गांव की औरतें: हालात बदले, सोच वही

राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी  झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.

उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.

गांव को ले कर तमाम दूसरी फिल्मों में भी ऐसे सीन देखने को मिल सकते हैं. ‘मदर इंडिया’, ‘शोले’, ‘नदिया के पार’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘तीसरी कसम’, ‘लगान’ जैसी तमाम फिल्मों में गांव के सीन दिखते हैं.

इन फिल्मों को देखने के बाद आज के गांव देखेंगे तो लगेगा कि गांव बेहद बदल गए हैं. अब गांव की लड़कियों को जींस, स्कर्ट, टौप में देख सकते हैं.

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फिल्म ‘नदिया के पार’ जैसे सीन अब गांवों में नहीं दिखते हैं. न वैसा पहनावा दिखता है और न ही वैसी बोली. 21वीं सदी के गांव ऊपर से देखने में

बहुत बदले दिखते हैं, विकसित दिखते हैं, पर अब वहां के लोगों की सोच में कट्टरपन आ गया है, जिस की वजह से गांव पहले के मुकाबले आज ज्यादा पिछड़े दिखने लगे हैं.

सोच में बढ़ रहा कट्टरपन

देश के ज्यादातर गांवों में पिछले 20-25 साल के मुकाबले हालात बदले हुए दिख रहे हैं. गांव वालों के पहनने के कपड़े बदल गए हैं. पहले की तरह कच्चे मकान कम दिखते हैं. गांव की गलियों में खड़ंजे लग गए हैं, जिस की वजह से गांव की गलियां पक्की दिखने लगी हैं. गांव की दुकानों में पैकेटबंद सामान मिलने लगे हैं. चाय, छाछ और दूध की जगह कोल्डड्रिंक पीने का चलन बढ़ गया है.

गांव के करीब तक पक्की सड़कें पहुंच गई हैं. शादीब्याह और दूसरे मौकों पर होने वाली रौनक बढ़ गई है. गांव में सरकारी स्कूल हैं, पर उन में पढ़ने वाले बच्चे कम हैं. प्राइवेट स्कूलों का चलन बढ़ गया है.

पर अगर नहीं बदली है तो गांव के रहने वालों की सोच. इस सोच में जाति और धर्म के लैवल पर कट्टरपन और छुआछूत पहले के मुकाबले बढ़ गई है. एकदूसरे के प्रति सहयोग की भावना कम हो गई है.

गांव में चौपालें अब लगती नहीं दिखती हैं. एकएक गांव में कईकई गुट बन गए हैं. नई उम्र के लोग गांव में कम दिखते हैं. गांव की जगह कसबों के बाजारों और शहरों में लोग काम करने चले जाते हैं.

पहले के लोग कम पढ़ेलिखे होते थे, पर सम झदार और सहनशील होते थे. इस वजह से गांव में  झगड़े कम होते थे और जब होते थे तो आपस में मिलबैठ कर लोग सुल झा लेते थे. पंचों का कहना सभी मानते थे. पर अब जब तक कोई मसला थाने और तहसील तक नहीं पहुंचता है, तब तक वह हल नहीं होता है.

इस की वजह से थाने और तहसील की नजर में गांव दुधारू पशु जैसे हो गए हैं. अगर गांव के  झगड़े वहीं निबट जाएं तो पुलिस और वकील पर खर्च होने वाला इन का पैसा भी बचेगा.

गांवदेहात में दलित और ऊंचे तबके के लोगों के बीच आपसी दुश्मनी में दलित ऐक्ट का इस्तेमाल तेजी से बढ़ गया है. इस से समस्या का समाधान नहीं होता है. पुलिस जांच के नाम पर ज्यादा पैसा मांगती है. कई बार दलित ऐसे  झगड़ों में मोहराभर होते हैं. दलित ऐक्ट लगने से जमानत जल्दी नहीं मिलती. आरोपी को ज्यादा दिन जेल में रहना पड़ता है.

एसपी रैंक के एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘गांव के  झगड़ों में औरतें और दलित मोहरा बन कर रह गए हैं. लोग दलित और औरतों को आगे कर के दलित ऐक्ट और बलात्कार के  झूठे मुकदमे लिखा कर अपने विरोधी को परेशान करने लगे हैं.’’

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पहनावा बदला, सोच नहीं

पुराने समय में गांव की ज्यादातर औरतें सूती धोती पहनती थीं. इस के नीचे वह पेटीकोट या ब्लाउज नहीं पहनती थीं. पैरों में चप्पल कम ही होती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बाल दिखने लगते थे. साबुन, क्रीम, पाउडर का इस्तेमाल कम होता था. गांव की औरतें बाल नहीं कटाती थीं. वे हाटबाजार में खरीदारी करने नहीं जाती थीं. घर के बाहर कम निकलती थीं, परदा प्रथा ज्यादा थी.

अब हालात में बदलाव दिखता है. औरतें पहले से भी ज्यादा कट्टर हो गई हैं. करवाचौथ की पूजा पहले गांवदेहात में कम होती थी. अब ज्यादा होने लगी है. गांवगांव में देवी की पूजा ज्यादा होने लगी है. प्रवचन और भजन होने लगे हैं. गांव में ऐसे मौकों पर सब से ज्यादा औरतें ही वहां दिखती हैं.

गांव की औरतें पहले खेतों में काम और पशुओं की देखभाल करती थीं, पर अब वे यह नहीं करती हैं. हां, भजन और प्रवचन सुनने में समय जरूर गंवाने लगी हैं. पढ़ीलिखी लड़कियां भी पूजापाठ में लगी रहती हैं. अच्छा दूल्हा मिल जाए, अच्छी शादी हो जाए, इस के लिए सावन के 16 सोमवार का व्रत रखने लगती हैं.

धार्मिक कहानियों में बताया जाता है कि जो लड़की सावन के 16 सोमवार  का व्रत रखेगी, उसे अच्छा दूल्हा यानी वर मिलेगा. पुराणवादियों ने यह सोच इसलिए फैलाई है, ताकि नौजवान पीढ़ी दिमागी तौर से उन की गुलाम बनी रहे.

गांव की लड़कियों के जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वाली शालिनी माथुर कहती हैं, ‘‘गांव की लड़कियों की सोच में कट्टरपन आ गया है. वे यह सोचती हैं कि पूजापाठ और धार्मिक कर्मकांड से ही उन का भला होगा. पिछले कुछ सालों में यह सोच तेजी से बढ़ रही है.

‘‘सब से ज्यादा कड़वाहट तो हिंदूमुसलिम को ले कर बढ़ी है. पहले गांव के लोग ईद हो या होलीदीवाली, सब साथ मिल कर मनाते थे, पर अब ये त्योहार भी आपसी दूरियों को कम नहीं कर पा रहे हैं.

‘‘परेशानी की बात यह है कि कट्टरपन का विरोध करने वालों की संख्या में कमी आती जा रही है. लव जिहाद जैसे मसले ये दूरियां और भी ज्यादा बढ़ा रहे हैं. हिंदूमुसलिम लड़केलड़की की दोस्ती को केवल लव जिहाद के रूप में देखना बेहद खतरनाक सोच बन गई है.’’

सेहत पर भारी पुरानी सोच

माहवारी को आज भी गंदगी से जोड़ कर देखा जाता है. आज भी माहवारी होने पर औरतें अछूत सी हो कर रह जाती हैं. उन्हें नहाने तक नहीं दिया जाता है. लोगों से मिलनेजुलने की भी मनाही होती है.

माहवारी के दिनों में औरतों को कहा जाता है कि वे अचार को न छुएं. उन के ऐसा करने से अचार के खराब हो जाने का खतरा हो जाता है. माहवारी में औरतों को खाना बनाने और रसोई में जाने से रोका जाता है.

महिलाओं में माहवारी सुरक्षा को ले कर जागरूकता अभियान में लगी अंजलि श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘गांव में माहवारी को ले कर पुरानी सोच अभी भी कायम है. गांव की 70 फीसदी औरतें माहवारी के दिनों में कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी वे सैनेटरी पैड इस्तेमाल करने को तैयार नहीं हैं.

‘‘बहुत सारे ऐसे घर हैं, जो पक्के बने हैं. जिन की माली हालत अच्छी दिखती है. जिन घरों में पैसों को ले कर कोई परेशानी नहीं है, वहां की औरतें भी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं.

‘‘पहले की औरतें इसलिए इस्तेमाल नहीं करती थीं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती थी. आज की औरतों को टैलीविजन और दूसरे जरीयों से यह पता तो चल जाता है कि सैनेटरी पैड को इस्तेमाल न करना खराब होता है, इस के बाद भी वे कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. इस से उन के अंगों में इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है. सफेद पानी की समस्या और खुजली भी होने लगती है.

