रघुवर  को कब शराब के शौक ने घेर लिया, उसे एहसास ही नहीं हुआ. उसकी ऐसे-ऐसों से मित्रता हो गई कि जो अपने आप में इस क्षेत्र के अखंड खिलाड़ी थे.  कहते हैं न, आदमी को एक ऐब पकड़ता है, तो दूसरे ऐब भी आने घेरने लगते हैं, सो रघुवर दास को दूसरी कई बुराइयों ने भी भी  जकड़ लिया.  परिणाम स्वरूप कोयला खान जाते समय नूर होटल में बैठकी भी जमने लगी है.

वहां खूब खाते-पीते और दूसरों की भी सेवा करते. फिर संध्या समय लौटते, तो बैठकी होती. धीरे धीरे हाथों में पैसे की तंगी होने लगी तो एक मित्र रामनारायण ने कहा, -"तुम्हें कितने पैसे चाहिए.... मैं हूं न ."

रघुवर  का चेहरा खिल गया.

रामनारायण ने कहा, - “ चलो, प्रभात  के पास, कितना पैसा चाहिए, मैं ब्याज में दिलवाता हूं ."

रघुवर ने मालिक राम की ओर देखा तो उसने भी सिर हिला कर पुष्टि की,-" कभी कभी मैं भी लेता हूं ."

-" कितना ब्याज है ." संशय से भर कर रघुवर दास ने जानना चाहा.

- "देखो, कम पैसे कम लोगे तो 10% ज्यादा लोगे तो 8% ."

" भैय्या, ऐसा क्यों ?"

- "हम भी स्वयं खुद लेते हैं ! ऐसा तो सभी जगह है... आखिर उन्हें भी तो बाल बच्चे पालने हैं, फिर कितना रिस्क है...घर से पैसे निकाल कर देते हैं . मजाक है क्या."

रामनारायण ने बात समझायी तो रघुवर सहमत हो गया.

अब शराब के लिए पैसे ब्याज पर लिए जाने लगे थे. शुरू में रघुवर को लगा वह गलत कर रहा है, यह भविष्य के लिए घातक है मगर तब तक मदिरा का आनंद सर चढ कर बोलने लगा था. मित्रों ने समझाया था,- "हम लोग  कोयला खदान में काम करने वाले लोग हैं, अगर हमें स्वस्थ रहना है तो शराब पीनी होगी . नहीं पियोगे तो हाथ पैर में दर्द रहेगा, काम नहीं कर पाओगे...मन नहीं लगेगा ."

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