाहिए था. मैं कोई दूर रहती हूं.’’ उस की शिकायत वाजिब थी. मैं शर्मिंदा था.

वह क्यों बताती कि वह बीमार थी. अगर मेरा उस से कोई वास्ता था, तो मुझे स्वयं उस का खयाल रखना चाहिए था.

‘‘क्या हुआ था?’’ मैं ने सरगोशी में पूछा, जैसे मैं कोई गुप्त बात पूछ रहा था. और मुझे डर था कि कोई हमारी बातचीत सुन लेगा.

‘‘मुझे खुद नहीं पता,’’ उस ने दीवार की तरफ देखते हुए कहा. उस की आवाज से लग रहा था, वह अपने बारे में बताना नहीं चाहती थी. मैं ने भी जोर नहीं दिया. उस की उदासी से मैं स्वयं दुखी हो गया, परंतु उस की उदासी दूर करने का मेरे पास कोई इलाज नहीं था.

‘‘डाक्टर को दिखाया था?’’ मैं और क्या पूछता.

‘‘नहीं,’’ उस ने ऐसे कहा, जैसे उस की बीमारी का इलाज किसी डाक्टर के पास नहीं था. कैसी अजीब लड़की है. बीमार थी, फिर भी डाक्टर को नहीं दिखाया था. यह भी उसे नहीं पता कि उसे हुआ क्या था? क्या वह बीमार नहीं थी. उस को कोई ऐसा दुख था, जिसे वह जानबूझ कर दूसरों से छिपाना चाहती थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी, परंतु अपने हृदय की बात किसी को बता नहीं रही थी.

फिर एक लंबी चुप्पी…तब तक नेहा चाय ले कर आ गई. बातों की दिशा अचानक मुड़ गई. नेहा ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ क्या हुआ था?’’

छवि पहली बार मुसकराई, ‘‘कुछ खास नहीं, बस सर्दीजुकाम था. इसलिए 2 दिन आराम किया.’’ नेहा से वह बड़े सामान्य ढंग से बातें कर रही थी, परंतु मैं जानता था, उस के अंदर बहुतकुछ छिपा हुआ था. वह हम सब को ही नहीं, स्वयं को धोखा दे रही थी.

छवि के व्यवहार में विरोधाभास था. नेहा के साथ वह सामान्य व्यवहार करती थी, जबकि मेरे साथ बात करते समय वह चिड़चिड़ा जाती थी. इस का क्या कारण था, यह तो वही बता सकती थी. परंतु कोई न कोई बात उसे परेशान अवश्य कर रही थी.

इतवार का दिन था. नेहा ने अपनी सहेलियों के साथ वाशी में जा कर शौपिंग का प्रोग्राम बनाया था. वहां अभीअभी 2-3 मौल खुले थे. मैं ने सोचा था कि नेहा के जाने के बाद मैं कुछ लेखनकार्य करूंगा.

नेहा के जाने के बाद मेरा मन लेखनकार्य की तरफ प्रवृत्त तो नहीं हुआ, परंतु छवि की ओर दौड़ कर चला गया. मन हो रहा था, वह आए तो खुल कर उस से बातें कर सकूं. मेरे ऐसा सोचते ही दरवाजे की घंटी बजी. घंटी की तरह मेरा दिल धड़का और दिल के कोने से एक आवाज आई, वही होगी. सचमुच वही थी. मेरे दरवाजा खोलते ही तेजी से अंदर घुस आई और बिना दुआसलाम के पूछा, ‘‘दीदी कहीं गई हैं?’’

छवि को देखते ही मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई थी. मैं ने कहा, ‘‘वे वाशी गई हैं, शाम तक आएंगी.’’

‘‘ओह,’’ कह कर वह धम्म से लंबे सोफे पर बैठ गई. मैं उस की बगल में बैठ गया. उस ने मेरी तरफ नहीं देखा. मैं ने अपने दाएं पैर पर बायां पैर चढ़ा लिया और उस की तरफ घूम कर कहा, ‘‘छवि, मैं तुम्हें समझ नहीं पा रहा हूं. जिस दिन से हम दोनों घूमने गए हैं, उस दिन से मेरे प्रति तुम्हारा व्यवहार बदल गया है. मैं ने ऐसा क्या किया है जो तुम मुझ से नाराज हो.’’

उस ने एक पल घूरती नजरों से देखा फिर मुसकरा कर बोली, ‘‘नहीं, मैं आप से नाराज नहीं हूं.’’

‘‘फिर क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

‘‘हूं. सोचती हूं बता ही दूं. आखिर घुटते रहने से क्या फायदा. शायद आप मेरी कुछ मदद कर सकें.’’ मुझे लगा वह मेरे प्रति अपने प्यारका इजहार करेगी. मैं धड़कते दिल से उसे देख रहा था. उस ने आगे कहा, ‘‘यह सही है कि मैं दुखी हूं, परंतु इतनी भी दुखी नहीं हूं कि रातभर रो कर तकिया गीला करूं. मन कभीकभी ऐसी चीज पर अटक जाता है जो उस की नहीं होती. तभी हम दुखी होते हैं.’’

मुझे लगा कि वह मेरे बारे में बात कर रही थी. मैं मन ही मन खुश हो रहा था. तभी उस ने अचानक पूछा, ‘‘क्या आप ने किसी को प्यार किया है?’’

मैं भौचक्का रह गया. उस का सवाल बहुत सीधा था, लेकिन मैं उस के प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दे सका. लेकिन उस ने मेरे किस प्यार के बारे में पूछा था, शादी के पहले का, बाद का या अभी का. क्या उस ने भांप लिया था कि मैं उस से प्यार करने लगा था. अगर हां, तब भी मैं उस के सामने स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकता था. मैं ने हैरानगी प्रकट करते हुए कहा, ‘‘कौन सा प्यार?’’

उस ने उपहासभरी दृष्टि से कहा, ‘‘आप सब समझते हैं कि मैं कौन से प्यार के बारे में पूछ रही हूं. चलिए, आप बताना नहीं चाहते, मत बताइए, प्यार के बारे में झूठ बोलना आम बात है. आप कुछ का कुछ बताएंगे और समझेंगे कि मैं ने मान लिया. इसलिए रहने दीजिए. ’’

‘‘तो आप ही बता दीजिए आप के मन में क्या है, यहां से दुखी हो कर जाएंगी तो मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा,’’ मैं ने तुरंत कहा.

‘‘मेरे दुखी होने से आप को क्या फर्क पड़ेगा,’’ उस ने उपेक्षा के भाव से कहा. उस की बात सुन कर मुझे दुख हुआ. क्या यह जानबूझ कर मेरे मन को दुख पहुंचा रही थी, ताकि उसे पता चल सके कि मैं उस के बारे में कितना चिंतित रहता हूं. किसी के बारे में सोचना, उस का खयाल रखना और उस को ले कर चिंतित होना प्यार के लक्षण हैं. वह शायद इन्हें ही जानना चाहती थी. उस के व्यवहार से मैं इतना तो समझ ही गया था कि वह मेरे बारे में सोचती है, परंतु किसी मजबूरी या कारणवश अपने हृदय को मेरे सामने खोलना नहीं चाहती थी. क्या इस का कारण मेरा शादीशुदा होना था?

‘‘मेरे दुख का तुम अंदाजा नहीं लगा सकती,’’ मैं ने बेचारगी के भाव से कहा.

‘‘15 दिनों के बाद जब मैं चली जाऊंगी, तब देखूंगी कि आप मुझ को ले कर कितना दुखी और चिंतित होते हैं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब तुम मेरा दुख किस प्रकार महसूस करोगी.’’

‘‘कर लूंगी, अपने हृदय से. कहते हैं न कि दिल से दिल की राह होती है. जब आप दुखी होंगे तब मेरे दिल को पता चल जाएगा.’’

कहतेकहते उस की आवाज नम सी हो गई थी. मैं ने देखा उस की आंखों में गीला सा कुछ चमक रहा था, वह अपने आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रही थी. अब मेरे मन में कोई शक नहीं था कि वह सचमुच मुझे प्यार करती थी, परंतु खुल कर हम दोनों ही इसे न तो कहना चाहते थे, न स्वीकार करना. मजबूरियां दोनों तरफ थीं और इन को तोड़ पाना लगभग असंभव था.

शाम तक हम दोनों इसी तरह एकदूसरे को बहलातेफुसलाते रहे, परंतु सीधी तरह से अपने मन की बात न कह सके.

15 दिन बहुत जल्दी बीत गए. इस बीच छवि से मेरी मुलाकात नहीं हुई. इस के लिए हम दोनों में से किसी ने प्रयास भी नहीं किया. पता नहीं हम दोनों क्यों एकदूसरे से डरने लगे थे. मैं अपने भय को समझ नहीं पा रहा था और छवि का भय मैं समझ सकता था.

जाने से एक दिन पहले की शाम…वह हंसती हुई हमारे यहां आई और नेहा के गले लगते हुए बोली, ‘‘दीदी, कल मैं जा रही हूं, आप को बहुत मिस करूंगी.’’ नेहा के कंधे पर सिर रखे हुए उस ने तिरछी नजर से मेरी तरफ देखा और हलके से बायीं आंख दबा दी. मैं उस का इशारा नहीं समझ सका.

गले मिलने के बाद दोनों आमनेसामने बैठ गए. नेहा ने पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी तुम्हारी छुट्टियां बीत गईं, पता ही नहीं चला. फिर आना जल्दी.’’

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुन रहा था. नेहा जैसे मेरे मन की बात कह रही थी. मुझे अपनी तरफ से कुछ कहने की जरूरत नहीं थी.

‘‘हां, जल्दी आऊंगी. अब तो आप लोगों के बिना मेरा मन भी नहीं लगेगा,’’ कहतेकहते एक बार फिर छवि ने मेरी तरफ देखा. जैसे उस के कहने का तात्पर्य मुझ से था. अर्थात मेरे बिना उस का मन नहीं लगेगा. क्या यह सच था? अगर हां, तो क्या वह मुझ से जुदा हो सकती थी.

अगले दिन वह चली गई. दिनभर मैं उदास रहा, लेकिन उस को याद कर के रोने का कोई फायदा नहीं था.

शाम को हर दिन की तरह मैं अपने लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकाल रहा था. लिफाफों के बीच में एक विशेष तरह का लिफाफा देख कर मैं चौंका. यह किसी डाक से नहीं आया था, क्योंकि उस पर न तो कोई टिकट लगा था और न ही उस पर भेजने वाले का नामपता ही था. बस, पाने वाले की जगह पर मेरा नाम लिखा था. लिफाफे में एक खुशबू बसी हुई थी जो मुझे उसे तुरंत खोलने पर मजबूर कर रही थी. मैं ने धड़कते दिल से उसे खोला और बिजली की गति से मेरी आंखें लिफाफे के अंदर रखे कागज पर दौड़ने लगीं.

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं आप को क्या कह कर संबोधित करूं. मेरा आप का क्या संबंध है? मैं समझती हूं संबोधनहीन रहना ही हम दोनों के लिए श्रेष्ठ है. मेरा मानना है कि मेरे हृदय में आप का जो स्थान है उस के सामने सारे संबोधन बेमानी हो जाते हैं.

‘‘मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मुंबई जा कर मैं इस चक्कर में पड़ जाऊंगी. परंतु मन क्या किसी के वश में होता है. आप में पता नहीं मुझे क्या अच्छा लगा, कि बस आप की हो कर रह गई. उस दिन जब मैं ने आप को लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकालते देखा था तो अनायास मेरा दिल धड़क उठा. किसी अनजान आदमी को देख कर ऐसा क्यों होता है, यह तत्काल न समझ पाई, परंतु अब समझ गई हूं कि इस एहसास का क्या नाम होता है. मेरे हृदय के एहसास को नाम तो मिल गया, परंतु उस का अंजाम क्या होगा, यह अभी तक अनिश्चित है. इसलिए मैं खुल कर आप से कुछ न कह पाई और अपने एहसास के साथ मन ही मन घुटती रही.

‘‘मैं जानती हूं कि आप के हृदय में भी वही एहसास हैं, परंतु आप भी मुझ से खुल कर कुछ नहीं कह पाए. हम दोनों एकदूसरे से चोरी करते रहे. अच्छा होता हम दोनों में से कोई खुल कर अपनी बात कहता तो हो सकता है दोनों इतने कष्ट में इस तरह घुटते हुए अपने दिन न बिताते. हमारे मन के संकोच हमें आगे बढ़ने से रोकते रहे. मैं डरती थी कि आप का वैवाहिक जीवन न बिखर जाए और आप के मन में संभवतया यह डर बैठा हुआ था कि शादीशुदा हो कर कुंआरी लड़की से प्रेमनिवेदन कैसे करें और क्या वह आप को स्वीकार करेगी.

‘‘परंतु मैं समझ गई हूं कि प्रेम की न तो कोई सीमा होती है न कोई बंधन. प्रेम स्वच्छंद होता है. इसे न तो कोई मूल्य बांध सकता है, न नैतिकता इसे रोक सकती है क्योंकि यह नैसर्गिक होता है. मैं आज भले ही आप से दूर हूं और शारीरिक रूप से भले ही हम नहीं मिल पाएं हैं परंतु मैं जानती हूं कि हम दोनों कभी एकदूसरे से दूर नहीं हो सकते हैं. मैं फिर लौट कर आऊंगी और अगली बार जब मैं आप से मिलूंगी तब मेरे मन में कोई संकोच, कोई झिझक नहीं होगी. तब आप भी अपने बंधनों को तोड़ कर मेरे साथ प्यार की नैसर्गिक दुनिया में खो जाएंगे.

‘‘अब और ज्यादा नहीं, मैं अपने दिल को खोल कर आप के सामने रख रही हूं. आप इसे स्वीकार करेंगे या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु मैं आप की हूं, इतना अवश्य जानती हूं.’’

पत्र को पढ़ कर मैं पूरी तरह से रोमांचित हो उठा था. मेरा रोमरोम सिहर उठा. काश, थोड़ी सी और हिम्मत की होती तो हम दोनों इस तरह विरह के आंसू बहाते हुए न जुदा होते.

मैं ने पत्र को कई बार पढ़ा और बारबार उसे सूंघ कर देखता रहा. उस में छवि के हाथों की खुशबू थी. मैं ने उसे अंदर तक महसूस किया.

पत्र को हाथों में थामें हुए मुझे कई पल बीत गए. अचानक एक धमाके की तरह नेहा ने मेरे मन में प्रवेश किया. उस की मुसकान मेरे दिल को बरछी की तरह घायल कर गई. नेहा मेरी पत्नी थी. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर थी, गृहकार्यों में कुशल थी. मुझे जीजान से प्यार करती थी, फिर मैं कौन सा प्यार पाने के लिए उस से दूर भाग रहा था? क्या मैं मृगतृष्णा का शिकार नहीं हो गया था? मानसिक और शारीरिक, दोनों ही प्यार मेरे पास उपलब्ध थे, फिर छवि में मैं कौन सा प्यार ढूंढ़ रहा था?

मेरे मन में चिनगारियां सी जलने लगीं. हृदय में जैसे विस्फोट से हो रहे थे. ऐसे विस्फोट जो मेरे जीवन को जला कर तहसनहस करने के लिए आमादा थे. मैं ने तुरंत मन में एक अडिग फैसला लिया. मैं जानता था, मुझे क्या करना था? मैं अब और अधिक भटकना नहीं चाहता था.

मैं ने छवि के पत्र को फाड़ कर वहीं पर फेंक दिया. उसे सहेज कर रखने का साहस मेरे पास नहीं था. मैं छवि की खूबसूरती और यौवन में खो कर कुछ दिनों के लिए भटक गया था. अच्छा हुआ, हम दोनों ने अपने हृदय को एकदूसरे के सामने नहीं खोला. खोल देते, तो पता नहीं हम वासना की किन अंधेरी गलियों में खो जाते.