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‘‘कई बार ऐसी औरतें इंफैक्शन होने के चलते बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहती हैं. इस के बाद भी वे अपनी सेहत की चिंता नहीं करती हैं.’’

पढ़ाईलिखाई पर नहीं जोर

पहले गांव के लड़केलड़कियां इसलिए पढ़ते थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. पर आज के दौर में सरकारी और निजी दोनों ही किस्म की नौकरियां खत्म सी हो गई हैं. ऐसे में गांव के लड़केलड़कियां पढ़ाई की उम्र में ही मेहनतमजदूरी करने शहर चले जाते हैं, जहां वे घरेलू नौकर के रूप में भी काम करने लगते हैं.

कई बार पूरे के पूरे परिवार अपने गांव से दूर शहर में घरेलू नौकरी करने लगते हैं. लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में तमाम ऐसे अपार्टमैंट्स बने हैं, जहां सैकड़ों की तादाद में औरतें घरेलू काम करती मिल जाती हैं.

वे खाना बनाने और साफसफाई करने के एवज में हर घर से तकरीबन 1,500 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हर महीना लेती हैं. ऐसे में बहुत सी तो 15,000 से 20,000 रुपए महीना कमा लेती हैं. वे अपनी छोटी उम्र की लड़कियों को भी स्कूल भेजने की जगह पर घरेलू काम पर लगा देती हैं.

35 साल उम्र की शिवानी अपनी  12 साल की बेटी के साथ यही काम करने जाती है. वह कहती है, ‘‘पति अब मजदूरी नहीं कर पाते. डाक्टर ने उन्हें बो झा उठाने के लिए मना किया है. ऐसे में अब हम मांबेटी ही काम कर के घर का खर्च चलाती हैं.’’

थोड़ाबहुत पैसा आने के बाद ये लोग अपने हालात को भूल कर बड़े लोगों की तरह रहने के लिए उन की बराबरी करने लगते हैं. बड़े लोगों की तरह ही पूजापाठ, व्रत, तीजत्योहार मनाने लगते हैं. पैसा बचाने के लिए कम ही कोशिश करते हैं. ज्यादातर मर्द नशे और जुए की लत के शिकार हो जाते हैं. फिर वे अपनी औरतों को पीटने से बाज नहीं आते हैं.

समाजसेवी इंदु सुभाष कहती हैं, ‘‘पढ़ीलिखी होने के बाद भी बहुत सी औरतें पति द्वारा की गई पिटाई को अपनी किस्मत मान कर चुप रहती हैं. उन्हें लगता है कि उन का पति ही उन का देवता है. जो पति कर रहा है, वह उचित ही होता है. कमाई करने के बाद भी ऐसी औरतें मर्द के पैर की जूती बने रहने में ही फख्र महसूस करती हैं, जिस की वजह से घरेलू हिंसा बढ़ती है. इस का बुरा असर बच्चों पर भी पड़ता है.

‘‘पढ़नेलिखने और नए कानूनों के बाद भी इस रूढि़वादी सोच में बदलाव नहीं आ रहा है. देखने में गांव के हालात और औरतों की जिंदगी भले ही बदली दिखती हो, पर सही माने में सोच वही पुरानी और दकियानूसी है.’’

“ठग” जब स्वयं ठगी का शिकार बना!

ऐसा ही एक मसला है शंकर रजक का जिसने जाने कितने लोगों को ठगी का शिकार बनाया. यही नहीं ठगी के  पैसों के बल पर राजनीतिक पहुंच भी बना ली, एक समय ऐसा भी था जब उसका चारों तरफ डंका बज रहा था. ठगी के पैसों के दम पर शासन प्रशासन को अपने हथेली पर रखने वाला शंकर रजक कैसे बर्बाद हो गया और किस तरह खुद ठगी का शिकार हुआ, यह एक रोचक कहानी है जो यह बताती है कि ईमान की रोटी और ईमानदारी का व्यवहार लंबे समय तक टिकता है. और ठगी करने वाले अंततः कानून के शिकंजे में फंस कर जेल में चक्की पीसते हैं.

ठगी से अकूत संपत्ति बनाई

दर्जनों ठगी की घटनाओं को अंजाम देकर करोड़ों रूपए ठगने वाला शंकर रजक एक किंवदंती बनता चला गया है.

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आपको यह बताते चलें कि ठगी के इस बेताज बादशाह को निकट से देखने का अवसर इस लेखक को भी मिला है. उसने यह बताया था कि वह एक ठेकेदार के यहां नौकरी करता था एक दिन खेत में उसे हीरे मोती और सोना चांदी का बॉक्स मिल गया था और फिर जिंदगी बदल गई.

दरअसल, शंकर रजक बहुत ही शातिर किस्म का ठग था. वह झूठी कहानी गढ़ करके अपनी इमेज बनाता रहा लोगों को ठगता चला गया. निसंदेह उसके जीवन पर एक रोचक फिल्म भी बन सकती है.

अब आपको बताते चलें कि किस तरह शंकर रजक ठगी का शिकार हो गया है. आज वह जेल में बंद ठगी के मुकदमों में उलझा हुआ है. इस दरमियान एक व्यक्ति ने अपने दो बेटों के साथ मिलकर रजक की मां से बोलेरों की चाबी ले ली और पीपी फार्म में फर्जी हस्ताक्षर कर उसे बेच दिया.

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वस्तुत: शंकर रजक और छुरी निवासी शत्रुहन लाल देवांगन के बीच गहरी दोस्ती थी. करीब चार साल पहले शंकर के खिलाफ जमीन बेचने के नाम पर ठगी किए जाने के नाम से सिलसिले वार मामले सामने आने शुरू हुए. जिले में ही नहीं बल्कि राज्य के अन्य जिलों में भी एक दर्जन से अधिक धोखाधड़ी के मामले शंकर व उसके पुत्र के खिलाफ दर्ज किए गए.

यहां यह जानना आपके लिए जरूरी होगा कि बड़े-बड़े नेताओं के संबंध के बावजूद कानून से शंकर रजक बच नहीं पाया और अपने पुत्र सहित जेल पहुंच गया  इस बीच शत्रुहन उसका पुत्र आकाश देवांगन व कमल देवांगन शंकर के घर पहुंचे और उसकी मां मुलरिया बाई को गुमाराह कर बोलेरो क्रमांक सीजी 12 एजी 8997 की चाबी प्राप्त कर ली.  बाद में शंकर रजक ने शत्रुहन से बोलेरो की जानकारी ली तो पुराना पैसे की लेन देन का हवाला देते हुए गाड़ी बेच देने की बात कहने लगा.ठगों के सरदार शंकर को यह जानकारी हाथ लगी कि उसका फर्जी हस्तारक्षर कर गाड़ी का रजिस्ट्रेशन करा दिया गया है तो आवाक रह गया.  अब नई परिस्थितियों में ठग शंकर रजक की शिकायत पर पुलिस शत्रुहन व उसके दोनों पुत्रों के खिलाफ मामला पंजीबद्ध कर लिया है.

प्यार की झूठी कसमें

लेखिका- किरण बाला

‘‘तुम्हारी कसम, मैं तुम से दिल से प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर एक पल भी नहीं रह सकता. यकीन न हो तो तुम्हारे कहने पर अपनी जान भी दे सकता हूं.’’

विशाल और नेहा के बीच कुछ समय से अफेयर चल रहा था. पहले वे लुकछिप कर मिलते थे. फिर उन के बीच फिजिकल रिलेशन भी बनने लगे. नेहा ने कईर् बार उस से कहा कि यदि तुम मुझ से प्यार करते हो तो घर आ कर मेरे पापा या भैया से बात क्यों नहीं करते?

विशाल यह कह कर बात टाल देता कि शीघ्र ही वह आ कर उस के परिजनों से बात करेगा. इसी बीच उसे पता चला कि विशाल ने किसी अन्य लड़की से सगाई कर ली.

नेहा के पैरोंतले जमीन खिसक गई. जो विशाल कल तक प्यार की कसमें खाते नहीं थकता था, वह उसे इस तरह धोखा दे देगा, यह उस ने सपने में भी न सोचा था.

विशाल को फोन कर नेहा ने व्यंग्य किया, ‘‘सगाई की बहुतबहुत बधाई.’’

‘‘नेहा, तुम मेरी मजबूरी समझो. पेरैंट्स के दबाव की वजह से मुझे रिश्ता स्वीकारना पड़ा. मुझे माफ कर देना.’’ ऐसा कह कर विशाल ने पल्ला  झाड़ लिया.

प्रेमी द्वारा प्यार की  झूठी कसमें खाने और फिर उस के मुकर जाने से नेहा का प्यार पर से विश्वास उठ गया.

