पश्चात्ताप: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

पश्चात्ताप- भाग 3: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

मैं सांत्वना देने का प्रयास कर रहा हूं, ‘आप का बेटा बिलुकल ठीक हो जाएगा, आप चिंता मत कीजिए,’ बाकी औरतों की आवाज से कैजुअल्टी गूंजने लगती है.

मैं वार्डब्वाय को आवाज दे कर इशारे से कहता हूं कि इन सब औरतों को बाहर निकाल दो, लड़के की मां को छोड़ कर. सब से भी प्रार्थना करता हूं कि आप सब कृपा कर के बाहर चली जाएं और हमें अपना काम करने दें. सभी महिलाएं चुपचाप बाहर निकल जाती हैं. केवल लड़के की मां रह जाती है. मैं उस के बेटे के ठीक होने का विश्वास दिलाता हूं और वह संतुष्ट दिखाई देती है. दूसरे युवक पर मेरा ध्यान जाता है. उस की ओर इशारा कर के मैं पूछता हूं, ‘यह कौन है? यह युवक भी तो आप के बेटे के साथ ही आया है?’

वह औरत चौंकती है दूसरे युवक को देख कर, ‘अरे, यह तो शिरीष का दोस्त है, अनिल, कैसा है बेटा तू?’ वह उठ कर उस के पास पहुंचती है. मैं ने देखा वह दर्द से बेचैन था. मैं डाक्टर विमल को आवाज देता हूं, ‘डाक्टर , प्लीज, इस युवक का जल्दी एक्सरे करवाइए या मुझे निरीक्षण करने दीजिए. इसे चैस्ट पेन हो रहा है. मैं शिरीष की ओर इशारा कर के कहता हूं, ‘आप इसे संभालिए, मैं उसे देख लेता हूं.’ मुझे कोई जवाब मिले, इस से पहले ही सर्जन आ जाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘डाक्टर प्लीज, आप को ऐसे ही हमारे साथ औपरेशन थिएटर तक चलना होगा. आप अगर अंगूठा हटाएंगे अभी, तो फिर काफी खून बहेगा,’ और मैं उन के साथ युवक की ट्राली के साथसाथ औपरेशन थिएटर की ओर चल पड़ता हूं.

जातेजाते मैं देखता हूं कि डाक्टर विमल उस युवक को एक्सरे के लिए रवाना कर रहे हैं. ‘इस की वैट फिल्म (गीली एक्सरे) मंगवा लेना’, मैं जोर दे कर कहता हूं और रवाना हो जाता हूं. आधा घंटा औपरेशन थिएटर में लगा कर लौटता हूं और ज्यों ही कैजुअल्टी के पास पहुंचता हूं, मुझे एक हृदयविदारक चीख सुनाई देती है. मेरे पैरों की गति तेज हो गई है.

मैं दौड़ कर कैजुअल्टी पहुंचता हूं. ‘यह कौन चीख रहा था?’ मैं सिस्टर से पूछा रहा हूं. उस ने बैड की ओर इशारा किया और मैं ने देखा कि डा. विमल अपना स्टेथस्कोप लगा कर उस युवक के दिल की धड़कन सुनने का प्रयास कर रहे हैं, ‘ही इज डैड, डाक्टर, ही इज डैड,’ ओफ, यह क्या हो गया? जिस बात से मैं डर रहा था, वही हुआ. कार्डियक मसाज, इंजैक्शन कोरामिन, इंजैक्शन एड्रीनलीन, कोई भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर पा रहा है. डा. विमल इस की वैट फिल्म के लिए कहते हैं, ‘अरे लक्ष्मण, तू एक्सरे नहीं लाया?’

‘जाता हूं साहब, यहां एक मिनट तो फुरसत नहीं मिलती,’ वैट फिल्म आई और जब मैं ने उसे देखा तो मेरे मुंह से एक आह निकल गई. डा. विमल ने पूछा, ‘क्या हुआ डाक्टर?’

हम इसे बचा सकते थे, इसे तो निमोथोरेक्स था. फेफड़े में छेद हो गया था, जिस से बाहरी हवा तेजी से घुस कर उस पर दबाव डाल रही थी और मरीज को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी. काश, मैं ने इस का निरीक्षण किया होता. एक मोटी सूई डालने से ही इमरजैंसी टल सकती थी और बाद में फिर एक रबर ट्यूब डाल दी जाती मोटी सी. तो मरीज नहीं मरता.

‘काश, मैं इसे समय पर देख पाता तो यह यों ही नहीं चला गया होता,’ मेरे स्वर में पश्चात्ताप था. पर मैं अब कुछ नहीं कर सकता था. यही अनुताप मेरे मन को और व्यथित कर रहा था. तभी शिरीष की मां आई. वह शायद कुछ भूल गई थी. पूछा, ‘कैसा हैवह शिरीष का दोस्त?’ और मेरा वेदनायुक्त चेहरा तथा मरीज के ऊपर ढकी हुई सफेद चादर अनकही बात को कह रही थी.

‘ओह, यह तो अपनी विधवा मां का अकेला लड़का था. बहुत बुरा हुआ. शिरीष सुनेगा तो पागल हो उठेगा,’ उस की मां कह रही थी. मेरी कैजुअल्टी में एक पल भी ठहरने की इच्छा नहीं हुई. डा. विमल दूसरे डाक्टर को मरीजों के औवर दे रहे थे. हमारी ड्यूटी समाप्त हो चुकी थी, मेरे पैर दरवाजे की ओर बढ़ गए. पर एक घंटे बाद ही मुझे वापस लौटना पड़ा अपना स्टेथस्कोप लेने के लिए. इच्छा तो नहीं थी, पर जाना पड़ा.

अंदर घुसते ही आंखें स्वत: ही उस युवक के बैड की ओर मुड़ गईं. ऐसा ही जड़वत चेहरा, जैसा अर्जुन की मां का है, वही भावशून्य आंखें ले कर एक अधेड़ औरत बैठी थी. उस की अपनी मां, वही दृश्य जो मैं ने 25 वर्षों पहले देखा था. आज उस की पुनरावृत्ति हो रही थी.

कुछ देर पहले मैं उस ड्राइवर के लिए सजा की तजवीज कर रहा था. क्या दंड मिलना चाहिए उसे, यह  सोच रहा था. पर काश, अपने व डा. विमल के लिए भी कोई सजा सोच पाता, सिवा इस पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के. मेरा मन हाहाकार कर उठता है. कब मैं निगम बोध घाट पहुंच गया हूं. पता नहीं चला. सामने अर्जुन की चिता जल रही है. धूधू करती लाश, यह तो कुछ देर में बुझ जाएगी, पर क्या मेरे मन की आग बुझ सकेगी कभी?

पश्चात्ताप- भाग 2: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

‘अरे, यह क्या कर रहे हो?’ मैं ने जल्दी से अपने अंगूठे से दबा दिया. फिमोरल आरटरी कटी थी युवक की. उस व्यक्ति ने अपने अंगूठे से उस कटे स्थान को दबा कर काफी समझदारी का परिचय दिया था.

‘‘मांजी, मांजी,’’ एक आदमी अर्जुन की मां को झझकोर रहा है. मानो वह उन्हें सोए से जगाने का प्रयत्न कर रहा हो, ‘‘होश में आओ मांजी, यह अर्जुन है. आप का बेटा,’’ लोग अर्जुन की मां को रुलाना चाह रहे हैं, मैं वर्तमान में लौटता हूं. सब सोच रहे हैं कि यदि यह नहीं रोएगी तो इस के दिमाग पर असर होगा. पर वह वैसी ही बैठी है, अश्रुविहीन आंखें लिए हुए.

क्या रो पाई थी उस युवक की मां? मैं फिर अतीत में लौट जाता हूं. क्या उस के दिमाग पर असर नहीं हुआ होगा? कैसे जी रही होगी अब तक, या मर गई होगी? पुराना दृश्य फिर कौंधता है.

फिमोरल आरटरी दबा कर बैठा हूं और अपने साथ के दूसरे सीएमओ को कहता हूं कि जल्दी से शल्यचिकित्सक को बुलाइए. औपरेशन थिएटर में कहलवा दीजिए. एक फिमोरल आरटरी को रिपेयर करना है. इतने में एक दूसरे युवक को लोग अंदर ला रहे हैं. 3-4 व्यक्तियों ने उसे सहारा दिया हुआ है. वह लंबीलंबी सांसें ले रहा है. मेरे पास आ कर सब रुकते हैं और कहते हैं, ‘डाक्टर साहब, इस युवक को देखिए, यह इस के स्कूटर के पीछे बैठा हुआ था, पलंग पर लेटे उस युवक की ओर इशारा करते हैं जिस की फिमोरल आरटरी मैं दबा कर बैठा हूं. मैं दूसरे डाक्टर की ओर इशारा कर देता हूं क्योंकि मेरे हाथ व्यस्त हैं. डाक्टर विमल मरीज का निरीक्षण करते हैं और उस की हिस्टरी लेते हैं.

‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.

‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’

‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.

‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.

‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’

मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.

डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.

‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’

‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’

सुविधा, मेरी पत्नी, मेरी मनोदशा भांप कर धीरे से मेरा हाथ दबाती है. शब्द मेरे मुंह से निकलते हैं प्रत्यक्ष रूप में, ‘‘आप लोग लाश को उठवा कर निगम बोध घाट ले चलिए. इस की मां को तो कोई होश नहीं है.’’ वास्तव में कोई होश नहीं है. इन आंखों में अभी तक कोई भाव नहीं है, अभी भी अश्रुविहीन आंखें सुदूर, अंधकारमय भविष्य की ओर निहारतीं. इतना बड़ा वज्रपात और यह मौन…

काश, उस बस ड्राइवर ने सोचा होता. उस की असावधानी और लापरवाही कैसे एक समूची जिंदगी को खत्म कर देती है. जिसे अभी पूरा जीवन जीना था, असमय ही कालकवलित हो गया और उस के साथ ही एक पूरा परिवार, जिस में इस अभागी मां का अपने इस कलेजे के टुकड़े के अलावा पूरे संसार में कोई नहीं है, ध्वस्त हो गया है. उस के एकमात्र सहारे की डोर ही टूट गई और उस का खुद का जीवन भी शीशे की तरह किरिचकिरिच हो कर बिखर गया है. कैसे जिएगी यह. काश, वह ड्राइवर सोच पाता, देख पाता.

मुझे एक फिल्म याद आ रही है. ऐसे समय में फिल्म याद आना स्वयं को धिक्कारने को मन करता है, पर मन ही तो है, विचारों पर कोई वश तो नहीं इंसान का. उस फिल्म में एक युवक एक व्यक्ति को कुचल देता है. सर्दी के कोहरे में उसे वह दिखाई नहीं देता और अदालत में जज साहब दंडस्वरूप उस युवक को उस व्यक्ति के परिवार का पालनपोषण करने का भार सौंपते हैं और तब उस युवक को अपने अपराध का एहसास होता है कि कैसे उस की असावधानी ने पूरे परिवार का जीवन संकट में डाल दिया है.

काश, हमारी अदालतें ऐसा ही न्याय कर पातीं. ऐसे ड्राइवरों को इसी प्रकार की सजा दी जाती. जेल की सजा काटने से तो उन्हें उस परिवार के संकट का अनुभव नहीं होता जिस के परिवार का व्यक्ति मौत के मुंह में जाता है. अरे, मैं यह किन विचारों में बह गया हूं, सब लोग तो निगम बोध घाट रवाना हो गए हैं. मैं भी कार में बैठता हूं. स्टीयरिंग घुमाने के साथसाथ मन फिर घूम जाता है. 15-20 औरतें कैजुअल्टी में घुसी चली आ रही हैं. लड़के की मां आगेआगे रोती हुई आरही है, ‘अरे डाक्टर साहब, मेरे बच्चे को क्या हो गया, इसे बचा लीजिए. इस की तो बरात जाने वाली है. अभी एक घंटे के बाद इस की शादी होनी है. यह क्या हो गया मेरे लाल को. मैं ने तो बहुत मना किया था तुझे बाजार जाने को. पर नहीं माना,’ वह जोरजोर से रोने लगती है.

बस तुम्हारी हां की देर है: भाग 2

एक रात नींद में ही दिव्या को लगा कि कोई उस के पीछे सोया है. शायद नीलेश है, उसे लगा लेकिन जिस तरह से वह इंसान उस के शरीर पर अपना हाथ फिरा रहा था उसे शंका हुई. जब उस ने लाइट जला कर देखा तो स्तब्ध रह गई, क्योंकि वहां नीलेश नहीं बल्कि उस का पिता था जो आधे कपड़ों में उस के बैड पर पड़ा उसे गंदी नजरों से घूर रहा था.

‘‘आ…आप, आप यहां मेरे कमरे में… क… क्या, क्या कर रहे हैं पिताजी?’’ कह कर वह अपने कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन जरा उस का ढीठपन तो देखो, उस ने तो दिव्या को खींच कर अपनी बांहों में भर लिया और उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा. दिव्या को अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस का ससुर ही उस के साथ…

‘‘मैं, मैं आप की बहू हूं. फिर कैसे आप मेरे साथ…’’ वह डर के मारे हकलाते हुए बोली.

‘‘ बहू,’’ ठहाके मार कर हंसते हुए वह बोला, ‘‘क्या तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें मुझ से ही वारिस पैदा करना है और इसीलिए ही तो हम तुम्हें इस घर में बहू बना कर लाए हैं.’’

सुन कर दिव्या को लगा जैसे किसी ने उस के कानों में पिघला शीशा डाल दिया हो. वह कहने लगी, ‘‘यह कैसी पागलों सी बातें कर रहे हैं आप? क्या शर्मोहया बेच खाई है?’’

पर वह कहां कुछ सुननेसमझने वाला था. फिर उस ने दिव्या के ऊपर झपट्टा मारा. लेकिन उस ने अपनेआप को उस दरिंदे से बचाने के लिए जैसे ही दरवाजा खोला, सामने ही नीलेश और उस की मां खड़े मिले. घबरा कर वह अपनी सास से लिपट गई और रोते हुए कहने लगी कि कैसे उस के ससुर उस के साथ जबरदस्ती करना चाह रहे हैं… उसे बचा ले.

‘‘बहुत हो चुका यह चूहेबिल्ली का खेल… कान खोल कर सुन लो तुम कि ये सब जो हो रहा है न वह सब हमारी मरजी से ही हो रहा है और हम तुम्हें इसी वास्ते इस घर में बहू बना कर लाए हैं. ज्यादा फड़फड़ाओ मत और जो हो रहा है होने दो.’’

अपनी सास के मुंह से भी ऐसी बात सुन कर दिव्या का दिमाग घूम गया. उसे लगा वह बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उस ने कहा, ‘‘तो क्या आप को भी पता है कि आप का बेटा…’’

‘‘हां और इसीलिए तो तुम जैसी साधारण लड़की को हम ने इस घर में स्थान दिया वरना लड़कियों की कमी थी क्या हमारे बेटे के लिए.’’

‘‘पर मैं ही क्यों… यह बात हमें बताई, क्यों नहीं गईं. ये सारी बातें शादी के पहले…

क्यों धोखे में रखा आप सब ने हमें? बताइए, बताइए न?’’ चीखते हुए दिव्या कहने लगी, ‘‘आप लोगों को क्या लगता है मैं यह सब चुपचाप सहती रहूंगी? नहीं, बताऊंगी सब को तुम सब की असलियत?’’

‘‘क्या कहा, असलियत बताएगी? किसे? अपने बाप को, जो दिल का मरीज है…सोच अगर तेरे बाप को कुछ हो गया तो फिर तेरी मां का क्या होगा? कहां जाएगी वह तुझे ले कर? दुनिया को तो हम बताएंगे कि कैसे आते ही तुम ने घर के मर्दों पर डोरे डलने शुरू कर दिए और जब चोरी पकड़ी गई तो उलटे हम पर ही दोष मढ़ रही है,’’ दिव्या के बाल खींचते हुए नीलेश कहने लगा, ‘‘तुम ने क्या सोचा कि तू मुझे पसंद आ गई थी, इसलिए हम ने तुम्हारे घर रिश्ता भिजवाया था? देख, करना तो तुम्हें वही पड़ेगा जो हम चाहेंगे, वरना…’’ बात अधूरी छोड़ कर उस ने उसे उस के कमरे से बाहर निकाल दिया.

पूरी रात दिव्या ने बालकनी में रोते हुए बिताई. सुबह फिर उस की सास कहने लगी, ‘‘देखो बहू, जो हो रहा है होने दो… क्या फर्क पड़ता है कि तुम किस से रिश्ता बना रही हो और किस से नहीं. आखिर हम तो तुम्हें वारिस जनने के लिए इस घर में बहू बना कर लाए हैं न.’’

इस घर और घर के लोगों से घृणा होने लगी थी दिव्या को और अब एक ही सहारा था उस के पास. उस के ननद और ननदोई. अब वे ही थे जो उसे इस नर्क से आजाद करा सकते थे. लेकिन जब उन के मुंह से भी उस ने वही बातें सुनीं तो उस के होश उड़ गए. वह समझ गई कि उस की शादी एक साजिश के तहत हुई है.

3 महीने हो चुके थे उस की शादी को. इन 3 महीनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब दिव्या ने आंसू न बहाए हों. उस का ससुर जिस तरह से उसे गिद्ध दृष्टि से देखता था वह सिहर उठती थी. किसी तरह अब तक वह अपनेआप को उस दरिंदे से बचाए थी. इस बीच जब भी मनोहर अपनी बेटी को लिवाने आते तो वे लोग यह कह कर उसे जाने से रोक देते कि अब उस के बिना यह घर नहीं चल सकता. उन के कहने का मतलब था कि वे लोग दिव्या को बहुत प्यार करते हैं. इसीलिए उसे कहीं जाने नहीं देना चाहते हैं.

मन ही मन खुशी से झूम उठते मनोहर यह सोच कर कि उन की बेटी का उस घर में कितना सम्मान हो रहा है. लेकिन असलियत से वे वाकिफ नहीं थे कि उन की बेटी के साथ इस घर में क्याक्या हो रहा है…दिव्या भी अपने पिता के स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुप थी. लेकिन उस रात तो हद हो गई जब उसे उस के ससुर के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया. वह चिल्लाती रही पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. क्या करती बेचारी? उठा कर फूलदान उस दरिंदे के सिर पर दे मारा और जब उस के चिल्लाने की आवाजों से वे सब कमरे में आए तो वह सब की नजरें बचा कर घर से भाग निकली.