छवि सुंदर और नौजवान है, कुंआरी है, उसे बहुत से लड़के मिल जाएंगे प्यार और शादी करने के लिए. मैं उस के घर का चिराग नहीं था. मैं एक भटकता हुआ तारा था. जो पलभर के लिए उस की राह में आ गया था और वह मेरी चमक से चकाचौंध हो गई थी.

मैं एक पारिवारिक व्यक्ति था, एक लेखक था. अपनी पत्नी के साथ मैं खुश था. हमारे संतान नहीं थी, तो क्या हुआ? आज नहीं तो कल, संतान भी होगी. नहीं भी होगी, तो क्या बिगड़ जाएगा? दुनिया में बहुत सारे संतानहीन दंपती हैं, और बहुत सारे संतान वाले दंपती अपनी संतानों के हाथों दुख उठाते हैं.

नेहा के अतिरिक्त मुझे किसी और के प्यार की दरकार नहीं. मुझे आशा है, अगली बार जब छवि मेरे यहां आएगी, मैं उसे नेहा की छोटी बहन के रूप में ही स्वीकार करूंगा. मैं उस का प्रेमी नहीं हो सकता.

करकट: ताप्ती अपने घर को देखकर क्यों रोने लगी?

सुबह होते ही गांव में जैसे हाहाकार मच गया था. नदी में पानी का लैवल और बढ़ गया था जिस से गांव में पानी घुस आया था और वह लगातार बढ़ता जा रहा था. दूर नदी में पानी की धार देखते ही डर लगता था. सभी के घरों में अफरातफरी मची थी. लोग जैसे किसी अनहोनी से डरे हुए थे.

वैसे तो तकरीबन सभी के पास अपनीअपनी छोटीबड़ी नावें थीं, मगर इस भयंकर बहाव में जहाज तक के बह जाने का डर था, फिर भी जान बचाने के लिए निकलना तो था ही.

‘‘लगता है, फिर से मणिपुर बांध से पानी छोड़ा गया है…’’ लक्ष्मण बोल रहा था, ‘‘अब हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी.’’

‘‘तो चलो न, सोच क्या रहे हो…’’ उस की पत्नी ताप्ती जैसे पहले से तैयार बैठी थी, ‘‘लो, पहले मैं ही चावल की बोरी नाव में चढ़ा आती हूं.’’

तीनों बच्चे भी सामान की छोटीबड़ी पोटलियों को नाव पर लादने में लगे रहे. रसोई के बरतन, बालटी, कलश वगैरह नाव पर रखे जा चुके थे. कुछ सूखी लकडि़यां और धान की भूसी से भरा बोरा भी लद चुका था.

तीनों बच्चे नाव पर चढ़े पानी के साथ छपछप खेल रहे थे कि ताप्ती ने उन्हें डांटा, ‘‘तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि पानी और आग के साथ खेल नहीं खेलते हैं.’’

‘‘हमें तैरना आता है मां…’’ बड़ा बेटा रिंकू हंसते हुए बोला, ‘‘देखना

मां, एक दिन मैं इसी नाव को खेते हुए बंगलादेश में सिलहट शहर चला जाऊंगा.’’

रिंकू की इस बात पर लक्ष्मण हंसने लगा. कभी वे दिन थे, जब वह अपने बालपन में ऐसे ही सपने पाला करता था. यह अलग बात थी कि वह उधर कभी जा नहीं पाया. कैसे जा सकता है किसी दूसरे देश में. वैसे, बराक इलाके का हर बच्चा पानी के साथ खेलतेतैरते ही तो बड़ा होता है.

अचानक तेज आवाज में होती बात से लक्ष्मण की तंद्रा टूटी. ताप्ती उस की विधवा मां से बहस कर रही थी, ‘‘तुम लोग जाओ न, मैं यहीं रह लूंगी. हम सभी एकसाथ निकल नहीं सकते. नाव भारी हो जाएगी. फिर हमारे पीछे कोई घर के छप्पर का करकट खोल ले जाएगा तो क्या होगा.

‘‘यह करकट बिलकुल नया है.

3-4 महीने ही तो हुए हैं इसे खरीदे हुए. पूरे 12,000 रुपए लग गए इस में. मैं इसे चोरों के भरोसे नहीं छोड़ सकती.’’

‘‘अरे नहीं, तुम लोग जाओ…’’ उस की सास बोल रही थी, ‘‘वहां बांध पर बच्चों को संभालने और खाना बनाने के लिए कोई तो होना चाहिए. मैं अकेली यहीं रह लूंगी. रात में पानी नहीं बढ़ा तो अब क्या बढ़ेगा. कितनी मुश्किल से पैसापैसा जोड़ कर लक्ष्मण ने यह करकट खरीदा है. अगर चोर इसे खोल ले गए, तो घर में खुले में रहना मुमकिन है क्या. धूपबारिश से बचाव कैसे होगा… मैं यहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मां, तुम जाओ तो सही,’’ ताप्ती अपनी सास को नाव की ओर तकरीबन धकेलते हुए बोली, ‘‘तुम बूढ़ी औरत, तुम्हारे सामने ही करकट खोल ले जाएंगे और तुम चिल्लाने के अलावा क्या कर पाओगी.

‘‘सारा गांव खाली पड़ा है. कौन आएगा बचाने? मैं कम से कम यह कटारी तो चला ही सकती हूं. कोई मेरे पास भी फटक नहीं पाएगा,’’ इतना कह कर उस ने बड़ा सा दांव निकाल कर दिखाया, तो सभी हंस पड़े.

आखिरकार लक्ष्मण अपने तीनों बच्चों और मां के संग नाव पर चढ़ गया. नाव खोल दी गई. नाव हलके से हिलोरें ले कर गहरी नदी की ओर बढ़ चली.

नदी के दूसरी तरफ ऊंचाई पर बसा शहर है, जहां लक्ष्मण कमाई करने अकसर जाता रहता है. उधर ही कहीं किसी आश्रय में कुछ दिन गुजारा करना होगा. नदी के उतरते ही वह वापस हो लेगा.

ऊपर आसमान में काले बादल फिर से डेरा जमाने की जुगत में लगे थे. अगर बारिश होने लगी तो गंभीर हालात पैदा हो जाएंगे.

नदी की लहरों से खेलतीलड़ती नाव डगमगाते हुए आगे बढ़ चली. बच्चे डरे से, कातर निगाहों से ओझल होती हुई मां को, फिर गांव को देखते रहे. छोटा बेटा तो सुबक ही पड़ा, तो उस की बहन उसे दिलासा देने लगी.

लक्ष्मण चप्पू को अपनी मजबूत बांहों में भर कर सावधानी से चला रहा था. चप्पू चलाते हुए वह चिल्लाया, ‘‘चुपचाप पड़े रहो. तुम्हारी मां बराक नदी की बहादुर बेटी है. उसे कुछ  नहीं होगा.’’

उफनती हुई बराक नदी में जैसे लक्ष्मण के सब्र और हिम्मत का इम्तिहान हो रहा था. उस की एक जरा सी गलती और लापरवाही नाव को धार में बहाने या जलसमाधि लेने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती. उसे जल्दी से उस पार पहुंचना था. नदी की लहरें जैसे उसे लीलने पर आमादा थीं. लहरों के थपेड़े उसे दिशा बदलने या उलटने की चेतावनी सी देते थे और वह अपने वजूद, अपने परिवार, अपनी नाव को सुरक्षित दिशा की ओर, सधे हाथ से खेता जा रहा था.

इस नदी को सामान्य दिनों में लक्ष्मण 20-25 मिनट में आसानी से पार कर लिया करता था. मगर वही नदी आज जब पूरी तरह भरी हुई अपने तटबंधों को पार कर गई थी, तो महासागर के समान दिख रही थी. 4 घंटे तक लगातार प्रलयंकर लहरों से लड़ते, नाव खेते हुए वह थका जा रहा था, फिर भी जैसे कोई अंदरूनी ताकत उसे आगे बढ़ते रहने को कह रही थी और अब वह शहर के एक घाट के किनारे पहुंच चुका था.

इसी के साथ हलकी बारिश भी शुरू हो चुकी थी. लक्ष्मण जल्दी से अपने परिवार और माल को समेट कर बाढ़ राहत केंद्र पहुंचा था. थकान और भूख से उस की हड्डीहड्डी हिल रही थी. बच्चों ने पोटलियों से चूड़ा और मूढ़ी निकाल फांकना शुरू कर दिया था. भोजन पता नहीं कब मिले. मिले या नहीं भी मिले. मां तो पीछे गांव में है. फिर खाना कौन बनाएगा और वह भी इस खुली जगह में? शायद राहत सामग्री बांटने वाले भोजन भी बांटें. मगर यह तो बाद की बात है. लक्ष्मण फिर उठ खड़ा हुआ. बादल छितर गए थे. बारिश रुक चुकी थी. दिन रहते वह ताप्ती को वापस ले आए तो बेहतर.

‘‘नहीं बेटा, मत जाओ…’’ बूढ़ी मां गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘तुम बहुत थक गए हो. एक बार फिर वहां जाना और वापस आना काफी मुश्किल है. खतरा मोल मत लो, रुक जाओ बेटा.’’

‘‘अरी मां, तुम घबराती क्यों हो…’’ लक्ष्मण फीकी हंसी हंसते हुए बोला,

‘‘मैं बराक नदी का बेटा हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘तुम ने कुछ खायापीया नहीं है,’’ मां मनुहार कर रही थी, ‘‘हम सभी तुम्हारे भरोसे हैं. तुम्हें कुछ हो गया तो हम भी जिंदा नहीं रह पाएंगे.’’

‘‘मां, तुम बेकार ही चिंता करती हो,’’ लक्ष्मण ने अपने बेटे के कटोरे से एक मुट्ठी मूढ़ी निकाल कर फांकते हुए बोला, ‘‘आतेजाते समय नाव खाली ही रहेगी, सो जल्दी वापस आ जाऊंगा…’’ और वह अपनी नाव के साथ दोबारा नदी में उतर पड़ा.

अब नदी में पानी का लैवल और बढ़ चुका था और बढ़ता ही जा रहा था. अनेक डूबे हुए गांव और घर दिखाई दे रहे थे. डूबे हुए घर में ताप्ती कैसे रह पाएगी, लक्ष्मण को तो जाना ही है. उस ने पतवार तेजी से चलानी शुरू कर दी. उसे रहरह कर ताप्ती का रंग बदलता अक्स दिखाई दे रहा था. मन में डर घुमड़ रहा था. पहली बार नई दुलहन के रूप में, दूसरी बार जब उस ने बड़े बेटे को जन्म दिया था, उस का मोहक रूप कितना चमक रहा था. खेत में धान लगाते और काटते, घर के छप्पर पर सब्जियों की लतर चढ़ाते वक्त उस का रूप अद्भुत होता था.

आह, उसे मौत के मुंह में कैसे छोड़ दे. उसे घर के करकट वाले छप्परों की चिंता है. जान बची, तो फिर आ जाएंगे लोहे के करकट. वैसे भी इस भयावह बाढ़ में चोरों को अपने प्राणों की परवाह नहीं होगी क्या, जो करकट खोल ले जाएंगे.

‘‘अरे बाप रे…’’ ताप्ती उसे अपने सामने पा कर हैरान थी, ‘‘तुम दिनभर बिना खाएपीए नाव चलाते रहे. शाम होने को आई है. क्या जरूरत थी जान पर खेलने की…’’

‘‘तो तुम्हें क्या करकट की रखवाली करने के लिए यहां छोड़ देता…’’ वह गुर्राया, ‘‘जल्दी चलो. नाव पर बैठो. अंधेरा होने के पहले वापस पहुंचना है.’’

सोचविचार करने और बहस की गुंजाइश न थी. ताप्ती को नाव पर बिठा कर लक्ष्मण वापस चल पड़ा. ताप्ती ने भी पतवार संभाल ली थी. नाव खेने का उस का भी अपना तजरबा था. नाव पर से अपने घर के चमकते करकट को हसरत भरी निगाहों से दूर होते वह देख रही थी. नाव अब नदी में उतर चुकी थी.

अंधेरा होने के पहले ही वे उस पार पहुंच चुके थे और इसी के साथ भयावह आंधीपानी आ चुका था. मगर बच्चे अपनी मां को सामने पा कर रो उठे.

पूरे हफ्ते मौसम खराब रहा. साथ ही, नदी का पानी पूरे उफान पर था. 8वें दिन से जब पानी उतरने लगा तो लक्ष्मण ने अपने गांव की ओर नाव का रुख किया. ताप्ती जबरदस्ती आ कर नाव में बैठ गई.

गांव में अपने घर के चमकते हुए लोहे के सफेद करकट को सहीसलामत देख वह खुशी से रो पड़ी. चोर इस बार उस के घर का करकट खोल कर नहीं ले जा सके थे.

शर्मिंदगी : उस औरत ने किसे नीचा दिखाया

औरत आगे बढ़ी और मेरे पैरों की ओर झुकी, तभी मैं पीछे हट कर बोला, ‘‘इस तरह बारबार मेरे पैरों को मत पकड़ो. यह ठीक नहीं है. रही बात तुम्हारे पति की तो वह निर्दोष होगा तो अदालत से छूट जाएगा.’’

‘‘साहब, पता नहीं अदालत कब छोड़ेगी. अगर आप चाहें तो 5 मिनट में छुड़वा सकते हैं.’’ लड़के ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘हमारे ऊपर दया करें साहब, हमारा और कोई नहीं है.’’

वह औरत इस लायक थी कि उसे औफिस बुलाया जा सकता था, वहां उस से इत्मीनान से बात भी की जा सकती थी. मैं ने अपना विजिटिंग कार्ड लड़के को देते हुए कहा, ‘‘यह मेरा कार्ड है. तुम इन्हें ले कर मेरे औफिस आ जाओ. शायद मैं तुम्हारा काम करा सकूं.’’

इस के बाद मैं औफिस चला गया. लेकिन उस दिन मेरा मन काम में नहीं लग रह था. फाइलों को देखते हुए मुझे बारबार उस औरत की याद आ रही थी. मुझे लग रहा था कि वह आती ही होगी. लेकिन उस दिन वह नहीं आई. घर आते हुए मैं उसी के ख्यालों में डूबा रहा. यही सोचता रहा कि पता नहीं वह क्यों नहीं आई.

अगले दिन मैं औफिस पहुंचा तो वह औरत और लड़का मुझे औफिस के गेट के सामने खड़े दिखाई दे गए. मैं जैसे ही कार से उतरा, दोनों मेरे पास आ गए. मैं ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो कल ही आना चाहिए था?’’

‘‘हम कल आए तो थे साहब, लेकिन आप के चपरासी ने कहा कि साहब बहुत व्यस्त हैं, इसलिए वह किसी से नहीं मिल सकते.’’ लड़के ने कहा.

‘‘तुम ने उसे मेरा कार्ड नहीं दिखाया?’’

‘‘दिखाया था साहब,’’ लड़के ने कहा, ‘‘चपरासी ने कार्ड देखा ही नहीं. कहा कि इसे जेब में रखो, फिर कभी आ जाना.’’

‘‘ठीक है, 10 मिनट बाद मेरी केबिन के सामने आओ, मैं तुम्हें बुलवाता हूं.’’ मैं ने औरत को नजर भर कर देखते हुए कहा.

10 मिनट बाद दोनों मेरे सामने बैठे थे. लड़के ने फिर वही कहानी दोहराई. मैं ने उस की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. जो हंगामा हुआ था, उस का मुझे पता था. यह भी पता था कि उस मामले में कोई असली अपराधी नहीं पकड़ा गया था.

मैं ने हंगामा होने वाले इलाके के थानाप्रभारी को फोन किया. जब उस ने बताया कि अभी महिला के पति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं है तो मैं ने कहा, ‘‘जब तक मैं दोबारा फोन न करूं, उस के खिलाफ कोई काररवाई मत करना.’’

इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया. वह औरत और लड़का मेरी तरफ ताक रहे थे. मेरे फोन रखते ही लड़के ने कहा, ‘‘साहब, उस ने कुछ नहीं किया.’’

‘‘तुम ने बाहर स्टेशनरी वाली दुकान देखी है?’’ मैं ने लड़के से पूछा.

‘‘जी, वह किताबों वाली दुकान.’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, तुम ऐसा करो,’’ मैं ने उसे 10 रुपए का नोट देते हुए कहा, ‘‘उस दुकान से एक दस्ता कागज ले आओ. उस के बाद बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है.’’

लड़का 10 रुपए का नोट लेने के बजाए बोला, ‘‘मेरे पास पैसे हैं साहब. मैं ले आता हूं कागज.’’

लड़का चला गया तो मैं ने औरत को चाहतभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा काम तो हो जाएगा, लेकिन तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा.’’

मेरी इस बात का मतलब वह तुरंत समझ गई. मैं ने उस के चेहरे के बदलते रंग से इस बात का अंदाजा लगा लिया था. फिर औरतें तो नजरों से ही अंदाजा लगा लेती हैं कि मर्द क्या चाहता है. मैं ने अपनी इच्छा को शब्दों का रूप दे दिया. मैं ने कहा, ‘‘अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हारा पति कम से कम 3 सालों के लिए जेल चला जाएगा. पुलिस ने उसे हंगामे के मुकदमे में नामजद किया है.’’

यह कहते हुए मेरी नजरें औरत के चेहरे पर जमी रहीं और मैं उसे पढ़ने की कोशिश कर रहा था. मैं ने आगे कहा, ‘‘अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारा पति घर आ जाए तो तुम आज 4 बजे अमर कालोनी के स्टौप पर मुझे मिल जाना. स्टौप से थोड़ा हट कर खड़ी होना, जिस से मैं तुम्हें आसानी से पहचान सकूं. अगर तुम नहीं आईं तो मैं यही समझूंगा कि तुम अपने शौहर की रिहाई नहीं कराना चाहती.’’

औरत सिर झुकाए बैठी रही. उस के होंठ कांप रहे थे. लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे. मैं उस के जवाब की प्रतीक्षा करता रहा. जब उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं समझ गया कि चुप का मतलब रजामंदी है. मैं ने कहा, ‘‘तुम वहां अकेली ही आना. अगर कोई साथ होगा तो फिर तुम्हारा काम नहीं होगा.’’

उस ने सहमति में सिर हिला कर गर्दन झुका ली. लड़के के आने तक मैं उसे तसल्ली देता हुआ उस की खूबसूरती की तारीफें करता रहा. लेकिन उस ने मेरी तरफ देख कर जरा भी खुशी प्रकट नहीं की. वह मूर्ति की तरह बैठी मेरी बातें सुनती रही. लड़के के आने के बाद मैं ने उसे विदा करते हुए कहा, ‘‘मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा पति कल तक छूट जाए.’’

दोनों के जाने के बाद मैं औफिस के कामों को निपटाने लगा, लेकिन मन में जो लड्डू फूट रहे थे, वे मुझे उलझाए हुए थे. ठीक 4 बजे मैं अपनी कार से अमर कालोनी के बसस्टौप पर पहुंच गया. दरवाजा खोल कर मैं बाहर निकलने ही वाला था कि उस औरत को अपनी ओर आते देखा. जालिम की चाल दिल में उतर जाने वाली थी.

थोड़ी देर में उस सुंदर चीज को पहलू में लिए मैं उस फ्लैट की ओर जा रहा था, जो मैं ने अपनी अय्याशियों के लिए ले रखा था. मेरी कार हवा से बातें कर रही थी. पूरे रास्ते न तो उस औरत ने होंठ खोले और न ही मैं ने कुछ कहा.

फ्लैट में पहुंच कर पहले मैं ने अपना हलक गीला किया, जिस से मजा दोगुना हो सके. जब अंदर का शैतान पूरी तरह से जाग उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे कतई विश्वास नहीं था कि तुम इतनी आसानी से मान जाओगी, मेरा ख्याल है कि तुम्हें अपने पति से बहुत ज्यादा प्यार है. तुम अपने प्यार को जेल जाते नहीं देख सकती थी.’’

मैं अपनी बातें कह रहा था और वह किसी पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठी फर्श को ताके जा रही थी. मैं ने उस के कंधे पर हाथ रख कर अपनी ओर खींचा तो वह एकदम से बिस्तर पर गिर गई. गिरते ही उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मुझे उस का यह अंदाज काफी पसंद आया.

अगले दिन शाम को 7 बजे के करीब जब मैं घर पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया कि वह औरत, एक आदमी और मेरी पत्नी लौन में बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देखते ही वह आदमी उठ खड़ा हुआ और मेरे पास आ कर मेरे पैर छू लिए. मैं ने एक नजर औरत पर डाली. वह नजरें झुकाए खामोश बैठी थी.

मैं ने उस आदमी की ओर देखा तो उस की आंखों में मेरे प्रति आभार के भाव थे. वह मुझे बारबार धन्यवाद दे रहा था. वह कह रहा था, ‘‘साहब, आप बहुत बड़े आदमी हैं. यह एहसान मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’

अब मेरे अंदर उस का सामना करने का साहस नहीं रह गया था. मैं उस से पीछा छुड़ा कर घर में जाना चाहता था. लेकिन पत्नी ने पीछे से कहा, ‘‘कहां जा रहे हैं, जरा इधर तो आइए. यह बेचारी कितनी देर से आप का इंतजार कर रही है. आप ने इस का काम करा कर बडे़ पुण्य का काम किया है. आप की वजह से मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मैं बहुत खुश हूं.’’

मैं ने पलट कर एक नजर पत्नी की ओर देखा. वह सचमुच बहुत खुश दिख रही थी. मैं ने कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं.’’ कह कर मैं तेजी से दरवाजे में घुस गया.

बैडरूम में पहुंच कर मैं बिस्तर पर ढेर हो गया. कुछ देर बाद पत्नी मेरे कमरे में आई और बैड पर बैठ कर मेरे बालों में अंगुलियां फेरते हुए बोली, ‘‘तुम्हें कुछ पता है, वह बेचारी गूंगी थी, इसीलिए वह हमें नहीं बता पा रही थी कि उस पर क्या जुल्म हुआ था. इसीलिए आभार व्यक्त करने के लिए वह पति को साथ लाई थी. वह कह रहा था कि अगर उसे जेल हो जाती तो यह बेचारी कहीं की नहीं रह जाती. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं था.’’

अब मुझ में इस से अधिक सुनने की ताकत नहीं रह गई थी. मैं अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए तेजी से उठा और बाथरूम में घुस गया.

और वक्त बदल गया : क्या हुआ नीरज के साथ

नीरज की परेशानी दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी. स्कूल के इम्तिहान खत्म हो चुके थे. ट्यूशन क्लासेज भी बंद हो गई थीं. अभी उस के सामने कई खर्चे खड़े थे- कमरे का किराया, घर का सामान. उस के पास इतने पैसे न थे कि सारे खर्च एकसाथ निबट जाते. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. नीरज को एकाएक खयाल आया कि मकानमालकिन मिसेज रेमन से बात की जाए, शायद कोई हल निकल आए. मिसेज रेमन उस 2 कमरों के मकान में अकेली ही रहती थीं. छत पर उस का कमरा था. वहां एक कमरा वाशरूम के साथ था. बरामदे को घेर कर छोटी सी रसोई बना दी थी. नीरज के लिए कमरा ठीकठीक था. उस की अच्छी गुजर हो रही थी. पिछले दिनों उस की बीमारी की वजह से पैसों की समस्या खड़ी हो गई थी. इलाज में पैसा खर्च हो गया और बचत न हो सकी.

शाम को वह मिसेज रेमन के दरवाजे की घंटी बजा रहा था. उन्होंने दरवाजा खोला और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘हैलो यंगमैन, कैसे हो?’’ उस के जवाब का इंतजार किए बगैर उन्होंने प्यार से उसे बिठाया. उस के न कहने के बावजूद वे चाय ले आईं. फिर पूछा, ‘‘बताओ, कैसे आना हुआ?’’

नीरज ने धीमे से कहा, ‘‘मैम, आप को तो पता है मैं एमई कर रहा हूं और ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता हूं. छुट्टियों में कोई काम कर लेता हूं पर इस बार बीमारी के इलाज में खर्च ज्यादा हो गया, इसलिए इस महीने का किराया वक्त पर नहीं दे पाऊंगा. मुझे थोड़ी मोहलत दे दीजिए.’’

इस से पहले कभी नीरज से मिसेज रेमन को कोई शिकायत न थी. बहुत शिष्ट और शालीन था वह. किराया हमेशा वक्त पर देता था. मिसेज रेमन अच्छी महिला थीं, बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, जब तुम्हें सहूलियत हो तब किराया दे देना. तुम स्टूडैंट हो और बहुत अच्छे लड़के हो. इतनी रियायत तो मैं तुम्हें दे सकती हूं.’’

नीरज खुश हो गया, बोला, ‘‘बहुतबहुत शुक्रिया मैम.’’

वे बोलीं, ‘‘नीरज मेरे पास तुम्हारे लिए एक औफर है. मेरा एक स्टोर है. उस को मेरे एक पुराने मित्र मिस्टर जैकब देखते हैं. वे भी काफी उम्र के हैं. हिसाबकिताब में उन्हें परेशानी होती है. अगर तुम शाम को थोड़ा वक्त निकाल कर हिसाबकिताब देख लो तो तुम्हारे किराए के रुपए भी उसी में से कट जाएंगे और कुछ रुपए तुम्हें मिल भी जाएंगे.’’

नीरज ने तुरंत कहा, ‘‘ठीक है मैम, मैं कल से यह काम शुरू कर दूंगा. इस से मुझे बहुत मदद मिल जाएगी. मैं आप का बहुत एहसानमंद हूं.’’

दूसरे दिन से नीरज 1-2 घंटे स्टोर पर हिसाबकिताब वगैरा देखने लगा. मिस्टर जैकब बहुत सुलझे हुए और सहयोग करने वाले इंसान थे. बड़े अच्छे से उस का काम चलने लगा. महीना पूरा होने पर किराए के पैसे काट कर उसे कुछ रकम भी मिल गई. नीरज के सैमेस्टर शुरू हो गए. परीक्षाएं खत्म होने पर उसे सुकून मिला.

उस दिन वह अच्छे मूड में नीचे गार्डन में बैठा था कि मिसेज रेमन आ गईं. उस की परीक्षाएं खत्म होने की बात सुन कर वे बहुत खुश हुईं. उसे रात के खाने पर आमंत्रित किया. बहुत अच्छे माहौल में खाना खाया गया. उन्होंने बिरयानी बहुत अच्छी बनाई थी. बरसों बाद उसे किसी ने इतने प्यार से खाना खिलाया था. मिसेज रेमन ने छुट्यों में उसे 1-2 जगह और काम दिलाने का भी वादा किया.

रात को जब वह बिस्तर पर लेटा तो मिसेज रेमन के बारे में सोच रहा था. पर पता नहीं कैसे एक खूबसूरत चेहरा उस के खयालों में उभर आया. उस हसीन चेहरे को वह भूल जाना चाहता था. अपने अतीत को अपने जेहन से खुरच कर फेंक देना चाहता था. पर न जाने क्यों वह चेहरा बारबार उस की यादों में चला आता था. न चाहते हुए भी वह अतीत में डूब गया…

उस समय वह करीब 6 साल का था. एक बहुत खूबसूरत औरत, जो उस की मम्मी थी, उसे प्यार करती, उस का खयाल रखती. उस के पापा भी बहुत हैंडसम और डैश्ंिग थे. वे उसे घुमाने ले जाते, खिलौने दिलाते. पर एक बात से वह बहुत परेशान रहता कि अकसर किसी न किसी बात पर उस के मातापिता के बीच लड़ाई हो जाती, खूब तकरार होती. वह सहम कर अपने कमरे में छिप जाता. उस का मासूम दिल यह समझ ही नहीं पाता कि उस के मम्मीपापा क्यों झगड़ते हैं. फिर घर में खाना नहीं पकता. पापा गुस्से से बाहर चले जाते और खूब देर से घर लौटते. वह दूध और डबलरोटी खा कर सो जाता. इसी तरह दिन गुजर रहे थे. एक दिन दोनों के बीच बड़ी जोरदार लड़ाई हुई. फिर पापा जोरजोर से चिल्ला कर पता नहीं क्याक्या बक कर बाहर चले गए. मम्मी भी देर तक चिल्लाती रहीं. उस रात को पापा घर वापस लौट कर नहीं आए. दूसरे दिन आए तो फिर दोनों में तकरार शुरू हो गई. बीचबीच में उस का नाम भी ले रहे थे. फिर पापा सूटकेस में अपना सामान भर कर चले गए और कभी लौट कर नहीं आए. मम्मी का मिजाज बिगड़ा रहता.

3 महीने इसी तरह गुजर गए, फिर मम्मी एकदम, खुश दिखने लगीं. एक दिन एक बैग में उस का सामान पैक किया, फिर उस की मम्मी, जिस का नाम सोनाली था, ने कहा, ‘नीरज, मुझे विदेश में जौब मिल गई है. अब तुम मेरी कजिन नीता आंटी के साथ रहोगे. वे तुम्हारा बहुत खयाल रखेंगी. बेटा, तुम भी उन को तंग न करना.’ दूसरे दिन सोनाली उसे नीता आंटी के यहां छोड़ने गई.

नीरज किसी भी हाल में मम्मी को छोड़ना नहीं चाहता था. रोरो कर उस की हिचकियां बंध गईं. मम्मी भी रो रही थीं पर फिर वे आंचल छुड़ा कर चली गईं. नीरज उदास सा, हालात से समझौता करने को मजबूर था. उस के पास और कोई रास्ता न था.

उस का ऐडमिशन दूसरे स्कूल में हो गया. नीता आंटी का व्यवहार उस से अच्छा था. वे उसे प्यार भी करती थीं. अंकल बहुत कम बोलते, उसे अलग कमरे में अकेले सोना होता था. रात में सोते समय वह कई बार डर कर उठ जाता, तकिया सीने से लगाए रोरो कर रात काट देता. कोई ऐसा न था जो उसे उन काली रातों में उसे सीने से लगा कर प्यार करता. उसे समझ नहीं आता था, मां उसे छोड़ कर क्यों चली गईं? पापा कहां चले गए? दिन बीतते रहे. 10-12 दिनों बाद मम्मी उस से मिलने आईं. खिलौने, चौकलेट, कपड़े लाई थीं. उसे खूब प्यार किया और फिर उसे रोताबिलखता छोड़ कर मलयेशिया चली गईं.

जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी. नीता आंटी उस का बहुत खयाल रखतीं. आंटी के यहां रहते हुए उसे कई बातें पता चलीं. आंटी की शादी को 8 साल हो गए थे. उन के यहां औलाद न थी. इसलिए उन्होंने उसे गोद लिया था. जैसेजैसे वह बड़ा होता गया, उसे सारी बातें समझ में आती गईं. कुछ बातें उसे नीता आंटी से पता चलीं. कुछ बातें उन की पुरानी बूआ कमला से पता चलीं. उस के मांबाप की कहानी भी उन्हीं लोगों से मालूम पड़ीं.