यह तो एक उदाहरण मात्र है. विशाल की भांति ऐसे कई लड़के हैं जो प्रेम का नाटक करने में माहिर हैं और  झूठी कसमें खा कर लड़की के जज्बातों से खेलते हैं. उन के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं और जब वे प्रैग्नैंट हो जाती हैं तो उन का अबौर्शन करा देते हैं या उन की कोख में पल रहे बच्चे को अपना मानने से इनकार कर देते हैं. उन से शादी करना तो दूर, दूध में मक्खी की भांति उन्हें बाहर निकाल फेंकते हैं.

आमतौर पर लड़कियां भोली होती हैं. वे अपने प्रेमियों पर भरोसा कर लेती हैं. जब प्रेमी प्यार की कसमें खाता है तो उस पर अविश्वास करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता. लेकिन जब प्रेमी के मन में पहले से ही दुर्भावना हो तो उसे प्रेमिका को धोखा देते देर नहीं लगती. वक्त पर वह पाला बदल लेता है और प्रेमिका देखती रह जाती है.

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उन प्रेमियों की कमी नहीं है जो आसमान से चांदतारे तोड़ कर लाने की कसमें खाते हैं, लेकिन क्या आज तक कोई भी प्रेमी अपनी यह कसम पूरी कर सका है?

प्रेमिका को रिझाने के लिए या अपने प्यार का यकीन दिलाने के लिए प्रेमी अपनी जान देने की बात करते हैं, लेकिन क्या प्रेमियों ने अपनी जान दे कर अपनी कसम को पूरा किया है? जाहिर है ये कसमें छलावा मात्र हैं.

जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे किसी तरह की कसमें नहीं खाते और न ही उन्हें इस की जरूरत होती है. ये तो उन कथित प्रेमियों के हथकंडे हैं जो लड़कियों को एक भोग वस्तु सम झते हैं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. इसलिए उन का शारीरिक और मानसिक शोषण करने में उन्हें जरा भी लाजशर्म नहीं आती.

आप का प्रेमी सच्चा है या  झूठा, इस का परीक्षण आप कई स्तरों पर कर सकती हैं. जो सच्चा प्यार करता है वह कभी भी आप से शरीर की मांग नहीं करेगा. अन्य शब्दों में, शारीरिक संबंध के लिए न तो बाध्य करेगा, न इस के लिए उकसाएगा. बल्कि यदि आप आगे हो कर इस की पहल करती हैं तो वह सख्ती से रोकेगा. उस की नजर में शादी के पूर्व शारीरिक संबंध बनाना ठीक नहीं.

सच्चा प्रेमी शारीरिक संबंधों के लिए शादी तक इंतजार करेगा. इस के विपरीत, प्रेम का नाटक करने वाला येनकेन प्रकारेण आप से शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करेगा. शादी करने का वादा कर के संबंध बनाने हेतु विवश कर देगा. वह तरहतरह की झूठी कसमें खा कर आप को यकीन दिला देगा ताकि आप शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति दे दें. लेकिन वह आप से शादी कभी करेगा ही नहीं. उस का इरादा तो शुरू से ही धोखा देना होता है.

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सच्चा प्रेमी सुखदुख में साथ देने की कसमें खाता नहीं बल्कि जरूरत पड़ने पर हाजिर होता है. जबकि  झूठे प्रेमी विपत्ति की घड़ी का बहाना बना कर कन्नी काट लेते हैं क्योंकि उन्हें उस के सुखदुख से कोई वास्ता नहीं होता.

हर लड़की को इस बात की सम झ होनी चाहिए कि वह सच्चे और  झूठे प्रेमी में अंतर कर सके. कसमें तो होती ही तोड़ने के लिए हैं. इसलिए उन पर यकीन न करें. एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि शादी से पूर्व अपना शरीर उस के हवाले न करें. सच्चा प्रेमी आप के कहने पर आप के परिजनों से मिलेगा. जबकि  झूठा प्रेमी परिजनों से मिलने का वादा तो करेगा लेकिन मिलेगा कभी नहीं. इसलिए सावधान रहें,  झूठे प्रेमी और उन की  झूठी कसमों से.

जादू टोना : और एक महिला ने  दी अग्नि परीक्षा!

हम चाहे जितना भी आधुनिक होने का ढोल पीट लें, हम चाहे जितना भी दुनिया जहान में आधुनिक होने, विकासशील होने का दंभ भरें. मगर सच्चाई यह है कि आज भी देश के ग्रामीण अंचल में महिला को अग्नि परीक्षा देकर के अंगारों पर चलना पड़ता है, तब जाकर के समाज और परिवार की भौंहे ढीली पड़ती है.

कोई आपसे यह कहें कि आज भी भारत में अग्नि परीक्षा का वही समय चल रहा है जो कथित रूप से राम राज्य में था तो आप निश्चित रूप से इसे नहीं मानेंगे. और आपकी ही तरह शासन प्रशासन ने भी इसे व्यक्तिगत मामला कह कर के पल्ला झाड़ लिया है इसका अभिप्राय यह है कि कानून की किताब में इसका कोई उल्लेख नहीं होगा और ना ही संसद या विधानसभा में इस पर कोई चर्चा होगी.

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जी हां!  यह सच्चाई एक बार पुनः देश के सामने है. जब घर परिवार की एक घरेलू महिला को परिवार में प्रताड़ित होकर के इस दफा सास के समक्ष अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है.और सबसे मजेदार बात यह है कि समाज कानून शासन आज भी  आंख बंद करके कानों को ढक करके मौन है.

यह सच्ची कहानी है मध्य प्रदेश के जिला छिंदवाड़ा के सौसर विकास खंड की. जहां एक महिला (लक्ष्मी बदला हुआ नाम) को अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी. लक्ष्मी पर कथित रूप से सास ने आरोप लगाया  कि उसने टोना-टोटका करके अपने पति को अपने वश में कर लिया है!

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और इस छोटी सी साधारण बात पर  महिला को नंगे पैर सुलगते अंगारों पर चलना पड़ा. सौसर तहसील के  रामकोना गांव में 15 अगस्त आजादी के दूसरे दिन मोहर्रम पर्व के बीच एक दरगाह का वीडियो इंटरनेट मीडिया पर वीडियो वायरल  है, जिसमें एक बाबा महिला पर उसके रिश्तेदारों द्वारा कलंक लगाए जाने के बात कर रहा है. वह उस महिला को पाक साफ साबित करने के लिए बलते हुए अंगारों पर चलने का आदेश देता है. वीडियो आज लोग देख रहे हैं उसमें साफ देखा जा सकता है कि  महिला दो दफा गर्म अंगारों पर चल रही है. और जैसा कि सीता की अग्नि परीक्षा में दिखाया गया था यहां भी महिला का संयोग वश बाल भी बांका नहीं हुआ. अब सवाल यह है कि यह वीडियो कितना तथ्य पूर्ण है यह प्रशासन की जांच का विषय है.

पति को वश में करने का अपराध?

लक्ष्मी के मुताबिक  उसकी सास और ससुराल पक्ष के अन्‍य परिजन उस पर अपने ही पति को अपने वश में करने का आरोप लगा रहे थे.

अब समझने वाली बात यह है कि कोई पत्नी अपने पति को वश में नहीं रखेगी तो भला किसे रखेगी. अब इस बात पर भी किसी महिला को अग्नि परीक्षा देनी पड़े तो यह समाज की एक ऐसी त्रासदी है जिसका प्रतिउत्तर भी समाज को ही देना होगा.

कुल मिलाकर के पति को अपने कब्जे में करने के आरोप को लेकर ससुराल पक्ष के द्वारा महिला को  सबूत देने के लिए  बाबा की दरगाह में लाया गया था. मामला जब शासन प्रशासन तक पहुंचा है तब महिला का यह बयान सामने लाया गया है कि  उसने अपनी मर्जी से अंगारों पर चलकर अपनी बेगुनाही का सबूत दिया है. याने कि मामला खत्म! अब इस पर ना पुलिस कोई कार्रवाई करेगी और नहीं संसद में कोई चर्चा होगी. व्यक्तिगत मामला बताकर इस एक गंभीर प्रश्न को उसकी गर्भ में ही भ्रूण हत्या कर दी जाएगी.

ऑनलाइन वर्क: युवाओं में बढ़ता डिप्रेशन

कोरोना के बाद से वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज का कल्चर पूरे विश्व में बढ़ा है. इस कल्चर के जहां कुछ शुरुआती नफे दिखे, वहीं इस के उलट नुकसान भी दिखाई दे रहे हैं, खासकर, युवाओं को इन से अधिक जू झना पड़ रहा है.

वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज युवाओं की मैंटल हैल्थ को प्रभावित कर रहे हैं. आज साइकोलौजिस्ट के पास आने वालों में बड़ी संख्या युवाओं की है. वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज के साइड इफैक्ट्स युवाओं को बीमार बना रहे हैं.