अपनी बेटी को यों अचानक अकेले और बदहवास अवस्था में देख कर मनोहर और नूतन हैरान रह गए, फिर जब उन्हें पूरी बात का पता चली तो जैसे उन के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई. आननफानन में वे अपनी बेटी की ससुराल पहुंच गए और जब उन्होंने उन से अपनी बेटी के जुल्मों का हिसाब मांगा और कहा कि क्यों उन्होंने उन्हें धोखे में रखा तो वे उलटे कहने लगे कि ऐसी कोई बात नहीं. उन्होंने ही अपनी पागल बेटी को उन के बेटे के पल्ले बांध दिया. धोखा तो उन के साथ हुआ है.

‘‘अच्छा तो फिर ठीक है, आप अपने बेटे की जांच करवाएं कि वह नपुंसक है या नहीं और मैं भी अपनी बेटी की दिमागी जांच करवाता हूं. फिर तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा न? तुम लोग क्या समझे कि हम चुप बैठ जाएंगे? नहीं, इस भ्रम में मत रहना. तुम सब ने अब तक मेरी शालीनता देखी है पर अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कि मैं क्या कर सकता हूं. चाहे दुनिया की सब से बड़ी से बड़ी अदालत तक ही क्यों न जाना पड़े हमें, पर छोड़ूंगा नहीं…

आगे पढ़ें

तू आए न आए – भाग 3: शफीका का प्यार और इंतजार

निश्चित दिन, निश्चित समय, उन के घर की डौरबैल बजाने से पहले, क्षणभर के लिए हाथ कांपा था, ‘तुम शफीका के भतीजे के बेटे हो. गेटआउट फ्रौम हियर. वह पृष्ठ मैं कब का फाड़ चुका हूं. तुम क्या टुकड़े बटोरने आए हो?’ कुछ इस तरह की ऊहापोह में मैं ने डौरबैल पर उंगली रख दी.

‘‘प्लीज कम इन, आई एम वेटिंग फौर यू.’’ एक अनौपचारिक स्वागत के बाद उन के द्वारा मेरा परिचय और मेरा मिलने का मकसद पूछते ही मैं कुछ देर तो चुप रहा, फिर अपने ननिहाल का पता बतलाने के बाद देर तक खुद से लड़ता रहा.

अनौपचारिक 2-3 मुलाकातों के बाद वे मुझ से थोड़ा सा बेबाक हो गए. उन की दूसरी पत्नी की मृत्यु 15 साल पहले हो चुकी थी. बेटों ने पाश्चात्य सभ्यता के मुताबिक अपनी गृहस्थियां अलग बसा ली थीं. वीकैंड पर कभी किसी का फोन आ जाता, कुशलता मिल जाती. महीनों में कभी बेटों को डैड के पास आने की फुरसत मिलती भी तो ज्यादा वक्त फोन पर बिजनैस डीलिंग में खत्म हो जाता. तब सन जैसी सफेद पलकें, भौंहें और सिर के बाल चीखचीख कर पूछने लगते, ‘क्या इसी अकेलेपन के लिए तुम श्रीनगर में पूरा कुनबा छोड़ कर यहां आए थे?’

हालांकि डाक्टर खालिद अनवर की उम्र चेहरे पर हादसों का हिसाब लिखने लगी थी मगर बचपन से जवानी तक खाया कश्मीर का सूखा मेवा और फेफड़े में भरी शुद्ध, शीतल हवा उन की कदकाठी को अभी भी बांस की तरह सीधा खड़ा रखे हुए है. डाक्टर ने बुढ़ापे को पास तक नहीं फटकने दिया. अकसर बेटे उन के कंधे पर हाथ रख कर कहते हैं, ‘‘डैड, यू आर स्टिल यंग दैन अस. सो, यू डौंट नीड अवर केयर.’’ यह कहते हुए वे शाम से पहले ही अपने घर की सड़क की तरफ मुड़ जाते हैं.

शरीर तो स्वस्थ है लेकिन दिल… छलनीछलनी, दूसरी पत्नी से छिपा कर रखी गई शफीका की चिट्ठियां और तसवीरों को छिपछिप कर पढ़ने और देखने के लिए मजबूर थे. प्यार में डूबे खतों के शब्द, साथ गुजारे गिनती के दिनों के दिलकश शाब्दिक बयान, 63 साल पीछे ले जाता, यादों के आईने में एक मासूम सा चेहरा दिखलाई देने लगता. डाक्टर हाथ बढ़ा कर उसे छू लेना चाहते हैं जिस की याद में वे पलपल मरमर कर जीते रहे. बीवी एक ही छत के नीचे रह कर भी उन की नहीं थी. दौलत का बेशुमार अंबार था. शानोशौकत, शोहरत, सबकुछ पास में था अगर नहीं था तो बस वह परी चेहरा, जिस की गरम हथेलियों का स्पर्श उन की जिंदगी में ऊर्जा भर देता.

मेरे अपनेपन में उन्हें अपने वतन की मिट्टी की खुशबू आने लगी थी. अब वे परतदरपरत खुलने लगे थे. एक दिन, ‘‘लैपटौप पर क्या सर्च कर रहे हैं?’’

‘‘बेटी के लिए प्रौपर मैच ढूंढ़ रहा हूं,’’ कहते हुए उन का गला रुंधने लगा. उन की यादों की तल्ख खोहों में उस वक्त वह कंपा देने वाली घड़ी शामिल थी, जब उन की बेटी का पति अचानक बिना बताए कहीं चला गया. बहुत ढूंढ़ा, इंटरनैशनल चैनलों व अखबारों में उस की गुमशुदगी की खबर छपवाई, लेकिन सब फुजूल, सब बेकार. तब बेटी के उदास चेहरे पर एक चेहरा चिपकने लगा. एक भूलाबिसरा चेहरा, खोयाखोया, उदास, गमगीन, छलछला कर याचना करती 2 बड़ीबड़ी कातर आंखें.

किस का है यह चेहरा? दूसरी बीवी का? नहीं, तो? मां का? बिलकुल नहीं. फिर किस का है, जेहन को खुरचने लगे, 63 साल बाद यह किस का चेहरा? चेहरा बारबार जेहन के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. किस की हैं ये सुलगती सवालिया आंखें? किस का है यह कंपकंपाता, याचना करता बदन, मगर डाक्टर पर उस का लैशमात्र भी असर नहीं हुआ था. लेकिन आज जब अपनी ही बेटी की सिसकियां कानों के परदे फाड़ने लगीं तब वह चेहरा याद आ गया.

दुनियाभर के धोखों से पाकसाफ, शबनम से ज्यादा साफ चेहरा, वे कश्मीर की वादियां, महकते फूलों की लटकती लडि़यों के नीचे बिछी खूबसूरत गुलाबी चादर, नर्म बिस्तर पर बैठी…खनकती चूडि़यां, लाल रेशमी जोड़े से सजा आरी के काम वाला लहंगाचोली, मेहंदी से सजे 2 गोरे हाथ, कलाई पर खनकती सोने की चूडि़यां, उंगलियों में फंसी अंगूठियां. हां, हां, कोई था जिस की मद्धम आवाज कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रही थी, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी खालिद, हमेशा.

लाहौर एयरपोर्ट पर अलविदा के लिए लहराता हाथ, दिल में फांस सी चुभी कसक इतनी ज्यादा कि मुंह से बेसाख्ता चीख निकल गई, ‘‘हां, गुनहगार हूं मैं तुम्हारा. तुम्हारे दिल से निकली आह… शायद इसीलिए मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई. मेरे चाचा के बहुत जोर डालने पर, न चाहते हुए भी मुझे उन की अंगरेज बेटी से शादी करनी पड़ी. दौलत का जलवा ही इतना दिलफरेब होता है कि अच्छेअच्छे समझदार भी धोखा खा जाते हैं.

‘‘शफीका, तुम से वादा किया था मैं ने. तुम्हें लाहौर ला कर अपने साथ रखने का. वादा था नए सिरे से खुशहाल जिंदगी में सिमट जाने का, तुम्हारी रातों को हीरेमोती से सजाने का, और दिन को खुशियों की चांदनी से नहलाने का. पर मैं निभा कहां पाया? आंखें डौलर की चमक में चौंधिया गईं. कटे बालों वाली मोम की गुडि़या अपने शोख और चंचल अंदाज से जिंदगी को रंगीन और मदहोश कर देने वाली महक से सराबोर करती चली गई मुझे.’’

अचानक एक साल बाद उन का दामाद इंगलैंड लौट आया, ‘‘अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. आप की बेटी के साथ ही रहूंगा. वादा करता हूं.’’

दीवानगी की हद तक मुहब्बत करने वाली पत्नी को छोड़ कर दूसरी अंगरेज औरत के टैंपरेरी प्यार के आकर्षण में बंध कर जब वह पूरी तरह से कंगाल हो गया तो लौटने के लिए उसे चर्चों के सामने खड़े हो कर वायलिन बजा कर लोगों से पैसे मांगने पड़े थे.

ये भी पढ़ें- विदेशी दामाद: भाग 1

पति की अपनी गलती की स्वीकृति की बात सुन कर बेटी बिलबिला कर चीखी थी, ‘‘वादा, वादा तोड़ कर उस फिनलैंड वाली लड़की के साथ मुझ पत्नी को छोड़ कर गए ही क्यों थे? क्या कमी थी मुझ में? जिस्म, दौलत, ऐशोआराम, खुशियां, सबकुछ तो लुटाया था तुम पर मैं ने. और तुम? सिर्फ एक नए बदन की हवस में शादी के पाकीजा बंधन को तोड़ कर चोरों की तरह चुपचाप भाग गए. मेरे यकीन को तोड़ कर मुझे किरचियों में बिखेर दिया.