उस की मम्मी सोनाली बहुत खूबसूरत, चंचल और जहीन थीं. जब वे एमएससी कर रही थीं, उन की मुलाकात उस के पापा रवि से हुई. पहले दोस्ती, फिर मुहब्बत. दोनों के धर्म में फर्क था. दोनों के घरों से शादी का इनकार ही था. पर इश्के जनून कहां रुकावटों से रुकता है. दोनों की पढ़ाई पूरी होते ही उन दोनों ने सोचसमझ कर आपसी सहमति से अपना शहर छोड़ दिया और इस शहर में आ कर बस गए. सोनाली और रवि दोनों ही नए जमाने के साथ चलने वाले, ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे सरीखे थे. पुराने रीतिरिवाजों के विरोधी, नई सोच नई डगर, आजाद खयालों के हामी, उन दोनों ने ‘लिवइन रिलेशन’ में एकसाथ रहना शुरू कर दिया. विवाह उन्हें एक बंधन लगा.

उन का एजुकेशनल रिकौर्ड काफी अच्छा था. जल्द ही उन्हें अच्छी नौकरी मिल गई. जल्द ही उन्होंने जीवन की सारी जरूरी सुविधाएं जुटा लीं. एक साल फूलों की महक की तरह हलकाफुलका खुशगवार गुजर गया. फिर उन की जिंदगी में नीरज आ गया. शुरूशुरू में दोनों ने खुशी से जिम्मेदारी उठाई. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. सोनाली चंचल और आजाद रहने वाली लड़की थी. घर में सासससुर या कोई बड़ा होता तो कुछ दबाव होता, थोड़ा समझौता करने की आदत बनती. पर ऐसा कोई न था.

रवि बेहद महत्त्वाकांक्षी और थोड़ा स्वार्थी था. खर्च और काम बढ़ने से दोनों के बीच धीरेधीरे कलह होने लगी. पहले तो कभीकभार लड़ाई होती, फिर अंतराल घटने लगा. दोनों में बरदाश्त और सहनशीलता जरा न थी. फिर हर दूसरे, तीसरे दिन लड़ाई होने लगी. रवि के अपने मांबाप, परिवार से सारे संबंध टूट चुके थे और वे लोग उस से कोई संबंध रखना भी नहीं चाहते थे. उन के रवि के अलावा एक बेटा और एक बेटी थी. उन्हें डर था कि कहीं रवि के व्यवहार का दोनों बच्चों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाए. जो लड़का प्यार की खातिर घरपरिवार छोड़ दे, उस से उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

रिश्तेदारों से तो रवि पूरी तरह कट चुका था. कभी किसी दोस्त या सहयोगी के यहां कोई समारोह में शामिल होने का मौका मिलता, वहां भी कोई न कोई ऐसी बात हो जाती कि मन खराब हो जाता. कभी कोई इशारा कर के कहता, ‘यही हैं जो लिवइन रिलेशन में रह रहे हैं.’ या कोई कह देता, ‘इन लोगों की शादी नहीं हुई है, ऐसे ही साथ रहते हैं.’ उन दिनों लिवइन रिलेशन बहुत कम चलन में था. लोग इसे बहुत बुरा समझते थे. लोग खूब आलोचना भी करते थे.

रवि भी इस बात को महसूस करता था कि अगर समाज में घुलमिल कर रहना है तो समाज के बनाए उसूलों के अनुसार चलना जरूरी है. पर अब इन सब बातों के लिए बहुत देर हो चुकी थी. जो जैसा चल रहा था, वही अच्छा लगने लगा था.

सोनाली अपने परिवार की बड़ी बेटी थी. उस से छोटी 2 बहनें थीं. उस ने घर से भाग कर रवि के साथ रहना शुरू कर दिया. इन सब बातों की उस के मांबाप को खबर हो गई थी. बिना शादी के दोनों साथ रहते हैं, इस बात से उन्हें बहुत धक्का लगा. ऐसी खबरें तो पंख लगा कर उड़ती हैं. उन की 2 बेटियां कुंआरी थीं. कहीं सोनाली की कालीछाया उन दोनों के भविष्य को भी ग्रहण न लगा दे, यह सोच कर उन लोगों ने सोनाली से कोई संबंध नहीं रखा, न उस की कोई खोजखबर ली. वैसे भी, एक आजाद लड़की को क्या समझाना. इस तरह सोनाली भी अपने परिवार से अलग हो गई थी. उस की रिश्ते की एक बहन नीता इसी शहर में रहती थी. उस से मेलमुलाकात होती रहती थी. उस की शादी को 8 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद न थी. वह बच्चे के लिए तरसती रहती थी.

इधर, रवि और सोनाली के बीच अहं का टकराव होता रहता. दोनों पढ़ेलिखे, सुंदर और जहीन थे. कोई झुकना न चाहता था. एक बात और थी, दोनों ही अपने परिवारों से कटे हुए थे. इस बात का एहसास उन्हें खटकता तो था पर खुल कर इस को कभी स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि उन की ही गलती नजर आती. फिर सोशललाइफ भी कुछ खास न थी. इसी घुटन और कुंठा ने दोनों को चिड़चिड़ा बना दिया था.

नीरज की जिम्मेदारी और खर्च दोनों को ही भारी पड़ता. दोनों को अपनाअपना पैसा बचाने की धुन सवार रहती. नतीजा निकला रोजरोज की लड़ाई और अंजाम, रवि घर, नीरज और सोनाली को छोड़ कर चला गया. न कोई बंधन था, न कोई दवाब, न कोई कानूनी रोक. बड़ी आसानी से वह सोनाली और बच्चे को छोड़ चला गया. किसी से पता चला कि वह दुबई चला गया.

इधर, सोनाली भी बहुत महत्त्वाकांक्षी थी. उस ने भी दौड़धूप व कोशिश की. उसे मलयेशिया में नौकरी मिल गई. अब सवाल उठा बच्चे का. उस का क्या किया जाए. सोनाली भी अकेले यह जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहती थी. अभी उस के सामने पूरी जिंदगी पड़ी थी. उस की कजिन नीता ने सुझाव दिया कि उस की कोई औलाद नहीं है, वह नीरज को अपने बेटे की तरह रखेगी. सोनाली ने नीरज को उसे दे दिया. एक मौखिक समझौते के तहत बच्चा उसे मिल गया. कोई कानूनी कार्यवाही की जरूरत ही नहीं समझी गई.

इस तरह मासूम नीरज, नीता आंटी के पास आ गया. बिना मांबाप के एक मांगे की जिंदगी गुजारने की खातिर. नीता आंटी उस का खूब खयाल रखती थीं, पढ़ाई भी अच्छी चल रही थी. जो बच्चे बचपन में दुख उठाते हैं, तनहाई और महरूमी झेलते हैं, वे वक्त से पहले सयाने और समझदार हो जाते हैं. नीरज ने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया. एक ही धुन थी उसे कि कुछ बन कर दिखाना है. मेहनत और लगन से उस का रिजल्ट भी खूब अच्छा आता था.

दुख और हादसे कह कर नहीं आते. नीता आंटी का रोड ऐक्सिडैंट हो गया. 4-5 दिन मौत से संघर्ष करने के बाद वे चल बसीं. नीरज की तो दुनिया उजड़ गई. अब बूआ एकमात्र सहारा थीं. वे उस का बहुत ध्यान रखतीं. अंकल पहले से ही कटेकटे से रहते थे. अब और तटस्थ हो गए. धीरेधीरे हालात सामान्य हो गए. उस वक्त वह 10वीं में पढ़ रहा था. एक साल गुजर गया. आंटी की कमी तो बहुत महसूस होती पर सहन करने के अलावा कोईर् रास्ता न था. पहले भी वह अकेला था अब और अकेला हो गया.

उस के सिर पर आसमान तो तब टूटा जब अंकल दूसरी शादी कर के दूसरी पत्नी को घर ले आए. दूसरी पत्नी रेनू 30-31 साल की स्मार्ट औरत थी. कुछ अरसे तक वह चुपचाप हालात देखती और समझती रही और जब उसे पता चला, नीरज गोद लिया बच्चा है, तो उस के व्यवहार में फर्क आने लगा.

नीरज ने अपनेआप को अपने कमरे तक सीमित कर लिया. खाने वगैरा का काम बूआ ही देखतीं. डेढ़ साल बाद जब रेनू का बेटा पैदा हुआ तो नीरज के लिए जिंदगी और तंग हो गई. अब तो रेनू उसे बातबेबात डांटनेफटकारने लगी थी. खानेपीने पर भी रोकटोक शुरू हो गई. बासी बचा खाना उस के लिए रखा जाता. वह तो गनीमत थी कि बूआ उसे बहुत प्यार करती थीं, छिपछिपा कर उसे खिला देतीं.

धीरेधीरे रेनू ने अंकल के कान भरने शुरू कर दिए. अब नीरज उन की नजरों में भी खटकने लगा. बेवजह के ताने व प्रताड़ना शुरू हो गई. उस दिन तो हद हो गई, उसे एक किताब की जरूरत थी, उस ने अंकल से पैसे मांगे. इस बात को ले कर इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया कि अतीत के सारे कालेपन्ने खोल कर उसे सुनाए गए. उस पर किए गए एहसान जताए गए, खर्च के हिसाब बताए गए. नीरज खामोश खड़ा सब सुनता रहा.  उस के पास कहने को क्या था? उस के मांबाप ने उसे ऐसी स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया था कि शरम से उस का सिर झुक जाता था. अच्छे मार्क्स लाने के बाद उस की न कोई कद्र थी, न कोई तारीफ. 10वीं में उस के 97 फीसदी नंबर आए थे. स्कौलरशिप मिल रही थी. पढ़ाई के सारे खर्चे उसी में से पूरे हो जाते. कभीकभार किताबें वगैरा के लिए कुछ पैसे मांगने पड़ते थे. उस पर भी हंगामा खड़ा हो जाता.

उस दिन वह अपने कमरे में आ कर बेतहाशा रोया. उस के मांबाप ने अपनी मुहब्बत व अपने ऐश, अपनी सहूलियतों, अपने स्वार्थ के लिए उस की जिंदगी बरबाद कर दी थी. अगर उन दोनों ने विधिवत शादी की होती, अपनी जिम्मेदारी समझी होती तो ननिहाल या ददिहाल में से कोई भी उसे रख लेता. उस की जिंदगी यों शर्मसार न हुई होती. उसी दिन रात को उस ने तय किया कि 12वीं पास होते ही वह यह घर छोड़ देगा. अपने बलबूते पर अपनी पढ़ाई पूरी करेगा.

12वीं उस ने मैरिट में उत्तीर्ण की. पर घर में कोई खुशी मनाने वाला न था. रूखीफीकी मुबारकबाद मिली. बस, बूआ ने बहुत प्यार किया. अपने पास से मिठाई मंगा कर उसे खिलाई. हां, उस के दोस्तों ने खूब सैलिब्रेट किया. 2-4 दिनों बाद उस ने घर छोड़ दिया. पढ़ाई के खर्चे की उसे कोई फिक्र न थी. स्कौलरशिप मिल रही थी. एक अच्छे स्टूडैंट के लिए कुछ मुश्किल नहीं होती.

उस की परफौर्मेंस बहुत अच्छी थी. उस का ऐडमिशन एक अच्छे कालेज में हो गया. उस ने अपने एक दोस्त के साथ मिल कर कमरा किराए पर ले लिया और ट्यूशन कर के निजी खर्च निकालने लगा. उस का पढ़ाने का ढंग इतना अच्छा था कि उसे 10वीं के बच्चों की ट्यूशन

मिल गई. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. छुट्टियों में काम कर के कुछ और पैसे कमा लेता. बीई में उस ने पोजीशन ली. बीई के बाद उस के दोस्त ने जौब कर

ली और दूसरे शहर में चला गया. मकानमालिक को कमरे की जरूरत थी, उसे वह घर छोड़ना पड़ा. फिर थोड़ी कोशिश के बाद उसे मिसेज रेमन के यहां कमरा मिल गया. यह खूब पुरसुकून व अच्छी जगह थी. उस ने दुनिया के सारे शौक, सारे मजे छोड़ दिए थे. उस की जिंदगी का बस एक मकसद था, पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई. यहां भी वह ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता था. अब स्टोर में भी काम मिल गया, ये सब पुरानी बातें सोचतेसोचते वह नींद की आगोश में चला गया.

नीरज का यह फाइनल सैमेस्टर था. कैंपस सिलैक्शन में उसे एक अच्छी कंपनी ने चुन लिया. जीभर कर उस ने खुशियां मनाई. फाइनल होने के बाद उस ने वही कंपनी जौइन कर ली. शानदार पैकेज, बहुत सी सहूलियतें जैसे उस की राह देख रही थीं. मिसेज रेमन और मिस्टर जैकब को भी उस ने बाहर डिनर कराया. उन दोनों ने भी उसे तोहफे व दुआएं दे कर उस का हौसला बढ़ाया. मिसेज रेमन ने एक मां की तरह प्यार किया. बूआ को साड़ी व पैसे दिए.

वक्त और हालात बदलते देर नहीं लगती. आज वह 6 साल का मजबूर व बेबस बच्चा न था, 24 साल का खूबसूरत, मजबूत और समृद्ध जवान था. एक शानदार घर में रह रहा था. दुनिया की सारी सुखसुविधाएं उस के पास थीं. पर फिर भी उस की आंखों में उदासी और जिंदगी में तनहाई थी. वह हर वीकैंड पर मिसेज रेमन से मिलने जाता. वही एकमात्र उस की दोस्त, साथी या रिश्तेदार थीं. अच्छा वक्त तो वैसे भी पंख लगा कर उड़ता है.

उस दिन शाम को वह लौन में बैठा चाय पी रहा था कि गेट पर एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से एक सांवली सी अधेड़ औरत उतरी और गेट खोल कर अंदर चली आई. नीरज उस महिला को पहचान न सका, फिर भी शिष्टाचार के नाते कहा, ‘‘बैठिए, आप कौन हैं?’’ उस औरत की आंखें गीली थीं. चेहरे पर बेपनाह मजबूरी और उदासी थी. उस ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘नीरज, तुम ने मुझे पहचाना नहीं. मैं सोनाली हूं, तुम्हारी मम्मी.’’

नीरज भौचक्का रह गया. कहां वह जवान और खूबसूरत औरत, कहां यह सांवली सी अधेड़ औरत. दोनों में बड़ा फर्क था. ‘मम्मी’ शब्द सुन कर नीरज के मन में कोई हलचल न हुई. उस की सारी कोमल भावनाएं बर्फ की तरह सर्द हो कर जम चुकी थीं. अब दिल पर इन बातों का कोई असर न होता था. उस ने सपाट लहजे में कहा, ‘‘कहिए, कैसे आना हुआ? आप को मेरा पता कहां से मिला?’’

‘‘बेटा, मैं दूर जरूर थी पर तुम से बेखबर न थी. तुम्हारा रिजल्ट, तुम्हारी कामयाबी, नौकरी सब की खबर रखती थी. इंटरनैट से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. जीजाजी से मिसेज रेमन का पता चला. उन से तुम्हारे बारे में मालूम हो गया. इस तरह तुम तक पहुंच गई. मैं जानती हूं, मेरा तुम से माफी मांगना व्यर्थ है क्योंकि जो कुछ मैं ने किया है उस की माफी नहीं हो सकती. तुम्हारा बचपन, तुम्हारा लड़कपन, मेरी नादानी और मेरे स्वार्थ की भेंट चढ़ गया. मैं ने जज्बात में आ कर गलत फैसला किया. न मैं खुश रह सकी न तुम्हें सुख दे सकी. मैं ने वह खिड़की खुद ही बंद कर दी जहां से ताजी हवा का झोंका, मुहब्बत की ठंडी फुहार मेरे तपते वजूद की तपिश कम कर सकती थी. मैं ने थोड़े से ऐश की खातिर उम्रभर के दुखों से सौदा कर लिया. अब सिर्फ पछतावा ही मेरी जिंदगी है.’’