कोरोना के चलते कालेज से ले कर औफिस तक में युवाओं की निर्भरता मोबाइल और नैटवर्क पर बढ़ गई है. शुरूआत के दिनों में इस सिस्टम की सभी ने तारीफ की. कुछ लोगों ने माना कि बढि़या व्यवस्था है. बिना औफिस और कालेज जाए काम चल रहा है. पेरैंट्स इस बात को ले कर खुश थे कि युवाओं की निगरानी नहीं करनी पड़ रही. खासतौर पर लड़कियां अगर घर में हैं तो पेरैंट्स एकदम से चिंतामुक्त थे. बड़े शहरों में काम करने वाले युवा अपने घर वापस आ गए थे और वर्क फ्रौम होम से काम करने लगे थे. शुरुआती दिनों में अच्छा लगने वाला यह माहौल धीरेधीरे मैंटल हैल्थ पर भारी पड़ने लगा.

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साइकोलौजिस्ट डाक्टर नेहा आनंद कहती हैं, ‘‘मेरी क्लीनिक में कई पेरैंट्स अपने युवा बच्चों को ले कर आ रहे हैं जो कालेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले होते हैं या नईनई जौब में होते हैं. कुछ दिनों से या तो वे काफी गुस्से में रहने लगे हैं या फिर एकदम गुमसुम से हो गए हैं. कई में हाई ब्लडप्रैशर के लक्षण दिखने लगे हैं. उन से जब अच्छी तरह से बात की जाती है तो यह पता चलता है कि ‘वर्क फ्रौम होम’ और ‘औनलाइन क्लासेज’ की वजह से परेशानी बढ़ी है. ‘‘दरअसल, इन का उन के स्वास्थ्य पर ही प्रभाव नहीं पड़ रहा बल्कि उन के कार्य की क्षमता भी प्रभावित हो रही है और काम में गलतियां भी निकलने लगी हैं. सामान्य दिनों में अच्छी तरह से काम करने वाले लोग अब गलतियां करने लगे हैं.’’

बोझ बन गईं औनलाइन क्लासेज

ग्रेजुएशन में पढ़ रही वर्तिका बताती हैं, ‘‘शुरू में कुछ दिन तो औनलाइन क्लासेज अच्छी लगीं, लेकिन अब इस में दिक्कत आने लगी है. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा है सम झ नहीं आ रहा. नैटवर्क के कमजोर होने से कनैक्टिविटी सही नहीं होती. कोई जरूरी बात पूछनी हो तो समय निकल जाता है. कई युवा ऐसे होते हैं जो पढ़ाई को गंभीरता से नहीं ले रहे होते हैं. जिन की वजह से और दिक्कतें आती हैं. लगातार औनलाइन क्लासेज से आंखों पर जोर पड़ रहा है. इस के अलावा जब हम क्लासरूम में होते हैं तो केवल वहीं का ध्यान रखना पड़ता है. औनलाइन क्लासेज करते समय हमें पेरैंट्स और घर के दूसरे लोगों की बातें सुननी पड़ती हैं. बीचबीच में कुछ घर के काम भी मैनेज करने होते हैं. इन सब की वजह से अब औनलाइन क्लासें बो झ सी लगने लगी हैं.’’

क्लास ही नहीं, कोचिंग और ट्यूशन भी औनलाइन चल रहे हैं. कालेज और क्लासरूम में एकाग्रता बनी रहती थी. घर में पेरैंट्स की टोकाटाकी लगी रहती है. कालेज के दिनों में जब क्लासरूम में युवा होते थे तब उन का मोबाइल या तो बंद रहता था या फिर साइलैंट मोड पर होता था. औनलाइन क्लासों के समय मोबाइल खुला रहता है. इस वजह से तमाम मैसेज और नोटिफिकेशन आते रहते हैं. इस के कारण पढ़ाई से ध्यान भंग होता रहता है. एक ही जगह बंद रह कर काम करने से टैंशन और गुस्सा बढ़ने लगा है. जो डिप्रैशन और ब्लडप्रैशर को बढ़ाने का काम कर रहा है.

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वर्क फ्रौम होम ने बढ़ाए काम के घंटे

साइकोलौजिस्ट डाक्टर सोनल गुप्ता बताती हैं, ‘‘मैंटल हैल्थ की परेशानियों को ले कर आने वालों में सब से अधिक संख्या युवाओं की है. निजी कंपनियों में काम कर रहे युवा इस वजह से परेशान होते हैं कि उन के काम के घंटे खत्म हो गए हैं. वर्क फ्रौम होम में कंपनी यह मानती है कि हम घर से काम कर रहे हैं तो हमारे खर्चे घट गए हैं. उस ने तमाम तरह के इंसैंटिव खत्म कर दिए. सैलरी में कटौती कर दी. जब औफिस में काम करते थे तो काम के घंटे तय थे. अब सारे दिन और रात काम में लगे रहना पड़ता है. घरों में औफिस जैसा काम करने का माहौल नहीं है. ऐसे में काम करने में असुविधा होती है. औफिस में काम कई लोगों में बंट जाता था. कुछ सम झ नहीं आ रहा हो तो किसी सहयोगी से सलाह मिल जाती थी. अब ऐसा नहीं होता है, जिस की वजह से उन में तनाव बढ़ने लगा है.’’

यह सही है कि औफिस में काम करते समय दिनचर्या का रूटीन होता था. सुबह तैयार हो कर औफिस जाना, वहां दोस्तोंसहयोगियों से मिलना, रास्ते में शहर को देखते जाना आदि.

अब सुबह से शाम घर से ही काम करने में बोरियत होने लगी है. ऐसे में नौकरी के जाने, वेतन के कटने और दूसरी तमाम तरह की मुसीबतों से डिप्रैशन बढ़ने लगा है. यह युवाओं में तमाम तरह के हैल्थ इशू ले कर आ रहा है. हार्ट की बीमारियां ज्यादा बढ़ रही हैं.

दोस्त और सहयोगियों से दूरी

औफिस में तमाम ऐसे काम होते थे जो एकदूसरे की सलाह और सहयोग से पूरे हो जाते थे. वर्क फ्रौम होम में सारे काम खुद करने पड़ रहे हैं. ईमेल, व्हाट्सऐप, वीडियोकौल और जूम मीटिंग अब बोरियत का कारण होने लगे हैं. वर्क फ्रौम होम में घर वालों को लगता है कि अब तो औफिस भी नहीं जाना पड़ता है. औफिस वालों को लगता है घर से काम चल रहा है. ऐसे में युवा औफिस और घर दोनों की नजरों में काम नहीं कर रहा. औफिस से घर आने पर पहले स्वागत होता था. अच्छाअच्छा खाना मिलता था. अब ऐसा लग रहा जैसे खाना मांग कर अपराध कर रहे हों. घर के लोग भी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे हम घर के काम न कर के केवल टाइमपास कर रहे हों.

वर्क फ्रौम होम में काम कर रहे हरीश नौटियाल कहते हैं, ‘‘घर और औफिस दोनों की नजरों में हम मेहनत नहीं कर होते हैं. इस से भी अधिक कमी हम दोस्तों, सहयोगियों के साथ चाय की चुस्कियों, उन के साथ हंसीखुशी के पलों, चुहलबाजियों और गौसिप को मिस कर रहे हैं. इस की वजह से हम तमाम तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. हमें रविवार की छुट्टी का रोमांच नहीं रह गया. हम वीकैंड की मस्ती को जी नहीं पा रहे. वर्क फ्रौम होम हमें युवावस्था में ही बुढ़ापे की तरफ ले कर जा रहा है.’’

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कैसे संभालें हालात

कोरोना का प्रभाव कम होने के साथ ही साथ हालात को धीरेधीरे पटरी पर लाने का प्रयास करना चाहिए.

वर्चुअल वर्क से ही काम नहीं चलेगा. ऐसे में वापस औफिस कल्चर पर आना चाहिए.

वर्क फ्रौम होम में काम के घंटे तय हों. ऐसे लोगों के प्रोत्साहन के लिए प्रयास किए जाएं.

आर्थिक हालात के लिए तमाम दूसरे कारण जिम्मेदार हैं. केवल कर्मचारियों को ही जिम्मेदार नहीं मानना चाहिए.

लौकडाउन के पहले जो स्टाफ था, अचानक उसे खराब बताना तार्किक नहीं है. आपसी सामंजस्य से ही हालात बेहतर होंगे.

युवाओं को अपनी डाइट और ऐक्सरसाइज पर ध्यान देना चाहिए. उन को अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने की जरूरत है.

युवाओं को अपने दोस्तोंसहयोगियों से बात करते रहना चाहिए. सावधानी से खुली हवा में घूमना चाहिए.

आंखों में धूल झोंकने का नया ड्रामा!