‘‘तुम को पहचानने में मुझ से और मेरे बिजनैसमैन कैलकुलेटिव पापा से भूल हो गई. मैं इंगलैंड में पलीपढ़ी हूं, लेकिन आज तक दिल से यहां के खुलेपन को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकी. मुझ से विश्वासघात कर के पछतावे का ढोंग करने वाले शख्स को अब मैं अपना नहीं सकती. आई कांट लिव विद यू, आई कांट.’’ यह कहती हुई तड़प कर रोई थी डाक्टर की बेटी.

आज उस की रुलाई ने डाक्टर को हिला कर रख दिया. आज से 50 साल पहले शफीका के खामोश गरम आंसू इसी पत्थरदिल डाक्टर को पिघला नहीं सके थे लेकिन आज बेटी के दर्द ने तोड़ कर रख दिया. उसी दम दोटूक फैसला, दामाद से तलाक लेने के लिए करोड़ों रुपयों का सौदा मंजूर था क्योंकि बेटी के आंसुओं को सहना बरदाश्त की हद से बाहर था.

डाक्टर, शफीका के कानूनी और मजहबी रूप से सहारा हो कर भी सहारा न बन सके, उस मजलूम और बेबस औरत के वजूद को नकार कर अपनी बेशुमार दौलत का एक प्रतिशत हिस्सा भी उस की झोली में न डाल सके. शफीका की रात और दिन की आह अर्श से टकराई और बरसों बाद कहर बन कर डाक्टर की बेटी पर टूटी. वह मासूम चेहरा डाक्टर को सिर्फ एक बार देख लेने, एक बार छू लेने की चाहत में जिंदगी की हर कड़वाहट को चुपचाप पीता रहा. उस पर रहम नहीं आया कभी डाक्टर को. लेकिन आज बेटी की बिखरतीटूटती जिंदगी ने डाक्टर को भीतर तक आहत कर दिया. अब समझ में आया, प्यार क्या है. जुदाई का दर्द कितना घातक होता है, पहाड़ तक दरक जाते हैं, समंदर सूख जाते हैं.

मैं यह खबर फूफीदादी तक जल्द से जल्द पहुंचाना चाहता था, शायद उन्हें तसल्ली मिलेगी. लेकिन नहीं, मैं उन के दिल से अच्छी तरह वाकिफ था. ‘मेरे दिल में डाक्टर के लिए नफरत नहीं है. मैं ने हर लमहा उन की भलाई और लंबी जिंदगी की कामना की है. उन की गलतियों के बावजूद मैं ने उन्हें माफ कर दिया है, बजी,’ अकसर वे मुझ से ऐसा कहती थीं.

मैं फूफीदादी को फोन करने की हिम्मत जुटा ही नहीं सका था कि आधीरात को फोन घनघना उठा था, ‘‘बजी, फूफीदादी नहीं रहीं.’’ क्या सोच रहा था, क्या हो गया. पूरी जिंदगी गीली लकड़ी की तरह सुलगती रहीं फूफीदादी.

सुबह का इंतजार मेरे लिए सात समंदर पार करने की तरह था. धुंध छंटते ही मैं डाक्टर के घर की तरफ कार से भागा. कम से कम उन्हें सचाई तो बतला दूं. कुछ राहत दे कर उन की स्नेहता हासिल कर लूं मगर सामने का नजारा देख कर आंखें फटी की फटी रह गईं. उन के दरवाजे पर एंबुलैंस खड़ी थी. और घबराई, परेशान बेटी ड्राइवर से जल्दी अस्पताल ले जाने का आग्रह कर रही थी. हार्टअटैक हुआ था उन्हें. हृदयविदारक दृश्य.

मैं स्तब्ध रह गया. स्टेयरिंग पर जमी मेरी हथेलियों के बीच फूफीदादी का लिखा खत बर्फबारी में भी पसीने से भीग गया, जिस पर लिखा था, ‘बजी, डाक्टर अगर कहीं मिल जाएं तो यह आखिरी अपील करना कि वे मुझ से मिलने कश्मीर कभी नहीं आए तो मुझे कोई शिकवा नहीं है लेकिन जिंदगी के रहते एक बार, बस एक बार, अपनी मां की कब्र पर फातेहा पढ़ जाएं और अपनी सरजमीं, कश्मीर की खूबसूरत वादियों में एक बार सांस तो ले लें. मेरी 63 साल की तपस्या और कुरबानियों को सिला मिल जाएगा. मुझे यकीन है तुम अपने वतन से आज भी उतनी ही मुहब्बत करते हो जितनी वतन छोड़ते वक्त करते थे.’

गुनाहों की सजा तो कानून देता है, लेकिन किसी का दिल तोड़ने की सजा देता है खुद का अपना दिल.

‘तू आए न आए,

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें…’

इस गजल का एकएक शब्द खंजर बन कर मेरे सीने में उतरने लगा और मैं स्टेयरिंग पर सिर पटकपटक कर रो पड़ा.

सहारा – पार्ट 2

‘क्योें? उन से क्यों पूछें? यह हमारा व्यक्तिगत मामला है, इस बच्चे को हम ही तो पालेंगेपोसेंगे.’

‘फिर भी, यह बच्चा उन के ही परिवार का अंग होगा न, उन्हीं का वंशज कहलाएगा न?’

यह सुन कर अर्चना बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘वह सब मैं नहीं जानती. तुम्हारे मातापिता से तुम्हीं निबटो. यह अच्छी रही, हर बात में अपने मांबाप की आड़ लेते हो. क्या तुम अपनी मरजी से एक भी कदम उठा नहीं सकते?’

रजनीश के मांबाप ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने के प्रस्ताव का जम कर विरोध किया इधर अर्चना भी अड़ गई कि वह दीपू को गोद ले कर ही रहेगी.

‘‘रजनीश…’’ मोहिनी ने आवाज दी, ‘‘खाना खाने नीचे, डाइनिंग रूम में चलोगे या यहीं पर कुछ मंगवा लें?’’

यह सुन कर रजनीश की तंद्रा टूटी. एक ही झटके में वह वर्तमान में लौट आया. बोला, ‘‘यहीं पर मंगवा लो.’’

खाना खाते वक्त रजनीश ने पूछा, ‘‘कल शाम को तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘सोच रही थी यहां की जौहरी की दुकानें देखूं. मेरी एक सहेली मुझे ले जाने वाली है.’’

‘‘ठीक है, मैं भी शायद व्यस्त रहूंगा.’’

रजनीश ने अर्चना को फोन किया, ‘‘अर्चना, हमारा कल का प्रोग्राम तय है न?’’

‘‘हां, अवश्य.’’

फोन का चोंगा रख कर अर्चना उत्तेजित सी टहलने लगी कि रजनीश अब क्यों उस से मिलने आ रहा है. उसे अब मुझ से क्या लेनादेना है?

तलाकनामे पर हुए हस्ताक्षर ने उन के बीच कड़ी को तोड़ दिया था. अब वे एकदूसरे के लिए अजनबी थे.

‘अर्चना, तू किसे छल रही है?’ उस के मन ने सवाल किया.

रजनीश से तलाक ले कर वह एक पल भी चैन से न रह पाई. पुरानी यादें मन को झकझोर देतीं. भूलेबिसरे दृश्य मन को टीस पहुंचाते. बहुत ही कठिनाई से उस ने अपनी बिखरी जिंदगी को समेटा था, अपने मन की किरिचों को सहेजा था.

ये भी  पढ़ें- आखिरी बाजी

उस का मन अनायास ही अतीत की गलियों में विचरने लगा.

उसे वह दिन याद आया जब नन्हे दीपू को ले कर घर में घमासान शुरू हो गया था.

उस ने रजनीश से कहा था कि वह दफ्तर से जरा जल्दी आ जाए ताकि वे दोनों अनाथाश्रम जा कर बच्चों में मिठाई बांट सकें. आश्रम वालों ने बताया है कि आज दीपू का जन्मदिन है.

यह सुन कर रजनीश के माथे पर बल पड़ गए थे. वह बोला, ‘यह सब न ही करो तो अच्छा है. पराए बालक से हमें क्या लेना.’

‘अरे वाह…पराया क्यों? हम जल्दी ही दीपू को गोद लेने वाले जो हैं न?’

‘इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.’

‘तुम जल्दीबाजी की कहते हो, मेरा वश चले तो उसे आज ही घर ले आऊं. पता नहीं इस बच्चे से मुझे इतना मोह क्यों हो गया है. जरूर हमारा पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा,’ कहती हुई अर्चना की आंखें भर आई थीं.

यह देख कर रजनीश द्रवित हो कर बोला था, ‘ठीक है, मैं शाम को जरा जल्दी लौटूंगा. फिर चले चलेंगे.’

रजनीश को दरवाजे तक विदा कर के अर्चना अंदर आई तो सास ने पूछा, ‘कहां जाने की बात हो रही थी, बहू?’

‘अनाथाश्रम.’