‘‘ठीक है, सोनाली मैम, जो आप ने किया, सोचसमझ कर किया था. आज से 30-32 साल पहले ‘लिवइन रिलेशनशिप’ इतनी आम बात न थी. बहुत कम लोग यह कदम उठाते थे. आप उस समय इतनी बोल्ड थीं, आप ने यह कदम उठाया. फिर उस को निभाना था. एक बच्चे को जन्म दे कर आप ने उस की जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया. न मेरा कोई ननिहाल रहा, न ददिहाल. मैं ने कैसे खुद को संभाला, यह मैं जानता हूं.

‘‘जिस उम्र में बच्चे मां के सीने पर सिर रख कर सोते हैं उस उम्र में मैं ने तकिए से लिपट कर रोरो कर रातें काटी हैं. आप ने और पापा ने सिर्फ अपने ऐश देखे. एक पल को भी, उस बच्चे के बारे में न सोचा जिसे दुनिया में लाने के आप दोनों जिम्मेदार थे. अब मेरी मासूमियत, मेरा बचपन, मेरी कोमल भावनाएं सब बेवक्त मर चुकी हैं.’’

‘‘नीरज, तुम जो भी कह रहे हो, एकदम सच है. मैं ने हर कदम सोचसमझ कर उठाया था. पर उस के अंजाम ने मुझे ऐसा सबक सिखाया है कि हर लमहा मैं खुद को बुराभला कहती हूं. मलयेशिया में मैं ने दूसरी शादी की थी. पर 6 साल तक मुझे औलाद न हुई तो उस ने मुझे तलाक दे दिया. उसे औलाद चाहिए थी और मैं मां न बन सकी. औलाद की बेकद्री की मुझे सजा मिल गई. मैं औलाद मांगती रही, मेरे बच्चा न हुआ. सारे इलाज कराए. यहां औलाद थी तो मैं ने दूसरों को दे दी. मेरे गुनाहों का अंत नहीं है.

‘‘मुझे कैंसर है. थोड़ा ही वक्त मेरे पास है. मैं अपने गुनाहों का, अपनी भूलों का प्रायश्चित्त करना चाहती हूं. अब मैं तुम्हारे पास रहना चाहती हूं. मैं तनहाई से तंग आ गई हूं. मुझे तुम्हारी तनहाई का भी एहसास है. पैसा है मेरे पास, पर उस से तनहाई कम नहीं होती. भले तुम मुझे खुदगर्ज समझो पर यह मेरी आखिरी ख्वाहिश है. एक बार मुझे मेरी गलतियां सुधारने का मौका दो. अपनी बेबस व मजबूर मां की इतनी बात रख लो.’’

नीरज सोच में पड़ गया. एक बार दिल हुआ, मां को माफ कर दे. दूसरे पल संघर्षभरे दिन, अकेले रोतेरोते गुजारी रातें याद आ गईं. उस ने धीमे से कहा, ‘‘सोनाली मैम, इतने सालों से मैं बिना रिश्तों के जीने का आदी हो गया हूं. रिश्ते मेरे लिए अजनबी हो गए हैं. मुझे थोड़ा वक्त दीजिए कि मैं अपने दिल को रिश्ते होने का यकीन दिला सकूं, अपनों के साथ जीने का तरीका अपना सकूं.

‘‘इतने सालों तक तपते रेगिस्तान में झुलसा हूं, अब एकदम से ठंडी फुहार बरदाश्त न कर सकूंगा. मुझे अपनेआप को ‘मां’ शब्द से मिलने का, समझने का मौका दीजिए. अभी मुझे नए तरीकों को अपनाने में थोड़ी हिचकिचाहट है. जैसे ही मुझे लगेगा कि मैं ने मां को पहचान लिया है, मैं आप को खबर कर के लेने आ जाऊंगा. आप अपना फोन नंबर और पता मुझे दे जाइए.’’

सोनाली ने एक उम्मीदभरी नजर से बेटे को देखा. उस की आंखें डबडबा गईं. वह थकेथके कदमों से गेट की तरफ मुड़ गई.

हनीमून : क्या था मुग्धा का प्लान

आशीष को परेशान करने के लिए वह जल्दीजल्दी अपनी मां के पास जाने की जिद करती, परंतु वह बिना किसी नानुकुर के उस की फ्लाइट की टिकट बुक करवा देता. उस की उपेक्षा और तिरस्कार का आशीष पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता. वह तो अपनी पत्नी की सुंदरता पर मुग्धभाव से मुसकराता रहता. हर क्षण उस की प्रसन्नता के लिए प्रयास करता रहता.

वह उसे अंटशंट बोलती व प्रताडि़त करने के अवसर खोजती रहती. खाली समय में अपने एहसान के खयालों में खोई रहती. सुधाकर को मुग्धा का जल्दीजल्दी आना अच्छा नहीं लगा था. एक दिन वे पत्नी से बोले थे, ‘अपनी लाड़ली को समझाओ, पति के घर रहने की आदत डाले. ‘वह तो हम लोगों का समय अच्छा है कि हमें इतना अच्छा दामाद मिला है, जो उस की हर इच्छा को पूरी करता है.

‘मैं तो यही चाहता हूं कि वह आशीष के प्यार को समझे.’

‘आप ने अपनी बेटी के प्यार को समझा था? आप को उस की हर बात से परेशानी होती है. पहले आप ने बिना उस की रजामंदी के शादी करवा दी. अब आप चाहते हैं कि वह तुरंत उसे अपना ले जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि बचपन से ही काले रंग के लोगों से वह नफरत करती है. आप को याद नहीं है, पहले मैं भी तो जल्दीजल्दी मायके जाने की जिद करती थी. उस को समय दीजिए, वह आशीष के प्यार की कद्र करने लगेगी.’

‘मैं भी तो यही चाहता हूं कि वह पति के प्यार को समझे, उसे इज्जत दे और उसे प्यार भी करे,’ वे नाराज हो उठे थे, ‘ठीक है, तुम उसे शह देती रहो. जब शादी टूट जाए और दोनों के बीच तलाक हो जाए तो मेरे कंधे पर सिर रख कर मत रोना कि अब क्या करूं? समाज में सब के सामने, मेरी इज्जत खराब हो गई. तुम्हीं तो उस दिन कह रही थीं कि गीता भाभी कह रही थीं कि क्या बात है, मुग्धा की पति से बनती नहीं है क्या?’

‘ऐसा नहीं होगा. लोगों की तो आदत होती है दूसरों के फटे में हाथ डालने की.’

मुग्धा कमरे के बाहर से सब बातें सुन रही थी. वह तमक कर बोली थी, ‘पापा, आप ने मेरी शादी करवा कर समाज में अपनी इज्जत जरूर बचा ली परंतु आप ने कभी यह नहीं सोचा कि काले, बदसूरत और नापसंद आदमी के साथ एक घर में रह कर वह रोज कितनी तकलीफ से गुजरती होगी.

‘आप ने हमेशा अपने बारे में सोचा, समाज क्या कहेगा, यह सोचा. मेरे प्यार, मेरी चाहत और मेरे जख्मों के बारे में कभी नहीं सोच पाए. आप स्वार्थी हैं. यदि मेरे बारबार आने से आप की समाज में बदनामी होती है तो अब मैं नहीं आया करूंगी. आज से मैं आप से रिश्ता तोड़ती हूं.’ वह नाराज हो कर चली गई थी. उस के बाद से मुग्धा न तो कभी उन के पास आई और न ही अपने पापा से कभी फोन पर बात की.

उस का जीवन निरुद्देश्य था. वह टीवी सीरियल्स से सिर फोड़ती या अपने फोन पर उंगलियां चलाती और सब से थकहार कर वह  आशीष को कोसना शुरू कर देती. ‘उफ, मुझे इस आबनूसी अफ्रीकन से मुक्त कर दो,’ वह मन ही मन सोचती रहती, ‘इस का ऐक्सिडैंट क्यों नहीं हो जाता, यह मर क्यों नहीं जाता.’

आशीष सुंदर पत्नी के प्रेम में पागल औफिस से बारबार उसे फोन करता रहता. उस का दिल हर समय डरता रहता कि जब वह औफिस से शाम को घर लौटे तो कहीं वह घर से नदारद हो कर अपने प्रेमी की बांहों में न पहुंच चुकी हो.

जब कभी वह औफिस से रात में देर से घर आता तो वह पूछ लेता, ‘मुग्धा, मैं देर से आता हूं तो तुम परेशान हो जाती होगी?’ हमेशा वह तपाक से बोलती, ‘भला, मैं क्यों परेशान होंगी? जाना चाहो तो हमेशा के लिए जा सकते हो.’

वह हर क्षण उस के अहं पर चोट पहुंचाती कि वह अब नाराज होगा. परंतु वह अपना हौसला नहीं छोड़ता. उस के चेहरे पर हर पल मुसकराहट बनी रहती. कुछ दिनों बाद एक दिन वह बोला, ‘मुग्धा, तुम दिनभर घर में बोर होती होगी, इसलिए तुम्हारे लिए मैं ने एक जौब की बात की है. तुम घर से निकलोगी तो वहां चार लोगों से मिलनाजुलना होगा तो तुम्हें अच्छा लगेगा. तुम्हें दिनभर की बोरियत से छुटकारा मिलेगा.’

आज एक पल को वह सोचने को मजबूर हो गई थी कि यह आदमी उस के बारे में कितना सोचता रहता है. वह बचपन से ही शिक्षाकार्य से जुड़ने का सपना देखती रहती थी. परंतु दिखाने के लिए एहसान जताते हुए वह बोली थी, ‘अब आप ने बात कर ली है तो ठीक है, चलिए, मैं इंटरव्यू दे दूंगी. केवल आप की इच्छा पूरी करने के लिए.’

आज वह एक अरसे बाद ढंग से तैयार हुई थी. आईने में अपने ही अक्स को देख कर वह अपनी सुंदरता पर रीझ उठी थी. परंतु अपने साथ आशीष को देखते ही उस का मूड खराब हो गया था.

आशीष भी अपने को नहीं रोक पाया था और हिचकिचाहट के साथ उस के माथे पर प्यार की मुहर लगाते हुए बोला था, ‘मुग्धा, तुम सच में मुझे मुग्ध कर देती हो.’ आज वह नाराज होने की जगह शरमा गई थी. शादी का एक साल पूरा हो चुका था. उसे अब आशीष की आदतें भाने लगी थीं. वह कालेज जाने लगी थी. वहां जा कर वह खुश रहने लगी थी. वह आशीष के साथ हंस कर बातें भी करने लगी थी.

एक शाम वह बिना बताए उसे लेने के लिए कालेज पहुंच गया था. उस समय वह अपने साथियों के साथ किसी बात पर जोरजोर से ठहाके लगा रही थी. उस को देखते ही वह गंभीर हो उठी थी और बुरा सा मुंह बना कर बोली थी, ‘क्यों, मुझे चैक करने आए थे?’

‘ऐसा क्यों कह रही हो?’

‘आज तुम्हारा बर्थडे है न, इसलिए सुबह ही तो शौपिंग की बात हुई थी. आज खाना भी बाहर ही खा लेंगे.’

‘ओके, ओके.’

शौपिंग के नाम से उस की आंखें चमक उठी थीं. बहुत दिनों बाद आज उस ने कई सारी ब्रैंडेड ड्रैसेज पसंद कर ली थीं. वह ट्रायलरूम से पहनपहन कर आशीष को दिखा कर पूछ भी रही थी, ‘कैसी लग रही हूं.’

फिर वह बोली थी, ‘बिल ज्यादा हो गया हो तो मैं ड्रैसेज कम कर दूं.’

प्रसन्नता से अभिभूत आशीष बोला था, ‘नहींनहीं, 2-4 और लेनी हो तो ले सकती हो. एक लाल रंग की सुंदर सी ड्रैस हाथ में उठा कर वह बोला था, यह वाली तुम पर बहुत फबेगी. यह मेरी ओर से ले लो.’ वह खुश हो कर बोली थी, ‘अरे, इस पर तो मेरी नजर ही नहीं पड़ी थी. सच में, यह तो सब से अधिक सुंदर ड्रैस है.’ आज पहली बार उस ने आशीष को प्यारभरी नजरों से देखा था.

‘मुग्धा इसी तरह मुसकराती और खुश रहा करो तो तुम बहुत सुंदर लगती हो.’

समय के अंतराल से दोनों के बीच की दूरियां कम होने लगी थीं. अब वह आशीष को स्वीकार करने लगी थी. दोनों के बीच पनपते हुए रिश्ते का फल मुग्धा के जीवन में अंकुरित होने लगा था. नवजीवन की सांसों की अनुभूति से आशीष के प्रति वह समर्पित अनुभव करने लगी थी. उस के  प्रति क्रोध और नफरत के स्थान पर प्यार पनपने लगा था.

आशीष पापा बनने वाला है, यह जान कर चमत्कृत था. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस ने तो मुग्धा के पांवों तले फूल बिछा दिए थे. उस की दीवानगी ने सारी सीमाएं पार कर दी थीं. उस समय उस ने मीरा को उस की देखभाल के लिए बुलाया था.

मीरा बेटी के पास आईं तो आशीष की मुग्धा के  लिए दीवानगी और प्यार देख कर गदगद हो उठी थीं. उन्होंने मुग्धा को बताया था कि एहसान शादी कर के अपने जीवन में आगे बढ़ चुका है, इसलिए अब उसे भी कसम खानी पड़ेगी कि वह भी आशीष के साथ प्यार व इज्जत के साथ रहेगी. यद्यपि कि वह भी आशीष से प्यार करने लगी थी परंतु आदत के अनुसार, पति के सामने आते उस की जबान कड़वाहट उगलने लगती थी.

एक दिन अंतरंग क्षणों में वह मुग्धा से बोला था, ‘मुझे तो बेटी चाहिए और वह भी तुम्हारी तरह सुंदर और प्यारी सी. यदि बेटा हो गया, वह भी मेरी तरह शक्लसूरत और काले रंग का तब तो तुम्हारे लिए बेटा भी दंडस्वरूप हो जाएगा क्योंकि अभी तो तुम्हें एक ही काले, बदसूरत आशीष को अपने इर्दगिर्द देखना पड़ता है. यदि बेटा भी ऐसा हो जाएगा तब तुम्हारे चारों तरफ बदशक्ल कुरूपों का जमावड़ा हो जाएगा और तुम्हारे लिए इस से बड़ी सजा अन्य कुछ हो ही नहीं सकती.’

मुग्धा द्रवित हो उठी थी. उस ने उस के मुंह पर अपना हाथ रख दिया था, ‘प्लीज, मेरी गलतियों के लिए मुझे माफ कर दो.’ समयानुसार उस की गोद में उस की हमशक्ल परी सी बेटी आ गई थी. मीरा बेटी को समझाबुझा कर लौट गई थीं.

एक दिन आशीष को बहुत जोर का बुखार आ गया था. वह बेहोशी में भी मुग्धामुग्धा पुकार रहा था. उस की बिगड़ती हालत देख आज वह पहली बार अपने को असहाय अनुभव कर रही थी. वह डाक्टर को फोन करते ही आशीष के लंबे जीवन व स्वास्थ्य की कामना करने लगी थी.

अब वह आशीष को दिल से चाहने लगी थी. जिस काले, बदशक्ल व्यक्ति से वह नफरत करती थी, वही अब उस का सर्वस्व बन चुका था. औफिस से आने पर उसे जरा भी देर होती तो वह पलपल में उसे फोन करती रहती. एक दिन वह आशीष से बोली थी, ‘आशीष, मैं ने तुम्हारा हनीमून बरबाद कर दिया था और उस के बाद भी मैं ने तुम्हें बहुत परेशान किया है, इसलिए मैं अब दोबारा उन्हीं पलों को उन्हीं जगहों पर जी कर एक नई शुरुआत करना चाहती हूं.’

‘ओके डियर, आप अपनी छुट्टी के लिए अप्लाई कर दीजिएगा.’

‘मैं ने आप को सरप्राइज देने के लिए सब बुकिंग करवा ली हैं.’