ग्रामीण अंचल के सीधे साधे लोगों के अलावा शहर के पढ़े-लिखे लोग भी नटवरलाल बनकर घूमने वाले अपने आसपास के लोगों के शिकार हो रहे हैं. क्या है इसका मूल कारण और कैसे आप ठगी से बच सकते हैं, पढ़िए यह आलेख.

रूपए चार गुना करने के नाम पर ठगी  का  तरीका सामने आया है.  दरअसल, एक काले रंग के कपड़े में रुपए लपेट कर चार गुना करने का सपना दिखाकर 10 लाख रुपए की ठगी हो गई. पुलिस ने मामले में एक ढोंगी बाबा समेत 4 लोगों को  गिरफ्त में लिया है .  पूछताछ में फर्जी बाबा ने ठगे गए पैसे से ऐश करने शराब पीने और जमीन खरीदने की बात कबूल कर ली है.

ठगी के इस हैरतअंगेज मामले में प्रार्थी को पहले डेमो दिखाकर विश्वास जीत लिया गया. तरुण साहू ने ठगी का अहसास होने पर पुलिस में  एक शिकायत दर्ज कराई . उसने बताया   संतोष विश्वकर्मा ने अपने साथी संतराम जोशी और यादव बाबा के साथ मिलकर उसके साथ 10 लाख रुपए की ठगी की है. तरुण साहू ने बताया कि तीनों ने उसे पैसे को चार गुना करने का झांसा देकर उसे अपने मायाजाल में फंसाया. उन्होंने डेमो दिखाकर  उसका विश्वास जीत लिया . इसके बाद  जुलाई के अंतिम सप्ताह में  10 लाख रुपए को एक काले कपड़े में लपेटकर रकम चार गुना करने का दावा करने लगे, लेकिन जैसी ही पीड़ित किसी काम के लिए अपने कमरे में घुसा. वैसे ही आरोपियों  10 लाख रुपए लेकर गायब कर स्वयं भी नदारद हो गए.   पुलिस ने 24 घंटे के अंदर ही संतोष विश्वकर्मा और संतराम जोशी को गिरफ्तार कर लिया  था.इधर ढोंगी बाबा अपने साथियों को धोखा देकर भाग गया था दोनों ने पूछताछ में अपना अपराध स्वीकार कर लिया और पुलिस को बताया कि उन्होंने यादव बाबा के फेर में आ कर ठगी की घटना को अंजाम दिया था.

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मजे की बात यह है कि कथित यादव बाबा उन्हें भी गच्चा दे कर सारे रूपए लेकर रफूचक्कर हो गया था.

अब आगे पुलिस के समक्ष ढोंगी बाबा एक चुनौती के रूप में सामने थे और उस यादव बाब की  तलाश कर रही थी. पुलिस के अनुसार  उसका कुछ पता नहीं चल रहा था . भारी मशक्कत के बाद दूसरे जिले से पुलिस टीम ने उसे गिरफ्तार किया .इधर पुलिस ने  आरोपियों से 2 लाख 40 हजार नकद और अन्य सामग्री बरामद की  है. बताया जा रहा है बाकी रुपयों से ढोंगी बाबा ने मोह माया के चक्कर में जमीन खरीद ली है.

लालच से बचिए

अक्सर लालच में पड़कर आदमी अपनी गाढ़ी कमाई को लूटा बैठता है. ऐसी प्रतिदिन जाने कितनी घटनाएं देशभर में घटित हो रही हैं.

हमने इस संदर्भ में आपके लिए पुलिस अधिकारी विधि के जानकार लोगों से बातचीत करके यह आलेख तैयार किया है. जिसमें हम यह स्पष्ट रूप से बताना चाहते हैं कि आप किस तरह समाज में होने वाली ठगी और लूट से बच सकते हैं. आपकी थोड़ी भी लापरवाही और लालच आपको ठगी का शिकार बना सकती है.

इस महत्वपूर्ण सामाजिक त्रासदी पर हमने पुलिस की अधिकारी इंद्र भूषण सिंह से  चर्चा की उनके मुताबिक मेरे पुलिसिया कार्यकाल के लगभग 30 वर्षों के समय में अनेक मामले ठगी के  हमारे जांच में आते रहे हैं और अगर मैं इसका मूल स्रोत आपको बताऊं तो वह सिर्फ एक है, और वह है लालच.

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आमतौर पर गांव के सीधे-साधे ग्रामीण लोगों के अलावा शहर के चतुर चालाक समझे जाने वाले शिक्षित वर्ग के लोग भी रुपए पैसों की लालच में पड़कर के ढोंगी ठगों के शिकार बन जाते हैं.

हाईकोर्ट के अधिवक्ता अविनाश शुक्ला के मुताबिक समाज में हो रही ठगी की मामलों की जो बारीक समझ मैं आपके पाठकों को बताना चाहता हूं, वह यह है कि अगर कोई आपको यह कहे कि बिना श्रम के आपको यह रुपए मिलने वाले हैं तो आप समझ जाइए कि आगे आप ठगी का शिकार हो सकते हैं.

संगीत मनोविज्ञान के जानकार घनश्याम तिवारी एक शिक्षक हैं आपके मुताबिक रुपए पैसों की लालच में आकर के लोग ठगी का शिकार बन जाते हैं, आम लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि अगर कोई आपको 1 का 4 गुना देने की बात कर रहा है तो फिर वह स्वयं अपना पैसा 4 गुना क्यों नहीं कर लेता.

ऐंटी सेक्स बेड: मैदान से पहले बिस्तर का खेल

कोरोना महामारी के चंगुल में फंसी दुनिया के लिए राहत की बात यह है कि 23 जुलाई, 2021 से जापान के टोक्यो शहर में ओलिंपिक खेलों का महामेला शुरू हो गया है. वहां के खेलगांव में कोरोना का कहर न दिखे, इस के लिए खेल प्रशासन ने बहुत ज्यादा कड़े नियम बनाए हैं. उन में सोशल डिस्टैंसिंग यानी सामाजिक दूरी का पालन कराना बहुत बड़ी चुनौती है.

चूंकि सोशल मीडिया का जमाना है, सो जापान से आने वाली ओलिंपिक खेलों से जुड़ी खबरों का यहां से वहां तैरना लाजिमी है. ऐसे में वहां इस्तेमाल होने वाले ‘ऐंटी सैक्स बैड’ का मामला काफी ज्यादा वायरल हो गया है.

क्या बला है ‘ऐंटी सैक्स बैड’

खेल आयोजकों की कोशिश है कि टोक्यो ओलिंपिक खेलगांव कोविड-19 की आफत से बचा रहे, इस के लिए उन्होंने वहां तथाकथित ‘ऐंटी सैक्स बैड’ लगाने का फैसला किया. ऐसे बैड यानी पलंग कार्डबोर्ड से बनाए जाते हैं जिन्हें ऐसे डिजाइन किया गया है कि एक ही इंसान उस पर सो सकता है. अगर एक से ज्यादा लोगों ने बैड पर चढ़ने की कोशिश की या फिर ज्यादा जोर भी लगाया तो वह टूट सकता है.

जापान वालों की यह ‘पलंगतोड़ तरकीब’ दुनिया के सामने पहली बार तब सामने आई थी जब ऐथलीट पौल चेलिमो ने 17 जुलाई, 2021 को ‘ऐंटी सैक्स बैड’ को ले कर एक ट्वीट किया था, जिस के बाद से यह मामला इंटरनैट पर छा गया था.

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पौल चेलिमो ने बैड के फोटो शेयर करते हुए ट्विटर पर लिखा था, ‘‘टोक्यो ओलिंपिक खेलगांव में लगाए जाने वाले बैड कार्डबोर्ड से बने होंगे, जिन का मकसद ऐथलीटों के बीच इंटिमेसी (सैक्स करने) को रोकना है. यह बिस्तर एक इंसान का वजन उठाने के लायक होगा.’’

बाद में पौल चैलिमो ने इस मुद्दे पर कई मजाकिया ट्वीट किए. एक ट्वीट में उन्होंने लिखा, ‘‘लगता है कि अब मु झे जमीन पर सोना सीखना होगा क्योंकि अगर बैड टूट गया और मु झे जमीन पर सोना नहीं आता होगा तो भैया मैं तो गया.’’

सोशल मीडिया के यूजर

इस मामले पर एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा, ‘‘यह बेहद बचकाना है. वे (ऐथलीट) एडल्ट हैं और अपने फैसले खुद ले सकते हैं और अगर आप को वायरस का इतना ही खतरा था व सोशल डिस्टैंसिंग से इतना ही लगाव था तो यह ओलिंपिक कराना ही नहीं चाहिए था.’’