यह सुन कर तो सास की भृकुटियां तन गईं. वह बोली, ‘तुम्हें भी बैठेबैठे पता नहीं क्या खुराफात सूझती रहती है. कितनी बार समझाया कि पराई ज्योति से घर में उजाला नहीं होता, पर तुम हो कि मानती ही नहीं. अरे, गोद लिए बच्चे भी कभी अपने हुए हैं, खून के रिश्ते की बात ही और होती है,’ फिर वह भुनभुनाती हुई पति के पास जा कर बोली, ‘अजी सुनते हो?’

‘क्या है?’

‘आज बहूबेटा अनाथाश्रम जा रहे हैं.’

‘सो क्यों?’

‘अरे, उसी मुए बच्चे को गोद लेने की जुगत कर रहे हैं और क्या. मियांबीवी की मिलीभगत है. वैद्य, डाक्टरों को पैसा फूंक चुके, पीरफकीरों को माथा टेक चुके, जगहजगह मन्नत मान चुके, अब चले हैं अनाथाश्रम की खाक छानने.

‘न जाने किस की नाजायज संतान, जिस के कुलगोत्र का ठिकाना नहीं, जातिपांति का पता नहीं, ला कर हमारे सिर मढ़ने वाले हैं. मैं कहती हूं, यदि गोद लेना ही पड़ रहा है तो हमारे परिवार में बच्चों की कमी है क्या? हम से तो भई जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाती. तुम जरा रजनीश से बात क्यों नहीं करते.’

‘ठीक है, मैं रजनीश से बात करूंगा.’

‘पता नहीं कब बात करोगे, जब पानी सिर से ऊपर हो जाएगा तब? जाने यह निगोड़ी बहू हम से किस जन्म का बदला ले रही है. पहले मेरे भोलेभाले बेटे पर डोरे डाले, अब बच्चा गोद लेने का तिकड़म कर रही है.’

रजनीश अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर निढाल पड़ गया. अर्चना उस के पास खिसक आई और उस के बालों में उंगलियां चलाती हुई बोली, ‘क्या बात है, बहुत थकेथके लग रहे हो.’

‘आज अम्मां व पिताजी के साथ जम कर बहस हुई. वे दीपू को गोद लेने के कतई पक्ष में नहीं हैं.’

‘तो फिर?’

‘तुम्हीं बताओ.’

‘मैं क्या बताऊं, एक जरा सी बात को इतना तूल दिया जा रहा है. क्या और निसंतान दंपती बच्चा गोद नहीं लेते? हम कौन सी अनहोनी बात करने जा रहे हैं.’

‘मैं उन से कह कर हार गया. वे टस से मस नहीं हुए. मैं तो चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा हूं. इधर तुम्हारी जिद उधर उन की…’

‘तो अब?’

‘उन्होंने एक और प्रस्ताव रखा है…’

‘वह क्या?’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘वे कहते हैं कि चूंकि तुम मां नहीं बन सकती हो. मैं तुम्हें तलाक दे कर दूसरी शादी कर लूं.’

‘क्या…’ अर्चना बुरी तरह चौंकी, ‘तुम मेरा त्याग करोगे?’

‘ओहो, पूरी बात तो सुन लो. दूसरी शादी महज एक बच्चे की खातिर की जाएगी. जैसे ही बच्चा हुआ, उसे तलाक दे कर मैं दोबारा तुम से ब्याह कर लूंगा.’

‘वाह…वाह,’ अर्चना ने तल्खी से कहा, ‘क्या कहने हैं तुम लोगों की सूझबूझ के. मेरे साथ तो नाइंसाफी कर ही रहे हो, उस दूसरी, निरपराध स्त्री को भी छलोगे. बिना प्यार के उस से शारीरिक संबंध स्थापित करोगे और अपना मतलब साध कर उसे चलता करोगे?’

‘और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘है क्यों नहीं. कह दो अपने मातापिता से कि यह सब संभव नहीं. तुम पुरुष हम स्त्रियों को अपने हाथ की कठपुतली नहीं बना सकते. क्या तुम से यह कहते नहीं बना कि मैं ने शादी से पहले गर्भ धारण किया था? यदि तुम ने अबार्शन न करा दिया होता तो…’ कहतेकहते अर्चना का गला भर आया था.

आगे पढ़ें :

सहारा – पार्ट 1

लेखक- रमणी मोटाना

‘‘अर्चना,’’ उस ने पीछे से पुकारा.

‘‘अरे, रजनीश…तुम?’’ उस ने मुड़ कर देखा और मुसकरा कर बोली.

‘‘हां, मैं ही हूं, कैसा अजब इत्तिफाक है कि तुम दिल्ली की और मैं मुंबई का रहने वाला और हम मिल रहे हैं बंगलौर की सड़क पर. वैसे, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं आजकल यहीं रहती हूं. यहां घडि़यों की एक फैक्टरी में जनसंपर्क अधिकारी हूं. और तुम?’’

‘‘मैं यहां अपने व्यापार के सिलसिले में आया हुआ हूं. मेरी पत्नी भी साथ है. हम पास ही एक होटल में ठहरे हैं.’’

2-4 बातें कर के अर्चना बोली, ‘‘अच्छा…मैं चलती हूं.’’

‘‘अरे रुको,’’ वह हड़बड़ाया, ‘‘इतने  सालों बाद हम मिले हैं, मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं. क्या हम दोबारा नहीं मिल सकते?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहते हुए अर्चना ने विजिटिंग कार्ड पर्स में से निकाला और उसे देती हुई बोली, ‘‘यह रहा मेरा पता व फोन नंबर. हो सके तो कल शाम की चाय मेरे साथ पीना और अपनी पत्नी को भी लाना.’’

अर्चना एक आटो-रिकशा में बैठ कर चली गई. रजनीश एक दुकान में घुसा जहां उस की पत्नी मोहिनी शापिंग कर तैयार बैठी थी.

‘‘मेरीखरीदारी हो गई. जरा देखो तो ये साडि़यां ज्यादा चटकीली तो नहीं हैं. पता नहीं ये रंग

मुझ पर खिलेंगे

या नहीं,’’ मोहिनी बोली.

रजनीश ने एक उचटती नजर मोहिनी पर डाली. उस का मन हुआ कि कह दे, अब उस के थुलथुल शरीर पर कोई कपड़ा फबने वाला नहीं है, पर वह चुप रह गया.

मोहिनी की जान गहने व कपड़ों में बसती है. वह सैकड़ों रुपए सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्चती है. घंटों बनती-संवरती है. केश काले करती है, मसाज कराती है. नाना तरह के उपायों व साधनों से समय को बांधे रखना चाहती है. इस के विपरीत रजनीश आगे बढ़ कर बुढ़ापे को गले लगाना चाहता है. बाल खिचड़ी, तोंद बढ़ी हुई, एक बेहद नीरस, उबाऊ जिंदगी जी रहा है वह. मन में कोई उत्साह नहीं. किसी चीज की चाह नहीं. बस, अनवरत पैसा कमाने में लगा रहता है.

ये भी  पढ़ें- उपहार

कभीकभी वह सोचता है कि वह क्यों इतनी जीतोड़ मेहनत करता है. उस के बाद उस के ऐश्वर्य को भोगने वाला कौन है. न कोई आसऔलाद न कोई नामलेवा… और तो और इसी गम में घुलघुल कर उस की मां चल बसीं.

संतान की बेहद इच्छा ने उसे अर्चना को तलाक दे कर मोहिनी से ब्याह करने को प्रेरित किया था. पर उस की इच्छा कहां पूरी हो पाई थी.

होटल पहुंच कर रजनीश बालकनी में जा बैठा. सामने मेज पर डिं्रक का सामान सजा हुआ था. रजनीश ने एक पैग बनाया और घूंटघूंट कर के पीने लगा.

उस का मन बरबस अतीत में जा पहुंचा.

कालिज की पढ़ाई, मस्तमौला जीवन. अर्चना से एक दिन भेंट हुई. पहले हलकी नोकझोंक से शुरुआत हुई, फिर छेड़छाड़, दोस्ती और धीरेधीरे वे प्रेम की डोर में बंध गए थे.

एक रोज अर्चना उस के पास घबराई हुई आई और बोली, ‘रजनीश, ऐसे कब तक चलेगा?’

‘क्या मतलब?’

‘हम यों चोरी- छिपे कब तक मिलते रहेंगे?’

‘क्यों भई, इस में क्या अड़चन है? तुम लड़कियों के होस्टल में रहती हो, मैं अपने परिवार के साथ. हमें कोई बंदिश नहीं है.’

‘ओहो…तुम समझते नहीं, हम शादी कब कर रहे हैं?’

‘अभी से शादी की क्या जल्दी पड़ी है, पहले हमारी पढ़ाई तो पूरी हो जाए…उस के बाद मैं अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाऊंगा फिर जा कर शादी…’

‘इस में तो सालों लग जाएंगे,’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘तो लगने दो न…हम कौन से बूढ़े हुए जा रहे हैं.’

‘हमारे प्यार को शादी की मुहर लगनी जरूरी है.’

‘बोर मत करो यार,’ रजनीश ने उसे बांहों में समेटते हुए कहा, ‘तनमनधन से तो तुम्हारा हो ही चुका हूं, अब अग्नि के सामने सिर्फ चंद फेरे लेने में ही क्या रखा है.’

‘रजनीश,’ अर्चना उस की गिरफ्त से छूट कर घुटे हुए स्वर में बोली, ‘मैं…मैं प्रेग्नैंट हूं.’