हर्षातिरेक में आशीष उसे बांहों में भर अपने प्यार की मुहर लगा कर हनीमून के बारे में सोचते हुए तेजी से औफिस के लिए निकल गया था. उसी रात हुए इस हादसे से मुग्धा की मनोस्थिति जड़वत हो गई थी. वह निरुद्देश्य, निराधार आईसीयू के बाहर चहलकदमी कर रही थी.

सुधाकर और मां मीरा को देखते ही वह अपने पापा के कंधे से लिपट कर बिलखबिलख कर रोने लगी थी. वह अस्फुट शब्दों में बोली, ‘‘पापा, प्लीज मेरे आशीष को बचा लीजिए. अभी तो मैं ने उसे प्यार करना शुरू ही किया है. मुझे उस के साथ हनीमून पर जाना है.’’

सुधाकर स्वयं को संभाल नहीं पा रहे थे. वे भी रोतेरोते बोले थे, ‘‘कुछ नहीं होगा तेरे आशीष को, तेरा प्यार जो उस के साथ है.’’ सिसकियों के साथ संज्ञाशून्य होतेहोते उस के मुंह से ‘हनीमून पर जाना है,’ निकल रहा था. वहां खड़े सभी लोगों की आंखों से बरबस आंसू निकल पड़े थे.

फेयरवैल : क्या था श्वेता का वो खास गिफ्ट

शनाया को नए पीजी में कुछ दिन तो थोड़ा अजीब लगा पर अब उसे काफी अच्छा लगने लगा था. चारों लड़कियों प्रीति, रुचि, रागिनी और आईना के साथ उस की बहुत अच्छी बनती थी. बस, श्वेता थोड़ा मूडी थी. वह कभी तो बहुत अच्छा व्यवहार करती, लेकिन कभीकभी बिना वजह छोटी सी बात का बतंगड़ बना देती. रुचि के पास एक कार थी. कभीकभी सभी सहेलियां उसी कार से रात को डिस्को चली जाती थीं.

आज भी अचानक ऐसे ही प्लान बन गया. शनाया पहले कभी रात को घर से बाहर नहीं निकलती थी. मम्मी ने उसे सख्ती से मना किया था. बस, पीजी से औफिस और औफिस से पीजी आनाजाना ही होता था. यही शनाया का रूटीन था, पर इस नए पीजी में आने के बाद शनाया में काफी बदलाव आ गया था. वह अपने लुक्स और पहनावे को ले कर सजग हो रही थी.

वह नएनए डांस स्टैप्स भी सीख रही थी. उस ने सभी लड़कियों को नईनई पत्रिकाएं पढ़ने का शौक लगा दिया था. आज श्वेता का मूड भी काफी अच्छा था. डिस्को जाने के लिए वह हमेशा तैयार रहती थी. डिस्को में बार भी था, जहां श्वेता ने पांचों के लिए बियर और्डर की.

शनाया ने साफ मना कर दिया. बहुत जोर देने पर रुचि और प्रीति ने श्वेता का साथ दिया, पर श्वेता ने थोड़ी देर में एक के बाद एक कई पैग चढ़ा लिए. बड़ी मुश्किल से श्वेता को घर वापस लौटने के लिए मनाया गया.

ये सब शनाया और रागिनी को बिलकुल पसंद नहीं आया. रागिनी ने प्रीति और रुचि को भी समझाया कि अलकोहल लेना गलत है. आगे से ऐसी गलती न करे. अगर श्वेता जिद करती है तो ना कहना सीखे.

ये बातें श्वेता के कानों में भी पड़ीं और इस पर बुरी तरह बहस हुई. श्वेता ने पांचों को खूब बुराभला कहा. खैर, कुछ ही दिन में सब सामान्य हो गया. शनाया ने श्वेता को किसी से फोन पर बात करते हुए सुना था, ‘तुम मेरे लिए एक अच्छा फ्लैट ढूंढ़ दो. यहां तो कंपनी ही बेकार है. पांचों लड़कियां जाहिल हैं.’

शनाया ने बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा पर उस की फैमिली के बारे में जरूर पूछा. प्रीति ने बताया कि उस के पिता विधायक हैं. इस से ज्यादा कोई भी नहीं जानता था. वह प्रौपर्टी डीलर के जरिए आ पाई थी. ‘मकानमालिक ने वैरिफिकेशन तो कराया ही होगा,’ पता नहीं क्यों शनाया गहराई से सोच रही थी.

मकानमालिक ने वैसे तो सीसीटीवी कैमरे लगा रखे थे, लेकिन वह लड़कियों को कुछ कहते नहीं थे. वे रहते भी काफी दूर थे. बस, महीने बाद किराया वसूलने आते थे.

एक दिन खुशगवार मौसम देख कर श्वेता ने कुछ निकाला. पैकेट देख कर शनाया समझ गई कि यह ड्रग्स है, ‘‘किसी को ट्राई करना हो तो कर सकता है,’’ श्वेता ने रुचि को कहा.

‘‘यार, यह तो गैरकानूनी है. दिस इस वैरी बैड,’’ शनाया ने कह ही दिया. बस, श्वेता को चुप कराना मुश्किल हो गया. अगले दिन पांचों लड़कियों ने श्वेता से साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो श्वेता, अलकोहल तक तो ठीक है लेकिन ये सब हम बरदाश्त नहीं करेंगे. आगे से ऐसा मत करना वरना कहीं और रहने का इंतजाम कर लो.’’

श्वेता ने नया फ्लैट देख लिया था. जाने से पहले पांचों ने श्वेता को फेयरवैल देने की योजना बनाई. केक काटने के बाद सब जम कर नाचे. श्वेता की जिद पर सब ने हलकेहलके पैग लिए. खूब मस्ती कर सब सो गए. अगली सुबह श्वेता अपना सामान ले कर चली गई. मांगने पर भी उस ने उन को एड्रैस नहीं बताया.

अब सबकुछ सामान्य था. शनाया भी काफी खुश रहती थी. अचानक एक दिन एक छोटा सा वीडियो शनाया को किसी ने भेजा. वीडियो देख कर वह स्तब्ध रह गई. वे पांचों हाथों में गिलास ले कर नाच रही थीं. उन के कपड़े भी बेहद अस्तव्यस्त थे. वैसे भी लड़कियों के फ्लैट में कपड़ों का खयाल रखता कौन है. उन के अंग साफ दिख रहे थे.

श्वेता जाहिर है, वीडियो शूट कर रही थी. पांचों लड़कियां जैसे गश खा कर गिरीं लगभग 10-15 दिन रोनेधोने के बाद उन्होंने श्वेता को खोज लिया.

‘‘देखो, किसी फ्रैंड ने यह अपलोड किया है. तुम लोग चाहो तो खुशी से साइबर पुलिस से शिकायत करो,’’ श्वेता बोली. वह बेहद चालाक थी. उस ने साइबर पुलिस को भी बताया कि वह वीडियोज फ्रैंड्स को शेयर करती रहती है. उस का फोन भी हरवक्त उस के पास नहीं रहता. इसलिए कैसे, क्या हुआ, वह नहीं बता कती.

श्वेता तो साफ बच निकली पर इन पांचों को फेयरवैल का गिफ्ट जरूर दे गई. खैर, पांचों ने इस शहर को छोड़ कर अन्य किसी शहर में नौकरी करने में ही अपनी भलाई समझी.

 साधना कक्ष : क्या अंजलि मां बन पाई

बच्चा न ठहरने के चलते अंजलि को अकसर मोहन के ताने भी सुनने पड़ रहे थे इसलिए वह कुछ दिनों के लिए मायके में अपनी मां के पास चली आई.

मां को जब इस की वजह पता चली तो उस ने अंजलि से कहा कि वह एक पहुंचे हुए बाबा को जानती है जो बहुत सी औरतों की गोद हरी कर चुके हैं.

अंजलि झाड़फूंक करने वाले बाबाओं और पीरफकीरों पर जरा भी यकीन नहीं करती थी इसलिए उस ने मां को साफ मना कर दिया.

मां ने उस से कहा कि अगर वह बाबा के पास नहीं जाना चाहती है तो अपने पति के घर वापस लौट जाए.

जब अंजलि ने मोहन से बात की तो उस ने कहा कि वह उस से तलाक लेना चाहता है क्योंकि उसे बच्चा नहीं हो रहा है. ऐसे में अंजलि के पास मां की बात मानने के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा था.

एक दिन जब अंजलि मां के साथ बाबा के आश्रम पहुंची तो पता चला कि उस आश्रम में मर्दों के आने की मनाही थी. उस आश्रम में उस बाबा को छोड़ उस के तीमारदारों में सिर्फ औरतें ही शामिल थीं.

बाबा की शिष्याओं ने अंजलि से एक कागज के टुकड़े पर बिना किसी को दिखाए अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखने को कहा.

अंजलि को कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन वह मां की इच्छा रखने के लिए सबकुछ करती गई.

अंजलि ने उस कागज पर मनपसंद मिठाई का नाम लिख कर उसे एक डब्बे में रख दिया जिस में बाबा की शिष्याओं ने ताला लगा कर अंजलि को यह कहते हुए उस के हाथ में थमा दिया कि वह इस डब्बे को ले कर साधना कक्ष में जाए.

बाबा अपनी चमत्कारी ताकतों की बदौलत यह जान गए होंगे कि उस ने इस कागज में क्या लिखा है.

साधना कक्ष में पहुंचने पर उसे वही मिठाई खाने को मिलेगी, जो उस ने इस कागज पर लिखी है.

अंजलि जब बाबा के पास साधना कक्ष में जाने लगी तो उस की मां भी उस के साथ हो ली.

बाबा ने अंजलि को वही मिठाई खाने को दी जो उस ने उस कागज पर लिखी थी तो वह हैरान रह गई, क्योंकि अंजलि के सिवा किसी को भी यह नहीं पता था कि उस ने उस कागज पर क्या लिखा है. उस ने बहुत दिमाग दौड़ाया लेकिन गुत्थी सुलझी नहीं.

समस्या जान कर बाबा ने अंजलि से कहा, ‘‘अगर तुम पेट से होना चाहती

हो तो तुम्हें रातभर इस कमरे में अकेले ही रहना होगा क्योंकि यह मेरा साधना कक्ष है. इस कक्ष में सोने से तुम्हारी गोद यकीनन हरी हो जाएगी.’’

अंजलि को इस कमरे में अकेले रात बिताने पर एतराज था. इस पर बाबा ने कहा, ‘‘इस कमरे में कोई और दरवाजा नहीं है और तुम अकेली ही रहोगी. तुम इस कमरे में अपने साथ लाए गए ताले को लगा लेना, जिस की एक चाबी तुम्हारी मां के पास रहेगी. कमरे में किसी के घुसने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

अंजलि बेमन से कमरे में रात बिताने को तैयार हुई. बाबा और उस की मां जब कमरे से बाहर निकलने लगे तो बाबा बोला, ‘‘अंजलि, जो प्रसाद मैं ने तुम्हें दिया है, उसे अभी खा लो.’’

अंजलि ने मिठाई खा ली. बाबा ने बाहर निकलने के बाद कमरे में ताला लगा कर चाबी अंजलि की मां को दे दी.

उधर मिठाई खाने के बाद अंजलि पर अजीब सी खुमारी छाने लगी थी. वह अपनी सुधबुध खोने लगी थी और उस की नींद तब खुली, जब दूसरे दिन की सुबह उस की मां ने बंद कमरे का दरवाजा खोला.

अंजलि कमरे से बाहर निकलते समय सोच रही थी कि उस मिठाई में ऐसा क्या था, जिसे खाने के बाद उसे अजीब सी खुमारी छा गई और इस के बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं चला. लेकिन वह बेफिक्र भी थी, क्योंकि

उस कमरे की चाबी उस की मां के पास थी और कमरे में घुसने का कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं था.

अंजलि को बाबा के आश्रम से लौटे 2 महीने बीत चुके थे कि एक दिन अचानक उसे उलटियां होने लगीं. उस ने अपने डाक्टर दोस्त रमेश से जब चैकअप कराया तो पता चला कि वह पेट से है.

डाक्टर रमेश की बात का अंजलि को यकीन ही नहीं हुआ क्योंकि उसे पति से अलग हुए 5 महीने से ऊपर बीत चुके थे, फिर वह पेट से कैसे हो सकती है?

अंजलि ने डाक्टर रमेश से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, आप एक बार फिर से रिपोर्ट देख लीजिए. कहीं ऐसा न हो कि जांच रिपोर्ट में कोई खामी हो.’’

लेकिन डाक्टर रमेश ने कहा कि उस की रिपोर्ट बिलकुल सही है और वह पेट से है.

घर पहुंचने पर अंजलि ने अपनी मां से पेट से होने की बात बताई तो मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन जब अंजलि बोली कि वह मोहन से 5 महीने से मिली ही नहीं है, तो ऐसा कैसे हो सकता है.

अंजलि बोली, ‘‘मां, बाबा के आश्रम में मेरे साथ रेप किया गया है. कहीं तुम ने बाबा के साधना कक्ष की चाबी किसी को दी तो नहीं थी?’’

मां बोली, ‘‘नहींनहीं, मैं ने सारी रात चाबी अपने पास ही रखी थी और सुबह दरवाजा भी मैं ने ही खोला था.’’

अंजलि यह बात मानने को तैयार न थी. उस का कहना था कि बाबा के आश्रम में ही रेप हुआ है, जिस के चलते वह पेट से हुई है. लेकिन उस की मां बाबा के खिलाफ एक बात सुनने को राजी न थी. वह तो इसे बाबा का चमत्कार मान रही थी.

अंजलि ने यह बात जब मोहन को फोन कर के बताई तो उस ने उस पर ही चरित्रहीन होने का लांछन लगा दिया और कभी भी फोन न करने की बात कह कर फोन काट दिया.

उधर अंजलि को अब पूरा यकीन हो चुका था कि उस रात बाबा के आश्रम में उस के साथ कोई तो हमबिस्तर हुआ था. हो न हो, उस कमरे में कोई गुप्त दरवाजा है जिस के रास्ते कोई उस कमरे में घुसता है और साधना कक्ष में पेट से होने के लालच में रात बिताने वाली औरतों के साथ रेप करता है.

अंजलि ने अब निश्चय कर लिया था कि वह उस पाखंडी बाबा की हकीकत दुनिया के सामने ला कर रहेगी.

अंजलि ने अपने मन की बात मां को बताई तो मां बाबा के खिलाफ जाने को तैयार न हुई, पर जब अंजलि ने अपनी जान देने की बात कही तो मां उस का साथ देने को तैयार हो गई.

अंजलि इस बार फिर बाबा के आश्रम पहुंची और उस ने बाबा को बताया कि वह उन के चमत्कार से पेट से तो हो गई है, लेकिन उस का पति उस से तलाक ले कर दूसरी शादी करने जा रहा है. ऐसे में वह नहीं चाहती है कि वह पेट से हो, इसलिए वह चमत्कार कर के उसे पेट से होने से रोक लें.

बाबा ने अंजलि को एक पुडि़या दे कर कहा, ‘‘तुम इस चमत्कारी भभूत का सेवन करो. इस से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे और पेट में पल रहा बच्चा भी अपनेआप छूमंतर हो जाएगा.’’

अंजलि बाबा के आश्रम से घर आई और उस बाबा द्वारा दी गई भभूत को डाक्टर रमेश के पास ले गई.

डाक्टर रमेश ने उस भभूत को लैब में टैस्ट के लिए भेजा तो उस में बच्चा गिराने की दवा निकली.

अब अंजलि को पूरा यकीन हो चुका था कि बाबा के आश्रम में औरतों के साथ जबरदस्ती सैक्स संबंध बनाने का खेल खेला जा रहा है.

अंजलि दोबारा उस बाबा के आश्रम में पहुंची और बाबा से बोली, ‘‘बाबा, आप की चमत्कारी भभूत के चलते पेट में पल रहा मेरा बच्चा अपनेआप छूमंतर हो गया है. मेरे पति मुझे अपनाने को तैयार हो गए हैं. उन्होंने एक शर्त रखी है कि इस बार मुझे वे तभी वापस ले जाएंगे, जब मैं वहां जाने पर पेट से हो जाऊं.

