बहुत देर से कोई बस नहीं आई. मैं खड़ेखड़े उकता गई. एक अजीब सी सुस्ती ने मुझे घेर लिया. मेरे आसपास लोग खड़े थे, बतिया रहे थे, कुछ इधरउधर विचर रहे थे. मैं उन सब से निर्विकार अपने अकेलेपन से जू?ा रही थी. निगाह तो जिधर से बस आनी थी उधर चिपक सी गई थी. मन में एक प्रश्न यह भी उठ रहा था कि मैं जा क्यों रही हूं? न अम्मा, न बाबूजी, कोई भी तो मेरा इंतजार नहीं कर रहा है. तो क्या लौट जाऊं? पर यहां अकेली कमरे में क्या करूंगी. होली का त्योहार है, आलमारी ठीक कर लूंगी, कपड़े धो कर प्रैस करने का समय मिल जाएगा. 4 दिनों की छुट्टी है. समय ही समय है. सब अपने घरपरिवार में होली मना रहे होंगे. किसी के यहां जाना भी अजीब लगेगा…नहीं, चली ही जाती हूं. क्या देहरादून जाऊं शीला के पास? एकाएक मन शीला के पास जाने के लिए मचल उठा.

शीला, मेरी प्यारी सखी. हमारी जौइनिंग एक ही दिन की है. दोनों ने पढ़ाई पूरी ही की थी कि लोक सेवा आयोग से सीधी भरती के तहत हम इंटर कालेज में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गए. प्रथम तैनाती अल्मोड़ा में मिली.

अल्मोड़ा एक सुंदर पहाड़ी शहर है जहां कसबाई संस्कृति की चुलबुलाहट है. सुंदर आबोहवा, रमणीक पर्यटन स्थल, खूबसूरत मंदिर, आकार बदलते ?ारने, उपनिवेश राज के स्मृति चिह्न, और भी बहुत कुछ. खिली धूप और खुली हवा. ठंडा है किंतु घुटा हुआ नहीं. मैदानी क्षेत्रों की न धुंध न कोहरा. सबकुछ स्वच्छनिर्मल. जल्दी ही हमारा मन वहां रम गया.

दोनों पढ़ने वाले थे. शीघ्र ही हमारी दोस्ती परवान चढ़ने लगी. साथ भोजन करने से खाने का रस बना रहा. पहाड़ी जगह, सीधेसरल जन, रंग बदलते मौसम, रसीले फल और शाम को टहलना, सेहत तो बननी ही थी.

स्कूल की बंधीबंधाई दिनचर्या के उपरांत कुछ शौपिंग, कुछ बतियाना, स्फूर्तिपूर्वक लगता था. अन्यथा स्कूल का माहौल, बाप रे, ऐडमिशन, टाइमटेबल, लगातार वादन, होमवर्क, यूनिट टैस्ट, छमाही, सालाना, कौपियां, रिजल्ट, प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सदन, पत्रिका, संचयिका, अभिभावक संघ, बैठकें, प्रीबोर्ड, बोर्ड परीक्षा, गृह परीक्षा, प्रैक्टिकल्स…उफ, कहीं कुछ चूक हो जाए तो दुनियाभर की फजीहत. इन सब के बाद सवा महीने की गरमियों की छुट्टी. अधिकांश उड़ जाते अपने स्थायी बसेरों की ओर. मैं भी अल्मोड़ा के शीतल मनोहारी वायुमंडल को त्याग तपते आगरा में अम्माबाबूजी की शीतल छांव में जाने को बेताब रहती.

 

अम्माबाबूजी की दवा, खुराक, सामाजिक व्यवहार, कपड़ों की खरीदारी में कब ग्रीष्मावकाश फुर्र हो जाता, कुछ पता ही नहीं चलता. आतेआते भी, ‘मैं जल्दी आऊंगी,’ कह कर ही निकल पाती.