एक यूजर तो चार कदम आगे निकला. उस ने लिखा, ‘‘‘ऐंटी सैक्स बैड’ बना लिए, लेकिन फ्लोर और बाथरूम का क्या?’’

इस यूजर की बात में दम था कि अगर कोई खेलगांव में सैक्स करेगा तो वह बिस्तर के भरोसे थोड़े ही रहेगा. मजबूत जमीन किस दिन काम आएगी… या फिर बाथरूम.

गौरतलब है कि टोक्यो ओलिंपिक खेलों के आयोजकों ने कंडोम की 4 कंपनियों के साथ करार भी किया है. करार के मुताबिक, ये कंपनियां ऐथलीटों को 1 लाख 60 हजार कंडोम बांटेंगी. पर आयोजकों के मुताबिक, ये कंडोम खेलगांव में इस्तेमाल करने के लिए नहीं हैं बल्कि ऐथलीट इन्हें अपने घर ले जा कर लोगों को सैक्स से जुड़ी बीमारियों के बारे में जागरूक कर सकते हैं.

इस पूरे मसले पर कुछ ऐथलीटों ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा था कि ये बैड तो उन का खुद का वजन नहीं  झेल पाएंगे. कई खिलाड़ी ऐसा भी कह रहे हैं कि जब ऐसे ही बैड देने थे तो 1 लाख 60 हजार कंडोम क्यों बांटे?

मामला ज्यादा उछलता देख कर खेल आयोजकों ने ‘ऐंटी सैक्स बैड’ को ले कर बयान दिया कि ये बैड काफी मजबूत हैं और इन को ले कर जो बातें फैलाई गई थीं वे सभी अफवाहें थीं.

आयरलैंड के जिमनास्ट रिस मैकलेगन ने खुद नकली बैड की रिपोर्ट को खारिज किया. एक वीडियो में उन्होंने पलंग के ऊपर छलांग लगा कर इस बात को साबित किया और ट्विटर पर पोस्ट किए गए अपने वीडियो में कहा ‘‘ये पलंग ‘ऐंटी सैक्स’ कहे जा रहे थे. ये कार्डबोर्ड से बनाए गए हैं. हां, ये खास तरह की मूवमैंट रोकने के लिए हैं. यह फेक… फेक न्यूज है.’’

इस ट्वीट से ओलिंपिक आयोजकों ने राहत की सांस ली और उन के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट ने भी इस  झूठी खबर से परदा हटाने के लिए रिस मैकलेगन का शुक्रिया अदा किया. उन्होंने कहा कि ये पलंग टिकाऊ और मजबूत हैं.

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अब यह खबर ज्यादा मजबूत है या ये तथाकथित ‘ऐंटी सैक्स बैड’, इस का फैसला तो वे ऐथलीट ही करेंगे जो इन पर सोएंगे. पर लगता है कि इस बार ओलिंपिक खेलों में मैदान पर खेल रिकौर्ड टूटने के साथसाथ पलंग टूटने के रिकौर्ड भी बन सकते हैं.

कुछ भी कहें, इस खबर से भारत के ‘पलंगतोड़ पान’ बनाने वाले बहुत खुश हो रहे होंगे. क्यों भैयाजी?

इन की सुन लीजिए

जहां तक ओलिंपिक खेलों में सैक्स का मुद्दा है, तो साल 2016 में हुए रियो ओलिंपिक खेलों के दौरान साढ़े 4 लाख कंडोम खेलगांव में बांटे गए थे. मतलब साफ है कि खिलाड़ी सैक्स से जुड़ी किसी बीमारी के शिकार न हों, इसलिए वे इस प्रोटैक्शन का इस्तेमाल करें.

फिलहाल ‘ऐंटी सैक्स बैड’ पर मचे बवाल पर पूर्व जरमन ऐथलीट सुसेन टाइडटके ने कहा कि ओलिंपिक खेलगांव में सैक्सुअल गतिविधियां न हों, ऐसा नहीं हो सकता है.

उन्होंने जरमन अखबार ‘बाइल्ड’ के साथ बातचीत में कहा, ‘‘मु झे इस बैन को सुन कर हंसी आ रही है. ऐसे बैन कभी काम नहीं करते हैं. सैक्स हमेशा से ही ओलिंपिक खेलगांव में मुद्दा रहा है. ऐथलीट ओलिंपिक में अपने पीक पर होते हैं. वे इन नामचीन खेलों की तैयारियों के लिए काफी कड़ी मेहनत करते हैं, ऐसे में कंपीटिशन के बाद एनर्जी रिलीज करनी होती है. ओलिंपिक के दौरान कौफी पार्टी चलती रहती है और फिर शराब भी इन पार्टियों में सर्व हो जाती है.’’

इस के अलावा ब्रिटेन के पूर्व टेबल टैनिस स्टार मैथ्यू सईद ने भी माना कि ओलिंपिक खेलगांव में सैक्सुअल गतिविधियां होती हैं.

मैथ्यू सईद ने ‘द टाइम्स’ में लिखे एक लेख में कहा था कि वे खास आकर्षक नहीं हैं लेकिन इस के बावजूद वे साल 1992 में बार्सिलोना में हुए ओलिंपिक खेलों के दौरान काफी सैक्सुअल गतिविधियों में शामिल रहे थे.

उन्होंने लिखा, ‘‘मु झ से अकसर पूछा जाता है कि क्या ओलिंपिक खेलगांव, जहां दुनिया के अव्वल ऐथलीट कुछ हफ्तों के लिए पहुंचते हैं, में काफी खुलापन होता है? मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि यह काफी हद तक सही है. मैं ने साल 1992 में हुए ओलिंपिक खेलों में हिस्सा लिया था और उस दौरान मैं ने काफीकुछ ऐसा देखा, जिस की उम्मीद नहीं थी.’’

उन्होंने आगे कहा कि वे उस समय 21 साल के थे और उन की तरह कई लोग थे जो ओलिंपिक वर्जिन थे. उन सब में से कई लोगों के लिए ओलिंपिक खेलों में हिस्सा लेने के साथ ही ओलिंपिक खेलगांव के ग्लैमर वर्ल्ड की चकाचौंध से भी रूबरू होने का मौका था.’’

टोक्यो ओलिंपिक: खेल को अर्श और फर्श पर ले जाने वाले 2 खिलाड़ी

इस बार के ओलिंपिक खेलों में 2 ऐसी बातें या घटनाएं देखने को मिलीं, जिन में पहली घटना में एक खिलाड़ी ने वह कारनामा किया कि उस की दुनिया जहान में खूब वाहवाही हुई, जबकि दूसरी घटना में एक खिलाड़ी ने अपनी करतूत से खेल को ही शर्मसार कर दिया.

पहला मामला ऊंची कूद यानी हाई जंप से जुड़ा है. दरअसल, 30 साल के मुताज बरशीम और 29 साल के गियानमार्को टेंबरी ने हाई जंप के फाइनल में 2.37 मीटर जंप के साथ मुकाबला खत्म किया था. वे दोनों खिलाड़ी 3-3 बार 2.39 मीटर जंप की कोशिश में नाकाम रहे थे.

इस टाई पर ओलिंपिक रैफरी ने दोनों को ‘जंप औफ’ रूल के बारे में बताया और कहा कि इस ‘जंप औफ’ में जो जीतेगा, गोल्ड मैडल उस का होगा.

रैफरी के प्रस्ताव के बाद मुताज बरशीम ने उन से पूछा कि अगर आगे मुकाबला न हो तो क्या उन दोनों को गोल्ड मिल सकता है?

इस पर रैफरी ने हामी भरी, तो यह सुनते ही मुताज बरशीम तुरंत गियानमार्को टेंबरी के पास गए और हाथ मिला कर गोल्ड मैडल की जीत का गोल्डन हैंडशेक किया.

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इतना सुनते ही खुशी के मारे गियानमार्को टेंबरी ने मुताज बरशीम को गले से लगा लिया और तकरीबन उन पर कूद पड़े. इस के बाद उन दोनों ने पूरे मैदान का चक्कर लगाया.

यह वाकई एक ऐतिहासिक पल था जब ओलिंपिक हाई जंप में इन 2 दोस्तों ने मैच टाईब्रेकर में ले जाने के बजाय गोल्ड मैडल साझा करने का सुनहरा रास्ता चुना.

गौरतलब है कि मुताज बरशीम और गियानमार्को टेंबरी दोनों अच्छे दोस्त हैं. मुताज बरशीम ने लंदन और रियो ओलिंपिक में सिल्वर मैडल जीता था.  इस के अलावा वे साल 2017 और साल 2019 में 2 वर्ल्ड चैंपियनशिप का खिताब भी हासिल कर चुके हैं.