‘‘मैं चाहती हूं कि आप के चमत्कार से एक बार फिर मैं पेट से हो जाऊं, क्योंकि इस बार अगर मैं पेट से न हुई तो वे मुझे हमेशा के लिए छोड़ देंगे.’’

बाबा ने कहा, ‘‘तुम दोबारा पेट से हो सकती हो. बस, एक रात साधना कक्ष में गुजारनी होगी.’’

अंजलि साधना कक्ष में रात गुजारने को तैयार हो गई, पर इस बार उस ने पुलिस से मिल कर उस बाबा की असलियत बता दी थी. लेकिन पुलिस बिना सुबूत उस बाबा पर हाथ नहीं डाल सकती थी इसलिए पुलिस ने अंजलि को सुबूत इकट्ठा करने के लिए फिर से बाबा के पास जाने को कहा था.

इस बार अंजलि पूरी तैयारी के साथ बाबा के आश्रम में आई थी और बोली कि उस की माहवारी आने के बाद का 13वां दिन है.

साधना कक्ष में बैठा बाबा अंजलि के साथ आई दूसरी औरत को देख कर चौंक गया और पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

अंजलि ने बताया, ‘‘ये मेरी मौसी हैं. आज मां की तबीयत खराब होने के चलते मौसी के साथ आना पड़ा.’’

हकीकत तो यह थी कि अंजलि के साथ आई वह औरत पुलिस वाली थी. बाबा के आश्रम में महिला पुलिस भी श्रद्धालुओं के रूप में फैली हुई थी.

बाबा ने अंजलि को फिर वही मिठाई खाने को दी जो उस ने परची पर लिखी थी. लेकिन इस बार अंजलि को जरा भी हैरानी नहीं हुई क्योंकि उसे यह पता चल चुका था कि बाबा को परची पर लिखी गई हर बात पता चल जाती है. इस के पीछे कोई न कोई राज जरूर था, जिस से आज परदा उठने वाला था.

अंजलि इसी सोच में डूबी थी कि बाबा की आवाज उस के कानों में गूंजी, ‘‘अब तुम रात बिताने को तैयार हो. जाओ और मिठाई खा कर आराम करो.’’

इतना कह कर बाबा बाहर चला आया और अंजलि के साथ आई मौसी से साधना कक्ष में ताला लगवा कर अपनी आरामगाह में चला गया.

साधना कक्ष में बंद अंजलि ने इस बार बाबा की दी हुई मिठाई नहीं खाई. वह बाबा का हर राज जान लेना चाहती थी. उस ने जब कमरे को बारीकी से देखा तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया जिस से उस कमरे में आने के दूसरे रास्ते के बारे में पता चल पाए.

तभी अंजलि की नजर बाबा के साधना कक्ष के कोने में रखी अलमारी पर गई. उस ने जैसे ही अलमारी के दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खोला तो दरवाजा खुल गया.

यह देख कर अंजलि चौंक गई, क्योंकि वह नाममात्र की अलमारी थी. इस कमरे में घुसने का एक खुफिया दरवाजा था, जो दूसरे कमरे में जा कर खुलता था. बगल वाले कमरे में एक बड़ी सी स्क्रीन लगी हुई थी जो पूरे आश्रम का नजारा दिखा रही थी.

तभी अंजलि की नजर एक छोटी सी स्क्रीन पर गई. उस ने उस स्क्रीन पर चल रहे नजारों में जो देखा, उस के बाद उसे परची पर लिखी हर बात के बारे में बाबा को पता चल जाने का सारा राज समझ में आ गया था, क्योंकि जहां पर बैठ कर औरतें अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखती थीं, वहां आसपास छिपा हुआ कैमरा लगा था.

बाबा इस कमरे में बैठ कर जान लेता था कि किस ने कौन सी मिठाई का नाम लिखा है, फिर उस में वह बेहोशी की दवा मिला कर खुफिया दरवाजे से साधना कक्ष में आ जाता था.

अंजलि को उस कमरे में तरहतरह की मिठाइयां एक फ्रिज में रखी हुई भी मिल गई थीं. तभी उसे बगल के कमरे से कुछ खटपट की आवाज सुनाई दी. वह समझ गई कि इस कमरे में बाबा के आने का समय हो गया है. वह बड़ी सावधानी से साधना कक्ष में लौट आई. वह अपने साथ आई महिला पुलिस को फोन करना नहीं भूली.

अंजलि साधना कक्ष के बिस्तर पर बेहोशी का नाटक कर के पड़ी थी. बाबा साधना कक्ष में आ चुका था.

अंजलि सबकुछ कनखियों से देख रही थी. बाबा अपने कपड़े उतार चुका था. वह अंजलि के ऊपर झुकने ही वाला था कि अंजलि का झन्नाटेदार थप्पड़ बाबा के कान पर पड़ा.

बाबा खुद को संभालते हुए अंजलि पर झपटा लेकिन अंजलि का पैर बाबा के अंग वाले हिस्से पर पड़ा और वह गश खा कर गिर गया.

अंजलि जोर से चिल्लाई. इसी के साथ कमरे का दरवाजा भड़ाक से खुल गया और एकसाथ कई पुलिस वाले कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस आए.

बाबा खुद को संभालते हुए खुफिया दरवाजे की तरफ लपका. पुलिस वाले भी उसे पकड़ने के लिए उस तरफ लपके, लेकिन तब तक बाबा कहां छूमंतर हो गया, पता ही नहीं चला.

पुलिस चारों तरफ से आश्रम को घेर चुकी थी लेकिन बाबा आश्रम में कहीं नहीं मिला. तभी आश्रम की एक साध्वी ने जो बताया, उस से पुलिस वाले भी चौंक गए.

उस साध्वी ने बताया, ‘‘मेरी बहन भी इस बाबा के चक्कर में पड़ कर इस की शिष्या बन गई थी. लेकिन वह एक दिन बाबा का राज जान गई और उस ने बाबा की सारी करतूतों का वीडियो भी बना लिया था. तभी बाबा को यह बात पता चल गई और उस ने मेरी बहन को गायब करा दिया.

‘‘तब से मैं अपनी बहन की खोज में यहां पर बाबा की शिष्या बन कर उस के खिलाफ सुबूत इकट्ठा कर रही हूं. इसी दौरान आश्रम में बनाए गए खुफिया ठिकानों के बारे में भी मुझे पता चला.

‘‘बाबा ने आश्रम के अंदर एक खुफिया कमरा बना रखा है जिस में वह खुद के खिलाफ जाने वालों को न केवल कैद करता है बल्कि उन की हत्या कर के उन्हें वहीं दफना भी देता है.’’

उस शिष्या ने पुलिस वालों को आश्रम के पीछे झाड़झंखाड़ में बने एक गुप्त रास्ते से उस खुफिया कमरे तक पहुंचा दिया. वहां छिपा बाबा धर दबोचा गया. उस कमरे से पुलिस को भारी मात्रा में हथियार और कैद की गई औरतें भी मिलीं. उस कमरे में कई कब्रें भी थीं जिन की खुदाई से कई औरतों की अस्थियां बरामद हुईं.

अंजलि की सूझबूझ से पाखंडी बाबा के साधना कक्ष में औरतों के पेट से होने का राज खुल चुका था.

एक बार तो पूछा होता: मजाक हो तो ऐसा

‘‘पता नहीं क्यों किसीकिसी के साथ दम घुटता सा लगता है. जैसे आप की हर सांस पर किसी का पहरा हो या कोई हर पल आप पर नजर रख रहा हो. क्या ऐसे में दम घुटता सा नहीं लगता?’’ सीमा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा.

‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसतीखेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता.

ताकझांक: शालू को रणवीर से क्यों होने लगी नफरत?

वह नई स्मार्ट सी पड़ोसिन तरुण को भा रही थी. उसे अपनी खिड़की से छिपछिप कर देखता. नई पड़ोसिन प्रिया भी फैशनेबल तरुण से प्रभावित हो रही थी. वह अपने सिंपल पति रणवीर को तरुण जैसा फैशनेबल बनाने की चाह रखने लगी थी.

शाम को जब प्रिया बनसंवर कर बालकनी में पड़े झले पर आ बैठती तो तरुण चोरीछिपे उस की हर बात नोटिस करता. कितनी सलीके से साड़ी पहने चाय की चुसकियां लेते हुए किसी किताब में गुम रहती है मैडम. क्या करे मियांजी का इंतजार जो करना है और मियांजी हैं जो जरा भी खयाल नहीं रखते इस बात का. बेचारी को खूबसूरत शाम अकेले काटनी पड़ती है. काश वह उस का पति होता तो सब काम छोड़ फटाफट चला आता.

तरुण का मन गाना गाने को मचलने लगता, ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए…’ कितने ही गाने हैं हसीन शाम के ‘ये शाम मस्तानी…’ ‘‘तरु कहां हो… समोसे ठंडे हो रहे हैं,’’ तभी उसे सपनों की दुनिया से वास्तविकता के धरातल पर पटकती उस की पत्नी शालू की आवाज सुनाई दी.

आ गई मेरी पत्नी की बेसुरी आवाज… इस के सामने तो बस एक ही गाना गा सकता हूं कि जब तक रहेगा समोसे में आलू तेरा रहूंगा ओ मेरी शालू…

‘‘बालकनी में हो तो वहीं ले आती हूं,’’ शालू कपों में चाय डालते हुए किचन से ही चीखी.

‘‘उफ… नहीं, मैं आया,’’ कह तरुण जल्दी यह सोचते हुए अंदर चल दिया, ‘कहां वह स्लिमट्रिम सी कैटरीना कैफ और कहां ये हमारी मोटी भैं…’

तरुण ने कदमों और विचारों को अचानक ब्रेक न लगाए होते तो चाय की ट्रे लाती शालू से टकरा गया होता.

तरुण रोज सुबह जौगिंग पर जाता तो प्रिया वहां दिख जाती. तरुण से रहा नहीं गया. जल्द ही उस ने अपना परिचय दे डाला, ‘‘माईसैल्फ तरुण… मैं आप के सामने वाले फ्लैट…’’

‘‘हांहां, मैं ने देखा है… मैं प्रिया और वे सामने जो पेपर पढ़ रहे हैं वे मेरे पति रणवीर हैं,’’ प्रिया उस की बात काटते हुए बोली.

‘‘कभी रणवीर को ले कर हमारे घर आएं.मैं और मेरी पत्नी शालू ही हैं… 2 साल ही हुएहैं हमारी शादी को,’’ तरुण बोला.

‘‘रियली? आप तो अभी बैचलर से ही दिखते हैं,’’ प्रिया ने तरुण के मजबूत बाजुओं पर उड़ती नजर डालते हुए कहा, ‘‘हमारी शादी को भी 2 ही साल हुए हैं.’’ अपनी तारीफ सुन कर तरुण उड़ने सा लगा.

‘‘रणवीर साहब अपना राउंड पूरा कर चुके?’’

‘‘अरे कहां… जबरदस्ती खींच कर लाती हूं इन्हें घर से… 1-2 राउंड भी बड़ी मुश्किल से पूरा करते हैं.’’

‘‘यहां पास ही जिम है. मैं यहां से सीधा वहीं जाता हूं 1 घंटे के लिए.’’

‘‘वंडरफुल… मैं भी जाती हूं उधर लेडीज विंग में…  ड्रौप कर के ये सीधे घर चले जाते हैं… सो बोरिंग… चलिए आप से मिलवाती हूं शायद आप को देख उन का भी दिल बौडीशौडी बनाने का करने लगे.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं? मेरी पत्नी भी कुछ इसी टाइप की है… जौगिंग क्या वाक तक के लिए भी नहीं आती… आप मिलो न उस से. शायद आप को देख कर वह भी स्लिम ऐंड फिट बनना चाहे,’’ तरुण तारीफ करने का इतना अच्छा मौका नहीं खोना चाहता था.

‘‘कल अपनी वाइफ को भी यहीं पार्क की सैर पर लाइएगा.’’ फिर कल आप के पति से वाइफ के साथ ही मिलूंगा.

‘‘ओके बाय,’’ उस ने अपने हेयरबैंड को ठीक करते हुए बड़ी अदा से थ हिलाया.

‘‘बाय,’’ कह कर तरुण ने लंबी सांस भरी.

तरुण जानबूझ कर उलटे राउंड लगाने लगा ताकि वह प्रिया को बारबार सामने से आता देख पाएगा. पर यह क्या पास आतेआते खड़ूस से पति की बगल में बैठ गई. ‘चल देखता हूं क्या गुफ्तगू, गुटरगूं हो रही है,’ सोच वह झडि़यों के पीछे हो लिया. ऐसे जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो… किसी को शक न हो. वह कान खड़े कर सुनने लगा…

‘‘रणवीर आप तो बिलकुल ही ढीले हो कर बैठ जाते हो. अभी 1 ही राउंड तो हुआ आप का… वह देखो सामने से आ रहा है… अरे कहां गया… कितनी फिट की हुई है उस ने बौडी… लगातार मेरे साथ 5 चक्कर तो हो ही गए उस के अभी भी… हमारे सामने वाले घर में ही तो रहता है… आप ने देखा है क्या सौलिड बौडी है उस की…’’

‘अरे, यह तो मेरे बारे में ही बात कर रही है और वह भी तारीफ… क्या बात है…. तरु तुम तो छा गए,’ बड़बड़ा कर वह सीधा हो कर पीछे हो लिया. ‘खड़ूस माना नहीं… आलसी कहीं का… बेचारी रह गई मन मार कर… चल तरु तू भी चल जिम का टाइम हो गया है’ सोच वह जौगिंग करते हुए ही जिम पहुंच गया.

प्रिया को जिम के पास उतार कर रणवीर चला गया यह कहते हुए, ‘घंटे भर बाद लेने आ जाऊंगा… यहां वक्त बरबाद नहीं कर सकता.’

‘हां मत कर खड़ूस बरबाद… तू जा घर में बैठ और मरनेकटने की खबरें पढ़.’ मन ही मन बोलते हुए तरु ने बुरा सा मुंह बनाया, ‘और अपनी शालू रानी तो घी में तर आलू के परांठे खाखा कर सुबहसुबह टीवी सीरियल से फैशन सीखने की क्लास में मस्त खुद को निखारने में जुटी होंगी.’

दूसरे दिन तरुण शालू को जबरदस्ती प्रिया जैसा ट्रैक सूट पहना कर पार्क में ले आया.1 राउंड भी शालू बड़ी मुश्किल से पूरा कर पाई. थक कर वह साइड की डस्टबिन से टकरा कर गिर गई.

‘‘कहां हो शालू? कहां गई?’’ पुकार लोगों के हंसने की आवाजें सुन तरुण पलटा. शालू की ऐसी हालत देख उस की भी हंसी छूट गई पर प्रिया को उस ओर देखता देख खिसियाई सी हंसी हंसते हुए हाथ का सहारा दे उठा दिया.

प्रिया के आगे गोल होती जा रही शालू को देख तरुण को और भी शर्मिंदगी महसूस होती. घर पर उस ने साइक्लिंग मशीन भी ला कर रख दी पर उस पर शालू 10-15 बार चलती और फिर पलंग पर फैल जाती.

‘‘बस न तरु हो गया न आज के लिए… सुबह से कुछ नहीं खाने दिया, बहुत भूख लगी है. खाने दो  पहले आलू के परांठे प्लीज.’’ खाने के नाम से उस में इतनी फुरती आ जाती कि तरुण के छिपाए परांठे फटाफट उठा लाती और फटाफट खाने लगती.

‘‘तुम भी खा कर तो देखो मिर्च के अचार के साथ… बड़े टेस्टी लग रहे हैं… बाद में अपना घासफूस खा लेना,’’ परांठे का टुकड़ा उस की ओर बढ़ाते हुए शालू मुसकराई.