‘क्या…’ रजनीश चौंका, ‘मगर हम ने तो पूरी सावधानी बरती थी…खैर, कोई बात नहीं. इस का इलाज है मेरे पास, अबार्शन.’

‘अबार्शन…’ अर्चना चौंक कर बोली, ‘नहीं, रजनीश, मुझे अबार्शन से बहुत डर लगता है.’

‘पागल न बनो. इस में डरने की क्या बात है? मेरा एक दोस्त मेडिकल कालिज में पढ़ता है. वह आएदिन ऐसे केस करता रहता है. कल उस के पास चले चलेंगे, शाम तक मामला निबट जाएगा. किसी को कानोंकान खबर भी न होगी.’

‘लेकिन जब हमें शादी करनी ही है तो यह सब करने की जरूरत?’

‘शादी करनी है सो तो ठीक है, लेकिन अभी से शादी के बंधन में बंधना सरासर बेवकूफी होगी. और जरा सोचो, अभी तक मेरे मांबाप को हमारे संबंधों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम. अचानक उन के सामने फूला पेट ले कर जाओगी तो उन्हें बुरी तरह सदमा पहुंचेगा.

‘नहीं, अर्चना, मुझे उन्हें धीरेधीरे पटाना होगा. उन्हें राजी करना होगा. आखिर मैं उन की इकलौती संतान हूं. मैं उन की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता.’

‘प्यार का खेल खेलने से पहले ही यह सब सोचना था न?’ अर्चना कुढ़ कर बोली.

‘डार्ल्ंिग, नाराज न हो, मैं वादा करता हूं कि पढ़़ाई पूरी होते ही मैं धूमधड़ाके से तुम्हारे द्वार पर बरात ले कर आऊंगा और फिर अपने यहां बच्चों की लाइन लगा दूंगा…’

लेकिन शादी के 10-12 साल बाद भी बच्चे न हुए तो रजनीश व अर्चना ने डाक्टरों का दरवाजा खटखटाया था और हरेक डाक्टर का एक ही निदान था कि अर्चना के अबार्शन के समय नौसिखिए डाक्टर की असावधानी से उस के गर्भ में ऐसी खराबी हो गई है जिस से वह भविष्य में गर्भ धारण करने में असमर्थ है.

यह सुन कर अर्चना बहुत दुखी हुई थी. कई दिन रोतेकलपते बीते. जब जरा सामान्य हुई तो उस ने रजनीश को एक बच्चा गोद लेने को मना लिया.

अनाथाश्रम में नन्हे दीपू को देखते ही वह मुग्ध हो गई थी, ‘देखो तो रजनीश, कितना प्यारा बच्चा है. कैसा टुकुरटुकुर हमें ताक रहा है. मुझे लगता है यह हमारे लिए ही जन्मा है. बस, मैं ने तो तय कर लिया, मुझे यही बच्चा चाहिए.’

‘जरा धीरज धरो, अर्चना. इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं. एक बार अम्मां व पिताजी से भी पूछ लेना ठीक रहेगा.’

आगे पढ़ें:

एक जहां प्यार भरा: भाग 2

“पर यह कैसे हो सकता है?” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

“क्यों नहीं हो सकता?”

“आई मीन मुझे बहुत से लोग पसंद करते हैं, कई दोस्त हैं मेरे. लड़कियां भी हैं जो मुझ से बातें करती हैं. पर किसी ने आज तक मुझे आई लव यू तो नहीं कहा था. क्या तुम वाकई…? आर यू श्योर ?”

“यस इत्सिंग. आई लव यू.”

“ओके… थोड़ा समय दो मुझे रिद्धिमा.”

 ये भी पढ़ें : पैकेज 24 लाख का : आशा को किस बात का गुमान था

 

“ठीक है, कल तक का समय ले लो. अब हम परसों बात करेंगे,” कह कर मैं औफलाइन हो गई.

मुझे यह तो अंदाजा था कि वह मेरे प्रस्ताव पर सहज नहीं रह पाएगा. पर जिस तरह उस ने बात की थी कि उस की बहुत सी लड़कियों से भी दोस्ती है. स्वाभाविक था कि मैं भी थोड़ी घबरा रही थी. मुझे डर लग रहा था कि कहीं वह इस प्रस्ताव को अस्वीकार न कर दे. सारी रात मैं सो न सकी. अजीबअजीब से खयाल आ रहे थे. आंखें बंद करती तो इत्सिंग का चेहरा सामने आ जाता. किसी तरह रात गुजरी. अब पूरा दिन गुजारना था क्योंकि मैं ने इत्सिंग से कहा था कि मैं परसों बात करूंगी. इसलिए मैं जानबूझ कर देर से जागी और नहाधो कर पढ़ने बैठी ही थी कि सुबहसुबह अपने व्हाट्सएप पर इत्सिंग का मैसेज देख कर मैं चौंक गई.

धड़कते दिल के साथ मैं ने मैसेज पढ़ा. लिखा था,”डियर रिद्धिमा, कल पूरी रात मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम्हारा प्रस्ताव भी मेरे दिलोदिमाग में था. काफी सोचने के बाद मैं ने फैसला लिया है कि हम चीन में अपना घर बनाएंगे पर एक घर इंडिया में भी होगा. जहां गरमी की छुट्टियों में बच्चे नानानानी के साथ अपना वक्त बिताएंगे.”

“तो मिस्टर इन बातों का सीधासीधा मतलब भी बता दीजिए,” मैं ने शरारत से पूछा तो अगले ही पल इत्सिंग ने बोल्ड फौंट में आई लव यू टू डियर लिख कर भेजा. साथ में एक बड़ा सा दिल भी. मैं खुशी से झूम उठी. वह मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल था. अब तो मेरी जिंदगी का गुलशन प्यार की खुशबू से महक उठा था. हम व्हाट्सएप पर चैटिंग के साथ फोन पर भी बातें करने लगे थे.

कुछ महीने के बाद एक दिन मैं ने इत्सिंग से फिर से अपने दिल की बात की,”यार, जब हम प्यार करते ही हैं तो क्यों न शादी भी कर लें.”

“शादी?”

“हां शादी.”

“तुम्हें अजीब नहीं लग रहा?”

“पर क्यों? शादी करनी तो है ही न इत्सिंग या फिर तुम केवल टाइमपास कर रहे हो?” मैं ने उसे डराया था और वह सच में डर भी गया था.

वह हकलाता हुआ बोला,”ऐसा नहीं है रिद्धिमा. शादी तो करनी ही है पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह फैसला बहुत जल्दी का हो जाएगा? कम से कम शादी से पहले एक बार हमें मिल तो लेना ही चाहिए,”कह कर वह हंस पड़ा.

इत्सिंग का जवाब सुन कर मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाई.

अब हमें मिलने का दिन और जगह तय करना था. यह 2010 की बात थी. शंघाई वर्ल्ड ऐक्सपो होने वाला था. आयोजन से पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंडियन पैविलियन की तरफ से वालंटियर्स के सिलैक्शन के लिए इंटरव्यू लिए जा रहे थे. मैं ने जरा सी भी देर नहीं की. इंटरव्यू दिया और सिलैक्ट भी हो गई.

इस तरह शंघाई के उस वर्ल्ड ऐक्सपो में हम पहली दफा एकदूसरे से मिले. वैसे तो हम ने एकदूसरे की कई तसवीरें देखी थीं पर आमनेसामने देखने की बात ही अलग होती है. एकदूसरे से मिलने के बाद हमारे दिल में जो एहसास उठे उसे बयां करना भी कठिन था. पर एक बात तो तय थी कि अब हम पहले से भी ज्यादा श्योर थे कि हमें शादी करनी ही है.

 ये भी पढ़ें : लफंगे : क्यों घबरा गई थी आरती

ऐक्सपो खत्म होने पर मैं ने इत्सिंग से कहा,”एक बार मेरे घर चलो. मेरे मांबाप से मिलो और उन्हें इस शादी के लिए तैयार करो. उन के आगे साबित करो कि तुम मेरे लिए परफैक्ट रहोगे.”

इत्सिंग ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया. हम एकदूसरे के आगोश में खो गए. 2 दिन बाद ही इत्सिंग मेरे साथ दिल्ली एअरपोर्ट पर था. मैं उसे रास्ते भर समझाती आई थी कि उसे क्या बोलना है और कैसे बोलना है, किस तरह मम्मीपापा को इंप्रैस करना है.

मैं ने उसे समझाया था,”हमारे यहां बड़ों को गले नहीं लगाते बल्कि आशीर्वाद लेते हैं. नमस्कार करते हैं.”

मैं ने उसे सब कुछ कर के दिखाया था. मगर एअरपोर्ट पर मम्मीपापा को देखते ही इत्सिंग सब भूल गया और हंसते हुए उन के गले लग गया. मम्मीपापा ने भी उसे बेटे की तरह सीने से लगा लिया था. मेरी फैमिली ने इत्सिंग को अपनाने में देर नहीं लगाई थी मगर उस के मम्मीपापा को जब यह बात पता चली और इत्सिंग ने मुझे उन से मिलवाया तो उन का रिएक्शन बहुत अलग था.

उस के पापा ने नाराज होते हुए कहा था,”लड़की की भाषा, रहनसहन, खानपान, वेशभूषा सब बिलकुल अलग होंगे. कैसे निभाएगी वह हमारे घर में? रिश्तेदारों के आगे हमारी कितनी बदनामी होगी.”