इटली के गियानमार्को टेंबरी के पैर में साल 2016 के रियो ओलिंपिक से पहले चोट लग गई थी. चोट के बाद वे खेलों में अच्छी वापसी चाहते थे और उन्हें अब गोल्ड मैडल मिल गया है. भावुक गियानमार्को टेंबरी ने बताया कि उन्होंने इस पल का कई बार सपना देखा, जो अब पूरा हुआ है.

खेल भावना की इस शानदार मिसाल के बाद उस मामले पर गौर करते हैं, जिस ने टोक्यो ओलिंपिक का मजा किरकिरा कर दिया.

हुआ यों कि मैराथन के दौरान अपने साथ दौड़ रहे धावकों से आगे निकलने के लिए एथलीट मोरहाद अमदौनी ने तमाम एथलीटों के लिए रखी पानी की बोतलों को गिरा दिया. उन की यह करतूत वहां मौजूद कैमरे में कैद हो गई.

टोक्यो में भीषण गरमी के बावजूद एथलीटों को किसी भी तरह की छूट नहीं दी गई थी, लेकिन उन के लिए आयोजकों ने ट्रैक के किनारे मेज पर पानी की बोतलें रखी थीं, ताकि एथलीट दौड़ते हुए ही पानी की बोतल उठा सकें और पिए या फिर सिर पर उड़ेल लें, ताकि प्यास और गरमी से बचे रहें.

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लेकिन मोरहाद अमदौनी ने पानी की बोतल उठाने की जगह बाकी बोतलों को भी जानबूझ कर गिरा दिया. शायद उस की मंशा थी कि कुछ खिलाड़ी गिरी बोतलों में उलझ कर पीछे रह जाएं. ऐसा कितना हुआ यह तो पता नहीं, पर सोशल मीडिया पर यह वीडियो सामने आने के बाद इस खिलाड़ी की खूब किरकिरी हुई.

एक शख्स ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘टोक्यो ओलिंपिक में सब से घटिया करतूत करने वाले इस फ्रांसीसी खिलाड़ी धावक मोरहाद अमदौनी को गोल्ड मैडल मिलना चाहिए, जिन्होंने जानबूझ कर अपने साथियों का पानी गिरा दिया.’

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वैसे, फ्रांसीसी खिलाड़ी अमदौनी की इस घटिया हरकत से कोई खास फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि वे खुद 2 घंटे, 14 मिनट और 33 सैकंड में रेस पूरी करने के बाद 17वें नंबर पर रहे, जबकि उन के पीछे नीदरलैंड्स के आब्दी नगेई थे, जिन्होंने 2 घंटे, 9 मिनट और 58 सैकंड के साथ अपनी रेस पूरी की और  सिल्वर मैडल पर अपना कब्जा जमाया.

केन्या के एलियुड किपचोगे ने 2 घंटे, 8 मिनट और 38 सैकंड के समय में ओलिंपिक पुरुष मैराथन का खिताब अपने पास ही बरकरार रखा.

65 साल की उम्र में की शादी, कर्मकांडों में फंसा

दलित समाज  

बाबा साहब अंबेडकर और कांशीराम ने दलित समाज को कर्मकांडों से बाहर निकालने के लिए बहुतेरे उपाय किए थे. बहुजन समाज पार्टी के लोग ‘बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेंगे पूरा’ नारा लगाते थे.

बहुजन समाज पार्टी और बामसेफ के कार्यक्रमों में दलित समाज की चेतना को जगाने के लिए तमाम उदाहरण दिए जाते थे कि मूर्तिपूजा और मंदिर जाने से कोई फायदा नहीं होने वाला.

मायावती के भाषण की एक सीडी वायरल हुई थी, जिस में वे कहती हैं कि ‘जो देवीदेवता कुत्तों से अपनी रक्षा नहीं कर पाते, वे आप की रक्षा कैसे करेंगे?’

बाद में सत्ता के लिए जब मायावती ने अगड़ी जातियों के साथ समझौते किए, तो बसपा का यह मिशन गायब हो गया. तब बसपा का नारा ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ हो गया. इस का असर दलितों की सोच पर भी पड़ा.

जो दलित समाज 80 के दशक में जिन कर्मकांडों से दूर हो रहा था, अब वही अगड़ी जातियों से बढ़चढ़ कर कर्मकांडी बनने लगा है. अपनी जिस मेहनत की कमाई को उसे अपनी पढ़ाईलिखाई और रहनसहन पर खर्च करना था, उसे वह मंदिरों, कर्मकांडों और पुजारियों पर चढ़ाने लगा.

उस के पास घर बनवाने और अच्छे कपड़े पहनने का समय भले ही न हो, पर वह पूजापाठ और मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाने के लिए पैसे और समय दोनों निकाल ले रहा है.

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अमेठी जिले के गांव खुटहना में 40 साल बिना शादी किए साथसाथ रहने वाले मोतीलाल और मोहिनी देवी को कर्मकांडों के लिए धार्मिक रीतिरिवाज से अपनी शादी करनी पड़ी, जिस में पंडित भी था और पूजा की वेदी भी थी. शादी के मंत्र भी पढ़े गए.

डरासहमा मोतीलाल

इस अनोखी की शादी की जानकारी मिलने के बाद जब यह संवाददाता लखनऊ से तकरीबन 130 किलोमीटर दूर गांव खुटहना में मोतीलाल और मोहिनी देवी से मिलने के लिए पहुंचा तो पता चला कि दुलहन मोहिनी देवी अपने बच्चों के साथ मंदिर  गई हैं. उन के घर में मौजूद लड़की कुछ भी बोलने से मना कर के दरवाजा बंद कर घर के अंदर चली गई.

मोहिनी देवी और मोतीलाल के घर के लोग इस बात से डर रहे थे कि किसी बाहरी और अनजान आदमी से बात करने से उन को कोई नुकसान हो सकता है. परिवार वालों को डर लग रहा था कि बुढ़ापे में शादी कर के उन्होंने कोई गुनाह तो नहीं कर दिया है. कहीं किसी तरह से पुलिस या कानून की कोई दिक्कत पैदा न हो जाए, इस वजह से वे बातचीत करने से मना करने लगे.

जानकारी लेने पर गांव के लोगों  ने बताया कि मोतीलाल गांव से  3 किलोमीटर दूर गोदाम पर काम करने के लिए गए हुए हैं. हम ने वहां जा कर उन से बात करने की योजना बनाई.

यह मालगोदाम जामो ब्लौक के पास था. वहीं मोतीलाल माल ढुलाई का काम करते थे. मोतीलाल को जैसे ही हमारे पहुंचने की सूचना मिली, वे छिप गए.

हम ने लोकल नेताओं और कुछ दबदबे वाले लोगों को अपने साथ लिया, तब मोतीलाल का डर कुछ कम हुआ. हमारे ऊपर उन्हें थोड़ा सा भरोसा हुआ और वे बातचीत के लिए तैयार हुए.

हमारे सामने आते ही मोतीलाल हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘साहब, शादी कर के कोई गलती कर दी क्या, जिस से आप लोग हमें तलाश कर रहे हैं?’’

जब सभी लोगों ने यह कहा कि ‘गलती की कोई बात नहीं है. ‘सरस सलिल’ देश की बड़ी पत्रिका है, उस में तुम्हारी शादी के बारे में छापा जाएगा…’ तब कहीं जा कर वे धीरेधीरे बात करने लगे.

असल में गांव में रहने वाला गरीब, कमजोर और कम पढ़ालिखा आदमी हर किसी से डरता है. उस को लगता है कि कोई उस का गलत फायदा न उठा ले. उसे कानून और अपने हकों की जानकारी नहीं होती. चार लोग जैसा कहने लगते हैं, वह वैसा करने लगता है.

मोतीलाल को जब हमारे ऊपर भरोसा हो गया, तब उन्होंने बुढ़ापे में शादी करने की पूरी वजह बताई.

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65 साल का दूल्हा और 60 साल की दुलहन

गौरीगंज विधानसभा की जामो ग्राम पंचायत के गांव खुटहना में ही मोतीलाल रहते हैं. सुलतानपुरलखनऊ हाईवे से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर जामो ब्लौक और थाना बना है.

जामो में रहने वालों की दिक्कत यह है कि यहां से न तो अमेठी जिला हैडक्वार्टर जाने के लिए कोई सीधी सरकारी बस चलती है और न ही प्रदेश की राजधानी लखनऊ जाने के लिए बस जाती है.

जामो से जब गौरीगंज जाने वाली सड़क पर चलते हैं, तो 3 किलोमीटर के बाद खुटहना गांव आता है. यहां सभी घर दलितों के पासी जाति से हैं. वहीं के मोतीलाल अचानक सुर्खियों में आ गए.

सुर्खियों की वजह यह थी कि  65 साल के मोतीलाल ने 40 साल एकसाथ रहने के बाद 60 साल की मोहिनी देवी से धार्मिक रीतिरिवाज, ढोलबाजे और बरात ले कर शादी की.