‘‘नो थैंक्स… तुम्हीं खाओ,’’ कह तरुण डाइनिंग टेबल पर रखे कौर्नफ्लैक्स दूध की ओर बढ़ गया.शालू टीवी खोल कर बैठ गई तो तरुण बाउल ले कर अपनी विंडो पर आ गया.

‘ओह आज तो सुबह से बड़ी चहलकदमी हो रही है… तैयार मैडम प्रिया सधे कदमों से हाईहील में खटखट करते इधरउधर आजा रही हैं,’ दिल में उस के जलतरंग सी उठने लगी. ‘लगता है किसी फंक्शन में जा रही है… उफ लो यह खड़ूस अपने जूते पहने यहीं आ मरा… बेटा, थ्री पीस सूट पहन कर हीरो नहीं बन जाएगा… बीवी की बात कभी तो मान लिया कर… थोड़ी बौडीशौडी बना ले,’ तरुण परदे के पीछे खड़ा बड़बड़ाए जारहा था.

‘काश, प्रिया जैसी मेरी बीवी होती… खटखट करते2 कदम आगे2 कदम पीछे करके मेरे साथ डांस करती… मैं उसे यों गोलगोल घुमाता,’ वह खयालों में खो गया.

एक दिन खयालों को सच करने के लिए तरुण शालू के नाप के हाईहील सैंडल ले आया. बड़े चाव से शालू को पहना कर उस ने म्यूजिक औन कर दिया. शालू को सहारा दे कर उस ने खड़ा किया. घुमाया तो शालू खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तरु मुझ से नहीं होगा… गिर जाऊंगी,’’ फिर अपनेआप को संभालने के लिए उसने तरुण को जो खींचा तो दोनों बिस्तर पर जा गिरे. तरुण को भी हंसी आ गई. थोड़ी देर तक दोनों हंसते रहे.

प्रिया को अपनी बालकनी से ज्यादा कुछ तो दिखाई नहीं दिया पर दोनों की हंसी बड़ी देर तक सुनाई देती रही.

‘अकसर दोनों की हंसीखिलखिलाहट सुनाई देती है. कितना हंसमुख है तरुण… अपनी पत्नी को कितना खुश रखता है और एक ये हैं श्रीमान रणवीर हमेशा मुंह फुलाए बैठे रहते हैं जैसे दुनिया का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर हो,’ प्रिया के दिल में हूक सी उठी तो वह अंदर हो ली.

थोड़ी देर बाद ही तरुण उठा और शालू को भी उठा दिया, ‘‘चलो, थोड़ी प्रैक्टिस करते हैं… कल 35 नंबर कोठी वाले उमेशजी के बेटे की सगाई है. सारे पड़ोसियों को बुलाया है. हमें भी. और रणवीर फैमिली को भी. खूब डांसवांस होगा. बोला है खूब तैयार हो कर आना.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तभी ये सैंडल…’’ शालू मुसकराई.

शालू फिर खड़ी हो गई. किसी तरह तरुण कमर में हाथ डाल कर डांस करवाने लगा. हंसते हुए शालू ने 2 राउंड लिए. फिर अचानक पैर ऐसा मुड़ा कि हील सैंडल से अलग जा पड़ी और शालू अलग.

‘‘तुम से कुछ नहीं होगा शालू… तुम ने अच्छेखासे सैंडल भी बेकार कर दिए.’’

‘‘ब्रैंडेड नहीं थे…  तो पहले ही लग रहा था पर आप को बुरा लगेगा इसलिए कहा नहीं. प्रिया को रणवीर हर चीज ब्रैंडेड ही दिलाते हैं. काश, मेरा पति भी इतना रईस होता,’’ कह शालू ने ठंडी आह भरी.

‘‘यह देखो क्या किया…’’ तरुण ने दोनों टुकड़े उसे थमा दिए.

शालू ने उन्हें क्विकफिक्स से चिपका दिया. बोली, ‘‘देखो तरु सैंडल बिलकुल सही हो गया. अब चलो पार्टी में.’’

‘‘हां पर डांसवांस तुम रहने ही देना… वहां तुम्हारे साथ कहीं मेरी भी भद्द न हो जाए,’’ तरुण बेरुखाई से बोला.

उधर रणवीर अपनी बालकनी में शालू की किचन से रोज आती आलू, पुदीने के परांठों की खुशबू से काफी प्रभावित था. पत्नी प्रिया के रोजरोज के उबले अंडे, दलिया के नाश्ते से त्रस्त था. कई बार चुपके से शालू की तारीफ भी कर चुका था और वह कई बार मेड के हाथों उसे भिजवा भी चुकी थी. आज सुबह भी उस ने परांठे भिजवाए थे.

शालू तरुण के साथ नीचे उतरी तो प्रिया और रणवीर भी आ चुके थे. रणवीर गाड़ी स्टार्ट कर रहा था.

‘‘आइए, साथ ही चलते हैं तरुणजी,’’ रणवीर ने कहा तो प्रिया ने भी इशारा किया. चारों बैठ गए.

रणवीर बोला, ‘‘परांठों के लिए थैंक्स शालूजी… आप के हाथों में जादू है… मैं अपनी बालकनी से रोज पकवानों की खुशबू का मजा लेता हूं… प्रिया को तो घी, तेल पसंद नहीं… न बनाती है न मु?ो खाने देना चाहती है. तरुणजी आप के तो मजे हैं. रोज बढि़याबढि़या पकवान खाने को मिलते हैं. काश…’’

‘अबे आगे 1 लफ्ज भी न बोलना… क्या बोलने जा रहा था तू,’ तरुण मुट्ठियां भींचते हुए मन ही मन बुदबुदा उठा.

इधर शालू महंगी बड़ी सी गाड़ी में बैठ एक रईस से अपनी तारीफ सुन कर निहाल हुई जा रही थी.

और प्रिया ‘हां फैट खूब खाओ और ऐक्सरसाइज मत करो. फिर थुलथुल बौडी लेकर घूमना इन्हीं यानी शालू के साथ… तरुणकी तारीफ में क्यों बोलोगे? क्या गठीली बौडीहै. काश मेरा हबी ऐसा होता,’ प्रिया मन हीमन बोली.

शालू पर उड़ती नजर पड़ी तो न जाने क्यों वह जलन सी महसूस करने लगी. गाड़ी के ब्रेक के साथ सभी के उठते विचारों को भी ब्रेक लगे. पार्टी स्थल आ गया था.

मेहमान आ चुके थे. फंक्शन जोरों पर था. मीठीमीठी धुन के साथ कोल्डड्रिंक्स, मौकटेल के दौर चल रहे थे. तभी वधू का प्रवेश हुआ. स्टेज से उतर लड़के ने उस का स्वागत किया और स्टेज पर ले आया. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सगाई की रस्म पूरी की गई.

सभी ने बारीबारी से स्टेज पर आ कर बधाई दी. लड़कालड़की की शान में कुछ कहना भी था उन्हें चाहे गा कर चाहे वैसे ही. सभी ने कुछ न कुछ सुनाया.

तरुण और शालू स्टेज पर आए तो प्रिया की हसरत भरी नजरें डैशिंग तरुण पर ही जमी थीं. तरुण ने किसी गीत की मुश्किल से 2 लाइन ही गुनगुनाईं और फिर बधाई गिफ्ट थमा शालू का हाथ थामे शरमाते हुए स्टेज से उतर गया.

‘ओह तरुण की तो बस बौडी ही बौडी है. अंदर तो कुछ है ही नहीं… 2 शब्द भी नहीं बोल पाया लोगों के सामने. कितना शाई… गाना भी पूरा नहीं गा सका,’ तरुण को स्टेज पर चढ़ता देख प्रिया की आंखों में आई चमक की जगह अब निराशा झलक रही थी. आकर्षण कहीं काफूर हो रहा था.

‘शालू, आप ऐसे कैसे जा सकती हो बगैर डांस किए. मैं ने आप का बढि़या डांस देखा है… मेरे हाथों में… आइएआइए,’’ उमेशजी की पत्नी आशाजी ने आत्मीयता से उसे ऊपर बुला लिया.

शालू ने तरुण को इशारा किया. शालू ने तरुण को इशारे से ही तसल्ली दी और सैंडल उतार कर स्टेज पर आ गई.

फरमाइश का गाना बज उठा. फिर तो शालू ऐसी नाची कि सभी उस के साथ तालियां बजाते हुए मस्त हो थिरकने लगे. तरुण ने देखा वैस्टर्न डांस पर थिरकने वाले लोग भी ठुमकने लगे थे… वह नाहक ही घबरा रहा था… शालू तो छा गई…

गाना खत्म हुआ तो प्रिया के साथ रणवीर स्टेज पर आ गया. उस ने अपनी ठहरी हुई आवाज और धाराप्रवाह में चंद शेरों से सजे संक्षिप्त वक्तव्य के द्वारा सब को ऐसा मंत्रमुगध किया कि सभी वंसमोर वंसमोर कह उठे. प्रिया भी उसे गर्व से देखने लगी कि कितने शालीन ढंग से कितने खूबसूरती से शब्दों को पिरो कर बोलता है रणवीर. उस के इसी अंदाज पर तो वह मर मिटी थी. उस ने कुहनी के पास से रणवीर का बाजू प्यार से पकड़ लिया था. दोनों ने फिर किसी इंगलिश धुन पर डांस किया.

अब डांस फ्लोर पर सभी एकसाथ डांस का मजा लेने लगे. डांस का म्यूजिक चल पड़ा था. स्टेज पर वरवधू भी थिरकने लगे. सभी पेयर में नृत्य कर रहे थे. कभी पेयर बदल भी लिए जा रहे थे. शालू ने धीरेधीरे तरुण के साथ 1-2 स्टेप लिए पर पेयर बदलते ही वह घबरा उठी और किनारे लगी सीट में एक पर जा बैठी. तरुण थोड़ी देर नई रस्म में शामिल हो नाचता रहा.

एक बार प्रिया भी उस के पास आ गई पर दूसरे ही पल वह दूसरे की बांहों में थिरकती तीसरी के पास पहुंच गई. तरुण को झटका सा लगा. कुछ अजीब सा फील होने लगा, ‘कैसे हैं ये लोग… रणवीर अपने में मस्त किसी और की पत्नी के साथ और उस की पत्नी प्रिया किसी और के पति के साथ… अजब कल्चर है इन का. इस से अच्छी तो मेरी शालू है.’ उस ने दूर अकेली बैठी शालू की ओर देखा और फिर उस के पास चला गया.

रणवीर ने देख लिया था, ‘उफ, शालू ने न तो खुद ऐंजौय किया और न पति को ही मजे लेने दिए. अपने पास बुला लिया… ऐसी पार्टियों के लायक ही नहीं वे… उधर प्रिया को देखो. कैसे एक हीरोइन सी सब की नजरों का केंद्र बनी हुई है. आई जस्ट लव हर…’ उसे नशा चढ़ने लगा था. कदमों के साथ उस की आवाज भी लड़खड़ाने लगी थी. रणवीर ने प्रिया को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो उस के कदम भी लड़खड़ाए और फिर फर्श पर जा गिरी. हड़कंप मच गया. क्या हुआ? क्या हुआ?

प्रिया दर्द से कराह उठी थी. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. रणवीर तो खुद उसे उठाने की हालत में न था. तरुण और शालू ने जैसेतैसे अस्पताल पहुंचाया.

उमेशजी अपने ड्राइवर को गाड़ी ड्राइव करने के लिए बोल रहे थे पर रणवीर माना नहीं. रास्ते भर तरुण, उस की इधरउधर भागती गाड़ी के स्टेयरिंग को मुश्किल से संभालता रहा. पर इस सब से बेखबर शालू महंगी गाड़ी में बैठी एक बार फिर अपने रईस पति की कल्पना में खो गई थी.

प्रिया घर आ गई थी. उस के पैर में प्लास्टर चढ़ गया था. लाते समय भी शालू और तरुण अस्पताल पहुंचे थे. तभी एक गरीब महिला रोती हुई आई और सब से अपने बच्चे के लिए खून देने के लिए गुहार करने लगी.

‘‘तुम प्रिया मैडम के पास चलो शालू. मैं अभी आता हूं,’’ कह तरुण ने शालू से कहा तो वह उस का आशय समझ गई.‘‘अभी 10 दिन भी नहीं हुए तुम्हें खून दिए तरुण,’’ शालू बोली.

तरुण नहीं माना. उस गरीब को खून दे आया. फिर प्रिया को उस के फ्लोर पर सहीसलामत पहुंचाया. अगले दिन बौस से डांट भी खानी पड़ी. औफिस पहुंचने में लेट जो हो गया था.

‘तरुण भी न दूसरों की खातिर अपनी परवाह नहीं करता,’ शालू औटो में बैठी सोच रही थी.

अपने ब्लौक के गेट के पास आने पर उसे एक संतरे की रेहड़ी वाला दिखा. उस ने औटो रुकवाया और उतर कर औटो वाले को पैसे देने लगी.

तभी वहां से हवा में बातें करती एक लंबी सी गाड़ी गुजरी. वह रोमांचित हो उठी. उस ने सिर उठा कर देखा, ‘अरे ये तो हमारे पड़ोसी रणवीर हैं. काश, उस का पति भी कोई बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ी वाला होता.’ शालू अभी यह सोच ही रही थी कि वही गाड़ी उलटी साइड से आ कर रेहड़ी वाले से जा टकराई. रेहड़ी उलट गई और रेहड़ी वाला छिटक कर दूर जा गिरा. उस के संतरे सड़क पर चारों ओर बिखर गए. शालू ने साफ देखा था. गाड़ी गलत साइड से आ कर रेहड़ी वाले से टकराई थी. फिर भी रणवीर ने तमाचे उस गरीब को जड़ दिए. फिर चीख कर बोला, ‘‘देख कर नहीं चल सकता?’’

‘‘साहबजी…’’ आंसू बन रेहड़ी वाले का दर्द आंखों में उतर आया. वह हाथ जोड़े इतना ही बोल सका.

‘‘ये पकड़ अपने नुकसान के रुपए… ज्यादा नाटक मत कर… कुछ नहीं हुआ… अब जल्दी सड़क साफ कर,’’ कह रणीवर ने उसे 2 हजार का 1 नोट दिया. शालू रणवीर का क्रूर व्यवहार देखती रह गई कि इतना अमानवीय बरताव…

उस की महंगी गाड़ी फिर तेजी से उस की आंखों से ओझल हो गई. शालू को इस समय कोई रोमांच न हुआ, बल्कि उसे अपनी आंखों में नमी सी महसूस होने लगी. उस ने पर्स से रुमाल निकाल कर रेहड़ी वाले के माथे से रिसता खून पोंछ कर बैंडएड चोट पर चिका दी. फिर संतरे उठवाने में उस की मदद करने लगी.

‘‘रहने दीजिए मैडमजी मैं उठा लूंगा,’’ रेहड़ी वाले के पैरों और हाथों में भी चोटें थीं.

शालू ने नजरों से ओझल हुई उस गाड़ी की ओर देखा. वहां सिर्फ धूल का गुबार था, जिस ने उस की सपनीली कल्पना को उड़ा कर रख दिया कि शुक्र है उस का तरुण महंगी बड़ी गाड़ी में घूमने वाले ऐसे छोटे दिल के घटिया इंसान की तरह नहीं है. न जाने उस ने कितनी बार तरुण को ऐसे जरूरतमंदों की मदद करते देखा है. रईस ही तो है वह. वास्तव में बड़े दिल वाला रईस. शालू को तरुण पर प्यार आने लगा और फिर वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चली.

Mother’s Day 2024- मां: गु़ड्डी अपने बच्चों को आश्रम में छोड़कर क्यों चली गई

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

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‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

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‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

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‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

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इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.            द्य

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