लेखक- इरफना परवीन

मैंचांद साधारण घर से थी. मुझे याद है कि मेरे पापा के पास हम 6 बहनभाई को अच्छा खिलाने और पहनाने के बाद कोई खास पूंजी नहीं बचती थी. जैसे ही मैं ने कालेज किया, लोगों ने मेरी शादी के बारे में बात करना शुरू कर दिया. मैं इस के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थी. मुझे अभी भी पढ़ना था और मेरा परिवार भी अभी शादी करने के बारे में ज्यादा नहीं सोच रहा था. वजह न जाने क्या थी, पर वे लोग तैयार नहीं थे.

मेरी जिंदगी गुजरती जा रही थी. मैं ट्यूशन क्लास दे कर जो भी कमाती थी, सब खानेपहनने पर ही खर्च कर देती थी. नौकरी करने की इजाजत नहीं थी, क्योंकि ऐसा माना जाता था कि मुसलिम लड़कियां नौकरी नहीं करतीं.

मैं देखने में कोई ज्यादा खूबसूरत नहीं थी. मेरा रंग थोड़ा गहरा था. वैसे भी मैं दुबलीपतली थी और सोने पर सुहागा यह कि मेरे दांत भी थोड़े आगे निकले हुए थे. सब लोग मुझे ‘काली’, ‘दांतों’ और न जाने क्याक्या कह कर बुलाते. किसी को कभी मेरी ऐजूकेशनल क्वालिटी नजर न आती.

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इन बातों को सुन कर कभी मैं भावुक हो कर रोती, तो कभी गुस्से में आ कर बहस करती, ‘‘जाओ, ऊपर वाले से जा कर लड़ो, जिस ने मुझे ऐसा बनाया.’’

मैं अपनी मां से कहती, ‘‘मां, मुझे काली क्यों पैदा किया? मुझे भी खूबसूरत पैदा करती...’’

मेरी मां कभी मुझे शांत हो कर देखती रह जातीं और कभी समझातीं. मैं ने 26 साल का आंकड़ा पार कर लिया था. इन सालों में मैं ने डबल सब्जैक्ट्स में मास्टर्स की डिगरी हासिल की थी.

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