इत्सिंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था,”डोंट वरी पापा, रिद्धिमा सब कुछ संभाल लेगी. रिद्धिमा खुद को बदलने के लिए तैयार है. वह चाइनीज कल्चर स्वीकार करेगी.”

“पर भाषा? वह इतनी जल्दी चाइनीज कैसे सीख लेगी?” पापा ने सवाल किया.

“पापा वह चाइनीज जानती है. उस ने चाइनीज लैंग्वेज में ही ग्रैजुएशन किया है. वह बहुत अच्छी चाइनीज बोलती है,” इत्सिंग ने अपनी बात रखी.

 ये भी पढ़ें : विक्की : कैसे सबका चहेता बन गया अक्खड़ विक्की

 

यह जवाब सुन कर उस के पापा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. थोड़ी नानुकर के बाद उस के मांबाप ने भी मुझे अपना लिया. उस के पिता हमारी शादी के लिए तैयार तो हो गए मगर उन्होंने हमारे सामने एक शर्त रखते हुए कहा,” मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की शादी चीनी रीतिरिवाज के साथ हो. इस में मैं किसी की नहीं सुनूंगा.”

“जी पिताजी,” हम दोनों ने एकसाथ हामी भरी.

बाद में जब मैं ने अपने मातापिता को यह बात बताई तो वे अड़ गए. वे मुझे अपने घर से विदा करना चाहते थे और वह भी पूरी तरह भारतीय रीतिरिवाजों के साथ. मैं ने यह बात इत्सिंग को बताई तो वह भी सोच में डूब गया. हम किसी को भी नाराज नहीं कर सकते थे. पर एकसाथ दोनों की इच्छा पूरी कैसे करें यह बात समझ नहीं आ रही थी.

तभी मेरे दिमाग में एक आईडिया आया,” सुनो इत्सिंग क्यों न हम बीच का रास्ता निकालें. ”

आगे पढ़ें

सुगंधा लौट आई- भाग 2 : क्या थी सुगंधा की अनिल को छोड़ने की वजह?

कुछ ही दिनों में मुझे और काम मिले. मैं अकेले तो सब काम नहीं कर सकता था इसलिए मैं ने 2 नए आदमी रखे. इसलिए अलग औफिस के लिए बड़ी जगह की जरूरत पड़ी तो मैं ने 2 औफिस केबिन किराए पर लिए. बाहर वाले केबिन में मेरा स्टाफ और अंदर वाले में मैं खुद बैठता. कभीकभी सुगंधा भी आ कर मेरे साथ कुछ देर बैठती. मैं उसे पा कर बहुत खुश था. मुझे लगा मुझे मेरा मुकाम मिल गया है.

शादी के 2 साल बाद सुगंधा गर्भवती हुई. हम दोनों बहुत खुश थे. मैं उसे काफी समय देने लगा था. हर पल आने वाले मेहमान को ले कर सोचता और भविष्य का प्लान करता रहा. इस के चलते बिजनैस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था. सुगंधा मुझे बारबार आगाह करती कि वह तो आजीवन मेरे साथ है उस की इतनी ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है और अपने काम पर ज्यादा समय दे. इसी बीच उस की मां चल बसी. दुर्भाग्यवश चौथे महीने में सुगंधा का मिसकैरेज हो गया. वह बहुत उदास रहने लगी थी और डिप्रैशन में चली गई.

अब मैं अपना पहले से भी ज्यादा समय उस पर देने लगा. वह मुझे समझाती कि कुछ दिनों की बात है मैं ठीक हो जाऊंगी. मैं उसे समझाता कि उस के ठीक होने के बाद ही मैं काम पर जाऊंगा. मेरे प्रोजैक्ट्स डेडलाइन मिस करने लगे थे. नए काम का अकाल पड़ने लगा और पुराने कस्टमर भी नाराज थे. इस बीच सुगंधा बहुत कुछ ठीक हो चली थी पर मेरा बिजनैस दुबारा पटरी पर नहीं आ सका था.

मुझे अपने स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी. औफिस का किराया देने के लिए सुगंधा ने स्कूल से कर्ज लिया था. मैं फिर से अपने घर से काम करने लगा, पर काम तो था नहीं. काम ढूंढ़ना ही मेरा काम था. सुगंधा मुझे ढाढ़स देती और कहती कि काम के लिए और लोगों के पास जाऊं. मैं अपमानित महसूस कर रहा था कि कुछ दिन पहले मैं दूसरों को नौकरी देता था और अब मुझे काम के लिए दूसरों की चौखट पर जाना होगा. मुझे लगा कि सुगंधा इस बात से नाराज हुई थी.

कुछ ही दिनों के बाद अचानक मेरे जीवन में भूचाल आया. एक सुबह अचानक  सुगंधा घर से गायब थी. वह एक लिफाफा छोड़ गई थी. उस में एक पत्र था जिस में लिखा था-

मैं आप को और इस शहर को छोड़ कर जा रही हूं. आप मेरी फिक्र न करें. मैं लौट कर आप के जीवन में आऊंगी या नहीं अभी नहीं कह सकती, पर आप की यादों के सहारे मैं जी लूंगी. आप किसी की कही एक बात हमेशा याद रखें- ‘‘जिंदगी जीना आसान नहीं होता, बिना संघर्ष के कोई महान नहीं होता, जब तक न पड़े हथौड़े की चोट, पत्थर भी भगवान नहीं होता. बस आप पूरी लगन से एक बार फिर अपने काम में लगे रहिए, कामयाबी जरूर मिलेगी. मेरी दुआएं और शुभकामनाएं सदा आप के साथ हैं.’’

मैं सकते में था कि सुगंधा ने ऐसा फैसला क्यों लिया होगा. मैं ने पापा से भी उस के बारे में पूछा कि शायद उन्हें कुछ बताया हो पर उन्हें भी कुछ पता नहीं था.

मुसीबत की इस घड़ी में सिर्फ पापा मेरे साथ खड़े रहे. मैं ने सुगंधा के स्कूल में पता किया कि शायद वह इसी गु्रप के किसी दूसरे स्कूल में हो. पर सुगंधा का कोई सुराग नहीं मिला. मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. पापा ने कहा, ‘‘फिलहाल तुम काम के बारे में सोचना छोड़ दो और मैनेजमैंट करो. तुम ने पहले से मैनेजमैंट में ग्रैजुएशन कर रखा है अब तुम एमबीए करोगे. वहां से तुम्हें बहुत सारे अवसर और विकल्प मिलेंगे. मैं इस घर को गिरवी रख कर तुम्हें एमबीए करने भेज सकता हूं. इस बीच तुम्हारा ध्यान भी दुनियादारी से हट जाएगा.’’

आईआईएम अहमदाबाद भारत का सर्वश्रेष्ठ मैनेजमैंट स्कूल माना जाता है, वहां मुझे दाखिला मिला. मेरी पढ़ाई और पूर्व अनुभव के चलते मुझे दूसरे वर्ष में मल्टीनैशनल कंपनी में बहुत अच्छा प्लेसमैंट मिल गया.

पढ़ाई पूरी होने के बाद 6 महीने की ट्रैनिंग ब्रिटेन में और फिर ब्रिटेन या अन्य किसी देश में पोस्टिंग होती.

मैं मैनेजमैंट करने के बाद लंदन गया. मैं अपने नए काम और पोस्टिंग से बहुत खुश था. हर 2-3 साल के बाद मेरी पोस्टिंग ब्रिटेन के अतिरिक्त फ्रांस, इटली, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में होती रही और साथ में मुझे प्रमोशन भी मिलता रहा. इस बीच 10 साल बीत गए. इस दौरान मुझे सुगंधा के बारे में कोईर् खबर नहीं मिली. ऐसा नहीं था कि मैं उसे पूरी तरह से भूल चुका था. प्रमोशन के साथ बढ़ते टारगेट और जिम्मेदारी के चलते अपने निजी जीवन के बारे में सोचने का समय कम मिलता था. फिर भी तन्हाई के आलम में उस की बहुत याद आती और शराब भी उस गमगीन माहौल

को भुलाने में नाकाम होती थी. मन में उम्मीद अभी भी जिंदा थी कि सुगंधा शायद किसी दिन वापस आ जाए. पापा से लगभग रोजाना संपर्क होता था.

मेरी कंपनी मुंबई में अपना दफ्तर खोलने जा रही थी और मेरे एक जूनियर कलीग को इस काम के लिए मुंबई भेजा गया. पूरा औफिस सैट होने के बाद कंपनी मुझे वहां चीफ बना कर भेज रही थी. इस औफिस के लिए के कुछ सौफ्टवेयर इंजीनियर चाहिए थे. इस के लिए पहले राउंड का इंटरव्यू मेरा कलीग लेता उस के बाद उस की डिटेल्स के साथ फाइनल इंटरव्यू फोन और विडियो कौनफ्रैंस द्वारा मुझे लेना था. मेरे पास 6 लोगों के नाम आए उन में से मुझे दो इंजीनियर मुझे लेने थे. पहले राउंड के इंटरव्यू के बाद जो लिस्ट मुझे मिली उसे देख कर मैं चौंक उठा. सुगंधा लिस्ट में टौप पर थी. पहले मुझे कुछकुछ संदेह हुआ कि शायद कोई और सुगंधा हो जब मैं ने उस का पूरा बायोडाटा देखा तो पाया कि वह मेरी सुगंधा ही थी. उस ने बीसीए के बाद एमसीए किया और पिछले 5 वर्षों से एक कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर थी. मैं ने सुगंधा का फाइनल विडियो इंटरव्यू लिया. मैं ने 10 वर्षों से दाढ़ी बढ़ा रखी थी, आंखों पर चश्मा चढ़ गया था और कनपटी के बालों पर सफेदी थी. शायद उस ने मुझे पहचाना नहीं, मैं ने औफिस को बोल रखा था कि मेरा नाम उसे नहीं बताया जाए बस चीफ ऐग्जीक्यूटिव बोला जाए.