मोहिनी देवी ने रंगबिरंगी साड़ी पहनी थी. मोतीलाल ने भी पाजामा और कमीज पहनी थी. बरात में दूल्हा बने मोतीलाल ने दूसरे बरातियों के साथ डांस भी किया.

बरात मोतीलाल के घर से निकल कर उन के ही घर जानी थी, जो गांव  की संकरी गलियों से होते हुए वापस मोतीलाल के घर पहुंच गई, जहां पूजापाठ कर के और एकदूसरे को फूलों की माला पहना कर बुढ़ापे में शादी की रस्म निभाई.

मोतीलाल और मोहिनी देवी की कहानी रोचक है. तकरीबन 45 साल पहले मोतीलाल की शादी अपनी ही जाति की श्यामा से हुई थी.

शादी के 2 साल के बाद ही श्यामा की मौत हो गई. दोनों के कोई बच्चा नहीं था. मोतीलाल अकेले पड़ गए थे.

मोतीलाल का पड़ोस के गांव मकदूमपुर आनाजाना होता था. वहां  की रहने वाली मोहिनी देवी के साथ उन की जानपहचान हुई. मोहिनी भी गरीब परिवार की थीं. उन के मातापिता से बात कर के मोतीलाल मोहिनी देवी को अपने साथ ले कर गांव आ गए.

उन दोनों के घरपरिवार को कोई दिक्कत नहीं थी. लिहाजा, वे बिना किसी शादी के कर्मकांड के साथ रहने लगे. उन्हें कभी इस बात की जरूरत ही महसूस नहीं हुई कि वे रीतिरिवाज वाली शादी करें. वे दोनों ही मेहनत करते हुए अपनी जिंदगी गुजारने लगे.

यहां दोनों के पास रहने के लिए झोंपड़ीनुमा घर था. समय के साथसाथ दोनों के 4 बच्चे हो गए. उन में 2 लड़के सुनील कुमार और संदीप कुमार और  2 लड़कियां सीमा और मीरा हैं.

मोतीलाल ने पूरी कोशिश की कि बच्चे पढ़लिख जाएं. पर बच्चे केवल  8वीं जमात से 10वीं जमात तक ही पढ़ सके. मोतीलाल ने सब से पहले अपनी दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों लड़के भी मेहनतमजदूरी करने लगे.

इस के बाद भी मोतीलाल और उन की पत्नी मोहिनी देवी मेहनतमजदूरी करते हैं, जिस में उन का समय भी कटता है और पैसे भी मिलते हैं.

40 साल एकसाथ रहने के बाद भी मोहिनी देवी और मोतीलाल के संबंधों को धार्मिक मंजूरी नहीं मिली थी. मोहिनी देवी और मोतीलाल दोनों ही अनपढ़ थे. मोतीलाल तो बोझा ढोने की मजदूरी करते थे और मोहिनी देवी खेतीकिसानी के काम में मजदूरी कर के जो समय बचता था, उस में मंदिर जा कर देवी भवानी के दर्शन करतीं और वहां कथाप्रवचन सुनतीं. धर्म के इन प्रवचनों में शादी की अहमियत को बताया जाता था.

मोहिनी देवी को बताया गया कि ‘बिना शादी किए घर के बेटेबेटियों की शादी में होने वाली पूजापाठ का फल नहीं मिलता है. मरने के बाद घरपरिवार का दिया पानी भी नहीं मिलता, इसलिए शादी करना जरूरी हो गया. बिना शादी के हमारे संबंध पवित्र नहीं माने जा रहे थे.’

बिना शादी के किसी को अपनी पत्नी बना कर रखने में औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. मोहिनी देवी को अब लग रहा था कि ‘उढरी’ कहलाना अच्छा नहीं होता है.

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शादीशुदा बनी मोहिनी देवी

40 साल पहले जब मोतीलाल मोहिनी देवी को अपने गांव ले कर आए थे, तो उन के पास शादी में खर्च करने लायक पैसा नहीं था. अपनी बिरादरी को खिलाने के लिए भी पैसे नहीं थे. ऐसे में वे बिना शादी किए ही मोहिनी देवी के साथ रहने लगे थे.

दलित जाति में बिना शादी के साथ रहने वाली औरत को ‘उढरी’ कहा जाता है. दलित जातियों की पंचायतों में नियम था कि अगर बिना शादी के कोई किसी औरत के साथ रह रहा है, तो पंचायत के चौधरी और पंचों को ‘भात’ खिलाना जरूरी होता था.

‘भात’ एक तरह की दावत होती है. जब तक ‘भात’ नहीं खिलाया जाता था, तब तक ‘उढरी’ औरत को शादीशुदा  नहीं माना जाता था. उस के बच्चों को  भी सामाजिक और धार्मिक मंजूरी नहीं मिलती थी. सामाजिक और धार्मिक मंजूरी के अलगअलग मतलब होते हैं. सामाजिक मंजूरी न मिलने के चलते उन के बच्चों के शादीब्याह नहीं हो सकते थे. बिरादरी के लोग उन को दावत में नहीं बुलाते थे.

धार्मिक मंजूरी में यह माना जाता है कि बच्चों के द्वारा किए गए क्रियाकर्म का पुण्य मातापिता को नहीं मिलता था. बहुत सारी दलित चेतना के बाद भी दलितों की रूढि़वादी सोच में अंतर नहीं आया है. आज भी वे धर्म के प्रभाव में हैं. ऐसी ही बातों के प्रभाव में आ  कर मोहिनी देवी ने मोतीलाल से कहा, ‘‘हमें भी शादी कर लेनी चाहिए, तभी हमें कर्मकांडों का हक मिल सकेगा और हमें ‘उढरी’ भी कोई नहीं कह सकेगा.’’

‘श्राद्ध’ और ‘पिंडदान’ का डर

मोहिनी देवी की बात का समर्थन उन के बच्चों ने भी दिया. इस के बाद घरपरिवार के लोगों ने मिल कर शादी का आयोजन किया.

यह शादी कराने वाले तेजराम पांडेय बताते हैं, ‘‘मोतीलाल ने मोहिनी देवी से धार्मिक रीतिरिवाज से शादी नहीं की  थी. धर्म कहता है कि ‘उढरी’ के लड़के मातापिता के मरने के बाद जब उन का श्राद्ध करते हैं, पिंडदान करते हैं, तो वह उन को नहीं मिलता है, जिस से उन को मोक्ष नहीं मिलता. इस बात की जानकारी होने पर अब यह शादी की जा रही है.’’

मरने के बाद होने वाले कर्मकांडों  में श्राद्ध और पिंडदान किया जाता है. समाज में कर्मकांडों को इस तरह से महिमामंडित किया जा रहा है कि  40 साल एकसाथ रहने के बाद मोतीलाल और मोहिनी देवी को शादी का कर्मकांड करना पड़ा. इस से पूरे समाज को यह संदेश देने का काम किया गया कि बिना शादी के साथ रहने को धार्मिक मंजूरी नहीं है. शादी के सहारे धार्मिक कर्मकांडों को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है.

मोहिनी देवी के मन में इस बात को ठूंसठूंस कर भर दिया गया कि जब तक कर्मकांड वाली शादी नहीं होगी, तब तक शादी मानी नहीं जाएगी. शादी करने के बाद ही मोहिनी देवी को पत्नी का दर्जा मिल सका. इस के पहले उन्हें ‘उढरी’ ही माना जा रहा था.

मोतीलाल और मोहिनी देवी पर कर्मकांड का इतना दबाव पड़ा कि उन्हें धार्मिक हिसाब से शादी करनी पड़ी. यह शादी तमाम तरह की रूढि़वादी सोच को उजागर करती है.

अमेठी जिले में तमाम धार्मिक स्थान हैं. पीपरपुर गांव में महर्षि पिप्पलाद का पौराणिक आश्रम है. सिंहपुर ब्लौक में मां अहरवा भवानी, मुसाफिरखाना में मां हिंगलाज देवी धाम, गौरीगंज में मां दुर्गाभवानी देवी, अमेठी में मां कालिकन देवी धाम सती महारानी मंदिर भी हैं.

इन जगहों पर मेले भी लगते हैं. तमाम तरह की मान्यताएं भी हैं. अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दलित औरतें यहां बड़ी तादाद में आती हैं. धार्मिक कहानियों के प्रभाव में वे कर्मकांडों के कहे अनुसार चलने लगती हैं.

यहां के दलित बहुत सारी कोशिशों के बाद भी आगे नहीं बढ़ सके हैं. वे अगड़ी जातियों के पीछे ही चलते रहे हैं. चुनाव लड़ने वाली पार्टी कोई भी रही हो, यहां से जीतने वाले नेता हमेशा ही अगड़ी जातियों के रहते हैं.

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