बीच में कुछ दिन देहरादून में दीदी और जीजाजी के पास रहती. वे भी इंतजार सा करते रहते. दीदी कमजोर थीं, 3 बच्चे छोटेछोटे. किसी भी जरूरत पर मु?ो जाना पड़ता था. मेरे बारबार चक्कर काटने से शीला खी?ा जाती. एक दिन तो फट पड़ी.

गजब की ठंड थी. पहाडि़यां बर्फ से लकदक हो गई थीं. रुकरुक कर होती बारिश ने सब को घरों में रहने को मजबूर सा कर दिया था. बर्फीली हवा ने पूरी वादी को अपने आगोश में ले लिया था. मैं छुट्टी की अप्लीकेशन और लैब की चाबी लिए शीला के घर की ओर चल दी. दरवाजा खटखटाया. कुछ देर यों ही खड़ी रही. शीला को आने में समय लगा. बिस्तर में रही होगी. हाथ में बैग देखते ही बोली, ‘इस मौसम में, इतनी ठंड में चिडि़या भी घोंसले में दुबकी है और एक तू है जो बर्फीली हवा की तरह बेचैन है.’

‘देहरादून से जीजाजी का फोन आया है. हनी को चोट लग गई है. शायद औपरेशन कराना पड़े.’

‘तेरे तो कई औपरेशन कर दिए इस बुलावे ने,’ शीला ने बात पूरी सुने बिना जिस विद्रूपता से मेरे हाथ से चाबी और अप्लीकेशन ?ापट कर दरवाजा खटाक से बंद किया, बरसों बाद भी उस का कसैलापन धमनियों में बहते खून में तिरने लगता है. शीला की बात से नहीं, हनी के व्यवहार से.

पिछली बार जब मैं उबाऊ और मैले सफर के बाद देहरादून पहुंची तो बड़ी देर तक हनी और बहू मिलने नहीं आए. हनी के मुख से निकले वाक्य ‘मौसी फिर आ गई हैं’ ने अनायास मु?ा से मेरा साक्षात्कार करा दिया. ऐसा नहीं था कि उन की आंखों में धूमिल होती प्रसन्नता की चमक और लुप्त होते उत्साह को मैं महसूस नहीं कर रही थी किंतु मैं अपने भ्रमजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही थी. सबकुछ बदल रहा था, केवल मैं रुकी हुई थी. शीला ठीक कहती थी, ‘निकल इस व्यामोह से, सब की अपनी जिंदगी है. किसी को तेरी जरूरत नहीं. सब फायदा उठा रहे हैं. अपनी सुध ले.’

मु?ो बेचैनी सी होने लगी. बैग से पानी की बोतल निकाली. कुछ घूंट पिए. इस बीच एक बस आई थी. ठसाठस भरी. मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पाई. लोग सरकती बस में लटकते, चिपकते और ?ालते चले गए.

धीरेधीरे मु?ो लगने लगा कि अम्माबाबूजी की मु?ा पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी. वे हर चीज के लिए मेरी राह देखने लगे. मु?ो गर्व होने लगा, अपने लंबे भाइयों का कद छोटा होते देख. उन को यह जताने में मु?ो पुलक का अनुभव होने लगा कि मेरे रहते हुए अम्माबाबूजी को किसी बात की कोई कमी नहीं है, उन्हें बेटों की कोई दरकार नहीं. भाईभतीजे कुछ खिंचेखिंचे रहने लगे थे. भाभियां कुछ ज्यादा चुप हो गईं. पर मैं ने कब परवा की. बीचबीच में बाबूजी मु?ो इशारा करते थे परंतु मैं ने बात को छूने की कभी कोशिश ही नहीं की.

आज अम्माबाबूजी नहीं हैं. बादलों का वह ?ांड टुकड़ेटुकड़े हो गया जिसे मैं ने शाश्वत सम?ा लिया था.

पहले बाबूजी गए. 93 वर्ष की उम्र में भरेपूरे परिवार के बीच जब उन की अरथी उठी तो सब ने उन्हें अच्छा कहा. उसी कोलाहल में एक दबा स्वर यह भी उभरा कि बेटी को अनब्याहा छोड़ गए. कोई और समय होता तो मैं उस शख्स से भिड़ जाती. पर अब लगता है, अम्माबाबूजी बुजुर्ग हो गए थे किंतु असहाय नहीं थे. उन्होंने मेरे रिश्ते की सरगरमी कभी नहीं दिखाई. जैसे उन्होंने यह मान लिया था कि मैं विवाह करूंगी ही नहीं.

मेरी समवयस्का सखी शीला के घर से जबतब उस के लिए रिश्ते के प्रस्ताव आते रहते. एक रूमानियत उस की आंखों में तैरने लगी थी. बोलती तो जैसे परागकण ?ार रहे हों, चेहरे का आकर्षण दिन पर दिन बढ़ने लगा था. वह मु?ा से बहुतकुछ कहना चाहती थी पर मेरे लिए तो जैसे वह लोक था ही नहीं. आखिर, वह मु?ा से छिटक गई और अकेले ही अपने कल्पनालोक में विचरने लगी.

फिर एकाएक एक दिन उस ने मेरे हाथ में अपनी शादी का कार्ड रख दिया- शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तुते…मैं पंक्ति को पढ़ती जाती और अर्थ ढूंढ़ती जाती. शीला खीझ गई, ‘मेरी शादी है. फुरसत मिले तो आ जाना. मैं आज जा रही हूं.’ मैं उसे देखती रह गई.

शादी के बाद शीला वर्षभर यहां और रही. उस के पति शेखर ने पूरा जोर लगा दिया उस का देहरादून तबादला कराने में. शेखर वहां ‘सर्वे औफ इंडिया’ में अधिकारी थे. कोशिश करतेकरते भी सालभर लग गया. इस बीच वे शीला के पास यहां आते रहे. जब शेखर यहां आते तो मेरी एक सीमारेखा खिंच जाती. परंतु शीला मेरा पहले से भी अधिक खयाल रखने लगती. कोशिश करती कि मैं खाना अकेले न बनाऊं. मैं न जाती तो खाना पहुंचा देती. बहुत मना करती तो दालसब्जी तो जरूर दे जाती. शेखर के स्वभाव में गंभीरता दिखती थी इसलिए मिलने से बचती रही. लेकिन इस गंभीरता के नीचे सहृदयता की निर्मल धारा बह रही है, यह धीरेधीरे पता चला. अपनेआप ?ि?ाक कम होती चली गई और उन में मु?ो एक शुभचिंतक नजर आने लगा.

इसी दौरान शेखर ने मु?ो अरविंद के बारे में बताया, जो उन्हीं के औफिस में देहरादून में कार्यरत था. एक सरकारी कार्य के बहाने उसे अल्मोड़ा बुला कर मेरी मुलाकात भी करा दी. अरविंद ने मु?ो आकर्षित किया. अपने प्रति भी उस की रुचि अनुभव की. शेखर और शीला के दांपत्य के शृंगार का सौंदर्य देख चुकी थी. मैं विवाह के लिए उत्कंठित हो गई. शीला का भी आग्रह बढ़ता गया. कई प्रकार से वह मु?ो सम?ाती.

‘अम्माबाबूजी हमेशा नहीं रहेंगे. पीतपर्ण हैं…कभी भी ?ार जाएंगे. फिर वे अपना जीवन जी चुके हैं. बिंदु, तू बाद में पछताएगी. सोच ले.’

‘ठीक है, अम्माबाबूजी को मैं नहीं छोड़ पाऊंगी पर इस संबंध में तुम मेरे जीजाजी से बात करो,’ मैं ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी स्वीकृति दे दी.

शीला हर्षित हो गई जैसे उसे कोई निधि मिल गई हो. तुरतफुरत उस ने शेखर की जीजाजी से बात करा दी. जीजाजी ने जिस उखड़ेपन से बात की वह शेखर के उत्साह को क्षीण करने के लिए काफी थी. वह बात नहीं थी, कटाक्ष था.

‘अच्छा, तो हमारी साली के रिश्ते की बातें इतनी सार्वजनिक हो गई हैं. आप उस की कलीग शीला के पति बोल रहे हैं न. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है. घर में बिंदु के बहुत हितैषी हैं.’

शीला अपने पति के अपमान से तिलमिला गई. रोंआसी हो कहने लगी, ‘बिंदु, तेरे जीजाजी कभी तेरी शादी नहीं होने देंगे. अम्माबाबूजी के बस की बात नहीं और भाइयों की हद से तू निकल चुकी है. तु?ो स्वयं फैसला लेना होगा.’
पर मैं तो अपने बारे में कभी फैसला ले ही नहीं पाई. धीरेधीरे बात काल के गर्भ में समा गई. शेखर और शीला ने फिर कभी मेरे रिश्ते की बात नहीं की. पर हां, उन्होंने मु?ो देहरादून में जमीन या फ्लैट खरीदने को दोएक बार अवश्य कहा.

‘बिंदु, जमीन के दाम बढ़ते जा रहे हैं. तू समय रहते देहरादून में अपना मकान पक्का कर ले. अपना ठिकाना तो होना चाहिए.’

मैं चौंक गई. मैं और मकान. मैं पलट कर बोली, ‘देहरादून में मेरे दीदीजीजाजी हैं. एक जीजाजी सहारनपुर में हैं. मेरे लिए मकानों की कमी नहीं है.’

अब सबकुछ मेरी आंखों के सामने है. पिछली बार देहरादून गई तो सीधे शीला के पास चली गई थी. शीला प्रसन्न हुई, उस से अधिक हैरान. उस के 2 सुंदर बच्चे हमेशा की तरह मु?ा से चिपक गए. उन के लिए जो लाई थी, उन्हें पकड़ा दिया. शीला बिगड़ी. मैं चुप रही. शीला कुछ ढूंढ़ने लगी. बच्चों को लौन में खेलने भेज दिया.

‘बिंदु, कुछ परेशान लग रही है. सब ठीक है न?’

मेरा गला भर आया. स्वयं पर दया आने का यह विचित्र अनुभव था. शब्द नहीं निकल पाए. शीला पानी ले आई.

‘अच्छा, पहले पानी पी ले. थोड़ा आराम कर ले,’ कह कर शीला रसोई की ओर जाने लगी. मैं ने रोक दिया.

‘शीला, शेखर से कहना कि मेरे लिए कोई छोटा सा फ्लैट देख लें…’

शीला फट पड़ी, ‘अब आया तु?ो होश. जब पहले कहा था कि अपने लिए मकान देख ले तब तो तू ने कहा था कि मेरे बहुत सारे मकान हैं. कहां गए वे सारे मकान? अब याद आ रही है मकान खरीदने की, वह भी देहरादून में.’

शीला और उस के पति ने मकान ढूंढ़ने की कवायद शुरू कर दी. जमीन भी देखी, जमीन शहर से बहुत दूर थी, अकेली प्रौढ़ा के लिए ठीक नहीं लगा और शहर में फ्लैट बहुत महंगे थे. धीरेधीरे दोनों चीजें मेरी पहुंच से बहुत दूर चली गईं.

अब अम्मा भी नहीं रहीं. बाबूजी के जाने के 6 वर्ष बाद अम्मा भी छोड़ कर चली गईं. ऐसा लगने लगा कि जैसे मेरे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया. अब कहां जाऊं? सचमुच एक व्यामोह में कैद थी मैं. अब भ्रम टूटा तो 52 वर्ष की फिसलती उम्र के साथ अकेली खड़ी हूं…

भीड़ में कुछ हलचल हुई. शायद कोई बस आ रही है. बैग संभाल लिए. बस आ गई. रेले में मैं भी यंत्रवत सी बस में चढ़ गई. मंजिल हो न हो, सफर तो है ही.

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