बहुत दिनों के बाद सुगंधा की तस्वीर देख कर मुझे जो खुशी मिली उसे शब्दों में मैं बयां नहीं कर सकता. मुझे उस के फोटो से ही सुगंधा की खुशबू का अहसास हो रहा था जो मेरे मन को तरंगित कर जाता. उस ने अपने को बड़ी खूबसूरती से मैंटैन कर रखा था. खैर उस का इंटरव्यू पूरा हुआ. मुझे उसे सिलैक्ट करना ही था, इसलिए नहीं कि वह मेरी ऐक्स थी. वह अपनी काबीलियत के बल पर टौपर थी.

मैं ने अपने मुंबई वाले कलीग से कहा कि बिना मेरे बारे में सुगंधा को बताए वह मेरे बारे में उस के मन की बात जानने की कोशिश करे. निजी बातें होशियारी से करे ताकि उसे संदेह नहीं हो. सुगंधा से बात कर उस ने फोन पर कहा, ‘‘आप के लिए मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े. मैं ने जब उस से पूछा कि आप के परिवार में आप के अलावा और कौनकौन हैं तो उस ने कहा मैं ही मेरा परिवार हूं.

आगे पढ़ें

विश्वासघात- भाग 1: आखिर क्यों वह विशाल से डरती थी?

लेखक- सुधा आदेश

‘‘आंटी, आप पिक्चर चलेंगी?’’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा.

‘‘पिक्चर…’’

‘‘हां आंटी, नावल्टी में ‘परिणीता’ लगी है.’’

‘‘न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ. तुम दोनों के साथ मैं बूढ़ी कहां जाऊंगी,’’ कहते हुए अचानक नमिता की आंखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को पिक्चर जाते देख वह भी उन के साथ पिक्चर जाने की जिद कर बैठी थीं.

उन की पेशकश सुन कर बहू तो कुछ नहीं बोली पर बेटा बोला, ‘मां, तुम कहां जाओगी, हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है…वहां से हम सब खाना खा कर लौटेंगे.’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाईं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिलकुल भी पसंद नहीं थी. बच्चों के जाने के बाद अपने मन का क्रोध विशाल पर उगला तो वह शांत स्वर में बोले, ‘नमिता, गलती तुम्हारी है, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, उन की अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह छोटे बच्चों की तरह उन की जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो. तुम्हें पिक्चर देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जा कर देख आएंगे.’

विशाल की बात सुन कर वह चुप हो गई थीं…पर दोस्त के लिए बेटे द्वारा नकारे जाने का दंश बारबार चुभ कर उन्हें पीड़ा पहुंचा रहा था. फिर लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं…कल तक उंगली पकड़ कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बडे़ हो गए हैं और उस में बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यों आती जा रही है. उस की सास अकसर कहा करती थीं कि बच्चेबूढे़ एक समान होते हैं लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जानेअनजाने उन्हीं की तरह बरताव करने लगी है.

ये भी पढ़ें- रैना

यह वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या पिक्चर जाना होता तो खुद पापा से कहने के बजाय उन से सिफारिश करवाता था. सच, समय के साथ सब कितना बदलता जाता है…अब तो उसे उन का साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि अब वह उस की नजरों में ओल्ड फैशन हो गई हैं, जिसे आज के जमाने के तौरतरीके नहीं आते, जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थीं. लोग उन की जिंदादिली के कायल थे.

‘‘आंटी किस सोच में डूब गईं… प्लीज, चलिए न, ‘परिणीता’ शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित अच्छी मूवी है…आप को अवश्य पसंद आएगी,’’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा.

शेफाली की आवाज सुन कर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आईं. शरतचंद्र उन के प्रिय लेखक थे. उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी की पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी थी, उपन्यास भी पढ़ा था फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुन: उस पिक्चर को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं तथा उस का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन की सहमति पा कर शेफाली उन्हें तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई.

विशाल अपने एक नजदीकी मित्र के बेटे के विवाह में गए थे. जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहां पर उन की सहेली की बेटी का विवाह पड़ गया अत: विशाल ने कहा कि मैं वहां हो कर आता हूं, तुम यहां सम्मिलित हो जाओ. कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले. वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आ कर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिए दोनों जगह जाना जरूरी था.

विशाल के न होने के कारण वह अकेली बोर होतीं या व्यर्थ के धारावाहिकों में दिमाग खपातीं, पर अब इस उम्र में समय काटने के लिए इनसान करे भी तो क्या करे…न चाहते हुए टेलीविजन देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है. ऐसी मनोस्थिति में जी रही नमिता के लिए शेफाली का आग्रह सुकून दे गया तथा थोडे़ इनकार के बाद स्वीकर कर ही लिया.

वैसे भी उन की जिंदगी ठहर सी गई थी. 4 बच्चों के रहते वे एकाकी जिंदगी जी रहे हैं…एक बेटा शैलेष और बेटी निशा विदेश में हैं तथा 2 बच्चे विभव और कविता यहां मुंबई और दिल्ली में हैं. 2 बार वे विदेश जा कर शैलेष और निशा के पास रह भी आए थे लेकिन वहां की भागदौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी. विदेश की बात तो छोडि़ए, अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है. वहां भी पूरे दिन अकेले रहना पड़ता था. आजकल तो जब तक पतिपत्नी दोनों न कमाएं तब तक किसी का काम ही नहीं चलता…भले ही बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में छोड़ना पडे़.

एक उन का समय था जब बच्चों के लिए मांबाप अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते थे…पर आजकल तो युवाओं के लिए अपना कैरियर ही मुख्य है…मातापिता की बात तो छोडि़ए कभीकभी तो उन्हें लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की परवा भी नहीं है…पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उन के पास बैठ कर, प्यार के दो मीठे बोल के लिए समय नहीं है.

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो वे लौट कर अपने घर चले आए. विशाल ने इस घर को बनवाने के लिए जब लोन लिया था तब नमिता ने यह कह कर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोडे़ ही रहेंगे, 4 बच्चे हैं, वे भी हमें अकेले थोडे़ ही रहने देंगे पर पिछले 4 साल इधरउधर भटक कर आखिर उन्होंने अकेले रहने का फैसला कर ही लिया. कभी बेमन से बनवाया गया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था.

अकेलेपन की विभीषिका से बचने के लिए अभी 3 महीने पहले ही उन्होंने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था…शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उन का एक छोटा बच्चा था…इस शहर में नएनए आये थे, शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उन्हें घर की जरूरत थी और विशाल और नमिता को अच्छे पड़ोसी की, अत: रख लिया.

ये भी पढ़ें- क्योंकि वह अमृत है…

अभी उन्हें आए हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली आ कर उन से कहने लगी कि ‘आंटी, अगर आप को कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आप के पास छोड़ जाऊं, कुछ जरूरी काम से जाना है, जल्दी ही आ जाएंगे.’

उस का आग्रह देख कर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाईं…उस बच्चे के साथ 2 घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. इस बीच न तो वह रोया न ही उस ने विशेष परेशान किया. नमिता ने उस के सामने अपने पोते के छोडे़ हुए खिलौने डाल दिए थे, उन से ही बस खेलता रहा. उस के साथ खेलते और बातें करते हुए उन्हेें अपने पोते विक्की की याद आ गई. वह भी लगभग इसी उम्र का था…उस बच्चे में वह अपने पोते को ढूंढ़ने लगीं.

उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, नमिता आवाज दे कर उसे बुला लेतीं…बच्चा उन्हें दादी कहता तो उन का मन भावविभोर हो उठता था.

धीरेधीरे शेफाली भी उन के साथ सहज होने लगी थी. कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रहपूर्वक दे जाती. उन्हें अपने पैरों में दवा या तेल मलते देखती तो खुद लगा देती, कभीकभी उन के सिर की मालिश भी कर दिया करती थी…कभीकभी तो उन्हें लगता, इतना स्नेह तो उन्हें अपने बहूबेटों से भी नहीं मिला, कभी वे उन के नजदीक आए भी तो सिर्फ इतना जानने के लिए कि उन के पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें हिस्सा मिलेगा.

शशांक भी आफिस जाते समय उन का हालचाल पूछ कर जाता…बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था. यहां तक कि बाजार जाते हुए भी अकसर उन से पूछने आता कि उन्हें कुछ मंगाना तो नहीं है.

उन के रहने से उन की काफी समस्याएं हल हो गई थीं. कभीकभी नमिता को लगता कि अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं चलो, दूसरे की औलाद जो सुख दे रही है उसी से झोली भर लो.

विशाल ने उन्हें कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उन को यह कह कर चुप करा देतीं कि आदमी की पहचान उसे भी है. ये संभ्रांत और सुशील हैं. अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के समय में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता.

‘‘आंटीजी, आप तैयार हो गईं…ये आटो ले आए हैं,’’ शेफाली की आवाज आई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें